शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

'कील गुर्रों' उर्फ़ काठ का घोड़ा...

मेरे घर के सामने ही उनका घर था--भिन्न-मुखी ! मेरा घर पश्चिमाभिमुखी तो उनका उत्तराभिमुखी ! १२ वर्ष का चंचल बालक मैं क्षण-भर में २० फ़ीट की सड़क लाँघकर उनके घर पहुँच जाता था। उस घर में निवास करती थीं दक्षिण-भारतीय एक सुघड़ ब्राह्मणी! ३५-३६ की उम्र रही होगी, दुबली पतली थीं, नासिका में अपेक्षाकृत बड़ा-सा सोने का आभूषण पहने रहती थीं--सामान्य रूप-स्वरूप की हंसमुख महिला! तेलुगुभाषिणी थीं, लेकिन वर्षों उत्तर भारत में व्यतीत करते हुए साफ़-सुथरी हिंदी भी धाराप्रवाह बोलने लगी थीं। आज इतनी मुद्दत बाद उनका स्मरण करता हूँ तो यादों के आसमान में उभरता है उनका मुस्कुराता हुआ गोरा चेहरा और मन में एक अजब-सी कसक उठती है ! उन्हें मैंने हमेशा एक रंगीन सूती साड़ी में देखा, जिसे वह दक्षिण भारतीय महिलाओं की तरह धारण करती थीं। मैंने जब कभी उनके घर की साँकल बजाई, वह फुर्ती से आयीं--किसी काम से हाथ छुड़ाकर, द्वार खोला, आँचल से मुँह पर आया पसीना पोंछा और 'तुम बैठो, मैं अभी आयी' कहती हुई लौट गयीं। अत्यन्त स्नेहमयी थीं वह ! हम उनके स्नेह के वशीभूत उन्हें 'चाचीजी' कहते थे !
चाचीजी का परिवार सुदर्शन लोगों का परिवार था। उनके दो प्रवासी बच्चे, एक बेटी और एक बेटा, अपने दादा-दादी के पास किसी दूसरे शहर में रहते थे और गर्मी की छुट्टियों में ही अपनी माँ के पास आया करते थे ! वे जब आते, हमारा खेल खूब जमता--आइस-बाइस, चोर-सिपाही, कैरम-लूडो...! घर के बरामदे में सेफ्टी पिन से परदे डालकर हम बाल-नाटक भी खेला करते थे। उस कच्ची उम्र में मैंने अति उत्साह में एक लघु-नाटक भी लिखा था--'अमर शहीद भगत सिंह'! मेरे लिखे उस बचकाने नाटक का बार-बार हमने मंचन किया था और उसे मोहल्ले की महिलाओं की खूब सराहना मिली थी।
चाची के पतिदेव निर्लिप्त व्यक्ति थे--घर से भी, अपने बच्चों से भी और आस-पड़ोस, टोले-मुहल्ले-समाज से भी। उन्हें अपने दफ़्तर से कभी फुर्सत ही नहीं होती थी। सुबह के निकले देर रात, जाने कब घर आते। हमें तो कभी-कभार ही उनके दर्शन होते। उम्र की चालीसवीं पायदान के आसपास ही थे वह भी।
चाचीजी की बड़ी बेटी मेरी बड़ी दीदी की हमउम्र थीं औेर सुपुत्र मेरी उम्र के। हमारी गहरी मित्रता थी और गर्मी की छुट्टियों के दिन बड़ी मौज-मस्ती में व्यतीत होते ! लेकिन ऐसा तो वर्ष में एक ही बार होता, एक-सवा महीने के लिए। जब वे चले जाते, तब भी हमारा अड्डा चाचीजी का घर ही होता ! स्कूल से लौटकर हम सीधे उनके घर चले जाते, वहाँ हमारा निर्बाध प्रवेश था। हमारा स्वागत करते हुए बेध्यानी में कई बार उनके मुँह से तेलुगु में एक वाक्य निकल जाता--'रा बाई कूरचो!' (आओ बच्चों बैठो)। अर्थ के साथ वह वाक्य मैं आज तक नहीं भूला। चाची हमेशा मुस्कुराती मिलतीं। वह हमारे साथ कैरम खेलतीं, लूडो खेलतीं, खूब बातें करतीं और मुग्ध कर देनेवाली कहानियाँ सुनातीं।
ऐसी ही सम्मोहक और विमुग्धकारी एक कहानी उन्होंने हम बच्चों को धारावाहिक रूप में सुनाई थी--'कील गुर्रों' अर्थात~ काठ का घोड़ा ! लम्बी कथा थी, सात-आठ दिनों में ख़त्म हुई थी। उस कहानी की अगली कड़ी की हम सभी व्यग्र प्रतीक्षा करते थे और रातों की नींद में उसी कथा के पात्रों को स्वप्न में देखा करते थे ! यह बाल-मन पर कहानी का सहज प्रभाव था या कथा की अतुलनीय सम्मोहक शक्ति--यह मैं कभी सुनिश्चित नहीं कर सका ! लेकिन इतना तय है कि कथा-वाचन की अद्भुत कला चाचीजी के पास अवश्य थी।
