शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

जब आचार्य द्विवेदी रो पड़े.... : 'मुक्त'

[समापन किस्त]

पिताजी द्विवेदीजी के चरणस्पर्श के लिए झुके ही थे कि उन्होंने दोनों हाथ बढ़ाकर पिताजी को गले से लगा लिया। अपनी कार से जो सज्जन उन्हें ले आये थे, वह हिंदी प्रेस के स्वामी रामजीलाल शर्मा के ज्येष्ठ पुत्र रघुनान्दंजी थे। द्विवेदीजी उन्हीं के यहाँ ठहरे थे।
द्विवेदीजी जब पिताजी से बातें करने लगे, तो मैंने ध्यान से उन्हें देखा। सफ़ेद घनी मूंछें, घनी भौहें, आँखों पर चश्मा--आँखें, जिनकी ज्योति मंद हो चुकी थी, लेकिन जिनका तेज बरकरार था। यह चेहरा जाना-पहचाना था, चित्रों के माध्यम से। उस दिन पहली बार मैंने उन्हें प्रत्यक्ष देखा।
बातें काफी देर तक होती रहीं। कुशल-क्षेम से आरम्भ होकर बातों का सिलसिला बढ़ता गया। पिताजी के कुरेदने पर द्विवेदीजी अतीत-सृतियाँ सुनाने लगे। उन्होंने बहुत-सी बातें सुनाईं। अचानक पिताजी ने कहा--'महाराज, आपके पास तो अनुभवों का अक्षय भण्डार है। मेरा निवेदन है कि आप उन्हें लिख डालें, भावी पीढ़ियों के लिए वह दस्तावेज़ बहुत प्रेरणाप्रद होगा। '
द्विवेदीजी पालथी मारकर बैठे हुए थे। पिताजी की बात सुनते ही वह घुटनों के बल बैठ गए। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर स्वरचित एक श्लोक सुनाया। उनकी आँखों से अश्रुधारा बह चली। अचानक विनय, विषाद और करुणा की त्रिवेणी बहने लगी। हम स्तब्ध रह गए।
इतने दिनों बाद अब वह श्लोक तो मुझे याद नहीं रहा, लेकिन उसका आशय कुछ इस प्रकार था--'इस विशाल संसार-सागर में मैं क्या हूँ ? एक अपदार्थ बुलबुला, जिसके शरीर में न शक्ति है, न मन में उत्साह, परिवार में पुत्र-कलत्र भी नहीं है। नितांत एकाकी, निःसंग, मेरा जीवन क्या, और मेरी उपलब्धियां भी क्या ?'
वातावरण बोझिल हो उठा। मैंने सोचा, नईउम्र के हमलोग अपने आपको बड़ा तीसमारखां समझते हैं। हम अति-भावुक होने का दम भरते हैं। लेकिन द्विवेदीजी की इस गहन-गंभीर वेदना और भावुकता के मुकाबले हमारी भावुकता का क्या मूल्य है ?
इलाहाबाद का अभिनन्दन समारोह अपनी भव्यता के लिए बहुत समय तक लोगों को याद रहा। उस अवसर पर द्विवेदीजी ने ऐतिहासिक महत्त्व का जो भाषण दिया था, लोगों के मन में उसकी याद बहुत दिनों तक बनी रही थी। पता नहीं, उनका वह भाषण लिपिबद्ध हुआ था या नहीं।
एक शाम पंडित रामजीलाल शर्मा ने आचार्य द्विवेदीजी से अनौपचारिक रूप से मिलने के लिए इलाहाबाद के कुछ विशिष्ट साहित्यिक विद्वानों को हिंदी प्रेस में आमंत्रित किया था। मैं तो विशिष्ट क्या, अविशिष्ट की श्रेणी में भी नहीं आता था, फिर भी पिताजी का पल्ला पकड़कर मैं उस जमात में उपस्थित था।
गोष्ठी औपचारिक रूप में ही शुरू हुई थी। फिर अपने आप ही उसने अनौपचारिक रूप धारण कर लिया। कई लोगों ने द्विवेदीजी की सेवाओं का बखान करते हुए उनके प्रति श्रद्धा-कृतज्ञता प्रकट की। कुछ लोगों ने अपनी कवितायें सुनाईं। अंत में द्विवेदीजी ने प्रत्येक व्यक्ति का नामोल्लेख करते हुए अपनी स्पष्ट, निर्भीक और किसी कदर तल्ख़ टिप्पणियाँ प्रस्तुत कीं। उन्होंने कहा--"आपने मुझ पर असंभव प्रशंसाओं का बोझ डाल दिया है। मैं नहीं जानता कि मैं अपने जीवन में ऐसा कुछ कर सका हूँ, जो प्रशंसा के योग्य हो। मैंने जो कुछ किया, वह कर्तव्य समझकर किया। फिर भी यदि आप उसे उचित और उपयोगी मानते हैं, तो मेरी प्रशंसा मत कीजिये, उससे आगे कुछ करने का प्रयास कीजिये। वही मेरी सच्ची प्रशंसा होगी। उसीसे मुझे संतोष होगा।"
कविताओं के सम्बन्ध में भी उन्होंने कुछ ऐसे ही विचार प्रकट किये। उन्होंने कहा--"कविता साहित्य की बहुत बड़ी शक्ति है। उसे मनोविलास या व्योम-विहार की वस्तु मत बनाइये। अपनी कविता के द्वारा साहित्य को और समाज को कुछ ऐसा दीजिये, जो उसे समृद्ध बनाए।"
उस साहित्यिक ऋषि ने उस समय अपने जीवन की अभिज्ञताओं और अनुभव के आधार पर युवा पीढ़ी को जो सीख दी थी, क्या आज के सन्दर्भ में वह उस समय की अपेक्षा कहीं अधिक उपयोगी और आवश्यक नहीं है ?
एक अल्प कालावधि में मैंने तीन अवसरों पर आचार्य द्विवेदी के दर्शन का और उनकी बातें सुनने का सौभाग्य प्राप्त किया था, लेकिन मेरी स्मृति में उनकी वही मूर्ति सबसे अधिक उज्ज्वल और स्पष्ट है, जब वह पिताजी को श्लोक सुनाते हुए रो पड़े थे।
[मित्रो ! इस सप्ताह में सिर्फ बाबूजी की बातें ही होंगी। इन आलेखों से जो प्रेरक तत्त्व मिलें, उन्हें हम सभी ग्रहण करें; यही उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी--ऐसा मेरा मन कहता है। विनीत ----आनंद]

