tag:blogger.com,1999:blog-57734642088976316642024-03-13T14:47:41.377-07:00मुक्ताकाश....आनन्द वर्धन ओझाhttp://www.blogger.com/profile/03260601576303367885noreply@blogger.comBlogger326125tag:blogger.com,1999:blog-5773464208897631664.post-69129527992169177782021-10-23T20:00:00.004-07:002021-10-23T20:00:43.611-07:00उनके मन कछु और था, बिधना के कछु और....<p>पूज्य पापाजी (पंडित रामरतन अवस्थी) की पितृ-भूमि की यह मेरी तीसरी यात्रा थी, लेकिन, मुझे लगा कि इस पुण्य-भूमि के दर्शन पहली बार कर रहा हूँ, प्रथमतः इससे परिचित हो रहा हूँ। इसके पहले की मेरी दोनों यात्राएँ विवाह समारोहों में सम्मिलित होने की कवायद मात्र थीं। पहली बार मैं पापाजी की भ्रातृजा 'नीता' के विवाह में सम्मिलित हुआ था। इस यात्रा में ज्ञात हुआ वह अब अपना घर-परिवार और संतानें छोड़कर इस असार संसार से विदा हो चुकी है। दुःख हुआ।...</p><p><br /></p><p>दूसरी यात्रा मैंने तब की थी, जब पापाजी के भ्रातृज शशिकान्त अवस्थी के विवाह समारोह में शामिल होने के लिए सीधे उसकी होनेवाली ससुराल गया था। मैं पापाजी के साथ वहाँ गया और बरात में शामिल हुआ। विदाई के वक्त शशि को मिला हुआ बजाज का दुपहिया वाहन किसी चालक की प्रतीक्षा में मौन खड़ा था। उसे मौन-चिंतित देख कर मेरे मन में करुणा उपजी थी और उसे उसके गन्तव्य (शशि के पितृगृह) तक पहुँचाने का दायित्व मैंने आगे बढ़कर स्वयं निभाया था। मैंने पापाजी के साथ उसी की सवारी की और गुढ़ा पहुँच गया था। गुढ़ा की वह यात्रा तो गाँव में प्रवेश और पापाजी के मूल पैतृक आवास की देहरी को लाँघकर लौट आने-जैसी थी।...</p><p><br /></p><p>अभी की तीसरी औचक यात्रा की कथा पाठकों को सुननी चाहिए, सुननी होगी; क्योंकि उसे कहे बिना मुझे भी चैन न मिलेगा। यह अवसर था, पापाजी की संचित अस्थियों के संगम में प्रवाह का, जिसे पटना में एकत्र कर कलश-बंधन में यत्नपूर्वक रखा गया था और जिसे वंदना अवस्थी दुबेजी अपने साथ सादर सतना ले गयी थीं। उन्होंने कलश को पापाजी के कक्ष में स्थापित कर दिया था। पितृपक्ष की प्रतीक्षा में उनकी देह-भस्म वहीं विश्राम करती रही। चार महीनों तक वंदनाजी प्रतिदिन कलश पर पुष्प अर्पित करती रहीं, धूप-दान देती रहीं और उद्विग्न मनसा कलश से बातें भी करती रहीं।...</p><p><br /></p><p>सितम्बर की 22 तारीख को मेरी श्रीमतीजी ने वहाँ जाने की योजना बनायी। उन्होंने मुझसे साथ चलने का आग्रह किया, लेकिन वह जानती थीं कि सतना से गुढ़ा ग्राम तक की सड़क मार्ग से कार की पाँच घण्टों की यात्रा मेरे लिए संभव ही नहीं थी। मेरा इन्कार सुनकर उन्होंने अकेले जाना स्वीकार किया और मैं अपनी असमर्थता पर खीझकर रह गया। 22 की दोपहर मैंने उन्हें ट्रेन पर बिठा दिया और देखना अनदेखा (सी-ऑफ) कर आया। सतना पहुँचकर श्रीमतीजी ने वंदनाजी के साथ सारी व्यवस्था की और 25 की सुबह कार से दोनों बहनें पिता की अस्थियाँ लेकर पितृग्राम की ओर चल पड़ीं। पापाजी की देह-भस्म वहाँ चल पड़ी, जहाँ सदेह जीवन की संध्या व्यतीत करने की उनकी आंतरिक, उत्कट अभिलाषा थी। उनकी यह अभिलाषा तो पूरी नहीं हुई, लेकिन अब उन्हें वहीं की बावड़ी में, खेतों में और उपवन में अंशतः बिखर जाना था। हरि इच्छा...! ऐसा आदेश वह मुझे मौखिक रूप से स्वयं दे भी गये थे।... श्रीमतीजी प्रायः आधी शती के बाद पितृग्राम जा रही थीं, वंदनाजी ने बड़ी प्रीति से अस्थि-कलश को अपनी गोद में लेकर यात्रा पूरी की। दोनों बहनों की मनोदशा विचित्र थी--शोक और उत्कंठा के सम्मिलित भाव दोनों के मन में उमड़-घुमड़ रहे थे। 25 की शाम दोनों सकुशल अपने भ्रातृज अमृतांशु अवस्थी (बिक्कू) के निवास टीकमगढ़ पहुँच गयीं। अमृतांशु के घर के पूजन-कक्ष में कलश को रखा गया और रात्रि-विश्राम वहीं हुआ।...</p><p>पापाजी के अत्यंत अनुगत और स्नेहभाजन ज्येष्ठ भ्रातृज कृष्णकांत अवस्थी (कृष्णकुमार, मुन्ना) ने सर्वत्र उचित व्यवस्था कर रखी थी, अपने दोनों पुत्रों को यथावश्यक निर्देश-आदेश दे रखे थे। 26 की सुबह सभी अमृतांशु की कार में सवार हुए और उन्होंने गुढ़ा ग्राम की 35/38 कि.मी. की यात्रा शुरू की। वर्षों पहले गुज़र गये बड़े भइया के बाद पापाजी ही घर के बड़े थे और 'नन्हे दद्दा' कहे जाते थे; क्योंकि अपने तीन भाइयों में वह सबसे छोटे थे। इसके अलावा कई चचेरे भाइयों का भरा-पूरा परिवार भी वहीं था और सभी प्रेम-सद्भाव के साथ पास-पास रहते थे। कहिये, आधा गाँव ही अवस्थी खानदान की संपदा था। कृष्णकांत के घर का बड़ा-सा आहाता और पूरा घर 'नन्हे दद्दा' के अस्थि-कलश की प्रतीक्षा में भरा हुआ था। सभी ग़मगीन थे, प्रतीक्षारत धे। घर के द्वार पर जब कार रुकी और लोग उससे बाहर आये तो कृष्णकांत सपत्नीक आगे बढ़े तथा वंदनाजी ने अस्थि-कलश उनके काँपते हाथों में सौंप दिया। कृष्णकांत ने घट को सिर-माथे से लगाया और फिर वह संयत न रह सके। कलश पूजा-कक्ष में ले गये और शुद्धासन पर रखकर रो पड़े। उनकी भावुक सहधर्मिणी सुषमाजी की विह्वलता उस क्षण अंकुशविहीन हो गयी थी। पूरा घर शोकमग्न था, सबकी आँखें नम थीं। पापाजी की मनोवांछा पूरी हो गयी थी, वह अपने घर लौट आये थे--निश्चल-निश्चेष्ट, कलशबद्ध !...लेकिन, वांछा बिल्कुल ऐसी तो नहीं थी...! 'उनके मन कछु और था, बिधना के कछु और....'</p><p>10/10/2021.</p><p>--आनन्दवर्धन ओझा.</p><p>(क्रमशः)</p>आनन्द वर्धन ओझाhttp://www.blogger.com/profile/03260601576303367885noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5773464208897631664.post-64493018640349439372021-09-24T23:01:00.003-07:002021-09-24T23:01:39.545-07:00 सच, बौरा डूबन डरा...<p>एक दिन मुझसे कहा उन्होंने--</p><p>'आओ मेरे साथ,</p><p>सागर में उतरो,</p><p>गहरी भरकर साँस </p><p>यार, तुम डुबकी मारो</p><p>क्या जाने सागर कब दे दे</p><p>रंग-बिरंगे रत्न और--</p><p>एक सच्चा मोती!' </p><p><br /></p><p>चला गया मैं सागर-तट पर</p><p>रहा सोचता बहुत देर तक--</p><p>साहस संचित कर </p><p>बहुत-बहुत श्रम करना होगा,</p><p>गहरी साँसें भर</p><p>सागर में मुझको गहरे धँसना होगा।</p><p>श्रम की आकुल चिंता से</p><p>भय-भीरु बना, मैं--</p><p>रहा किनारे बैठ!</p><p><br /></p><p>सागर ने अपने गर्जन-तर्जन से</p><p>मुझको थोड़े शब्द दे दिये,</p><p>तट पर छोड़ गया जो सागर</p><p>चिकने पत्थर, कंकड़-सीपी</p><p>चुनकर उनको मैंने अपनी</p><p>अँजुरी भर ली;</p><p>उसने मुझको मुद्राएँ दीं</p><p>उच्चावच लहरों ने मुझको संज्ञाएँ दीं,</p><p>सम्यक् शोध-समन्वय का</p><p>अद्भुत सौम्य विचार दिया,</p><p>भाव-बोध का सचमुच उसने</p><p>मुझको पारावार दिया।</p><p><br /></p><p>इस जीवन में </p><p>रहा खेलता उनसे ही मैं!</p><p>जितना मिला </p><p>उसीसे मैं तो तृप्त रहा ।</p><p>जुगनू-सा मेरा यह जीवन </p><p>बुझा-बुझा-सा दीप्त रहा ।</p><p><br /></p><p>बस, थोड़े-से शब्द,</p><p>चिकने पत्थर, कंकड़-सीपी,</p><p>अनछुई मुद्राएँ</p><p>अनाहत संज्ञाएँ</p><p>भाव-बोध और सद्-विचार--</p><p>इतना कुछ क्या कम है?</p><p>मैंने जीवन जीकर जाना--</p><p>करना हर क्षण श्रम है।</p><p><br /></p><p>गहरे नहीं उतरने का</p><p>मुझको क्षोभ नहीं है,</p><p>मन पर मेरे अवसादों का</p><p>बिलकुल बोझ नहीं है ।</p><p><br /></p><p>किन्तु, बंधु!</p><p>सच है,</p><p>मैं बौरा डूबन डरा...</p><p>जो रहा किनारे बैठ!</p><p>(रचना : 04/05/2010)</p>आनन्द वर्धन ओझाhttp://www.blogger.com/profile/03260601576303367885noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5773464208897631664.post-3069721540099581072021-09-09T23:54:00.001-07:002021-09-09T23:54:32.672-07:00सिद्ध हुआ, मैं 'लौहपुरुष' हूँ, 'लोहासिंह'हूँ...<p> सिद्ध हुआ, मैं 'लौहपुरुष' हूँ, 'लोहासिंह'हूँ...</p><p>इस बार पुणे-प्रवास में तबीयत बिगड़ गयी थी। चिकित्सकों से परामर्श और परीक्षणों का दौर चलता रहा। अंततः जुपिटर हाॅस्पिटल, पुणे की दक्ष चिकित्सिका के निर्देश पर कई महत्वपूर्ण परीक्षण और हुए, लेकिन कोई पुष्ट कारण प्रकट न हुआ। तब उन्होंने मस्तिष्क (ब्रेन) और रीढ़ की हड्डी (स्पाइन) का एम.आर.आई. करवाने की सलाह दी। लेकिन, इसके लिए अवकाश नहीं था। वायुयान में दो सीटें पहले से आरक्षित थीं, लौटने का दिन नियत था। सुपुत्रियों और नवासे के आग्रह को ठुकराकर और बेटियों को विश्वास दिलाकर कि पटना लौटकर ये दोनों परीक्षण मैं अवश्य करवा लूँगा, मैं पटना लौट आया।</p><p>मैं वादाखिलाफी तो कर नहीं सकता था, लिहाज़ा मैंने यत्न शुरू किये। एक मित्र से ज्ञात हुआ कि पटना मेडिकल कॉलेज हाॅस्पिटल (पी.एम.सी.एच.) में मेरा एक सहपाठी बाल-बंधु वरिष्ठ चिकित्सक के पद पर आसीन है। उससे मैंने संपर्क किया और अस्पताल जाकर मिला। हम दोनों 53-54 वर्षों बाद मिले थे। मास्क हटाकर हमदोनों ने एक-दूसरे की शिनाख़्त की और मिलन की स्वर्ण जयंती मनायी।...</p><p>चिकित्सक बंधु ने तत्काल मेरे दोनों परीक्षणों की अनुशंसा करते हुए एक पर्ची बना दी और संबद्ध विभाग में भेज दिया। दिन भर की प्रतीक्षा के बाद एम.आर.आई. के लिये मेरा ब्रह्म-कपाट जब यंत्र के अधीन हुआ तो वह त्राहि-त्राहि करने लगा और शोर मचाने लगा। तकनीशियनों द्वारा बतलाया गया कि मेरे सिर में कोई लौह् तत्व (मेटल पार्टिकल) है। श्रीमतीजी को कक्ष में बुलाकर उनलोगों ने ब्रेन में उपस्थित एक ब्लैक स्पाॅट दिखलाया भी और कहा कि यह कोई लौह् अयस्क है। फिर, मस्तिष्क का एम.आर.आई रद्द कर दिया गया। 2018 में जब मुझे ब्रेन स्ट्रोक हुआ था, उस वक़्त भी एम.आर.आई. नहीं हो सका था और कारण यही बतलाया गया था। हमें आश्चर्य नहीं हुआ। मैं तो नहीं, लेकिन श्रीमतीजी थोड़ी चिंतित जरूर हुईं; क्योंकि जिसका हमें अंदेशा था, अब उसकी पुय्टि हो गयी थी। चिकित्सा-विज्ञान की दृष्टि से भी यह अचंभे की बात अवश्य थी कि कोई लौह् तत्व मेरे मस्तिष्क के उद्यान में जाने कब से निष्क्रिय-निश्चेष्ट पड़ा है या क्या जाने सन् 2018 से सक्रिय होने के लिए यत्न कर रहा है! मुझसे पूछा गया कि कभी ऐसा कोई वाकया हुआ है क्या? कोई आकस्मिक घटना-दुर्घटना घटी है क्या? पूछे जाने पर मुझे अपनी दो कथाएँ याद आयीं, जिन्हें फेसबुक के पटल पर 5-6 साल पहले मैं लिख चुका हूँ।...</p><p>जिन मित्रों ने 30 अप्रैल 2016 की मेरी बाल-कथा 'पत्रहीन आम्रवृक्ष का रुदन...' और 13 मई, 2016 की कथा 'मैंने छुट्टी उसे नहीं दी थी...' पढ़ी होगी, उन्हें स्मरण होगा कि पहली कथा मेरे बाल्यकाल की है, जब मैं आम्रवृक्ष से सिर के बल आ गिरा था और दूसरी कथा युवावस्था की है, जब निर्जन वन में मेरी कंपनी का ट्रक दुर्घटनाग्रस्त हुआ था और जिसमें युवा क्लीनर रामसिंह संसार से विदा हो गये थे। इन दो अवसरों के अलावा जीवन में कभी ऐसा कोई अवसर नहीं आया, जब किन्हीं लौह्-तत्वजी को मेरे मस्तिष्क में प्रवेश का मौक़ा मिला हो। संशय आज भी यथावत् है कि जाने कब आया वह अवांछित तत्व मेरे मस्तिष्क की सघन कक्षा में...!</p><p>जीवन की लंबी राह तय कर आया, अब फिक्र नहीं है। वह वांछित-अवांछित जो भी है, ज़िद है उसकी, वह साथ रहेगा तो रहे मेरे ब्रह्म-कपाट की बंद कारा में, चलता रहे वह साथ हमारे...!</p><p>'मैं बड़भागी हूँ, लौह् अयस्क का ओज लिये चलता हूँ,</p><p>आनन्द का वर्धन करता ओझा हूँ, बोझ लिये चलता हूँ।'</p><p>आशय यह कि 28-08-2021 को यह सिद्ध हो गया कि मैं भी 'लौहपुरुष' हूँ, जिसे बालपन में रामेश्वर सिंह काश्यपजी हवा में उछालकर कहते थे--'ई लइकवा तऽ लोहासिंह हऽ भाई...!' 😁🙏</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjr6XpMBJeissopO3JdeyYfnLs9vieo5-PyUMEKnLMjGS4aX7Vq70nQra5fETRnNuF2-GAWD3NMYB6Sa7Oz-zK3uYLnVgTL8Kktgmo-F37OFMfw_eoR6xKtPIToHF_nnw_0LUjsCTf1AeM/s960/anand+v..jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="741" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjr6XpMBJeissopO3JdeyYfnLs9vieo5-PyUMEKnLMjGS4aX7Vq70nQra5fETRnNuF2-GAWD3NMYB6Sa7Oz-zK3uYLnVgTL8Kktgmo-F37OFMfw_eoR6xKtPIToHF_nnw_0LUjsCTf1AeM/s320/anand+v..jpg" width="247" /></a></div><br /><p><br /></p><p><br /></p>आनन्द वर्धन ओझाhttp://www.blogger.com/profile/03260601576303367885noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5773464208897631664.post-430531335337920352021-06-16T09:30:00.000-07:002021-06-16T09:30:58.190-07:00आँख से न आँख लड़ जाये, इस कारण से....<p> आँख से न आँख लड़ जाये...इस कारण से...</p><p><br /></p><p>मालूम था, सप्ताह में दो-तीन दिन माली आता है बेटी शैली के घर और देखभाल करता है बागीचे की, लेकिन मैंने कभी देखा नहीं था उसे। बीस दिनों के प्रवास में वह आया न हो, ऐसा तो नहीं है, मगर वह जब भी आया, मैं घर के अंदर, गुसलखाने में, शेव करता हुआ, अखबार पढ़ता या टीवी देखता रहा। आमना-सामना कभी हुआ नहीं था उससे मेरा। आज सुबह मैं बिलकुल उसके सामने जा पड़ा। तब मैं बारामदे में बैठा पान बना रहा था। वह आया और मुझसे छह फीट की दूरी पर खड़ा हो गया। मुझे लगा, उसे कुछ कहना है मुझसे। मैंने आँख उठाकर देखा उसे, तो पाया कि वह मुझे ही एकटक देख रहा है। मेरी आँखें उससे जैसे ही मिलीं, वह मीठा मुस्कुराया। मैंने सोचा, मुस्कुरा लेने के बाद वह कुछ कहेगा, लेकिन वह चुप था और लगातार मुझे घूरने की हद तक देखता हुआ मुस्कुराता जा रहा था। यह मुझे कुछ अजीब-सा लगा। यह बात भी मन में उठी कि मानसिक रूप से वह स्वस्थ भी है या...</p><p><br /></p><p>मुझे उम्मीद थी, वह नमस्ते कहेगा, 'गुड मार्निंग' बोलेगा, लेकिन वह तो मुस्कुराता हुआ 'मौनी बाबा' निकला। मन में आया कि कहूँ उससे, 'भले आदमी, जब कुछ कहना ही नहीं है तो जाओ, अपना काम करो।' लेकिन वह स्थायी भाव में था, अडिग था। अब क्या करूँ, कुछ समझ नहीं पाया। माली भाई तब ही सामने से हटे, जब मुझसे मेरी एक अदद विवश मुस्कान उन्होंने वसूल ली।...</p><p><br /></p><p>आज ही लगे हाथ दूसरा-तीसरा हादसा भी हो गया। परसों की वापसी की यात्रा है मेरी। मैं, श्रीमतीजी और बेटी के साथ 'लुल्लू माॅल' चला गया। बचपन में महामूर्खतापूर्ण एक खेल खेला करता था--'लुल्लूपाला'। सिलाई के धागों में ढेला बाँधकर पेंच लड़ाना और प्रतिपक्षी के धागे को काटकर उसे परास्त कर सुख पाना। लगता है, उसी 'लुल्लू' नाम पर एशिया का बेस्ट माॅल उठ खड़ा हुआ है। क्या नहीं मिलता वहाँ! मैंने सोचा, कुछ मेवे-मसाले खरीद ले चलूँ, यहाँ बड़े अच्छे मिलते हैं। दोनों देवियाँ जानती हैं कि माॅल में बहुत हलकान होना मुझे प्रिय नहीं है और पान न मिलने से मेरे अस्तित्व का नेटवर्क भी 'वीक' हो जाता है, सो वांछित सामग्री खरीद लेने के बाद उन्होंने मुझे टरका दिया, कहा--'जाइये, कार में सामान सेट कीजिए और वहीं बैठकर पान खाइये, हम अभी आते हैं।'</p><p><br /></p><p>मैंने उनकी बात मान ली, क्योंकि मेरा नेटवर्क भी कमजोर पड़ रहा था। पार्किंग में खड़ी कार में सामान रखकर मैं बैठ गया और पान बनाने लगा। तभी एक सम्भ्रांत व्यक्ति सामने से आते दिखे। पास आकर उन्होंने एक मीठी मुस्कान मेरी ओर फेंकी और जब तक जवाबी कार्रवाई में मैं अपनी चवनियाँ मुस्कुराहट उन्हें लौटा पाता, वह आगे बढ़ गये।</p><p><br /></p><p>अभी पाँच मिनट ही बीते होंगे कि माॅल के गणवेश में चालीस के आसपास की एक महिला ट्राॅली समेटती दिखी। जिस ट्राॅली से मैंने सामान खाली किया था, उसे लेने वह कार के समीप आयी और पास पहुँचते ही उसने भी एक मीठी मुस्कान दी। एक बार तो भ्रम हुआ कि मुझमें कहीं कोई गड़बड़ी तो नहीं? लोग मुझे देख-देखकर मुस्कुरा क्यों रहे हैं आखिर? फिर मैंने तय पाया कि नहीं, गड़बड़ तो कहीं कुछ नहीं; अच्छा-खासा आधी बाहोंवाला श्वेत-स्वच्छ कुरता, वैसा ही धवल पायजामा, आँखों पर ऐनक और पाँवों में सैंडल--सब यथास्थान है, गड़बड़ क्या होगी भला? लेकिन इस दफ़ा मैंने देर नहीं की, लगे हाथ मैंने भी एक फीकी-सी मुस्कान लौटनियाँ उसे दे दी। विलंब करने में यह खतरा भी था कि कहीं वह भी मालीजी की तरह वहीं अँटक गयी और मुझे देखकर मुस्कुराती खड़ी रही, तो मेरा क्या होगा! लेकिन चिंतनीय कुछ नहीं हुआ और मेरी असहज मुस्कान लेकर वह चली गई। उसके चले जाने के बाद मन में खयाल आया कि काश, वह एक सम्भ्रांत विदुषी होती तो मैं भी, पान से पिटी और सड़ी हुई अपनी बत्तीसी बचाता हुआ, एक 'एक्सट्रा लार्ज' साइज की मुस्कान उसे दे ही देता।</p><p><br /></p><p>मुझे फ़िक्र हुई, अपरिचित लोगों के इस तरह मुस्कान लुटाने के पीछे आखिर माजरा क्या है, यह मुझे बेटी से पूछना ही चाहिए। उसे यहाँ रहते हुए एक साल हो गया है, कुछ तो समझा ही होगा उसने, इस रहस्यमयी मुस्कान का राज़!</p><p><br /></p><p>बेटी ड्राइव कर रही थी, मैं उसकी बगलवाली सीट पर था और उसकी माता पीछे। माॅल से लौटते हुए मैंने पूरी बात बेटी को बतायी। उसने कहा कि 'यह यहाँ का स्वाभाविक अभिवादन है। वैसे भी, मलियाली लोग वेशभूषा से भिन्न भाषा-भाषियों को चिह्नित कर लेते हैं, इसीसे वे एक स्माइल देकर ऐसे लोगों का स्वागत करते हैं।' बेटी की इस बात से मैं चकित हुआ।</p><p><br /></p><p>दौड़ती कार मेें जब मैैं यही प्रसंग सुना रहा था और बात ट्राॅली समेटनेवाली महिला तक पहुँची थी, तभी श्रीमतीजी ने मेरी अतिभाषिणी जिह्वा थाम ली और कहा--'वह संभ्रांत विदुषी भी होती तो उससे आपको क्या फ़र्क पड़ता था?' पत्नी नामक प्रजाति में यही बड़ी ख़ामी होती है। वे मूलतः दोष-दर्शन और छिद्रान्वेषण की अधिकारिणी होती हैं। अगर मेरे मन में ऐसी कामना जगी भी थी, तो इसमें कोई दोष कहाँ था? बस, कामना-भर ही तो थी। मैैंने दबी जबान मेें कहा--'लेकिन, इसमें आपत्तिजनक क्या हैै?'</p><p><br /></p><p>श्रीमतीजी ने जो कुुुछ कहा, वह रेेेखांकित करनेे योग्य हैै--'आपत्तिजनक तो कुुुुछ भी नहीं, बस आप यह नहीं समझ पा रहे कि यह आपका यूूूपी-बिहार नहीं, केेेेरल हैै, जहाँ शत-प्रतिशत साक्षरता है। सामान्य लोग भी अंंग्रेजी केे शब्द, वाक्य समझ लेेेेते हैैं, महिलाएँ स्कूटी चलाती हैं और पुरुष पिछली सीट पर बैठे होते हैं। यहाँ स्त्री-पुरुष का भेद ही मिट गया है। यदि पुरुष आपकी ओर देखकर मुस्कुरा सकता है और इसी रूप में आपका स्वागत-अभिनन्दन कर सकता है तो स्त्रियाँ भी ऐसा कर सकती हैं। आप अपना बिहारी चश्मा उतार कर देखेंगे, तभी यह फर्क भी समझ सकेंगे।'</p><p>श्रीमतीजी की बातों से मेरे ज्ञान-चक्षु हठात् खुल गये। मैंने अपनी स्मृति को कुरेदा तो मुझे याद आया कि तीन दिन पहले ही जब मैं अथिरापल्ली प्रपात से लौटते हुए पहाड़ की चढ़ाई चढ़ रहा था, तो सामने से आती हुई हर उम्र की कई महिलाओं और पुरुषों ने मुझे अपनी मधुर मुस्कान से नवाजा था और मैं संकुचित हो उठा था। और, मार्ग में, हम सबों ने एकसाथ ही तो देखा था, एक ग्रामीण युवती को, जो अपने छोटे-से बालक और संभवतः पतिदेव को स्कूटर पर पीछे बिठाकर आराम से चली जा रही थी।...</p><p>बेटी और श्रीमतीजी की बातों से अब समझ में आया, वह मुस्कान अकारण तो नहीं ही थी, असहज भी नहीं थी। मैं ही अपने अनुभवों और संस्कारों के शिकंजे में था और उससे मुक्त नहीं हो पा रहा था।</p><p><br /></p><p>मैं तो खैर पकी उम्र का व्यक्ति हूँ, श्रीमतीजी की अहैतुकी कृपा से सँभल भी गया हूँ; लेकिन अपने समस्त मित्रों को सावधान करना अपना दायित्व समझता हूँ कि यहाँ आपको कोई देखकर मुस्कुराये तो आप भी भद्रतापूर्वक मुस्कुराकर उसके अभिवादन-अभिनन्दन का प्रत्युत्तर दें। भारत की इस पावन भूमि में यथासंभव नजरें झुका के चलें, कहीं ऐसा न हो कि किसी से आपकी आँख लड़ जाए और आपको कोई मुगालता हो या मुस्कुराने की विवशता से आप किसी द्विविधा में पड़े हिचकोले खाने लगें... ठीक मेरी तरह।...</p><p>===</p>आनन्द वर्धन ओझाhttp://www.blogger.com/profile/03260601576303367885noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5773464208897631664.post-52451293768483670992021-03-26T09:13:00.000-07:002021-03-26T09:13:35.538-07:00चाँद ! मेरे पंजे में आ जा...<p> चाँद ! मेरे पंजे में आ जा...</p><p><br /></p><p>ऐ चाँद! मेरे पंजे में आ जा,</p><p>मेरी मुट्ठी में समा जा।</p><p>तू मुझ में अपना आलोक बसा जा!</p><p>ऐ चाँद! मेरे पंजे में आ जा!</p><p><br /></p><p>यह आलोक जो तेरे प्रभा-मण्डल में </p><p>इठला रहा है, मैं उसे समेटूँ</p><p>अपने आसपास बिखेरूँ</p><p>तेरा थोड़ा आलोक गुटक लूँ,</p><p>फिर चमकूँ मैं भी </p><p>जैसे तू नभ में चमकता है,</p><p>अँधेरों की शक्ल पर</p><p>मक्खन लगता है, </p><p>धूप-जली धरती पर चंदन का </p><p>लेप चढ़ाता है।</p><p>ऐ चाँद! मेरे पंजे में आ जा!</p><p><br /></p><p>मानवता का क्रंदन सुनकर </p><p>मेरा मन होता आकुल है,</p><p>हरी-भरी वसुंधरा की जलन देख </p><p>अंतर भी बेहद व्याकुल है।</p><p>पशु-पक्षी कातर-निरीह हैं </p><p>मुझको ही तो रहे पुकार,</p><p>उनकी करुणा से</p><p>मेरे मन होता रहता हाहाकार,</p><p>उनको उपकृत करने का</p><p>तेरे मन में आता नहीं</p><p>क्या कोई विचार?</p><p><br /></p><p>तू क्यों इतनी दूर खड़ा है </p><p>जाने कब से अपनी ही ज़िद पर</p><p>हुआ अड़ा है</p><p>तू सबका है स्वजन श्रेष्ठ,</p><p>तेरा तो औदार्य बड़ा है।</p><p><br /></p><p>तू दे दे अपना आलोक मुझे </p><p>वह आलोक मैं सबको दूँगा--</p><p>तू दूर गगन में एकाकी चलता जाता है </p><p>मैं धरती के जन-कोलाहल बीच खड़ा हूँ </p><p>देकर सबको स्निग्ध किरण तेरी--</p><p>सबकी पीड़ा मैं हर लूँगा ।</p><p><br /></p><p>हे आलोकपुंज! मेरे पंजे में आ जा,</p><p>मेरी मुट्ठी में समा जा।</p><p>मैं भी तुझ-सा चमकूँ-दमकूँ</p><p>तू मुझ में समा जा...!</p><p>ऐ चाँद! मेरे पंजे में आ जा...!!</p><p>===</p><p>[पुनः -- चि. ऋतज के इस चित्र और इस मुद्रा को देख उपर्युक्त पंक्तियाँ बरबस उपजी हैं। इन पंक्तियों को सँवारने-तराशने की चेष्टा अभी नहीं की गयी है। ये यथारूप हैं, मासूम हैं, निर्दोष हैं। ये भाव-विचार भी ऋतज के ही हैं और स्थायी भाव में रहते हैं। वही कह रहे हैं अपने चंदा मामा से... मैं नहीं।</p><p>--आनन्द. गोवा-प्रवास/25-02-2021]</p>आनन्द वर्धन ओझाhttp://www.blogger.com/profile/03260601576303367885noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-5773464208897631664.post-37525013084567134722019-05-29T10:10:00.001-07:002019-05-29T10:10:27.881-07:00जिजीविषा... <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कल की ही तो बात थी--<br />
हवा में झूमता-इठलाता खड़ा था,<br />
मुसाफिरों को छाया देता था,<br />
प्रार्थियों को फल--<br />
आज निष्प्राण हूँ,<br />
नदी के तट पर पड़ा हूँ,<br />
अपार जल है, गीली मिट्टी है,<br />
मेरी कुछ टहनियाँ जिनमें धँसी हैं,<br />
यूँ प्राण-शेष हो गया हूँ<br />
कि जल की एक बूँद भी<br />
ग्रहण कर नहीं सकता,<br />
लेकिन जिजीविषा का क्या ठिकाना<br />
एक युग के बाद, न जाने कब<br />
मेरी शिराएँ मदमत्त हो पीने लगें अमृत,<br />
जड़ जमा लें वहीं<br />
और मैं जाग जाऊं<br />
अलस अंगड़ाइयाँ लेकर,<br />
लूँ फिर करवटें<br />
जिस धरा पर हूँ पड़ा,<br />
वहीं से फूट आयें<br />
कोपलें नयी, नए पात, हरी टहनियाँ--<br />
बिल्कुल नयी, टटकी, सुकोमल... !<br />
कौन जानता है,<br />