मुख़्तसर में कहूँ तो कथा यह थी कि एक राजकुमार अपनी प्रेमिका की तलाश में राजमहल से निकलता है। उसी प्रेमिका से उसका विवाह होनेवाला था, लेकिन उसके पहले ही वह विलुप्त हो गयी थी। बहुत भटकने के बाद बीहड़ वन में उसे एक तांत्रिक से प्राप्त होता है--काठ का घोड़ा और खोयी हुई राजकुमारी का संभावित सूत्र ! काठ का वह घोड़ा आकाश-मार्ग में विचरण करनेवाला जादुई घोडा था। राजकुमार उसी घोड़े पर बैठकर उड़ चलता है। फिर तो वह अनेक लोकों में जाता है, अनेक बिघ्न-बाधाओं-संकटों से जूझता है, नदी-पहाड़-समुद्र लाँघता है, नगर-द्वीपों पर युद्ध करता है और इंद्रजालिक तिलस्मी नगरों के तिलस्म तोड़ता है; लेकिन अंततः वह अपनी राजकुमारी को ढूँढ़ लाने में सफल हो जाता है।
इस कथा का हम सभी बच्चों पर विस्मयकारी जादुई असर था। हम उसके सम्मोहन में ऐसे बँधे थे कि मत पूछिये। आज ५५ वर्षों बाद भी, कथा का सिलसिलेवार क्रम चाहे मन से मिट गया हो, मूल कथा अच्छी तरह याद है मुझे ! चाचीजी ने अपने बचपन के दिनों में यह कहानी तेलुगु में पढ़ी थी कभी !

सन् १९६०-६१ में उस मुहल्ले में स्थापित होने के कुछ समय बाद ही मेरी माताजी ने वहाँ की महिलाओं के सहयोग से भजन-कीर्तन की एक मण्डली बना ली थी। मेरी माता प्रभु-भक्त महिला थीं। अब सप्ताह में दो दिन (मंगल और शनिवार) कीर्तन की तेज आवाज़ मुहल्ले में गूँजने लगी थी। कीर्तन में ढोलक-वादन का दायित्व चाचीजी निभाती थीं। जब हमने उन्हें पहली बार पूरी दक्षता से ढोलक बजाते हुए देखा था, तो हमें आश्चर्य हुआ था। हंसमुख महिला तो थीं ही, मग्न-भाव से वादन करतीं और साथ ही कीर्तन में अपना मधुर तेजस्वी स्वर भी मिलाती जातीं। मेरी माताजी उनके सुमधुर व्यवहार, सद्भाव और उनकी प्रतिभा से बहुत प्रभावित थीं। शीघ्र ही दोनों में प्रगाढ़ मैत्री-सम्बन्ध स्थापित हो गये थे, लेकिन मेरी माताजी उम्र में चाची से बड़ी थीं। लिहाज़ा, चाची मेरी माँ का बड़ी बहन-सा बहुत आदर-मान किया करती थीं।
साल के दस-ग्यारह महीने, दिन के वक़्त, चाची घर में तनहा रहतीं। एक अपने लिए उन्हें क्या-कितना भोजन बनाना होता? किचन से घण्टे-भर में फारिग हो जातीं और उसके बाद हम बच्चों के स्कूल से लौट आने की आतुर प्रतीक्षा करतीं। हम भी उनके पास पहुँचने की व्यग्रता में रहते। घर से जल्दी-जल्दी कुछ खा-पीकर चाची के पास पहुँच जाते। फिर जमता हमारा खेल या शुरू हो जाती चाची की कथा-कहानी ! मैंने हमेशा उन्हें मुस्कुराते, गुनगुनाते, दौड़ते-भागते देखा--सदैव प्रसन्नचित्त! प्रायः दो वर्ष उनके सान्निध्य में सुखपूर्वक बीत चुके थे।
एक दिन उनके पास अकेला ही पहुँचा और कैरम की गोटियाँ बोर्ड पर बिछा लीं, लेकिन चाची 'अभी आती हूँ' कह तो रही थीं, आती नहीं थीं ! मैंने उन्हें आवाज़ें लगनी शुरू कीं। बहरहाल, थोड़े अधिक विलम्ब से वह आयीं और खेल शुरू हुआ। मैंने देखा, उनका मुख कुछ मलिन है, कांतिहीन है। चेहरा भी कुछ धुला-धुला-सा; जैसा बहुत रो लेने के बाद होता है। एक गहरी उदासी से घिरी हैं वह ! यह मेरे लिए अप्रत्याशित था। मैंने पूछा--'चाची, आप उदास क्यों हैं?'
