रविवार, 22 जून 2014

मेरे पिता : साहित्याचार्य पं० चंद्रशेखर शास्त्री -- प्रफुल्लचंद्र ओझा 'मुक्त'

[दो]

मैं नहीं जानता कि मैंने कभी ह्रदय की गंभीरतम अनुभूति को इतनी सच्चाई के साथ कागज़ के पन्नों पर रखा होगा, जितनी सच्चाई के साथ ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ मैंने अपने पिता को केवल पिता के ही रूप में नहीं देखा, बल्कि सदा एक महान आत्मा के रूप में भी देखता और उनकी पूजा करता रहा मैं जानता हूँ, मैं इस योग्य भी नहीं था; पर मेरी पूजा उनके द्वारा स्वीकृत थी, क्योंकि वे योग्य पिता थे और मैं उनकी अयोग्य संतान पिताजी को अनेक बार मैंने अपने आचरणों से दुखी किया था, पर एक क्षण के लिए भी वे मेरा मलिन मुंह देखना बर्दाश्त नहीं कर सकते थे पिताजी ने अपने जीवन में यह न जाना कि सुख क्या पदार्थ है और न भरसक हमलोगों को ही यह जानने दिया कि दुःख किसे कहते हैं
जो कुछ मैं लिखना चाहता हूँ, जानता हूँ कि उसे लिख नहीं सकूंगा। क्योंकि ह्रदय को चिंतन और अनुभूति की जो शक्ति और गति प्राप्त है, बुद्धि को उसे प्रकाशित करने की भी वही शक्ति और गति प्राप्त नहीं; फिर भी पिताजी के सम्बन्ध में मैं कुछ लिखूं, ऐसा मित्रों का आग्रह है और मैं भी सोचता हूँ कि पिताजी वास्तव में जो कुछ थे, उसकी एक धुंधली-सी तस्वीर भी अगर मैं दुनिया के सामने रख सकूँ, तो लोक-कल्याण का ही एक काम करूंगा।
मेरे पिताजी का जन्म फाल्गुन शुक्ल ४, संवत १९४० शुक्रवार के दिन हुआ था। बिहार प्रान्त में शाहाबाद एक जिला है और निमेज उस जिले का एक गाँव। गाँव साधारणतः समृद्ध है और शिक्षा के आलोक से आलोकित भी। गाँव में प्रधानतः सरयूपारीण ब्राह्मण रहते हैं। पिताजी ने गाँव के सर्व-प्रधान ब्राह्मण परिवार में जन्म पाया था।
जिस परिवार में पिताजी का जन्म हुआ, वह संपन्न परिवार था। घर में थोड़ी-सी जमींदारी थी। मेरे पितामह डुमरांव राज्य के तहसीलदार थे, खेती-बारी होती थी। इससे अधिक सम्पन्नता की आशा गाँव में और क्या हो ?
पिताजी कहते थे, बचपन में वे बड़े उपद्रवी थे। घुड़सवारी का उन्हें बड़ा शौक था। छोटा होने के कारण घर के घोड़ों पर चढ़ने की आज्ञा न मिलती तो खेतों में जाकर चरते हुए घोड़े-बछेड़ों को पकड़ते और उनपर सवार होकर सारी दुपहरिया इधर-उधर चक्कर काटा करते थे। आगे चलकर वे एक अच्छे घुड़सवार हुए।
सात वर्ष की उम्र में उन्हें पढ़ने की धुन सवार हुई। उस वक़्त अंग्रेजी शिक्षा का इतना प्रचलन न था। ब्राह्मण-कुमार तो साधारणतः संस्कृत ही पढ़ते थे, फिर हमारे परिवार में ही संस्कृत के कई पंडित वर्तमान थे। पिताजी संस्कृत पढ़ने में दत्तचित्त हुए। सात ही वर्ष की अवस्था में घर छोड़कर डुमरांव आये। वहीं से शिक्षा शुरू हुई।
पांच-छः वर्ष डुमरांव रहकर काशी आये। असली अध्ययन उनका वहीँ से प्रारम्भ हुआ। कुछ समय प्राइवेट पढने के बाद क्वींस कॉलेज में नाम लिखकर पढने लगे।