सिरजनहार की मर्जी में क्या है...?<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgNaYgzxPZkSBuc1oGXyW3aRdE_B2Et8NdcZzQbLul_Up82_eTg6_ytL2Vr7CNRuIppaRDgUa5yDATLZkfcFZn4tYrlgffp-8oz5wfig6Rr2rRyNCGtUvfWysKYEst2Zu92KPfDStIrDe0/s1600/FB_IMG_1559148050225.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="478" data-original-width="720" height="212" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgNaYgzxPZkSBuc1oGXyW3aRdE_B2Et8NdcZzQbLul_Up82_eTg6_ytL2Vr7CNRuIppaRDgUa5yDATLZkfcFZn4tYrlgffp-8oz5wfig6Rr2rRyNCGtUvfWysKYEst2Zu92KPfDStIrDe0/s320/FB_IMG_1559148050225.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
--आनन्द.</div>
आनन्द वर्धन ओझाhttp://www.blogger.com/profile/03260601576303367885noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-5773464208897631664.post-15717945651078280172018-12-18T21:01:00.000-08:002018-12-18T21:01:06.753-08:00व्याधियों की व्याध-कथा...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
व्याधियाँ होती हैं<br />
व्याध-सरीखी,<br />
वे दुबककर रहती हैं<br />
किसी शिकारी की तरह<br />
मौके की प्रतीक्षा में<br />
और अवसर पाते ही<br />
कर देती हैं आक्रमण<br />
किसी कटाहे कुत्ते की तरह...!<br />
<br />
व्याधियों का व्याधा<br />
कभी बहुत क्रूर और निर्मम-सा<br />
आता है यम का दूत बनकर<br />
और कभी हरकारे की तरह<br />
अपने शिकार को निरीह बनाकर,<br />
शेष जीवन जीने की<br />
सूचना देकर चला जाता है।<br />
<br />
बड़ा निर्मोही है<br />
व्याधियों का व्याधा,<br />
उसे सजीव को निर्जीव बनाने की<br />
कला आती है,<br />
वह बूँद-बूँद प्राण-तत्व निचोड़कर,<br />
शिकार को सप्राण छोड़कर,<br />
अट्टहास करता,<br />
दूर खड़ा हो मुस्कुराता है<br />
जाने किस जन्म का हिसाब चुकाने में<br />
उसे मज़ा आता है।<br />
<br />
कल तक जो अर्थों को, अनर्थों को भी<br />
रौंदते रहे, वे अचानक<br />
मुमुर्षुवत् असहाय हो जाते हैं,<br />
काल की प्रवंचना को<br />
टुकुर-टुकुर देखते रह जाते हैं।<br />
कुछ अति प्रबुद्ध स्नेही परिजन<br />
व्याधि के कारणों का<br />
गणित बिठाते हैं<br />
आचरण, खान-पान, आहार-व्यसन<br />
की जन्मकुण्डली बनाते हैं।<br />
मुझे लगता है,<br />
वे नाहक बुद्धि का व्यायाम करते हैं,<br />
होता वही है जो नियति के कारक तत्व<br />
तय करते हैं।<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiIMoqaqrjtUd4lg3x_qiXc8Y0J_XJwRaY8JRhQ0QLYCpjyWmd4psCKrj40YrtIPESA521igni_ZEUPDAhA4kS4VYpqsglg2IvOWe7QZMCSqKTOrsF5nB4A7-Vr-2BWu919NHBWp2ztHd0/s1600/20180721_070835.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1200" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiIMoqaqrjtUd4lg3x_qiXc8Y0J_XJwRaY8JRhQ0QLYCpjyWmd4psCKrj40YrtIPESA521igni_ZEUPDAhA4kS4VYpqsglg2IvOWe7QZMCSqKTOrsF5nB4A7-Vr-2BWu919NHBWp2ztHd0/s320/20180721_070835.jpg" width="240" /></a></div>
<br />
--आनन्द. /10-12-2018<br />
सतना-प्रवास</div>
आनन्द वर्धन ओझाhttp://www.blogger.com/profile/03260601576303367885noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-5773464208897631664.post-79912720975346470112018-12-08T19:24:00.002-08:002018-12-08T19:25:13.501-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
अपार श्रद्धा की पराकाष्ठा पर आजीवन अडिग रहे :<br />
पं. रामनारायण मिश्र...(2)<br />
<br />
सन् 1993-94 में दो मोर्चों पर मैंने भरपूर श्रम किया। यह तो ऐसा ही था, जैसे दो नदियों की तीव्र प्रतिकूल धारा में एक साथ तैरना हो। युद्धकाण्ड के जितने पृष्ठ पिताजी मुझे सुबह के वक़्त देते, वरीयता क्रम में उसे ही मैं पहले कंपोज़ करता और रात्रिकाल में मिश्रजी की पुस्तक पर काम करता। जुलाई 94 तक दोनों पुस्तकों की कंपोज़िंग हो गयी और प्रूफ संशोधन किया जाने लगा। युद्धकाण्ड दो महीने में ही प्रेस भेजने योग्य हो गया, लेकिन मिश्रजी प्रूफ़-संशोधन में शिथिल पड़ गये। कुछ अस्वस्थ भी रहने लगे थे उन दिनों। बाद में स्थिति ऐसी हो गयी कि मैं ही प्रूफ़ पहुँचाने उनके मीठापुर (पटना) स्थित घर जाने लगा।<br />
<br />
मैंने लक्ष्य किया कि प्रथम दर्शन से लेकर बाद-बाद की प्रत्येक मुलाक़ात में मिश्रजी मुझे चरण-स्पर्श का या पहले प्रणाम निवेदित करने का एक भी अवसर नहीं देते थे। मैं चरण-स्पर्श के लिए झुकता तो वह एक क़दम पीछे हट जाते और मेरे दोनों कंधे पकड़कर कहते--'चलऽ-चलऽ, आवऽ, बइठऽ'! (चलो-चलो, आओ, बैठो)। वह मेरे घर आते, तब भी और बाद में जब मैं उनके घर जाने लगा, तब भी; आचरण उनका एक समान था। अपने मीठापुर वाले मकान के पहले माले पर वह रहते थे। पहले तल पर पहुँचने के लिए संकीर्ण गलियारे में बनीं लम्बवत् सीढ़ियाँ थीं। मैं काॅल बेल बजाकर ऊपर पहुँचता तो देखता, मिश्रजी पहले से ही हाथ जोड़कर खड़े हैं। मैं सीढ़ी के शीर्ष पर पहुँचकर भी उनसे एक पायदान नीचे होता, वहीं से उनके चरण स्पर्श को जैसे ही झुकता, वह शीघ्रता से एक क़दम पीछे हट जाते और कहते--'आवऽ-आवऽ! अन्दर चलि आवऽ!' (आओ-आओ, अन्दर चले आओ।) उनके मुख से आशीर्वाद के दो शब्द भी कभी नहीं निकलते, मैं चकित होता, क्षुब्ध भी।<br />
<br />
एक दिन तो उन्होंने हद कर दी। मैं उनके घर पहुँचा तो उनकी पत्नी ने द्वार खोला। मैंने उनके चरण छुए, उन्होंने कोई एतराज़ नहीं किया, आशीर्वाद देते हुए कहा--'खुसी रहऽ बबुआजी! ओन्ने जा, बलकोनियां में बठल बाड़े।' (खुश रहिये बबुआजी! उधर जाइये, बालकनी में बैठे हैं।)<br />
मैं सीधे बालकनी में पहुँचा। देखा, मिश्रजी टेबल पर प्रूफ फैलाकर बैठे हैं। मैं शीघ्रता से उनके पास पहुँचा और चरणस्पर्श को उद्यत हुआ। मिश्रजी के पास पलायन की पर्याप्त सुविधा नहीं थी--उनकी कुर्सी के पीछे रेलिंग का अवरोध था और अगल-बगल खाली कुर्सियाँ। मैंने उनके पास पहुँचते ही उनके चरणों पर जैसे आक्रमण ही कर दिया। मिश्रजी घबराकर उठ खड़े हुए और लड़खड़ाए तथा बगलवाली खाली कुर्सी को परे धकेलते हुए दो कदम सरककर सुस्थिर हुए और बोले--'तूं तऽ डेराइए देलऽ हो। आवऽ, बइठऽ।' (तुमने तो डरा ही दिया। आओ, बैठो।)<br />
<br />
इस बार भी मिश्रजी ने अपने चरण-कमल की मुझसे रक्षा कर ली थी, लेकिन उनके आशीर्वाद की आकांक्षा की मेरे मन में बहती हुई संयमित गंगा उस दिन कूल-किनारा तोड़ देने पर आमादा हो उठी। मैंने विनम्रता से ही कहा--'मैं तो आपसे बहुत छोटा हूँ, पुत्रवत् हूँ, आपके आशीर्वाद का आकांक्षी हूँ, अधिकारी भी हूँ। आप मुझे चरणस्पर्श क्यों नहीं करने देते? मुझे आशीष क्यों नहीं देते? मुझसे पहले ही हाथ जोड़कर क्यों खड़े हो जाते हैं?'<br />
मेरी बात चुपचाप सुनने के बाद मिश्रजी ने अपनी कड़क आवाज़ में कहा--'एकदम बेकूफ़े हवऽ का जी? तोहरा के परनाम करऽ ता? हम तऽ ऊ वंश-परम्परा के परनाम करऽ तानी, जेकर तूं प्रतिनिधि बाड़ऽ। तोहरा सोझा हाथ जोरि के हम आपन परनाम तोहार बाबा लगे, शास्त्रीजी (पुण्यश्लोक पं. चन्द्रशेखर शास्त्री) के पासे भेजऽ तानी, काँहे कि उनुकरे नूं अंश बाड़ऽ तूं। बुझलऽ?' [एकदम बेवकूफ़ ही हो क्या जी? तुम्हें कौन प्रणाम करता है? मैं तो उस वंश-परम्परा को प्रणाम कर रहा हूँ, जिसके तुम प्रतिनिधि हो। तुम्हारे सामने हाथ जोड़कर मैं अपना प्रणाम (अपनी श्रद्धा) तुम्हारे पितामह, शास्त्रीजी के पूज्य चरणों में निवेदित कर रहा हूँ; क्योंकि तुम उनके अंश हो। समझे।]<br />
<br />
मिश्रजी की बातें सुनकर मेरी बोलती बंद हो गयी। किस ऊँचे तल से उन्होंने यह बात कही थी! सुनकर मैं तो स्तब्ध रह गया। यह अपार श्रद्धा की पराकाष्ठा थी। उस दिन मिश्रजी के घर से लौटा तो मन विह्वल था और हृदय मिश्रजी के प्रति श्रद्धा से भरा हुआ था। घर पहुँचते ही यह बात पिताजी को विस्तार से बतायी। पूरा वृत्तांत सुनते हुए पिताजी मंद-मंद मुस्कुराते रहे, फिर बोले--'मैं मिश्रजी के मन की श्रद्धा को पहचानता था, तभी तो मैंने कहा था, मिश्रजी की याचना को ठुकराया नहीं जा सकता।'<br />
<br />
दिसम्बर 1994 में युद्ध काण्ड की प्रतियाँ जिल्दसाज़ घर पहुँचा गये। साल-भर बाद पिताजी का निधन हुआ। समाचारपत्रों से पिताजी के निधन की सूचना पाकर सुबह-सबेरे पहुँचने वालों में मिश्रजी भी थे। उस दिन मैंने उन्हें फूट-फूटकर रोते देखा था।... जैसे उन्होंने अपना सगा ज्येष्ठ भ्राता खो दिया हो...!<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiBC8FPm8gNlqlF61srQl1HarhynJcwuTKK84jfhcIPNvyi7iwgmPcS6h1Nr1ujR7L-tOxiaD2p1Q8Gtz6MpGpxs5lUmacWhft4dNWR1mvl4WP1smZodCMjPcI_h9FEDTgFBB9yWOb1ERU/s1600/20180312_122031.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="581" data-original-width="472" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiBC8FPm8gNlqlF61srQl1HarhynJcwuTKK84jfhcIPNvyi7iwgmPcS6h1Nr1ujR7L-tOxiaD2p1Q8Gtz6MpGpxs5lUmacWhft4dNWR1mvl4WP1smZodCMjPcI_h9FEDTgFBB9yWOb1ERU/s320/20180312_122031.jpg" width="259" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgtxGjLMlmUMQK-bPU61CSJ7Fc5z8X-92qO8DL2EGPKybbXOOCqjjzRynoYxYrhrNPeWy2nKnIs5L4vavAPDLPIh7zYKX9YTxvoqKRqgWYn1vD_ReD0lxI16KYGoP8p6ZCAFsSPIRNenA8/s1600/IMG-20180909-WA0004.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1225" data-original-width="1280" height="306" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgtxGjLMlmUMQK-bPU61CSJ7Fc5z8X-92qO8DL2EGPKybbXOOCqjjzRynoYxYrhrNPeWy2nKnIs5L4vavAPDLPIh7zYKX9YTxvoqKRqgWYn1vD_ReD0lxI16KYGoP8p6ZCAFsSPIRNenA8/s320/IMG-20180909-WA0004.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh8mElTgeSoQ8m38LHk2CZvwLXbkXgmO7CKSufTExr_fsoWgldkMcYq_DnBEggKFX73JK5YkWPaoC8Bbv6Zmb4qvU7d4SBlT17UuXiWM378ryLiIJvz4m1eKuSFIMgWEaZFGVf1btudxQ0/s1600/20180909_171455.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="731" data-original-width="584" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh8mElTgeSoQ8m38LHk2CZvwLXbkXgmO7CKSufTExr_fsoWgldkMcYq_DnBEggKFX73JK5YkWPaoC8Bbv6Zmb4qvU7d4SBlT17UuXiWM378ryLiIJvz4m1eKuSFIMgWEaZFGVf1btudxQ0/s320/20180909_171455.jpg" width="255" /></a></div>
<br />
उसके बाद परिस्थितियाँ विषम होती गयीं। जहाँ तक स्मरण है, मिश्रजी अपनी पुस्तक की पाँच प्रतियाँ लेकर संभवतः अपनी बेटी के पास दूसरे शहर चले गये और मुझसे दूरभाष पर कह गए कि लौटकर किताबों का पूरा गट्ठर जिल्दसाज़ के यहाँ से उठवा लेंगे। लेकिन, विधिवशात् ऐसा हो न सका। वह वहीं बीमार पड़े और कुछ समय बाद काल-कवलित हो गये। कुछ महीने बाद उनके सुपुत्र दूरदेश से पटना आये और अपने पूज्य पिता की अंतिम कृति का पूरा स्टाॅक उठा ले गये। इस पूरे कार्य-व्यापार में मैं उनका विनीत सहयोगी बना रहा और हम दोनों एक-दूसरे को पितृशोक-संवरण की सान्त्वना देते रहे।<br />
<br />
अब तो लंबा अरसा गुज़र गया है। परमपूज्य पितामह को गुजरे 84 वर्ष हो गए, पिताजी को जीवन्मुक्त हुए 23 वर्ष। मैं भी अपनी ज़िन्दगी का लंबा रास्ता तय कर आया हूँ, उम्र की इस दहलीज़ तक आकर स्मृतियाँ भी गड्मड होने लगती हैं; लेकिन मिश्रजी का 25 साल पुराना उपर्युक्त कथन मेरी यादों में अमिट बना हुआ है। जानता हूँ, कभी धूमिल होगा भी नहीं।...<br />
===<br />
[पुनः -- मुझे खेद है कि मिश्रजी का कोई चित्र मेरे पास नहीं है और उनकी पुस्तक का नाम भी स्मृति से उतर गया है। उसकी एक प्रति मेरे संग्रह में अवश्य होगी, लेकिन उसे खोज निकालना अभी तो असंभव है। अगले उत्खनन में प्रति मिल गयी तो मित्र-पाठकों को अवश्य बताऊँगा, वादा रहा। --आ.]<br />
--आनन्दवर्धन ओझा.</div>
आनन्द वर्धन ओझाhttp://www.blogger.com/profile/03260601576303367885noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5773464208897631664.post-80729361069042353822018-11-18T20:25:00.001-08:002018-11-18T20:25:31.132-08:00अपार श्रद्धा की पराकाष्ठा पर आजीवन अडिग रहे : पं. रामनारायण मिश्र...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj7LNqC1f47n-zTzZpK7j3pguqy7VjpaHIP3jcx5X8zCArGQMiseVFLmDLYtzoe6C324Kt386BauLmVLsEdXs4d3NBRtDbLR1x76erYSiXlcxwCt4aNVZqrMYvsQIVj56zGfU5iXgzMsWM/s1600/FB_IMG_1542600163194.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="720" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj7LNqC1f47n-zTzZpK7j3pguqy7VjpaHIP3jcx5X8zCArGQMiseVFLmDLYtzoe6C324Kt386BauLmVLsEdXs4d3NBRtDbLR1x76erYSiXlcxwCt4aNVZqrMYvsQIVj56zGfU5iXgzMsWM/s320/FB_IMG_1542600163194.jpg" width="240" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgwLxyGur4zzhYCti2UYCy-69t6FkjR4bpZTc3ZkUM-4ldaTrraT4iI-MCVfK6OloZ6V_jbpDTYtB1Qsf3S6_aeJVV0uHPdN1q1mGT0LXYbvq7luC8cuViBfW81I1v1QmsG6ybLz5hD8vE/s1600/FB_IMG_1542600190000.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="704" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgwLxyGur4zzhYCti2UYCy-69t6FkjR4bpZTc3ZkUM-4ldaTrraT4iI-MCVfK6OloZ6V_jbpDTYtB1Qsf3S6_aeJVV0uHPdN1q1mGT0LXYbvq7luC8cuViBfW81I1v1QmsG6ybLz5hD8vE/s320/FB_IMG_1542600190000.jpg" width="234" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEicy2Fwf7_WtqeLvOgJhgRa9m-X8BNJovedLCD6meq0FO92ToXskNwvGm_vwVaz5P4Gc2cySpGJ9Olv1Xi73Jx2Kekqr7hrws_dLKHVG-SKRv-sFzuqVzFDZ6gyms_c2IsyGcPe7XuBslg/s1600/FB_IMG_1542600207560.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="643" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEicy2Fwf7_WtqeLvOgJhgRa9m-X8BNJovedLCD6meq0FO92ToXskNwvGm_vwVaz5P4Gc2cySpGJ9Olv1Xi73Jx2Kekqr7hrws_dLKHVG-SKRv-sFzuqVzFDZ6gyms_c2IsyGcPe7XuBslg/s320/FB_IMG_1542600207560.jpg" width="214" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhlN7bSfN6lVL-kZfRztKEcZ7E8T8TjjYZp33Zk7rQi1HFscZ4Qjo5rR3B85A32OsJWytT8I6jVHBHBtC87SdGk5rYW0ecanMiIjGAgxTJSit5JoVZpTdT0YCmDhnilpX5nJSxV8tOWpmY/s1600/FB_IMG_1542600227864.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="677" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhlN7bSfN6lVL-kZfRztKEcZ7E8T8TjjYZp33Zk7rQi1HFscZ4Qjo5rR3B85A32OsJWytT8I6jVHBHBtC87SdGk5rYW0ecanMiIjGAgxTJSit5JoVZpTdT0YCmDhnilpX5nJSxV8tOWpmY/s320/FB_IMG_1542600227864.jpg" width="225" /></a></div>
एक बुजुर्ग थे। विद्वान् थे। श्वेतकेशी थे। संस्कृतज्ञ थे। कड़क भी थे, भोजपुरीभाषी भी; लेकिन पचहत्तर पार की उम्र में भी शरीर से सक्षम थे। एक दिन पद-यात्रा करते मेरे घर 'मुक्त कुटीर' (कंकड़बाग, पटना) आ पहुँचे। उनका नाम था-- पण्डित रामनारायण मिश्र। मुझसे ही पूछकर सीधे पिताजी के कक्ष में चले गये और प्रियवार्ता में निमग्न हो गये। डेढ़ घण्टे बाद पिताजी ने आवाज़ लगाई तो मैं हाज़िर हुआ। पिताजी ने कहा--'ये रामनारायण मिश्रजी हैं। अपनी किशोरावस्था में तुम्हारे पितामह के छात्र रहे हैं। प्रणाम करो।' मैं प्रणाम करने आगे बढ़ा तो मिश्रजी कुर्सी से उठ खड़े हुए और यह कहते हुए प्रणाम करने से मुझे रोक दिया कि ' हँ-हँ, दुअरा पऽ परनाम-पाती तऽ होइए गइल रहे।' (हँ-अहँ, द्वार पर प्रणाम-नमस्कार हो ही गया है)।<br />
<br />
जबकि उनके चरण-स्पर्श का पिताजी का आदेश यथोचित ही था। द्वार खोलते ही एक अपरिचित, सुदर्शन वयोवृद्ध को देख मेरी ग्रीवा सहज ही आन्दोलित होकर थोड़ी-सी नत हुई थी, लेकिन उसमें अपरिचय-बोध का सम्भ्रम, एक वयोवृद्ध के प्रति सहज सम्मान, प्रणति-भाव से प्रबल था। परिचय के बाद चरण-स्पर्श कर आशीर्वाद पाने के लाभ से मिश्रजी ने मुझे उस दिन क्यों वंचित कर दिया था, यह मैं समझ न सका।<br />
<br />
आपसी विमर्श में ज्ञात हुआ कि मिश्रजी संस्कृत उद्धरणों सहित हिन्दी में स्वलिखित एक पुस्तक की फोटोकाॅपी बँधवाकर साथ लाये हैं और चाहते हैं कि पिताजी उसे एक नज़र देख लें, फिर मैं उसे शुद्ध-शुद्ध अपने कम्प्यूटर पर कंपोज़ कर दूँ। पुस्तक वृहत् तो नहीं थी, लेकिन समय और श्रम की माँग तो करती ही थी। भगवद्गीता और उपनिषदीय ऋचाओं के सम्यक् अनुशीलन का ग्रंथ था, कठिन तो था ही। मिश्रजी को विश्वास ही नहीं था कि पटना के बड़े-से-बड़े संस्थान में भी उनकी पुस्तक शुद्ध रूप में टंकित हो सकेगी। उन्हें पिताजी की लेखनी के संस्पर्श का भी लोभ था।<br />
समस्या यह थी कि उन दिनों पिताजी के साथ मिलकर मैं पितामह द्वारा अनूदित श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण के पुनर्प्रकाशन में जुटा हुआ था। अंतिम दो खण्ड, युद्घ और उत्तर काण्ड, प्रकाशन की प्रतीक्षा में थे, जिसमें युद्घकाण्ड सबसे बड़ा था और उसका काम भी आधे रास्ते ही पहुँचा था। पिताजी उसी काम में प्राणपण से जुटे हुए थे और मैं उसकी कंपोज़िंग में। हमारे पास अवकाश बिल्कुल नहीं था। लेकिन मिश्रजी का संपर्क-संबंध पुराना था। अपनी किशोरावस्था में वह मेरे पितामह के पास संस्कृत-ज्ञान की पिपासा लेकर इलाहाबाद पहुँचे थे और पितामह की असीम अनुकम्पा से कृतकृत्य हुए थे। लिहाज़ा, पिताजी उनका अनुरोध ठुकरा न सके। सो, मिश्रजी की पाण्डुलिपि भी हमारे जिम्मे आ पड़ी।...<br />
<br />
मिश्रजी के विदा होने के बाद मैंने पिताजी से शिकायती लहज़े में कहा--'बाबूजी! आपने मिश्रजी की पुस्तक की जिम्मेदारी नाहक उठा ली। अब संस्कृत-हिन्दी की दो-दो पुस्तकों का काम कैसे पूरा होगा?'<br />
पिताजी ने शांत स्वर में कहा--'मिश्रजी को मैं अपने नकार का शिकार नहीं बना सकता था। उनसे निकट के, आत्मीय और पुराने संबंध हैं। हाँ, अपनी वर्तमान दशा और परिस्थितियों का हवाला देते हुए मैंने उनसे इतना अवश्य कह दिया है कि काम पूरा होने में वक़्त लगेगा और प्रूफ़-संशोधन आपका दायित्व होगा। मिश्रजी ने इसे स्वीकार भी किया है।'<br />
<br />
यह वाक़या वर्ष 1993 मध्य का है। सन् 93 के शेष पाँच-छः महीनों में हमने लग-भिड़कर युद्धकाण्ड का काम पूरा किया। युद्धकाण्ड जिस दिन मुद्रण के लिए प्रेस में भेजा गया, उसी दिन शाम में पिताजी ने मुझे बुलाकर मिश्रजी के ग्रंथ की पाण्डुलिपि सौंप दी। उन्होंने पुस्तक में आवश्यक संशोधन कर दिया था। यह देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने सस्मित कहा--'आपने इसमें सारे करेक्शन कब कर दिये बाबूजी? देर रात तक आपके कमरे में टेबल लैंप की रौशनी देखकर मैं तो यही समझता रहा कि आप युद्धकाण्ड की भाषा का परिष्कार कर रहे हैं।'<br />
पिताजी मुस्कुराये और बोले--'करने से कौन-सा काम है, जो पूरा नहीं होता? रामायण के काम में पहले चौदह घण्टे लगाता था, काम की उसी अवधि को बढ़ाकर मैंने सोलह-सत्रह घण्टे कर दिया और देख लो, काम की इसी भीड़ में मिश्रजी की पुस्तक भी परिशुद्ध हो गयी।'<br />
पिताजी की संकल्प-शक्ति और उनके जीवट को मैंने मन-ही-मन प्रणाम किया और मुस्कुराता हुआ कमरे से बाहर निकल आया।..<br />
( क्रमशः)</div>
आनन्द वर्धन ओझाhttp://www.blogger.com/profile/03260601576303367885noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5773464208897631664.post-37472198288319889512018-11-11T06:30:00.000-08:002018-11-11T06:30:32.934-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
शब्द-निःशब्द<br />
<br />
जब तुम प्रयासपूर्वक निचोड़ते हो<br />
शब्दों से अतिरिक्त अर्थ,<br />
शब्दों को अच्छा नहीं लगता,<br />
वे मुँह फुलाकर बैठ जाते हैं<br />
और करीब बैठे शब्द से<br />
बस, इतना ही कह पाते हैं--<br />
'दोस्त ! बहुत दोहन हो रहा है मेरा!'<br />
<br />
बगलगीर शब्द सांत्वना देते हुए<br />
कहता है--<br />
'फ़िक्र मत करो,<br />
बहुत चबाकर उगले हुए शब्दों को<br />
निचोड़ने से कुछ हासिल नहीं होता,<br />
तुम्हारा निहितार्थ, तुममें ही रहता है--<br />
चुपचाप...!<br />
निचोड़नेवाले की उँगलियों में ही<br />
दर्द होता है--बेपनाह...!!<br />
<br />
(--आनन्द, 13/06/2018.<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhOD1R96C3j_gKwwavNZoBGeStToT9HOcww7qfb0UUBqGduVmunfUt3LKvqMyXjiVjYqHoXys7YpP-R_n6imAdcw0aYFxIAJ-OvlB50YwgqIcQZp3A3uhHTR_CW8n4K1SbFf1zqpjZoZZU/s1600/20180619_063409.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1200" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhOD1R96C3j_gKwwavNZoBGeStToT9HOcww7qfb0UUBqGduVmunfUt3LKvqMyXjiVjYqHoXys7YpP-R_n6imAdcw0aYFxIAJ-OvlB50YwgqIcQZp3A3uhHTR_CW8n4K1SbFf1zqpjZoZZU/s320/20180619_063409.jpg" width="240" /></a></div>
)</div>
आनन्द वर्धन ओझाhttp://www.blogger.com/profile/03260601576303367885noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5773464208897631664.post-37884311721108122342018-06-06T05:02:00.000-07:002018-06-06T05:02:02.700-07:00इन्द्रलोक-सा गोवा : जितना भव्य, उतना ही मदहोश...(6)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
गोवा-प्रवास के अब दो दिन शेष थे। तीसरे दिन की सुबह हमें पुणे के लिए प्रस्थान करना था। फिर वही राह, वही पहाड़ की चढ़ाई, जहाँ से उतर आये थे हम! आठ घण्टों की वही लंबी डगर...! हमने तय किया कि अब हम विश्राम, व्यायाम और आनन्द-लाभ करेंगे, समुद्र-तट के अलावा कहीं जायेंगे नहीं।<br />
<br />
जिस शाम हमलोग स्वीट लेक से लौटे, उसी के दूसरे दिन एक सुदर्शन दम्पती हमारे पड़ोसी बने। सुबह के दस-साढ़े दस बज रहे होंगे। हम समुद्र-तट से स्नान कर लौट आये थे। मैं बाहर पड़े सोफ़े पर ही बैठा था, जब दम्पती ने चेक-इन किया। भुर्राक़ गोरे थे दोनों प्राणी! मेरे ठीक बगल की अपनी कुटिया में प्रवेश करते हुए उन दोनों ने मुझे देखा और मधुर मुस्कान के साथ दो शब्द कहे--'गुड मॉर्निंग!' शिष्टाचारवश मैंने भी प्रत्युत्तर दिया। अपना सामान रैनबसेरे में रखकर वे समुद्र तट की ओर चले गये। मैं अपनी जगह जमा रहा। वे दोनों सुदर्शन थे--अच्छी-ख़ासी कद-काठी के, नैन-नक्श के। दोनों की त्वचा से रक्त की लालिमा जैसे छलक पड़ना चाहती हो। अन्य विदेशी कन्याओं की अपेक्षा युवती ने भद्र वेश धारण किया था और अत्यंत आकर्षक लग रही थी। वे सिगरेट का धुआं उड़ाते चले गये। चाय की प्रतीक्षा में मैं अपनी जगह पर जमा रहा। घण्टे-भर बाद वे दोनों लौट आये। तब तक चाय मैं पी चुका था और अपनी असली ख़ुराक, एक बीड़ा पान, के प्रबंधन में मशगूल था।<br />
तभी पदचाप सुनकर मैंने सिर उठाया, देखा, वही दम्पती थे। उन्होंने मुझे देखकर मधुर मुस्कान दी। मैंने मुस्कुरा के पूछा--'हाउ डू यू लाइक द बीच?'<br />
युवक ने कहा--"नो डाउट, बीच इज़ ब्यूटीफुल!' मैंने तस्दीक की--'यस, इट्स ऑसम!' तभी कन्या ने लपककर कहा--'यस, आसम...आसम!' लेकिन मुझे उन दोनों के अंग्रेजी उच्चारण में सहजता की कमी महसूस हुई। मैंने जिज्ञासावश पूछ लिया--'फ्राॅम वेयर आर यू?' पुरुष ने उत्तर देते हुए प्रश्न भी किया--'रशिया, एण्ड यू?' प्रत्युत्तर में मैंने स्वयं को भारतीय बताया। प्रश्न युवक ने किया था, उत्तर देते हुए मुझे उससे मुख़ातिब होना चाहिए था, लेकिन मेरी दृष्टि तो कन्या के मुखमण्डल पर ही स्थिर होकर रह गई थी। वह सचमुच बहुत सुन्दर थी। ये कुदरत भी न, किसी-किसी को अपनी नेमतों से क्या खूब नवाज़ती है!... तभी पुरुष ने अपनी भाषा में कुछ कहा और दोनों अपनी पर्णकुटी में चले गये, मैं संकुचित हो उठा। क्या मेरी स्थिर दृष्टि मर्यादाएँ लाँघ रही थी। इस पर तुर्रा यह कि छोटी बेटी ने लगे हाथ वर्जना भी दे दी--'प्लीज़, डोण्ट टाॅक टू मच, पापा!' बेटी के वाक्य ने मेरा संकोच और बढ़ा दिया, लेकिन मेरे-जैसा मुखर व्यक्ति भला चुप कैसे रहता? मैंने बेटी से कहा--'मैंने तो कुछ कहा ही नहीं था बेटा! बात की शुरूआत तो उन्हीं लोगों ने की थी। मैं क्या कुछ न कहता, चुप रहता?" बेटी ने चुप्पी साध ली। अब मैंने अपने अधबने पान को देखा, जिसका एक कोना सुपारी के डिब्बे से दबा था और उस पर लगा चूना सूख चला था। मेरी ही प्रतीक्षा में विकल था पान भी, उसे देखकर मुझे लगा, मेरी दृष्टि के कोर पर भी किसी पाँव धर दिया है।...<br />