उन्होंने कहा--'नहीं, कुछ नहीं, आज तबीयत ठीक नहीं है !' मैं निरुत्तर हो गया। बेमन से खेल तो हुआ, लेकिन चाचीजी की उदासी का सबब मेरे दिमाग में प्रश्न बनकर घूमता रहा ! उनकी ऐसी दशा कई दिनों तक रही और मेरी बाल-बुद्धि यही मानती रही कि आज भी उनकी तबीयत ठीक नहीं है शायद। लेकिन जब एक पखवारा बीत गया और वह सामान्य मनोदशा को प्राप्त नहीं हुईं, तो मैं उदास रहने लगा। उनके दुःख का कारण जानने के लिए उनसे बार-बार प्रश्न करने लगा। मेरे निरन्तर और आकुल प्रश्न पर अंततः वह भाव-विगलित हो उठीं और एक दिन तो फूट-फूटकर रोने ही लगीं। मेरा किशोर-मन बहुत आहात हुआ। मेरी आँखों में भी आँसू भर आये। मुझे विह्वल होता देख उन्होंने अपने आप को संयत किया, मेरी सजल हो आयी आँखों को पोंछा, लेकिन अपने कष्ट के बारे में कुछ भी नहीं बताया।
उस शाम जब घर आया तो मेरा मलिन मुख देखकर माताजी ने कारण पूछा। मुझे कुछ पता तो था नहीं, क्या कहता ? मैं माँ से बोल--'आजकल चाची मेरे साथ खेलती नहीं, कहानियाँ भी नहीं सुनातीं और बहुत उदास रहती हैं। लेकिन आज तो वह रोने ही लगीं ! उन्हें रोता देखकर मैं भी रो पड़ा अम्मा !'
माँ ने मुझे समझाया कि 'हो सकता है, वह बीमार हों, उन्हें कोई तकलीफ हो, जिसे वह तुम्हें बताकर परेशान न करना चाहती हों! तुम दुखी मत हो, मैं पूछूँगी उनसे।'
फिर कुछ महीने बीत गए। एक दिन माँ ने मुझे साथ चलने को कहा। दोपहर का वक़्त था, मैं उनके साथ हो लिया। उन दिनों उनकी दन्त-चिकित्सा चल रही थी, वह प्रायः डॉ. एम.वाई. च्यांग के क्लिनिक जाया करती थीं और ऐसे अवसरों पर मुझे साथ ले जाती थीं। मैं भी उनके साथ जाने को तत्पर रहता, क्योंकि डॉ. च्यांग उन्हें आइसक्रीम खाने की सलाह देते और वहाँ से लौटते हुए माँ के साथ मुझे भी आइसक्रीम का लाभ हो जाता। हम रिक्शे पर बैठे और चल पड़े। ४०-४५ मिनट की यात्रा के बाद रिक्शा जहाँ रुका, वहाँ डॉक्टर का क्लिनिक तो था नहीं, तिमंजिले भवनों की श्रृंखला थी। मैंने माँ से पूछा--'तुम कहाँ जा रही हो अम्मा?' माँ ने इशारे से मुझे चुप रहने को कहा। रिक्शेवाले को उसका मेहनताना देकर माँ ने मेरा हाथ पकड़ा और एक तिमंजिले मकान के पहले माले पर ले गईं। मैं समझ गया कि आज की मेरी आइसक्रीम पर पानी फिर गया।....
माँ जिस दरवाज़े पर जा रुकीं, वह फ्लैटनुमां घर था। माँ ने कॉल बेल बजायी। क्षण-भर की प्रतीक्षा के बाद एक महिला ने द्वार खोला। माँ बोलीं--"....आपका ही नाम है? गृहस्वामिनी ने स्वीकृति में सिर हिलाया। माँ ने कहा--'मुझे आपसे ही कुछ बात करनी है, बस दो मिनट का वक़्त लूँगी !' वह महिला दृढ़ता से द्वार पर खड़ी रहीं और तत्काल बोलीं--'हाँ, कहिये!'
