रविवार, 29 अक्तूबर 2017

समंदर की शिल्प-सृष्टि...

[दक्षिण की यात्रा से लौटकर...(6)]

पूवर के रिसाॅर्ट पर पहुँचते ही शंकाएँ निर्मूल हो गयीं। हम बहुत ऊँचाई से, सँकरे, सर्पिल और अनगढ़ मार्ग से यह सोचते उतरते गये कि जाने कहाँ जाकर ठहरेंगे हम! लेकिन विस्तृत भू-भाग पर आते ही हमारे सामने एक ऐसा अलभ्य गवाक्ष खुल गया, जो मरकत मणि-द्वीप-समान था। दो-दो प्रवेश-द्वारों को पार कर जब हम 'ईस्चुअरी आईलैण्ड' के अन्दर पहुँचे तो हमारे सम्मुख था एक संपूर्ण आनन्द-लोक! देव-भूमि के निर्जन में बसा दिव्य-लोक! स्वच्छ मार्ग, शान्त और उल्लसित वातावरण, सर्वत्र हरीतिमा, नील जल से भरा तरण-ताल, बैक वाटर पर तैरता रेस्टोरेंट, दृश्यावलोकन के लिए बनाई गयी ऊँची अटारियाँ, मोटर बोट तक ले जानेवाली लाल टाइल्स की शोभायमान पगडंडियाँ और समुद्र का परित्यक्त प्रचुर जल--हरित क्रांति मचाता हुआ!

वहाँ पग धरते ही मन प्रफुल्लित हो गया। तीन घण्टों की अनवरत कार-यात्रा की थकान छूमन्तर हो गयी। बैक वाटर की बोट-यात्रा को ऋतज मचलने लगे। रिसाॅर्ट के दो अंतःसंबंधित सुसज्जित कक्ष पहले से ही सुरक्षित थे और हमारे आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे। हमने वहाँ अपना सामान डाला, मुंह-हाथ धोकर प्रसन्न-मन हुए और निकल पड़े नौकायन का आनन्द लेने। नारियल के फल से लदे वृक्षों के बीच से गुज़रते हुए हम बोट के पास पहुँचे, सवार हुए और बोट बैक वाटर में तैरती चल पड़ी उस पार! अमित आनन्द हुआ।

यह देखकर आश्चर्य हुआ, आनन्द भी कि समुद्र स्वयं अपने परिश्रम से बनाता है टीले, तालाब और तंग गलियारे और लौट जाता है अपनी सर्वभौम सत्ता के हृदप्रदेश में। जब कभी उसे लगता है कि उसके द्वारा निर्मित तालाब का जल कम हो रहा है, वह रात्रिकाल में यत्नपूर्वक तंग गलियारों से पुनः आता है, तालाब में जल भरता और चला जाता है नि:शंक। प्रकृति और पर्यावरण में हस्तक्षेप, निर्माण और विध्वंस तथा पुनर्निर्माण, पुनःसृजन उसका परिश्रम है, प्रमोद भी; क्रीड़ा है, व्यायाम भी। हम सृजन देख प्रसन्न होते हैं, मुग्ध-विस्मित और रोमांचित होते हैं तथा विध्वंस देख क्षुब्ध होते हैं, दुखी होते हैं, विकल होते है; लेकिन समंदर तो समंदर है, वह अपनी अनवरत क्रीड़ा में मग्न रहता है, हित-अनहित की चिंता से निर्लिप्त!
मनुष्य भी तो अपने जीवन में यही सब करता है न? बनाता है, मिटाता है; मिटाता है, बनाता है और एक दिन खुद मिट जाता है; क्योंकि वह भी स्वयं प्रकृति की निर्मिति ही है...!

बैक वाटर को पार कर जब हम दूसरे छोर पहुँचे तो हमने देखा, समुद्र ने अपने निरंतर श्रम से पीली रेत का लंबवत् एक टीला बना दिया है, जिसके उस पार घहराता समुद्र तरंगित है। उसकी लहरें दौड़-दौड़कर किनारे पर आती हैं और टीले को सैंकत-कणों की सौगात सौंप जाती हैं। वहाँ हमने बहुत देर तक आनन्द-भजन किया, नारियल का मीठा जल पिया, अनानास के मीठे टुकड़े खाये, जल-क्रीड़ा की, ऋतज ने अपने पितृश्री के साथ मल्लयुद्ध किया, तस्वीरें खींचीं-खिंचवायीं और सूर्यास्त के पहले ही बोट से लौट आये। समुद्र और बैक वाटर के बीच की रेतीली जमीन पर टिके रहने की समय-सीमा निर्धारित थी। हमने नियमों का पालन किया।

रिसाॅर्ट लौटकर मैंने और श्रीमतीजी ने तैरते हुए शानदार रैस्टोरेंट में दो कप चाय पी और जब देयक सामने आया तो मैं चकराया। दो कप चाय के 180 रुपये देने होंगे? पटना में दो रुपये की कुल्हाड़वाली चाय पीने का अभ्यासी मैं, विस्मित था! इतने वर्षों में वहाँ मूल्य बढ़ा भी होगा तो पाँच-दस तक पहुँचा होगा। लेकिन इतनी चिंतना का अवकाश नहीं था, देयक भुगतान की प्रतीक्षा में था। मन मारकर मैं दायित्व से मुक्त हुआ और अपने कमरे में लौट आया।

शाम सात बजे हम सभी तरण-ताल में उतरे और करीब एक घण्टे तक जल-विहार करते रहे। श्रीमतीजी के पास पूल में प्रवेश का मानक और निर्धारित वस्त्र नहीं था, लेकिन बड़ी का उत्साह देखिये, वह पन्द्रह मिनट में परिसर की एक दुकान से अपनी माँ के लिये न सिर्फ स्विमिंग ड्रेस खरीद लायी, बल्कि उस नवीन परिधान में उन्हें लेकर पूल में प्रविष्ट हुई। मैं अपनी ही भार्या को देखकर पहचानने की चेष्टा करता रहा... वह तो एक आधुनिका देवीजी-सी दीख रही थीं--नितांत अपरिचिता। वह भी ससंकोच पूल में प्रविष्ट हुईं और ऋतज के साथ मिलकर यह भूल गयीं कि वह मुझ वृद्ध की वृद्धा हैं। स्विमिंग पूल का सर्वाधिक आनन्द हमारे छोटे सरकार ऋतज ने उठाया। वह तो पूल से बाहर आना ही नहीं चाहते थे। उन्हें समझा-बुझाकर बाहर निकाला गया। स्नानोपरान्त हमारी सारी कंथा दूर हो गयी, हम सज-धजकर तैयार हुए और थोड़ी तफ़रीह करते हुए प्रकृति की उद्दाम सुन्दरता का आनन्द-लाभ करते रहे।...