हमारे परिवार में दो-तीन पट्टीदार थे। सब साथ ही रहते थे। परिवारों में, खासकर देहाती परिवारों में, छोटी-छोटी बातों को लेकर जैसी दाँता-किचकिच और लड़ाई-झगड़ा हुआ करता है, उसे सब जानते हैं। पिताजी ने ऐसा स्वभाव पाया था, जिसे यह पसंद न था। उनके बालक मन ने सोचा--थोड़ा-सा वैभव और थोड़े-से अधिकार के लिए इतना क्लेश क्यों होना चाहिए? उन्होंने शायद उसी समय निश्चय कर लिया कि झगड़े की जड़ इस संपत्ति और इस अधिकार से अलग ही जीवन बिताएंगे। इसी के अनुसार उन्होंने अपने निर्वाह और पढाई-लिखाई के लिए घर से खर्च न लेने का निश्चय किया, न लिया। इससे उन्हें बड़ा कष्ट उठाना पड़ा, भूखों रहना तो साधारण बात थी, एक बार पहनने का वस्त्र न होने के कारण पंद्रह दिनों तक वह ढुलाई लपेटकर घूमते फिरे थे, इसी प्रकार एक बार घर से एक अंगौछा लेकर काशी के लिए पैदल ही रवाना हो गए थे।
पिताजी की पढ़ाई चल ही रही थी कि घर की अवस्था में परिवर्तन हुआ। मेरे पितामह सुखी जीव थे। पहनने-ओढ़ने औए घुड़सवारी का बड़ा शौक था। अच्छे-से-अच्छे कपड़ों और घोड़ों की फ़िराक के रहते थे। घरेलू हिसाब-किताब और झगड़े-झमेलों में पड़ना पसंद न करते थे। थोड़े दिनों में तहसीलदारी छोड़कर घर आ बैठे और हमारे बड़े पट्टीदारों ने कृपापूर्वक थोड़ा-सा खेत हमारे लिए छोड़कर अपनी हांडी अलग चढ़ाई। पितामह ने देखकर भी न देखा, बँटवारा हुए बिना ही यह बँटवारा हो गया और घर में कोई विरोध पैदा  हुआ। अब सहसा गरीबी आ गई। पिताजी ने परिवार का पोषण करने की अपनी जिम्मेदारी समझी और ली। वह दिन उनके कैसे कटे, वे ही जानते होंगे। जब कभी हमलोगों से चर्चा की, हम आंसू नहीं रोक सके।

और, इतनी आपत्तियों के बीच पिताजी स्कालरशिप पाकर, अपने गुरु पं० गंगाधर शास्त्री की कृपा और स्नेह प्राप्त करके, अपनी कक्षा में सर्वोत्तम अंक पाते हुए, अपनी प्रतिभा से लोगों को मुग्ध करते रहे। थोड़े ही दिनों में पिताजी ने अपने कॉलेज के प्रिंसिपल वेनिस साहब को अपना पक्षपाती बना लिया और उन्हीं की कृपा से अनेक जर्मन तथा अँगरेज़ विद्यार्थियों को संस्कृत पढ़ाते और उस पढ़ाई की आय से अपना तथा परिवार का खर्च चलाते हुए पिताजी ने अपना अध्ययन समाप्त किया।
अध्ययन पच्चीस वर्ष की अवस्था में समाप्त हुआ और उसके बाद ही भारतधर्म महामण्डल के स्वामी ज्ञानानंदजी के आग्रह तथा अनुरोध से पिताजी ने मंडल के डेप्यूटेशन के साथ कुछ समय तक भारतवर्ष के विभिन्न प्रांतों की यात्रा की, पर यह क्रम अधिक दिनों तक चल न सका। सैद्धांतिक मतभेदों के कारण पिताजी ने शीघ्र ही मंडल का संपर्क त्याग दिया। उसके बाद जोधपुर के चोपासनी ठिकाने के गोसाईंजी के पुत्रो के गृहशिक्षक होकर वे दो वर्ष तक जोधपुर रहे, पर वहाँ से भी उन्हें लौटना पड़ा।
अपने सांसारिक जीवन के प्रथम प्रभात में पिताजी ने अनुभव किया कि वे दुनिया के काम की चीज नहीं हैं। दुनिया चाहती है झूठ, फरेब, जालसाजी, खुशामद और जी-हुज़ूरी; और पिताजी में इनका सर्वथा अभाव था। दुनिया विलास-वासना में डूबना चाहती है, वैभव की गोद में खेलना चाहती है और साथ ही चाहती है यश, कीर्ति, सम्मान।पिताजी को स्वभावतः इन सारी चीज़ों से नफरत थी। इसी से, दुनिया में पैर रखते ही, पिताजी ने सबसे पहली जो चीज़ छोड़ी, वह नौकरी थी। नौकरी को चिर-जीवन के लिए नमस्कार करके, वह संसार के भंवर में कूद पड़े और यह कहने में मुझे संकोच नहीं है कि वह उस भंवर से उबर नहीं सके।...

