शुक्रवार, 24 सितंबर 2021

सच, बौरा डूबन डरा...

एक दिन मुझसे कहा उन्होंने--

'आओ मेरे साथ,

सागर में उतरो,

गहरी भरकर साँस 

यार, तुम डुबकी मारो

क्या जाने सागर कब दे दे

रंग-बिरंगे रत्न और--

एक सच्चा मोती!' 


चला गया मैं सागर-तट पर

रहा सोचता बहुत देर तक--

साहस संचित कर 

बहुत-बहुत श्रम करना होगा,

गहरी साँसें भर

सागर में मुझको गहरे धँसना होगा।

श्रम की आकुल चिंता से

भय-भीरु बना, मैं--

रहा किनारे बैठ!


सागर ने अपने गर्जन-तर्जन से

मुझको थोड़े शब्द दे दिये,

तट पर छोड़ गया जो सागर

चिकने पत्थर, कंकड़-सीपी

चुनकर उनको मैंने अपनी

अँजुरी भर ली;

उसने मुझको मुद्राएँ दीं

उच्चावच लहरों ने मुझको संज्ञाएँ दीं,

सम्यक् शोध-समन्वय का

अद्भुत सौम्य विचार दिया,

भाव-बोध का सचमुच उसने

मुझको पारावार दिया।


इस जीवन में 

रहा खेलता उनसे ही मैं!

जितना मिला 

उसीसे मैं तो तृप्त रहा ।

जुगनू-सा मेरा यह जीवन 

बुझा-बुझा-सा दीप्त रहा ।


बस, थोड़े-से शब्द,

चिकने पत्थर, कंकड़-सीपी,

अनछुई मुद्राएँ

अनाहत संज्ञाएँ

भाव-बोध और सद्-विचार--

इतना कुछ क्या कम है?

मैंने जीवन जीकर जाना--

करना हर क्षण श्रम है।


गहरे नहीं उतरने का

मुझको क्षोभ नहीं है,

मन पर मेरे अवसादों का

बिलकुल बोझ नहीं है ।


किन्तु, बंधु!

सच है,

मैं बौरा डूबन डरा...

जो रहा किनारे बैठ!

(रचना : 04/05/2010)

गुरुवार, 9 सितंबर 2021

सिद्ध हुआ, मैं 'लौहपुरुष' हूँ, 'लोहासिंह'हूँ...

 सिद्ध हुआ, मैं 'लौहपुरुष' हूँ, 'लोहासिंह'हूँ...

इस बार पुणे-प्रवास में तबीयत बिगड़ गयी थी। चिकित्सकों से परामर्श और परीक्षणों का दौर चलता रहा। अंततः जुपिटर हाॅस्पिटल, पुणे की दक्ष चिकित्सिका के निर्देश पर कई महत्वपूर्ण परीक्षण और हुए, लेकिन कोई पुष्ट कारण प्रकट न हुआ। तब उन्होंने मस्तिष्क (ब्रेन) और रीढ़ की हड्डी (स्पाइन) का एम.आर.आई. करवाने की सलाह दी। लेकिन, इसके लिए अवकाश नहीं था। वायुयान में दो सीटें पहले से आरक्षित थीं, लौटने का दिन नियत था। सुपुत्रियों और नवासे के आग्रह को ठुकराकर और बेटियों को विश्वास दिलाकर कि पटना लौटकर ये दोनों परीक्षण मैं अवश्य करवा लूँगा, मैं पटना लौट आया।

मैं वादाखिलाफी तो कर नहीं सकता था, लिहाज़ा मैंने यत्न शुरू किये। एक मित्र से ज्ञात हुआ कि पटना मेडिकल कॉलेज हाॅस्पिटल (पी.एम.सी.एच.) में मेरा एक सहपाठी बाल-बंधु वरिष्ठ चिकित्सक के पद पर आसीन है। उससे मैंने संपर्क किया और अस्पताल जाकर मिला। हम दोनों 53-54 वर्षों बाद मिले थे। मास्क हटाकर हमदोनों ने एक-दूसरे की शिनाख़्त की और मिलन की स्वर्ण जयंती मनायी।...

