शुक्रवार, 4 मई 2018

इन्द्रलोक-सा गोवा : जितना भव्य, उतना ही मदहोश...(4)

पूरी शाम समुद्र-तट पर बीत गयी। अंधकार होते ही तट पर दौड़ती जीप ध्वनि-विस्तारक यंत्र से उद्घोषणा कर रही थी--'पर्यटक समुद्र से बाहर निकल आयें। आज पूरे चाँद की रात है। समंदर की तरंगें असंयमित हो सकती हैं।' देखते-देखते लोग समुद्र से निकलकर तट पर आ गये। और, भीड़ छँटने लगी। 8 बजते ही हम भी तट से दूर किनारे-किनारे वेलेंकिनी की ओर चले। रात का भोजन तो वहीं करना था। तट और वेलेंकिनी रिसोर्ट के मध्य बनी मड़ैया जन-शून्य हो गयी थी। मैंने अपने झोले में तीव्र प्रकाश देनेवाली चोरबत्ती पहले ही रख ली थी। उसी के प्रकाश में टटोलते और बालू की गडमड राह धाँगते हुए हम सभी वेलेंकिनी की मड़ैया में पहुँचे और दो शय्या पर जमकर बैठ गए। बिगफुुट की यात्रा को लेेेेकर हमारी जो चर्चा शुुुुरू हुई, वह अनेेक अविस्मरणीय अनुभवों, अनुभूतियों, विचारों और गीत-संंगीत की यात्रा करती हुई कविता पर आ ठहरी। कविता का मैैैदान मेरा मैदान था। वायु के निर्मल झकोरों में झूूमते हुुए मैंने आशु कविता की--

'गोवा के बीच से...

समुद्री हवाओं से चुरा रहा हूँ चंद साँसें
जिंदगी के भँवर से ही
मिलती हैं,
ज़िंदगी की साँसें,
तुम करीब हो तो ऐसा लगता है
जिंदगी से भरी हैं समुद्री साँसें...!'

सचमुच, तरंगित हवाएँ तो मदहोश कर देनेवाली थीं। हम सभी आनन्दमग्न थे। साढ़े नौ-दस बजते ही पीतवर्णी पूर्णचन्द्र आकाश में प्रकट हुए। चन्द्र की ज्योत्सना से अंधकार मुँह छुपाने लगा। समुद्र प्रसन्नता से हाहाकर करने लगा। उसकी घोर गर्जना तट और वेलेंकिनी रिसोर्ट के मध्य बनी मड़ैया तक हमें स्पष्ट सुनाई पड़ रही थी और हम आन्दोलित हो रहे थे। तीव्र समीरण हमें झकझोरने लगा। ओह, वे अविस्मरणीय क्षण थे!... मैं आज तक समझ न सका कि चन्द्र-दर्शन से समुद्र इतना उतावला और उन्मत्त क्यों हो जाता है। जीवन में मैंने भी तो देखी हैं जाने कितनी चन्द्रमुखियाँ, मैं तो कभी उतावला-उन्मत्त न हुआ। उसी रात विचार करके मैंने जाना कि उन्मत्त होने के लिए समंदर-सी विराट् सत्ता होनी चाहिये। समंदर तो क्या, मैं गड्ढे-सा जल-पात्र भी कहाँ था?... रात्रि-भोजन के दौरान हमने निश्चय किया कि कल हम मीठे पानी की झील (लैगून) के दर्शन करने चलेंगे। भोजनोपरांत हम समुद्र का किनारा पकड़कर चोरबत्ती के मद्धम प्रकाश में पथ-दर्शन करते हुए अपनी पर्णकुटी में लौट आये। अत्यधिक उत्साह में समुद्र तट पर चढ़ आया था और भीषण गर्जन-तर्जन करता हुआ भयावह लग रहा था।....

दूसरे दिन की चर्या भी सूर्योदय-दर्शन, व्यायाम और समुद्र-स्नान से शुरू हुई। तट के सेवक ने बताया कि पिछली रात एक बड़ा-सा कच्छप समुद्र की उत्तुंग लहरों में बहता हुआ किनारे की रेत पर आ गया था, उसे उठाकर समुद्र में सादर पहुँचाया गया। ऐसी  मान्यता और ऐसा विधान है कि जिस तट पर कच्छपराज की अपमृत्यु हो जाती है, उस तट को बंद कर दिया जाता है, वह तट पर्यटकों के उपयोग के योग्य नहीं रह जाता। वहाँ कच्छपराज को पूज्य और वंदनीय माना जाता है, जैसी मान्यता राजस्थान के मरु-प्रदेश में काले हिरण की है।...