<br />
फिर, चौबीस घंटे तक बगलगीर में किसी से बात नहीं हुई और अनावश्यक एक जटिलता मन में अवसाद-सी घुलती रही, जबकि मेरी ठहरी हुई दृष्टि में ऐसा कुछ भी नहीं था, जो आपत्तिजनक होने की कोटि में आता हो। कभी-कभी ऐसा होता है न कि किसी आकर्षक पुष्प, वस्तु, दृश्य या व्यक्ति को देखकर आप ठिठक जाते हैं, सम्मोहन की दशा में स्थिर-हतसंज्ञ हो जाते हैं। उस कन्या का रूप-लावण्य था ही ऐसा कि उस पर मेरी दृष्टि पड़ी, तो ठिठक गयी। उस दृष्टिपात में सहज सम्मोहन के अतिरिक्त और कुछ नहीं था। हाँ, मानता हूँ, शिष्टता के तकाज़े से भटक गयी थी मेरी दृष्टि उस क्षण! लेकिन वह थी ही ऐसी कमनीय कुसुम--सुर्ख़ गुलाब-सी सुकोमल कन्या...!<br />
<br />
चौबीस घण्टे के बाद मैं फिर उसी जगह, उसी सोफ़े पर बैठा था। मैंने देखा, वह कन्या अपनी पर्णकुटी से अकेले निकली और धुआँ उड़ाती चलती चली गई। मैंने सोचा, युवक भी अब घर से निकलेंगे और कुटिया में ताला बंद करके चले जायेंगे युवती के पास। मैं बार-बार खुले द्वार की ओर देखता रहा, युवक बाहर आये ही नहीं। करीब पैंतालीस मिनट का वक़्त व्यतीत हो गया। मैंने मन-ही-मन मान लिया कि युवती अकेली ही कहीं गयी होगी और पुरुष अंदर ही होंगे। लेकिन नहीं, पैंतालीस मिनट के बाद मैंने देखा, युवक-युवती दोनों साथ-साथ चले आ रहे हैं। मुझे आश्चर्य हुआ, ये दोनों प्राणी तो बड़े निश्चिंत हैं और पूरी आश्वस्ति से पदाघात करते चले आ रहे हैं। बेटी की वर्जना के प्रभाव में मैंने स्वयं कुछ कहना-पूछना उचित नहीं माना। लेकिन वे जब करीब आ गये तो मेरी दृष्टि फिर उनकी ओर उठी और विवश हो गयी। आगे-आगे कन्या ही थी। कन्या की मीठी मुस्कान ने मेरा इस्तक़बाल किया। उसकी सम्मोहक मुस्कान से मेरा हौसला बढ़ गया। फिर मैं चुप न रह सका। मैंने दरवाज़े की ओर इशारा करते हुए उसी से पूछा--'ह्वाई यू हैव लेफ़्ट इट ओपन?' अब उसने एक दिलकश मुस्कान बिखेरी और मीठी आवाज़ में बोली--'बिकाॅज़ यू आर हियर, सर!' यह कहकर वह हँस पड़ी और अपनी कुटिया में चली गयी। न इधर कोई दुर्भाव था, न उधर कोई अवगुंठन। उसकी निश्छल हंसी की खनक से मन का मुर्झाया गुलाब खिल उठा। मैंने वहीं बैठे-ठाले एक शेर कहा, कहिये तो सुना दूँ--<br />
<br />
'कहो तो लिख दूँ किताब फूलों की,<br />
तुम से मिलती है शक़्ल गुलाबों की।'<br />
<br />
इस शेर के साथ यह प्रकरण समाप्त हुआ और मिट गया मन में अनावश्यक जड़ जमाता अपराध-बोध।...<br />
अब हमारे पास सिर्फ़ वही दिन शेष था। श्रीमतीजी अपने घुटने की फ़िक्र में तैल-मर्दन के लिए मसाज सेंटर गयीं, जो उसी परिसर में था। वह लौटीं तो हम सभी तैयार होकर भोजन करने वेलेंकिनी गये और भोजन से निवृत्त होकर बाज़ार में घूमते फिरे--दो चीजों के लिए--एक तो कच्चे नारियल का शुद्ध तैल, जिसे खरीदने की सिफ़ारिश मसाज सेंटर ने की थी; दूसरे पान के छुट्टे पत्तों के लिए, जिसका भण्डार रिक्त हो चला था। दोनों सामग्रियाँ खरीद कर जब हम लौट रहे थे तो सड़क किनारे दूकनों में लटकते वस्त्रों को देखकर श्रीमतीजी ने कार रुकवायी और कपड़ों की कई दुकानों में गयीं। उनके साथ मैं भी था और बेटी भी। दुकान में खरीद-फरोख़्त करते विदेशी सैलानी भी थे। दुकानदार पुरुष भी थे और निपट घरेलू कोंकणी महिलाएँ भी। हम यह देखकर चकित रह गये कि वे सामान्य घरेलू महिलाएँ विदेशियों से उन्हीं की भाषा में बातें कर रही थीं और उन्हें संतुष्ट भी कर रही थीं। यह देख श्रीमतीजी से रहा न गया। उन्होंने एक दूकान की संचालिका से पूछ ही लिया--'आप इन लोगों से किस भाषा में बात कर रही हैं?' उसने कहा--'रशियन!' श्रीमतीजी बोलीं--'आपने रशियन सीखी है क्या?' वह मुस्कुराते हुए बोली--'आसपास के जितने भी बीच हैं, उन पर ज्यादातर रशियन ही आते हैं, उन्हीं से सीख ली है मैडम!' उसकी बात सुनकर श्रीमतीजी ने मुझसे कहा--'देखिये न, भाषा भी यात्रा करके कैसे आ पहुँची है यहाँ।' हम वहाँ से विस्मित लौटे।...<br />
<br />
शाम का वक़्त भी आनन्द-सागर गोते लगाते हुए व्यतीत हुआ। रात के भोजन की प्रतीक्षा करते हुए मैंने चार पंक्तियाँ लिखीं--<br />
'रात की स्याही, उजालों की कहानी लिखिये,<br />
हवा की शोख़ियाँ, रेत की बेज़ुबानी लिखिये,<br />
ताउम्र ठहर जाइये, मौजों की परेशानी लिखिये,<br />
देखिये दुनिया नयी, पर याद पुरानी लिखिये।'<br />
<br />
समुद्र-तट की ऊर्जा ऐसी थी कि ब्राह्म मुहूर्त में ही जगा देती थी। गोवा की अंतिम रात में हम एहतियातन जल्दी शय्याशायी हुए और सुबह सात बजे अपनी पर्णकुटी छोड़कर मय-सरोसामाँ बाहर आ गये। वह रमणीय स्थान हमें आसानी से छोड़ कहाँ रहा था! लेकिन राह लंबी थी, हमें उस स्थान की मोहिनी शक्ति के हाथ झटकने पड़े। कार में बैठते ही मैंने सेलफोन के नोट पैड में कतिपय पंक्तियाँ लिखीं--<br />
<br />
'जीवन है, सो यात्रा है...<br />
चलते रहो, निर्भीक-निःशंक<br />
कभी मिलेगा सुख का सागर<br />
कभी मिलेगा दुःख का दंश!...<br />
जीवन-पर्वत नहीं अल्लंघ्य,<br />
पाँव धरा तो होगे उस पार,<br />
पहुँच शीर्ष पर ही जानोगे<br />
क्या है पर्वत के उस पार<br />
और समझ लोगे तुम यह भी<br />
था चढ़ना जितना दुष्कर,<br />
उतना ही सुखदायी सफ़र था।<br />
नीचे बने घरौंदों में ही,<br />
कहीं एक अपना घर था...!'<br />
<br />
हाशिम भाई घाटी से उतर तो आये थे, लेकिन अब उसकी चढ़ाई से चिंतातुर थे और उनकी चिंता से मैं भी। वह कोई दूसरी राह तलाश रहे थे। लंबी दूरी के चालकों से दरियाफ़्त कर रहे, नेट खँगाल रहे थे। उन्हें एक-दो अन्य मार्ग मिले भी, लेकिन वे बहुत लंबे थे, फिर तो उन्नतशिर पहाड़ की घाटी को लाँघना ही एकमात्र विकल्प था। मैंने हाशिम भाई को ड्राइविंग के कुछ टिप्स दिये और उनकी हौसलाअफ़जाई की। गोवा छोड़ने के पहले एक छोटी-सी दुकान की चाय पीकर हम तरोताज़ा हुए और लंबी यात्रा शुरू हुई। अंबोली घाटी के शीर्ष पर चढ़ते हुए हाशिम भाई ने कार-चालन बड़ी निपुणता से किया और निपाणी के एक होटल में दक्षिण भारतीय स्वादिष्ट व्यंजनों से पेट भरकर निरंतर चलते ही रहे। शाम के चार बजे हमने पुणे में प्रवेश किया। अत्यंत आनन्ददायी सफ़र था। खूब मज़ा आया।लेकिन, समुद्र के खारे जल ने मेरी पैंतीस वर्ष पुरानी और प्रिय दाढ़ी में कुछ ऐसा उत्पात मचाया कि पुणे पहुँचने के दस दिनों बाद ही मुझे उससे मुक्त होना पड़ा।... दस दिनों की इस गोवा-यात्रा का यही अर्जन और व्यय था, हुआ।...<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgApxqGiIgBXhhImsu-WmDYWifcEAuVthQohie8JDRYPInXkHwqnsw-6DNw8ib8xHXMoveox16FC8Hkn7ELvVtikvc6_dbN2Yz9pvV4quc-CFHVIzmO3F_YedS5DJodXyrqryLqMP-8P8E/s1600/received_10209587009866776.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1125" data-original-width="1600" height="225" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgApxqGiIgBXhhImsu-WmDYWifcEAuVthQohie8JDRYPInXkHwqnsw-6DNw8ib8xHXMoveox16FC8Hkn7ELvVtikvc6_dbN2Yz9pvV4quc-CFHVIzmO3F_YedS5DJodXyrqryLqMP-8P8E/s320/received_10209587009866776.jpeg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhVBEwacmxKJBHR89Oy1RVTMzlVXwk4CYVQTQx2_Ng1x4jLW5WN3orDmweNSvCHCc2zqMQ-NIPCsNGhzR_-aWKDmuXXWEdF7_sFlg6rmcC1AA_05nQDfQYx9ixRnckDfTNGdPHcORSm1nk/s1600/IMG-20180310-WA0010.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="774" data-original-width="1032" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhVBEwacmxKJBHR89Oy1RVTMzlVXwk4CYVQTQx2_Ng1x4jLW5WN3orDmweNSvCHCc2zqMQ-NIPCsNGhzR_-aWKDmuXXWEdF7_sFlg6rmcC1AA_05nQDfQYx9ixRnckDfTNGdPHcORSm1nk/s320/IMG-20180310-WA0010.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjIW8VLU_kWa4_9BRoD2wRrA7ovbCvLu93mWABcH0y-giu0vS_hPqLBXT8N3ZYxovivStpAZpgpzPlCj8F5gTN6SdsnrIiI2Q7y2lkF9o7HAOtiqYK4lSbPkOOnLt6u4Ir0syQDzdR5nkU/s1600/FB_IMG_1525488861211.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="840" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjIW8VLU_kWa4_9BRoD2wRrA7ovbCvLu93mWABcH0y-giu0vS_hPqLBXT8N3ZYxovivStpAZpgpzPlCj8F5gTN6SdsnrIiI2Q7y2lkF9o7HAOtiqYK4lSbPkOOnLt6u4Ir0syQDzdR5nkU/s320/FB_IMG_1525488861211.jpg" width="167" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhd4lG1VnwjH-VqmqTN5XeXNMUAleXy7IURHWiSiJ9ZxTCoCS0E-_9E9f2cbCvMEZiuKgz2yUxVVnbbhSr1JSNS_cjKmJJMLiN-bA79WixiimoIQz5BuvGVq7c7z1PhEWT_d2z3ah0B7hw/s1600/FB_IMG_1525488875925.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="1280" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhd4lG1VnwjH-VqmqTN5XeXNMUAleXy7IURHWiSiJ9ZxTCoCS0E-_9E9f2cbCvMEZiuKgz2yUxVVnbbhSr1JSNS_cjKmJJMLiN-bA79WixiimoIQz5BuvGVq7c7z1PhEWT_d2z3ah0B7hw/s320/FB_IMG_1525488875925.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjl_h7IOsAHEtRC2TYGhcSEC0Ib2zn88ghI6pwXNC5PNLEu8CXWzIUG-8LuqYzuqQPeTGU7dF4uQKrLzSxMJPInfdyDovCDbZ7iJNsnywu36zo2A-Rsdgo2IZ_Gi1VqkCLQn4VCsa4sAdQ/s1600/FB_IMG_1525853676825.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="1280" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjl_h7IOsAHEtRC2TYGhcSEC0Ib2zn88ghI6pwXNC5PNLEu8CXWzIUG-8LuqYzuqQPeTGU7dF4uQKrLzSxMJPInfdyDovCDbZ7iJNsnywu36zo2A-Rsdgo2IZ_Gi1VqkCLQn4VCsa4sAdQ/s320/FB_IMG_1525853676825.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijUvFUfyIPvtFF38HK2ZiR2J2J1A2kAUCJDDDSBSBCVwky4-MwvhNJwxsvH7CZDrMsCGZAU6YbVfLSh9ulRWnhriwNbIkxuLz5pR1UcPZCWQIB5dVJJZjSNruwzBP-2nQUuzjDvUAWk1w/s1600/FB_IMG_1525853746389.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="720" data-original-width="960" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijUvFUfyIPvtFF38HK2ZiR2J2J1A2kAUCJDDDSBSBCVwky4-MwvhNJwxsvH7CZDrMsCGZAU6YbVfLSh9ulRWnhriwNbIkxuLz5pR1UcPZCWQIB5dVJJZjSNruwzBP-2nQUuzjDvUAWk1w/s320/FB_IMG_1525853746389.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgb5s27NzSUK-A3U0uP2VBU0iMEFXpPTAyJIIE9sT77c7IXrBrvlZGyF5dao26p6ptvYoa8zsj5Z9jKC8vjw-TFECCl-C20rM7EmZ4KVWLadT91eB4gepXXNunqDA3yvv9uCfPUh9G6aq8/s1600/20180417_184515.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="634" data-original-width="565" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgb5s27NzSUK-A3U0uP2VBU0iMEFXpPTAyJIIE9sT77c7IXrBrvlZGyF5dao26p6ptvYoa8zsj5Z9jKC8vjw-TFECCl-C20rM7EmZ4KVWLadT91eB4gepXXNunqDA3yvv9uCfPUh9G6aq8/s320/20180417_184515.jpg" width="285" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjWW8j1cyjosX6YUiWHJkh6kr5NDRFUwzVcoXImx8nZ2MAGxXYMbB7JfhNBKoaDyEpceTncflhmh7bjAj_KSEXy6MXR1yB8hI5mTULfth6iozzyGwLfw2PADiGOsGwHTLob6k1LRh5753M/s1600/20180309_183054.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1200" data-original-width="1600" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjWW8j1cyjosX6YUiWHJkh6kr5NDRFUwzVcoXImx8nZ2MAGxXYMbB7JfhNBKoaDyEpceTncflhmh7bjAj_KSEXy6MXR1yB8hI5mTULfth6iozzyGwLfw2PADiGOsGwHTLob6k1LRh5753M/s320/20180309_183054.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
(समाप्त)<br />
[पुन : वृत्तांत समेटते-समेटते भी लंबा हो गया न?]</div>
आनन्द वर्धन ओझाhttp://www.blogger.com/profile/03260601576303367885noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5773464208897631664.post-69096533285562241542018-05-09T01:25:00.000-07:002018-05-09T01:25:39.487-07:00इन्द्रलोक-सा गोवा : जितना भव्य, उतना ही मदहोश...(5)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
ऊँची पहाड़ी के सर्पिल मार्ग से नीचे उतरते हुए हम समुद्र के किनारे समतल बलुआये मैदान में पहुँचे, जिसकी एक तरफ़ नीला समुद्र था और दूसरी ओर मीठे जल का ताल। अद्भुत सौंदर्य बिखरा हुआ था वहाँ। नारियल और खजूर के पेड़ों की छाया में अर्धचंद्राकार स्वरूप में 'बेड' बिछे थे।... हम उन्हीं गद्देदार शय्या पर विश्राम करने लगे। हमारे ठीक सामने मीठे जल की झील तरंगित थी। तरंगित इसलिये कि झील का जल ठहरा हुआ नहीं था, प्रवहमान् था, प्रायः 350 मीटर की रेतीली भूमि के अन्दर-अन्दर छनकर समुद्र का खारा पानी परिशुद्ध होता हुआ आता है और एक विशाल भूमि-पात्र में मृदु होकर जमा हो जाता है। पात्र की सीमा से अतिरिक्त होता जल दूसरी दिशा में बहता चला जाता है। समुद्री तटों के किनारे ऐसी उथली जल-संरचना, जो लवणयुक्त तथा खारे पानी को मीठी झील या तालाब में परिवर्तित करती हो, उसे 'लगून' कहते हैं।... अब हम उसके ठीक किनारे आराम कर रहे थे। गोरी त्वचावाले बहुत-से विदेशी लोग वहाँ पहले से लेटे-बैठे थे और कई लोग झील में तैर रहे थे। कई विदेशी मेहमान अपने पूरे शरीर पर औषध मिश्रित पीली मिट्टी का लेपन करवा के विभूति बने धूप सेंक रहे थे। इसे हम 'पीतवर्णी औषधीय मृदा-लेपन' कहें तो उचित होगा। शरीर पर किया गया यह लेपन जब सूख जाता है, तब विदेशी पर्यटक झील के मीठे जल का स्नान करते हैं और अपने त्वचा-संबंधी अवगुणों का निदान करते हैं। और, इस उपचार के लिए वे बड़ी राशि का भुगतान भी करते हैं।...<br />
झील पहाड़ों से तीन तरफ से घिरी हुई थी और ठीक हमारी शय्या के सामने पहाड़ों ने जैसे जानबूझकर झील को एक गलियारा दे दिया था, अतिरिक्त जल के निकास के लिए। अद्भुत नज़ारा था वहाँ का।...<br />
<br />
थोड़ी देर विश्राम करने के बाद बेटी अपनी माता के साथ झील में उतर गयी, जबकि हम सभी समुद्र-स्नान सुबह ही कर चुके थे। माँ-बेटी को झील के मीठे जल में कुलेल करते हुए बड़ा आनन्द आ रहा था। वे हमें भी पानी में उतरने के लिए ललकार रही थीं। अंततः मैं और हाशिम भाई भी पुनर्स्नान के लिए विवश हुए। निःसंदेह वहाँ आनन्द मिला, लंबी पद-यात्रा की थकान जाती रही। स्नानोपरांत शाम 4.30 बजे तक हम वहीं बैठे सुन्दर दृश्यों का अवलोकन करते रहे। तभी आसमान में कई छतरियाँ मँडराती दिखीं। बेटी संज्ञा ने पूछा--'पापा, पाराग्लाइडिंग करेंगे?' ऊँचाइयों से भयभीत होनेवाला मैं, इतनी हिम्मत जुटा न सका और समुद्र को आकाश से देखने की योजना निरस्त हो गयी; लेकिन हसरत-भरी एक नज़र उन पर लगी रही जो उत्साही आसमान में झूलते हुए भयावह समुद्र का आक्रांत दर्शन कर रहे थे। प्राण तो उनके भी कण्ठ में ही रहे होंगे, फिर भी सच तो यही है कि शौर्य की गाथा साहसी ही लिखते हैं।...<br />
<br />
पाँच बजते ही हम फिर उसी मार्ग से होते हुए बाज़ार में पहुँच गए। एक कप चाय की तलब थी। तट के एक रेस्तरां में बैठकर चाय पीने का मन हो आया। बेटी अपनी माँ के साथ आगे-आगे चल रही थी। उन दोनों ने मुझसे पहले एक रेस्तरां में प्रवेश किया और उनके बाद हाशिम भाई ने। मैं प्रवेश-द्वार पर द्वारपाल से मुख़्तसर-सी बातें करने लगा। अचानक जाने क्या हुआ कि होटल के प्रबंधक एक वेटर के साथ तेज़ी से मेरे पास आये और बड़ी विनम्रता से मुझसे अंदर चलने का आग्रह करने लगे। उनकी इस शिष्टता-भद्रता से मैं प्रभावित तो हुआ, लेकिन माजरा कुछ समझ न आया।<br />
रेस्तरां की कुर्सी पर बैठते हुए बेटी ने मुझसे कहा--'पापा, आपके तो जलवे हैं।' हमने वहीं चाय पी और अस्ताचलगामी सूर्यदेव के दर्शन किये। लगा कि दिन-भर का जलता सूरज शीतलता पाने के लिए समुद्र में जा छुपा। रेस्तरां के वेटर मुझ नाचीज़ में ऐसा क्या देख रहे थे या किस बड़ी हस्ती का साम्य मुझमें उन्हें दृष्टिगोचर हो रहा था, राम जाने! वे मेरी बहुत ख़िदमत कर रहे थे। 'यस सर', 'नो सर' कह-कहकर उन्होंने मुझे 'विशिष्ट' बना दिया, जबकि मैं मानता हूँ, मैं ठीक से 'शिष्ट' भी न बन सका। किन्तु, इस अप्रत्याशित आवभगत का मैं भी आनन्द उठाने लगा। चलते वक़्त वेटर और गेटमैन ने बड़ी विनम्रता से कहा था--'फिर आने का... सर!'... जब हम पहाड़ी रास्तों में थे, तो सबों के ठहाके गूँँज रहे थे।...श्रीमतीजी यह कहकर बार-बार हँस पड़ती थीं--'सेलिब्रिटी! सेलिब्रिटी!!' मेरे पूछने पर उन्होंने और बिटिया ने सम्मिलित रूप से बताया कि "जब आप गेटमैन से बातें कर रहे थे, तब अन्दर हलचल मची थी। मैनेजर अपनी सीट से उछलकर खड़ा हुआ था और वेटरों से उसने कहा था--'अरे, कोई सेलिब्रिटी आये हैं!' और वे हमें छोड़कर आपकी अगवानी को बढ़ गये।"<br />
श्रीमतीजी की चिकोटी काटती मुखर हँसी और बेटी का परिहास भी मुझे अप्रीतिकर नहीं लग रहा था। झूठी प्रशंसा भी प्रिय लगती है न...?<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjMk91rruzEdX2xVWBMcj_j2t0lqzTJzqmkF8AkfLUlxkH85CaOpYViPtK6B18_5q4DAa867F6nfYTEaKTw2bt0paHLR9p6iI9CrJUqmDf2AcjnhVYrlQNvEg_VfZVqCY43u6D3i-6d4A4/s1600/FB_IMG_1525853590264.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1200" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjMk91rruzEdX2xVWBMcj_j2t0lqzTJzqmkF8AkfLUlxkH85CaOpYViPtK6B18_5q4DAa867F6nfYTEaKTw2bt0paHLR9p6iI9CrJUqmDf2AcjnhVYrlQNvEg_VfZVqCY43u6D3i-6d4A4/s320/FB_IMG_1525853590264.jpg" width="240" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjxL3IOwWKWfDdPvWLUjCwN7HWP3XLbs1Gcp_B8gdaVMofHBxh8w9K0ZKV4ILl2B9aWo-z_2QozaXfGkjdBPTqAtFHzO543wPx5K6aB4luQz7BE-2CYL9sbDfaIjrbnD8ZERty1fdc3xQ4/s1600/FB_IMG_1525853622548.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="1280" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjxL3IOwWKWfDdPvWLUjCwN7HWP3XLbs1Gcp_B8gdaVMofHBxh8w9K0ZKV4ILl2B9aWo-z_2QozaXfGkjdBPTqAtFHzO543wPx5K6aB4luQz7BE-2CYL9sbDfaIjrbnD8ZERty1fdc3xQ4/s320/FB_IMG_1525853622548.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg3yy83DWGyFi70WQFdPLVcDKgFlnMkCO9Q_tomxRKxIa_AupuwW52VVbW0uIM06CDm2kAnBjv6BBjlDw7Oia1gdI6CGOdrI4eMpfgrrZRlG_PrZMVD8UhCUsghtEPa3SWlOqRfUu860pE/s1600/FB_IMG_1525853730143.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="757" data-original-width="902" height="268" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg3yy83DWGyFi70WQFdPLVcDKgFlnMkCO9Q_tomxRKxIa_AupuwW52VVbW0uIM06CDm2kAnBjv6BBjlDw7Oia1gdI6CGOdrI4eMpfgrrZRlG_PrZMVD8UhCUsghtEPa3SWlOqRfUu860pE/s320/FB_IMG_1525853730143.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgfc68Vfeuu9LeIh7mZJFc7Ku-9R6epUbrcPCkUb2u-kJOoOYXSFXHxZIdimRyO7htvNo_u1uLeVD-EQWhE2nujgWvJn3aoxGJCzwhrACLomCz54nNZH8bpsDkN5pP-f-pRZ8wNNswH2w4/s1600/FB_IMG_1525853791895.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="1280" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgfc68Vfeuu9LeIh7mZJFc7Ku-9R6epUbrcPCkUb2u-kJOoOYXSFXHxZIdimRyO7htvNo_u1uLeVD-EQWhE2nujgWvJn3aoxGJCzwhrACLomCz54nNZH8bpsDkN5pP-f-pRZ8wNNswH2w4/s320/FB_IMG_1525853791895.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHfkJv4gsJC0ztyevUVg5e4Tn5ldtxzde_F_34Y2wG5cDCmca9BkVlKVYw_fBrd7v1A2BMy32ZBIpdYAdnbvhkdtZISAN6CM6ZhNWlWL_ZSo4BDQmC7bRZpNTlmw947Rcv7VV_xej1Vmk/s1600/FB_IMG_1525853676825.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="1280" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHfkJv4gsJC0ztyevUVg5e4Tn5ldtxzde_F_34Y2wG5cDCmca9BkVlKVYw_fBrd7v1A2BMy32ZBIpdYAdnbvhkdtZISAN6CM6ZhNWlWL_ZSo4BDQmC7bRZpNTlmw947Rcv7VV_xej1Vmk/s320/FB_IMG_1525853676825.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgr7oj2fBqSzH2CNRt9Jrud7J3e0IYNw2ZOrhQFsfuvafiHQ3A_6PlVthDUm4i90GtpatF5G3r5xv-1cm8e3sY3FoMCKU17iLARfMxiWlpB55l7FPNEChFNkBIyQqBcho34c2mUiHkqZ1U/s1600/FB_IMG_1525853771214.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="1280" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgr7oj2fBqSzH2CNRt9Jrud7J3e0IYNw2ZOrhQFsfuvafiHQ3A_6PlVthDUm4i90GtpatF5G3r5xv-1cm8e3sY3FoMCKU17iLARfMxiWlpB55l7FPNEChFNkBIyQqBcho34c2mUiHkqZ1U/s320/FB_IMG_1525853771214.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgoCGH4UCsfxMuabWP5VDQ5U7cCaB1_koL4RlALz0KQOCbDJURoXXzofymhfisyip78S9x0E2Hhqsjw-CUlkbJ1vTVHl9kPqg8_qRhHIcKumjeoniZs5z-VY69l5_h7stVPEb51BVheY54/s1600/FB_IMG_1525853704101.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="1280" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgoCGH4UCsfxMuabWP5VDQ5U7cCaB1_koL4RlALz0KQOCbDJURoXXzofymhfisyip78S9x0E2Hhqsjw-CUlkbJ1vTVHl9kPqg8_qRhHIcKumjeoniZs5z-VY69l5_h7stVPEb51BVheY54/s320/FB_IMG_1525853704101.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjNnwtK_l1Ls8ABxrNLt2jetftyDWLuDDloAzBU3Vf8pfPDa5CUXkz0PWEc9aASdRUqrFowhAB5tGUezgnw_nhCtyHM-UdpTYvkXrm6Xvk8XOOVMu1t9rKMfAMswc-dKUpOqj7FtXhalmE/s1600/FB_IMG_1525853718823.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="1280" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjNnwtK_l1Ls8ABxrNLt2jetftyDWLuDDloAzBU3Vf8pfPDa5CUXkz0PWEc9aASdRUqrFowhAB5tGUezgnw_nhCtyHM-UdpTYvkXrm6Xvk8XOOVMu1t9rKMfAMswc-dKUpOqj7FtXhalmE/s320/FB_IMG_1525853718823.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg3L7jQjfcr7yCPBbYhlq0A9V-S7dTWx9jXdb-lFcxzO56osdISqWJSf-FigaDJMN2IAl2C-lvYte95NjZScrx79XQi4Rc1y79G-ymggRqKu2OPLSqPP6ufmDL81lnp1h5SWuFHMMIyUJY/s1600/FB_IMG_1525853746389.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="720" data-original-width="960" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg3L7jQjfcr7yCPBbYhlq0A9V-S7dTWx9jXdb-lFcxzO56osdISqWJSf-FigaDJMN2IAl2C-lvYte95NjZScrx79XQi4Rc1y79G-ymggRqKu2OPLSqPP6ufmDL81lnp1h5SWuFHMMIyUJY/s320/FB_IMG_1525853746389.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
(शेषांश अगली कड़ी में)</div>
आनन्द वर्धन ओझाhttp://www.blogger.com/profile/03260601576303367885noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5773464208897631664.post-72111598671368792892018-05-04T20:38:00.002-07:002018-05-04T20:38:38.947-07:00इन्द्रलोक-सा गोवा : जितना भव्य, उतना ही मदहोश...(4)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