जब आचार्य द्विवेदी रो पड़े... : 'मुक्त'


[पंडित प्रफुल्लचंद्र ओझा 'मुक्त' जी के संस्मरण-संग्रह 'अतीतजीवी' से उद्धृत]

बहुत छोटी उम्र से निरंतर पिताजी के साथ रहने के कारण मुझे एक लाभ हुआ था, तो एक हानि भी हुई थी। हानि गौण थी । मुझे अपनी उम्र के बच्चों के साथ मिलने-जुलने, खेलने-कूदने का अवकाश नहीं मिला था। आज मैं अपने जीवन के पचासी वर्ष पूरे कर चुका हूँ, मुझे नहीं लगता कि वह कोई बड़ी हानि थी। लाभ के खाते में ही अंकों की बहुतायत रही थी। पिताजी के मित्र ही मेरे भी मित्र बन गए। इससे मन में कभी हीन-भावना नहीं आयी। पढने-लिखने का व्यसन लगा। यह बुरा व्यसन नहीं थ।
इलाहाबाद में पिताजी की गोष्ठी मशहूर थी। सुबह-शाम जुटती थी। शहर के लोग तो आते ही थे, समय-समय पर देश-भर के विभिन्न भागों के विद्वान्, साहित्यिक, अध्यापक, पत्रकार आते-जाते रहते थे। वेदोपनिष्द्दर्शन-साहित्य से लेकर आधुनिक साहित्य और साहित्यकारों की चर्चा होती रहती थी। मैं विस्मय-विमूढ़ होकर सब कुछ सुनता रहता था। पल्ले चाहे कुछ न पड़ता हो, बातें तो कानो में पड़ती ही थीं। उन्हीं बातों के सिलसिले में मैंने पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी का नाम भी सुना था।
द्विवेदीजी इंडियन प्रेस, इलाहाबाद से प्रकाशित होनेवाली 'सरस्वती' मासिक पत्रिका के सम्पादक थे। इंडियन प्रेस से बच्चों का एक मासिक 'बालसखा' भी प्रकाशित होता था। ये दोनों मासिक पिताजी के पास आते थे। मैं चार-पांच वर्ष की उम्र से उनका नियमित पाठक बन गया था। द्विवेदीजी का नाम मेरे लिए सुपरिचित हो गया था। मेरे मन में उनका एक काल्पनिक चित्र भी बन गया था। बरगद के विशाल वृक्ष, छाया-सघन-वृक्ष का, भीष्म पितामह के वज़न पर, साहित्य के पितामह का एक भव्य-विराट चित्र !
द्विवेदीजी इलाहाबाद में नहीं रहते थे। सम्पादन का काम कानपूर में रहकर करते थे। लिहाजा, उनके दर्शनों का सौभाग्य मुझे नहीं प्राप्त हुआ था। फिर भी इतना मैं जानता था कि हिंदी साहित्याकाश में वह दोर्दंड प्रतापी भास्कर की भाँति चमक रहे थे। आधुनिक हिंदी के प्रवर्तक के रूप में उनका वर्चस्व स्थापित हो चुका था।
मैं जब सोलह-सत्रह साल का हुआ, तो उनकी लिखी एक पुस्तक मेरे हाथ लगी। तब तक मैं नियमित रूप से लिखने लगा था और मेरी कवितायें और कहानियाँ पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगी थीं। पुस्तक का नाम तो अब मुझे स्मरण नहीं है, लेकिन इतना याद है किवह पुस्तक १९ वीं शती के अंतिम दशक में छपी थी, जब द्विवेदीजी रेलवे में मुलाजिम थे और झाँसी में पदस्थापित थे।
