गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

यादों के आइने में कवि बच्चन...



[छठी क़िस्त]

20  नवम्बर 1978  को जब मैं सपत्नीक बच्चनजी से आशीर्वाद लेने पिताजी के साथ जाने लगा तो विवाह में सम्मिलित होने पटना से आये मेरे एक कविमित्र कुमार दिनेश भी साथ हो लिए। हम सभी एक टैक्सी में सवार होकर विलिंगटन क्रिसेंट पहुंचे। घर का लौह्द्वार बंद था और उसपर एक संतरी विराजमान था। हमारी टैक्सी को द्वार पर ही रुकना पडा। दिनेशजी थोड़े चिंतित दिखे; लेकिन जैसे ही पिताजी का नाम संतरी ने दूरभाष पर घर के अन्दर पहुंचाया, द्वार खोलकर हमें अन्दर बुला लिया गया। बच्चनजी और तेजीजी ने हमें बड़े स्नेह से अपने पास बिठाया और बातें कीं। पिताजी और बच्चनजी जब भी मिलते, उन दोनों की उड़ान अलग होती। इतनी बातें कि मत पूछिये ! कई बार तो वे दोनों भूल ही जाते कि उनके आसपास और भी लोग हैं जो अधीरता से अपनी बात कहने या कुछ पूछने को व्यग्र हैं। विवाह की मिठाइयों से अघाए हुए हमलोगों ने वहाँ फिर मिठाइयाँ खायीं और कॉफ़ी पी।

पिताजी और बच्चनजी की वार्ता में एक अल्प-विराम का लाभ उठाकर अचानक मेरे मित्र कुमार दिनेश ने पूछा--"तेरह अंक को सर्वत्र अशुभ माना गया है। जब आप 13 विलिंगटन क्रिसेंट में रहने आये, तो क्या आपके मन में इस अंकवाले भवन को लेकर कोई असमंजस या दुविधा उत्पन्न नहीं हुई ?" दिनेश का प्रश्न सुनकर बच्चनजी गंभीर हो गए और थोड़ी देर मौन रहकर बोले--"ऐसा प्रश्न आज तक मुझसे किसी ने नहीं पूछा; लेकिन प्रारंभिक दौर में यह सवाल मेरे मन में बार-बार उठाता रहा और मैं किंचित उद्विग्न भी रहा। इस सवाल को लेकर मेरे अंतःकरण में चिंतन चलता रहा। अंततः उसका समाधान भी मुझे अंतर्मन से मिल ही गया। गुरु नानकदेवजी जब छोटे थे, तो उन्हें उनके पिताजी ने कपास की तिजारत करनेवाली अपनी दूकान की गद्दी पर बिठा दिया था, जहां बैठे-बैठे कपास की गांठों की तौल की गिनती भर करनी थी। गुरु नानकदेवजी यह काम करने लगे। पहली तौल पर वह कहते--'एक्क-म एक', दूसरी तौल पर 'दुई -ए दू'... और इसी तरह यह क्रम चलता जाता. एक दिन गुरु नानकदेवजी इसी तरह रुई की गांठों की तौल की गणना कर रहे थे--'एक्क-म एक', दुई-ए दू, तीन-इ तीन....इसी तरह आगे बढ़ते हुए गिनती जब तेरह पर पहुंची तो गुरु नानकदेवजी के कानों में गिनती के स्वर पड़े--'तेर-इ तेरा... तेर-इ तेरा...' ! और उन्हें प्रकाश मिल गया, ज्ञान मिल गया, बोध की प्राप्ति हो गई कि यह सब तेरा ही तो है प्रभु! मैंने भी 13 विलिंगटन क्रिसेंट को प्रभु-चरणों में अर्पित कर दिया और निश्चिन्त हो गया. और देखिये, यहाँ रहते हुए जो थोड़ी-बहुत यश-प्रतिष्ठा मैंने पायी है, जो मान-सम्मान मुझे मिला है, यह इसी विश्वास का फल है. मैंने पभु की कृपा पाकर इस भवन में सुख से अपना समय व्यतीत किया है। मैं संतुष्ट हूँ।"

बच्चनजी की इस व्याख्या से न सिर्फ दिनेशजी, बल्कि हम सभी चकित-विस्मित और परितुष्ट हुए थे। पिताजी ने अपना दायाँ हाथ ऊपर उठाकर (भगवान् की ओर इंगित करते हुए) बच्चनजी से कहा था--"मैंने तो उसे अपना सेक्रेटरी बना लिया है। मेरे योग-क्षेम की सारी चिंता वही करता है, यह कम-से-कम तुम अच्छी तरह जानते हो।" बच्चनजी बोले--"हाँ, जानता हूँ, वह तुम्हारा निजी-सचिव है।" सबों की सम्मिलित हंसी ड्राइंग रूम में गूँज उठी थी। बात हंसी में बिखर तो गई थी, लेकिन पिताजी की यह दृढ़ आस्था आजीवन बनी रही।

मेरी श्रीमतीजी को सहज ही यह विश्वास नहीं हो रहा था कि वह बच्चनजी के घर में आ पहुंची हैं। वह थोड़ी घबराई-शरमाई-सी सिर झुकाए बैठी थीं। तभी तेजीजी अन्दर गयीं और प्लास्टिक का एक पैकेट लेकर लौटीं। उन्होंने उसे खोला और एक साड़ी निकालकर बच्चनजी को देने लगीं। बच्चनजी बोले--"इसे आप ही बहू के हाथों में दीजिये।" तेजीजी ने साधना के पास आकर वह तह की हुई साड़ी उनके हाथों में सौंप दी और स्नेह से साधना के सिर पर हाथ रखकर उन्हें आशीष दिया। थोड़ी गप-शप के बाद हम विदा लेने को उठे। साधनाजी  उठकर खड़ी ही हुई थीं कि शगुन की तह की हुई साड़ी के बीच से एक रुपये का सिक्का फर्श पर आ गिरा। उसकी खनक पर सबों का ध्यान गया। बच्चनजी ने थोड़े इलाहाबादी अंदाज़ में साधनाजी से कहा था--"बिटिया, अभी से रुपया पकड़ना सीख लो, पूरी गृहस्थी संभालने की यही कुंजी है। उनकी इस टिप्पणी पर सभी हंस पड़े थे और साधनाजी संकुचित हो उठी थीं।
[क्रमशः]

2 टिप्‍पणियां:

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

बहुत ही रोचक प्रसंग. बाद में दीदी ने बताया था, कि उन्होंने वो सिक्का संभाल के रखा है, शायद अभी भी हो उनके पास :)

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

नहीं! शादी के बाद दिल्ली से विदा होते हुए दिनेशजी ने वह सिक्का आपकी दीदी से मांग लिया था! अब तक वह दिनेशजी के पास सुरक्षित है शायद !!
--आ.