पूरी शाम समुद्र-तट पर बीत गयी। अंधकार होते ही तट पर दौड़ती जीप ध्वनि-विस्तारक यंत्र से उद्घोषणा कर रही थी--'पर्यटक समुद्र से बाहर निकल आयें। आज पूरे चाँद की रात है। समंदर की तरंगें असंयमित हो सकती हैं।' देखते-देखते लोग समुद्र से निकलकर तट पर आ गये। और, भीड़ छँटने लगी। 8 बजते ही हम भी तट से दूर किनारे-किनारे वेलेंकिनी की ओर चले। रात का भोजन तो वहीं करना था। तट और वेलेंकिनी रिसोर्ट के मध्य बनी मड़ैया जन-शून्य हो गयी थी। मैंने अपने झोले में तीव्र प्रकाश देनेवाली चोरबत्ती पहले ही रख ली थी। उसी के प्रकाश में टटोलते और बालू की गडमड राह धाँगते हुए हम सभी वेलेंकिनी की मड़ैया में पहुँचे और दो शय्या पर जमकर बैठ गए। बिगफुुट की यात्रा को लेेेेकर हमारी जो चर्चा शुुुुरू हुई, वह अनेेक अविस्मरणीय अनुभवों, अनुभूतियों, विचारों और गीत-संंगीत की यात्रा करती हुई कविता पर आ ठहरी। कविता का मैैैदान मेरा मैदान था। वायु के निर्मल झकोरों में झूूमते हुुए मैंने आशु कविता की--<br />
<br />
'गोवा के बीच से...<br />
<br />
समुद्री हवाओं से चुरा रहा हूँ चंद साँसें<br />
जिंदगी के भँवर से ही<br />
मिलती हैं,<br />
ज़िंदगी की साँसें,<br />
तुम करीब हो तो ऐसा लगता है<br />
जिंदगी से भरी हैं समुद्री साँसें...!'<br />
<br />
सचमुच, तरंगित हवाएँ तो मदहोश कर देनेवाली थीं। हम सभी आनन्दमग्न थे। साढ़े नौ-दस बजते ही पीतवर्णी पूर्णचन्द्र आकाश में प्रकट हुए। चन्द्र की ज्योत्सना से अंधकार मुँह छुपाने लगा। समुद्र प्रसन्नता से हाहाकर करने लगा। उसकी घोर गर्जना तट और वेलेंकिनी रिसोर्ट के मध्य बनी मड़ैया तक हमें स्पष्ट सुनाई पड़ रही थी और हम आन्दोलित हो रहे थे। तीव्र समीरण हमें झकझोरने लगा। ओह, वे अविस्मरणीय क्षण थे!... मैं आज तक समझ न सका कि चन्द्र-दर्शन से समुद्र इतना उतावला और उन्मत्त क्यों हो जाता है। जीवन में मैंने भी तो देखी हैं जाने कितनी चन्द्रमुखियाँ, मैं तो कभी उतावला-उन्मत्त न हुआ। उसी रात विचार करके मैंने जाना कि उन्मत्त होने के लिए समंदर-सी विराट् सत्ता होनी चाहिये। समंदर तो क्या, मैं गड्ढे-सा जल-पात्र भी कहाँ था?... रात्रि-भोजन के दौरान हमने निश्चय किया कि कल हम मीठे पानी की झील (लैगून) के दर्शन करने चलेंगे। भोजनोपरांत हम समुद्र का किनारा पकड़कर चोरबत्ती के मद्धम प्रकाश में पथ-दर्शन करते हुए अपनी पर्णकुटी में लौट आये। अत्यधिक उत्साह में समुद्र तट पर चढ़ आया था और भीषण गर्जन-तर्जन करता हुआ भयावह लग रहा था।....<br />
<br />
दूसरे दिन की चर्या भी सूर्योदय-दर्शन, व्यायाम और समुद्र-स्नान से शुरू हुई। तट के सेवक ने बताया कि पिछली रात एक बड़ा-सा कच्छप समुद्र की उत्तुंग लहरों में बहता हुआ किनारे की रेत पर आ गया था, उसे उठाकर समुद्र में सादर पहुँचाया गया। ऐसी मान्यता और ऐसा विधान है कि जिस तट पर कच्छपराज की अपमृत्यु हो जाती है, उस तट को बंद कर दिया जाता है, वह तट पर्यटकों के उपयोग के योग्य नहीं रह जाता। वहाँ कच्छपराज को पूज्य और वंदनीय माना जाता है, जैसी मान्यता राजस्थान के मरु-प्रदेश में काले हिरण की है।...<br />
<br />
बहरहाल, तट से निवृत्त होकर हम तैयार हुए और जलपान किये बगैर मृदु जल की झील के दर्शन को चल पड़े। बीस मिनट के कार के सफ़र के बाद एक तट पर सुरक्षित पार्किंग में गाड़ी छोड़नी पड़ी, फिर शुरू हुई बाज़ार और सँकरे पहाड़ी मार्गों से एक लंबी पद-यात्रा। वह ऊँचा-नीचा मार्ग हमें बाज़ार से निकाल कर समुद्र के ठीक किनारे-किनारे ले चला, जहाँ से समुद्र का विशाल और विहंगम दृश्य दीख रहा था। तट पर छोड़ गया जो सागर छोटे-बड़े शिलाखण्ड, उन्हें समुद्र के जल ने क्षार-क्षार करके उनका फाॅसिल्स बना दिया था। ऐसा प्रतीत होता था कि वे शिलाखण्ड वर्षों-बरस समुद्र के खारे जल का अपघर्षण झेलते रहे होंगे।...<br />
उसी रास्ते पर जो पहला भोजनालय मिला, हमने उसी का आश्रय लिया, ताकि जलपान हो जाए; लेकिन वहाँ के दक्षिण भारतीय खाद्य पदार्थों में कुछ अजीब-सी दुर्गंध थी। अधिक कुछ ग्रहण किया न जा सका। किंचित् विश्राम के बाद हम आगे बढ़ चले।<br />
<br />
मार्ग में एक विदेशी जोड़ा मिला। पति किसी बात से रुष्ट रहा होगा, वह एक ऊँचे स्थान पर जा रुका। पत्नी बड़बड़ाती आगे चली गयी। मेरी श्रीमतीजी वहीं एक दूकान में चली गयी थीं। मैं उनकी प्रतीक्षा में बाहर उसी व्यक्ति के पास ठहरा हुआ था। मैंने देखा, वह गोरा-चिट्टा विदेशी बिना रुके, धूमपान करते हुए, किसी अनजानी भाषा में कुछ बोलता जा रहा था लगातार। लेकिन स्वर उसका संयत था। थोड़ी देर बाद मैंने देखा, उस विदेशी की पत्नी हैरान-परेशान लौटकर चली आ रही है। तभी श्रीमतीजी भी दुकान से निकल आयीं और मुझे दूर खड़ा देखकर मेरे चित्र उतारती करीब आयीं। दो-दो श्रीमतियों की आमद एक साथ ही हुई लगभग।... अपने पति के करीब आकर वह स्त्री उसे कुछ समझाने का प्रयास करने लगी। पति बिदका हुआ था, वह प्रतिवाद करता हुआ-सा लगा। मैं सपत्नीक इस विवाद का मूक प्रत्यक्षदर्शी बना रहा। दोनों की तीखी वार्ता पाँच-सात मिनट तक चलती रही। वे न जाने किस भाषा में निरंतर बोल रहे थे--रशियन, फ्रेंच, जर्मन या स्पेनिश, कुछ समझ में नहीं आ रहा था, लेकिन दोनों का स्वर संयत था, कोई चिल्ला नहीं रहा था; फिर भी उनके हाव-भाव से इतना तो स्पष्ट ही था कि दोनों की नाराजगी का कोई विकट कारण अवश्य था। वार्ता समाप्त होते ही दोनों में सुलह हो गयी और दोनों एकसाथ चल पड़े। हम भी उनके पीछे-पीछे चले। मैंने आगे-आगे चल रहे दम्पती की ओर इशारा करते हुए श्रीमतीजी से कहा--'इन दोनों की वार्ता में अगर भाषा की दीवार न होती तो मेरे आगामी यात्रा-वृत्तांत में कुछ रंग भर जाते।'<br />
मेरी बात सुनते ही श्रीमतीजी में रहनेवाली शिक्षिका जाग उठी। दो क्षण ठहरकर उन्होंने कहा--'आप गौर कीजिए तो उनकी वार्ता में रंग तो बहुत थे, चटख थे आपकी कथा के लिए। मैंने ठिठककर पूछा--'उनकी बातों का एक शब्द भी समझे बिना आपको कौन-से चटख रंग दिखे? मुझे भी बताइये।'<br />
वह बोलीं--'स्पष्ट था कि दोनों के बीच मतभेद का कोई बड़ा कारण अवश्य था, लेकिन दोनों संयत और संतुलित सम्भाषण कर रहे थे। कोई किसी पर चीख-चिल्ला नहीं रहा था। यह विदेशियों के संस्कार में है। उन्हें तो अपने बच्चों पर भी ऊँची आवाज़ में बात करने की इजाज़त नहीं है। हमारे देश में तो पति-पत्नी अपने मतभेदों के निबटारे की शुरूआत ही चीखने-चिल्लाने से करते हैं। विवाद सुलझने की जगह और उलझते जाते हैं तथा पूरा मुहल्ला उसका आनन्द लेता है। आपने देखा न, शांत-संयत स्वरों का कमाल! कुछ ही पलों में विवाद सुलझ गया और अब वे दोनों सधे कदमों से साथ-साथ चले जा रहे हैं।'<br />
श्रीमतीजी की मुखर टिप्पणी सुनकर मैं भयभीत हुआ। भारतीय पति-पत्नी की एक जोड़ी हम दोनों भी तो थे। और, खतरा यह था कि उनके उदाहरण का लक्ष्य कहीं मैं ही न बन जाऊँ। मैंने उनकी हाँ में हाँ मिलायी और आगे बढ़ चला।...<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhEpbQKnupdO2Pfy9QlEy4Hzwf2sBjpvPNLqn14u0__oou5e4f1oveltGsKjL6l6Jo1TznegtZ-Iq7HXoRcMbe-aUs6RMVI1eBXn-7eDpRGpuoIjCwJn63Zx7Lf_tme1vs9jnb9S8mEdUU/s1600/FB_IMG_1525488824929.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="1280" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhEpbQKnupdO2Pfy9QlEy4Hzwf2sBjpvPNLqn14u0__oou5e4f1oveltGsKjL6l6Jo1TznegtZ-Iq7HXoRcMbe-aUs6RMVI1eBXn-7eDpRGpuoIjCwJn63Zx7Lf_tme1vs9jnb9S8mEdUU/s320/FB_IMG_1525488824929.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj3mU1hoF9mJTcykNsxKnaBa_sgTuU_mHex-RqIxfyL4WkaoslXRRmIGIaGCw9tjN3Dc5rF9-_szst73Oz_xywESXiFrV5QbkeCumfGrC5nGlyEcxevWLvyGtBPMPI5wJKedrmOtRvZrp4/s1600/FB_IMG_1525489141434.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="1280" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj3mU1hoF9mJTcykNsxKnaBa_sgTuU_mHex-RqIxfyL4WkaoslXRRmIGIaGCw9tjN3Dc5rF9-_szst73Oz_xywESXiFrV5QbkeCumfGrC5nGlyEcxevWLvyGtBPMPI5wJKedrmOtRvZrp4/s320/FB_IMG_1525489141434.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhnDs_UCoI7GEuFtlA4XfKmQCYgASMtW-GGZg6jmD8zX1CCcBeg6GU93t4fql_lhyau3JKYAsBNg7NHQbgqxClP6AIpGomT94qwsScl9504lV7FuNK0XbOyU7QEGokv1oM56LJf8oWCslc/s1600/FB_IMG_1525488861211.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="840" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhnDs_UCoI7GEuFtlA4XfKmQCYgASMtW-GGZg6jmD8zX1CCcBeg6GU93t4fql_lhyau3JKYAsBNg7NHQbgqxClP6AIpGomT94qwsScl9504lV7FuNK0XbOyU7QEGokv1oM56LJf8oWCslc/s320/FB_IMG_1525488861211.jpg" width="167" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEig0vhyzdcgpWmzR7Q75vSSgieMT2L0wFy0nNm_z2Hpj7Wxewn7Z0ZoNF1Dk3DmuKz1hEacCkb08pRjFIJPBJu7MUS0twfyngVvjjNvfn_11NuksVuNYTRrGvs0ej5iLHTTNm7WOyudrxQ/s1600/FB_IMG_1525488875925.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="1280" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEig0vhyzdcgpWmzR7Q75vSSgieMT2L0wFy0nNm_z2Hpj7Wxewn7Z0ZoNF1Dk3DmuKz1hEacCkb08pRjFIJPBJu7MUS0twfyngVvjjNvfn_11NuksVuNYTRrGvs0ej5iLHTTNm7WOyudrxQ/s320/FB_IMG_1525488875925.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhd38i_UmOJjA8Eh-zuCjXU11nJO-88P0sVr4x8GunvxlhI9-BP4WBFlhoWPse3kh8QN6X99RgQLkWROyNwCdxQazeAB1m3pGuJ_x7eZWJM9r9xIkvBq_0Q4wYJYzAPSHmN33jpFbUnhVc/s1600/FB_IMG_1525488896715.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="1280" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhd38i_UmOJjA8Eh-zuCjXU11nJO-88P0sVr4x8GunvxlhI9-BP4WBFlhoWPse3kh8QN6X99RgQLkWROyNwCdxQazeAB1m3pGuJ_x7eZWJM9r9xIkvBq_0Q4wYJYzAPSHmN33jpFbUnhVc/s320/FB_IMG_1525488896715.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjwyNCQZxoxkpWFzrTrefememZW5UDxeoE2WVDrBlmTeG2jzZmKqnMnUqem0aA_yu7DC3Vo8GkzJRVDlhlexxgY5I9F-KuGD-vB0OKSG8fUJ_BpRoo6u4KJkc5C-lJK1HeDqegRV0dQzRE/s1600/FB_IMG_1525488917853.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="1280" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjwyNCQZxoxkpWFzrTrefememZW5UDxeoE2WVDrBlmTeG2jzZmKqnMnUqem0aA_yu7DC3Vo8GkzJRVDlhlexxgY5I9F-KuGD-vB0OKSG8fUJ_BpRoo6u4KJkc5C-lJK1HeDqegRV0dQzRE/s320/FB_IMG_1525488917853.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjuQ321o-EAT16cuAuS8ESCqvVNUdOghfxveDqoCLLxAvIIwMHIwZvw0CSjh48UByZbJ2W6Fqgo8KzvdI6WFdH5E1fL5S5cKjcOJeiQcK59MOs3VBfNZR0BOKOeKHqnzsSxYsnRAKrIeg8/s1600/FB_IMG_1525488953043.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1200" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjuQ321o-EAT16cuAuS8ESCqvVNUdOghfxveDqoCLLxAvIIwMHIwZvw0CSjh48UByZbJ2W6Fqgo8KzvdI6WFdH5E1fL5S5cKjcOJeiQcK59MOs3VBfNZR0BOKOeKHqnzsSxYsnRAKrIeg8/s320/FB_IMG_1525488953043.jpg" width="240" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhavZzn7gBd6vmf4LnYl1ULnbWArQCxZ0a4JZ-JDVXHCNcdogOmyWrZ-CwLpremRQQHBHV2zj7KwRleoiA4Uo4MBm8l0zJ9H-aNRKq-Hn5fBoipI_8EznhierK_rf00bwKCu3sobiaze88/s1600/FB_IMG_1525488973105.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="1280" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhavZzn7gBd6vmf4LnYl1ULnbWArQCxZ0a4JZ-JDVXHCNcdogOmyWrZ-CwLpremRQQHBHV2zj7KwRleoiA4Uo4MBm8l0zJ9H-aNRKq-Hn5fBoipI_8EznhierK_rf00bwKCu3sobiaze88/s320/FB_IMG_1525488973105.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhDlwUgBeOxu2DezpDCqV5jDKdzuNH1tVS2wsqxEn9F0wVKOM7m4bUHHZjlSyqmh-1Ip4a4N2zMsHnV657pi1OdJt8DgRyaC-uWquZAnT-T2I0jnUwwBW6nczQFL8TSeGVdAZ9dE0vrGjM/s1600/FB_IMG_1525488991587.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="1280" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhDlwUgBeOxu2DezpDCqV5jDKdzuNH1tVS2wsqxEn9F0wVKOM7m4bUHHZjlSyqmh-1Ip4a4N2zMsHnV657pi1OdJt8DgRyaC-uWquZAnT-T2I0jnUwwBW6nczQFL8TSeGVdAZ9dE0vrGjM/s320/FB_IMG_1525488991587.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEin0dAnlUuc1w2o7RTanseKdjexhvAZmwgB4leBebOUNxO5oxPjtkcQyTL__tg4U8WqB-BVk2SJkELsDiIlmOsUjKkqCDcF-VIBRqSeqJwlDan_SaR-KdMhMry9xhgowVQntY2jvDh133w/s1600/FB_IMG_1525489007251.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="720" data-original-width="960" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEin0dAnlUuc1w2o7RTanseKdjexhvAZmwgB4leBebOUNxO5oxPjtkcQyTL__tg4U8WqB-BVk2SJkELsDiIlmOsUjKkqCDcF-VIBRqSeqJwlDan_SaR-KdMhMry9xhgowVQntY2jvDh133w/s320/FB_IMG_1525489007251.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjw_spsxLbfBbNP38l1BC40-Rbho07aZ7BHFawPTtTOBRdaaaoA2DysknczUaiSWoE2_iMx80jK5H4W0N6AUdpwDsOlkqvCx-Sv0XPA1cxR7_2REbvAh7gWGkge1WMvWMsK_a2Gvxv1BeU/s1600/FB_IMG_1525489007251.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="720" data-original-width="960" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjw_spsxLbfBbNP38l1BC40-Rbho07aZ7BHFawPTtTOBRdaaaoA2DysknczUaiSWoE2_iMx80jK5H4W0N6AUdpwDsOlkqvCx-Sv0XPA1cxR7_2REbvAh7gWGkge1WMvWMsK_a2Gvxv1BeU/s320/FB_IMG_1525489007251.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
(क्रमशः)</div>
आनन्द वर्धन ओझाhttp://www.blogger.com/profile/03260601576303367885noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5773464208897631664.post-26900793740350276912018-04-28T02:10:00.000-07:002018-04-28T02:10:21.669-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
इन्द्रलोक-सा गोवा : जितना भव्य, उतना ही मदहोश...(3)<br />
<br />
दो दिनों की गोवा की पहली यात्रा मैंने सपरिवार अक्टूबर 2005 में की थी। तब मेरे मेजबान थे मित्रवर ज़हूर भाई! वह मेरे आत्मीय बंधु हैं। उन्होंने और उनकी गृहलक्ष्मी इस्मत (मेरी बहन) ने मेरे ठहरने और स्थानीय दौड़-भाग का सारा प्रबंध किया था। उन्हीं की सलाह पर मैं पहली बार 'बिग फुट' गया था और एक प्रस्तर खण्ड पर अंकित पद-चिह्न की हमने वंदना की थी तथा अपनी मनोकामना उस पूज्य चरण में रख आये थे। उस पवित्र स्थान के बारे में प्रसिद्ध है कि वहाँ आनेवाला हर व्यक्ति चरण-चिह्न की वंदना के साथ अपनी मनोकामना वहाँ रख आता है और वह अवश्य पूरी होती है। मैं, मेरी पत्नी और दोनों बेटियों ने अपनी-अपनी मन की मुराद वहाँ रखी थी और अन्यत्र भ्रमण करते हुए हम गोवा से लौट आये थे। 'बिग फुट' संस्थान से यह भी ज्ञात हुआ था कि जिन भक्तों की मनोकामना पूरी हो जाती है, वे वहाँ पुनः आकर श्रद्धा सहित पूज्य चरणों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं और अगरबत्तियाँ जलाते हैं।<br />
<br />
अक्तूबर 2005 की मेरी मनोकामना एक वर्ष बाद 2006 में पूरी हो गयी थी, लेकिन दुबारा गोवा जाने का संयोग ही नहीं बना। अब बारह साल बाद मैं गोवा आया था। मैंने 'बिग फुट' जाकर कृतज्ञता व्यक्त करना जरूरी समझा। श्रीमतीजी ने भी इसे अपना कर्तव्य माना, क्योंकि उनकी-मेरी मनोकामना एक ही थी।<br />
गोवा में हम जहाँ ठहरे थे, वहाँ से 'बिग फुट' की दूरी 60 किलोमीटर थी--एक छोर से, दूसरे छोर पर। प्रवास के तीसरे दिन हमने वहीं जाने का निश्चय किया। सुबह के भरपूर जलपान के बाद हाशिम भाई ने कार निकाली और हमने 'बिगफुट' के लिए प्रस्थान किया।<br />
<br />
डेढ़ घण्टे की अनवरत यात्रा के बाद हम 'बिगफुट' पहुँचे। उस स्थान की कथा मुख़्तसर में कहूँ तो बस इतनी है कि कर्ण-सा दानवीर और दयालु 'महादर' नाम का एक धनाढ्य व्यक्ति उस धरती पर कभी अवतरित हुआ था, जिसने हर याचक को दान दे-देकर स्वयं को अंततः दरिद्र बना लिया। असत्य बोलकर महादर को ठगने और लूटनेवालों की कमी नहीं थी। लेकिन महादर सबका विश्वास और सबकी मदद करते। धीरे-धीरे उनकी सम्पत्ति घटती गयी। एक दिन ऐसा भी आया, जब अपनी समस्त सम्पदा से मुक्ति पाकर उन्हें एक वृक्ष के नीचे सपत्नीक रहना पड़ा। उनकी पत्नी बीमार पड़ी और उपचार के अभाव में काल का ग्रास बन गयी। शोक और हताशा में प्रभु-स्मरण करते हुए वह प्रभु से कहीं पाँव टिकाने भर की जगह माँगने लगे। एक दिन प्रभु ने महादर के स्वप्न में आकर उन्हें अपनी संपदा पुनः प्राप्त करने को उत्साहित किया, लेकिन महादर ने अनिच्छा व्यक्त की और संकटकाल में उनकी सहायता न करनेवालों को क्षमा करते हुए प्रभु से पाँव टिकाने भर की जगह माँगी, जहाँ रहकर वह मानव मात्र के कल्याण की प्रार्थना कर सकें। ईश्वर महादर के उत्तर से प्रसन्न हुए, किन्तु उनकी परीक्षा लेने का ख़याल उनके मन में उत्पन्न हुआ। प्रभु ने उन्हें एक तप्त प्रस्तर खण्ड पर एक पाँव रखने-भर की जगह दे दी। प्रस्तर की वह शिला अनन्तकाल से समुद्र के जल में डूबी हुई थी और कुछ समय पहले ही जल के आच्छादन से मुक्त हुई थी।<br />
<br />
महादर उसी तप्त शिला पर दायाँ पाँव रखकर खड़े हो गये और वर्षों खड़े रहे। कई वर्षों तक इसी तरह खड़े रहने से उनका शरीर क्षीण हो गया, लेकिन भक्त-प्रवर महादर का मनोबल दुर्बल नहीं हुआ, जन-कल्याण की कामना का उनका संकल्प नहीं डिगा। अंततः प्रभु द्रवित हुए। उन्होंने स्वयं प्रकट होकर महादर से कहा--'तुम्हारी तपस्या से मैं प्रसन्न हूँ। तुम अपने पाँव का निशान इस शिला पर छोड़कर मेरे साथ सशरीर देवलोक चलो। मैं तुम्हें वरदान देता हूँ जो कोई अपना मनोरथ सच्चे मन से तुम्हारे चरण-चिह्न में रख जायेगा, उसकी कामना अवश्य पूरी होगी।' प्रभु का आश्वासन पाकर महादर प्रसन्नतापूर्वक सशरीर देवलोक को चले गये।...<br />
<br />
अब तो कई युग बीत गए हैं, लेकिन लोग-बाग आज भी अपनी श्रद्धा के फूल चढ़ाने यहाँ आते हैं और अपनी मनोकामना पूज्य चरण में रख जाते हैं। प्रसिद्धि है कि लोगों की इच्छा देर-सबेर अवश्य पूरी होती है। शिला का पूजन करते हुए एक सवाल मन में बार-बार उत्पन्न हो रहा था कि प्रभु ने महादर की याचना पर बस एक पाँव टिकाने-भर की ही जगह उन्हें क्यों दी? सम्पूर्ण जगत् के पालनकर्ता को ऐसी भी क्या कमी थी कि महादर ने पाँव टिकाने की जगह माँगी तो उन्होंने भी कृपणता करते हुए, एक पाँव-भर की ही जगह दी। करुणानिधान भगवान् दोनों पैर रखने की जगह महादर को दे दते तो आज हमें उनके दोनों पूज्य चरणों के दर्शन होते न! लेकिन प्रभु की माया कौन जाने?...<br />
<br />
2005 में जब पहली बार मैं वहाँ अयाचित ही जा पहुँचा था, 'बिग फुट' ऐसा व्यवस्थित नहीं था। छोटी-छोटी झोंपड़ियों में प्राचीनकालीन गोवा के जन-जीवन की झाँकी दिखायी गयी थी और वह प्रस्तर शिला भी अपने मूल स्वरूप में यथास्थान पड़ी हुई थी। बारह वर्षों में उस स्थान का कायाकल्प, पुनर्निर्माण और सौन्दर्यीकरण हुआ है--यह देखकर मुझे प्रसन्नता हुई। महादर के चरणचिह्न की शिला को यथास्थान एक कक्ष बनाकर उसमें सुरक्षित किया गया है और उससे संबंधित कक्षों में महादर के जीवन की झाँकी का स्लाइड शो आगंतुकों को दिखाया जाने लगा है।<br />
<br />
हमने पुनः अगरबत्तियाँ जलाकर शिला-पूजन किया और कृतज्ञता निवेदित की। थोड़ी देर करबद्ध हो वहीं खड़े रहे और फिर संपूर्ण परिसर के परिवर्तित स्वरूप के अवलोकन का आनन्द लेते हुए कार के पास लौट आये। वापसी की यात्रा शुरू हुई। दो घण्टे में हम फिर अपने काॅटेज में आ गये। तब तक शाम होने में एक-डेढ़ घंटे का समय शेष था। हम सबने आराम करना ही उचित समझा, लेकिन सूर्यास्त के पहले पुनः बीच पर पहुँच गए, स्वर्ग-सुख-लाभ के लिए ।....<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh6hBuUdsDWE-VGbI58YKjaPJ3EdgKhHZcCTd04Y5U-WRIORmh1QV42y7bipzkaRfiDl4AHuybSDEMrRaN7i7gog2l64f-ONFvvTTlnmk-c_4sl6Is4jpjHBG7UdD9wTeVTyt-1JqhrFgQ/s1600/IMG-20180307-WA0009.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1040" data-original-width="780" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh6hBuUdsDWE-VGbI58YKjaPJ3EdgKhHZcCTd04Y5U-WRIORmh1QV42y7bipzkaRfiDl4AHuybSDEMrRaN7i7gog2l64f-ONFvvTTlnmk-c_4sl6Is4jpjHBG7UdD9wTeVTyt-1JqhrFgQ/s320/IMG-20180307-WA0009.jpg" width="240" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg1CxskZyiXTC_K4S9fcupcm9_bvubkrlohbNQkwd-aK3d0FA72nd-2Slcd8vZG84oMO6h18mjMNPFRZDCElXHjMawfonzMkU2kXJNIsjH-gArjWvyiFC6ou69RaMAhJ6VDeR3lSkAMeWU/s1600/IMG-20180307-WA0008.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="864" data-original-width="1152" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg1CxskZyiXTC_K4S9fcupcm9_bvubkrlohbNQkwd-aK3d0FA72nd-2Slcd8vZG84oMO6h18mjMNPFRZDCElXHjMawfonzMkU2kXJNIsjH-gArjWvyiFC6ou69RaMAhJ6VDeR3lSkAMeWU/s320/IMG-20180307-WA0008.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhD83u5A76x-bBfYkIO5zOjHNTL5RAmInDB3ufvQl8VJDJ_LsKd_khyphenhyphenfSZzKUANCCbwJj9uIMm9_g5MmgzAmghfTZ6xR32w1BDAzZSGMo_h5r2ugJGQmnuxjWHDcyPdA9IkRLhC6BAtQ2Q/s1600/IMG-20180307-WA0007.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="780" data-original-width="1040" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhD83u5A76x-bBfYkIO5zOjHNTL5RAmInDB3ufvQl8VJDJ_LsKd_khyphenhyphenfSZzKUANCCbwJj9uIMm9_g5MmgzAmghfTZ6xR32w1BDAzZSGMo_h5r2ugJGQmnuxjWHDcyPdA9IkRLhC6BAtQ2Q/s320/IMG-20180307-WA0007.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhKHpVCjlijNsn_4v-v0Qougn3RwzWZnWoM-97edHb1fxgxJjUAG9GXbsgI6OwbUH6LvVrtjqXGClPCtiwNtVVNNfmQo7c_81y6RqlAzuCVZ6CvyabDiJK5amXelQ95bzmA7eywkoJteIg/s1600/ancestralgoa-legend1.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="300" data-original-width="250" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhKHpVCjlijNsn_4v-v0Qougn3RwzWZnWoM-97edHb1fxgxJjUAG9GXbsgI6OwbUH6LvVrtjqXGClPCtiwNtVVNNfmQo7c_81y6RqlAzuCVZ6CvyabDiJK5amXelQ95bzmA7eywkoJteIg/s1600/ancestralgoa-legend1.jpg" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgkWAWELZ-_6WnRGlc-Ar3FydNBGxeaYyNikBAlZ5RA3b4Z6zeCA74B-8CuQjxDpFAkmE5L151nCA5X1jjuCpdjxDL1CKBvYlD4Lh4dDn9fowMfXIg-_Z7gzin05SG0iMA4PGdT26NOnAo/s1600/IMG-20180307-WA0006.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1040" data-original-width="780" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgkWAWELZ-_6WnRGlc-Ar3FydNBGxeaYyNikBAlZ5RA3b4Z6zeCA74B-8CuQjxDpFAkmE5L151nCA5X1jjuCpdjxDL1CKBvYlD4Lh4dDn9fowMfXIg-_Z7gzin05SG0iMA4PGdT26NOnAo/s320/IMG-20180307-WA0006.jpg" width="240" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEihL-2hBJG8TYvql5R-fheFoOwKCUuJ5IooGv3eZJwncA2zLAMzKooEr7iK4D-uNW8YopPFhar5W69yAN9BB_XzwLs8_Tax-BQA0KQiKLU7ZgGGUs8PtHK9wy6RK4Cj-jUq00jIzabW1Ws/s1600/20180417_184515.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="634" data-original-width="565" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEihL-2hBJG8TYvql5R-fheFoOwKCUuJ5IooGv3eZJwncA2zLAMzKooEr7iK4D-uNW8YopPFhar5W69yAN9BB_XzwLs8_Tax-BQA0KQiKLU7ZgGGUs8PtHK9wy6RK4Cj-jUq00jIzabW1Ws/s320/20180417_184515.jpg" width="285" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhpaFxdhopbOp_uJGumKrbDYoaAQ_NRqj3cxzqAb2F3ROgFejk2rBg8QdCnaWX_giVuVGGW9s1OAxItU4N305jcfFNJXXdJ63BlrLIMzqqYQd2m-7ZHkzK1VNd7NvcrAgUbbocRAEj0ZpQ/s1600/IMG-20180330-WA0022.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="853" data-original-width="1280" height="213" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhpaFxdhopbOp_uJGumKrbDYoaAQ_NRqj3cxzqAb2F3ROgFejk2rBg8QdCnaWX_giVuVGGW9s1OAxItU4N305jcfFNJXXdJ63BlrLIMzqqYQd2m-7ZHkzK1VNd7NvcrAgUbbocRAEj0ZpQ/s320/IMG-20180330-WA0022.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