मैंने पुस्तक की भूमिका पढनी शुरू की। पढ़कर स्तब्ध रह गया। उसकी भाषा इतनी भोंडी, अनगढ़ और पुराने ढंग की थी कि आश्चर्य हुआ कि जो व्यक्ति आधुनिक हिंदी का संस्कारक है, वह कभी ऐसी लचर भाषा भी लिखता था।
पहले मैं इंगित कर चुका हूँ कि पिताजी और उनके मित्रो के बीच रहते मेरी मनोरचना ऐसी हो गई थी कि बड़े-से-बड़े व्यक्ति से भी मैं सामान धरातल पर और खुलकर बातें करने का अभ्यासी हो गया था। इसका यह आशय बिलकुल नहीं है कि मुझमें शिष्टता या विनम्रता का अभाव था, लेकिन निर्भीक होकर किसी से भी अपनी बात कहने में मुझे झिझक न होती थी। बेख़ौफ़ अपनी बात कह देता था।
जब मैंने वह पुस्तक देखी थी, उसके कुछ समय पहले से ही द्विवेदीजी कानपुर छोड़ कर अपने गाँव चले गए थे और निवृत्त जीवन बिता रहे थे। वह निःसंतान थे। उनकी पत्नी का भी देहावसान हो चुका था। उन्होंने पत्नी एक मंदिर बनवा लिया था और वह निःसंग एकाकी जीवन व्यतीत कर रहे थे। कभी-कदाचित जब कोई लेखक उनके दर्शनों के लिए दौलतपुर (उनके गाँव) पहुँच जाता तो वह अभिभूत और संकुचित हो जाते थे। दौलतपुर की तीर्थ-यात्रा से लौटे उन्हीं व्यक्तियों के लेखों से द्विवेदीजी के बारे में जानकारी मिलती रहती थी।
उनकी पुस्तक देखने के बाद मैंने उन्हें एक पत्र लिखकर जानना चाहा किजिस व्यक्ति ने आरम्भ में ऐसी अनगढ़ और खुरदुरी भाषा लिखी थी, कालान्तर में वही आधुनिक हिंदी का प्रवर्तक और संस्कारक कैसे बन गया ।
मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब लौटती डाक से उनका एक पोस्टकार्ड मुझे मिला। इस तरह हमारा पत्र-व्यवहार प्रारंभ हुआ। जब कभी मैं किसी बात को लेकर उन्हें पत्र लिखता, उत्तर में उनका पोस्टकार्ड अवश्य आ जाता। मुझ अनजान-अनाम व्यक्ति के प्रति उनकी यह कृपा मुझे श्रद्धानत बनाती रही।
कुछ समय बाद कशी नागरी प्रचारिणी सभा ने उन्हें एक अभिनन्दन-ग्रन्थ देने कि योजना बनाई। मैं पुलकित था कि अंततः मुझे उनके दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त होगा।
काशी का समारोह निबट चुका था। तय यह हुआ कि वहां से लौटे हुए द्विवेदीजी इलाहाबाद भी रुकेंगे। इलाहाबाद के समारोह की तिथियाँ उन्हीं की सुविधा के अनुसार तय हुई थीं। समय निकट आ रहा था, तैयारियां जोर-शोर से चल रही थीं। समारोह के परिशिष्ट के रूप में हम तरुणों ने एक कवि-दरबार लगाने का निश्चय किया था। उसके संयोजक के रूप में मैं पूरी तत्परता से जुटा हुआ था।
एक दिन सबेरे मैं पिताजी के साथ बैठक में बैठा कुछ बातें कर रहा था। अचानक घर के सामने एक कार आकर रुकी। कार पर पिताजी की नज़र पड़ी, तो वह उठ खड़े हुए। 'द्विवेदीजी' कहकर आगे बढे। कार से जो वृद्ध सज्जन उतरे, वही आधुनिक हिंदी के जन्मदाता आचार्य द्विवेदी थे।
[अगली कड़ी में समापन]

