सोमवार, 25 अप्रैल 2016

जब भालूजी भये हनुमान...

जो लोग बच्चों को नादान समझते हैं, वे सचमुच नादान हैं। चंट बच्चा नादान नहीं होता, वह अपनी उम्र से अधिक कल्पनाशील, उद्यमी और कारसाज़ होता है। हमीं हैं, जो गफलत में रहते हैं और उसकी उड़ान को पहचान नहीं पाते। यह महज़ एक कथन नहीं है, इस बात का पुष्ट प्रमाण मेरे तरकश में है। एक वाकया सुनाता हूँ। लेकिन इसे छोटे बच्चों को मत सुनाइयेगा, अन्यथा वे इसकी प्रामाणिकता सिद्ध करने के प्रयोग में जुट जाएंगे।

बात पुरानी है--सन् १९६०-६१ के आसपास की। तब बड़ा उद्धमी था मैं ! पटना के श्रीकृष्णनगर में माता-पिता, भाई-बहनों के साथ रहता था। आज तो श्रीकृष्णनगर, किदवईपुरी, चकारम, श्रीकृष्णपुरी और गंगा के घाट तक कंकरीट का जंगल खड़ा हो गया है, सघन आबादी पसर गयी है, लेकिन उस ज़माने में घने जंगल, पेड़-पौधे, आम-अमरूद के बगीचे थे वहाँ ! सुबह के विद्यालय से लौटकर मैं सारा-सारा दिन उन्हीं वन-वीथियों में भ्रमण करता, चिड़ियों पर तीर का निशाना साधता और आम-अमरूद चबाता रहता। अजब बेफिक्री के दिन थे वे। पिताजी आकाशवाणी और माताजी माउंट कार्मेल हायर सेकेंड्री स्कूल तथा बड़ी दीदी अपने विद्यालय में होतीं दिन-भर के लिए, छोटे भाई और बूढ़ी दादी का मुझ पर कोई ज़ोर न चलता और मैं मनमानी के लिए परम स्वतंत्र रहता ! मेरी क्लास तो तब लगती, जब शाम के वक़्त ये सभी लोग घर आ जाते। मैं भी एहतियातन उनसे थोड़ा पहले ही जंगलों की सैर से लौट आता। दादी और अनुज किसी दण्ड या फटकार से मेरी रक्षा के लिए प्रयत्नशील हो उठते। असत्य-वाचन से प्रायः विमुख रहनेवाले मेरे अनुज ज्यादातर मौन साध लेते, लेकिन दादी कहतीं--"बड़का बबुआ? ना, ऊ तs एहिजे ओसारा में दीन भर खेलत रहले।" और दण्ड इस बात पर आ ठहरता कि मैं दिन-भर खेलता क्यों रहा, पढाई क्यों नहीं की ?

माँ जितनी स्नेही थीं, उतनी ही अनुशासनप्रिय भी। घड़ी की सुइयों पर हमारा दिन-भर का रूटीन तय कर दिया था उन्होंने। और, अनुशासन-बद्ध रहना तो मेरी प्रकृति-प्रवृत्ति में ही नहीं था। जाने किस सनसनाते घोड़े पर सवार रहता था मेरा मन, किसी की कुछ सुनता-मानता ही नहीं था! बस, पिताजी के सामने मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती थी। उनकी कोप-दृष्टि से बच गया, तो समझिये, दिन पार लगा !

प्रतिदिन के अभ्यास के अनुसार उस दिन भी निकल गया था मैं आखेट पर--खजूरबन्ना से भी आगे के जंगलों में। वहाँ जामुन का बड़ा-सा वृक्ष था, जिस पर बैठी थी रंग-बिरंगे पंखोंवाली एक सुन्दर चिड़िया। वह फुदक-फुदककर एक डाली-से दूसरी डाल पर जा बैठती थी। मैं बहेलिया बना, उस पर निशाना साध रहा था और वह बार-बार डाल-परिवर्तन से मुझे भ्रमित कर रही थी। डाल-डाल पर मेरी दृष्टि नर्तन कर ही रही थी कि अचानक एक डाल पर वह ठहर गयी, वहाँ मधुमक्खियों का एक बड़ा-सा छत्ता था, जिस पर असंख्य मधुमक्खियाँ भिनभिना रही थीं। वह सुन्दर चिड़िया मुझे मधु का छत्ता दिखाकर जाने कहाँ विलुप्त हो गयी। शर लक्ष्य-संधान के लिए चला ही नहीं और मैं उसी जामुन के पेड़ के पास यह सोचता देर तक बैठा रहा कि इस छत्ते में कितना मीठा और अप्रदूषित शहद होगा ! वह छत्ता हाथ आ जाए तो? लेकिन सच तो यह था कि मधुमक्खियों का आतंक भी मन में समाया हुआ था।

रात-भर मधुमक्खियों का वही छत्ता दिखता रहा मुझे, जिससे बूँद-बूँद टपक रहा था मीठा शहद! मधुमक्खियों की भिनभिनाहट सुनते-सुनते मेरे कान पक गए। सुबह उठा तो मधुमक्खी के उस छत्ते को पाने की एक निर्दोष योजना मेरे मन में आकार पा चुकी थी। अपनी इस योजना में मैंने किसी को अपना सहभागी नहीं बनाया--न छोटे भाई को, न किसी मित्र को। दो दिनों में मेरे मन ने सब कुछ सुनिश्चित कर लिया। योजना के अनुसार सबसे पहले मुझे अपनी रक्षा-सुरक्षा की व्यवस्था करनी थी। उन्हीं दिनों मैंने एक चित्र-कथा अंगेरजी में मुश्किल-से पढ़ी थी--'दि बीयर एंड दि बी।' इस कहानी के प्रभाव में मैंने खुद को भालू बना लेना आवश्यक समझा और इसके लिए अनेक प्रयत्न भी किये। पिताजी का एक मोटा काला कम्बल था--खादी ग्रामोद्योग का, उसकी चौड़ी-चौड़ी पट्टियाँ मैंने चोरी-छुपे कैंची से काट लीं, उन्हीं की काली बन्दरटोपी (मंकी-कैप) खोज निकली, अपना धावकवाला कपडे का जूता, ऊनी दस्ताना और माँ का एक पुराना पावरवाला चश्मा एकत्रित किया। अब जामुन की डाल से लटके मधुमक्खी के छत्ते पर आक्रमण की सारी तैयारी हो चुकी थी।


अगले ही दिन मैंने स्वांग रचा--काले कम्बल की पट्टियाँ हाथ-पैर और पूरे शरीर पर लपेट लीं, माँ का पॉवर वाला चश्मा पहनकर सिर पर बन्दरटोपी डाल ली, हाथो में दस्ताना, पाँवों में मोजा और जूता धारण किया और एक छोटी बाल्टी में चाकू, डोर और थोड़े-से उपले, माचिस के साथ, रख लिए। शीशे में अपना नव-निर्मित स्वरूप देखा तो मैं ही हैरत में पड़ा--मैं बिलकुल चश्माधारी एक भालू-सा दीख रहा था। लेकिन, पावर के चश्मे से कुछ भी स्पष्ट दीखता नहीं था। मैंने चश्मा उतार लिया और सोचा कि जामुन के पेड़ पर चढ़ने के पहले इसे धारण कर लूँगा।

उन दिनों मोहल्ले में बहुरूपिये बहुत आते थे। मैं भी एक बहुरूपिये की तरह निर्भीक भाव से सड़क पर चल पड़ा। पाँच-छह छोटे-छोटे बच्चे मेरे पीछे लगे, लेकिन मुझे ख़ुशी हुई कि कोई मुझे पहचान नहीं पा रहा था। सड़क की राह तक वे मेरे पीछे लगे रहे, लेकिन जैसे ही मैं खजूरबन्ने की तरफ मुड़ा, वे लौट गए। अब मैं अपने अभियान पर अकेला था। चलते-चलते मैं सघन वन में उस जामुन के पेड़ के पास पहुँचा, जहाँ मधुमक्खियाँ थीं, छत्ता था और मीठा शहद था। मेरी कारगुजारियाँ शुरू हुईं। सबसे पहले मैंने उपले को सूखे पत्तों से जलाने और छत्ते के नीचे धूम फैलाने की कोशिश की। उपले अहमक थे, जलते ही नहीं थे। उन्हें जलाने में बहुत वक़्त लगा, लेकिन धुआँ इतना अधिक नहीं हुआ कि मधुमक्खियों को कष्ट होता।
उपलों से उठनेवाले धूम से निराश होकर मैंने सीधे आक्रमण का मन बनाया। मैंने बाल्टी में डोर बाँधी, चाकू को कमर से बंधी बेल्ट में खोंस लिया, माँ का पॉवर ग्लास आँखों पर चढ़ाया और जामुन-वृक्ष की ऊंचाई नापने लगा। बाल्टी में बंधी डोर का एक छोर मेरे साथ-साथ ऊपर उठता जा रहा था। बस, पंद्रह मिनट में मैं छत्ते के पास पहुँच गया। सावधानी से धीरे-धीरे मैंने बाल्टी ऊपर खींच ली। खतरे से भरा काम अब शुरू होनेवाला था। मेरे बाएँ में बाल्टी थी और दाएं में चाकू! मैं डाल से चिपका हुआ, पट लेटकर मंथर गति से सरक रहा था छत्ते की ओर ! मैंने जैसे ही बाल्टी को छत्ते के नीचे लगाकर चाकू से उसे काटना चाहा, मधुमक्खियों ने मुझ पर आक्रमण कर दिया। हज़ारों मधुमक्खियाँ मेरे पूरे शरीर पर आ बैठीं। वे बैठीं, तो काट ही रही होंगी; लेकिन मैं अपनी युक्ति पर गर्व से मुस्कुराया; क्योंकि उनके दंश का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं हो रहा था। मैंने शीघ्रता से छत्ते को चाकू से काटकर बाल्टी में भर लिया और डोर के सहारे बाल्टी को नीचे की ओर सरकाने लगा। अब आक्रोश में भरी मधुमक्खियों के एक बड़े दल ने मुझे ही अपने छत्ते की तरह आयत्त कर लिया था। बाल्टी को ज़मीन पर पटककर मैं मधुमक्खियों का छत्ता बना नीचे उतरने को व्यग्र हो उठा। संकट तब हुआ, जब मधुमक्खियाँ मेरी आँखों पर चढ़े चश्मे के शीशे पर छा गयीं। पावर के उस चश्मे से मुझे वैसे भी बहुत धुंधला दिख रहा था, लेकिन अब तो मैं प्रायः अंधत्व को प्राप्त हो चुका था। नीचे उतरते हुए सहारा देनेवाली अगली डाल कहाँ है, कुछ पता नहीं चल रहा था। मैं बार-बार अपने हाथों से चश्मे पर बैठी मधुमक्खियाँ उड़ाता और एक पग नीचे बढ़ाता। लेकिन, आँखों से मधुमक्खियाँ उड़ाना अंततः बहुत भारी पड़ा। मेरे ही हाथ का एक प्रहार चश्मे पर ऐसा पड़ा कि चश्मा आँखों से उतरकर ज़मीन पर जा गिरा और नाक पर बँधी पट्टी का एक छोर खुल गया, फिर...!