जब रात के साढ़े नौ बज गये, हम रात्रि-भोजन के लिए रैस्टोरेंट में पहुँचे। रात्रिकाल में बैक वाटर भी समुद्र-सा प्रतीत हो रहा था। चंचल वायु थी और रौशनी में नहाते हुए रैस्टोरेंट के प्रकाश की प्रतिच्छाया जल की सतह पर तैर रही थी। अद्भुत आनन्द और अप्रतिम सौन्दर्य की सृष्टि थी वहाँ। हम सबों ने अपनी-अपनी पसंद के व्यंजनों का आदेश वेटर भाई को दे दिया। शानदार माहौल की मादकता और सुन्दरता को निहारते हुए हमने भोजन ग्रहण किया। हम रेस्तराँ से बाहर आये और उसके बाद तेज समुद्री हवाओं का आनन्द लेते बैक वाटर के किनारों की सैर करते रहे। वहाँ 'मैं' तो था ही, सर्वत्र आनन्द ही आनन्द पसरा हुआ था।







कई बार मोद-मग्न शरीर को थकान की अनुभूति नहीं होती। वह किये जाता है श्रम... और श्रम, रहता है उल्लसित--आनन्द के पालने में झूलता हुआ दिग्भ्रमित; किन्तु शरीर का रसायन सहेजकर रखता जाता है तद्जन्य क्लांति का गणित। जब हम अपने-अपने कक्ष में शयन के लिए शय्याशायी हुए तो गहरी नींद आयी। अब तो सुबह शीघ्र जागरण की विवशता भी नहीं थी। मैं सात बजे जागा, लेकिन श्रीमतीजी और बिटियारानी छह बजे ही जागकर वैक-वाटर के किनारों का एक चक्कर लगा आयीं। आनन्ददायी सुबह में पलकें खुलीं, तो हाथ-पाँव और कंधों में ख़ासा दर्द था। संभवतः वर्षों बाद स्विमिंग पूल में तैरने और उधम मचाने के कारण। ऋतज जब जागे, ताजगी और स्फूर्ति से भरे हुए हुए थे। वह मुझे ललकार रहे थे--'नानजी! चलिए, चलते हैं पूल में।' वह पूल में तैरने-स्नान करने का स्वप्न लेकर ही शायद सोये थे पिछली रात! मैंने उन्हें बताया कि 'पूल में तैरने की वजह से ही मेरे शरीर में दर्द हो रहा है। मैं तो बाथरूम में ही स्नान करूँगा बच्चू!' उन्होंने एक बुजुर्ग की तरह मुझे समझाया--'नानजी, आप पूल में दुबारा तैरेंगे तभी दर्द दूर होगा, नहीं तो और ज्यादा होगा। सच में।' उनकी ज़िद पर मुझे फिर पूल में उतरना पड़ा। वह बार-बार मेरे पास तैरते हुए आते और दर्द-निवारण की नयी-नयी युक्तियाँ बताते। इतना तो सच है कि पूल में तैरना-स्नान करना आनन्ददायी लगा, लेकिन पूल से बाहर आकर मैंने जाना कि शरीर के दर्द में ख़ासी कमी भी आ गयी है। ऋतज भी लगातार मुझसे पूछते ही रहे--'नानजी, अब ठीक हो गया न दर्द?' इस तरह दर्द की बात सबको ज्ञात हो गयी, जिसे मैंने पोशीदा रखा था सुबह से...।

सुबह का जलपान यहाँ भी रिसाॅर्ट की ओर से ससम्मान 'काॅम्प्लीमेंटरी' था। जब हम रेस्तराँ में पहुँचे तो वहाँ भी विविध व्यंजनों की बहुत बड़ी नुमाइश लगी हुई थी, लेकिन वो कहावत है न, दूध का जला...! मैंने मन को संयम का पाठ पढ़ाया और व्यंजनों की ओर संयत भाव से बढ़ा। लेकिन, जब एक-एक व्यंजन ब्राह्मण की रसना को तृप्ति देने लगा तो वह सारे बंधन भूल गया और उसने फिर उदर को आकण्ठ भर लिया। तृप्त होकर हम सब वहाँ से दस बजे उठे। अब हमारे पास दो घण्टे का वक़्त था, हमें बारह बजे रिसाॅर्ट से कोचीन की यात्रा पर निकलना था--260 किलोमीटर की अनवरत यात्रा पर!...

हमने सामान समेटा। अंतिम भुगतान के लिए जब हम 'रिसेप्शन' पर पहुँचे तो हमें लंबा-चौड़ा देयक थमा दिया गया और लेकिन हम इस बात से संतुष्ट और प्रसन्न थे कि सुबह के 'कम्पलीमेंट्री ब्रेकफास्ट' में हमने हिसाब बराबर कर लिया है।...

उसके बाद द्रुत गति से सड़क पर दौड़ चली रविजी की कार। बीच राह में रुक-रुककर नारियल-जल पीते हुए हम चलते ही रहे--अंतहीन रास्ता। न राह खत्म होती, न दामाद सा' की हिम्मत घटती। सम्पूर्ण मार्ग की शोभा तो वर्णनातीत है। हमारे साथ-साथ समुद्र भी दौड़ रहा था, लेकिन विपरीत दिशा में। बारह बजे के पूवर से चले हुए हम रात आठ बजे बेटी के घर पहुँचे। आठ घण्टों का अबाधित परिचालन--यह दामाद साहब के ही वश की बात थी, उन्हीं का हियाव था। यात्रा की थकान तो थी, लेकिन हमें इसकी अत्यधिक प्रसन्नता थी, संतोष था कि हम अपने कलेजे में समेट लाये थे ज़िन्दगी से भरी हुई ढेर सारी ताज़ा हवाएँ और मस्तिष्क में अविस्मरणीय, अनमोल यादें।

हँसी-खुशी का बस, एक दिन और शेष था। बेटी-दामाद-ऋतज से बहुत सारी बातें हुईं, चित्रों का आदान-प्रदान, प्रसाद का बँटवारा हुआ और उसके अगले ही दिन, मात्र डेढ़ घण्टे में वायुयान हमें ले आया कोची से बहुत दूर--पूना के भीड़-भरे शहर में और हमें छोड़ गया यहाँ तन्हा-तन्हा!...
[इति वार्ताः]

--आनन्द.
3-10-2017.