मेरे जन्म से पहले ही पिताजी इलाहाबाद जाकर बस गए थे। जीविका का कोई निश्चित साधन नहीं था। फिर भी प्रभु की कृपा, अपनी विद्वत्ता और तेजस्विता से वह बड़ी शान से जिये।
उन्होंने चाहे जितनी तकलीफ उठाई हो, पर किसी के सामने झुके नहीं, किसी से एक पैसा माँगा नहीं और न किसी की सहायता ही स्वीकार की। मैंने पहले भी सुना था और अभी उस दिन पं० रामनरेश त्रिपाठीजी ने भी मुझे बतलाया कि एक बार पिताजी सांघातिक रूप से बीमार पड़े। घर में खाने को तो कुछ था ही नहीं, उनकी चिकित्सा के लिए भी पैसे न थे। स्वामी सत्यदेव परिव्राजक पिताजी को देखने आये। उन्हें यह हाल मालूम था। चुपचाप बिछौने के नीचे तीन गिन्नियां रख गए। उनके जाने पर पिताजी को गिन्नियां मिलीं, समझ गए कि स्वामीजी की कृपा है, गिन्नियों को उसी समय वापस करवा दिया, स्वीकार नहीं किया।
पुस्तक-लेखन के द्वारा पिताजी अपनी जीविका चलाते थे। लेख भी अक्सर सामयिक विषयों पर लिखा करते थे, पर उसके लिए पैसे न लेते थे, तब शायद लेखों का पारिश्रमिक लेने-देने का इतना प्रचलन भी न था। मुझे याद है, पिताजी के एक लेख के लिए 'प्रभा' कार्यालय से कुछ रुपये आये थे। पिताजी ने रुपये वापस कर दिए और 'प्रभा' में लिखना भी बंद कर दिया।

उन्होंने 'शारदा' नाम की संस्कृत मासिक पत्रिका निकाली। कुछ समय बाद आर्थिक कठिनाइयों से वह बंद हो गई। पिताजी के जीवन का एक बड़ा हिस्सा संस्कृत के विद्यार्थियों और पंडितों के बीच में बीता था। कैसी मूर्खता, कैसा ज्ञान, कैसे कुसंस्कार और कैसे कूपमंडूकता से भरा वह समुदाय है, इसका पिताजी को ज्ञान था; और उन्हीं लोगों को नव-संसार से परिचित कराने के लिए पिताजी ने यह प्रयत्न किया था, पर उन्हें बड़ी निराशा हुई, जब उन्होंने देखा कि जिनके लिए यह पत्र निकाला गया है, ग्राहक-संख्या में उनका भाग दशांश भी नहीं है। 'शारदा' का संपादक होने के कारण पिताजी को और पिताजी के द्वारा संपादित होने के कारण 'शारदा' को बड़ी कीर्ति मिली, देश-विदेशों में 'शारदा' का प्रचार हुआ, पर ये चीजें पिताजी को संतुष्ट न कर सकीं। वे तो इस कार्य से किसी दूसरे ही उद्देश्य कि पूर्त्ति चाहते थे।
इस आघात से पिताजी इतने दुखी हुए कि उन्होंने संस्कृत से एक तरह से विदा ही ले ली। हिंदी में 'समाज' नामक एक मासिक पत्र निकाला, वह भी कुछ समय बाद बंद हो गया। फिर दारागंज के निर्वाणी अखाड़े से 'संन्यासी' नामक एक पत्र निकलवाकर दो वर्ष तक उसका सम्पादन करते रहे। कालान्तर में 'संस्कृत रत्नाकर' तथा 'शिक्षा' (संस्कृत मासिक तथा हिंदी साप्ताहिक) पत्रों का भी सम्पादन किया। उन्हीं दिनों हिंदी विद्यापीठ के अवैतनिक प्रिंसिपल तथा हिंदी-साहित्य-सम्मलेन के साहित्य-मंत्री के पद पर भी काम करते रहे, पर सम्मलेन से कभी एक पैसा इक्के का किराया भी न लिया।