कुछ न पूछिए, फिर क्या हुआ! आँख, नाक, गाल पर क्रुद्ध मधुमक्खियों ने इतने डंक मारे कि मैं मुँह पीटता हुआ और डाली पर तेज़ी से फिसलता हुआ नीचे आ रहा। डाल और तने की रगड़ से शरीर पर बँधी कम्बल की पट्टियां कई जगह से खुल-फट गयीं और मधुमक्खियाँ थीं कि पिंड छोड़ने को तैयार नहीं थीं। अब वहाँ से भाग लेने में ही कुशलता थी। मैंने बाल्टी में चाकू-चश्मा डाला, डोर समेटी और बेतहाशा दौड़ पड़ा। लम्बी दौड़ के बाद मधुमक्खियों का आतंक कुछ कम तो हुआ, लेकिन इक्का-दुक्का वे अब भी मँडरा रही थीं मेरे आसपास! कई तो मेरे चहरे पर ही मरकर चिपकी हुई थीं। लेकिन, मुझ चिड़ीमार को उनकी मृत्यु का किञ्चित क्षोभ नहीं हुआ, बल्कि मन में एक आक्रोश भरा था, दंश की भीषण जलन-पीड़ा और विजयोन्माद के साथ!...

अब मैं खजूरबन्ने में था। मुझे अपनी दशा सुधारनी थी। मैंने कम्बल की पट्टियां खोलीं और उसे वहीं छोड़कर और मुंह-हाथ झाड़कर मैं घर आया। लेकिन घर में प्रविष्ट होते ही संकट सम्मुख खड़ा मिला। माताजी आ गयी थीं और वह मेरे ठीक सामने आ पड़ीं। अपने पहले प्रश्न का उत्तर पाते ही उन्होंने एक झन्नाटेदार थप्पड़ मेरे मुंह पर मारा और हाथ पकड़कर आँगन में ले गयीं, क्रोध में बोलीं--"अपनी हालत तो देखो, पूरा मुंह सूज गया है--हनुमानजी लग रहे हो, हनुमानजी ! क्या जरूरत थी मधुमक्खी के छत्ते को काट लाने की ?"
मैं सोच रहा था कि मैं तो भालू बना था, माँ को हनुमानजी क्यों लग रहा हूँ ?"
'क्षण-भर में भालू से भइया, मैं तो हो गया बंदर,
लेकिन मीठा शहद मिला था उस छत्ते के अन्दर !'

बहुत बाद में, पिताजी ने पोते-पोतियों के साथ 'लूडो' खेलते हुए, विनोद में, कई बाल-कविताएँ लिखी थीं, उनमें से एक यह भी थी--क्या ठिकाना, इसी घटना के स्मरण में उन्होंने लिखी हो--

"एक डाल पर मधु का छत्ता, एक डाल पर बन्दर
बन्दर बैठा सोच रहा था, क्या छत्ते के अन्दर !
सहसा एक बूँद मधु की उसके मुंह में आ टपकी,
चौंक पड़ा वह जैसे अब तक लेता हो वह झपकी !
मधु का स्वाद निराला ज्योंही, मुँह में उसके आया,
बिना विचारे ही उसने, छत्ते में हाथ लगाया !
झुण्ड-झुण्ड मक्खी ने तब, मुँह पर मारा डंक,
मधु की आशा में बेचारा, बन्दर था निःशंक !
पीड़ा से बेहाल, पीटने लगा आप मुँह अपना,
मधु का स्वाद हुआ उस बेचारे को दुःसह सपना !!"
(--प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त')
(चित्र : गूगल सर्च से साभार)

रविवार, 17 अप्रैल 2016

वह सम्मोहिनी बेबी ऑस्टिन--बी.आर.ए.-85 ...

पटना में रहते हुए पिताजी का आवासीय पता रह-रहकर बदल जाता था। वह ज़माना भी ऐसा न था कि एक एस.एम.एस. लिखकर तमाम दोस्तों को बता दिया जाता अपना बदला हुआ ठिकाना! पिताजी के मित्र-बन्धु इतने उदार और हितू थे कि खोज-ढूँढकर उनके पास पहुँच ही जाते और उलाहना देते--"क्या पता था, हम ढूँढते रह जाएंगे, और तुम मिलोगे इक बदले हुए ठिकाने पर!" कई बार तो एक साल में तीन-चार ठिकाने। मुक्त-मन के यायावर प्राणी थे पिताजी भी। मन जहाँ नहीं रमा, चिल्ल-पों हुई, शोर-शराबा मिला, पिताजी ने बोरिया-बिस्तरा समेटा। मेरी माँ परेशाँहाल रहा करती थीं इस आये दिन की बाँध-छान से! जमा-जमाया घर न हुआ, किसी साधु-फ़कीर की धूनी हो गयी कि इस घाट मन न रमा तो उठे, कहीं और चल दिए! एक्जिबिशन रोड, खजांची रोड, मालसलामी, कचौड़ी गली, मंगल तालाब, कदमकुआं, फ्रेज़र रोड--न जाने कितने ठिकाने ! इस खानाबदोशी पर मेरी माँ ने ही विराम लगाया, जब उन्होंने पटना के २३, श्रीकृष्ण नगर में सुनिश्चित आवास का प्रबंध किया !

सन ६० के अंतिम महीनों में कभी, पिताजी सपरिवार श्रीकृष्ण नगर में व्यवस्थित हुए ! तब मैं सिर्फ आठ साल का था--चंचल, बातूनी और नटखट बालक ! एक वर्ष बाद मैं मिलर हाई स्कूल की चौथी कक्षा का विद्यार्थी बना ! श्रीकृष्ण नगर में रहते हुए एक-दो वर्ष ही हुए थे कि पूरा मोहल्ला मेरे प्रशस्ति-गायन में एकजुट होने लगा। सुबह का स्कूल था, ग्यारह-साढ़े ग्यारह तक विद्यालय से मुक्ति पाकर मैं घर लौट आता और उदर-पोषण कर निकल जाता आखेट पर। स्वनिर्मित तीर-धनुष से चिड़ियों का शिकार करता, आम के बगीचों से आम चुराता, मोहल्ले के मकानों के पिछवाड़े के छोटे-छोटे खेतों से मूली-गन्ना-गाजर उखड़ता और फालसा, अमरूद, इमली की दरख्तों पर झूमता-इठलाता, गाता और कैल्टानाकैमरा के फूलों पर मँडराती तितलियों के पर पकड़ता ! शाम होते-न-होते मेरी प्रशस्ति के लिए मुहल्लेवाले आ जुटते। अपनी कर्ण-रक्षा के लिए कान पर अपनी दोनों हथेलियाँ रखकर मैं एक अपराधी-सा खड़ा हो जाता माताजी के सामने! वह कोई मुरौव्वत न करतीं, भर्त्सना तो होती ही, कठोर दण्ड भी मिलता !

उन्हीं दिनों की बात है। वैसे तो श्रीकृष्ण नगर में पिताजी के कई मित्र थे, लेकिन एक बहुत पुराने मित्र थे--अयोध्या बाबू ! उनके सुपुत्र धनञ्जयजी का एक गैरेज था, जिसमें कारों की मरम्मत होती थी ! एक दिन पिताजी अयोध्या बाबू के पास बैठे हुए थे और बातें चल रही थीं। पिताजी ने अयोध्या बाबू से कहा--"चौराहे से आसानी से रिक्शा नहीं मिलता और मुझे रोज़ रेडियो पहुँचने में विलम्ब हो जाता है। सोचता हूँ, एक सेकण्ड-हैण्ड कार ही खरीद लूँ। मुश्किल यह है कि गाड़ी खरीदने के लिए मेरे पास पैसे नहीं हैं !"
पिताजी की बात धनञ्जय भइया भी सुन रहे थे। उन्होंने पिताजी से कहा--"एक पुरानी ऑस्टिन कार गैरेज में आई है, बनने के बाद बिकने लिए। रिंग-पिस्टन बदल दिया जाए तो गाड़ी चल पड़ेगी। आप चाहें तो उसे ही खरीद लें। वह बड़े शान की सवारी होगी। अंग्रेज़ों के ज़माने से दौड़ती रही है। अब जाकर बीमार पड़ी है बेचारी !"
पिताजी ने पूछा--"यह तो बताओ, बनने के बाद उसकी कीमत क्या होगी?"
धनञ्जय भइया ने कहा--"अधिक नहीं, ढाई हजार रुपये के आसपास!"
पिताजी ने कहा--"इस 'आसपास' का क्या अर्थ?"
वह बोले--"यही कि ढाई के कुछ ऊपर या नीचे !"
पिताजी ने अयोध्या बाबू से कहा--"लेकिन मेरी जेब में तो अभी सिर्फ ढाई रुपये हैं, गाड़ी खरीदने का साहस मैं कैसे कर सकता हूँ?"
अयोध्या बाबू ने भोजपुरी कहा--"रुपइया के का बात बा? आवत रही। रउआ खाली खरीदे के सँकार लीहीं अउर कुछुओ नेग कs दीहीं। गड़िया रवाँ नामे भइल।" (रुपये की क्या बात है, वह आ जाएगा। आप सिर्फ गाड़ी खरीदना स्वीकार कर लीजिए और कुछ भी रकम नेग-स्वरूप दे दीजिये, गाड़ी आपके नाम हुई।)
पिताजी उत्साहित हुए और जेब से डेढ़ रुपये निकालकर गाडी का बयाना दे आये। लेकिन ढाई-तीन हज़ार रुपये भी उस ज़माने में बहुत वज़नदार थे। इतनी राशि का प्रबन्ध भी कठिन पड़ता था। आज के युग के लोग इस कठिनाई को नहीं समझ सकेंगे, जो एक शाम सपरिवार होटल में जाकर रात के खाने पर ढाई-तीन हजार रुपये खर्च कर आते हैं। बहरहाल, कई किस्तों में गाड़ी की दूनी कीमत (पांच हज़ार) चुकाई गयी और एक दिन बन-बनाकर और धुल-पुछकर बेबी ऑस्टिन कार बी.आर.ए.-85 हमारे दरवाज़े आ लगी--लाल बॉडी, काला मडगार्ड और काला हुड! गर्मी के दिनों में उसका हुड उठाकर पीछे समेट दीजिये तो वह हवाखोरी की शानदार सवारी बन जाती थी।

गाड़ी तो आई ही, अपने साथ वह रिंग भी ले आयी, जिसे मरम्मत के दौरान निकाला गया था। वह बाकमाल खालिस पीतल का रिंग था। पिताजी ने न जाने किस कारीगर से उस पीतल के एक दर्जन छोटे-छोटे सरौते बनवाए थे और अपने मित्रों में बाँट दिए थे। एक सरौता उन्होंने सुमित्रानन्दन पंतजी को भी दिया था। शब्दशः तो नहीं, लेकिन मुझे याद है वह पोस्टकार्ड, जिसमें पंतजी ने लिखा था--"मुक्तजी, ... आप कुछ भी कहें, मुझे तो अपनी वही छोटी सरौतिया आज भी प्रिय है !"