सोमवार, 23 अक्तूबर 2017

दिव्य-भूमि से देव-भूमि पर...

[दक्षिण की यात्रा से लौटकर...(5)]

आकाश में अपने आगमन की पूर्व सूचना देते हुए जो रक्ताभ तिरंगा दिवाकर की रश्मियों ने फहराया था और जो अपूर्व दृश्य हमें दिखलाकर दिन-भर की अनवरत यात्रा पर चल पड़े थे, उसी से हर्षोन्मत्त हुए हम सब होटल से पाँच किलोमीटर दूर 'हिडन ट्विन बीच' चले गये। बाल-गोपाल की ज़िद थी, सुबह का वक्त था और खुशनुमा माहौल था। 'बीच' पर पहुँचने के लिए बलुआई खड़ी ढलान से नीचे उतरना था। मुझे तो नींद पूरी न होने की थकान थी, चित्त पर खिन्नता सवार थी, सिर में हल्का दर्द था और बीच पर उधम मचाने का वैसा कोई शौक भी मुझे नहीं था। दरअसल, 29 सितम्बर से हम निरन्तर यात्रा ही तो कर रहे थे और रैन बसेरों में अधकच्ची निद्रा लेकर आगे बढ़ते जा रहे थे। चार दिनों में थकान बढ़ते-बढ़ते चरम दशा में पहुँच गयी थी।... लिहाज़ा, मैं तो 'उच्चस्थानेषु पण्डिता' ही बना रहा, लेकिन युवक-युवतियाँ बच्चों सहित बीच पर जा पहुँचे। आश्चर्य की बात कि घुटनों के दर्दवाली मेरी श्रीमतीजी भी ऋतज की पुकार की अनसुनी न कर सकीं और सँभल-सँभलकर पग बढ़ाते, सहारा लेते हुए नीचे उतर ही गयीं और मैं काफी दूरी से उनकी तस्वीरें उतारता रहा।..

लेकिन, घण्टे-भर में धूप तीखी हो गयी और मेरे शरीर का रसायन तत्व बिगड़ने लगा, मस्तिष्क का नेटवर्क भाग चला; क्योंकि मैं अपना पान-तम्बाकू का थैला होटल के कमरे में ही छोड़ आया था। वह तो प्रभु भास्कर की कृपा हुई कि जल-क्रीड़ा करनेवाले दल को भी उनकी प्रखर रश्मियाँ चुभने लगीं और वे ऊपर आ गये। 'बीच' से होटल की राह निर्जन, कितु आकर्षक थी। दल के प्रायः सभी सदस्यों ने मध्य-मार्ग की एक छोटी-सी दुकान में चाय पी और होटल लौट आये।

होटल-प्रबंधन ने अपने सम्मानित अतिथियों के स्वागतार्थ निःशुल्क स्वल्पाहार (काॅम्प्लिमेण्ट्री ब्रेकफास्ट) का समय निर्धारित कर रखा था--8.30 से 10। हम नौ बजे के आसपास ही होटल पहुँच गये थे। पूरा दल शीघ्रता से स्नान-ध्यान में जुटा। 'बीच' से साथ लायी बालुका-राशि से पूर्णतः मुक्ति पाकर हम सभी होटल के बेसमेण्ट में पहुँचे, जहाँ नाश्ते का बढ़िया प्रबंध था। भोज्य-पदार्थ जब मुफ़्त का मुहय्या हो तो चित्त प्रसन्न हो जाता है और 'मेनू' देखने की आवश्यकता नहीं होती। दातव्य के अन्न पर रीझ जानेवाला विप्र तो मन्त्रमुग्ध-सा ठीक उसी तरह व्यंजन की ओर बढ़ता है, जैसे गुड़ की ढेली की ओर पंक्तिबद्ध बढ़ते हैं चींटे। युग बदला है, युग-धर्म बदला है, रोजी-रोजगार के लिए घर से निकले हैं विप्र-बंधु भी, बड़ी संख्या में; लेकिन सनातन परम्परा के गुण-तत्व रक्त-मज्जा से जाते कहाँ हैं? वे रह जाते हैं वृत्ति बनकर स्थायी भाव में...!

बेसमेण्ट के बड़े-से हाॅल में विभिन्न प्रकार के दक्षिण भारतीय व्यंजन तो थे ही, पूरी-भाजी, टोस्ट-बटर, गर्मागरम बनता ऑमलेट-दोसा, चाय-काॅफ़ी, कटे हुए फलों और जूस के काउंटर भी सजे हुए थे और हमें हसरत भरी निगाहों से तक रहे थे; जैसे हमलोगों से ही कह रहे हों--'आओ भाई, हमें खा-पी लो।' उनका यह प्रीत-पगा आमंत्रण बहुत लुभावना था। हम सभी भूखे व्याघ्र की तरह व्यंजनों पर टूट पड़े। हमने उन स्वादिष्ट पदार्थों को अल्पाहार की तरह नहीं, बल्कि संपूर्ण भोजन से भी अतिरिक्त मात्रा में ग्रहण किया। बच्चों ने आहार के साथ फल खाये, तरबूज का मीठा रस पिया, फिर मिल्कशेक भी गटक गये। हम भी अभी कहाँ बूढ़े हो गये थे अच्छी तरह? उदर में अधिकाधिक जितना कुछ डाल सकते थे, भविष्य की चिंता किये बिना, डालते गये। अधेड़ उम्र का मेरा पेट भी 'कन्फ्यूज़' हो गया कि यह सब क्या हो रहा है उसके साथ! उसे पायज़ामे के जारबंद का बंधन भी अप्रिय लगने लगा था।... अत्याचार किसी के भी साथ हो, वह नाराज़ जरूर होता है।