(क्रमशः)</div>
आनन्द वर्धन ओझाhttp://www.blogger.com/profile/03260601576303367885noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5773464208897631664.post-10865507142114355112018-04-23T20:00:00.000-07:002018-04-23T20:12:25.158-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
इन्द्रलोक-सा गोवा : जितना भव्य, उतना ही मदहोश...(2)<br />
<br />
पर्णकुटी में पहली रात गहरी नींद सोया, लेकिन गहरी नींद को अर्धतंद्रा में बदलती रही एक विचित्र प्रकार के कंपन की अनुभूति। ऐसी प्रतीति होती रही जैसे धरती रह-रहकर काँप जाती है। यह अजीब-सा अहसास था। एक करवट बदलने भर की अर्धतंद्रा और फिर गहरी नींद में गाफ़िल होती रही चेतना! दूसरे दिन दल के अन्य सदस्यों से भी मैंने इस अनुभूति के विषय में जिज्ञासा की। सबने मेरे अनुभव की तस्दीक की, लेकिन श्रीमतीजी का मुझे पुरज़ोर समर्थन मिला। मुझे लगता है, उद्विग्न और उद्वेलित समुद्र की लहरों का भूमि-तट पर सिर पटकना ही इसका मूल कारण रहा होगा। समुद्र के इतने करीब सोने का जीवन में कभी अवसर भी तो नहीं मिला था न!<br />
<br />
सुबह 6.30 पर हम सूर्योदय-दर्शन के लिए समुद्र तट पहुँच गये। वहाँ का अद्भुत नज़ारा था। तट पर सैलानियों की संख्या कम थी, लेकिन कई जत्थे भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यायाम, ध्यान-साधन, दौड़ते-भागते और पद-यात्रा करते दिखे।<br />
फ्लैट के बंद प्रकोष्ठ में जीवन जीनेवाले मुझ खाकसार को खुला, भीगा और बालुका-राशि से पटा विस्तृत भू-भाग मिला, समुद्र के ऊपर नीलाभ वितत व्योम दिखा और चंचल मदहोश कर देनेवाली स्वच्छ हवाएँ तरंगित मिलीं; मन-मयूर नाच उठा। एक बुजुर्ग विदेशी मेहमान को समुद्र में आती-जाती लहरों के ठीक किनारे दौड़ता देख अतिउत्साह में मै भी अपनी चप्पलें फेंक दौड़ चला। लेकिन एक लम्बी दौड़ के बाद कलेजा मुँह को आने लगा, दम फूलने लगा। थोड़ी देर स्थिर रहकर मैंने दम साधा और फिर धीमी गति से चलता हुए वहाँ लौट आया, जहाँ मैं अपनी चप्पल छोड़ गया था, जिसके पास श्रीमतीजी छोटी बेटी के साथ ध्यान-साधना में निमग्न थीं। मैं वहीं एक शय्या पर विश्राम करने लगा। व्यायाम पूरा होते ही 8 बजे चाय आ गयी। श्रीमतीजी ने झोले से बिस्कुट और ड्राई फ्रूट्स निकाले और हम सबने चाय पी।<br />
<br />
सुबह-सबेरे विदेशी स्त्री-पुरुष की एक टोली उत्साह, उमंग और उन्माद में उछल-कूद मचा रही थी। उनके साथ श्वान-समूह भी लगा हुआ था। थोड़ी देर तक उनकी निगहबानी के बाद ज्ञात हुआ कि वह टोली तट के आवारा कुत्तों को प्रतिदिन बिस्कुट खिलाती है। दूसरी टोली के सदस्य रेत के ऊँचे टीले पर कतार में बैठे बाबा रामदेव की शिक्षा का अनुपालन कर रहे थे। भ्रामरी क्रिया से उपजा गुंजार प्रतिध्वनित हो रहा था, जिसे सुनना प्रीतिकर लग रहा था। प्राणायाम करती एक टोली लगातार ठहाके लगा रही थी। ये सारी टोलियाँ विदेशी पर्यटकों की थीं।<br />
<br />
9.30 पर मैं समुद्र में स्नान के लिए प्रविष्ट हुआ। समुद्र किसी को स्वीकार नहीं करता, बाहर धकेल देने की चेष्टा करता है। समुद्र की यह अनवरत चेष्टा मुझे अच्छी लगती है, नहीं भी। लेकिन हठी युवाओं का दल तो समुद्र में दूर तक धँसता चला जा रहा था। मैं न तो हठी और न ही युवा बचा रह गया था, लिहाज़ा, समुद्र में प्रायः दो बाँस अन्दर गया और लहरों के धक्के खाकर किनारे आ लगा। फिर विशाल समुद्र को प्रणाम कर तट पर आ गया। तब तक तट का नज़ारा बदल गया था। वहाँ भीड़ बढ़ गयी थी। सर्वत्र विदेशियों की भरमार थी। अर्धनग्न विदेशी स्त्री-पुरुष निर्विकार भाव से रेतीले तट पर कुछ चित, तो कुछ पट लेटकर सूर्य-किरणों की ऊष्मा ले रहे थे। वे तो सहज और निर्लिप्त-भावेन लेटे थे, मैं ही असहज हो रहा था। उधर दृष्टि डाली न जा रही थी। भारतीय युवकों के छोटे-छोटे दल भी थे, शोहदों की शोख़ियाँ भी थीं, किन्तु सभी अपने ही मोद में मग्न थे। कोई किसी को छेड़ नहीं रहा था, फ़ब्तियाँ नहीं कस रहा था, फिर भी चोरी-छुपे विदेशियों को घूरकर नयन-सुख तो पाता ही था। दृष्टि चंचला होती है। नयनचोर दृष्टि निंद्य-अनिंद्य का भेद नहीं करती, दोनों का दर्शन कर आनन्दित होती है।<br />
<br />
उन जत्थों में अधिसंख्य तो आरोग्य-लाभ के लिए सूर्य की क्रमशः तीखी होती किरणों का सेवन कर रहे थे। उनकी हंस-सी श्वेत त्वचा को ऊष्मा की सेंक अपेक्षित थी। वे शरीर सेंककर लाल कर रहे थे और हम भारतीय छाया की शरण में सुख पा रहे थे। लम्बी चुटियावाले एक विदेशी महाप्रभु तो निर्वस्त्र ही समुद्र में गहरे जा धँसे। उनके साथ अप्सरा-सी एक सहचरी भी थीं। देवी-देव पर दृष्टि अकस्मात् जा पड़ी। क्षोभ हुआ। क्षोभ में भी सुख की अनुभूति का यह पहला अवसर था, नया स्वाद था इस सुख का। सुख-लाभ के बाद आत्मग्लानि भी हुई और ये सारी अनुभूतियाँ इतनी घुली-मिली थीं कि निश्चय करना कठिन हो गया कि किस अनुभूति का प्रभाव मन में ठहरा रहा।... हम भारतीयों के साथ कुछ समस्या है। हम में अत्याधुनिक बनने की तीव्र ललक और भीषण उत्कंठा तो है, लेकिन हमारे संस्कार हमारी गर्दन दबोचे रहते हैं। हमारा चिंतन हमें रोकता और सावधान करता है, लेेेकिन हम पाश्चचात्य जीवन-पद्धति की ओर हसरत-भरी निगाहों से देखते रहते हैं। उसका अंधानुकरण करते हैैं। लेकिन, सच तो यह कि हमारा कुछ हो न सका; हम न घर के रहे, न घाट के। हम अधकचरी मानसिकता के गड्डमड हुए लोग बनकर रह गये हैं...!<br />
<br />
वैसे, तट पर कोमलांगियों, सुदर्शनाओं, अप्सराओं, सुरा-सुन्दरियों की कमी न थी। ऐसा लगने लगा कि मैं ग़लती से कहीं इन्द्रलोक में तो नहीं आ पहुँचा हूँ। लेकिन नये युग की अप्सराओं की कोमल उंगलियों में श्वेत संटिकाएं सुलग रही थीं और वे मुँह से उगल रही थीं धूम! यह छवि मेरी कल्पना के इन्द्रलोक से भिन्न थी।... बहरहाल, खारे जल से स्नान के बाद स्वच्छ-मृदु जल से पुनर्स्नान भी जरूरी था। अतः मैं अपनी पर्णकुटी में लौट आया। श्रीमतीजी और बिटिया ने देर तक जल-क्रीड़ा की और जब सभी तैयार हो गये तो हम उत्तर भारतीय भोज्य पदार्थों की तलाश में चले। संयोग से हमारे ठीक बगल वाले बीच (वेलेंकिनी रिसोर्ट) पर हमें स्वल्पाहार का उचित स्थान मिल ही गया। वहाँ आमिष भोज्य पदार्थों की तीखी गंध नहीं थी। मनोनुकूल नाश्ता पाकर हम तृप्त हुए। वहाँ स्वल्पाहार नहीं, भरपूर भोजन-सा (ब्रेंच) ही हो गया। फिर पूरा दिन बाज़ार में बीता। नये-नये परिधान खरीदे गये। छोटी बेटी की ज़िद पर मेरे लिए बारमूडा, टी-शर्ट, रंगीन गंजियाँ और टोपी खरीदी गयी। संज्ञा का तर्क था कि जिस प्रदेश में हूँ, वहीं का परिधान पहनूँ। वह देखना चाहती थीं कि मैं नये वेश में कैसा लगता हूँ। उनके तर्क को श्रीमतीजी और हाशिम भाई का समर्थन मिला। मैंने बहुमत की बात मान ली।...<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgCe-mbBH2CXd1srPRxk2BF0Ffn-w60UPpFshRfTvwazTmtyv_qwYfrXVZpMxBBxLEkYiKDbr2lOpF0sV5NMWI9SF0ojFW1jRhoGPuzZhrsFzWYQDkfDP69iHjzvn4fJj0ojx5qxJxjTqg/s1600/FB_IMG_1524537980622.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1200" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgCe-mbBH2CXd1srPRxk2BF0Ffn-w60UPpFshRfTvwazTmtyv_qwYfrXVZpMxBBxLEkYiKDbr2lOpF0sV5NMWI9SF0ojFW1jRhoGPuzZhrsFzWYQDkfDP69iHjzvn4fJj0ojx5qxJxjTqg/s320/FB_IMG_1524537980622.jpg" width="240" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiyXeFkQlAg0xJOmeO0VIrZh_KHNCGtKf0nc0MEfzpmDNEXWfDd5_n1KvK1HR-tR9GVrYOTPE0nqGLIOGHL9FCCTOjwEf7IiNDpOnDn2_i-XttcG75eq8F9R9AQ-SQXqXptDQfLeMZsUTo/s1600/FB_IMG_1524537963410.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="1280" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiyXeFkQlAg0xJOmeO0VIrZh_KHNCGtKf0nc0MEfzpmDNEXWfDd5_n1KvK1HR-tR9GVrYOTPE0nqGLIOGHL9FCCTOjwEf7IiNDpOnDn2_i-XttcG75eq8F9R9AQ-SQXqXptDQfLeMZsUTo/s320/FB_IMG_1524537963410.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjB94wQl-DE2I7TVgNDiLwxJWXft0MsS5KWZPyGI39pl9ZES9o8ZaF0NNG6j-m4GqrLCV1DKuYY-RDhaD3oeVqJiBdEycs1bxejqU-qP3UZOvwo7NDUc6_MQSGzroxABzdzfQicJvjp00k/s1600/FB_IMG_1524537991525.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="1280" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjB94wQl-DE2I7TVgNDiLwxJWXft0MsS5KWZPyGI39pl9ZES9o8ZaF0NNG6j-m4GqrLCV1DKuYY-RDhaD3oeVqJiBdEycs1bxejqU-qP3UZOvwo7NDUc6_MQSGzroxABzdzfQicJvjp00k/s320/FB_IMG_1524537991525.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjnHDUWLSxvJ6N5tvMumdyoedtScuaSxmeHYQZjJIlY0H4IHoaRhBU00UIFoqrHjaod49DB7bEcK5H7hFwtNfct0EWfzWKgPhwXExcv8XeRDohJPKTWZHbRUojT6Es4ACrgQF9hxLoNQR0/s1600/FB_IMG_1524537905576.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="720" data-original-width="960" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjnHDUWLSxvJ6N5tvMumdyoedtScuaSxmeHYQZjJIlY0H4IHoaRhBU00UIFoqrHjaod49DB7bEcK5H7hFwtNfct0EWfzWKgPhwXExcv8XeRDohJPKTWZHbRUojT6Es4ACrgQF9hxLoNQR0/s320/FB_IMG_1524537905576.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgno2Nc_7c2X9yQGhGISkHx8rE45_PA6iq9ytlaMOfY8nIUiDtWfTgszxHINLUj5S3yyQ5H-vUUEwfZA5K8IpUHtMMxrOTyvEmXLEzi8FcXbnQJTMGkWPXhEmNuiWh2sRilrZzHTA8vVME/s1600/FB_IMG_1524537913912.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="720" data-original-width="960" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgno2Nc_7c2X9yQGhGISkHx8rE45_PA6iq9ytlaMOfY8nIUiDtWfTgszxHINLUj5S3yyQ5H-vUUEwfZA5K8IpUHtMMxrOTyvEmXLEzi8FcXbnQJTMGkWPXhEmNuiWh2sRilrZzHTA8vVME/s320/FB_IMG_1524537913912.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHPJduL-3TcPgacer_x465xU3-leHktjqrjzGQWSft-HUFW2nfBjHtxkbHG7BdnZtUU-W7EsNEN58Dxftqy-nIi2TtZdjKYyE45GXjCfFPk1I4neMTQIFwUXll1uGvFxn8shJeQIG4zOs/s1600/FB_IMG_1524537888197.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="640" data-original-width="960" height="213" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHPJduL-3TcPgacer_x465xU3-leHktjqrjzGQWSft-HUFW2nfBjHtxkbHG7BdnZtUU-W7EsNEN58Dxftqy-nIi2TtZdjKYyE45GXjCfFPk1I4neMTQIFwUXll1uGvFxn8shJeQIG4zOs/s320/FB_IMG_1524537888197.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEixct_pzb6R93PtCwsw652AQASOdh6mHjxeKEUEFOtfczWvmN7K5OS1T7FpaVknxivvi69YksU4J3MZjY18wgNe1XddxA1bOiwBBDtxax7MvzlYK2d_bkm8ryRDJrcJ9r8MwEHwtowGvbg/s1600/FB_IMG_1524537873147.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="640" data-original-width="960" height="213" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEixct_pzb6R93PtCwsw652AQASOdh6mHjxeKEUEFOtfczWvmN7K5OS1T7FpaVknxivvi69YksU4J3MZjY18wgNe1XddxA1bOiwBBDtxax7MvzlYK2d_bkm8ryRDJrcJ9r8MwEHwtowGvbg/s320/FB_IMG_1524537873147.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiqJfnIsl03ehUj6XikD6C2Yqhgnk_GBKVyJSbjCGbxF63Y4ZTnDbv7bOv5LLP8R7cssrRFlvV0FQgce4Q_5dCkaIIfioJ5G5q6UZBjJxVuzSnETpSIqC5W2lp8vB-yYTAEEHWaMb2GUeg/s1600/FB_IMG_1524537839708.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="640" data-original-width="960" height="213" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiqJfnIsl03ehUj6XikD6C2Yqhgnk_GBKVyJSbjCGbxF63Y4ZTnDbv7bOv5LLP8R7cssrRFlvV0FQgce4Q_5dCkaIIfioJ5G5q6UZBjJxVuzSnETpSIqC5W2lp8vB-yYTAEEHWaMb2GUeg/s320/FB_IMG_1524537839708.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjADqlpXYXzeA54DXTzaLoMFIy1dM6Rp99z0DOjNjLr1TqNDutbfl4nBeltB80VM-5E05V6IotPelJZy0wpNDxIuNmtJ6uBZP4ld02J5mBeFqfNjGPmmJaqnpseOr_xrS7NMtiHBp1_m7M/s1600/FB_IMG_1524537806384.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="841" data-original-width="960" height="280" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjADqlpXYXzeA54DXTzaLoMFIy1dM6Rp99z0DOjNjLr1TqNDutbfl4nBeltB80VM-5E05V6IotPelJZy0wpNDxIuNmtJ6uBZP4ld02J5mBeFqfNjGPmmJaqnpseOr_xrS7NMtiHBp1_m7M/s320/FB_IMG_1524537806384.jpg" width="320" /></a></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgmN8zpqeC4HZrkTPiucP5rChW9yf5D7odzrUHJOIpxcwTYJny3I9DHA3Vma6bFe4Wi-khju36HY-hvXm2JlS9M7yX-_9-ZhjOKDyExhkpmEJWIhWLM0vUHiSCoIaoF8bMeZYOUy6LtDoA/s1600/FB_IMG_1524537928021.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="720" data-original-width="960" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgmN8zpqeC4HZrkTPiucP5rChW9yf5D7odzrUHJOIpxcwTYJny3I9DHA3Vma6bFe4Wi-khju36HY-hvXm2JlS9M7yX-_9-ZhjOKDyExhkpmEJWIhWLM0vUHiSCoIaoF8bMeZYOUy6LtDoA/s320/FB_IMG_1524537928021.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
गोवा की दोपहर बहुत गर्म थी। हमें अपने काॅटेज में लौटना पड़ा।... शाम तक वहीं विश्राम करने के बाद सूर्यास्त-दर्शन के लिए हम पुनः तट पर आ गये। शाम के वक़्त बीच पर हलचल बहुत थी। ढलती शाम के बाद रात गहराने लगी। हम रात्रि-भोजन के लिए रेतीला तट पकड़कर वेलेंकिनी रिसोर्ट के सामने पहुँचे और वहाँ एक शेड में पड़ी शय्या पर पसर गये। सागर उन्मत्त हो उठा था, उसका गर्जन-तर्जन सुनते हुए देर रात तक हम वहीं जमे रहे। वहाँ इतना सुख-आनन्द था कि मन में कविता उपजने लगी। मैंने समुद्र से अपने मोबाइल पर कहा--<br />
"मित्र सागर !<br />
तुम्हारे विस्तृत भीगे सैंकत श्वेत कणों पर<br />
मैं छोड़ रहा पद-चिह्न...!<br />
सागर के उन्मद ज्वार<br />
तुम जब चाहो, मिटा जाना उन्हें...!<br />
मैं लौटूंगा युग-युगान्तर बाद कभी<br />
जाने कौन-सी मौजों पर होकर सवार।<br />
यह यायावर, मतवाला मन<br />
फिर जाने कब<br />
डाले पग-फेरे इसी राह पर<br />
रजत-कणों पर चलते-चलते..."<br />
<br />
(क्रमशः)</div>
आनन्द वर्धन ओझाhttp://www.blogger.com/profile/03260601576303367885noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5773464208897631664.post-84694731953647868172018-04-19T20:16:00.000-07:002018-04-19T23:31:20.402-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
[एक विस्तृत परिभ्रमण कथा]<br />
[यात्रा-वृत्तान्त]<br />
<br />
इन्द्रलोक-सा गोवा : जितना भव्य, उतना ही मदहोश...<br />
<br />
एक सप्ताह का गोवा-प्रवास अतिशय आनन्ददायी था। पुणे से गोवा आठ घण्टों का निरंतर सफ़र था, चार चक्रवाहिनी से। 4 मार्च की सुबह 7 बजे हमने प्रस्थान किया। मेरे तीन हमसफ़र थे--मेरी धर्मपत्नी, मेरी छोटी सुपुत्री और उनके मित्र हाशिम भाई ('कौन बनेगा करोड़पति' से प्रसिद्धि-प्राप्त 'सज्जनजी')।<br />
हम सब प्रसन्न-मन चल पड़े गन्तव्य की ओर--रुकते-ठहरते, चाय-नाश्ता करते और म्यूजिक सिस्टम पर संगीत-श्रवण करते हुए। राष्ट्रीय राजमार्ग की यात्रा करते हुए जब हम निपाणी (कर्णाटक) पहुँचे तो मुझे अपने बिछड़े हुए एक मित्र 'मालपाणी' की नाहक याद आयी। नाहक इसलिए कि अगर उसकी याद न आयी होती तो हम सीधे राजमार्ग की बाँह थामे आगे बढ़ जाते, निपाणी में रुकने की वजह से हमारा यात्रा-मार्ग बदल गया और हम इकहरी तथा सँकरी सड़क पर मुड़ गये, जो राज्यमार्ग (निपाणी-अजरा लिंक रोड) था। सड़क के पार्श्व भाग में दोनों ओर छोटे-छोटे गाँवों और जले-भुने खेतों का दर्शन करते हुए हमारी गाड़ी अचानक एक ऊँचाई से नीचे उतरती जान पड़ी। और देखते ही देखते ढलान तीखी और सर्पिल होती गयी। उस पर वाहनों की आवाजाही भी कम न थी और कार-चालक हाशिम साँसत में पड़े हुए थे। कार-चालन का उन्हें पर्याप्त अनुभव तो था, लेकिन पहाड़ी मार्गों और घाटियों में उन्होंने अधिक भ्रमण नहीं किया! वह सहमते-सकुचाते सतर्कता से कार को संकुचित चाल से चलाते रहे। तीखे मोड़, गहरी ढलान और रपटों को रौंदती कार चली जा रही थी और वह भयप्रद घाटी खत्म होने का नाम न लेती थी। एक-दो तीखे मोड़ ऐसे भी गुज़रे, जब मन में आया कि कार का संचालन अपने हाथ में ले लूँ, लेकिन आगे-पीछे दौड़ते वाहनों और इकहरे मार्ग के कारण इसका भी अवकाश नहीं था। हमारे पीछे के वाहन हाॅर्न बजाते हुए तीव्र गति से चलने का संकेत दे रहे थे और मैं इस संकोच से ग्रस्त था कि वाहन को मेरे संचालन का अभ्यास नहीं था। मुझे डर था कि मैं उसे जिस दिशा में बढ़ने का आदेश दूँ, वह उधर न बढ़कर दूसरी दिशा में बढ़ चले तो?...<br />
<br />
हम सभी सूखते हलक के साथ अपनी-अपनी सीट पर स्थिर थे। म्यूजिक सिस्टम में लगा पेन ड्राइव एक-के बाद दूसरा गीत धीमी आवाज़ में सुनाता जा रहा था, तभी रफ़ी साहब का एक पुराना गीत बज उठा--'दिल में छुपा के प्यार का तूफ़ान ले चले, हम आज अपनी...' इस गीत ने इतनी ही यात्रा की थी कि पीछे से छोटी बेटी का हाथ डैश बोर्ड तक आया और रफ़ीजी की खनकती आवाज़ को शांत कर गया। कोई कुछ बोला नहीं, किसी ने आपत्ति दर्ज़ नहीं की। जब हर मोड़ पर संकट सम्मुख खड़ा हो तो कौन अगली पंक्ति सुनने का साहस करता--'हम आज अपनी मौत का सामान ले चले!' प्राण-संकट हो तो संसार का हर प्राणी मन से कितना भीरु होता है न...!<br />
<br />
लेकिन सज्जन भाई पूरी सावधानी और मंथर गति से घाटी से प्रायः आधे घण्टे तक उतरते ही रहे और अंततः हमने एक शिला पर लिखा वाक्य पढ़ा--'अंबोली घाट समाप्त'। इस वाक्य ने हमें कितनी राहत दी, यह कहने की आवश्यकता नहीं। लेकिन भयाक्रांत इस भ्रमण ने वन-वीथियों का अप्रतिम सौंदर्य, उच्चावच मार्गों से दीखती विशाल वन-संपदा और सूर्यास्त-दर्शन का अलभ्य अवसर हमसे छीन लिया।...<br />
<br />
घाटी के बाद भी घण्टे भर की यात्रा शेष थी। शाम के चार बजने के कुछ पहले ही हम गोवा के मरकत मणि-तट पर जा पहुँचे। समुद्र-तट के किनारे सी पैराडाइज़ बीच हट्स, मैण्ड्रम में हमने ठहरने का निश्चय किया और काॅटेज को प्रतिदिन के किराये पर ले लिया एक सप्ताह के लिए। काॅटेज को 'पर्णकुटी' कहूँ तो अत्युक्ति नहीं होगी। बाँस की तीलियों-खपच्चियों और छोटे-बड़े टुकड़ों से बना सुन्दरतम काॅटेज, जहाँ सुख-सुविधाओं का सारा प्रबंध था। लहराती समुद्री हवाएँ सुखदायी थीं। हमने वहीं शरण ली, चाय पी और तत्काल सूर्यास्त-दर्शन के लिए समुद्र-तट पर जा पहुँचे। वहीं विशाल समुद्र का दिव्य दर्शन हुआ।...<br />
समुद्र-तट पर देसी-विदेशी पर्यटकों की भीड़ थी, अपार श्वेत बालुका राशि थी, शेड में अर्द्धशयन मुद्रावाली गद्दीदार बेंचें बिछी दीं। चंचल शोख़ हवाएँ थीं। वहाँ पहुँचते ही मात्र आधे घण्टे में यात्रा की थकान मिट गयी और देह फरहर हो उठी। परमानंद हुआ वहाँ और समुद्र-तट पर ही रात का भोजन कर हम लौट आये।...पहुँचवाला पहला दिन बीत गया।...<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh5_rZ5mUEzq2p91KwSh9IJXFTrm6e9hgAxgLoah0vftNdum03aaQ-2aYBmsnWKAIqebXU-IcbHuOfiRIptQmt2hlRFkr9F_xVplt7JSxkdKS0sQuMowihjgf2YAyJIkDhJX2yEodDcJ3Y/s1600/FB_IMG_1524205655957.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="1280" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh5_rZ5mUEzq2p91KwSh9IJXFTrm6e9hgAxgLoah0vftNdum03aaQ-2aYBmsnWKAIqebXU-IcbHuOfiRIptQmt2hlRFkr9F_xVplt7JSxkdKS0sQuMowihjgf2YAyJIkDhJX2yEodDcJ3Y/s320/FB_IMG_1524205655957.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEixPIg8o4RZb75yqBGzh0Q0_2eO62cwNIAbb2f2aAhG6RLIJh-EYZlXPFbJj0TC4mu-zadFll96gLtrHJCLJrM_0jY5E-njxWWHxfmIvEm-c3GRjGHOKzMoD1w3zxDzlaS8wTQSsCL_Z_0/s1600/FB_IMG_1524205687034.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="1280" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEixPIg8o4RZb75yqBGzh0Q0_2eO62cwNIAbb2f2aAhG6RLIJh-EYZlXPFbJj0TC4mu-zadFll96gLtrHJCLJrM_0jY5E-njxWWHxfmIvEm-c3GRjGHOKzMoD1w3zxDzlaS8wTQSsCL_Z_0/s320/FB_IMG_1524205687034.jpg" width="320" /></a></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjl0gyMm_G91gEdfuYqSHfby3d0Xzn7A1USlg_WJGzzEIEMTZEKfnJ3KLOZlYQ7ggr7WH9cZCoXixAsrTwmLzGBhdtKFsj-KpixxqiVBzx7Z6uPkQcby5gJwbc6u3Dyu6LS5zEaxPUd37c/s1600/IMG-20180304-WA0004.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1040" data-original-width="780" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjl0gyMm_G91gEdfuYqSHfby3d0Xzn7A1USlg_WJGzzEIEMTZEKfnJ3KLOZlYQ7ggr7WH9cZCoXixAsrTwmLzGBhdtKFsj-KpixxqiVBzx7Z6uPkQcby5gJwbc6u3Dyu6LS5zEaxPUd37c/s320/IMG-20180304-WA0004.jpg" width="240" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiW8VujpcR12vAy3Jflp_Idq_AwCJHYrV0ixCMTvDHcGAW8k5aAbxNcjvy15gdN9z_O1CWrqkmwm_gQUsk0rXYbBwuBN61E8h-rky43xhK6d1VLuF313Xtwiz6c8gu6jd3O52MEvY-gR1c/s1600/20180117_144813.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1200" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiW8VujpcR12vAy3Jflp_Idq_AwCJHYrV0ixCMTvDHcGAW8k5aAbxNcjvy15gdN9z_O1CWrqkmwm_gQUsk0rXYbBwuBN61E8h-rky43xhK6d1VLuF313Xtwiz6c8gu6jd3O52MEvY-gR1c/s320/20180117_144813.jpg" width="240" /></a></div>
<br />
'कथा दिवस की खत्म हो गई, विश्राम करें श्रीमान्।<br />
फिर से आवें इसी पटल पर, पढ़ें नया व्याख्यान!!'<br />
(क्रमशः )</div>
आनन्द वर्धन ओझाhttp://www.blogger.com/profile/03260601576303367885noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5773464208897631664.post-87023417445040615942018-03-10T04:20:00.000-08:002018-03-10T04:20:15.868-08:00गोआ के सागर-तट से...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मित्र सागर !<br />
तुम्हारे विस्तृत भीगे सैंकत श्वेत कणों पर<br />
मैं छोड़ रहा पद-चिह्न...!<br />
सागर के उन्मद ज्वार<br />
तुम जब चाहो, मिटा जाना उन्हें...!<br />
मैं लौटूंगा युग-युगान्तर बाद कभी<br />
जाने कौन-सी मौजों पर होकर सवार।<br />
यह यायावर, मतवाला मन<br />
फिर जाने कब<br />
डाले पग-फेरे इसी राह पर<br />
रजत-कणों पर चलते-चलते...<br />
<br />
रे उद्दण्ड लहरों के रखवाले सागर !<br />
तुम फिर मिटा देना उन्हें<br />
मैं आ जाऊँगा फिर-फिर...<br />
यही अनवरत, अविराम श्रम<br />