बाद में, पिताजी से ही मालूम हुआ कि बी.आर.ए.-85 का स्वतंत्रता-पूर्व का इतिहास बड़ा रोचक था। वह बिहार-विभूति बाबू अनुग्रह नारायण सिंह की गाड़ी थी, जो कालांतर में बिहार के प्रथम उप-मुख्यमंत्री और वित्त-मंत्री बने थे। उसमें देश की बड़ी-बड़ी हस्तियों ने यात्राएं की थीं और वह बिहार के चप्पे-चप्पे से वाकिफ थी।

गाड़ी के आते ही पिताजी उसीसे रोज़ दफ़्तर जाने लगे। वह बहुत संतुलित गति से गाड़ी चलाते थे। उन्होंने कभी किसी ठीकरे को भी ठोकर नहीं मारी। गाड़ी चलाने का उनका अभ्यास पुराना था। कई वर्ष पहले भी उनके पास एक अन्य ऑस्टिन कार थी, जो मैग्नेटिक सिस्टम से चलती थी। बैटरी की उपयोगिता उसमें सिर्फ रोशनी के लिए थी और चूँकि पिताजी शाम के बाद आमतौर पर गाड़ी चलाते नहीं थे, इसलिए उसमें बैटरी भी नहीं थी। उन्हीं दिनों का वाकया है, पिताजी के अभिन्न मित्र बच्चनजी पटना आनेवाले थे। पिताजी उन्हें लेने रेलवे स्टेशन गए, लेकिन गाडी विलम्ब से आई और अँधेरा हो गया। उस दिन पिताजी, बच्चनजी के साथ थोड़ी कठिनाई से गाड़ी चलाकर घर पहुंचे थे! इस प्रसंग का व्यंग्यात्मक उल्लेख अपने समय के प्रसिद्ध नाटककार, 'लोहासिंह' नाटक और फ़िल्म से विख्यात तथा हास्य-व्यंग्य लेखक के रूप में मशहूर रामेश्वर सिंह काश्यप ने एक आलेख में बहुत रोचक ढंग से किया था। जब वह आलेख प्रकाशित हुआ तो उसे पढ़कर पिताजी ने ठहाके लगाए थे और रह-रहकर हँस पड़ते थे।
काश्यपजी ने जो कुछ लिखा था, वह इस प्रकार था--बच्चनजी को लेकर मुक्तजी अपने अनुज भालचन्द्रजी के साथ स्टेशन से चल तो पड़े, लेकिन अंधकार था और हेडलाइट थी कि जलती नहीं थी। मुक्तजी की कार की संतुलित गति अन्धकार के कारण अब मंथर हो गयी थी और उसे भीड़ से निकाल ले चलना कठिन हो रहा था। अंततः मुक्तजी ने ही समाधान की राह निकली और चार सेलवाली एक चोरबत्ती (टॉर्च) भालचन्द्रजी के हाथो में सौंप दी। फिर तो मज़े से सफ़र कटा। सफर का वह दृश्य कुछ ऐसा था--चोरबत्ती जलाकर भालचन्द्रजी गाड़ी के आगे-आगे दौड़ते रहे और मुक्तजी उसी के प्रकाश में मंथर गति से कार चलाते हुए घर पहुँचे--सकुशल!' गंतव्य तक पहुँचने में वक़्त कुछ ज्यादा ज़रूर लगा, लेकिन बच्चनजी-मुक्तजी स्वस्थ-प्रकृतिस्थ घर के दरवाज़े पर कार से उतरे! परन्तु दर्शनीय और दयनीय दशा तो भालचन्द्रजी की थी, जो पसीने से तर-ब-तर थे, बेहाल थे।

बच्चनजी का आगमन और पिताजी का उनको रिसीव करना--इतने सच को एक किनारे कर दें, तो शेष कथा पूरी तरह काल्पनिक थी, लेकिन उसका आनंद सुपठित समाज ने रस ले-लेकर उन दिनों खूब उठाया। यहां यह उल्लेख अप्रासंगिक नहीं होगा कि मेरे छोटे चाचा भालचन्द्रजी, काश्यपजी के घनिष्ठ मित्र थे।
श्रीकृष्ण नगर मोहल्ले में हमारे घर के आसपास ही पिताजी के कई हित-मित्र, बन्धु-बाँधव थे--सर्वश्री रामवृक्ष बेनीपुरी, राधाकृष्ण प्रसाद, श्रीचतुर्भुज, रामेश्वर सिंह काश्यप, उपाध्यायजी (पूरा नाम अब स्मरण में नहीं रहा) आदि। इनमें राधाकृष्ण प्रसाद और नाटककार श्रीचतुर्भुज पिताजी के सहकर्मी मित्र थे--आकाशवाणी तक प्रतिदिन के सहयात्री! बी.आर.ए.-85 सबको साथ ले चलती। आकाशवाणी परिसर में, अशोक वृक्ष की छाया में, दिन भर आराम करती और शाम होते ही अंगड़ाई लेकर सजग-सावधान हो जाती, पिताजी की अगवानी में ! पिताजी अपनी मित्र-मण्डली के साथ आते और गाड़ी पर बैठकर उसे जिधर चलने का आदेश देते, उधर चल पड़ती--निर्विरोध। नलिनविलोचन शर्माजी, राँची के प्रसिद्ध नाटककार-व्यंग्यकार राधाकृष्णजी, उर्दू अदब के प्रसिद्ध हस्ताक्षर सुहैल अज़ीमाबादीजी, भुवनेश्वर मिश्र 'माधव'जी, बटुकदेव मिश्रजी--ये सारे लोग उसकी सवारी का आनंद आये दिन उठाते थे--कभी पिन्टू के रसगुल्लों के लिए, कभी लखनऊ स्वीट हाउस की मिठाइयों के लिए, कभी सोडाफाउंटेन के चाय-समोसे के लिए, तो कभी कॉफी हाउस की कॉफी के लिए।

वृद्ध हो चुकी बी.आर.ए.-85 पिताजी के बड़े काम आई। एक वर्ष तक उसने जमकर श्रम किया और पिताजी को कभी कोई कष्ट नहीं होने दिया। वह पिताजी की पहचान बन गयी थी--उनके किसी भी ठिकाने पर पहुंचने की अग्रिम सूचना-सी ! पिताजी भी उसका बहुत ख़याल रखते और इतने मनोयोग और ऐसी एकाग्रता से उसे चलाते कि सड़क पर होनेवाली हलचल के अलावा कुछ न देखते। उनकी एकाग्रता ऐसी एकनिष्ठ थी कि मार्ग के दाएं-बाएं से मिलनेवाले अभिवादनों पर भी उनका ध्यान न जाता था। ऐसे लोग घर आकर जब कहते कि 'उस दिन मैं प्रणाम / नमस्कार / गाड़ी रोकने का आग्रह करता ही रह गया और आप तो बिलकुल अनदेखी कर आगे बढ़ गए, किसी बात से नाराज हैं क्या?' पिताजी उन्हें अपनी एकाग्रता और कार-चालन के दौरान अपने मनोयोग का हवाला देकर विनम्रता से क्षमा-याचना करते!

पिताजी अपनी विस्मरणशीलता के लिए भी ख़ासे प्रसिद्ध थे। एक बार तो हद्द हो गयी। मेरी माँ को पूजन लिए अगमकुआँ मंदिर जाना था और पिताजी को उससे आगे बाँकीपुर तक--किसी औषधि के लिए। निश्चित हुआ कि पिताजी माताजी को अगमकुआँ पर गाड़ी से उतारकर दवा लेने बाँकीपुर चले जायेंगे और वापसी में उन्हें साथ लेते आएंगे। पिताजी ने माँ से कहा--"आप पूजन करके सड़क के किनारे आकर मेरी प्रतीक्षा कीजियेगा, मैं शीघ्र ही आ जाऊँगा। संभव है, मैं ही पहले आ जाऊँ, ऐसी स्थिति में अमुक स्थान पर मैं आपकी प्रतीक्षा करूँगा।"
लेकिन, पूजन से निवृत्त होकर माताजी ही पहले सड़क के किनारे आ खड़ी हुईं और पिताजी का इंतज़ार करने लगीं। बी.आर.ए.-85 ऐसी सुदर्शना और सतरंगे परिधान में होती कि वाहनों की सघन भीड़ में भी उसे आसानी से पहचाना जा सकता था। माँ ने दूर से ही देख लिया कि वह सुरूपा इठलाती चली आ रही है। वह थोड़ा पास आयी तो माँ ने अपना हाथ उठाकर उससे रुकने का अनुरोध किया, इशारा दिया। लेकिन वह तो सिर्फ पिताजी का आदेश मानती थी, रुकी नहीं और फर्राटा भरती चलती चली गयी। माँ पैर पटकती, खीझती रह गयीं। अंततः एक रिक्शे से वह घर आईं--क्रोध से भरी हुई और घर में दाखिल होते ही पिताजी पर बरस पड़ीं--"आप तो कमाल करते हैं जी, मैं हाथ उठाकर गाड़ी रोकने का इशारा ही करती रह गयी और आप मज़े-से आगे बढ़ गए?" माताजी को देखते ही पिताजी ने अपने अक्षम्य अपराध को पहचान लिया था। उन्होंने शान्ति धारण कर ली और माताजी के क्रोध का क्षरण होना देखते रहे। थोड़ी देर में माताजी शांत हुईं तो पिताजी ने कहा--"मैं सड़क देखता हूँ, सड़क के किनारे खड़े स्त्री-पुरुषों को नहीं। क्षमा करें, मैं तो बिलकुल भूल ही गया कि लौटते हुए...!" पिताजी ने यह वाक्य विनोद में और अपने अपराध के मार्जन के लिए कहा था, लेकिन वह माता की क्रोधाग्नि में घृत-सा जा गिरा। उन्होंने पिताजी को घूरकर देखा और इतना कहकर वहाँ से हटने लगीं--"आप तो जाने किस धुन में रहते हैं हरदम... मुझे आपकी कार का क्या सुख...?" पिताजी ने तत्काल मनमोहिनी बी.आर.ए.-85 का पक्ष लिया, बोले--"इसमें उस बेचारी का क्या कुसूर? वह तो परवश है, मेरे आदेश पर रुकती-चलती है...! मैं ही रुकना भूल गया तो इसमें उसका क्या अपराध ?" लेकिन पिताजी का पूरा वाक्य सुनने को माताजी वहाँ थीं नहीं...!