वहीं नाश्ते की टेबल पर बेटी-दामाद सा' ने तय किया कि हम कन्याकुमारी से कोचीन की यात्रा एकमुश्त न करके, बीच में एक रात का विश्राम लेंगे और तत्पश्चात् कोचीन के लिए प्रस्थान करेंगे। मध्य मार्ग का हमारा विश्रामालय होगा पूवर का 'बैक वाटर का रिसाॅर्ट'। दामाद साहब के दोनों मित्रों को भी सपरिवार अलग-अलग दिशाओं में जाना था। वे दोनों 10 और 10.30 पर गन्तव्य के लिए प्रस्थान कर गये। हमने डेढ़ घण्टे तक होटल में ही विश्राम कर शरीर और उग्र हुए उदर को शांत होने का अवकाश दिया। लेकिन डेढ़ घण्टे में उदर शांत-संयमित होनेवाला था नहीं, वह मुँह फुलाये रहा।...एक-दो बार वह मुँह तक आया भी, जैसे कुछ कहना चाहता हो। मैंने बलपूर्वक उसे यथास्थान बने रहने को बाध्य किया।

दिन के ठीक बारह बजे हम 70 किलोमीटर के सफ़र पर होटल से चल पड़े--पूवर के लिए। इकहरी सड़क थी, ढाई-तीन घण्टे का सफ़र था, लेकिन राह के दोनों किनारों के दृश्य चित्ताकर्षक थे। नारियल और ताड़ वृक्षों की अनन्त श्रृंखला सर्वत्र थी--शोभायमान! यह यात्रा अपेक्षाकृत शांति से सम्पन्न हो रही थी। ऋतज की आवाज़ के अलावा सिर्फ बेटी के स्वर सुनने को मिल रहे थे, वह भी तब, जब राह बताने की आवश्यकता होती; क्योंकि जीपीएस का नियंत्रण उन्हीं के अधीन था। कसे हुए पेट से सभी परेशान थे और नींद के झटके खा रहे थे। दिन के भोजन का तो प्रश्न ही नहीं था।...

अपने शरीर पर अगर किसी का पूरा नियंत्रण था, तो वह थे दामाद सा', जबकि सबसे अधिक श्रम उन्हें ही करना पड़ रहा था। तमिलनाडु की सीमा लाँघने के पहले दामाद सा' ने सड़क-किनारे कार रोकी। उतरकर कुछ कदम पीछे गये, जहाँ छोटी-सी मड़ैया में ताड़-नारियल के फलों का अंबार लिए एक वृद्ध बैठे थे। बड़े-बड़े शीशे के गिलासों में वह शर्बत जैसा पेय पदार्थ ले आये। उन्होंने बताया कि यह 'ताड़ी-मुंजु' है। इसे पीने के बाद तंद्रा भंग होगी और उदर की उथल-पुथल शांत हो जाएगी। उनके जोरदार समर्थन के कारण हम सबों ने शर्बत पिया, जिसमें श्वेत-पनीले और अतिमधुर टुकड़े मिश्रित थे। उसका पान कर जब हम आगे चले तो रविजी ने विस्तार से बताया कि वे श्वेत-पनीले टुकड़े दरअसल ताड़-वृक्ष के फल के अंदर के कोए थे।...और, आश्चर्य की बात कि उस पेय को ग्रहण करने के आधे घण्टे में ही उदर की उग्रता शांत हुई और हम बोलते-हँसते बढ़ते गये।...

बारह बजे के चले हुए हमलोग ढाई बजे पूवर के 'ईस्चुअरी आईलैण्ड' (केरल) पहुँच गये और वहाँ की निराली शोभा देखकर दंग रह गये।... वह तो पृथ्वी पर स्वर्ग के समान सुन्दर भूमि-भाग था।...हम दिव्य-भूमि से देव-भूमि पर आ गये थे।...

--आनन्द.
02-10-2017.

गुरुवार, 19 अक्तूबर 2017

अविस्मरणीय रहेगा वह सूर्योदय... आजीवन...

[दक्षिण की यात्रा से लौटकर...(4)

होटल पहुँचकर, सद्यःस्नान-समापनांतर, हम सभी रात्रि-भोजन के लिए पास के एक भोजनालय में गये। अच्छे आहार से तृप्त होकर, उनींदी आँखें, थकान से बोझ बनी देह लिये जब होटल के शानदार, गुदगुदे और मुलायम बिस्तर पर गिरे तो बेहोशी की नींद आयी। पार्श्व में घहराते समुद्र की गर्जना भी निद्रा में बाधक न बन सकी। मुझे लगा, सुदूर दक्षिण के समुद्री-तट पर समुद्र अपेक्षया शांत और संयमित है, वैसा उद्विग्न, उच्छृंखल और आक्रामक नहीं, जैसा मुंबई, कोलकाता अथवा जगन्नाथपुरी के तटबंधों पर है--हाहाकारी! तभी स्मरण में कौंधा, यहीं कहीं प्रभु श्रीराम ने समुद्र का दर्प-मर्दन किया था और उसे संतुलित होकर मार्ग देने के लिए विवश किया था। मुझे याद आयीं कवि भूषण की पंक्तियाँ--

"बिना चतुरंग संग वनरन लै के बाँधि वारिधि को लंक रघुनन्दन जराई है/ पारथ अकेले द्रोन भीषम सों लाख भट, जीत लीन्हीं नगरी विराट में बड़ाई है/ भूषन भनत भट गुसलखाने में खुमान अबरंग साहिबी हथ्याय हरि लाई है/ तौ कहाँ अचम्भो महाराज सिवराज, सदा वीरन के हिम्मतै हथ्यार होत आई है।"

हाँ, तभी तो कन्याकुमारी के समुद्री कछार पर लहरें किंचित् मंथर गति से आती हैं और पद-प्रक्षालन कर लौट जाती हैं, किंतु रात्रिकाल में थोड़ी स्वतंत्रता लेकर मुदित होती हैं और इसी मोद में उनका रोर कुछ बढ़ जाता है। भूषण की उपर्युक्त पंक्तियों के स्मरण मात्र से पौराणिक पात्र आँखों के सामने प्रकट होने लगे। माता सीता के वियोग में विकल प्रभु राम वन लाँघते हुए इसी भूमि-भाग में कभी आये होंगे। श्रीराम-भक्त हनुमानजी ने यहीं कहीं से लगायी होगी लंबी छलाँग। समुद्र के सुस्थिर हो जाने पर वानर-सेना ने उस पर बाँधा होगा सेतु...! मस्तिष्क सोचने लगा, यहाँ से कितनी दूर होगा रामेश्वरम्! पूछने पर ज्ञात हुआ, बहुत दूर--प्रायः तीन सौ किलोमीटर! इस जानकारी ने मेरे अतिचिंतन पर विराम लगाया।...