हम दोनों करेंगे...<br />
जीवन की शाश्वत कथा<br />
इसी रेत पर हम लिखेंगे...!<br />
जीवन के इस महाकाव्य में<br />
नहीं होता कहीं पूर्ण विराम मित्र....<br />
👣👣👣<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjpCoyFEBPEuPJmhRH1zOPVYYm_UT4zYWXGZ7aPPDUSWKe2Ixvjdd5ahNCN29G53d1RY4NlsyA7e4s3U4D7PgGVCRnWeYoH_kyEyANtSBttcScTDvxd94XZ-5GnOLIcmTWB4oCtckoYzH8/s1600/IMG-20180309-WA0004.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1040" data-original-width="780" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjpCoyFEBPEuPJmhRH1zOPVYYm_UT4zYWXGZ7aPPDUSWKe2Ixvjdd5ahNCN29G53d1RY4NlsyA7e4s3U4D7PgGVCRnWeYoH_kyEyANtSBttcScTDvxd94XZ-5GnOLIcmTWB4oCtckoYzH8/s320/IMG-20180309-WA0004.jpg" width="240" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgZ1IeAbKwiTOYTRv1B32Z48hrQcBJWK8d-Jq7NyDcLP6IndbA55NuLTYXCJ0vCGgsvJoA_05UKiovDHT0TuuZnZnIBnjPsn4F03GBpjgNAoGDfWkEF-FRTdwO1uxP5qKh-SeNhKmWA-2w/s1600/IMG-20180309-WA0002.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1040" data-original-width="780" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgZ1IeAbKwiTOYTRv1B32Z48hrQcBJWK8d-Jq7NyDcLP6IndbA55NuLTYXCJ0vCGgsvJoA_05UKiovDHT0TuuZnZnIBnjPsn4F03GBpjgNAoGDfWkEF-FRTdwO1uxP5qKh-SeNhKmWA-2w/s320/IMG-20180309-WA0002.jpg" width="240" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh3kTGbSbNCFbDaaUeoi5w1MtvEeQvyYC_GrY0bm08lNnlpk7SdqSFt_PUNPgV-qrlifVLfwA82izd1PqbjeZLiRDVnip3_p2tWj4kLYKMSp-An7uYyvLXGbz6v-Jd8axFtKcmG8C_F92g/s1600/IMG-20180309-WA0000.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1040" data-original-width="780" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh3kTGbSbNCFbDaaUeoi5w1MtvEeQvyYC_GrY0bm08lNnlpk7SdqSFt_PUNPgV-qrlifVLfwA82izd1PqbjeZLiRDVnip3_p2tWj4kLYKMSp-An7uYyvLXGbz6v-Jd8axFtKcmG8C_F92g/s320/IMG-20180309-WA0000.jpg" width="240" /></a></div>
<br />
(--आनन्द. 10.03.2018)</div>
आनन्द वर्धन ओझाhttp://www.blogger.com/profile/03260601576303367885noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-5773464208897631664.post-49694277138084614812018-02-26T07:50:00.000-08:002018-02-26T07:50:04.115-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
जख़्म फिर हरा हो गया...<br />
<br />
फिल्म 'माॅम' की कलानेत्री श्रीदेवी के हठात् मौन हो जाने से सारा संसार स्तब्ध है और कई ऐंगल से उनकी अचानक हुई मौत पर विचार कर रहा है। टीवी के तमाम चैनलों पर यही चिंता कल से व्यक्त हो रही है कि ऐसा कैसे हो गया?...<br />
<br />
मैं अपने अनुभव से जानता हूँ कि ऐसा भी होता है। काल कभी भी, कहीं भी दबे पाँव आ धमकता है और जीते-जागते, हँसते-गाते, ख़ुशदिल इंसान की धड़कनें बंद कर जाता है। श्रीदेवी भी उसी क्षिप्र कालगति का ग्रास बन गयी हैं, जिसकी शिकार मेरी माँ हुई थीं कभी।...<br />
फिर 4 दिसम्बर, सन् 1968 याद आया, जिसके ब्राह्म मुहूर्त में मेरी माँ के दिल की धड़कनों को भी काल ने गिरफ़्तार कर लिया था--औचक! 3 दिसम्बर 68 की शाम तक वह दफ़्तर में थीं। तमाम संचिकाओं के निबटारे के बाद बाज़ार गयी थीं। दूसरे दिन एकादशी थी। प्रत्येक एकादशी पर सत्यनारायण भगवान् की कथा-श्रवण का उनका नियम था। उन्हीं के पूजन के लिए वह बाज़ार से खरीद लायी थीं फल और हवन-सामग्रियाँ, साथ में श्रीराम-जानकी और भजन-मग्न पवनसुत हनुमान की फ्रेम में मढ़ी हुई तस्वीरें। वह पूर्णतः स्वस्थ और प्रसन्नचित्त थीं। तब कौन जानता था कि कल का सूर्योदय वह देख न सकेंगी?<br />
<br />
विवाह समारोह में पूरी हार्दिकता और प्रसन्नता से शामिल होनेवाली श्रीदेवी को भी कहाँ ज्ञात था कि कल का सूरज उनके दर्शन के लिए नहीं निकलेगा? इस स्तम्भित कर देनेवाले आघात को खूब पहचानता हूँ मैं! जब हम बच्चों ने अपनी माँ को खोया था, तब हम चारों भाई-बहन टीन एजर्स ही थे। माँ स्वदेश में ही, किन्तु घर से दूर थीं। श्रीदेवी की दोनों बेटियाँ भी उसी आयु-वर्ग के आसपास की हैं आज। पाँच-छह घण्टों की यात्रा कर हम माँ के पास तो कहाँ, उनके पार्थिव अवशेष तक पहुँच गये थे, लेकिन श्रीदेवी की बेटियों को तीन दिनों से माँ का नहीं, उनके शव-दर्शन की विह्वल प्रतीक्षा करनी पड़ रही है और दुनिया है कि नियमों-विधानों की उलझी सुलझाने में लगी है। माँ तो अनन्त की यात्रा पर चली गयीं हैं, उन्हें तो अब आना नहीं है कभी...! आना है शव को, डेड बाॅडी को, पार्थिव अवशेष को...! यह मान लेना भी कितना कठिन है, त्रासद और दुःखद है...!<br />
<br />
जानता हूँ, संपूर्ण ब्रह्माण्ड की समस्त गतिविधियों के हठात् रुक जाने-जैसी और स्तब्ध कर देनेवाली घड़ी है यह...! ऐसी मर्मान्तक, स्तब्धकारी और जड़ कर देनेवाली पीड़ा का भुक्तभोगी हूँ मैं भी, मेरा पूरा परिवार भी। संवेदना-सांत्वना का कोई भी शब्द पीछे छूट गये परिजनों की इस पीड़ा का शमन नहीं कर सकता। यह अवसाद आजीवन सालता रहेगा अब।...<br />
<br />
श्रीदेवी के महाप्रस्थान से वह पुराना जख़्म फिर से हरा हो गया है।... बस, इतना ही कह सकूँगा अभी।...<br />
<br />
(--आनन्द. 26-02-2018)<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg3u36mb5pglzOj5QZ-RoNUm6hJqh13AruYZTunpTs3CNo2a_ydgkwCdT-q6MuFXfH4gPAmIaAqFCmW4QWHzYCVQ2fAIs5oMFc8qRVuc5Y0qTvBcyyG-PsVUXXeqs2fya5yK1VVTUnC_dU/s1600/FB_IMG_1519660032794.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="600" data-original-width="1142" height="168" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg3u36mb5pglzOj5QZ-RoNUm6hJqh13AruYZTunpTs3CNo2a_ydgkwCdT-q6MuFXfH4gPAmIaAqFCmW4QWHzYCVQ2fAIs5oMFc8qRVuc5Y0qTvBcyyG-PsVUXXeqs2fya5yK1VVTUnC_dU/s320/FB_IMG_1519660032794.jpg" width="320" /></a></div>
<br /></div>
आनन्द वर्धन ओझाhttp://www.blogger.com/profile/03260601576303367885noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5773464208897631664.post-79081044149129371682018-02-18T18:44:00.000-08:002018-02-18T18:44:01.985-08:00नहीं तो शामत सिर पर आई...!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
[एक अनावश्यक कविता]<br />
<br />
ये जो पत्नियाँ होती हैं न,<br />
मुझे लगता है,<br />
कठिन सामग्रियाँ होती हैं;<br />
इसी वजह से मैं<br />
अपनी गृहलक्ष्मी को<br />
'तथाकथित पत्नी' कहता हूँ ।<br />
लोग कहते हैं, इसलिए 'पत्नी',<br />
अन्यथा वह तो हवा की एक<br />
ख़ुशनुमां बयार-सी है<br />
जो मेरे साथ-साथ चलती है,<br />
मेरे मिज़ाज के हिसाब से<br />
अपना रंग बदलती है।<br />
<br />
जनाब! यह भी आसान<br />
कलाबाज़ी नहीं है<br />
कि मुस्कान देखकर<br />
मुख-कमल खिल उठे<br />
या बिगड़े हों मेरे तेवर<br />
तो मुख-चन्द्र मलिन हो जाये;<br />
जैसे पूर्ण चन्द्र पर आ जाता है<br />
टुकड़ा-टुकड़ा काला बादल,<br />
लेकिन यह दृश्य तभी तक स्थिर<br />
या गतिमान होता है,<br />
जबतक घर में कोई विकट गतिरोध नहीं होता<br />
कोई भी अपना आपा पूरी तरह नहीं खोता!<br />
<br />
हुई असावधानी जरा-सी<br />
घटना घटी बड़ी-सी,<br />
और ऐसे में--<br />
जब कभी उनका भेजा पलटता है<br />
हवाओं का रंग बदलता है,<br />
सुरमई शाम भी<br />
स्याह रात में ढल जाती है<br />
जो सोना चाहूँ तो<br />
नींद नहीं आती है।<br />
<br />
स्वाभिमान का दीपक बुझाकर<br />
आँखों में नकली नमी का सुरमा लगाकर<br />
करनी पड़ती है मनुहार मुझे<br />
फिर भी दी जाती है<br />
लानत और फटकार मुझे।...<br />
<br />
सब सहना होता है मुझको<br />
ताकि अगली तिमाही तक<br />
शांति से चलता रहे मेरा शासन,<br />
मेरी भाव-भंगिमा और<br />
भृकुटी के संचालन से<br />
रहे काँपता घर का आँगन ।...<br />
<br />
भई, सीधी-सी बात है<br />
ये तनी हुई अभिमानी गर्दन भी<br />
ठीक वहीं पर झुकती है<br />
जहाँ शिवाला है कोई<br />
या शक्तिपीठ की ड्योढ़ी है।<br />
जग्गजननि के सम्मुख क्या<br />
कोई तनकर खड़ा रह सकता है<br />
जगत्-प्रवाह में बहता तिनका<br />
कब तक थिर रह सकता है?<br />
इन सिद्धपीठों पर जाकर<br />
जो बावला ऐंठा ही रह जाता है,<br />
वह जीवन के महासमर में<br />
हतबुद्ध खड़ा रह जाता है।...<br />
<br />
इन फूलों का क्या है बंधु,<br />
जंगल-जंगल खिल जाते हैं,<br />
उपवन में वे ही तो आखिर,<br />
नया गुलाब ले आते हैं।<br />
नतशिर होना होता है भाई<br />
नहीं तो शामत सिर पर आई...!..<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEik04qOdtpYRUeMKvRtGFXamtlfcgL1IdM3kMxKCPXCfqzSrOi2Hw2uSvPp1W8xzMUnYyALRezUO-91w2dT1YxgNxmNYjwirOKa7oSBoNk9Ll79J18USo6ghzlYYHFCTDsID25n9FbpEo8/s1600/IMG-20171217-WA0022.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="555" data-original-width="556" height="319" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEik04qOdtpYRUeMKvRtGFXamtlfcgL1IdM3kMxKCPXCfqzSrOi2Hw2uSvPp1W8xzMUnYyALRezUO-91w2dT1YxgNxmNYjwirOKa7oSBoNk9Ll79J18USo6ghzlYYHFCTDsID25n9FbpEo8/s320/IMG-20171217-WA0022.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
[चित्र : हमारा, : व्यथा बगल के किरायेदार की]<br />
--आनन्द, 19-12-2017</div>
आनन्द वर्धन ओझाhttp://www.blogger.com/profile/03260601576303367885noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5773464208897631664.post-24660515461246189042018-02-11T18:18:00.001-08:002018-02-11T18:18:53.169-08:00लालटेन का शीशा साफ हुआ...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
पुराने ज़माने में गाँव-देहात में देर शाम होते ही जो लालटेन बुझने लगती थी, लोग उसे बुझाकर एक किनारे रख देते थे। कौन उसके शीशे साफ करे, मिट्टी का तेल भरे? ये जहमत उठाने से सो जाना लोग बेहतर समझते थे, लेकिन अब वक़्त बदल गया है। लालटेनें अब प्रचलन में रहीं नहीं। शहर तो शहर अधिकांश गाँवों से भी गायब हो गयी हैं लालटेनें।<br />
<br />
लेकिन, ज़िन्दगी की राहों को रौशन करने के लिए नासिका के ऊँचे टीले के दोनों ओर जलती-बुझती रहती हैं दो-दो लालटेनें। किन्तु इन लालटेनों का विधान कबीर की उलटबांसियों की तरह ही उलटा है। दिन के उजाले में ये जलती हैं और रात होते ही स्वयमेव बुझ जाती हैं। इन्हें जलाना-बुझाना नहीं पड़ता। इन लालटेनों को हम आँख, नयन, नेत्र आदि कहते हैं। वैसे, यह भी कहा गया है--'नयन जरै दिन रैन हमारे'। सच है, ये लालटेनें जलती तो रहती हैं दिन-रात, लेकिन इनका जलना-बुझना स्वचालित है। इन लालटेनों का स्विच होती हैं हमारी पलकें। पलकें बंद हुईं और स्वतः बुझ गयीं लालटेनें। पलकें खुलीं तो रौशन हो उठीं लालटेनें।<br />
<br />
नयनों के अत्यधिक उपयोग से या अनियमित शयन-जागरण से या अनुचित खानपान से इन लालटेनों पर कालिख-सी पुत जाती है, जिसे आंग्ल भाषा में कहते हैं कैटरेक्ट और देसी भाषा में मोतियाबिंद! सैंतीस वर्षों से मैं भी तम्बाकू का सेवन करता रहा हूँ और अक्षरों से खूब फोड़ी हैं आँखें, रात-रात-भर जागकर। भोजन की अनियमितता मेरी जीवनचर्या रही थी। मेरी लालटेन पर कालिख तो आनी ही थी, आयी। जब बहुत परेशानी होने लगी तो मैंने शल्य क्रिया का निर्णय लिया।<br />
<br />
मुझे याद आया, यह कष्ट पिताजी को भी हुआ था। मैंने जब से उन्हें देखा था, चश्मे में ही देखा था। अपने चौथेपन में उन्होंने अपनी एक आँख की शल्य क्रिया अलीगढ़ अकेले जाकर प्रख्यात चिकित्सक डाॅ. पाहवा से करवायी थी। पन्द्रह दिन अस्पताल में रहे थे और अनेक कष्ट उठाये थे। पन्द्रह दिनों के बाद एक आँख पर हरी पट्टी बँधवाये वह दिल्ली गये थे और अपने अभिन्न मित्रों सर्वश्री बच्चन, जैनेन्द्र कुमार और अज्ञेयजी से मिलकर पटना लौटे थे। तीन महीने के औषधोपचार के बाद उनकी आँख काम करने लायक हुई थी, मोटा पावर ग्लास लगाकर...!<br />
<br />
अब, जब मेरी बारी आई तो मैंने भी अपने बच्चों को अपनी-अपनी व्यस्तताओं से हाथ खींचकर भाग-दौड़ करने से मना कर दिया और श्रीमतीजी के साथ पुणे के रूबी हाॅस्पिटल पहुँच गया। 17 जनवरी की सुबह वहाँ डाॅक्टर नरियोसन एफ. ईरानी ने मेरी बाईं आँख का लेजर ऑपरेशन किया और मात्र 20 मिनट में मुझे फ़ारिग कर दिया। दो घण्टे अपनी निगरानी में रखने के बाद उन्होंने मेरी आँख की पट्टी भी हटा दी और काले चश्मे में घर भेज दिया। 21 दिनों की औषधियों और तमाम परहेजों-सावधानियों के बाद पावर का नया चश्मा मुझे मिल गया है और दुनिया फिर से रौशन हो गयी है।<br />
<br />
बदलते वक्त के साथ यह आॅपरेशन बहुत आसान हो गया है। सौभाग्य से मुझे युवा डाॅक्टर ईरानी भी ऐसे मिले, जो मित्रवत् व्यवहार करते थे। पूरी शल्य क्रिया के दौरान वह मुझसे बातें करते रहे और मुझे तनिक भी पीड़ा नहीं हुई। मेरी नासिका के बायीं ओर रखी लालटेन का शीशा उन्होंने ऐसा चमकाकर साफ कर दिया है कि दुनिया रौशन हो उठी है, दृश्य उछलकर नेत्र-पट पर नृत्य करने लगे हैं और अक्षर अब स्थिर भाव में खड़े मिलते हैं; उनमें लेशमात्र का कंपन नहीं होता। दीन-दुनिया का तो पता नहीं, लेकिन लगता है, मेरे तो अच्छे दिन आनेवाले हैं!... खूब लिखूँगा-पढ़ूंगा और स्पष्ट दूर-दर्शन करूँगा।<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEigzj7F9SXBdHAZzJxAAYPAJrWjXp6Jc2WsCTdV5VdO4vXQdKYFz4TyaIlkC3PuF9gomd-10CILLJP2UUBmXju2li-ERNSYKsatkM_8Rtd5STIDmQLcSeEIID9zdxGsOSPRZEPsqLjKyLg/s1600/IMG-20180207-WA0011.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="774" data-original-width="1032" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEigzj7F9SXBdHAZzJxAAYPAJrWjXp6Jc2WsCTdV5VdO4vXQdKYFz4TyaIlkC3PuF9gomd-10CILLJP2UUBmXju2li-ERNSYKsatkM_8Rtd5STIDmQLcSeEIID9zdxGsOSPRZEPsqLjKyLg/s320/IMG-20180207-WA0011.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
एतदर्थ, मृदुभाषी आत्मीय चिकित्सक डाॅ. ईरानी का बहुत-बहुत आभार!<br />
--आनन्द. 10 जनवरी, 2018.<br />
<br />
[चित्र : डा. नरियोसन एफ. ईरानी के साथ मैं. 7-11-2018]</div>
आनन्द वर्धन ओझाhttp://www.blogger.com/profile/03260601576303367885noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5773464208897631664.post-18523183750806513932018-02-03T23:13:00.001-08:002018-02-03T23:13:43.626-08:00'दोनों के बीच मैं ही फाड़ा जाऊँगा'...?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
हम एक ही वर्ष में, लेकिन दो अलग-अलग शहरों, परिवारों और परिवेश में जन्मे थे। हमारा पालन-पोषण और पठन-पाठन भी भिन्न शहरों में हुआ था। युवावस्था की दहलीज़ पर पाँव रखते ही संयोगवश हम मिले, मित्र बने और हमारी गहरी छनने लगी। मित्रता घनिष्ठ से घनिष्ठतर होती गयी। लेकिन हमारी रुचियाँ भिन्न थीं। हम अलग पथ के पथिक थे। न बोध-विचार का साम्य था, न प्रकृति समान थीं। दो अलग धारा में बहनेवाले प्राणी थे हम दोनों।...<br />
वह गम्भीराचार्य था, मैं मुक्त मन का मुखर युवा! वह बाॅडी बिल्डर था, मैं कोमल मन का संवेदनशील युवा-कवि! लिखने-पढ़ने और साहित्य से उसका कोई वास्ता नहीं था। हमारी मनोरचना में भिन्नता बहुत थी। लेकिन, मित्रता शायद शर्तों पर नहीं होती, वह होती है; क्योंकि उसे होना होता है--विधिवशात्। हमारा साथ-संग दीर्घकालिक नहीं रहा, लेकिन मित्रता अक्षुण्ण रही और आज भी यथावत् है। जब तक मैं उसके साथ रहा, शाम होते ही मैं टेबल टेनिस खेलने क्लब चला जाता और वह वर्कआउट करने के लिए जिम। लौटता तो वह भर-कटोरा अंकुरित चना खाता और मैं अपने लिए काॅफ़ी बना लेता।<br />
<br />
वह मित्रता का धर्म निभानेवाला शेरदिल इंसान था--मुंहफट, लेकिन स्वच्छ हृदय का। मुंहफट तो था, मगर जो बात उसे न बतानी होती, उसे उसकी ज़बान से कोई उगलवा भी नहीं सकता था। अपने मान-स्वाभिमान की बहुत फ़िक्र थी उसे। अभिमान उसमें बिल्कुल नहीं था, लेकिन स्वाभिमान प्रचुर मात्रा में था। उसका गठीला बदन और आकर्षक व्यक्तित्व हमारे लिए आदर्श बना रहा। मुख़्तसर में कहूँ तो वह एक अत्याधुनिक सुदर्शन पहलवान सरीखा नवयुवक था।...<br />
<br />
साथ रहते दो वर्ष भी न गुज़रा था कि हम दोनों के परिवारों में हमारे विवाह की चिंता और चर्चा होने लगी। तब विवाह के लिए न मैं तैयार था, न मेरा पहलवान मित्र। लेकिन घर के बड़े-बुजुर्गों को रोकनेवाला भला कौन था? वे अपनी मनमर्जी चलाते रहे और हम उनकी आज्ञा मानने को विवश बने रहे। मेरे पट्ठे मित्र ने तो अपने घरवालों को दो टूक कह दिया था--'अभी नहीं करनी शादी-वादी...!' लेकिन विधि को यह मंजूर नहीं था। एक कन्या के पिता को अपनी पढ़ी-लिखी योग्य बिटिया के लिए मेरे पहलवान मित्र बहुत पसन्द आ गये थे। वह उसके पिताजी के घर के चक्कर लगाने लगे। बात बढ़ी तो बढ़ती चली गयी। नतीजा यह हुआ कि मित्रवर को न चाहते हुए भी कन्या-निरीक्षण के लिए घर जाना पड़ा। वह बड़ों की आज्ञा की अवहेलना न कर सके। वह ज़माना ऐसा था भी नहीं। जब वह लौटा तो मेरे बार-बार पूछने पर बमुश्किल इतना ही कह सका--'लड़की तो ठीके है।' उसका इतना कहना ही काफी था, मेरे चिकोटी काटने के लिए। मैं उसे जब ज्यादा परेशान करता तो एक रहस्यमयी मुस्कान उसके अधरों पर खेल जाती। कुछ महीने और बीत गये, अंतिम निर्णय का कुछ पता न चला। लेकिन बीतते वक्त के साथ अंदेशा होने लगा था कि बात यहीं बनेगी। चुप्पा पहलवान इस विषय पर ज्यादा कुछ बोलता ही नहीं था।...<br />
<br />
एक दिन शाम के वक़्त, जिम जाने के ठीक पहले, जब वह मेरे सामने पड़ा तो शुभकामना-संदेश का एक कार्ड मेरी तरफ बढ़ाते हुए बोला--'ये देखो!'<br />
मैंने पूछा--'क्या है?'<br />
अनासक्त भाव से बोला पहलवान--'खुद ही देख लो, उसी लड़की की शुभकामनाएँ हैं।' इतना कहकर हल्की मुस्कान के साथ वह जिम चला गया और उत्सुकता से भरा मैं लिफ़ाफ़ा खोलकर देखने लगा। उसमें एक मुद्रित कार्ड था और हस्तलिखित एक छोटा-सा पत्र! कन्या का प्रथम पत्र पढ़कर मेरी पहली प्रतिक्रिया यही हुई कि कन्या तो सुबुद्ध है!<br />
<br />
अब संकट पहलवान के पाले में था। मैं रोज उससे पूछता--'पत्र का उत्तर दिया?' वह मुस्कुरा कर प्रश्न टाल जाता, लेकिन उसकी मुस्कुराहट में ही उसकी पसंदगी का रहस्य छिपा था। एक दिन मैं उसके पीछे ही पड़ गया। मैंने कहा--'कमाल करते हो तुम भी यार! वह लड़की होकर तुम्हें शुभकामनाएँ भेजने और पत्र लिखने का साहस दिखा सकती है और तुम उत्तर देने की हिम्मत भी नहीं जुटा रहे, कितनी गलत बात है। तुम्हें भी तो कुछ लिखना चाहिए न!'<br />
उसने खीझकर कहा--'ये चिट्ठी-पत्री मुझसे न होगी।' बहुतेरी जिरह के बाद, आखिरश मैंने उसे मना ही लिया कि उत्तर मैं लिख दूँगा और वह उसे अपनी हस्तलिपि में यथावत् उतार कर पोस्ट कर देगा। और, यह राज़ मेरे-उसके बीच पोशीदा ही रहेगा ताज़िंदगी।...<br />
<br />
जिस शाम उसकी स्वीकृति मिली, उसी रात मैं पत्र लिखने बैठा और सोचता रहा क्या लिखूँ, कैसे लिखूँ? किसी दूसरे के लिए ख़त लिखना कठिन था और वह भी ऐसे बनते हुए नवीन संबंध के नाम! किसी के लिए प्रेम (जैसा)-पत्र लिखने का मेरे जीवन में भी यह पहला ही अवसर था। क्या कहूँ, कठिन परीक्षा थी। बहुत देर तक चिंतन करने के बाद भी एक शिष्ट और स्नेहिल संबोधन के अतिरिक्त मैं कुछ न लिख सका। कागज़-कलम मेज़ पर छोडक़र मैंने शय्या की शरण ली।...<br />
मैं लेटकर निद्रादेवी का आह्वान करने लगा, लेकिन नींद थी कि आती नहीं थी। मैं सोचने लगा कि अगर ऐसा ही एक पत्र मुझे अपनी भावी पत्नी को लिखना होता तो मैं क्या लिखता? इस विचार ने शब्द देने की शुरूआत की और उन शब्दों से वाक्यों का निर्माण होने लगा। मैं बिस्तर छोड़कर पुनः टेबल पर आ गया और लिखने लगा। भावी पत्नी को संबोधित करते हुए जो भाव-विचार मन में उपजने लगे, जितने रंग मनःलोक में भरने लगे, उन्हें शिष्ट शब्दों में पिरोकर मैं काग़ज पर फैलाता गया। और, देखते-देखते एक सुन्दर शब्द-चित्र तैयार हो गया, जिसे पढ़कर मैं स्वयं संतुष्ट हुआ।... उसी की प्रतिलिपि मेरे बलशाली मित्र ने अपनी भावी पत्नी को प्रथम पत्र के रूप में लिख भेजी।<br />
<br />
कुछ दिनों के बाद कन्या का उल्लास से भरा दूसरा ख़त आ पहुँचा। पहलवान ने दूसरा ख़त भी मेरी ओर उछालते हुए कहा--'लो, यह नंबर टू है। अब झेलो।'... दूसरे ख़त में रस-माधुर्य अधिक था। पत्र पढ़कर मुझे आनन्द-लाभ हुआ। पत्र, मेरे लिखे पत्र के आलोक में लिखा गया था और उसमें मेरे लिखे शब्दों की प्रशंसा भी थी। मन पुलकित हुआ।...<br />
मैंने दूसरे ख़त का भी अपने जानते ख़ासा अच्छा उत्तर लिखा--तब जितनी विद्या-बुद्धि थी, सबका उपयोग करते हुए। पन्द्रह-अठारह दिनों बाद तीसरा ख़त भी आ पहुँचा, जिसे मेरी ओर बढ़ाते हुए दबंग मित्र को अंततः कहना ही पड़ा--'अरे यार, तुमने तो मेरी बड़ी अच्छी इमेज बना दी है वहाँ...।'<br />
<br />
लेकिन तीसरे ख़त का उत्तर देते ही मुझे बलवान मित्र की संगत से रुख़सत हो जाना पड़ा। इसके साल-भर बाद दिल्ली में मेरा विवाह हुआ और उसके कई महीनों बाद पहलवानजी का भी--उसी कन्या के साथ, जिसे मैं तीन प्रेमपूर्ण पत्र लिख आया था।...<br />
<br />
हम संघर्षपूर्ण जीवन जीते हुए अपनी-अपनी राह लगे। वर्षों बीत गए। हम दोनों बाल-बच्चेदार हुए और शहर-दर-शहर भटकते रहे। जब मेरे बच्चे 3-5 साल के हो गये थे, तब एक दिन श्रीमतीजी ने मुझसे पूछा--'सुनिये, आप इतना पढ़ते-लिखते हैं। आपने विवाह के पहले कभी कोई पत्र क्यों नहीं लिखा मुझे? बस, दीपावली पर एक कार्ड भेजा था, जिसे मैंने आज तक सँजो रखा है।'<br />
असावधानी में मेरे मुंह से बेसाख़्ता निकल गया--'मैंने पत्र लिखा तो था, पोस्ट कहीं और हो गया।'<br />
मेरे इस उत्तर से श्रीमतीजी चकित रह गयीं और अन्तर्कथा बताने की ज़िद करने लगीं। विवश होकर मुझे सबकुछ खोलकर बताना पड़ा उन्हें। इस तरह मित्र के प्रति 'ब्रीच ऑफ़ ट्रस्ट' अनचाहे ही हो गया मुझसे। पूरी कथा सुनकर श्रीमतीजी ने ठंढी आह भरते हुए कहा था--'काश, वे ख़त कभी देखने को मिलते मुझे, आखिर लिखे तो थे मेरे लिए न...!'<br />
<br />
कई वर्षों बाद प्यारे पहलवान मित्र से मिलने की राह मिली। हम मिले तो पुराने किस्से याद आये। मैंने मित्र से पूछा--'वह प्रारंभिक पत्राचार की बात अब तक परदे में ही है न?' अक्खड़ पहलवान बोला--'वह राज़ तो परदे चीरकर बाहर आ गया यार!'<br />
मैंने पूछा--'वह कैसे? आख़िर तुमने भाभी को बता ही दिया न? जबकि हमारे बीच तय हुआ था, राज़ राज़ ही रहेगा।'<br />
उसने कहा--'छोड़ो भी, जो हुआ, अच्छा हुआ। राज़ खुद ही फ़ाश होने को आमादा हो गया तो मैं क्या करता।' मैं समझ गया यह अकड़ू इसके आगे कुछ बतायेगा नहीं। दूसरे दिन मैं भाभी की शरण में गया और अचानक उनसे पूछ बैठा--'भाभी, वे शुरूआती चिट्ठयाँ कहाँ छुपा रखी हैं आपने, जो इसने लिखी थीं आपको? मैं भी तो देखूँ, क्या लिखा था इस दुष्टात्मा ने।'<br />
भाभी तो जोरदार और निःसंकोची निकलीं। उन्होंने रहस्यमयी मुस्कान के साथ कहा--'छोड़िये भी... मुझे न बनाइए। मैं सब जानती हूँ, किसने लिखे थे वे ख़त।'<br />
मैंने कहा--'जब आप जानती ही हैं तो अब संकोच कैसा? खोजकर दीजिए न चिट्ठयाँ।'<br />
भाभी बोलीं--नहीं, संकोच कैसा? लेकिन, अब चिट्ठयाँ मैं दे नहीं सकती आपको।'<br />
मैंने पूछा--'क्यों?'<br />