सन १९२० के बाद कुछ समय तक वह पटना में और फिर बनारस में रहे। मैं हमेशा उनके साथ रहा। उन्होंने बनारस में वाल्मीकीय रामायण का अनुवाद किया, फिर सन १९२८ में दुबारा प्रयाग आये। पटना हमलोग इस इरादे से गए थे कि गांव से संपर्क बना रहे, पर पिताजी ने पैतृक संपत्ति में से एक पैसे का व्यवहार न करने का निश्चय किया था। जब गांव पर रहने का इरादा हुआ तो पिताजी ने पैतृक ज़मीन के रहते नई ज़मीन मोल ली और मकान बनवाया। लेकिन वहाँ रहना न हो सका, सन १९२८ में फिर हमलोग प्रयाग वापस आये, शायद सदा के लिए गांव से विदा लेकर।
पिताजी का जीवन असफल लड़ाइयों का जीवन था, किन्तु इससे वह कभी विचलित नहीं हुए। प्रत्येक बार एक बहादुर सिपाही की तरह ह्रदय में नया उत्साह, शरीर में नया बल और स्फूर्ति लेकर वे मैदान में आये और प्रत्येक बार असफल हुए। सन १९२८ तक मेरी और मेरी दो बहनों की शादियां हो चुकी थीं। हमलोग बड़े हो गए थे, संसार में प्रवेश करने जा रहे थे। पिताजी को हमलोगों की चिंता हुई। 'स्त्री के पत्र', 'विधवा के पत्र' और 'सामाजिक रोग' आदि हिंदी पुस्तकें लिखकर उन्होंने निज का प्रकाशन आरम्भ किया। उसके बाद 'महाभारत' के प्रकाशन का आयोजन किया। छः अंक निकाले भी,पर इस बार भी सफलता के निकट पहुँचने के पहले स्वयं ही चले गए। उनकी बड़ी इच्छा थी कि महाभारत के अतिरिक्त संस्कृत के सभी प्राचीन ग्रंथों का सरल भाषा में प्रामाणिक अनुवाद प्रकाशित करें। श्रीमद्भागवत तथा कई उपनिषदों का अनुवाद भी कर चुके थे, पर काल के समान कौन बली है? उसने उनकी अंतिम इच्छा भी पूरी न होने दी।
पिताजी हमेशा हमलोगों से कहते थे कि दरिद्रता और कठिनाइयाँ भगवान की देन हैं और जिस पर भगवान प्रसन्न होते हैं, उसे ही अपनी यह धरोहर सौंपते हैं। पिताजी ने स्वेच्छा से कठिनाइयों को आमंत्रित किया तथा दरिद्रता को गले लगाया। वे चाहते तो किसी स्कूल-कॉलेज के संस्कृताध्यापक का पद उन्हें बड़ी आसानी से मिल जा सकता था और वे खाते-पीते अपना जीवन बिता दे सकते थे, पर ऐसे जीवन को सदा उन्होंने घृणा की दृष्टि से देखा और उससे दूर रहते आये। वे पटना, पंजाब और काशी विश्वविद्यालयों के परीक्षक हुआ करते थे। प्रलोभनों ने कई बार पिताजी को पथभ्रष्ट करने की चेष्टा की थी--बड़े-बड़े और छोटे-छोटे प्रलोभनों ने भी। पर उन्हें जाने कैसा वज्र-कठोर ह्रदय मिला था कि डिगाना तो दूर की बात, कोई प्रलोभन उन्हें रंचमात्र हिला भी नहीं सका।