बी.आर.ए.-85 पर पिताजी की प्रीति बढ़ती जा रही थी। लेकिन एक साल के बाद उसके नखरे शुरू हुए--कभी वह स्टार्ट होने से मना कर देती, कभी उसका सेल्फ फँस जाता, कभी बैटरी डाउन हो जाती, कभी रेडिएटर का पानी सूख जाता और कभी फैन-बेल्ट उतर जाता--ऐसे मौकों पर मैं पिताजी के काम आता। पिताजी स्टेयरिंग पकड़कर बैठ जाते, एक्सीलेटर पर अपने पद-प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए और मैं गाड़ी के मुख में लोहे का एक लम्बा रॉड डालकर और झटका दे-देकर उसे देर तक घुमाता। मानिनी का मन होता तो वह स्टार्ट हो जाती अन्यथा अपने कुछ मित्रों की सहायता से उसे ठेलकर स्टार्ट होने लिए बाध्य करना पड़ता मुझे। फँसे हुए सेल्फ को स्वयं सुधार लेने का गुर धनञ्जय भइया मुझे दे गए थे। इसके लिए मुझे ही गाड़ी के नीचे चित लेटकर एक चिन्हित नट तक रिंच के साथ पहुँचाना होता था और नट को थोड़ा-सा नचा देने पर सेल्फ काम करने लगता था। अब, आये दिन मुझे उसके नीचे सँकरे रिक्त स्थान में लेटकर प्रवेश करना पड़ता और आवश्यक सुधार कर बाहर आना पड़ता।

ढाई-तीन वर्षो बाद उसका स्वास्थ्य ज्यादा खराब रहने लगा। छुटपुट सुधार से उसकी तबीयत ठीक न होती और उसे गराज की शरण में जाना पड़ता। उसके बीमार होने से पिताजी दुखी रहते। व्यय तो होता ही, असुविधा भी बहुत होती। महीने में एक बार डी.लाल एंड सन्स से राशन ले आना और साप्ताहिक रूप से अंटाघाट की ताज़ा सब्ज़ियाँ पीछे की सीट पर भर लाना संभव न हो पाता। ऐसे अवसरों पर माताजी खीझकर कहतीं--'उसे गराज में ही रहना है और सिर्फ हमारी जेब ढीली करनी है तो बेच ही दीजिये न! उसे पालने का क्या लाभ?" पिताजी माँ की बात सुनते ज़रूर, लेकिन मानते नहीं। उन्हीं की प्रगाढ़ प्रीति की डोर से हमारे ही द्वार पर बँधी रही हमारी प्यारी 'बेबी ऑस्टिन'! मिलर हाई स्कूल के खेल के मैदान में, मैंने अपनी ही ज़िद पर, जीवन में पहली बार पिताजी के सहयोग से तब कार चलाई थी, जब मेरे पाँव ब्रेक-एक्सीलेटर पर पहुँचते तो सिर विंड-स्क्रीन के नीचे चला जाता ! लेकिन मैं बड़ा खुश हुआ कि मेरे चलाने से वह शोभना चल पड़ी थी और फील्ड के दो-तीन चक्कर मुझे घुमा लायी थी। उस दिन के बाद तो मैं तकियों का जोड़ा लेकर स्कूल के मैदान तक जाने लगा था।...

पांच-छह वर्षों तक पिताजी ने बी.आर.ए.-85 की बड़ी प्रीति और ममता से पालना की और हांफते-काँपते-छींकते उसने भी पिताजी की बहुत सेवा की, लेकिन दोनों छोटे भाई-बहन को साथ लेकर माताजी के नौकरी पर राँची चले जाने के बाद श्रीकृष्णनगर में बसा-बसाया आशियाना उजड़ गया। मैं और बड़ी दीदी छात्रावास की शरण में गये और पिताजी मेरी ननिहाल में। इस बिखराव की दशा में मधुमती (कार) भी अवहेलना शिकार रही और गम्भीर व्याधियों से ग्रस्त हो गई। उसे बार-बार रुग्णशाला से दुरुस्त करवाते हुए पिताजी भी थक गए थे। अंततः हार मानकर उन्होंने उसे अपने से विलग कर दिया। इससे उनका मन आहत हुआ, मर्म को चोट लगी और कई दिनों तक उसके ग़म में वह दुखी भी रहे। बार-बार कहते--'क्या मुश्किल थी, आज वह होती तो अमुक काम आसानी से कर आता मैं। वह होती तो ऐसा होता, वह होती तो वैसा होता। वह क्या गयी, दरवाज़े की तो रौनक ही चली गयी।'.... मुझे विश्वास है, उस ज़माने में जिन लोगों ने उसे देखा है, वे भी बी.आर.ए.-85 और पिताजी की सम्मिलित छवियाँ आज तक भूले न होंगे !...

सचमुच, वह गयी, तो वर्षों दिखी नहीं मुझे। मैं भी सोचता रहा, कहाँ चली गयी वह? ठीक-ठाक होगी न, चलती होगी या किसी गैरेज अथवा कबाड़ख़ाने में पड़ी रद्दी के भाव तुल जाने की राह देखती होगी वह !...

तब कॉलेज में पहुँच गया था मैं। एक दिन, शाम के वक़्त, किसी ट्यूशन से लौट रहा था तो देखा एक शिवाले के सामने वह सम्मोहिनी बी.आर.ए.-85 अनमनी-सी खड़ी है। उसका शृंगार किया जा है ! झालर, सलमे-सितारे, रंगीन पन्नियों और फूलों से सजाया जा रहा है उसे ! समझ गया, किसी दूल्हे को परिणयाकांक्षिणी कन्या के द्वार तक ले जाने को तैयार हो रही है वह। जब ठीक उसके सामने और पास पहुँचा तो लगा, अपने लट्टूनुमां हेडलाइट की आँखें झपकाकर वह मुस्कुराई हो जैसे ! ठीक उसके बगल से गुज़रते हुए मैंने हाथ बढाकर उसे थपकियाँ दीं और प्यार से सहलाते हुए आगे बढ़ गया। थोड़ा आगे बढ़ जाने पर मैंने जाना, मेरी आँखें नम थीं।... दस-पंद्रह कदम आगे बढ़ा तो स्वयं को संयत कर, उस बेज़ुबान और बेजान मशीन के प्रति मेरे मन में करुणा उत्पन्न करने के लिए मैंने प्रभु को धन्यवाद दिया। ...

[गूगल सर्च से 'बेबी ऑस्टिन' का प्राप्त चित्र, रंग-रूप में हू-ब-हू वैसा ही! फर्क सिर्फ यही कि हमारी गाड़ी के चक्कों में स्पोक्स थे और इस गाड़ी में कास्ट आयरन के हैं!)

गुरुवार, 14 अप्रैल 2016

हित-अनहित चीन्हे नहिं कोय...


'बिजली' और 'आरती' का ज़माना बीत गया था। १९४८ में पिताजी आकाशवाणी, पटना से 'हिंदी-सलाहकार' के रूप में जुड़ गए थे। चार वर्ष बाद दुनिया में उधम मचाने के लिए मैं भी आ धमका, लेकिन उधम मचाने की योग्यता पांच-छः वर्ष बाद मुझे प्राप्त हुई थी। मुझे ठीक-ठीक स्मरण है, जब मैं सात-आठ साल का बालक था, रामचन्दर फोरमैन नामक एक व्यक्ति, मेरी ननिहाल के विशाल प्रांगण में, पुष्प-वाटिका के छोटे-छोटे वृक्षों के नीचे बने प्रस्तर-प्रखंड पर आकर चुक्के-मुक्के बैठ जाते! उनके नयन-कोरों पर कीच होती, शरीर पर जर्जर कुरता और खालता पायजामा, जिसे बैठने के बाद वह घुटनों तक चढ़ा लेते ! उनके पैर हस्ती-पद थे! यह तो मुझे बाद में पता चला कि उन्हें 'साँझर' रोग था। उस कच्ची उम्र में भी 'मैन' का अर्थ मैं 'आदमी' जानता था, लेकिन 'फोर' का दो ही अर्थ मुझे ज्ञात था--पहला 'चार', दूसरा बिहारी अंदाज़ में 'फोड़ देनेवाला' (वैसे भी बिहार में 'र' को 'ड़' और 'ड़' को 'र' धड़ल्ले से बोलने की सुविधा सहज सुलभ तो है ही!)। 'चार' से 'मैन' की संगति नहीं बैठती थी; क्योंकि रामचन्दरजी दिखते तो एक ही थे, लिहाज़ा, मैं अपनी अल्प-बुद्धि से उन्हें 'फोड़ देनेवाला व्यक्ति' समझता था और इसीलिए उनसे थोड़ा डरता भी था ! लेकिन उधम मचाने की जो सौगात लेकर मैं धरती पर आया था, उससे भला कैसे बाज़ आता?
जानता था, रामचन्दर फोरमैन पिताजी से मिलने आये हैं, फिर भी उनसे थोड़ी दूरी बनाकर खड़ा होता और पूछता--'क्या बात है रामचन्दरजी, किससे मिलना है?'
वह दीन-भाव से कहते--"गुरूजी से बचवा! जाकर कह दो न उनसे, रामचन्दर आया है।'
लेकिन मैं उन्हें परेशान करता--"वह तो बाहर गए हैं।' 'नहा रहे हैं।' 'अभी नहीं मिल सकते, तैयार हो रहे हैं!'' वह मेरा प्रलाप चुपचाप सुनते, कुछ बोलते नहीं, लेकिन दीन-भाव में मुस्कान की एक क्षीण-मलिन रेखा उनके अधरों पर मचलती और तिरोहित हो जाती। मैंने उन्हें चाहे जितना परेशान किया हो, उन्होंने कभी मुझे 'फोड़ा' नहीं, न कभी कोई क्षति पहुँचाई।

नौ-दस का होते-होते मैं जानने-समझने लगा था कि रामचन्दरजी 'बिजली' और 'आरती' के दिनों (१९३७-४२) में पिताजी के 'आरती मन्दिर प्रेस', पटनासिटी के वेतनभोगी कर्मचारी थे और 'फोरमैन' के पद पर काम करते थे। उन दिनों ये दोनों स्तरीय साहित्यिक पत्रिकाएँ पिताजी के सम्पादन और स्वामित्व में निकलती थीं। पिताजी से ही सुना है, अपनी युवावस्था में रामचन्दरजी एक स्वस्थ-कर्मठ व्यक्ति थे। १९४८ के बाद, 'आरती मन्दिर प्रेस' के बंद हो जाने पर, वह दुरवस्था को प्राप्त हुए। उन्हें अत्यधिक मद्यपान का व्यसन लगा, फिर शरीर को व्याधियों ने घेर लिया। उनकी पुष्ट काया जर्जर होने लगी ! जिन दिनों में मैंने उन्हें देखा था, वह रोग, शोक, व्याधि, व्यसन से टूट चुके थे। उनका बड़ा बेटा सपत्नीक उनसे अलग जा बसा था और अन्य बच्चे अभी छोटे थे। अपनी दो बेटियों का उन्हें कुछ समय बाद विवाह भी करना था और सबसे छोटा बेटा तो अभी-अभी माता की गोदी से उतरा ही था। आय का कोई साधन नहीं था, घोर विपन्नता की दशा थी। ऐसे में आर्थिक मदद की आकांक्षा से सप्ताह में दो बार तो अवश्य ही वह पिताजी की शरण में आते और पिताजी की डाँट-फटकार सिर झुकाकर शान्ति से सुनते और उनके औदार्य से थोड़ी-बहुत दातव्य-राशि लेकर ही विदा होते।