वह बोलीं--'क्योंकि मैंने उन्हें फाड़कर नष्ट कर दिया है।'<br />
<br />
उन प्रारम्भिक चिट्ठियों के नष्ट होने की जो कथा भाभी ने सुनायी, वह मुख़्तसर में यूँ थी कि गृहस्थी के किसी छोटे-से विवाद में बात बढ़ जाने पर भाभी ने उलाहना देते हुए पहलवान से गुस्से में कहा था--'अब आप मुझ पर चिल्लाने भी लगे हैं? पहले तो बड़े मीठे-मीठे पत्र लिखा करते थे...!'<br />
क्रोध के वशीभूत पतिदेव भी तपाक में बोल पड़े--'अरे, उन चिट्ठियों की बात रहने भी दो। मैं थोड़े ही लिखता था चिट्ठयाँ! हऽ हहा, वो चिट्ठयाँ तो 'ओझा' लिखता था। मैं तो सिर्फ़ उसकी काॅपी करके भेज देता था तुम्हारे पास।'<br />
<br />
इस उत्तर से भाभी को बड़ा क्रोध आया और उसी दिन उन्होंने चिट्ठयाँ फाड़कर फेंक दी थीं। इस तरह, सर्वप्रथम मेरे हृदय में उपजनेवाली कोमल भावनाओं का यह हश्र हुआ था, जो सूर्य की पहली किरण सरीखी नर्म थीं। ओह, वे आत्मीय उद्गार अब कभी पढ़ने को न मिलेंगे मुझे!... इस पीड़ा के साथ जब मैं सोने लगा तो पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह की एक क्षणिका अन्तर्मन में स्वयं ध्वनित होने लगी, जिसका शीर्षक था-- 'लिफ़ाफ़ा' :<br />
'मजमून तुम्हारा और पता उनका,<br />
दोनों के बीच मैं ही फाड़ा जाऊँगा।'<br />
--आनन्द. 1 फरवरी 2018.<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgBT5V3bFPDqXhktsYUeG0QD2efVqL3ZfKFpH0R4BIn5vgT2A5qGFXHoJgAnWR-nnZ3d57QmO3y4MiQnPUjPP92THaT49oY54dG1GWS1bp0Fd59gIw8ibSzrFoacZOFLzkmg_ScCpqDwIU/s1600/20170517_113959.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1526" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgBT5V3bFPDqXhktsYUeG0QD2efVqL3ZfKFpH0R4BIn5vgT2A5qGFXHoJgAnWR-nnZ3d57QmO3y4MiQnPUjPP92THaT49oY54dG1GWS1bp0Fd59gIw8ibSzrFoacZOFLzkmg_ScCpqDwIU/s320/20170517_113959.jpg" width="305" /></a></div>
<br /></div>
आनन्द वर्धन ओझाhttp://www.blogger.com/profile/03260601576303367885noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-5773464208897631664.post-69378742857456370282018-01-29T05:04:00.000-08:002018-01-29T05:04:16.460-08:00अपने घर का दर्शन...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
अपने घर की खिड़की से<br />
दीखते हैं दूसरों के घर,<br />
ऊपरी मंजिल पर हों तो<br />
सड़कें भी दीखती हैं,<br />
जंगल भी दीखते हैं<br />
और माचिस के डिब्बे-से<br />
रेंगते वाहन भी,<br />
मजमे भी;<br />
लेकिन अपना घर तो क्या,<br />
उसकी खिड़कियाँ भी बस,<br />
अंदर से ही दिखती हैं।<br />
<br />
अपना घर देखना हो तो<br />
घर से निकलकर थोड़ी दूर<br />
जा खड़ा होना होता है--<br />
तटस्थ भाव से--<br />
असंलग्न!<br />
<br />
क्या तुम्हारा भी मन होता है कभी<br />
अपने घर को देखने का?<br />
मेरा तो होता है;<br />
लेकिन क्या करूँ?<br />
अपना घर छोड़कर<br />
बाहर जाया नहीं जाता,<br />
तटस्थ हुआ नहीं जाता,<br />
असंपृक्त रह नहीं पाता;<br />
आज भी वहीं रह गया हूँ<br />
जहाँ छोड़ गये थे तुम;<br />
वहीं मोहाविष्ट रहता हूँ,<br />
दुःख-सुख घर में रहकर सहता हूँ।<br />
<br />
कैसे निकलूं घर से, बतलाओ<br />
यह मोहावरण किस तरह हटाऊँ,<br />
तुम्हीं समझाओ,<br />
है कोई युक्ति तुम्हारे पास?<br />
(--आनन्द.)<br />
====<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhDyJqIXAdJM8bcZUd-ywWEYGUj6fWFQz2UzSXjFmCNQ6efklASE4Q7yyIZ8tJ0ihhT9frcyPzSxFEy_RtbOIE0tJjVvKss6Tci89xU2YHABGmVgXTd7lQO3LqIzjFiqmytd1O7HpLPE60/s1600/FB_IMG_1517230838132.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="720" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhDyJqIXAdJM8bcZUd-ywWEYGUj6fWFQz2UzSXjFmCNQ6efklASE4Q7yyIZ8tJ0ihhT9frcyPzSxFEy_RtbOIE0tJjVvKss6Tci89xU2YHABGmVgXTd7lQO3LqIzjFiqmytd1O7HpLPE60/s320/FB_IMG_1517230838132.jpg" width="240" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg1U3r6VyXyaBpX2b58-e6QGZTtgiXOvsH6AZaA-EPcapFn0ewhyphenhyphenvYmoZEMVdkkWzGTajwDkixvgXhr2CeqnSZRB4h_1kf7JYD3LG4Z7DBtLz7FBuNszFXzPGSFx9sF2Zm1dHc1WqB-54M/s1600/FB_IMG_1517230853857.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="720" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg1U3r6VyXyaBpX2b58-e6QGZTtgiXOvsH6AZaA-EPcapFn0ewhyphenhyphenvYmoZEMVdkkWzGTajwDkixvgXhr2CeqnSZRB4h_1kf7JYD3LG4Z7DBtLz7FBuNszFXzPGSFx9sF2Zm1dHc1WqB-54M/s320/FB_IMG_1517230853857.jpg" width="240" /></a></div>
<br />
पुनः --<br />
नयनों ने ली है अँगड़ाई<br />
पहली शल्य-क्रिया है भाई!<br />
अस्पताल में जाना होगा,<br />
क्षुद्र मोतिया हटवाना होगा।<br />
<br />
दस दिन का अवकाश चाहिए,<br />
दुआएं सबकी पास चाहिए!<br />
--आ. 17-1-2018.</div>
आनन्द वर्धन ओझाhttp://www.blogger.com/profile/03260601576303367885noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5773464208897631664.post-46104983408543570652018-01-26T21:15:00.000-08:002018-01-26T21:15:23.596-08:00।। सर्वत्र नारायणो हरिः ।।<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
(27 जनवरी : पूज्य पिताजी की 108वीं जयन्ती पर विशेष)<br />
<br />
[याद आती है मुझे पिताजी की उदारता और चर्मशिल्पी की कृतज्ञता ...]<br />
<br />
पटना की कंकड़बाग काॅलनी की एक व्यस्त सड़क पर बने 'मुक्त कुटीर' के मुख्य द्वार से बाहर निकलते ही दायीं तरफ बिजली के खम्भे के नीचे नियम से रोज़ आ बैठते थे एक बूढ़े बाबा, अपने थैले-झोले के साथ और दिन-भर करते रहते थे मरम्मत जूते-चप्पलों की। हमलोग तो उन्हें 'बाबा' ही कहते थे, लेकिन पिताजी जानते थे उनका नाम--'हरिनाथ'। उनका यह नाम भी पिताजी ने अपनी सुविधा के लिए स्वयं रख लिया था। कहते थे, 'इसी बहाने हरि-स्मरण भी हो जाता है। प्रभु श्रीहरि का अंश ही तो प्रत्येक प्राणी में है न!' बाबा का नाम कोई नहीं जानता था, लेकिन वह इसी नाम से चल निकले। मज़े की बात, 'हरि' संबोधन सुनकर बाबा भी प्रतिक्रिया देने लगे थे। कभी बाबूजी घर से बाहर निकलते और बिजली के खम्भे के पास पहुँचकर 'हरिजी' पुकारते तो बाबा झट मुखातिब होते और पिताजी से विनयपूर्वक कहते--'हँऽ बाबा, कहूँ न, की करिऐ?' (हाँ बाबा, कहिये न, क्या करूँ?)<br />
<br />
बाबूजी की जूती तला छोड़ देती या चट्टी के बेल्ट की कीलें निकल आतीं तो वह मुझे ही पुकारते और चट्टी, जूता या चप्पल देते हुए कहते--'ले जाओ इसे, हरिजी को दे दो। वह सुधार दें तो ले आना थोड़ी देर में। पूछते आना, कितने पैसे हुए।' 1980-90 के जमाने में पैसों में कोई काम होता कहाँ था, बात रुपयों तक आ पहुँची थी; लेकिन पिताजी की याद से पैसे मिटे नहीं कभी। कोई उनसे किसी काम के लिए रुपये माँगता तो बड़ी सरलता से पूछते--'कितने पैसे दूं?'<br />
<br />
कभी-कभी अपनी पीकदान पलटने के लिए पिताजी बाहर तक चले जाते तो हरिजी से उनकी कुशलता पूछते, दो मीठी बातें करके लौट आते, लेकिन उन्हें पुकारते 'हरिजी' ही। और, हरिजी उत्तर देने को प्रस्तुत हो जाते। एक दिन मैंने बाबा से पूछा--'जब आपका नाम हरिनाथ है ही नहीं तो बाबूजी की पुकार पर आप उत्तर क्यों देने लगते हैं?' हरिजी मुस्कुरा के बोले--'का कहते हैं मुन्ना बाबू! बाबा बड्ड अमदी हैं, जैसे पुकारें, उनकर आसिरबादे न है! हम भी मान लिये हैं कि हमरा नाँव हरिए है।' (क्या कहते हैं मुन्ना बाबू! बाबा बड़े व्यक्ति हैं, जैसे पुकारें, उनका आशीर्वाद ही न है। मैंने भी मान लिया है कि मेरा ना 'हरि' ही है।)<br />
<br />
कोई सामान बगल के बनिये की दुकान से लाना हो, सड़क पार की दवा-दुकान से कोई औषधि लानी हो, किसी को आवाज़ देनी हो या रिक्शावाले को रोकना हो, हरिजी हमेशा तैयार, सेवा को तत्पर!<br />
<br />
एक बार हरिजी बीमार पड़े। इलाज के लिए पैसे नहीं थे उनके पास। पिताजी को पता चला तो बाहर गये। देखा, शक्लो-सूरत से ही हरिजी ख़ासे बीमार लगे। उनसे पूछा हाल और सब जानकर बोले--' जब तबीयत इतनी खराब है तो यहाँ आकर धूप में क्यों बैठते हो? कुछ दिन घर पर रहकर आराम क्यों नहीं करते?'<br />
हरिजी विकल हो गये, आर्त्त स्वर में बोले--'घर बईठ के केना चलतई काम बाबा? खैबई की? कमवा तऽ करहीं पड़तई !' (घर बैठकर कैसे काम चलेगा बाबा? क्या खाऊँगा? काम तो करना ही पड़ेगा।)<br />
पिताजी चिंतातुर हुए और बोले--'ऐसे तो तबीयत और बिगड़ती जाएगी।'<br />
हरिजी कातर स्वर में बोले--'रामजी के रक्खे के होतई तऽ धीरे-धीरे ठीके कर देथिन बाबा!' (रामजी को रखना होगा तो धीरे-धीरे ठीक ही कर देंगे बाबा!)<br />
पिताजी ने पूछा--एक दिन के खाने का कितना खर्च है तुम्हारा?'<br />
हरिजी बोले--'30-40 रोपया तऽ खरचा होइए जा हई बाबा। एतना तऽ कमाहीं पड़ऽ हई।' (30-40 रुपये तो खर्च हो ही जाते हैं। इतना तो कमाना ही पड़ता है।)<br />
पिताजी कुछ नहीं बोले। सीधे अपने कमरे में लौट आये। मुझे रोककर उन्होंने पर्स से 350/ रुपये निकाल कर मुझे दिये और कहा--'जाओ, हरिजी को ये रुपये दे आओ और उनसे कह दो कि सात दिनों तक वह यहाँ दिखाई न दें मुझे।'<br />
<br />
मैं आदेशानुसार रुपये लेकर हरिजी पास पहुँचा। दोपहर का वक्त था। भोजनावकाश में घर गये दुकानदारों की दुकानें बंद थीं, एक दुकान के ओटे पर मेहराये हुए बैठे थे हरिजी! तीन सौ पचास रुपये उनकी ओर बढ़ाते हुए मैंने कहा--'लीजिये, बाबूजी ने भेजे हैं ये रुपये और कहा है कि सात दिन घर पर रहकर आराम कीजिये।'<br />
उस दीन-हीन बीमार वृद्ध का स्वाभिमान देखिये कि रुपये लेने से उन्होंने साफ इन्कार कर दिया। कातर होते हुए उन्होंने मुझसे कहा था--'बाबा काँहे एतना फिकिर करई छथिन, हम दु-चार दीन में अपने ठीक हो न जैबई मुन्ना बाबू ! रोपया ले लेबई तऽ लौटइबई केना?' (बाबा इतनी फ़िक्र क्यों करते हैं, मैं दो-चार दिनों में अपने-आप ठीक हो जाऊँगा मुन्ना बाबू! रुपये ले लूँगा तो लौटाऊँगा कैसे?)<br />
<br />
पिताजी के पास जाकर मैंने रुपये लौटाते हुए हरिजी का कथन दुहरा दिया। पिताजी को आश्चर्य नहीं हुआ। यह कहते हुए वह उठ खड़े हुए--'कमाल करता है, यह भला आदमी! दातव्य के रुपये भी मिलें तो पहले लौटाने की फिक्र करेगा।' पिताजी ने पाँव में चट्टी डाली और चल पड़े बाहर, पीछे-पीछे मैं चला। बिजली के खम्भे के पास पहुँचकर थोड़े उच्च स्वर में पिताजी ने आवाज़ लगायी--'हरिजी! ये क्या तमाशा है? आपने रुपये लौटा क्यों दिये?' हरिजी घबराकर उठ खड़े हुए। हाथ जोड़कर कहने लगे--'नैय बाबा, नैय! ई बात नईं। हम तऽ कहलिइऐ जे दु-तीन दीन मऽ अपने ठीक होइए जैबे।' (नहीं बाबा, नहीं! ये बात नहीं, मैंने तो बस यही कहा कि दो-तीन दिन में मैं खुद ही ठीक हो जाऊँगा।)<br />
<br />
पिताजी बोले--'नहीं, आप घर जाकर आराम कीजिये और स्वस्थ होकर काम पर आइये। आपके सात दिनों के खाने-खर्चे के लिए 350 रुपये मैंने भिजवाये थे। ये लीजिए और सात दिनों तक यहाँ आने की आपको कोई जरूरत नहीं है।'<br />
पिताजी के जोर देकर कहने पर भी हरिजी के हाथ रुपये लेने के लिए बढ़ नहीं रहे थे। पिताजी ने खीझकर कहा--'अब क्या है?' हरिजी की तो जैसे घिग्घी बँध गयी, रुक-रुक कर कठिनाई से बोले--'ले तऽ लेबै बाबा, लौटैबए कैना?' (ले तो लूँगा बाबा, लौटाऊँगा कैसे?)<br />
पिताजी ने हरिजी को डपटते हुए कहा--'मैंने कहा क्या कि इतने दिनों में रुपये लौटाने होंगे आपको? पैसे लीजिए और घर जाकर विश्राम कीजिए। ये रुपये लौटाने के लिए नहीं दे रहा हूँ। लीजिए।'<br />
<br />
पिताजी के आदेश के आगे हरिजी अवश हो गये। दोनों अंजुरी जोड़कर उन्होंने रुपये ले लिये। और, पूरी श्रद्धा-भक्ति से अपने जुड़े दोनों हाथों को उठाकर उन्होंने मस्तक से लगाया, लेकिन उनकी यह कृतार्थता देखने के लिए पिताजी वहाँ नहीं थे, वह रुपये देते ही पलटकर घर में जा चुके थे।<br />
<br />
उसके बाद सात नहीं, दस दिनों तक हरिजी दिखाई नहीं दिये। ग्यारहवें दिन वह प्रकट हुए। बिजली के खम्भे के नीचे बैग-झोला रखकर उन्होंने घर की काॅल बेल बजायी। मैंने द्वार खोला तो हरिजी ने कहा--'बाबा के दरसन भेंटैत?' (बाबा के दर्शन होंगे?) मैं उल्टे पाँव लौटा और बाबूजी के पास जाकर बोला--'हरिजी आये हैं, मिलना चाहते हैं।'<br />
पिताजी दरवाज़े तक गये, हरिजी को देखकर बोले--'अब कैसी तबीयत है?'<br />
हरिजी ने अतिशय विनम्रता से कहा--'अब एकदम ठीक भै गेलौं बाबा! पूरा जिनगी बीत गेल, कब्बो दस दीन आराम न केलौं! अपने के बड्ड किरपा... बाबा!' (अब एकदम ठीक हूँ बाबा! पूरी ज़िंदगी बीत गयी, कभी दस दिन आराम नहीं किया। आपकी बहुत कृपा...बाबा!)<br />
<br />
पिताजी के चेहरे पर संतोष की लकीरों को आसानी से पढ़ सकता था मैं। हल्की मुस्कराहट के साथ उन्होंने कहा--'हाँ, ठीक है। तबीयत ठीक है तो अब काम करो।'<br />
<br />
हरिजी आजीवन पिताजी की सेवा करते रहे और जूते-चप्पल की छोटी-बड़ी मरम्मत के लिए पैसे न लेने की ज़िद करते रहे, लेकिन शुरूआत में ही पिताजी की एकमात्र कठोर वर्जना के बाद यह सिलसिला थम गया।...<br />
<br />
1995 में पिताजी गुज़र गये। हरिजी बदस्तूर उसी बिजली के खम्भे के नीचे बैठते रहे--उदास। 2009 में पटना छोड़ जब मैं दिल्ली चला गया, तब तक उम्र की अशक्तता ने उन्हें बहुत कमज़ोर बना दिया था। लंबे अंतराल पर जब कभी मैं पटना जाता, उनका कुशल-क्षेम पूछना न भूलता और हरिजी पिताजी का स्मरण करते हुए उनके औदार्य का उल्लेख करना न भूलते...!<br />
<br />
एक बार की ऐसी ही पटना-यात्रा में हरिजी के स्थान पर एक युवक बैठे मिले। मैं चकराया। उस युवक से मैंने बाबा के बारे में पूछा तो उत्तर मिला--'बाबा तऽ चलि गेला।' (बाबा तो चले गये।) सुनकर बुरा लगा। और, कानों में गूँजने लगा हरिजी का वाक्य--'पूरा जिनगी बीत गेल, कब्बो दस दीन आराम न केलौं!...'<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhRyr_J-0hDyRJg9FF8YF6TWVn5mnLmUc2WxqXd8gExtZtfL4EknogcPbdGA4xMTnLlEDfjH5V_FDET2fipZ3B_Eza5KA4h0yPX0xy_J9eyBBDNXh0QaqXHwfdt7GXv7ulFLFsaS7w3bOs/s1600/20180120_130748.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1133" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhRyr_J-0hDyRJg9FF8YF6TWVn5mnLmUc2WxqXd8gExtZtfL4EknogcPbdGA4xMTnLlEDfjH5V_FDET2fipZ3B_Eza5KA4h0yPX0xy_J9eyBBDNXh0QaqXHwfdt7GXv7ulFLFsaS7w3bOs/s320/20180120_130748.jpg" width="226" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiZrmxrY7rCztK8LjN28BIBT8NBnE4YQyjEKGI2v97LJm2dkedaDqBkQbkOnqQUIipV8nM3KexHNaP5lhYpYa0n6Q93ImP08cKsrOwpoJM8HMFDTHyKTZ4R2zzm2hKo8FG12Mtblq_pBOg/s1600/shoemaker-indian-street-mumbay-january-51519703.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="954" data-original-width="1300" height="234" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiZrmxrY7rCztK8LjN28BIBT8NBnE4YQyjEKGI2v97LJm2dkedaDqBkQbkOnqQUIipV8nM3KexHNaP5lhYpYa0n6Q93ImP08cKsrOwpoJM8HMFDTHyKTZ4R2zzm2hKo8FG12Mtblq_pBOg/s320/shoemaker-indian-street-mumbay-january-51519703.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
रात्रि-शयन और एक घण्टे की दिवा निद्रा के अलावा मैंने पिताजी को भी कभी विश्राम करते नहीं देखा--आजीवन लिखते-पढ़ते और किताबों-पाण्डुलिपियों के अंबार में डूबे हुए ही मिले वह !... कहते भी थे--'परिश्रम करना जीवन-यात्रा का आध्यात्मिक नियम है...!'<br />
<br />
अब पिताजी और हरिजी दोनों आराम में हैं।... दोनों को नमन हमारा...! 🙏<br />
<br />
[--आनन्द. 27-1-2018]<br />
[चित्र : 1. 'मुक्त कुटीर' के आँगन में पिताजी, सुबह की चाय और अखबार के साथ 2. हरिजी (काल्पनिक चित्र), अपने अड्डे पर.]</div>
आनन्द वर्धन ओझाhttp://www.blogger.com/profile/03260601576303367885noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5773464208897631664.post-24954527502395882532018-01-25T16:44:00.000-08:002018-01-25T16:44:03.208-08:00मेरे बुद्धिजीवी झोले में दस दिनों का जीवन...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
[अंतिम क्षेपक]<br />
<br />
मेरे कंधे पर युवावस्था से रहा है बुद्धिजीवी झोला। पुणे में मेरे पास दो झोले थे--एक कहीं छूट गया, दूसरा बहुत पुराना और जर्जर हो गया। मैं झोले के बिना ही यात्रा पर निकल आया। अनुज हरिश्चंद्र दुबे के सुपुत्र अविजित ने विदा होते वक़्त खादी ग्रामोद्योग से मेरे पसंदीदा दो झोले मुझे खरिदवा दिये थे। ऐसे झोले पुणे में नहीं मिलते न!...भाई सुनील तिवारी के घर जब शाम होने को आयी, चाय पीने का मन था; लेकिन श्रेया विद्यार्थी बिटिया का फोन बार-बार आ रहा था--'कब आओगे मामा? यहीं आकर चाय पीना। बस, अब चले आओ।'<br />
<br />
यह इस प्रवास की अंतिम कनपुरिया शाम थी। दूसरे दिन हमें लखनऊ से पकड़नी थी पुणे की फ्लाइट। जब कानपुर की सड़कों पर दौड़ती कार में अपने नये खरीदे झोले के साथ चला तो याद आया--इन्हीं सड़कों को तीन वर्षों तक कितना धाँगा है मैंने साइकिल से। तब भी कंधे से लटकता था ऐसा ही झोला, लेकिन तब उसमें होता नहीं था पनडब्बा, सुपारी-सुरती की झन-झन बजती टिन की डिब्बियाँ और कविता की एक अदद डायरी; बल्कि उसमें होता था प्लेनचैट का बोर्ड, शीशे की छोटी गिलसिया--नर्म-मखमली कपड़े की तहों में लिपटी हुई और सिल्क की स्वच्छ धोती। सोचने लगा, कितना बदल गया है वक़्त और कितना बदल गया हूँ मैं। आईने के बिना अपनी ही शक्ल तो देखी नहीं जा सकती न! लेकिन, मन हुआ, देखूँ अपना चेहरा, पहचानूं, वही हूँ न, जो वहाँ जा रहा हूँ; जहाँ होती थीं मेरी स्नेहमयी दो-दो दीदियाँ! स्वदेशी-सेवा के ज़माने में जिनके पास प्रति सप्ताह शनिवार की शाम पहुँच जाता था मैं। दफ़्तर से छुट्टी पाते ही बुद्धिजीवी झोला कंधे से लटकाकर मैं मित्रवर ध्रुवेन्द्र के साथ चल पड़ता अपनी-अपनी साइकिलों से। आर्यनगर में ध्रुवेन्द्र ठहर जाते अपने बड़े पापा के घर, मैं वहाँ से आधा किलोमीटर आगे बढ़ जाता तिलक नगर तक, जहाँ हुतात्मा पूज्य गणेशशंकर विद्यार्थीजी की बड़ी-सी कोठी थी, विशालकाय परिसर में। जिसमें रहती थीं मेरी दोनों दीदियाँ--श्रीलेखा और मधुलेखा विद्यार्थी--गणेशशंकरजी की पौत्रियाँ!<br />
<br />
यह गणेशशंकर विद्यार्थीजी से चला आ रहा हमारी चौथी पीढ़ी का स्नेह-संबंध था। अपने जीवनकाल में गणेशशंकरजी जब-जब प्रयाग जाते, मेरे पितामह 'शारदा'-संपादक साहित्याचार्य पं.चन्द्रशेखर शास्त्री से मिलना न भूलते। पितामह के दारागंज स्थित आवास पर उनसे मिलकर और एक लंबी बैठक के बाद ही प्रयाग से लौटते। 'प्रताप' पत्र में गणेशशंकरजी ने पिताजी की कई कहानियां छापी थीं और पिताजी भी 'प्रताप'-कार्यालय में कई बार गणेशजी से मिले थे। वह युग तो बीत गया, लेकिन उसी संपर्क-सूत्र को मैंने अपने तीन वर्षों के प्रवास में थाम लिया था और दोनों बहनों का अनुगत भ्राता बना था।<br />
<br />
प्रति सप्ताह शनिवार की रात बिछ जाता था हमारा बोर्ड और शुरू होतीं हमारी परा-शक्तियों से लंबी-लंबी वार्ताएं! जिसमें रोना-गाना और यदा-कदा हँसना भी होता था। कई बार तो सुबह के वक़्त पक्षियों का कलरव सुनकर हम बोर्ड से उठते और शय्याशायी होते। रविवार विश्राम का दिन बन जाता।...फिर सोमवार की सुबह मैं वहीं से स्वदेशी के लिए निकलता, आर्यनगर से ध्रुव को लेता हुआ। यही क्रम अबाध चलता रहा...<br />
<br />
मन में स्मृतियों के कितने स्फुलिंग कौंध रहे थे उस शाम, जब पत्नी के साथ मैंने उसी परिसर में प्रवेश किया, जिसमें अपनी माताओं के साथ श्रेया को बित्ते-भर का देखा था कभी...! अब वह बड़ी और समझदार बेटी बन गयी है। हमारे पहुँचते ही उसने हमें चाय पिलायी, मुझसे और अपनी मामी से बातें कीं, फिर हमारे लिए बाटी-चोखा बनवाने में जुट गयी। मामीजी भी उसी के साथ हो लीं।...<br />
<br />
मैं उस भवन के हर कमरे में गया--बड़ी दीदी और मधु दीदी के शयन कक्ष में, श्रीदीदी के ऑफिस में, बैठक में--सर्वत्र। घर के गोशे-गोशे से मेरी अटूट संपृक्ति थी। मैंने और मधु दीदी ने मिलकर कभी पुराने गट्ठर खोले थे, प्राचीन काल के बक्से खोलकर गणेशशंकरजी के महत्वपूर्ण साहित्यिक अवदानों को सहेजा था। एक गहरा सन्नाटा पसरा था वहाँ! बड़ी दीदी के जिस दफ़्तर में हाली-मुहाली लगी रहती थी कभी, आज वहाँ अस्त-व्यस्तता और धूल का साम्राज्य था। विधि-न्याय की पुस्तकों का अंबार शेल्फ में उदास पड़ा था। मधु दी' की साहित्यिक पुस्तकें भी गुमसुम थीं--यह सब देखकर मन दुखी हो गया, अवसाद से भर आया, एक अव्यक्त बेचैनी मेरी संपूर्ण सत्ता पर छाने लगी और मैं बीच के डायनिंग हाॅल में एक सोफ़े पर ख़ामोश बैठ गया। सच है, जगत् का सारा कार्य-व्यापार व्यक्ति के होने से चलता है। जब वही नहीं होता तो लगता है, वक्त वहीं ठिठक-सहमकर रुक गया है। एक वर्ष के अंतराल पर दोनों दीदियाँ जगत्-मुक्त हुईं--पहले छोटी, फिर बड़ी दीदी! मैं उस शाम जहाँ, जिस सोफ़े पर बैठा था, उसके पीछे दोनों दीदियाँ मालाएं धारण किये शीशे के फ्रेम में कैद थीं, फिर भी मुस्कुरा रही थीं और मुझसे जी-भरकर रोया भी न जा रहा था। ऊपर दीवार पर उन दोनों के पूज्य पिता स्व. हरिशंकर विद्यार्थीजी का चित्र था। मैं इन सारी विभूतियों से नज़रें मिलाने से बचता पीठ दे बैठा रहा। जाने कब श्रीमतीजी कमरे में आयीं और उन्होंने पीछे से इसी भाव-भंगिमा की मेरी एक तस्वीर उतार ली।<br />
<br />
श्रेया की पुकार पर हम सबों ने मिल-बैठकर बाटी खायी, बातें कीं और जब लौटने को उद्यत हुए तो श्रेया खादी के दो बुद्धिजीवी झोले मुझे देते हुए बोली--'ये लो मामा! मैं ले आयी तुम्हारे लिए झोले!' मैंने कहा--'मैंने तो आज ही खरीद लिया है बेटा! इस सर्दी में तुमने नाहक दौड़ लगायी।'... लेकिन उसने मेरी एक न सुनी और दोनों झोलों के साथ ही मुझे विदा किया। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे दोनों दीदियों ने एक-एक झोला मुझे श्रेया के हाथों दिलवाया है।... अब बुद्धि चाहे जितनी हो मेरे पास, झोले बहुत हो गये थे--चार-चार।...<br />
<br />
