सोमवार, 29 जनवरी 2018

अपने घर का दर्शन...

अपने घर की खिड़की से
दीखते हैं दूसरों के घर,
ऊपरी मंजिल पर हों तो
सड़कें भी दीखती हैं,
जंगल भी दीखते हैं
और माचिस के डिब्बे-से
रेंगते वाहन भी,
मजमे भी;
लेकिन अपना घर तो क्या,
उसकी खिड़कियाँ भी बस,
अंदर से ही दिखती हैं।

अपना घर देखना हो तो
घर से निकलकर थोड़ी दूर
जा खड़ा होना होता है--
तटस्थ भाव से--
असंलग्न!

क्या तुम्हारा भी मन होता है कभी
अपने घर को देखने का?
मेरा तो होता है;
लेकिन क्या करूँ?
अपना घर छोड़कर
बाहर जाया नहीं जाता,
तटस्थ हुआ नहीं जाता,
असंपृक्त रह नहीं पाता;
आज भी वहीं रह गया हूँ
जहाँ छोड़ गये थे तुम;
वहीं मोहाविष्ट रहता हूँ,
दुःख-सुख घर में रहकर सहता हूँ।

कैसे निकलूं घर से, बतलाओ
यह मोहावरण किस तरह हटाऊँ,
तुम्हीं समझाओ,
है कोई युक्ति तुम्हारे पास?
(--आनन्द.)
====


पुनः --
नयनों ने ली है अँगड़ाई
पहली शल्य-क्रिया है भाई!
अस्पताल में जाना होगा,
क्षुद्र मोतिया हटवाना होगा।

दस दिन का अवकाश चाहिए,
दुआएं सबकी पास चाहिए!
--आ. 17-1-2018.

3 टिप्‍पणियां:

ब्लॉग बुलेटिन ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, गणतंत्र दिवस समारोह का समापन - 'बीटिंग द रिट्रीट'“ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

Meena sharma ने कहा…

जल्दी स्वस्थ होकर ब्लॉग पर लौटिए। प्रार्थना है ईश्वर से कि मोतियाबिंदु की शल्यक्रिया सही से संपन्न हो । सादर ।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (31-01-2018) को "रचना ऐसा गीत" (चर्चा अंक-2865) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'