चिकित्सक बंधु ने तत्काल मेरे दोनों परीक्षणों की अनुशंसा करते हुए एक पर्ची बना दी और संबद्ध विभाग में भेज दिया। दिन भर की प्रतीक्षा के बाद एम.आर.आई. के लिये मेरा ब्रह्म-कपाट जब यंत्र के अधीन हुआ तो वह त्राहि-त्राहि करने लगा और शोर मचाने लगा। तकनीशियनों द्वारा बतलाया गया कि मेरे सिर में कोई लौह् तत्व (मेटल पार्टिकल) है। श्रीमतीजी को कक्ष में बुलाकर उनलोगों ने ब्रेन में उपस्थित एक ब्लैक स्पाॅट दिखलाया भी और कहा कि यह कोई लौह् अयस्क है। फिर, मस्तिष्क का एम.आर.आई रद्द कर दिया गया। 2018 में जब मुझे ब्रेन स्ट्रोक हुआ था, उस वक़्त भी एम.आर.आई. नहीं हो सका था और कारण यही बतलाया गया था। हमें आश्चर्य नहीं हुआ। मैं तो नहीं, लेकिन श्रीमतीजी थोड़ी चिंतित जरूर हुईं; क्योंकि जिसका हमें अंदेशा था, अब उसकी पुय्टि हो गयी थी। चिकित्सा-विज्ञान की दृष्टि से भी यह अचंभे की बात अवश्य थी कि कोई लौह् तत्व मेरे मस्तिष्क के उद्यान में जाने कब से निष्क्रिय-निश्चेष्ट पड़ा है या क्या जाने सन् 2018 से सक्रिय होने के लिए यत्न कर रहा है! मुझसे पूछा गया कि कभी ऐसा कोई वाकया हुआ है क्या? कोई आकस्मिक घटना-दुर्घटना घटी है क्या? पूछे जाने पर मुझे अपनी दो कथाएँ याद आयीं, जिन्हें फेसबुक के पटल पर 5-6 साल पहले मैं लिख चुका हूँ।...

जिन मित्रों ने 30 अप्रैल 2016 की मेरी बाल-कथा 'पत्रहीन आम्रवृक्ष का रुदन...' और 13 मई, 2016 की कथा 'मैंने छुट्टी उसे नहीं दी थी...' पढ़ी होगी, उन्हें स्मरण होगा कि पहली कथा मेरे बाल्यकाल की है, जब मैं आम्रवृक्ष से सिर के बल आ गिरा था और दूसरी कथा युवावस्था की है, जब निर्जन वन में मेरी कंपनी का ट्रक दुर्घटनाग्रस्त हुआ था और जिसमें युवा क्लीनर रामसिंह संसार से विदा हो गये थे। इन दो अवसरों के अलावा जीवन में कभी ऐसा कोई अवसर नहीं आया, जब किन्हीं लौह्-तत्वजी को मेरे मस्तिष्क में प्रवेश का मौक़ा मिला हो। संशय आज भी यथावत् है कि जाने कब आया वह अवांछित तत्व मेरे मस्तिष्क की सघन कक्षा में...!

जीवन की लंबी राह तय कर आया, अब फिक्र नहीं है। वह वांछित-अवांछित जो भी है, ज़िद है उसकी, वह साथ रहेगा तो रहे मेरे ब्रह्म-कपाट की बंद कारा में, चलता रहे वह साथ हमारे...!

'मैं बड़भागी हूँ, लौह् अयस्क का ओज लिये चलता हूँ,

आनन्द का वर्धन करता ओझा हूँ, बोझ लिये चलता हूँ।'

आशय यह कि 28-08-2021 को यह सिद्ध हो गया कि मैं भी 'लौहपुरुष' हूँ, जिसे बालपन में रामेश्वर सिंह काश्यपजी हवा में उछालकर कहते थे--'ई लइकवा तऽ लोहासिंह हऽ भाई...!' 😁🙏