31 दिसम्बर की रात कठिनाई से बीती। पुरानी स्मृतियाँ चैन से सोने न देती थीं। दूसरे दिन सुबह ही हम कानपुर से विदा हुए और एक अभिन्न बाल-सखा का अनुसंधान करते हुए लखनऊ से पुणे की हवाई यात्रा पर चल पड़े। 1 जनवरी की मध्य रात्रि में हम पुणे पहुँच गये।...<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiw5_qb0F3eQao0N4VrnvdI3tPd0wqOvcNK0pOYvpFbPXSHhSA7aJ45ttJmb-YVH9uQTmSIDakh9O1p3MCjYfGeHiuALPsuiZh2pkhyphenhyphenHQzsYUdTtQL4Gi-q0sun-Pv6tYAH61a0vv0EUWc/s1600/20180109_221310.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="484" data-original-width="257" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiw5_qb0F3eQao0N4VrnvdI3tPd0wqOvcNK0pOYvpFbPXSHhSA7aJ45ttJmb-YVH9uQTmSIDakh9O1p3MCjYfGeHiuALPsuiZh2pkhyphenhyphenHQzsYUdTtQL4Gi-q0sun-Pv6tYAH61a0vv0EUWc/s320/20180109_221310.jpg" width="169" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiW9fjAgmkw8yelOeXhAtoFwVFedHNzg8EFbqyETzNfFAFa1xRKm9gwiy51SSBcFtmxcSNfhC7QD6haD96pziQ0Tgr9j-YdCPBHZB3VJ0nW3760avQoHp0xDR-yr3LmZioDAOmsQSnitlc/s1600/IMG-20180102-WA0044.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1032" data-original-width="774" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiW9fjAgmkw8yelOeXhAtoFwVFedHNzg8EFbqyETzNfFAFa1xRKm9gwiy51SSBcFtmxcSNfhC7QD6haD96pziQ0Tgr9j-YdCPBHZB3VJ0nW3760avQoHp0xDR-yr3LmZioDAOmsQSnitlc/s320/IMG-20180102-WA0044.jpg" width="240" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiwuVFiSR7kVT-NiEH8rYQzYGSQxFP3hKnEd8Oh8593g-xtL7B1iaLa6sNVmMGCNJ9RJGaAkduN-JydwEQWKkLuGqrjd6P6zl4GgQPrPZlcmuv4X46iNGnGUkIH9fFEQlfwerfnXSBWhQE/s1600/IMG-20180102-WA0027.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1032" data-original-width="774" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiwuVFiSR7kVT-NiEH8rYQzYGSQxFP3hKnEd8Oh8593g-xtL7B1iaLa6sNVmMGCNJ9RJGaAkduN-JydwEQWKkLuGqrjd6P6zl4GgQPrPZlcmuv4X46iNGnGUkIH9fFEQlfwerfnXSBWhQE/s320/IMG-20180102-WA0027.jpg" width="240" /></a></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj4IIGyGc2IPhj13C8WtF7rHltfkYuBY_ypFRfOahCBRYvvjeOZ8cxqS8lYCehANshENOR43rt6A8fgqX7YesxmmJokzgNel5w0-60AiF5rMQEFDP4i6ZvFHir9pEz48EuZzwzvKeTyT2c/s1600/IMG-20180104-WA0003.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1032" data-original-width="774" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj4IIGyGc2IPhj13C8WtF7rHltfkYuBY_ypFRfOahCBRYvvjeOZ8cxqS8lYCehANshENOR43rt6A8fgqX7YesxmmJokzgNel5w0-60AiF5rMQEFDP4i6ZvFHir9pEz48EuZzwzvKeTyT2c/s320/IMG-20180104-WA0003.jpg" width="240" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg9DWVKbUnDMfK3rJq982xqhNeR_wQgpVeOoDN8taZBVOpdcA5f8lCrAka8YgN3xEXhLToUhHHEHLxcP8X-qscQAcwAzvM8qNwDD5mjASRdk9_Oy_4Av0a9dvaJRSMANRgaWgNKOXzLHUY/s1600/20180109_221456.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="659" data-original-width="520" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg9DWVKbUnDMfK3rJq982xqhNeR_wQgpVeOoDN8taZBVOpdcA5f8lCrAka8YgN3xEXhLToUhHHEHLxcP8X-qscQAcwAzvM8qNwDD5mjASRdk9_Oy_4Av0a9dvaJRSMANRgaWgNKOXzLHUY/s320/20180109_221456.jpg" width="252" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhRnPwG4sBzDOhS-QzmFIun0VytFzrUdolXYBaLzxXUiWsI1owtyqYJUNwT4mfTLegp_NDjZi6uTfVencnVm5fJo5S2sq3sWF92oZwQxSN8MgUKEYGTCDZPXH83YhdNC6nBv-eBbBtTJTc/s1600/IMG-20180104-WA0004.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="774" data-original-width="774" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhRnPwG4sBzDOhS-QzmFIun0VytFzrUdolXYBaLzxXUiWsI1owtyqYJUNwT4mfTLegp_NDjZi6uTfVencnVm5fJo5S2sq3sWF92oZwQxSN8MgUKEYGTCDZPXH83YhdNC6nBv-eBbBtTJTc/s320/IMG-20180104-WA0004.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjIBXj2xs8ecNSo4Jfo1HhpYXfMvj4ygWtPYXma6CeimAddrlZNjuc7z1qrd1q3rDlAR4VPwkV4Jw-PqkGFxHqxaClDcHPsXvpEIVHI_r6XgfV-B0IOWAGG_HtCqs8lRAiMO9YRTdfLqE0/s1600/IMG-20180102-WA0037.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="774" data-original-width="1032" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjIBXj2xs8ecNSo4Jfo1HhpYXfMvj4ygWtPYXma6CeimAddrlZNjuc7z1qrd1q3rDlAR4VPwkV4Jw-PqkGFxHqxaClDcHPsXvpEIVHI_r6XgfV-B0IOWAGG_HtCqs8lRAiMO9YRTdfLqE0/s320/IMG-20180102-WA0037.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
अब तो यात्रान्त हुए दस दिन बीत गये हैं, लेकिन मन उन्हीं दस दिनों की सुधियों में खोया हुआ है। इस संक्षिप्त यात्रा में मैंने दुनिया की भीड़ में गुम हुए भाई को खोज निकाला, दीर्घकाल से बिछड़े मित्रों और आत्मीय अनुज से मिला--समझिये, परमानंद हुआ! इसे मैं वर्ष 2017 की उपलब्धि मानता हूँ और इसका सारा श्रेय अपनी गृहलक्ष्मी को देता हूँ; क्योंकि उन्होंने ही नौ वर्षों के मेरे एकरस जीवन को देखकर इस कार्यक्रम की सहर्ष स्वीकृति दी थी मुझे।... जैसे किसी चलचित्र में पिता ने पुत्री से कहा था न--'जा सिमरन, जा, जी ले अपनी ज़िंदगी!'... यह सुनकर सिमरन बेतहाशा दौड़ चली थी और भागती ट्रेन में चढ़कर अपने प्रेमी की बाँहों में झूल गयी थी।... मैं भी श्रीमतीजी की स्वीकृति पाकर दौड़ चला, लेकिन सिमरन की तरह मैं अकेला नहीं था, मेरे साथ तो मेरी जीवन-संगिनी थीं ही; लिहाज़ा मैंने मित्रों को अपनी बाहों में बाँध लिया।... पिता का आदेश पाते ही कलानेत्री 'सिमरन' तो जीवन-भर के लिए भाग चली थी, लेकिन मुझे सिर्फ दस दिनों का जीवन जीने की मुहलत मिली थी।...<br />
(--आनन्द. 31-12-2017.)<br />
<br />
[चित्र : 1) श्रेया विद्यार्थी 2) उद्विग्न-मन--मैं 3) बड़ी दीदी के वीरान दफ़्तर में 4) मैं, जब दोनों दीदियों की ओर देखने की हिम्मत न रही 5) मैं और साधनाजी, जब प्रस्थान के लिए उठ खड़े हुए 6) बुद्धिजीवी झोलों के साथ वापसी के गलियारे में 7) कोठी के द्वार पर...।</div>
आनन्द वर्धन ओझाhttp://www.blogger.com/profile/03260601576303367885noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5773464208897631664.post-54953586606181065932018-01-22T20:18:00.000-08:002018-01-22T20:18:17.723-08:00भ्रमण-कथा के अंतिम चरण में 'हरि'-कथा...!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
[भ्रमण-कथा]<br />
<br />
मेरी उत्तर प्रदेश की भ्रमण-कथा में एक महत्वपूर्ण क्षेपक रह गया...! 'रह गया' का तात्पर्य यह नहीं कि वह छूट गया, बल्कि जान-बूझकर रोक रखा गया, ताकि कानपुर-प्रवास के उन क्षेपक प्रसंगों को ही मैं समापन-कथा बना सकूँ। कानपुर का प्रवास चार दिनों का था, गणना के हिसाब से सबसे अधिक दिनों का। पटना के सहपाठी मित्र मित्र विनोद कपूर के घर दो दिन, अभिन्न बंधु ध्रुवेन्द्र प्रताप शाही के घर दो दिन और शेष चार दिन कानपुर के साढ़ूभाई सुनील तिवारी के घर। इस प्रवास के आठ दिन और दो दिन यात्रा में व्यतीत होने के--कुल मिलाकर दस दिन! साधनाजी का शीतकालीन अवकाश बस इतना ही तो था। उन्हें हर हाल में 2 जनवरी तक पुणे पहुँच जाना था। 3 जनवरी से उन्हें लगानी थी विद्यालय की दौड़। यात्रा-पथ बदल जाने से एक दिन का हमें अतिरिक्त लाभ मिला। जानता हूँ, इस रोजनामचे में आपकी रुचि भला क्या होगी, लिहाजा सीधे मूल कथ्य पर आता हूँ।<br />
<br />
29 दिसम्बर को जब मैं बंधुवर ईश्वर से मिल आया तो मुझे उनके अनुज हरि की याद आयी। उनसे मिले हुए भी बहुत लंबा अरसा हो गया था। हरि की याद के साथ याद आये पुराने दिन--1976-77 के। स्वदेशी कॉटन मिल्स के दिन! कानपुर में स्थापित हो जाने के पाँच-एक महीने बाद ही ईश्वर अपने अनुगत अनुज हरि को गाँव से अपने साथ ले आये थे। तब तक ईश्वर-ध्रुवेन्द्र और मैं गम्भीर मैत्री-सूत्र में बँध चुके थे, हम साथ-साथ रहते, खाते-पीते, मौज-मस्ती करते। ऊपर कोई नाथ नहीं थे, किसी के हाथ में हमारा पगहा भी नहीं था, हम छुट्टे युवा थे और मनमौजी भी। हवा की तरंगों पर तरंगित होते रहते थे हम तीनों! मेरे परा-विलास के कौतुकों में ईश्वर बहुत रुचि लेते और ध्रुवेन्द्र मेरे इस कृत्य के कठोर आलोचक थे। ईश्वर के सहयोग से मेरी शक्ति बढ़ गयी थी। हम दिन-भर तो साथ रहते ही, कई-कई रातें भी परा-विलास-रत साथ बिताते।<br />
<br />
ईश्वर के अनुज हरिश्चंद्र के आ जाने से इस साथ-संग और एकांत साधना में व्यवधान पड़ा। शाम होते ही ईश्वर कहने लगते--'अब मैं जाता हूँ, हरि अकेला है डेरे पर।' और, वह चले जाते, लेकिन परा-विलास का सुख ऐसा तीखा नशा है, जिसके सिर चढ़ जाय, आसानी से उतरता नहीं। शीघ्र ही ईश्वर के आमंत्रण पर हमारा नैश-सम्मेलन ईश्वरचंद्र दुबे के घर होने लगा।<br />
<br />
हम वहीं ईश्वर के छोटे भाई हरिश्चंद्र दुबे से मिलने लगे।<br />
वह बहुत ज़हीन, शिष्ट-शालीन, सभ्य-सुसंस्कृत और अनुगत किशोर थे। विनम्रता उनकी उत्कृष्ट विशेषता थी, बड़े-बुजुर्गों के सम्मुख नत रहना उनकी जन्मना वृत्ति थी, आज्ञाकारिता उनका आभूषण थी और सोने पर सुहागा यह कि अनूठा साहित्यानुराग उनके अंतर्मन में पलता था।<br />
<br />
रात्रि-सम्मेलन में और परा-शक्तियों को आमंत्रित करने के सुकृत में हरि विस्मयाविभूत, कौतुहल-जड़ बालक की तरह बैठे पलकें झपकाते रहते, किंचित् अविश्वास के साथ। ईश्वर के अनुरोध पर एक रात मैंने उनकी दिवंगता बड़ी माँ का आवाहन किया। वह आयीं और जिन बातों का उन्होंने स्वयं उल्लेख किया, उससे हरि बहुत प्रभावित हुए; क्योंकि उनकी बतायी सारी बातें पूर्णतः सत्य थीं। ईश्वर और हरि--दोनों भाई चकित रह गये थे।...<br />
<br />
रात्रिकालीन भोजन और हमारी समस्त सुविधाओं का ख़याल हरि रखते। वह गाँव से लाये गये पाकशास्त्री सेवक को निर्देश देते, व्यस्त रहते। उनकी जिज्ञासाओं का अंत नहीं था। वह मुझसे प्रश्न पूछते जाते और मैं उनकी जिज्ञासा शांत करने की चेष्टा करता रहता। अंततः हरि के 'ध्रुव भैया' चिढ़ जाते और तुनककर कहते--'अब यहाँ खाली भूते-प्रेत बतिआओगे का तुमलोग?' और, यह कहकर ध्रुवेन्द्र बाहर निकल जाते कुहराकशी (धूमपान) के लिए। यह देख हरि संकुचित हो जाते। वह हम तीनों भाइयों में से किसी की नाराज़गी मोल नहीं ले सकते थे। मैं उनसे कहता--'फिक्र मत करो, बीड़ी फूंककर अभी लौट आयेगा नामाकूल!'... ईश्वर सब सुनते और शांत रहते, अपनी मंद-मंद मुस्कान के साथ। उमंग-भरे अजब नशीले दिन थे वे भी, कभी न भुलाये जानेवाले।...<br />
<br />
अपने दो-दो ऐंठे हुए अभिन्न (एक तो राजा ठाकुर ध्रुवेन्द्र और दूसरे खड़ी मूंछों और चढ़ी आँखोंवाले जमींदार ईश्वर), किंतु असाहित्यिक मित्रों के बीच हरि का आगमन मुझे तप्त भूमि में शीतल बयार-सा लगा; क्योंकि वह छोटी-छोटी पर्चियों पर मोती-जैसे अक्षरों में कविताएं लिख लाते और मुझसे ससंकोच कहते--'ओझा भइया, जरा देख लीजिएगा इसे?' मैं उनकी छोटी-बड़ी कविताएँ देखता और चकित होता। हरि भी तो उसी बड़े जमींदार परिवार के कुल-दीपक हैं, उनमें इतनी साहित्यिक समझ और साहित्यानुराग कैसे भला?... सच्ची बात तो यह है कि गहरा अनुराग प्रगति की पहली शर्त होता है। यह अनुराग हरि में प्रचुर मात्रा में था। सच्चे अर्थों में वह मेरे भी अनुज बन गये। अब कानपुर में हरि के एक नहीं, तीन-तीन अग्रज थे। वह हम सबका बड़ा ख़याल रखते, आदर देते और हम उन्हें अपनी आन्तरिक प्रीति देते। कानपुर-प्रवास में हमारे बीच हरि की उपस्थिति मुझे अपने छोटे भाई यशोवर्धन ओझा की और ध्रुवेन्द्र को राकेश प्रताप शाही की कमी का अहसास न होने देती। वह हमारे इतने अपने हो गये थे, इतने अंतरंग अनुज! दफ़्तर का व्यवधान न होता तो हम सभी दिन-रात साथ होते।...<br />
<br />
सन् 1977 में जब अचानक मुझे स्थानान्तरण का आदेश मिला तो इस सूचना से मित्रों के अलावा जो सबसे ज्यादा संतप्त हुए, वह अनुज हरि ही थे। मुझे याद है, कानपुर स्टेशन पर मुझे विदा करने वह भी आये थे और ठीक विदा के वक्त रुआँसे हो गये थे। वह यात्रा मुझे उनसे दूर ले गयी थी, लेकिन वह मेरे मन से कभी दूर नहीं हुए। यही कारण है कि जब 1978 में मेरा विवाह हुआ तो वधू-स्वागत के अवसर पर ईश्वर ने उन्हें ध्रुवेन्द्र भाई के साथ दिल्ली भेजा था। स्वागत-समारोह में सम्मिलित होकर और दिल्ली के बड़े-बड़े साहित्यकारों के दर्शन कर हरि खिल उठे थे--अतिशय प्रसन्न!<br />
<br />
कालान्तर में मुझ अकिंचन को ईश्वर-हरि के पूज्य माता-पिता की सहज प्रीति भी मिली थी। मैं उनका स्नेहभाजन बना था, जबकि दिल्ली-वासी बन जाने के कारण उनसे मेरी मुलाक़ातें न्यूनतम थीं। स्वास्थ्य कारणों से बाद में वे दोनों कानपुर आ गये थे और हरि के पास ही रहने लगे थे। वहाँ भी उनके दर्शन का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ था। हरि कानपुर में ही जे.के. सिन्थेटिक्स जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में नौकरी से लग गये थे। हरि के पिता बड़े प्रज्ञावान नैष्ठिक ब्राह्मण थे और माता अत्यन्त विदुषी महिला थीं। हरि के पिताजी का अपने क्षेत्र में बड़ा मान-सम्मान और प्रभाव था। लेकिन दैव-दुर्विपाकवश सन् 1996 में मस्तिष्क के आघात के कारण वह जीवन-जगत् से मुक्त हो गये। हरि की पूजनीया माताजी ने दीर्घ जीवन पाया था और अंतिम वर्षों में दीर्घायुष्य की यातनाएं सही थीं।...<br />
<br />
सन् 1979 के अंत में मैंने दिल्ली छोड़ी और कई शहरों की खाक छानता हुआ अंततः पटना पहुँच गया। वहाँ पहुँचकर जीवन स्थिर हो गया था--पारिवारिक जिम्मेदारियों में उलझा हुआ। ऐसे में मित्रों-आत्मीयों के लिए अवकाश ही कहाँ था? बरसों-बरस के दिन अपनी उलझी सुलझाने में ही बीत गए।... लेकिन मैं जहाँ भी रहा, हरि का पोस्टकार्ड या अंतर्देशीय पत्र मुझ तक पहुँचता रहा, जबतक पत्रों के आवागमन का जीवन शेष रहा। इसी बीच सन् 1994 में कानपुर से संबंधों के नये तार जुड़े। हर्षनगर-निवासी सुनील तिवारी मेरे साढ़ूभाई बने। साल-दो साल पर उनके पास आना-जाना होने लगा। इसी क्रम में 2007 की गर्मियों में जब मैं कानपुर में था, मुझे हरि की याद आयी तो मैंने उन्हें फ़ोन किया। मेरा स्वर सुनकर आनन्दातिरेक में वह बोले--'मैं आपसे मिलने अभी आता हूँ भइया!' और, दफ़्तर छोड़कर आधे घण्टे में आ पहुँचे हरि! वर्षों बाद मिले थे वह--हुलसित और उत्फुल्ल! हमारी लंबी वार्ताएं हुईं। हमने आपस में दुःख-सुख बाँटे। हरि प्रगति की सीढियां चढ़ते उच्च पद पर आ पहुँचे थे और एक पुत्र और एक पुत्री के पिता बनकर संतुष्ट-प्रसन्न और व्यवस्थित हो चुके थे तथा कमला नगर में कंपनी की काॅलोनी में रहने लगे थे।<br />
हरि ने बताया कि "अम्मा कष्ट में हैं। कूल्हे के दो-दो फ्रैक्चर की पीड़ा झेल चुकी हैं, वाॅकर के सहारे चल पाती हैं और आपको याद करती हैं। पूछा करती हैं--'ओझा बहुत दिनों से कानपुर नहीं आया, हमें तो भूल ही गया शायद।"... हरि से यह सुनकर मैं सिहर उठा। जिन श्रद्धेया के जीवन के परिदृश्य से मैं वर्षों पहले हट गया था, उनकी स्मृतियों के किसी एकांत में मैं आज भी रहता हूँ? आश्चर्य! लेकिन आश्चर्य भी कैसा? उस युग के लोग ऐसे ही स्नेही थे। अम्मा भी वैसी ही थीं--स्नेह लुटानेवाली। मैंने वस्त्र बदले और उनके दर्शन के लिए हरि के साथ तत्काल चल पड़ा।<br />
कई बरस बाद अम्मा के दर्शन कर मन दुखी हो गया। वह वाॅकर से चलते हुए सम्मुख आयीं। अत्यन्त कृश हो गयी थीं। वह बैठ गयीं तो मैंने चरण छुये और बातें शुरू कीं। मेरा ख़याल है, वह अस्सी वर्षों से अधिक का दुःख-सुख देख आयी थीं। रुग्ण थीं, वार्धक्य की अशक्तता ने शरीर तोड़ दिया था, लेकिन अदम्य जिजीविषा थी उनमें, वाणी की टंकार वही थी पहलेवाली। उन्होंने मुझे उलाहने दिये, मेरा हाल पूछा, पुरानी यादें ताज़ा कीं और इतना स्नेह दिया कि मैं आकंठ भर पाया। दो घण्टे बाद उनका आशीर्वाद लेकर जब मैं हरि के घर से लौटा तो मन-प्राण भीगा-भीगा था। उनसे हुई वही मुलाक़ात अंतिम सिद्ध हुई। तीन वर्ष बाद रीढ़ की हड्डी में एक और सांघातिक आघात लेकर वह भी दुनिया से चली गयीं और हमारी स्मृतियों का हिस्सा बन गयीं।...<br />
<br />
वक़्त का एक लंबा टुकड़ा फिर हाथों से फिसल गया।... तात्कालिक कानपुर-प्रवास में, जब अंतिम और एक अतिरिक्त दिन का लाभ मुझे मिला तो अभिन्न अनुज हरि से मिलकर लौटना ही सुनिश्चित हुआ। लखनऊ में ध्रुवेन्द्र ने ताकीद भी की थी कि 'हरि से जरूर मिल लेना, वह तुम्हें बहुत याद करता है।' मैंने हरि से फोन पर संपर्क किया तो वह बज़िद हो गये कि दिन का भोजन आप मेरे घर, मेरे साथ ही करेंगे। मैंने इस झंझट से मुक्ति चाही, क्योंकि पुणे के पथरीले पानी ने पाचन-तंत्र ध्वस्त कर रखा था। लखनऊ में गोमती के और कानपुर में गंगा के मीठे-शीतल और तृप्तिकर जल से पाचन-तंत्र की क्लीनिंग का कार्य प्रगति पर था। पिछले सप्ताह में पच्छिम का सुस्वादु भोजन भी हमने कम तो नहीं किया था न! लेकिन हरि किसी तरह मानने को तैयार नहीं थे। मुझे हामी भरनी पड़ी।<br />
<br />
इस वार्ता के दूसरे दिन मैं साधनाजी के साथ हरि के घर गया, जो सुनील भाई के घर से नातिदूर था। हम हरि के घर के छोटे-से आँगन में, धूप में, बैठे। वहाँ सबकुछ था--भरा-पूरा घर, मधुर-मनोहर स्मृतियों का सैलाब, बड़े हो गये दोनों बच्चे--मुकुल-मनु, सुघड़-सुदर्शना हरि की पत्नी सुशीला, मीठे रस-भरे स्वस्थ रसगुल्ले, चाय-काॅफ़ी और भोजन की तमाम व्यवस्था, लेकिन नहीं थीं तो अम्माजी। वह माला धारण कर एक कमरे की दीवार पर ईश्वर-हरि के पिताजी की अनुगामिनी बनी विराज रही थीं। उन दोनों की तस्वीर देखकर मन द्रवित हुआ।...<br />
<br />
जाड़े की नर्म धूप में बैठकर हमारी बातें शुरू हुईं तो उनका अंत नहीं था कहीं। कितना कुछ एकत्रित हो गया था हमारे पास साझा करने को...! मुझे यह देखकर बहुत प्रसन्नता हुई कि हरि ने अपने दोनों बच्चों को अच्छे संस्कार दिए हैं, उन्हें अपनी ही तरह विनयी, शालीन और सुयोग्य बनाया है। ज्येष्ठ सुपुत्र मुकुल (अविजित दुबे) शांत, गम्भीर, सुशील और विनयी युवक हैं और उत्तर प्रदेश क्रिकेट संघ के दफ़्तर में आयोजक-संयोजक का दायित्व सँभाल रहे हैं तथा सुपुत्री मनु (प्रत्यांशा) अध्यनशील मेधावी कन्या है और अत्यन्त मधुर गायन की योग्यता रखती है। उसने अपने गाये एक-दो गीतों की वीडियो क्लिप मोबाइल फोन पर दिखा-सुनाकर हमें चकित-प्रसन्न कर दिया था।<br />
<br />
बहू सुशीला ने मनुहार करके मुझे अल्प भोजन करने को विवश कर दिया, जबकि कल की यात्रा के लिए मैं उग्र उदर को आराम देना चाहता था। भोजनोपरान्त पिताजी को संबोधित अपनी एक कविता मैंने हरि को सुनायी तो उन्होंने भी अपनी एक कविता मुझे सुनायी, जिसे उन्होंने मेरे लिए तब लिखा था, जब 2007 में मैं अम्मा से मिलने उनके घर गया था। कविता में उनके दिल की धड़कनें साफ सुनाई देती हैं। वह कविता क्या है, हरि के उदात्त मनोभावों की पराकाष्ठा है मेरे प्रति। उनकी कविता ( उन्हीं की हस्तलिपि में पूरी कविता की फोटो क्लिप संलग्न है) की अंतिम चार पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहूंगा--<br />
'यह पूर्वजन्म का रिश्ता अपना<br />
अमर रहेगा जनम-जनम,<br />
इस जीवन में हम यहाँ मिले,<br />
उस जीवन में हो कहाँ मिलन?'<br />
<br />
जब आँगन से धूप निकल भागी, तब हम ड्राइंग रूम में जा बैठे। थोड़ी अंतरंग चर्चाओं के बाद हम सभी प्रस्थान की भाव-भंगिमा के साथ उठ खड़े हुए। घर के अहाते में हम सब एकत्रित हुए और हमने सम्मिलित तस्वीरें उतरवायीं और विदा हुए।<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmC6-PDCNzfSXYhvt91mhyphenhyphenaaLjQ_GdIO2Hvzp96oW2t90s66JsHxJ7i-omovzMXEDSCyr0y78FdQhyphenhyphenqj1q6BZWlWMWzzzDHDw4Vv63P7ZpncZNe1F0ip8cQKTlKKmMTaMsXDOYtE0T8d4/s1600/IMG-20180106-WA0007.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="960" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmC6-PDCNzfSXYhvt91mhyphenhyphenaaLjQ_GdIO2Hvzp96oW2t90s66JsHxJ7i-omovzMXEDSCyr0y78FdQhyphenhyphenqj1q6BZWlWMWzzzDHDw4Vv63P7ZpncZNe1F0ip8cQKTlKKmMTaMsXDOYtE0T8d4/s320/IMG-20180106-WA0007.jpg" width="240" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhncYJxcp0j0b3S81a0g4zlR3Yl-Hyl02SxuSGiGgoj9w3UFyRArmZqr05JOSCpXMTOEy9X-zWuVUH-p2HmjFmuWYY5Ws8SFzrQ6I_aS_IMV9CufIVoFliZabYTsZEHjvMgrd__F2Y6lWU/s1600/IMG-20180106-WA0006.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="960" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhncYJxcp0j0b3S81a0g4zlR3Yl-Hyl02SxuSGiGgoj9w3UFyRArmZqr05JOSCpXMTOEy9X-zWuVUH-p2HmjFmuWYY5Ws8SFzrQ6I_aS_IMV9CufIVoFliZabYTsZEHjvMgrd__F2Y6lWU/s320/IMG-20180106-WA0006.jpg" width="240" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi2hFBgQFRlEbNpmYEuC6ajstsTrCL1FpObYbYJcveZRAxjqqMDkEvNtEpzXl3IPG-9idmewPZQ-TAW89IELP4nBmrDF8V59rXkWRRoFb1EhWDKH12eyG_YzRsFefIoFjbtBRP9eeU_Lyw/s1600/IMG-20180103-WA0007.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1032" data-original-width="774" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi2hFBgQFRlEbNpmYEuC6ajstsTrCL1FpObYbYJcveZRAxjqqMDkEvNtEpzXl3IPG-9idmewPZQ-TAW89IELP4nBmrDF8V59rXkWRRoFb1EhWDKH12eyG_YzRsFefIoFjbtBRP9eeU_Lyw/s320/IMG-20180103-WA0007.jpg" width="240" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEimry5qOfQ6bFTfd4oTWqBHBriPzkCp3iGJeFM_Bgx3S7TGgNBjcbo3EjLl5JBi7pQG5VFRa0j7A0X3TSnAB-MYIXVzla3FZRkx3ylH_xlaG384X6zzFQv1b2fUJgNFRJqgrUTIKQlC0bY/s1600/IMG-20180103-WA0010.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="774" data-original-width="1032" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEimry5qOfQ6bFTfd4oTWqBHBriPzkCp3iGJeFM_Bgx3S7TGgNBjcbo3EjLl5JBi7pQG5VFRa0j7A0X3TSnAB-MYIXVzla3FZRkx3ylH_xlaG384X6zzFQv1b2fUJgNFRJqgrUTIKQlC0bY/s320/IMG-20180103-WA0010.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhr9N0BD_LBKDsqLehHZ0ZCdNgq_K5dFcjmmhxQcyC6ZVW0bq4ZnFIf9s0Q7kgEVJ40WHMSl1m9A8SqUveJjUyY5DHuoy2sy-ymJmJ_MSWIS2cpYuhGM0wxj-1rfbQJTGL7cJFp3Ql00U8/s1600/20180108_071850.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="920" data-original-width="763" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhr9N0BD_LBKDsqLehHZ0ZCdNgq_K5dFcjmmhxQcyC6ZVW0bq4ZnFIf9s0Q7kgEVJ40WHMSl1m9A8SqUveJjUyY5DHuoy2sy-ymJmJ_MSWIS2cpYuhGM0wxj-1rfbQJTGL7cJFp3Ql00U8/s320/20180108_071850.jpg" width="265" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhoNZ2naAi-5kDyvqcY16ezR8ThXJ2V3c7LbBc5GBmjt0rqR99iGc6HyF0ZG3VjcJcXrQvwJOaES8b2ywhLD1omtER1-Wh5rrEHbJYOAd0kvzh9E8cam5o8VZwXKRgywjvsXz3tp-VXtXY/s1600/IMG-20180102-WA0010.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="774" data-original-width="1032" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhoNZ2naAi-5kDyvqcY16ezR8ThXJ2V3c7LbBc5GBmjt0rqR99iGc6HyF0ZG3VjcJcXrQvwJOaES8b2ywhLD1omtER1-Wh5rrEHbJYOAd0kvzh9E8cam5o8VZwXKRgywjvsXz3tp-VXtXY/s320/IMG-20180102-WA0010.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
मनुष्य की संरचना में जो गुण-तत्व प्रारंभिक काल में समाहित होते जाते हैं और लंबे समय तक स्थिर भाव में रहते हैं, वे ही उसकी वृत्ति का हिस्सा बन जाते हैं, वे संस्कार का आधार होते हैं। लौटती सड़कें नापते हुए मन के आकाश में भावनाओं का विचित्र आलोड़न था। हरि ने जीवन में बहुत संघर्ष किया, बुजुर्गों की सेवा की, कष्ट सहे, लेकिन कभी धर्म, कर्तव्य और दायित्व से विमुख नहीं हुए, विचलित नहीं हुए। चालीस वर्षों के दीर्घकालिक प्रसार में हरि जितनी आत्मीयता से मेरे अंतरंग अनुज बने रहे हैं, अभिन्न और पूर्णतः समर्पित भ्रातृ-भाव से मेरे अनुगत रहे हैं, वह ऐसे ही बने रहेंगे--इसका पूरा विश्वास है मुझे। मेरे 65 वर्षों के जीवन में हरि-जैसे सुपात्र की द्वितीयता नहीं है और जानता हूँ, अब होगी भी नहीं।...<br />
(--आनन्द. 5-1-2018.)<br />
<br />
[चित्र : 1) ईश्वर-हरि के पूज्य पिताजी, 2) पूजनीया अम्माजी, 3) अनुज हरि और मैं, 4) हरि सपरिवार और मैं,<br />
5) वर के वेश में बंधु ध्रुवेन्द्र, 5) साढ़ूभाई सुनील तिवारी के साथ]</div>
आनन्द वर्धन ओझाhttp://www.blogger.com/profile/03260601576303367885noreply@blogger.com2