माँ ने कहा--'यहाँ बात करना ठीक न होगा। हम क्या बैठकर बातें नहीं कर सकते?'
अब उन्हें द्वार का अवरुद्ध मार्ग छोड़ना पड़ा और कहना पड़ा--'जी, आइए न !' हम उनके फ्लैट के ड्राइंग रूम में पहुँचे। माँ सोफ़े पर बैठ गयीं और अपनी बात की भूमिका बनाने लगीं। अभी वह मुद्दे की बात पर आने ही वाली थीं कि एक गौरांग महाप्रभु कक्ष में औचक आ धमके। उनकी गोद में रोता हुआ एक नवजात शिशु था। मैंने खड़े होकर उन्हें प्रणाम करते हुए कहा--'प्रणाम अंकल !' उन्हें पहचानने में मुझे कोई दिक़्कत नहीं हुई--वे तो मेरी चाचीजी के जीवन-सहचर थे ! उन्होंने सफ़ेद धोती तहमद की तरह बाँध रखी थी। उन्हें देखते ही त्वरित गति से मेरी माँ उठ खड़ी हुईं! उन्होंने आग्नेय नेत्रों से चाचाजी की ओर देखा। अग्नि-वर्षा करती माँ की तीक्ष्ण दृष्टि का ताप वह सह न सके, उल्टे पाँव लौटे। माँ ने भी मेरी कलाई पकड़ी तथा मुझे बलात खींच ले चलीं--बाहर!
मेरी बाल-बुद्धि समझ न सकी कि मेरे पड़ोसी चाचाजी वहाँ क्यों, कैसे विराज रहे थे और वह भी घर के वस्त्रों में! माँ के साथ फिर रिक्शे से लौटा। रास्ते-भर मैं माँ से सवाल-पर-सवाल पूछता रहा, लेकिन वह मौन रहीं--गम्भीर मुख-मुद्रा थी उनकी! अपनी जिज्ञासा के अंतहीन प्रश्रों पर अंततः मुझे माँ की डाँट खानी पड़ी और मौन धारण करना पड़ा ! लेकिन यह घटना मेरी स्मृति से कभी मिटी नहीं, धुँधली नहीं हुई...!

इस घटना के बाद के छह महीनों में मैंने चाचीजी को क्रमशः घुटते-घुलते देखा। अब न वह सरस कहानियाँ सुनातीं, न प्रसन्नचित्त होकर हमारे खेलों में सहभागी होतीं! उनकी प्रसन्नता कहीं विलुप्त हो गयी थी, चिंताओं का न जाने कौन-सा विषैला कीड़ा उन्हें अंदर-ही-अंदर खोखला किये जाता था। लेकिन, मैंने प्रतिदिन उनके पास जाना नहीं छोड़ा, विगत वर्षों में उनसे जो प्रेम-स्नेह मिला था, उससे मैं आबद्ध था ! वह एक फीकी मुस्कराहट के साथ मिलतीं, मुझसे पूछतीं--'कुछ खाकर आये हो?' मैं हामी भरता और उन्हें हँसाने, प्रसन्न करने के सौ जतन करता, लेकिन वह सूनी आँखों से जाने कहाँ देखती रहतीं!...