होटल के कमरे की खिड़कियों से हमने बाह्य परिदृश्यों का अवलोकन किया, तस्वीरें उतारीं; फिर तो निद्राभिभूत आँखें स्वयं ही बंद होने लगीं। हम शय्याशायी हुए। निद्रा देवी ने तत्काल हमें अपने आगोश में ले लिया। हम बेसुध सो गये।...

सुबह 5 बजे ही श्रीमतीजी ने झकझोर कर जगाया। यह शरीर पर अत्याचार-सा ही था, लेकिन तेजोराशेजगत्पते दिवाकर के दर्शन के लिये, उनकी अगवानी के लिए हमें जागना ही था। समय से तैयार होकर होटल के चार कमरों से चारों परिवार निकलकर लाॅबी में एकत्रित हुए--मैं सपत्नीक, दामाद साहब सपरिवार और उनके दो मित्र अपने-अपने परिवारों के साथ। अब हमें सूर्योदय दर्शन के लिए उपयुक्त स्थान पर पहुँचना था। होटल के स्वागत काउंटर पर जो संभ्रांत, सुदर्शन युवक खड़े थे, उन्होंने अंग्रेजी में पूछा--'आपलोग कहाँ जायेंगे?' दामाद साहब ने कहा--'सनराइज देखने।' स्वागतकर्ता ने सलाह दी कि 'सनराइज देखने के लिए सर्वोत्तम स्थान तो होटल के सातवें माले की छत ही है। आपलोग वहीं चले जायँ।' लिफ्ट से पूरा कुनबा तत्क्षण भवन की छत पर पहुँचा। तब तक घनान्धकार ही था--सर्वत्र। भूमि-भाग पर आसपास के जितने भवन-मन्दिर थे, वे रौशनी से जगमगा रहे थे--जल के बीच बना 'स्वामी विवेकानन्द राॅक मेमोरियल' और तिरुवल्लुवरजी की विशालकाय मूर्ति! वहाँ तक ले जानेवाली बोट का लंगर और जेटी तथा सम्मुख था दृष्टि-सीमा के परे तक बहता अनन्त सागर। यह अद्भुत-अकल्पनीय और मनोहारी दृश्य था। हमारी टोली मंत्रमुग्ध, ठगी-सी खड़ी थी!

छत पर और भी कई लोग थे। सूर्यदेव का कहीं पता नहीं था। सभी अपने सेल और कैमरे से प्रकाश तथा अंधकार के मिश्रण को कैद कर रहे थे। हमने भी वही किया। 5.30 पर हम छत पर पहुँच गये थे। गूगल सर्च ने हमें बताया था 6.08 पर प्रकट होंगे सूर्यदेव! हमारी अधीरता बढ़ती जा रही थी और लगता था, पल ठहर गये हैं, खिसकते नहीं। लेकिन, यह हमारा भ्रम था--हमारी बेकली का असर था...क्षण को अतीत का ग्रास बन जाना ही था और बिना हमें सचेत किये वह बनता जा रहा था अतीत का निवाला...!

छह बजते ही क्षितिज का रंग बदलने लगा। अंधकार परास्त होता स्पष्ट दिखा। हम सचेत-सावधान हो गये। अपनी-अपनी धुरी पर जड़, स्थिर! पहले उदयाचल का रंग धूसर हुआ, फिर पीला और फिर टुह लाल--रक्तिम! इसी लालिमा में, सुदूर आकाश में बादल का एक त्रिकोण रक्ताभ हो उठा। ऐसा लगा, सूर्यदेव ने आगमन के पहले विजय पताका फहरायी है। अचानक रवि-रश्मियों ने क्षितिज से झाँकना शुरू किया, सर्वत्र गहरा पीला रंग पुत गया क्षितिज के छोर पर। और, तभी दिनकर प्रकट होते दिखे। मुझे राष्ट्रकवि दिनकर याद आये और याद आयी बालकवि बैरागी की पंक्ति, जो राष्ट्रकवि के निधन पर उन्होंने लिखी थी--
'क्या कहा कि दिनकर अस्त हो गया,
दक्षिण के दूर दिशांचल में?'

ऐसा प्रतीत हुआ, मानो अथाह समुद्र में एक गहरी डुबकी मारकर जगतपति दिनकर बाहर आ गये हैं अभी-अभी।... आत्मा सिहर उठी। लगने लगा, कवि दिनकर अपनी अनन्त काव्य-रश्मियों के साथ लौट आये हैं भारत की भूमि पर।... दिशाएं आलोकित होने लगीं। क़ायनात का गोशा-गोशा रौशन हो उठा और तभी सैलानियों का प्रसन्नता से भरा एक शोर उठा--तुमुल नाद-सा। सैलानी, जो देश-विदेश से आकर वहाँ एकत्रित थे और देव दिवाकर के प्रातःदर्शन से हर्षोन्मत्त हो उठे थे। सातवीं मंजिल की छत से हम उन्हें भी देख रहे थे और सुन पा रहे थे वह जन-कोलाहल। वह सूर्योदय-दर्शन अद्भुत, अविस्मरणीय है और रहेगा आजीवन...!






लेकिन, यह क्या? मैंने लक्ष्य किया कि सूर्योदय उसी पश्चिम दिशा से हुआ, जहाँ कल सायंकाल सूर्यास्त हुआ था--यहाँ से ठीक डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर ! तो क्या दक्षिण भारत में सूर्योदय और सूर्यास्त पश्चिम दिशा में होता है? परमाश्चर्य ! पूछने पर ज्ञात हुआ कि यही एकमात्र ऐसा स्थल है, जहाँ ऐसा विभ्रम होता है; लेकिन मेरी शंका का समूल समाधान नहीं हुआ। जो प्रत्यक्ष घटित हुआ था, उसे नकारता कैसे?

इन दिनों मेरी दोनों बेटियों ने आपस में कुछ मंत्रणा कर अपने माता-पिता को सुख पहुँचाने का निश्चय किया है शायद! पिछले दिनों छोटी बेटी संज्ञा ने सदी के महानायक श्रीअमिताभ बच्चन से मिलवाकर मेरा एक सपना सच किया था और अब बड़ी बेटी कल्याणीया शैली और दामाद आयु. रवि ने यह दुर्लभ दर्शन का असीम सुख दिया। उन दोनों को मेरा आशीर्वाद कि उन्होंने यह संयोग बनाया, निमित्त बने, अन्यथा मैं अपने कागज़ों के अंबार का दीमक ही बना रह जाता...!

