[स्मृतियों की मंजूषा से एक लघु संस्मरणात्मक आलेख]
बात तब की है, जब देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ० राजेंद्र प्रसाद अपना कार्य-काल पूरा करके पटना लौट आये थे और सदाकत आश्रम में निवास करने लगे थे। तब मैं बहुत छोटा था, संभवतः पांचवीं कक्षा में पढता था। मुझसे पाँच साल छोटी बहन 'महिमा', मस्तिष्क-ज्वर की मारी हुई, अविकसित बोध की बच्ची, तो बहुत ही छोटी थी। उन दिनों उसे न जाने क्या धुन सवार रहती थी कि किसी भी आगंतुक को देखती तो झट अपने दायें हाथ की तर्जनी से उसके चरणों का स्पर्श करती और वही उंगली अपने मस्तक से लगाती। अपने इस आचरण में वह कोई भेद-भाव न करती। घर में काम करनेवाली धाय हो या धोबी, अखबारवाला हो या रिक्शेवाला, ढूधवाला हो अथवा संभ्रांत वेश-भूषावाला कोई मुलाकाती--वह सबके चरण अपने इसी कौशल से छुआ करती।
एक दिन पिताजी (पुण्यश्लोक पं० प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त') दफ्तर से जल्दी लौट आये । आते ही उन्होंने मेरी माता से कहा--"मुझे एक कप चाय दीजिये और आपलोग जल्दी से तैयार हो जाइए। सदाकत आश्रम जाना है। राजेंद्र बाबू ने मिलने के लिए सपरिवार बुलाया है।" हम सभी जितनी देर में तैयार हुए, उतनी देर में पिताजी ने चाय पी ली थी। उन्होंने अपनी कार निकाली और हम चारों भाई-बहन माता-पिताजी के साथ सदाकत आश्रम की ओर चल पड़े।
सदाकत आश्रम तो तपस्थली-सा था। वहाँ नीरव शान्ति विराज रही थी। गाँधी टोपीधारी एक कार्यपालक ने हमें सीधे पूज्य राजेंद्र बाबू के कक्ष में पहुंचा दिया। पुराने ज़माने की ऊँची पलंग पर देशपूज्य राजेंद्र बाबू पालथी लगाए बैठे थे। हम सबों ने बारी-बारी से उनके चरणों का स्पर्श किया। मेरी माता ने सबसे अंत में उन्हें प्रणाम निवेदित करने के बाद महिमा से कहा--"बाबा को प्रणाम करो बेटा ।" मेरी बहन फर्श पर खड़ी थी और राजेंद्र बाबू ऊँची पलंग पर थे। महिमा ने आँखें नीची कीं और राजेंद्र बाबू के चरण खोजने लगी; लेकिन चरण तो पालथी में दबे थे, मिलते कैसे ! महिमा संभ्रम में थी कि चरण ही नहीं हैं, तो प्रणाम कैसे करूँ ? अचानक उसने अपना सिर उठाया और तभी उसे राजेंद्र बाबू के एक पैर की उंगलियाँ पालथी से झांकती दिख गईं। उसके चहरे पर प्रसन्नता की रेखाएं खिंच आयीं। फिर उसने ज़रा भी देर नहीं की, अपनी तर्जनी से राजेंद्र बाबू के चरण को छूकर उसने अपने मस्तक से लगाया। राजेंद्र बाबू खुलकर हँसे और महिमा को फर्श से उठाकर उन्होंने अपनी गोद में बिठा लिया। हमलोग वहाँ करीब एक घंटे तक रहे। बच्चों के लिए मिठाइयाँ और बिस्कुट तथा माता-पिताजी के लिए चाय आयी। पिताजी देर तक राजेंद्र बाबू से घर-परिवार, स्वास्थ्य और काम-धाम की बातें करते रहे। हम लौटे, तो गौरव-भाव से भरे हुए थे--गर्व-स्फीत हुए-से ! बहुत नज़दीक से पहली और अंतिम बार वही उनका दुर्लभ दर्शन मुझे मिला था।
लेकिन, अब जो मुझे कहना है, वह बात थोड़ी पुरानी है--सन १९४० के आसपास की। मेरे जन्म के प्रायः १२ वर्ष पहले की। कालान्तर में, ४३ वर्षों के सान्निध्य में, मैंने पिताजी से अनेक बार यह कथा सुनी है और यत्किंचित मन में गुनी भी है। उन दिनों पिताजी 'आरती' नाम की एक साहित्यिक पत्रिका का सम्पादन कर रहे थे। इस पत्रिका के संरक्षक थे--देशरत्न डॉ० राजेंद्र प्रसाद। पत्रिका से सम्बंधित अनेक विषयों पर चर्चा के लिए पिताजी जब-तब सदाकत आश्रम जाया करते थे। राजेंद्र बाबू के कक्ष के बाहर द्वार के दोनों तरफ लकड़ी के दो पट्ट लगे हुए थे। एक पट्ट पर लिखा था-- "हारिये न हिम्मत बिसारिये न हरि नाम।" और दूसरे पर अंकित था--"जाहि बिधि राखे राम ताहि बिधि रहिये ।" पिताजी जब जाते, इन दोनों पट्ट पर उनकी नज़र पड़ती और वह राजेंद्र बाबू के कक्ष में प्रविष्ट हो जाते।...
[अगली कड़ी में समापन...]
4 टिप्पणियां:
अच्छा लगा यह संसमरण पढ़कर
शहीद भगत सिंह पर एक रपट यहाँ भी देखें
http://sharadakokas.blogspot.com
आनंद भैया ,नमस्कार
बहुत मज़ा आया पढ़कर लेकिन आगे पढ़ने की प्यास बढ़ गई ,इंतेज़ार कर रहे हैं अगले अंक का
राजेंद्र बाबू के बारे बहुत से प्रसंग पढ़े हैं. बहुत ही सहज और सरल व्यक्तित्व था उनका और सादगी पर इतना जोर देते थे जो कभी कभी एक्सट्रीम लगता था. उन लोगों में पद और संपत्ति अर्जित करने की चाह नहीं थी. सत्तर आते-आते सब कुछ बदल गया.
श्र्द्धेय
प्रणाम. बहुत सहज भाषा और प्रवाह्युक्त शैली में लिखते हैं आप, लिहाजा संस्मरण का प्रत्येक पात्र जीवंत हो उठता है. आज ही दोनों भाग पढे.
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