वह सस्ती का ज़माना था। पाँच-सात रुपये में सप्ताह-दस दिनों का राशन लिया जा सकता था। रामचन्दरजी आर्त्त भाव से पिताजी से कहते भी यही--'गुरूजी! दाने-दाने की मुँहताजी है, बच्चा सब भूख से कलप रहा है! अब ऐसी हालत में आपका दरवाज़ा छोड़कर कहाँ जाऊँ गुरूजी?'
थोड़ा समझाने-बुझाने और डाँट-फटाकर के बाद पिताजी द्रवित हो जाते और जेब में जो फुटकर राशि होती, रामचन्दरजी को दे देते! रामचन्दरजी कृतज्ञ भाव से पिताजी के चरण पकड़ने को बढ़ते और पिताजी दो कदम पीछे हट जाते, यह कहते हुए--'यह सब करने की जरूरत नहीं है। राशन लेकर सीधे घर जाओ।'
रामचन्दरजी के जाने के बाद मेरी माताजी प्रकट होतीं और पिताजी से रोषपूर्ण स्वर में कहतीं--'आपने उससे कह दिया और आपको लगता है कि वह सीधे घर जाएगा? जी नहीं, गलत ख़याल है आपका। आपसे पैसे लेकर वह सीधे कच्ची शराब के भट्ठे पर पहुँचेगा और सारे पैसे की शराब पी जाएगा। आप उसकी मदद नहीं कर रहे, उसे हानि पहुँचाने की राह खोल रहे हैं।'
पिताजी शांत होकर माताजी की बात सुनते, फिर अपने काम में लग जाते। लेकिन, बार-बार और हर बार होता यही था। माताजी के ऐसे प्रवचनों की जब अनेक पुनरावृत्तियाँ होने लगीं, तो एक दिन पिताजी ने उन्हें समझाया--"जब वह नराधम अपने कर्म (वृत्ति) से बाज़ नहीं आता, तो मैं अपना धर्म (साधु-वृत्ति) कैसे छोड़ दूँ? मेरा पुराना सेवक है, अपनी उम्र की ढाल पर है, व्याधियों से ग्रस्त है; वह बार-बार मेरे पास आता है, गिड़गिड़ाता है, घर में दाने-दाने की मुँहताजी का रोना रोता है, मुझसे तो उसे खाली हाथ लौटाया नहीं जाता।"
माँ ने प्रतिवाद किया--"हाँ, मान ली आपकी बात, लेकिन जैसे ही आप उसकी मुट्ठी गर्म करते हैं, वह शराब के भट्ठे पर चला जाता है और पैसे फूँककर मस्त-मलंग बन जाता है। उसके शरीर और स्वास्थ्य की हानि तो होती ही है, घर में बच्चों के लिए एक दाना भी नहीं पहुँचता, यही होता है न!"
पिताजी ने माता की बात गम्भीरता से सुनी और बस एक वाक्य बोलकर दूसरे कमरे में चले गये--"ठीक है, भविष्य में ऐसा नहीं होगा।"

उस दिन के बाद से, जब कभी सहायता की याचना लेकर रामचन्दरजी आये, पिताजी उन्हें साथ लेकर पास की महादेव साव (बनिये) की दूकान तक स्वयं गए और आटा, चावल, दाल, हल्दी-नमक और आलू-प्याज खरीदकर उसकी अधबोरी उनकी पीठ पर लदवा आये।
ऐसे ही एक अवसर पर, जब पिताजी रामचन्दरजी के साथ महादेव बनिये की दूकान तक जाने लगे, तो मैंने पिताजी की उँगली थाम ली और हठ करने लगा कि मैं भी साथ चलूँगा। जब रामचन्दरजी का राशन बँध गया तो मैंने लेमनचूस दिलाने की ज़िद ठानी। नारंगी की फाँकोंवाला लेमनचूस पाकर मैं तो प्रसन्न हो उठा। रामचन्दरजी, जिन्हें मैं परेशान किया करता था और जिनका आ धमकना मुझे प्रिय नहीं था, अब वही मुझे अच्छे लगने लगे थे और मुझे उनके आगमन की आतुर प्रतीक्षा भी रहने लगी थी। जब कई दिन बीत जाते और रामचन्दरजी का पदार्पण नहीं होता, तो मैं बाल-सुलभ चपलता के साथ पिताजी के पास पहुँचता और उनसे पूछता--"बाबूजी, रामचन्दरजी कब आयेंगे?" पिताजी मीठी मुस्कान के साथ कहते--"तुम्हें उनके जल्दी आने की ऐसी बेसब्री क्यों है, बताओ?" उनके इस प्रश्न का मैं क्या उत्तर देता, चुप रह जाता।...लेकिन, वह पिता थे, मेरे प्रश्न का मर्म खूब समझते थे।

यह सिलसिला लम्बा चला। एक बार भीषण जाड़ों में रामचन्दरजी सुबह-सुबह ठिठुरते हुए पधारे। पिताजी ने उनसे पूछा--"क्या हुआ रामचन्दर? अभी पांच दिन पहले ही तो पन्द्रह दिनों का राशन दिलवाया था तुम्हें, ख़त्म हो गया क्या ?"
रामचन्दरजी ने कहा--"नहीं गुरूजी! वह तो है। लेकिन ये सर्दी हाड़ कँपा रही है, ओढ़ने को कुछ नहीं है। बाल-बच्चे रात-भर ठिठुरते हैं! कुछ फटा-पुराना मिल जाता तो...!"
पिताजी स्वयं देख रहे थे रामचन्दरजी को काँपते-ठिठुरते, उन्होंने तत्काल ओढ़ी हुई ऊनी चादर अपने शरीर से उतारी और रामचन्दरजी की देह पर डाल दी। फिर घर के अंदर गए। माताजी से कुछ कहकर बाहर आये और रामचन्दरजी से बातें करने लगे। थोड़ी देर में मेरी माताजी दो खेंदरा (हस्त-निर्मित दुलाई) और एक पुराना कम्बल लेकर बाहर आईं और रामचन्दरजी को देकर लौट गयीं। आते-जाते उनकी दृष्टि पिताजी की ऊनी चादर भी पड़ गई थी, जो रामचन्दरजी के शरीर से लिपटी थी।
रामचन्दरजी की मुराद पूरी हो चुकी थी, लेकिन वह ठहरे हुए थे। पिताजी ने पूछा--"क्या और कुछ कहना है रामचन्दर?" उन्होंने झिझकते हुए कहा--"गुरूजी, एक-आध रूपया मिल जाता तो...!"
पिताजी ने बीच में ही रोककर पूछा--"क्या करना है रुपये का? अभी ही तो तुमने कहा कि राशन है!"
--"जी गुरूजी! सोचा, रास्ते में चाय पी लूँगा और बीड़ी का दो-चार बण्डल खरीद लूँगा। बीड़ी है नहीं।"
पिताजी बोले--"बाजार की चाय और बीड़ी पीने की तुम्हें जरूरत नहीं। चाय तुम्हें मैं यहीं पिला देता हूँ।"
उस दिन रामचन्दरजी को बीड़ी के पैसे तो मिले नहीं, लेकिन वह घर की बनी चाय पीकर विदा हुए। उनके जाते ही पिताजी अन्दर आये और उन्हें देखते ही माताजी ने कहा--"रामचन्दर के लिए कम्बल-दुलई लेकर मैं तो आ ही रही थी, आपने अपनी ऊनी चादर उसे क्यों दे दी? पिछले साल सर्दियों में ही तो खरीदी थी! पता नहीं, वह नामाकूल उसे ओढ़ेगा या औने-पौने बेचकर शराब पी जाएगा !" पिताजी ने शान्तिपूर्वक माताजी की बात सुनी और धीमे स्वर में केवल इतना कहा--"भई, वह शीत के प्रकोप से थर-थर काँप रहा था...!" और, अपने कक्ष में चले गए।

पांच दिनों बाद रामचन्दरजी राशन के लिए फिर आ पहुँचे। कहने लगे--गुरूजी, आप बार-बार काहे को तकलीफ़ करते हैं? रुपये दे दीजिये, मैं उसी बनिये की दूकान से राशन खरीदकर चला जाऊँगा... कसम से...!"
पिताजी कोई स्क्रिप्ट लिखने में व्यस्त थे। वह रामचन्दरजी की बात मान लेने पर आ ही गए थे कि लेमनचूस का लोभी मैं, उनके पीछे पड़ गया--"नहीं बाबूजी, चलिए न, हम दोनों चलते हैं।" मेरी ज़िद पर पिताजी ने हथियार डाल दिए और महादेव बनिये की दूकान तक गए--रामचन्दरजी को राशन की बोरी मिली और मुझे लेमनचूस मिल गया। घर लौटकर पिताजी ने अपनी स्क्रिप्ट लिखी और तैयार होकर दफ़्तर चले गए।

शाम को जब लौटे तो बहुत क्रोधित थे। माताजी ने नाराज़गी की वजह पूछी तो बोले--"रामचन्दर तो बड़ा दुष्ट निकला। दफ़्तर जाते हुए आवाज़ लगाकर महादेव ने मुझे रोका और बताया कि सुबह जो राशन मैंने रामचन्दर को दिलवाया था, मेरी पीठ पीछे उसे वहीं लौटाकर और रो-गाकर वह पैसे ले गया है। मैंने महादेव से कहा भी कि 'तुमने उसकी बात क्यों मान ली? वह उन पैसों का दुरूपयोग ही करेगा, शराब पी जाएगा !' महादेव ने कहा कि 'मैं क्या करता बाबा, वह तो रोने-गिड़गिड़ाने लगा, सिर पटकने लगा, पिंड पड़ गया मेरे!"
पूरी बात सुनकर माताजी के मुख पर एक वक्र मुस्कराहट खिल उठी, बोलीं--"मैं कहती न थी, दुर्व्यसनी व्यक्ति कभी विश्वसनीय नहीं हो सकता।"

उसके बाद २०-२५ दिन रामचन्दरजी गायब रहे, जब आये तो क्रोध में पिताजी ने उनसे मिलने से इनकार कर दिया। वह निराश लौट गए। पन्द्रहियों दिन बाद फिर प्रकट हुए। पिताजी का क्रोध अपेक्षया कम हो गया था, लेकिन जब वह रामचन्दरजी के सामने पड़े तो उनका चेहरा फिर तमतमाने लगा। रामचन्दरजी फफकते हुए पिताजी के पाँवों पर गिर पड़े, रोते हुए बोले--"क्षमा गुरूजी, क्षमा...! अपराध हो गया हमसे; इस ससुरी शराब ने मुझे आपकी नज़रों से भी गिरा दिया!..."
पिताजी मौन-स्तब्ध खड़े रहे। उनका क्रोध और मन की पीड़ा उनके मुख-मण्डल के रंग पल-पल बदल रही थी। अचानक वह तीव्रता से पलटे और यह कहते हुए घर के अंदर प्रविष्ट हो गए--"तुमने मुझे बहुत पीड़ा पहुँचाई है रामचन्दर! मैं सब कुछ सहन कर सकता हूँ, झूठ और फरेब नहीं। क्षमा मुझसे नहीं, अपनी अंतरात्मा से माँगो। अपने दरवाज़े पर मैं दुबारा न देखूं तुम्हें ! 'हित-अनहित चीन्हे नहिं कोय.... !"
और, सच में, उसके बाद कभी रामचन्दरजी के दर्शन नहीं हुए। सोचता हूँ, न जाने कब, कहाँ, किस हाल में उन्होंने दुनिया छोड़ दी होगी !...