दिन बीतते रहे, लेकिन छह महीने बाद ही मेरे परिवार में बड़ी उथल-पुथल हुई। माँ अपनी नौकरी के सिलसिले में राँची के पास खूँटी में जा बसीं और मैं भी अपने दो छोटे भाई-बहन के साथ वहीं चला गया। उस मुहल्ले में बसा-बसाया नीड़ बिखर गया। और, चाचीजी से प्रतिदिन का सम्पर्क विच्छिन्न हो गया, लेकिन वह मेरी स्मृति में बसी रहीं।
बाल्य-काल से किशोरावस्था की दहलीज़ लाँघते हुए मैं लगातार सोचता ही रहा कि वे कौन-से कारण थे, जिन्होंने चाचीजी को जीवितावस्था में ही निष्प्राण बना था...! लेकिन मेरी अविकसित बुद्धि में इसके कारण-तत्व समाते नहीं थे।
ज़िन्दगी अपनी राह बढ़ चली। कई वर्ष गुज़र गए। जब मैं महाविद्यालय की पढ़ाई की पहली-दूसरी पायदान पर था, वर्षों बाद उस पुराने मुहल्ले में जाने का मौका मिला। सहज जिज्ञासा से चाचीजी के घर के सामने पहुँचकर मैं ठिठक गया और मन्त्र-मुग्ध-सा उसके दरवाज़े की कॉल बेल मैंने बजा दी। एक अपरिचित व्यक्ति ने द्वार खोला। उनसे थोड़ी-सी बात करके जब मैं लौटा तो पूरा आसमान चीलों की तरह मेरे सिर पर मँडरा रहा था। उस अपरिचित से मिली सूचना के अनुसार कई वर्ष पहले ही चाचीजी मौत की डोर पकड़कर इस निगोड़ी दुनिया से चली गयी थीं। मेरी आँखों में आँसू थे और मन में तूफ़ान! मैं पैदल ही दूर तक चलता चला गया।
एक ही ख़याल मन में बार-बार उठ रहा था--क्या चाचीजी को भी दूसरी दुनिया में जाने के लिए काठ का वही जादुई घोड़ा मिला होगा? क्या उस पर सवार होकर वह खोज सकी होंगी अपना सच्चा जीवन-सहचर, अनन्य प्रेमी, निश्छल प्रेम और अपने लिए परम शान्ति का देश ?.... जबकि मैं समझदार हो चुका था। जीवन के उलझे धागों को सुलझाने का हुनर आ गया था मुझे।...

शनिवार, 9 जुलाई 2016

हिन्दी पर सवार अँगरेज़ी...

'हिन्दी पर सवार अँगरेज़ी...' --प्रफुलचन्द्र ओझा 'मुक्त'

[पिताजी की एक अप्रकाशित पुस्तक है--'सिर धुनि गिरा लागि पछितानी'। यह पुस्तक 'साहित्य और समय' विषयक मुक्त-चिन्तनों का संग्रह है। इन दिनों मैं उसका प्रूफ पढ़ रहा हूँ। एक लेख पर ठहर गया हूँ। आनन्ददायी आलेख है, पुराना है-- ११.५.१९७९ का, लेकिन आज की दशा पर करारी चोट करता है। लेख में उठाया गया प्रश्न तब भी प्रासंगिक था, आज कुछ ज्यादा ही हो गया है। नयी दिल्ली से प्रकाशित होनेवाले दैनिक पत्र 'नवभारत टाइम्स' में छपा था। पठनीय है, इसीलिए आपके सामने भी रखने का मन हो आया है। --आनन्द]

अँगरेज़ी बड़ी अच्छी भाषा है। वह बड़ी समृद्ध है। उसमें बड़ा ऊँचा साहित्य है। वह हमारे पुराने मालिकों की भाषा है। हम कृतघ्न नहीं हैं। अपने गए-गुज़रे मालिकों की भाषा से इसीलिए हम पिछले सत्ताइस वर्षों से चिपके हुए हैं। अँगरेज़ी भले ही हमसे अपना दामन छुड़ाना चाहती हो, हम उसे किसी तरह नहीं छोड़ना चाहते। आखिर दुनिया को पता कैसे चलेगा कि हम दो सौ वर्षों तक अँगरेजों के गुलाम रह चुके हैं? अतीत को भुला देना, अतीत से अपने को काट लेना, क्या अपनी नींव को कमज़ोर बनाना नहीं है ?
अँगरेजों ने हमें सिर्फ गुलामी नहीं दी। उन्होंने वह सारी तड़क-भड़क भी दी, जिसे हम आज अपनी आँखों के सामने देखते हैं। आराम-आसाइश के ये तमाम साधन, यह दोगली सभ्यता, यह नयी संस्कृति--यह सब तो हमें अँगरेजों ने ही दिया है और फिर उन्होंने हमें वह भाषा भी दी है, जो आज दुनिया के कई देशों में बोली-पढ़ी-लिखी जाती है। अगर हमने उस भाषा को तरजीह दी है तो ज़ाहिर है, हम अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया की बराबरी में आ खड़े हुए हैं।
मुश्किल यह है कि इसके बावजूद हम अपनी भाषा को भुला नहीं पाते। अगर किसी तरह ऐसा हो सकता कि रातों-रात हिन्दुस्तान की तमाम भाषाएँ ख़त्म हो जातीं और सारा देश अँगरेज़ी में ही हँसता, रोता, गाता, सोचता और लिखता-बोलता तो कितनी अच्छी बात होती ! लेकिन ऐसा शायद होना नहीं है। सत्ताइस वर्षों में नहीं हुआ तो अब क्या उम्मीद की जा सकती है ?