मंगलवार, 26 जनवरी 2010

इक्यासीवें जन्म-दिन का आत्म-कथ्य : 'मुक्त'


[मित्रो ! सन २०१०--मेरे पूज्य पिताजी पुण्यश्लोक पंडित प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त' का जन्मशती वर्ष है। आज उन्हें जगत से विदा हुए १५ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं, लेकिन मेरे मन में उनकी स्मृतियों का आलोड़न सदैव बना रहता है। चाहता हूँ, उन स्मृतियों को शब्दों में बांधूं ! ऐसा करना मेरा दायित्व भी है, किन्तु मेरी सीमाएं हैं, थोड़ी असमर्थता भी ! पिताजी पर लिखना मेरे लिए कभी आसान नहीं रहा; फिर भी शीघ्र ही लिखने की कोशिश करूँगा।
सुना है, सूर्यदेव को पृथिवी पर अर्घ्य का जो जल अर्पित किया जाता है, वह करोड़ों मील दूर उन्हें पहुँच जाता है। 'विदा जगत' कहने के बाद भी पिताजी तो मेरे आस-पास ही रहे हैं, क्या मेरा स्मरण-नमन उन तक न पहुंचेगा ? पिताजी के जन्मशती वर्ष पर, इस पखवारे में, उन्हीं के शब्दों का सहारा लेकर, अपने मनोभाव व्यक्त करना चाहता हूँ। इसी अभिप्राय से २७ जनवरी १९९१ का लिखा पिताजी का आत्म-कथ्य यहाँ रख रहा हूँ। नहीं जानता, इस आलेख में आप बंधुओ की कितनी रूचि होगी; लेकिन चाहता हूँ कि इस स्मरण-नमन में ब्लॉगर मित्र भी मेरे साथ सम्मिलित हों ! इसी ख़याल से पिताजी का ये आलेख विनयपूर्वक प्रस्तुत कर रहा हूँ--आनंद।]