--आनन्द.
02-10-2017.

रविवार, 15 अक्तूबर 2017

बादलों की ओट धरकर सूर्य ने ले ली जल-समाधि...

[दक्षिण की यात्रा से लौटकर--3]

त्रिवेंद्रम से कन्याकुमारी सौ किलोमीटर दूर है। 65-67 किलोमीटर का सफ़र करके हम महाराजाधिराज मार्तण्डवर्मा के राजप्रासाद पहुँचे थे, लेकिन निर्माणाधीन होने के कारण मुख्य मार्ग अवरुद्ध था। हमें राजमार्ग छोड़कर सँकरे, उच्चावच और उबड़-खाबड़ रास्तों से गुज़रना पड़ा, जो भयप्रद भी था। इसमें ख़ासा वक्त बर्बाद हुआ। फिर, राजमहल में हम ऐसे मग्न हुए कि समय का कुछ होश नहीं रहा। अब 33-35 किलोमीटर की दूरी तय करनी थी और हमें भूख भी लग आयी थी। पद्मनाभपुरम् से निकलते ही उडपी का शाकाहारी भोजनालय देखकर हम हर्षित हुए और जमकर वहीं बैठ गए। पेट-पूजा से निवृत्त होकर हम पुनः दौड़ चले कन्याकुमारी की ओर। सूर्यास्त के पहले कन्याकुमारी पहुँचकर और होटल से तरोताज़ा होकर हमें 'सनसेट प्वाइंट' जा पहुँचना था। ग़नीमत थी, अब सड़क अपेक्षया अच्छी थी। हमें दामाद साहब के कार-चालन-कौशल का बड़ा भरोसा भी था, वह द्रुत गति से हमें गन्तव्य की ओर ले चले। लेकिन कार के पहियों को आखिरकार 33-35 किलोमीटर की दूरी को तो नपना ही था और दिन था कि ढलने को अधीर हो रहा था।

मनोरम वन-वीथियों की अनुपम शोभा को निहारते हुए हम क्षिप्रता से चले जा रहे थे। वनों, छोटी-छोटी पहाड़ियों और नद-नदियों के बीच से गुज़रते हुए हम सभी अपूर्व सुख का अनुभव कर रहे थे। सच है, लंबी यात्रा से हम बेहद थक गये थे, क्लांत थे, लेकिन हमारी ऊर्जा, हमारे उत्साह में कमी नहीं थी। हमारे साथ-साथ दायें हाथ घोर गर्जना करता समुद्र दौड़ रहा था और हमारी नस-नाड़ियों में भर रहा था अतीव उछाह। अनूठी सुख-सृष्टि का प्रदेश है केरल-तमिलनाडु! लेकिन 35 किलोमीटर की दूरी तय करते-करते सूर्यास्त का समय लबे-दम हो आया। होटल जाकर तैयार होने का अवकाश न रहा। हमने होटल से डेढ़ किलोमीटर पहले ही कोवलम् के बीच (सनसेट प्वाइंट) पर पहुँचना सुनिश्चित किया। समुद्र के तट पर जा खड़ा होना सचमुच रोमांचक अनुभव था। सनसेट प्वाइंट पर सैलानियों की अपार भीड़ थी, कारों-बसों का लंबा काफ़िला था। अपनी कार को थोड़ी दूरी पर छोड़कर और पद-यात्रा कर हम एक ऊँची शिला पर स्थापित हुए और सूर्यास्त की प्रतीक्षा करने लगे।...

और, थोड़ी ही देर में सूर्य पश्चिमी क्षितिज पर उतर आया, लेकिन जिधर वह अस्त होने चला, वहीं आकाश की किसी अज्ञात अभियांत्रिकी से निकलता गहरे काले धुएँ-सा बादल घनीभूत होता दिखा। ओह, दिवाकर तो बादलों की ओट जा छिपा। कभी किसी कोण से वह झाँकता तो आकाश का नज़ारा बदल जाता, समुद्र के जल की लहराती चूनर धानी हो जाती। आसमान में रंगों की बारिश हो रही थी ... साथ-साथ हमारे मन का रंग भी 'बैनीआहपिनाला' हो रहा था। सभी मुदित मन थे। समुद्री हवाएँ हमारी केश-राशि से खेल रही थीं और हम उनके साथ झूम रहे थे। यही खेल खेलता सूर्य अस्ताचलगामी हुआ, बादलों की ओट धरकर। लेकिन, उस सांध्यकाल में जो कुछ हमने देखा, वह कन्याकुमारी के समुद्र-तट से ही देखना संभव था। सचमुच, वह अद्भुत दृश्य था--अनदेखा, अनजाना दृश्य! हम रोमांचित-पुलकित वहाँ से आगे बढ़े होटल की ओर!






'सी-व्यू' होटल यथानाम तथागुण था, बिल्कुल समुद्र के किनारे। हम पाँचवें माले के अपने कमरे में पहुँचे और कमरे की खिड़कियों तथा बाल्कनी से बाहर का दृश्य देखकर प्रायः चौंक पड़े। अथाह जल-राशि हमारे सामने तरंगित थी। लहरें शीघ्रता से आतीं और तट छूकर लौट जातीं। भारत के मानचित्र को ध्यान में रखते हुए मुझे ऐसी प्रतीति हुई कि मैं देश की पाद-भूमि में एक भवन की पाँचवीं मंजिल पर निपट अकेला खड़ा हूँ और साश्चर्य देख रहा हूँ, क्षिप्र गति से आती हर लहर को, जो आती है और मेरे देश का पाँव पखारकर चली जाती है। मैं निर्निमेष देखता ही रह जाता हूँ लहरों की यह चरण-वंदना! और, यह क्रिया अनवरत होती है--अविराम! अनुभूति का ऐसा रोमांच मैंने पहले कभी महसूस नहीं किया था। सोचता ही रह जाता हूँ, यह वारिधि कैसा विलक्षण भक्त है, जो निरंतर भारत-भूमि के पाँव पखार रहा है, क्षण-भर का विश्राम भी इसे स्वीकार नहीं !...
(क्रमशः)
1-10-2017

[चित्र-परिचय  : 1) सूर्यास्त-दर्शन को दौड़ चले हम 2) शिलासीन हुआ मैं 3) दर्शनार्थियों और वाहनों की भीड़ 4) सूर्यदेव को ओट देने आये बादल 5) अलौकिक अभियांत्रिकी से निकलता बादलों का काला धुआँ 6) मैं सपरिवार।

रविवार, 8 अक्तूबर 2017

राजा के किले से विभव विलुप्त हुआ, लेकिन वहाँ पुराना वक्त ठहरा मिला...