लेकिन कोई बात नहीं। हिन्दी है तो हुआ करे, हमने उसके सीने पर अँगरेज़ी को सवार कर रख है। हम हिन्दी या संस्कृत शब्दों को रोमन अक्षरों में लिखकर पढ़ते हैं। इससे उसका उच्चारण अँगरेज़ी ढंग का बन जाता है। फिलहाल हमें इतने से ही संतोष करना पड़ रहा है।
आजकल 'आर्यभट्ट' की बड़ी शोहरत है। पुराने ज़माने में इस नाम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ और खगोलशास्त्री हमारे यहां हो गए हैं। भारत ने जब अपना पहला उपग्रह तैयार किया तो स्वभावतः उसका नाम 'आर्यभट्ट' रखा। अब चूँकि सरकारी कामकाज की भाषा अँगरेज़ी है, इसलिए उसे लिखा गया रोमन अक्षरों में 'ARYABHATA' । आज के ज्यादातर लोगों ने तो शायद रोमन लिपि में लिखे इस नाम को पहली बार ही पढ़ा-सुना होगा, इसलिए अखबारों यह नाम 'आर्यभट' या 'आर्यभटा' के रूप में चल निकला। जो लोग अँगरेज़ी अखबार ही पढ़ते हैं, उन्होंने अगर इसे 'अर्यभट' या 'आर्यभाटा' भी पढ़ा हो तो क्या अचरज ?
अभी उस दिन बच्चे कोई रेडियो प्रोग्राम सुन रहे थे। अचानक मेरे कान में एक शब्द पड़ा--'जटाका कथाएं'। मैं चौकन्ना हो गया। लिखते-पढ़ते पचास साल का अरसा गुज़र गया, 'जटाका' शब्द मेरे लिए अनजाना था। वक्ता रेडियो के ही कोई कारीगर थे। जब उन्होंने बार-बार 'जटाका कथाओं' का उल्लेख किया तो मुझे लगा कि हो-न-हो, ये जातक कथाओं की बात कर रहे हैं। बेचारे ने अँगरेज़ी में कहीं 'JATAKA' पढ़ लिया होगा और वे 'जटाका' उच्चारण ले उड़े। उन्हें दोष भी कैसे दिया जा सकता है ? आप खुद चाहें तो रोमन में लिखे इस शब्द को 'जटक', 'जटाका', या 'जाटाका' पढ़ लें, कोई आपका क्या करेगा ?
मुझे एक पुरानी बात याद आ रही है। पटना रेडियो के ग्रामीण प्रोग्राम में एक स्थायी कार्यक्रम का शीर्षक था--'धान से धन'। ज़ाहिर है कि प्रोग्राम रोमन में टाइप होता था; क्योंकि उसे मीटिंग में पढ़कर सुनानेवाले कभी बंगाली होते, कभी दक्षिण भारतीय और कभी पंजाबी। अब वे बेचारे 'DHAN SE DHAN' को 'धन से धन', 'धान से धान', 'धन से धान' और 'धान से धन' पढ़ते थे, तो इसमें उनका क्या कसूर था?

लेकिन 'आर्यभट' या 'जटाका' कोई एकलौते उदाहरण नहीं हैं। हिंदी के बहुसंख्यक पत्रों, पोथियों और बोलचाल में हिन्दी के सीने पर सवार अँगरेज़ी का यह अपरूप आप देख सकते हैं। सारी दुनिया जानती है कि विश्व-कवि रवींद्रनाथ ठाकुर 'टैगोर' हो गए। रोमन लिपि ने जब 'ठाकुर' को चबाकर 'टैगोर' उगला, तो विश्व-कवि स्वयं अपने को 'टैगोर' लिखने लगे थे।
लेकिन यह सब चाहे जो भी हो, अँगरेज़ी बड़ी अच्छी भाषा है, बड़ी समृद्ध है, उसमें ऊँचे दर्ज़े का साहित्य है, उसमें अभिव्यक्ति की जो ताकत है, उसका जवाब नहीं है। अपनी गुलामी की स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिए हमें अँगरेज़ी को हिन्दी के सीने पर सवार रखना ही पड़ेगा। हमारे देश में बड़े-बड़े दिमागवालों का यही ख़याल है। यह ख़याल ग़लत कैसे हो सकता है।
===