यश की काया छोड़ गए जब पिता भुवन से,
हर क्षण नमन किया करता हूँ उनको मन से !!
--आनंद।
प्रभु-कृपा से आज मेरे जीवन के अस्सी वर्ष पूरे हो गए। अस्सी वर्ष का अरसा काफी लम्बा होता है--एक शती के पांच हिस्सों में से चार हिस्सा ! सन १९१० ई० की २७ जनवरी के ब्राह्म-मुहूर्त में मैंने एक तेजस्वी, विद्वान्, निरासक्त, कठोर सिद्धांतवादी, ब्राह्मण साहित्याचार्य चंद्रशेखर शास्त्री के प्रथम पुत्र के रूप में, इलाहाबाद के गंगातटवर्ती दारागंज मुहल्ले में प्रथम भूमि-स्पर्श किया था। मेरे पिता ने तत्कालीन शाहाबाद जिले के निमेज ग्राम के संपन्न जीवन, अच्छी-खासी ज़मींदारी और सुख-वैभव का त्याग कर के निष्किंचन-व्रत धारण किया था और वह इलाहाबाद में जा बसे थे। सन १९३४ में वहीँ उन्होंने शरीर-त्याग किया था। उस समय में २४ साल का था।
जब मेरी उम्र स्कूल जाने की हुई, तो गांधीजी का असहयोग आन्दोलन चरम उत्कर्ष पर था। स्कूली शिक्षा से मैंने मुंह मोड़ा तो फिर कभी उस ओर मुड़कर नहीं देखा। स्कूल का मुंह मैंने भले ही न देखा हो, लेकिन मैं इतना बड़ा भाग्य लेकर आया था किजिस परिवार में, जिस पिता का पुत्र होकर जन्मा था, वहां निरंतर देश भर के चोटी के विद्वानों का जमघट लगा रहता था। में उसी वातावरण में, उसी परिवेश में पलता-बढ़ता रहा। स्वभावतः बच्चे जिस उम्र में खेल-कूद और धमाचौकड़ी में मशगूल रहते हैं, उसी उम्र में मुझे पढने का व्यसन लग गया। मुझे आज भी इस बात का कोई अफ़सोस नहीं है कि मैं किसी तरह का कोई खेल न तो जानता हूँ, न उसकी समझ ही रखता हूँ।
मैंने पढ़ना शुरू किया तो पढता ही चला गया। यह तमीज तो थी नहीं कि क्या पढ़ना चाहिए और कैसे पढ़ना चाहिए, सो, मेरे हाथ जो पुस्तक लगी और जिसमे मन रमा, उससे ही पढने का सिलसिला चलता रहा। धीरे-धीरे मेरे मन में यह स्पष्ट होता गया कि मेरे पढ़ने के प्रिय विषय कथा-साहित्य, भ्रमण-वृत्तान्त, जीवनियाँ और कवितायें हैं। सबसे पहले मैंने पिताजी के पुस्तकालय की अपनी रूचि की सारी पुस्तकें पढ़ डालीं, फिर शहर के बड़े-बड़े पुस्तकालयों का सबसे छोटी उम्र का सदस्य बनकर वहाँ की पुस्तकों का दीमक बन गया। कुछ समय बाद जब अन्य भाषाओं का साहित्य पढने की इच्छा बलवती हुई, तो मैंने स्वयं प्रवृत्त होकर बँगला, गुजराती, अंग्रेजी आदि भाषाएँ सीखीं और उनका साहित्य भी पढ़ा। जब मैं दस वर्ष का था, बँगला से मेरे द्वारा अनूदित दो उपन्यास इलाहाबाद के बेल्वेडियर प्रेस ने छापे थे। तब से आज तक रुकते-बढ़ते मेरे लेखन का क्रम चल रहा है। प्रभु जब तक मुझे काम करने लायक रखेंगे, मैं काम करने से मुंह नहीं मोडूँगा--कोई-न-कोई उपयोगी और लोकहितकारी काम करता ही रहूंगा।
बहुत छोटी उम्र से ही मेरे मन में यह भावना बद्धमूल हो गई थी कि 'ज़िन्दगी कि पहली शर्त ईमानदारी होनी चाहिए।' मैंने ईमानदारी के साथ इस भावना के अनुकूल आचरण करने की कोशिश की है और इसकी कड़ी कीमत चुकाई है। लेकिन आज भी मेरे मन में संतोष है कि ज़िन्दगी भर संघर्ष मैंने चाहे जितना कठोर किया हो, श्रम चाहे जितना अधिक किया हो, ईमानदारी की शर्त का पालन करने की निरंतर कोशिश की है।