[दक्षिण की यात्रा से लौटकर--2.]

त्रिवेंद्रम से कन्याकुमारी के मार्ग में राजा अनिझम थिरुनल मार्तण्डवर्मा का किला था। मुख्य मार्ग से एक वक्र मोड़ लेकर हम वहाँ पहुँचे। राजा के किले के मुख्यद्वार पर पहुँचे तो लगा ही नहीं कि किसी उल्लेखनीय राजद्वार पर आ गये हैं। वह तो हमें किसी समृद्ध गाँव के मुखिया का उन्नत दोमंज़िला मकान-सा प्रतीत हुआ--चौड़े लाल पत्थरों के खपरैलवाला भवन ! हम सभी आश्चर्यचकित थे--आखिरकार यह कैसा राजप्रासाद?

लेकिन मुख्यद्वार से प्रविष्ट होने के बाद पतली-सँकरी सीढ़ियों से ऊपर चढ़ते हुए हम फिर चकित हुए बिना न रह सके। पत्थर के स्तम्भों पर लकड़ी के मोटे बर्गों और शहतीरों से कई-कई खण्डों में निर्मित था वह राजप्रासाद! प्रत्येक खण्ड की अलग विशेषता थी। उसे भवन न कहकर भवन-समूह कहें तो अतिशयोक्ति न होगी। उसका परिसर विशाल है, यह प्रवेश के बाद ही जाना जा सकता है। काष्ठ-कला अद्भुत नमूना है यह!

प्रथम खण्ड में महाराजाधिराज का कोर्ट-रूम था, जहाँ अपने सभासदों के साथ सर्वोच्च आसन पर विराजमान होकर राजा मार्तण्डवर्मा अधिकारियों के साथ विमर्श करके न्याय करते थे। उस कक्ष की महराबें और काष्ठ पर उत्कीर्ण नक्काशियाँ अद्भुत और प्राचीनकाल की हैं, यह देखकर ही समझा जा सकता है। काष्ठ निर्मित सँकरी सीढ़ियाँ प्रथम तल से दूसरे और दूसरे से तीसरे माले पर ले जाती हैं। निर्माण में प्रयुक्त लकड़ियाँ आज भी यथावत् हैं अपनी पूरी चमक और आन-बान-शान के साथ।




तीन शताब्दी पहले दक्षिण के एक सर्वसमर्थ, शासन की धुरी, विस्तृत भू-भाग के एकछत्र स्वामी महाराजाधिराज क्या ऐसे भवन में निवास करते थे? यह सोचकर भी आश्चर्य होता है। 300 वर्ष पूर्व महाराज मार्तण्डवर्मा ने ही अपने प्रयत्नों से पद्मनाभस्वामी मंदिर का कायाकल्प किया था। तीन सौ वर्ष--उंगलियों पर गिनी जानेवाली तीन शताब्दियां, लेकिन इन तीन शताब्दियों में न जाने कितनी पीढ़ियाँ आयी-गयीं, जाने कितना-कुछ बदल गया भारत के इस भूमि-खण्ड पर!

मैने उत्तर भारत के अनेक राजप्रासादों को देखा है, मुगल-काल के अनेक बादशाहों के किले देखे हैं, किन्तु सुदूर दक्षिण के पद्मनाभपुरम् के मार्तण्डवर्मा के महल की सादगी और सुरुचि मुझे प्रभावित करती है और मुझे विस्मित भी करती है। धर्म में गहरी आस्था रखनेवाले और युगानुरूप आसन्न संकटों-अवरोधों से जूझनेवाले राजा मार्तण्डवर्मा ने अपने जीवनकाल में अद्भुत शौर्य और पराक्रम का परिचय दिया था। मात्र 53 वर्ष की जीवन-यात्रा में उन्होंने त्रावणकोर की बिखरी हुई रियासतों को एकीकृत किया, पद्मनाभस्वामी मंदिर के वैभव का विस्तार किया, डच सैन्य शक्ति का डटकर सामना किया और अनेक समुद्री युद्धों में उन्हें परास्त कर उनकी विस्तारवादी नीतियों पर विराम लगाया। दो प्रमुख सेना-नायकों और ग्यारह हज़ार डच सैनिकों को उन्होंने युद्धबंदी बनाया तथा उदयगिरि के बंदीगृह में डाल दिया। कालान्तर में राजा मार्तण्ड वर्मा ने दया दिखाते हुए युद्धबंदियों को इस शर्त पर रिहा कर दिया कि वे फिर कभी भारत-भूमि पर दिखाई न दें और उन्हें अपने सैन्य संरक्षण में कोलंबो तक भेजा, लेकिन दोनों सेना-नायकों को बंदीगृह में ही रहने दिया। बाद में थोड़ी नर्मी दिखाते हुए उन्होंने अपनी सेना को प्रशिक्षित करने का काम उन्हें सौंपा, जिसे वे दोनों आजीवन करते रहे।...

सोचता हूँ, दक्षिण भारत के ऐसे धर्मरक्षक, वीर सपूत, पद्मनाभस्वामी के चरण-सेवक मात्र 53 वर्षों के अपने छोटे-से जीवनकाल में इतने सारे महत्व के काम कैसे कर सके और वह भी अपने इस छोटे-से राजप्रासाद से? कैसे...? खेद की बात है कि धर्म की धुरी माने जानेवाले, देश की अस्मिता और गौरव के रक्षक, अखण्ड भारत की संप्रभुता के ध्वजवाहक राजा मार्तण्ड वर्मा की प्रेरक जीवन-कथा को एन.सी.ई.आर.टी. की पुस्तकों में कहीं स्थान न मिला।

मैं तो देख आया दर्शनार्थियों की भीड़ से भरा हुआ राजन् का राजमहल, जहाँ का वैभव विलुप्त हो चुका है, लेकिन समय ठिठका-सहमा-दुबका खड़ा है महल के हर कक्ष में, गलियारों में, सँकरी सीढ़ियों के नीचे, पूजा-गृह में, माता के कमरे में, राजा की शय्या के नीचे, अतिथि-भवन 'इन्द्र विलास' में, परकोटों पर--और छोटे-छोटे गवाक्षों से झाँकते हुए...! क्या आप इसे देखना न चाहेंगे...?