[चित्र : 'आरती मंदिर प्रेस' (कचौड़ी गली, पटना सिटी) का ध्वंसावशेष, जहां से 'बिजली' और 'आरती' जैसी स्तरीय साहित्यिक पत्रिकाएँ पिताजी के सम्पादन और स्वामित्व में निकलीं। पिछले वर्ष अक्टूबर में पटना गया था, तब यह चित्र मैंने स्वयं लिया था। --आनन्द.]

गुरुवार, 7 अप्रैल 2016

सच्ची सम्मति की पीड़ा...

भारत-चीन युद्ध के बाद, १९६३-६४ की बात है। दरवाज़े की घंटी बज उठी। गाँधी-गंजी और खादी का हाफ-पैंटनुमा जाँघिया पहने पिताजी उठ खड़े हुए। उनका कहना था, 'घर के हर व्यक्ति को इस बात का ख़याल रखना चाहिए कि दरवाज़े पर किसी भी आगंतुक को द्वार खुलने की लम्बी प्रतीक्षा न करनी पड़े।' वह हमेशा ऐसा ही करते थे, जिस दशा में होते, उसी में चल पड़ते दरवाज़ा खोलने। उस दिन भी वह द्वार खोलने को तत्पर हुए ही थे कि मैं यह कहता हुआ उनसे आगे बढ़ गया--'ठहरिए, मैं देखता हूँ !' मैंने द्वार खोला तो सामने ४५-५० की उम्र के एक अपरिचित अधेड़ को कुर्ते-पायजामे में खड़ा पाया। मेरी प्रश्नाकुल मुख-मुद्रा देखकर आगंतुक बोल पड़े--'मुक्तजी, घर पर हैं क्या? मुझे उन्हीं से मिलना है।'
मैंने शिष्टता से पूछा--'आपका नाम जान सकता हूँ?'
उन्होंने कहा--'जी, मेरा नाम कालिका प्रसाद सिंह है।'
मैं उलटे पाँव लौटा और पिताजी के पास जाकर बोला--'कोई कालिका प्रसाद सिंह नाम के व्यक्ति आये हैं, आपसे मिलना चाहते हैं।'
पिताजी ने कहा--'उन्हें बाहर ही खड़ा कर रखा है क्या? बिठाओ उन्हें, मैं आया।'
मैं कालिकाजी को सादर बैठक में बिठाने चला गया और पिताजी ने खद्दर की धोती को तहमद की तरह कमर से लपेटा और बैठक में आये। तब तक कालिकाजी कुर्सी पर व्यवस्थित हो चुके थे। उनके हाथ में एक झोला था, जिस पर किसी ज्वेलर का नाम मुद्रित था। कुर्सी पर बैठकर कालिकाजी ने झोला अपनी गोद में रख लिया था। बैठक में पिताजी जैसे ही प्रविष्ट हुए, कालिकाजी उठ खड़े हुए और आगे बढ़कर उन्होंने पिताजी के चरण छुए और खड़े-खड़े कहने लगे--'मैं कालिकाप्रसाद सिंह भोजपुर के अमुक गाँव का निवासी हूँ! बहुत दिनों से आपसे मिलने की इच्छा थी, आज पूरी हुई!... 'पिताजी ने विक्षेप करते हुए कहा--'आप खड़े क्यों हैं, बैठिए न !' कालिकाजी वापस उसी कुर्सी पर बैठ गए और उन्होंने अपनी बात जारी रखी--'मैं कविताएँ लिखता हूँ और मेरी कलम कभी रुकती नहीं। मैंने हर विषय पर लिखा है--राजनीतिक, सामाजिक समस्याओं पर भी और मन की अनेक भावनाओं पर भी। मैं छन्दयुक्त कविताएँ ही लिखता हूँ! निरालाजी की तरह छन्द-मुक्त कविताएँ मेरी पसंद का हिस्सा कभी नहीं रहीं ! अपनी कविताओं से मैंने कई कॉपियाँ भर दी हैं! अब मैं चाहता हूँ कि थोड़ा विश्राम लूँ। आप जैसे साहित्यकार को पहले अपनी रचनाएँ सुनाऊँ और आपकी प्रतिक्रिया पाकर तथा दिशा-निर्देश लेकर ही फिर कलम उठाऊँ!'
कालिकाजी के अनवरत सम्भाषण को सुनकर पिताजी मंद-मंद मुस्कुराते रहे थे, अचानक बीच में बोल पड़े--'हाँ, तो सुनाइए न, अपनी एक-दो कविताएँ !'
कालिकाजी को तो सम्भवतः इसी निवेदन की प्रतीक्षा थी। उन्होंने झोले से जो कॉपी निकाली, वह लाल जिल्दवाली किसी वणिक की खाता-बही जैसी पुस्तिका थी ! उसकी कई परतें खुलती थीं और वह अपना क़द बढ़ा लेने में सक्षम थी। कालिकाजी ने अपनी पहली ही कविता से जो विस्फोट किया, वह तो हमें चकित कर गया--
"देखो, जुद्ध का संग्राम छीड़ा,
ब्रीटेन से आकर जर्मनी भीड़ा !
जुद्ध जीवन-भय देता है,
मनुज का जीवन हर लेता है।
बचो जुद्ध से मेरे भाई,
धरती पर ना हो जुद्ध-लड़ाई!" ...
उनकी अप्रतिम छन्दोबद्ध कविता सुनते-सुनते मेरे अंदर हँसी के फव्वारे फूटने को आतुर हो उठे, मैं वहाँ से उठकर अन्दर भागा। न जाने कैसे पिताजी संयत-संतुलित बने रहे। पहली कविता के बाद कालिकाजी दूसरी-तीसरी कविता पर उतर आये। पिताजी धैर्य से उनकी ऊटपटांग कविता सस्मित सुनते रहे। बोले कुछ नहीं।कालिकाजी किसी साहसी योद्धा-कवि की तरह मैदान में डटे रहे और पिताजी की मंद मुस्कुराहट को अपनी कविता की स्वीकृति और प्रशंसा का प्रमाण समझते रहे। जब कालिकाजी लाल जिल्दवाली अपनी कॉपी से धड़ाधड़ कविताएँ सुनाते हुए छठी कविता के पार लगे और सातवीं के लिए कॉपी के पन्ने पलटने लगे तो पिताजी ने हस्तक्षेप किया--"कालिकाजी ! आपने सिर्फ कविताएं ही लिखीं हैं या अन्य विधाओं में भी लिखते हैं, मसलन--कहानी, उपन्यास, व्यंग्य-विनोद, गल्प और लघु-महाकाव्य भी....?"
कालिकाजी ने अपनी पलकें ऐसे झपकाईं, जैसे पिताजी के प्रश्न को समझ न सके हों। थोड़ी देर बाद बोले--जी, गद्य-लेखन में मेरी गति नहीं है। कुछ कहानियाँ लिखी हैं, लेकिन उन्हें लिखते हुए मेरी कलम रुक-रुक जाती है! बहुत सोचना पड़ता है! माथे पर प्रेसर पड़ता है। कविता में ऐसा नहीं होता। कविता बड़े वेग से आती है और बिना रुके कागज पर उतर जाती है।"
कालिकाजी को उनकी कविता से विरत करने के ख़याल से पिताजी ने कहा--"चाय पीना पसंद करेंगे आप? बनवाऊं?"
वह अनासक्त भाव से बोले--"पी लूंगा, बनवा लें ! जब तक चाय बनती है, मैं चाहता हूँ, आपको अपनी कुछ अन्य अच्छी कविताएँ सुनाऊँ।"
इतना कहकर कालिकाजी अपनी कॉपी के पन्ने पलटने लगे और उसमें 'अच्छी कविता' ढूँढ़ने लगे ! दो क्षण बाद ही उनका काव्य-पाठ फिर शुरू हो गया । पिताजी असहज मुस्कान के साथ उनकी कविता सुनने को विवश लगे। जबतक चाय बैठके में पहुंची, कालिकाजी अपनी तीन-चार कविताएँ पटक चुके थे। चाय ने उनके धाराप्रवाह काव्य-पाठ पर अंकुश लगाया और पिताजी ने चैन की साँस ली।
कालिकाजी को जाने क्या हड़बड़ी थी, वह 'सुड़-सुड़' करके और फूँक मार-मारकर कप की चाय तेजी से पी गए। क्षिप्रता से उन्होंने कप-प्लेट को टेबल पर रखा और पुनः लाल जिल्द की कॉपी के पन्ने पलटने लगे। पिताजी के लिए अब उनकी कविता असह्य हो उठी थी। उन्होंने अब तक बड़ा धैर्य रखा था, वह धैर्य डगमगाने लगा था। कालिकाजी को अपनी कविताओं में उत्कृष्ट कविता टटोलते देख वह अधैर्य कुछ इस रूप में प्रकट हुआ-- "कालिकाजी ! मुझे अभी बहुत-से काम करने हैं। फिर कभी मिलना होगा।"
लेकिन, कालिकाजी तो नाछोड़ कवि निकले। इतनी जल्दी कविता का हाथ आया मैदान भला कैसे छोड़ देते? रिरियाते हुए बोले--"जी-जी, आप अपना काम जरूर करें, लेकिन एगो गजब की कविता है, आपको सुनाये बिना जाने का मन नहीं होता।" पिताजी चुप रहे और कालिकाजी अपनी 'गजब की कविता' सुनाने में मशगूल हो गए !
घर से जाते-जाते बाबू कालिकाप्रसाद सिंहजी अपनी कम-से-कम एक दर्जन कविताएँ पिताजी के कानों में पिघले शीशे की तरह उड़ेल ही गए थे। उनके जाने के बाद पिताजी अन्दर आये तो एक कविता-विद्ध हताश श्रोता-से दिखे ! मेरी माताजी से बोले--"भई, कालकाजी तो मेरे कान और मेरा बहुत सारा समय खा गए! विचित्र कविता-प्रेमी महाकवि हैं, जिन्हें पता ही नहीं कि कविता होती क्या है?"
सात दिन भी पूरे नहीं बीते थे कि एक दिन सुबह-सबेरे घर की घण्टी फिर बज उठी और फिर कालिकाजी द्वार पर मुस्कुराते हुए खड़े मिले ! यह कहता हुआ कि "पिताजी को खबर करता हूँ", मैं अंदर चला गया। पिताजी ने कालिकाजी के आगमन की बात सुनी तो कहा--"उन्हें कह दो, मैं गुसलखाने में हूँ, मुझे वक़्त लगेगा !"
मैंने जाकर यही बात कालिकाजी से कही, तो उन्होंने पूरी निश्चिंतता से कहा--"कोई बात नहीं, मैं बैठक में प्रतीक्षा कर लूँगा।" मैं निरुपाय, क्या करता? कालिकाजी को बैठक में बिठाकर पिताजी के पास गया। उन्होंने मेरी बात सुनकर कुछ न कहा, लेकिन उनके माथे उभरी शिकन मैंने देखी। आधा घण्टा विलम्ब करके वह बैठक में आये। पिताजी को देखते ही कालिकाजी उठ खड़े हुए और चरण-स्पर्श कर बोले--"उस दिन आपसे मिलकर गया तो मुझे ऐसी ऊर्जा मिली कि पिछले चार-छह दिनों में कई उत्कृष्ट कविताएँ लिख गया हूँ! उन्हें ही आपको सुनाने आया हूँ।"
पिताजी ने थोड़ी बेरुखी से कहा--"कालिकाजी, आज तो यह सम्भव न हो सकेगा। मुझे बाहर जाना है, मैं उसी की तैयारी में लगा हूँ! फिर किसी दिन...!"
कालिकाजी ने पिताजी का वाक्य पूरा न होने दिया, बोल पड़े--"मैं ज्यादा वक़्त नहीं लूँगा, बस, आधे घण्टे में कविताएं सुनाकर चला जाऊँगा।"
पिताजी ने स्पष्टता से कहा--"क्षमा कीजिये, आज तो समय नहीं है। किसी दिन फुर्सत से आइए। नमस्कार!"
यह कहकर पिताजी मुड़े और घर के अन्दर चले आये। थोड़ी देर तक कालिकाजी वहीं खड़े रहे, फिर लौट गये।
पाँच दिन ही बीते थे कि कालिकाजी पुनः उपस्थित हुए। वह रविवार का दिन था। पिताजी ने उन्हें बिठाने का आदेश दिया। बैठक में पहुँचकर पिताजी ने कहा--"कालिकाजी, उस दिन आप अपनी जो ताज़ा कविताएँ सुनाना चाहते थे, वही सुनाएँ।"
'जी-जी' कहते हुए तत्परता से कालिकाजी ज्वेलर्स के झोले से लाल ज़िल्दवाली कॉपी निकालने लगे। देखते-देखते उन्होंने ताज़ा रचनाओं के नाम पर अपनी छह कविताएँ सुना दीं। छह कविताओं के पाठ में पौन घंटा तो व्यतीत हो ही चला था। पिताजी ने कविताओं पर ब्रेक लगते हुए कहा--"बस, हो गयीं न आपकी ताज़ा कविताएँ ? अब मुझे इजाज़त दीजिये।"
कालिकाजी थोड़ा ठिठके, संकुचित हुए, फिर साहस करके बोल पड़े--"आपने तो कुछ कहा ही नहीं, कैसी लगीं ये कविताएँ ?"
पिताजी स्पष्टवादी और निर्भीक व्यक्ति थे। दो क्षण मौन रहकर वह कालिकाजी की ओर एकटक देखते रहे, फिर पूछा--"आप मेरी सच्ची सम्मति चाहते हैं या अपनी कविताओं की प्रशंसा...?"
कालिकाजी और क्या कहते, बोल पड़े--"नहीं-नहीं, प्रशंसा नहीं, सच्ची सम्मति दीजिये।"
पिताजी फिर दो क्षण मौन रहे, तत्पश्चात उन्होंने कहा--"कालिकाजी, मेरी स्पष्ट राय है कि आप अपने समय, स्याही और कागज़ का अपव्यय न कीजिये। अपनी ऊर्जा को किसी दूसरी दिशा में लगाइये, वही आपके लिए और हिंदी-साहित्य के लिए भी लाभकारी होगा और हम सामान्य मसिजीवियों के लिए भी ।"आप समझ सकते है, पिताजी की सच्ची सम्मति कालिकाजी पर कितनी भारी पड़ी होगी ! सच्ची सम्मति की पीड़ा की कई आड़ी-तिरछी रेखाएँ कालिकाजी की शक़्ल पर उभर आयीं, जिन्हें आसानी से पढ़ा जा सकता था। उन्होंने करबद्ध हो, पिताजी को प्रणाम किया और सरपट ऐसे भागे कि फिर कभी लौटकर नहीं आये। सच है, सच्ची सम्मति सब लोग पचा नहीं पाते।