भौतिक रूप से अपनी लम्बी ज़िन्दगी में मैंने खोया बहुत अधिक है, पाया बहुत कम है। लेकिन मलाल मुझे इसका भी नहीं है। मैं दरिद्रता का वरण करनेवाले पिता का पुत्र था, धनार्जन की बुद्धि मुझमे थी नहीं, छोटी उम्र में बड़े परिवार के भरण-पोषण की जिम्मेवारी मुझे उठानी पड़ी थी। इस सब का परिणाम यह हुआ कि प्रभु ने मुझे थोड़ी-बहुत जो प्रतिभा दी थी, उसमे जो सामान्य संभावनाएं थीं, मैं उस प्रतिभा का समुचित उपयोग नहीं कर सका, उन संभावनाओं के योग्य नहीं बन सका। लेखन यदि आजीविका बन जाए, तो अच्छा लेखन नहीं हो सकता। इसलिए अपने लेखन से मुझे कभी संतोष नहीं हो सका। लेकिन जिन परिस्थितियों पर मेरा वश नहीं था, उनके लिए मुझे अफ़सोस भी क्यों हो ? पभु ने जिस काम के लिए मुझे मनुष्य का जन्म दिया था, मैंने पूरी निष्ठां और ईमानदारी से वही सब किया।
यह सच है कि मैंने बहुत लिखा है, कम-से-कम साठ बरस से तो नियमित रूप से लिखता ही रहा हूँ। सन १९४८ से ७० तक रेडियो में रहा, तब भी अधिकांशतः लिखता ही रहा। १५-१६ वर्ष कि आयु से ७० वर्ष की आयु के बीच कई पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया, जिनमे सन ४० में प्रकाशित और भाई सच्चिदानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' और मेरे द्वारा संयुक्त रूप से संपादित मासिक 'आरती' ने कीर्तिमान बनाया था। डॉ० राजेंद्र प्रसाद ने उसका मुख्या संरक्षक बनना स्वीकार किया था और उसके लिए जो कुछ किया था, वह अविस्मरणीय है। खेद है, वह सन ४२ में बंद हो गई। संतोष मुझे इस बात का है कि अपनी पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा मैं अनेक नए और अनगढ़ लेखकों-कवियों को प्रकाश में ला सका। उनकी रचनाओं के परिशोधन और परिमार्जन में मैंने काफी समय दिया और श्रम किया।
इस अर्थ में अपने को बड़ा सौभाग्यशाली मानता हूँ कि अपने यशस्वी पिता के कारण मैं देश के चोटी के संस्कृत-हिंदी विद्वानों के निकट संपर्क में रहा। देशरत्न डॉ० राजेंद्र प्रसाद, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन और हुतात्मा गणेशशंकर विद्यार्थी का असीम वात्सल्य मुझे प्राप्त था। प्रसाद, निराला, पन्त और महादेवीजी के निकट संपर्क का सौभाग्य मुझे प्राप्त रहा था। नव-तारुण्य में बच्चन मेरे बड़े भी बने तो प्रभु-कृपा से आज भी बने हुए हैं। 'अज्ञेय' जी ने मुझ अज्ञ को बड़ा भाई माना तो जीवनपर्यंत इतना सम्मान दिया कि मैं संकोच से पानी-पानी होता रहा। उन्होंने 'आरती' के सम्पादन-काल से अपने जीवन के अंत तक मेरा जितना ख़याल रखा, मेरे लिए जो कुछ किया, उसे भुला पाना असंभव है। कोई परम कृतघ्न ही उसे भुला पाने की बात भी सोच सकता है।