प्रलोभनों की उस श्रंखला की एक निहायत मामूली, लेकिन दिलचस्प घटना मुझे कभी नहीं भूलती। लाहोर के एक धनाढ्य के पुत्र ने पंजाब विश्वविद्यालय साहित्य के प्रथम खंड की परीक्षा दी और अनित्तीर्ण रहा। दूसरे साल उसने फिर परीक्षा दी और पिताजी आश्चर्यचकित रह गए, जब उसकी उत्तर-पुस्तिका के साथ एक सौ रुपये एक नोट पाया गया। पिताजी ने उसकी उत्तर-पुस्तिका के साथ वह नोट विश्वविद्यालय के उप-कुलपति को भेजकर उसे दो साल के लिए परीक्षा देने से वंचित करने की अनुशंसा की। उस अवधि के बीतने पर उसने फिर परीक्षा दी और स्वयं इलाहाबाद आकर वह पिताजी से मिला। वह सीधा-सादा और किसी हद तक नादान प्रतीत हो रहा था। उसने पिताजी से कहा कि उसका मन पढने में नहीं लगता और उसके पिता किसी भी तरह उसे साहित्याचार्य बनाने पर आमादा हैं। उसने गिड़गिड़ाते हुए कहा--"अब आप ही मेरी रक्षा कर सकते हैं, वरना मैं कहीं का नहीं रहूंगा। मैंने पहले भी सौ का नोट उत्तर-पुस्तिका के साथ भेजा था, लेकिन वह राशि शायद काम थी। अब मैं आपको पांच सौ  दे दूंगा। इसी के लिए स्वयं आया हूँ। इससे आपका कुछ नहीं बिगड़ेगा, मेरा जीवन सुधर जाएगा।"
पिताजी थोड़ी देर उसकी शक्ल देखते रहे, फिर उन्होंने कहा--"ईमान बेचने की तुम यही कीमत लगाते हो ?"
उसने कहा--"मैं ज्यादा-से-ज्यादा एक हज़ार दे सकता हूँ। इससे अधिक मेरे पास है भी नहीं।"
पिताजी बोले--"जब है ही नहीं, तो जाकर ले आओ रुपये।"
वह प्रसन्न-मन मेरे घर से विदा हुआ, लेकिन रास्ते में उसके एक परिचित मिल गए। उन्होंने कहा कि एक बार शास्त्रीजी ने तुम्हें दो साल की चेतावनी दी थी, इस बार वे तुम्हें जीवन-भर की सज़ा दिलवा देंगे। तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई उनके पास जाने की। उसके बाद वह लौटकर पिताजी के पास नहीं आया।
इस घटना से पिताजी इतने मर्माहत हुए कि उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से अपना नाता ही तोड़ लिया। पता नहीं, उस अभागे छात्र के पिता की मनोकामना कभी पूरी हुई या नहीं।...
पिताजी ने अपने शरीर की कभी चिंता नहीं की। सबको खिलाकर स्वयं खाना, यह उनकी आदत थी। उनका वह शरीर जिसने जीवन-भर परिश्रम ही किया था कभी पोषक पदार्थ खाया नहीं था, जर्जर हो गया था। उनका वह ह्रदय भी जर्जर हो गया था, जिसने जीवन-भर असफलताओं से लोहा लिया था। इधर वर्षों से अस्वस्थ रहते हुए भी उन्होंने अथक परिश्रम करके महाभारत, श्रीमद्भागवत तथा उपनिषदाओं का अनुवाद किया था। अत्यधिक परिश्रम का भार उनका जर्जर शरीर सँभाल नहीं सका। ५१ वर्ष की अल्पायु में, सन १९३४ के मध्य-भाग में, वह तेजस्वी जीवन-दीप बुझ गया...!

[मासिक 'चाँद', अगस्त १९३४]

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

आपके लेखन में प्रवाह प्रभावित कर गया |