कालिकाजी की कविताएँ स्मृति में स्थिर रह जानेवाली कविता तो थी नहीं, न जाने कैसे, इतने वर्षों बाद भी, 'जुद्ध का संग्राम छीड़ा' मेरे स्मृति-कोष में बची रह गयी है। आज उसे भी आपलोगों के बीच बाँटकर खर्च कर देता हूँ और निःस्व हो जाता हूँ !.....
[--आनंदवर्धन ओझा]
(कथा पुरानी, पिताजी का चित्र बाद का, लगभग ९०-९२ का; श्रीप्रमोद झा का लिया हुआ।)

शनिवार, 2 अप्रैल 2016

माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेसी...?

कानों सुनी, आँखों देखी... (२)

मेरी बड़ी बुआजी (कमला चौबे) पिताजी से दो वर्ष बड़ी थीं। उनका विवाह शाहाबाद जिले के एक समृद्ध गाँव 'शाहपुरपट्टी' में हुआ था। पटना-बक्सर मुख्य मार्ग पर बसा यह गाँव अपेक्षाकृत अधिक उन्नत ग्राम था। बड़े फूफाजी (देवराज चौबे) ए.जी. ऑफिस, बिहार में आंकेक्षक के पद पर बहाल थे। गाँव में फूफाजी का बड़ा मान-सम्मान था, खेती-बारी थी, धन-धान्य--सब था। उनकी एक ही कन्या संतान थी, जो अल्पायु रही। उन्हें विचित्र ह्रदय रोग था। पांच-छह कदम की दूरी पर खड़ा व्यक्ति उनके दिल की धड़कनें स्पष्ट सुन सकता था। १४-१५ वर्ष की उम्र में उन्होंने जगत से विदा ले ली थी। इसी शोक की छाया में बुआ-फूफाजी का पूरा जीवन व्यतीत हुआ।
तीज-त्योहारों पर पिताजी इलाहाबाद से निकलते और एक ही यात्रा में अपनी दोनों बहनों के घर की परिक्रमा कर आते। पहले छोटी बुआ के घर चनउर, फिर शाहपुरपट्टी। जब बड़ी बुआ की बिटिया १०-११ वर्ष की थीं और हिन्दी पढ़ना-लिखना सीख गयी थीं, तो अपने मामाजी के हिंदी-प्रेम से प्रभावित होकर हिंदी-भजपुरी मिश्रित एक कविता की कुछ पंक्तियाँ वह भी लिख लायीं। घर के आँगन में खड़े एक बेल के पेड़ के नीचे बैठकर उन्होंने अपनी वह कविता लिखी थी। पिताजी के पास पहुंचकर उन्होंने उल्लसित भाव से कहा--'मामा ! हमहूँ एगो कबिता लिखले बानी!' (मामा ! मैंने भी एक कविता लिखी है!)
पिताजी ने कहा--'सुनावS !' (सुनाओ।)
बचपन के उत्साह में लिखी अपनी अधकचरी कविता उन्होंने सुना दी और मामाजी से शाब्बाशी पाकर हँसते हुए घर-भर में दौड़ पड़ीं कि मामाजी ने उनकी कविता की प्रशंसा की है । उसके चार-पांच वर्षों बाद वह दुनिया से चली गयीं। लेकिन पिताजी उनकी कविता की पंक्तियों को कभी भूले नहीं। पिताजी से वह कविता मैंने भी कई-कई बार सुनी थी और वह मेरे स्मृति-कोश में आज भी शब्दशः सुरक्षित है--
"बेल तरे मत जा,
बेल गिरेगा, मूड़ी फुटेगा,
दावा-बीरो के करेगा?
केहू नहीं करेगा, केहू नहीं...!
बेल तरे मत जा... !"
शाहपुरपट्टी में देश-प्रसिद्ध एक साहित्यिक और दिग्गज पत्रकार पंडित पारसनाथ त्रिपाठी का भी निवास था। उन्होंने काशी की पत्रिका 'इंदु' और पटना से निकलनेवाली पत्रिका 'बिहार-बंधु' का संपादन किया था तथा देशरत्न डा. राजेंद्र प्रसाद द्वारा निकली गई पत्रिका 'देश' को नयी ऊर्जा और दिशा दी थी। अपनी युवावस्था के दिनों में पिताजी जब शाहपुरपट्टी जाते तो सहित्यालाप के लोभ से त्रिपाठीजी के पास उनका घंटों का बैठका लगता। पिताजी की और उनकी ताम्बूल-मित्रता गाँव में प्रसिद्धि पा चुकी थी। त्रिपाठीजी उम्र में पिताजी से बहुत बड़े थे, लेकिन प्रचण्ड ताम्बूल-प्रेमी थे। १६ वर्ष की आयु से पिताजी भी पान-प्रणयी हो गए थे और अनेक पत्र-पत्रिकाओं ('चाँद', 'सरस्वती', 'प्रताप' आदि) में उनकी लिखी कविता-कहानियाँ धड़ल्ले से छपने लगी थीं! इलाहाबाद के साहित्यिक माहौल से पिताजी जब बड़ी बहन के गाँव आते तो उस गाँव में एक मात्र त्रिपाठीजी जैसे लब्धप्रतिष्ठ बुज़ुर्ग साहित्यकार के पास बैठना, उनसे बातें करना उन्हें प्रीतिकर लगता। त्रिपाठीजी भी पिताजी से इलाहाबाद की ख़बरें लेते और इन मुलाकातों में पान-तम्बाकू का सेवन तो होता ही, सरौते की धार पर सुपारी कटती ही रहती। वय की असमता उनके बीच व्यवधान न बन सकी थी और दोनों घनिष्ठ बंधन में बंध गए थे। लेकिन त्रिपाठीजी अल्पायु हुए। एक कार दुर्घटना में असमय उनका अवसान हो गया। आज की नयी पीढ़ी तो उनके नाम से भी परिचित नहीं है शायद ! कालान्तर में त्रिपाठीजी के सुपुत्र, नव-गीतों के प्रसिद्ध हस्ताक्षर, (स्व.) विंध्यवासिनी दत्त त्रिपाठी पिताजी के संपर्क में आये और पिताजी के जीवन के अंतिम दिनों तक उनसे जुड़े रहे। पिताजी के निधन पर उन्होंने एक लम्बा आलेख लिखा था--'दस्तावेज़ जो पूरा न हुआ'...!
बाद के दिनों में पिताजी लेखन, नौकरी और घर के अनेक दायित्वों से बँधते चले गए। बड़ी बुआजी के गाँव जाने का अवकाश न निकाल पाते। बड़े फूफाजी ही अपनी नौकरी के सिलसिले में एक शहर से दूसरे शहर आते-जाते रहे और इसी क्रम में, पटना में, मेरे घर भी पधारते। उनके साथ बड़ी बुआजी जब कभी गाँव से सीधे हमारे घर आतीं, तो उनके साथ आता--तीसी का लड्डू, मकई का बना सोंधा उलआ, शुद्ध घी और स्वादिष्ट ठेकुआ! हम बच्चों ने उनका नाम ही रख दिया था--ठेकुआवाली बुआ !
किशोरावस्था की दहलीज़ पार करते-करते मैं बड़ी बुआ के गाँव जाने लगा था। बुआजी के आँचल में वात्सल्य का ख़ज़ाना था। मैं जब वहाँ जाता, वह सारी ममता, सारा स्नेह, प्यार-दुलार उड़ेल देतीं। उनके घर के दही में मक्खन के गोले मिलते थे और मैं उन्हें मुग्ध भाव से चट कर जाता था ! वैसे स्वाद का दही तो फिर जीवन में मिला ही नहीं। गर्मियों के दिन में वहाँ मेरे बड़े मज़े थे। फूफाजी के आम के बगीचे थे और हमारी वहाँ मौज होती थी। ऐसी ही एक दोपहरी में दो बोरियां लेकर मैं फूफाजी के भतीजों के साथ आम के बगीचे में गया था और खोज-खोजकर पके-अधपके आम पेड़ों पर चढ़कर तोड़ रहा था तथा बोरियों में भरता जा रहा था। अचानक ठंडी हवा चलने लगी, फिर काले बादल छा गए। बादल ऐसे कजरारे कि दिन के समय ढल गयी शाम-सा अंधकार छा गया। और, देखते-देखते आंधी-तूफ़ान के साथ तेज बारिश होने लगी! पेड़ों से आम इस तरह पटापट गिरने लगे कि टोली के तमाम बच्चों में उन्हें लूटने की होड़ मच गयी। हमें एक तरफ बींध देनेवाली बारिश की बूँदों से बचना था, तो दूसरी तरफ भदाभद्द गिरनेवाले आमों से सिर और शरीर की रक्षा करनी थी। वह अद्भुत नज़ारा था। वैसी भीषण वर्षा फिर नहीं देखी और वैसा उल्लास फिर जीवन में नहीं मिला।
