सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

पुरानी चादर के धागे...

[विस्मृति के गह्वर से...]

शाम ढल रही थी,
मेरी बाहों में लिपटा था
संवेदनाओं का ज़हर
और पास की कब्र पर
जलते गुगुल-लोहबान की भीनी खुशबू
मेरे दिल-दिमाग पर छाई हुई थी !
सायं-सायं करती
गुज़र रही थीं मदहोश हवाएं...
बिखरे हुए वक़्त को
कांपती उँगलियों से
सहेजने की कोशिश में
कुछ लम्हों के लिए
ठहर जाती है उदास शाम !

देर रात रक्त-नालियों में
प्रवाह मंद होता देख
मैं फिर से जीने के लिए
बदलता हूँ करवटें...
और करवटें...
सासें चल रही हैं,
शरीर में स्पंदन भी है,
फूट पड़ने के लिए
हलक में फंसे हैं कुछ शब्द भी;
लेकिन लगता है,
ज़िन्दगी किसी और बिस्तर पर सोयी है !
ढूंढता-तलाशता हूँ उसे--
उसकी कोई सुन-गुन नहीं मिलती,
मैं हैरान होता हूँ...
अभी-अभी तो यहीं थी ज़िन्दगी,
छोड़ गया था उसे
अपने कलेजे से निकाल कर--
जाने कहाँ गई वह ?

मेरे प्रश्नों का उत्तर
मेरी आती-जाती साँसें देती हैं--
श्वांस का जो टुकडा
अभी-अभी बाहर निकल कर
हवा में घुल गया है,
क्या वही लौट कर हमें मिलता है ?
डाली से गिरा हुआ फूल
क्या वृंत्त पर फिर खिलता है ?

मेरी बिछड़ी हुई ज़िन्दगी भी
इसी तरह कहीं खो गई है,
पुरानी चादर के धागे-धागे में
जो गर्मी थी--
विस्मृति के गह्वर में सो गई है !!