--आनन्द.
01-10-2017.

चित्र-परिचय  : 1) राज-प्रासाद का प्रवेश-द्वार, 2) महाराजाधिराज मार्तण्ड वर्मा 3) राजन की न्यायशाला,
4) प्रासाद के गलियारे में सपत्नीक, जब एक बाँकी किरण गृह-लक्ष्मी की हथेलियों पर आकर ठहर गयी।

गुरुवार, 5 अक्तूबर 2017

प्रभु पद्मनाभस्वामी के द्वार पहुँचा...

[दक्षिण की यात्रा से लौटकर--(१)]

शेषनाग की शय्या पर गहन निद्रा में मग्न भगवान् विष्णु के आठ एकड़ में बने पाँच हजार वर्ष पुराने मन्दिर में विजयादशमी की सुबह 7.40 पर अपने दल के साथ पहुँचा। साथ थीं श्रीमतीजी, बेटी-दामाद और हम सबके प्यारे ऋतज! कोची से ही सहयात्री बने दामाद साहब के एक मित्र भी सपरिवार हमारे साथ थे। त्रिवेंद्रम के एक मित्र भी सपरिवार हमारे दल में आ मिले। दरअसल, दुर्लभ दर्शन को सरल-सहज बनाने की सारी व्यवस्था उन्होंने ही की थी। मन्दिर में हमारा प्रवेश सहज हो गया। एक विशेष पुजारीजी धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलते हुए हमारी जिज्ञासाओं का निराकरण करते रहे। ऋतज मुझे पण्डितजी के अंग्रेजी वक्तव्यों का हिन्दी-अनुवाद बता-बताकर बार-बार पूछते रहे--'नान् जी, आप समझ गए न?' उन्होंने मान लिया है कि मैं हिंदीदाँ हूँ और अंग्रेजी का ज्ञान मुझे बिल्कुल नहीं है।...

अति प्राचीन इस धर्म क्षेत्र को पृथ्वी पर साक्षात् वर्तमान प्रभु श्रीविष्णु के स्थान की मान्यता प्राप्त है। प्रस्तर के 365 विशालकाय स्तम्भों के चौरस गलियारों के मध्य भव्य मन्दिर है, शेषनाग की कोमल शय्या पर निद्रा-निमग्न हैं प्रभु। उनके नाभि-कमल के पुष्प-दल पर विराजमान हैं ब्रह्मा, बायें हस्त में कमल का फूल है और दायीं हथेली के नीचे स्वयं समक्ष हैं देवाधिदेव महादेव! गोपुरम् का शिल्प और उसकी भव्यता दर्शनीय है, मोहित करती है।
विजयादशमी के कारण आज पद्मनाभम् स्वामी के मन्दिर-परिसर में बहुत भीड़ थी। दर्शनार्थियों की कतार का न ओर दिखता था, न छोर। वस्त्राचार का नियम-बंधन भी बहुत है, जिसका कठोरता से पालन किया जाता है। प्रत्येक महिला के लिए साड़ी पहनना अनिवार्य है और प्रत्येक पुरुष के लिए मुण्डु (दक्षिण भारत का धोती-लुंगीनुमां परिधान) और तन पर मात्र अंगवस्त्रम्। दामाद साहब के मित्र की कृपा से जन-समुद्र से बचते हुए हम बड़ी आसानी से श्रीहरि के दिव्य दर्शन कर आये। हमने मूल मन्दिर की परिक्रमा की, फिर ध्यान कक्ष में जा बैठे।
ध्यान का मेरा अभ्यास पुराना है, लेकिन वह अभ्यास परा-विलास के ज़माने का था, जिसके किस्से आपने पहले ही पढ़े हैं और जिसे छोड़े हुए भी एक युग बीत गया है। उस युग के ध्यान के अनुभव किसी को न बताने की खास हिदायत थी। अमूमन उन अनुभवों को मैं किसी के साथ साझा करता भी नहीं था। लेकिन अब न कोई वर्जना है, न कोई अंकुश।...

आज पद्मनाभ मन्दिर के ध्यान प्रकोष्ठ में बैठा तो सिहरन-भरी विचित्र अनुभूति हुई। मन करता है कि यह अनुभव-अद्वितीय आप सबों के साथ बाँट लूँ। 15-20 मिनट ही एकाग्रचित्त होकर बैठा था कि मानस-पटल के मध्य हरे रंग की कोमल कली प्रकट होती प्रतीत हुई। किसी चलचित्र की तरह उस कली का विकास हुआ और धीरे-धीरे उसके खुलते दल रंग बदलने लगे। पाँच मिनट के निमिष काल में वह सुन्दर गुलाबी कमल पुष्प में परिणत हो गया। उसके आसपास अलौकिक आभा बिखरी हुई थी।... और हठात् ध्यान भंग हुआ। ध्यान की अवस्था में मिले इस अलौकिक अमूर्त दर्शन का अर्थ-अभिप्राय समझने के लिए फिर मैं ध्यान-मग्न होने की चेष्टा ही करता रह गया, ध्यान लगा नहीं।

मन्दिर से निकलकर हम होटल आये। कपड़े बदले। सुबह से उपवास था। हमने अल्पाहार लिया और बच्चों की ज़िद पर चिड़ियाघर-अजायबघर गये। फिर केले के हरे पात पर सद्याभोजन ग्रहण करने एक होटल में गये। यह केरल का विशिष्ट आयुर्वेदिक आहार है--जितना चाहिए, उतना मिलेगा। हमने छककर उदरपूर्ति की। उसके बाद बीस-एक किलोमीटर की यात्रा करके पहुँचे कोवलम् के समुद्र-तट पर। अरब सागर का अन्तरराष्ट्रीय व्यपार-मार्ग हमने पुलकित भाव से देखा। 'बीच' पर बच्चों ने जल-क्रीड़ा की, फिर हम लौट चले। रात नौ बजे के आसपास हम अपने रैनबसेरे में पहुँच गये।

ऐसी अलौकिक, उल्लासमयी विजयादशमी जीवन में कभी व्यतीत नहीं हुई थी..!
--आनन्द. /30-09-2017