उधर, घर पर, बड़ी बुआजी का हाल बेहाल था। वह मेरी चिंता में व्याकुल-विह्वल हो उठी थीं। लेकिन, जब वर्षा के जल से तर-ब-तर मैं आम से भरी दो-दो बोरियाँ लेकर घर पर नमूदार हुआ, तो वह संयत और हर्षोन्मत्त हो उठीं, कहने लगीं--'हमार जन अइले सS... हमरो दुअरा आपन गाछ के आम आइल बा, देख सS रे। (मेरे अपने आये हैं... मेरे दरवाज़े पर अपने वृक्ष के आम आये हैं, देख लो सब !) दरअसल, इन वाक्यों में बुआजी की आतंरिक पीड़ा मुखर हो उठी थी। बुआ के पुत्र-कलत्र विहीन घर में ऐसे अवसर कम ही आते होंगे, जब कोई पुत्रवत प्रेम से उन्हीं की सम्पदा में से किञ्चित अंश उनके लिए लाया हो...! वर्षा की उन अजस्र-असहनीय बूँदों और आम्र-वर्षा के साथ बुआजी का उल्लासमय उद्गार मैं कभी भूला नहीं...।
बात उन दिनों की है, जब मैं बी.कॉम. के प्रथम वर्ष का छात्र था। वह सन १९७१ का साल था। शाहपुरपट्टी से पिताजी के नाम तार आया था, जिसे पढ़कर पिताजी तत्काल बुआजी के गाँव चले गए थे। मैं कॉलेज से लौटा तो ज्ञात हुआ कि बुआजी बहुत बीमार हैं। १ फ़रवरी १९७१ को अपने अभिन्न मित्र बच्चनजी को लिखे एक पत्र में पिताजी ने बुआजी के अस्वस्थ होने की सूचना देते हुए मार्मिक शब्दों में लिखा था--"... बड़े बहनोई का तार मिला। बड़ी बहन मरणासन्न थीं। मुझे बुलाया था। ... दूसरे दिन मैं बहन के गाँव पहुंचा। उन्हें गठिया के लिए 'ईगापयरिन' का इंजेक्शन दिया गया था। वह रिएक्ट कर गया। बिलकुल बाबूजी वाली हालत हो गई। सारा बदन फूट आया था। साँस में कष्ट, गले से जल निगलने में असमर्थता, फोड़ों में जलन, बेचैनी, रात-दिन की तड़प ! लेकिन अभी समय नहीं आया था। सँभल गयी हैं। १०-१५ दिनों की असह्य पीड़ा के बाद अब हालत सुधर रही है, यद्यपि अब भी काफी कष्ट है। वे निःसंतान हैं, ईश्वर की इच्छा...!" [संयोग से बच्चनजी को लिखे पिताजी के उस पत्र की एक फोटोकॉपी मेरी मंजूषा में सुरक्षित है। पिताजी ने कुछ विशिष्ट दस्तावेज़ लिखने की योजना के अंतर्गत इस पत्र को आधार-सामग्री के रूप में उनसे वापस भेज देने का आग्रह किया था। पिताजी की लिखी इन पंक्तियों के नीचे एक अधोरेखा खींचकर यह पत्र इस टिप्पणी के साथ बच्चनजी ने लौटा दिया था : "मेरे पत्र के साथ यह पत्र वापस कर देना। अपना 'यज्ञ' पूरा करने को मुझे तुम्हारा आशीष चाहिए।" --बच्चन.]
बहरहाल, पिताजी दो दिन बाद गाँव से लौटे तो बहुत दुखी-चिंतित थे। उन्होंने मुझसे कहा था--"वहाँ, गांव में, मीठे संतरे नहीं मिलते। यहां से एक छोटी टोकरी में संतरे और 'एंटीबैक्ट्रिन' (घाव के लिए आजमाई हुई एक औषधि) की छह शीशियाँ लेकर तुम कल ही शाहपुरपट्टी चले जाओ। संभव है, इस दवा से बहिनियाँ को आराम मिले। वे बहुत कष्ट में हैं।"
जैसा पिताजी ने कहा था, औषधि और संतरे लेकर मैं बुआजी के गाँव पहुँचा और उनकी दीन-दुर्वह दशा देखकर सिहर उठा। मुझे देखकर खिल पड़नेवाली बड़ी बुआजी पलँग पर अवश लेटी हुई थीं। उनके होठों पर हल्की-सी मुस्कान भी न आई, बस, गहन पीड़ा की ऐंठन उपजकर रह गयी । मुझे रात वहीं रुकना था और दूसरे दिन पटना लौट आना था; क्योंकि कॉलेज खुला हुआ था। बुआ की हालत देखकर लौटने का मन न होता था, लेकिन मजबूरी थी। फूफाजी बड़े कर्मठ और दृढ़प्रतिज्ञ व्यक्ति थे, उन्होंने मुझे कातर होता देख समझाया--"तूँ कतना दिन रुकबS ? इनका ठीक भइला में तS ढेर दिन लागी। आपन पढ़इया के नोकसान मत करS, समय लेइये के तोहार बुआजी नीमन होइहें।" (तुम कितने दिन रुकोगे? इन्हें ठीक होने में तो बहुत दिन लगेंगे। अपनी पढाई का नुकसान मत करो, समय लेकर ही तुम्हारी बुआजी अच्छी होंगी।) मैंने उनकी बात मान ली थी और तय पाया था कि कल सुबह के जलपान के बाद पटना लौट जाऊँगा। शाम में मैंने बुआजी के हाथ-पाँव और मस्तक पर पटना से लाया हुआ औषध का लेप किया था।
दूसरे दिन सुबह स्नान-ध्यान के लिए फूफाजी के साथ उनके खेतों पर गया, जहाँ बोरिंग का पर्याप्त जल उपलब्ध था। वहाँ से लौटने में थोड़ा अधिक वक़्त हो गया--सुबह के १० बजे का वक़्त! घर पहुंचते ही मैं फूफाजी के साथ बुआ के कमरे में प्रविष्ट हुआ। मुझे वहाँ आये हुए २०-२२ घंटे हो चुके थे, लेकिन बुआजी के मुँह से निकला एक भी शब्द मैंने नहीं सुना था। लेकिन, सुबह जैसे ही हमने उनके कमरे में पाँव रखा और बुआजी की दृष्टि फूफाजी पर पड़ी, उनके मुख से बहुत आर्त्त और मंद स्वर फूटा--"ए जी, मुँहवाँ में कुछु लौनीं जी?" (अर्थात, ए जी, आपने कुछ खाया कि नहीं। )
उनका यह वाक्य सुनकर मेरी तो आत्मा सिहर उठी, कलेजा काँपकर रह गया। पति-परायणा जो स्त्री नितांत अशक्तता की दशा में हो, जिसका पूरा शरीर घाव के कारण अंगारों की तरह दहक रहा हो, जो अपने हाथ-पाँव भी हिला-डुला पाने में असमर्थ हो, जिसे एक शब्द भी बोलने के लिए अपनी सम्पूर्ण प्राण-चेतना को समेटना पड़ता हो; उसके मन में यही चिंता घूर्णित होती रहे कि पतिदेव ने कुछ खाया या नहीं--यह अनुभव अद्वितीय था, हृदयद्रावक था--पीड़ा की पराकाष्ठा पर काँपता हुआ क्षीण वाक्य...।
दूसरे दिन मैं पटना लौट आया और तीसरे दिन बुआ के गाँव से एक और तार आया--'Kamla expired last night--Devraj.' यह समाचार पाकर पूरा घर शोकमग्न हुआ, अवसन्न रह गया। मेरे कानों में तो बस, गूंजता ही रह गया उनका एकमात्र वाक्य--"ए जी, मुँहवाँ में कुछु लौनीं जी?" इस वाक्य की धमक मुझे आज भी सुनाई पड़ती है कभी-कभी...!
(--आनंदवर्धन ओझा)
[चित्र : बड़े फूफाजी पं. देवराज चौबे, एवं स्नेहमयी बड़ी बुआजी श्रीमती कमला चौबे और पड़ोस की एक बच्ची]