बहरहाल, तट से निवृत्त होकर हम तैयार हुए और जलपान किये बगैर मृदु जल की झील के दर्शन को चल पड़े। बीस मिनट के कार के सफ़र के बाद एक तट पर सुरक्षित पार्किंग में गाड़ी छोड़नी पड़ी, फिर शुरू हुई बाज़ार और सँकरे पहाड़ी मार्गों से एक लंबी पद-यात्रा। वह ऊँचा-नीचा मार्ग हमें बाज़ार से निकाल कर समुद्र के ठीक किनारे-किनारे ले चला, जहाँ से समुद्र का विशाल और विहंगम दृश्य दीख रहा था। तट पर छोड़ गया जो सागर छोटे-बड़े शिलाखण्ड, उन्हें समुद्र के जल ने क्षार-क्षार करके उनका फाॅसिल्स बना दिया था। ऐसा प्रतीत होता था कि वे शिलाखण्ड वर्षों-बरस समुद्र के खारे जल का अपघर्षण झेलते रहे होंगे।...
उसी रास्ते पर जो पहला भोजनालय मिला, हमने उसी का आश्रय लिया, ताकि जलपान हो जाए; लेकिन वहाँ के दक्षिण भारतीय खाद्य पदार्थों में कुछ अजीब-सी दुर्गंध थी। अधिक कुछ ग्रहण किया न जा सका। किंचित् विश्राम के बाद हम आगे बढ़ चले।

मार्ग में एक विदेशी जोड़ा मिला। पति किसी बात से रुष्ट रहा होगा, वह एक ऊँचे स्थान पर जा रुका। पत्नी बड़बड़ाती आगे चली गयी। मेरी श्रीमतीजी वहीं एक दूकान में चली गयी थीं। मैं उनकी प्रतीक्षा में बाहर उसी व्यक्ति के पास ठहरा हुआ था। मैंने देखा, वह गोरा-चिट्टा विदेशी बिना रुके, धूमपान करते हुए, किसी अनजानी भाषा में कुछ बोलता जा रहा था लगातार। लेकिन स्वर उसका संयत था। थोड़ी देर बाद मैंने देखा, उस विदेशी की पत्नी हैरान-परेशान लौटकर चली आ रही है। तभी श्रीमतीजी भी दुकान से निकल आयीं और मुझे दूर खड़ा देखकर मेरे चित्र उतारती करीब आयीं। दो-दो श्रीमतियों की आमद एक साथ ही हुई लगभग।... अपने पति के करीब आकर वह स्त्री उसे कुछ समझाने का प्रयास करने लगी। पति बिदका हुआ था, वह प्रतिवाद करता हुआ-सा लगा। मैं सपत्नीक इस विवाद का मूक प्रत्यक्षदर्शी बना रहा। दोनों की तीखी वार्ता पाँच-सात मिनट तक चलती रही। वे न जाने किस भाषा में निरंतर बोल रहे थे--रशियन, फ्रेंच, जर्मन या स्पेनिश, कुछ समझ में नहीं आ रहा था, लेकिन दोनों का स्वर संयत था, कोई चिल्ला नहीं रहा था; फिर भी उनके हाव-भाव से इतना तो स्पष्ट ही था कि दोनों की नाराजगी का कोई विकट कारण अवश्य था। वार्ता समाप्त होते ही दोनों में सुलह हो गयी और दोनों एकसाथ चल पड़े। हम भी उनके पीछे-पीछे चले। मैंने आगे-आगे चल रहे दम्पती की ओर इशारा करते हुए श्रीमतीजी से कहा--'इन दोनों की वार्ता में अगर भाषा की दीवार न होती तो मेरे आगामी यात्रा-वृत्तांत में कुछ रंग भर जाते।'
मेरी बात सुनते ही श्रीमतीजी में रहनेवाली शिक्षिका जाग उठी। दो क्षण ठहरकर उन्होंने कहा--'आप गौर कीजिए तो उनकी वार्ता में रंग तो बहुत थे, चटख थे आपकी कथा के लिए। मैंने ठिठककर पूछा--'उनकी बातों का एक शब्द भी समझे बिना आपको कौन-से चटख रंग दिखे? मुझे भी बताइये।'
वह बोलीं--'स्पष्ट था कि दोनों के बीच मतभेद का कोई बड़ा कारण अवश्य था, लेकिन दोनों संयत और संतुलित सम्भाषण कर रहे थे। कोई किसी पर चीख-चिल्ला नहीं रहा था। यह विदेशियों के संस्कार में है। उन्हें तो अपने बच्चों पर भी ऊँची आवाज़ में बात करने की इजाज़त नहीं है। हमारे देश में तो पति-पत्नी अपने मतभेदों के निबटारे की शुरूआत ही चीखने-चिल्लाने से करते हैं। विवाद सुलझने की जगह और उलझते जाते हैं तथा पूरा मुहल्ला उसका आनन्द लेता है। आपने देखा न, शांत-संयत स्वरों का कमाल! कुछ ही पलों में विवाद सुलझ गया और अब वे दोनों सधे कदमों से साथ-साथ चले जा रहे हैं।'
श्रीमतीजी की मुखर टिप्पणी सुनकर मैं भयभीत हुआ। भारतीय पति-पत्नी की एक जोड़ी हम दोनों भी तो थे। और, खतरा यह था कि उनके उदाहरण का लक्ष्य कहीं मैं ही न बन जाऊँ। मैंने उनकी हाँ में हाँ मिलायी और आगे बढ़ चला।...











(क्रमशः)

1 टिप्पणी:

Rohitas Ghorela ने कहा…

सुंदर वर्णन
nice कपल
मनोरम दृश्य.