जब मैं ७५ का हुआ तो मैंने विश्राम लेना चाहा था, लेकिन प्रभु की ऐसी इच्छा नहीं थी। उन्हीं के आदेश से ७६ वें वर्ष से मैंने अपने पिता के द्वारा अनूदित और सन १९२८ में प्रकाशित वाल्मीकीय रामायण के मूल-सह-हिंदी अनुवाद के प्रकाशन का कार्य आरम्भ किया। यह काम चार लाख रुपयों के खर्च का था और मैं सर्वथा धन-साधन-विहीन एक सामान्य व्यक्ति था। मेरे मित्रों ने कहा की बुढापे में 'मुक्त' जी का दिमाग फिर गया है। जिस आदमी की उम्र ७५ वर्ष की हो गई हो] जिसकी आखें निहायत खराब हों और जिसके पास पैसों के नाम पर कुछ न हो, वह चार लाख रुपयों के खर्चवाला काम उठा ले तो उसे और क्या कहा जाएगा ? विद्या-वाणी-विलासी डॉ० कर्ण सिंह ने मुझसे कहा था की "इस उम्र में, इन आखों से, ऐसी आर्थिक स्थिति में आप यह काम पूरा न कर पायेंगे।" उनका कथन असंगत नहीं था। मेरे जैसे अक्षम और असमर्थ व्यक्ति के लिए यह प्रयास वैसा ही था, जैसा बौने का चाँद को छूने का प्रयास हो। किन्तु यह तो प्रभु का काम था। उन्हीं की कृपा और मित्रों के सहयोग से रामायण के पांचवे यानी सुन्दरकाण्ड का मुद्रण समाप्ति पर है। मेरा विश्वास है, अपने जीवन-काल में मैं इसके शेष दो काण्डों का मुद्रण भी करा सकूँगा। मेरे जीवन का अंतिम लक्ष्य यही है। (१)
अस्सी वर्षों के बाद व्यक्ति के पास कितना समय रह जाता है ? अब तो मेरे चरण मरण की ओर उन्मुख है। मैंने सामान्य व्यक्ति के रूप में जन्म पाया था, सामान्य व्यक्ति के रूप में अस्सी वर्षों का समय बिताया, मेरी आतंरिक कामना है कि मरने के बाद भी मैं सामान्य यां अज्ञात ही बना रहूँ। मैंने अपने दोनों पुत्रों को कह रखा है कि जब मैं न रहूँ तो वे मुझे तमाशा न बनायें। मेरा अभिप्राय है कि देश भर में फैले मेरे स्नेही और कृपालु मित्रों को मेरे बारे में कुछ लिखने को प्रेरित न करें, अखबारों और रेडियो-टीवी को मेरी मृत्यु की सूचना न दें। एक दिन चुपचाप मैं इस दुनिया में आया था, वैसे ही चुपचाप मैं एक दिन चला जाना चाहता हूँ। प्रभु-कृपा से मेरे दोनों पुत्र आज्ञाकारी हैं। मैं विश्वास करना चाहता हूँ कि वे मेरी इच्छा का सम्मान करेंगे।
अस्सी वर्षों कीलम्बी आयु में मैं किसी को (साहित्य को भी) कुछ दे नहीं पाया हूँ। मुझे खेद केवल इसी बात का है। पाया मैंने बहुत है है। मैं कृत-कृत्य हूँ। जीवन और जगत से मुझे कोई शिकायत नहीं है।
दे न सका कुछ कभी किसी को,
सदा मांगता आया ।
मांगी प्रभु की कृपा, स्वजन का स्नेह,
बहुत कुछ पाया ।।
--प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त'
२७ जनवरी १९९१
पटना .
(१) प्रभु ने पिताजी के जीवन का जो अंतिम लक्ष्य सुनिश्चित किया था, उसका स्पर्श उन्होंने दिसम्बर १९९४ में किया। श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण के उत्तरकाण्ड की प्रतियाँ बनकर घर आयीं । ठीक एक वर्ष बाद २ दिसम्बर १९९५ को उन्होंने देवलोक में निवास पाया।...... शत-शत प्रणाम उन्हें ! ---आनंद ।
[पिताजी का उपर्युक्त चित्र जनवरी १९९५ का है]

शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

खिला मधुमय जीवन का अमलताश ...

[ग्रहण से मुक्ति पाकर प्रकट हुए दिवाकर को सप्रणाम निवेदित]

चंचल, शोख, मदमस्त हवा ने
अपने विस्तृत बाहु-वलय में
स्वप्न बहुत-से सजा लिए थे,
अपनी प्रज्ञा से अनुभूत सत्य भी
मन-दर्पण में बसा लिए थे !
देश-देश वह चली घूमती
मरु-प्रदेश की धानी चूनर
ओढ़ झूमती--
आशाओं के खुले व्योम में
स्निग्ध-रुपहली प्रथम किरण-सी;
रंग बहुत-से उससे होते थे प्रतिभासित,
फिर भी वह थर-थर काँप रही थी,
शांत-सौम्य देवी-प्रतिमा-सी
भू-तल पर घर-घर झाँक रही थी,
शीत-प्रकम्पित इस धरती पर
सारे घर के द्वार बंद थे !

मेरे आँगन की बगिया में
जब वह आयी-- ओस बन गई !
घनीभूत कुहरे से उसकी
खूब ठन गई !

जाने कब-क्यूँ , औचक , कैसे
रवि-रश्मि भटककर इस घर आयी
आलोकित कर कण-कण उसने--
चंचल, शोख, मदमस्त हवा को
स्नेहाभूषण पहना डाले,
सहज प्रीत के रेशमवाले
रंग-रंगीले डोरे डाले !

उस दिन देखा सर्वप्रथम ही
शोख हवा को --
संकुचित और लज्जाकुल होते !
रवि की सतरंगी किरणों में
भीग सहज ही व्याकुल होते !
किन्तु, इसी अकुलाहट में भी
रवि ने अपनी विकट प्रभा से--
बाँध लिया था वायु-वेग को !
दोनों ने मिलकर बढ़ा लिया था
प्रीति-परस्पर के प्रवेग को !!

अब दोनों संग-संग विचरण करते
विस्तृत भू से नील गगन में,
मुदित हुई सारी वसुधा ही
आभार उपजता सबके मन में !

रवि की किरणें ले आयीं अब--
नूतन प्रकाश !
फूले शत-शत मधुमय जीवन का--
अमलताश !!

शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

तूफ़ान का असर देखा...

[पुराने पन्नों से]
यही सूरते-हाल मैंने शामो-सहर देखा,
मैंने हर शख्स में जलता हुआ शहर देखा !

कहीं तो होगा एक आफताब का टुकड़ा,
अंधेरों ने मेरी आँख में क्यों डर देखा !

मिलो बहार से तो महज़ इतना कहना,
क्यों खिजां ने प्यार से मेरा ही घर देखा !

अपनी ज़मीन पर खड़े होने का हक है तुमको,
रिश्तों ने मेरे रंग में कौन-सा कहर देखा !

एक तुम्हारे हाल पर रोने की है फुर्सत किसको,
मैंने हर शाख पर तूफ़ान का असर देखा !

सुकून खोजते क्यों हो आज की दुनिया में दोस्त,
कहाँ-कहाँ नहीं वहशत-भरा मंज़र देखा !

बेसबब क्यों उखाड़ते हो तुम गड़े मुर्दे--
फिर हया की कब्र में क्यों तुमने झाँककर देखा !!

शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

नए वर्ष का अभिनन्दन हो...

नव-वर्षाभिनंदन !

बूँद-बूँद कर हर क्षण रीता,

काल दिवस रहा पीता ।

इसी तरह से मास-दिवस कर

सन दो हज़ार नौ बीता !!

आलोकित पथ हो जीवन का,

जन-मन में उल्लास भरे !

जीवन-उपवन में हो सुगंध,

शतदल हों सारे हरे-हरे !!

रहे चमकता उन्नत भारत,

भाल तिलक हो, चन्दन हो !

दो हज़ार दस के सूरज का,

वंदन हो, अभिनन्दन हो !!

{ब्लॉगर मित्रों को नव-वर्ष पर अमित-अमित शुभकामनाएं--आनंद वर्धन.}