शनिवार, 19 मार्च 2011

होली की शुभकानाएं...

[राग-रंग सन्देश]

रंगों की ऐसी धार चले, मधुर-मधुर रस-धार चले !
प्रीत की पिचकार चले, स्नेह-सुधा का वार चले !!
मन की परती का कण-कण भीगे, ऐसी एक बयार चले !
अंतर में उपजे मधुर रागिनी, राग ताल मल्हार चले !!


होली की शुभकामनाएं !!
--आनंद वर्धन ओझा.

सोमवार, 7 मार्च 2011

मेरे खयालों के घोड़े....

[अपेक्षाकृत लम्बी कविता]

कई बार ऐसा भी हुआ है
बीता नहीं है लम्हा,
कतरा-कतरा धकेलना पडा है उसे,
कई बार समय इतनी तीव्रता से गुजरा है कि
लम्हों की कौन कहे,
दिन पर दिन कैसे बीते,
पता ही नहीं चला !

इन ठहरे हुए लम्हों
और तेज़ रफ़्तार से गुज़रते हुए
बदहवास दिनों के दीर्घ अंतराल में
मेरे तरकश में जितने तीर थे,
मैंने छोड़े !
मेरी यादों में हमेशा हिनहिनाते रहे
दरियाई और कई-कई नस्ल के घोड़े;
और वे रह-रह कर दौड़े !!

दुलकी घोड़े अलसाए-से
अपने चारो पांव पसारे
मेरे मन के अस्तबल में
रहे सकते धूप;
उन्होंने तब गर्दन उचकाई,
बड़ी आस से मुंह को खोला
लगी उन्हें जब भूख !
मैंने थोड़ी घास डाल उनको बहलाया... !

तेजस्वी घोड़ों ने भी
उछल मचाई, कूदे-फांदे
मीठे स्वर में रोते-गाते रहे रात-दिन;
मैंने उनको शब्द दे दिए--
वे रहे जुगाली करते...!

चेतक-जैसे अश्वों ने भी
क्षिप्र गति से
शिथिल पड़ी मेरी नस-नाडी में
जाने कैसी त्वरा भरी थी,
मैंने जब भी चाहा उनकी करूँ सवारी,
वे आँखों की ओट हो गए;
मैंने केहुनी मार
पटखनी खुद को दे दी
खोल लिए कुछ ग्रन्थ सामने
डूबा दिए लम्हे-दर-लम्हे
जीवन के क्षण सारे यूँ ही
तीव्र हवा और मंद वायु के
किये हवाले...!

एक अदना-से ख़याल की
मासूम घोड़ी, जो हमेशा मेरे जेहन में रहती थी;
बहुत चंचल-चपल थी !
रह-रह कर वह उधम मचाती
और बिदक कर भागा करती--
मेरे मन के इस कमरे से उस कमरे में !
अपने मन के अवगुंठन में रहती थी वह--
उसे किसी की चाह नहीं थी;
डांट-डपट की उसको बिलकुल परवाह नहीं थी !
मेरी चेतना के कण-कण से
चुनती थी वह घास !
और हमेशा करती रहती
अनचाहा परिहास !!
जब वह थोड़ी बड़ी हो गई
मेरे बोध के पन्ने-चिट्ठे लगी फाड़ने !

मैंने अपनी रक्षा की खातिर
जब यह चाहा--
डालूँ एक लगाम
रोक-बाँध कर उसको रखूँ,
उसने नथुने खूब फुलाए,
रोती-हिनहिनाती रही सामने;
मैंने भी अनदेखी करके
अपनी सख्ती और बढ़ा दी--
किन्तु, एक दिन
मेरे सीने पर मार दुलत्ती
वह जो भागी, दिखी नहीं वह !
मैंने क्रोधित होकर सोचा--
चलो अब पीछा छूटा,
एक अनोखा बंधन जो था,
वह भी टूटा !

लेकिन यह तो गज़ब बात थी
जिन खयालों को खुरच कर
आप हटाना चाहें मन से--
वे लौट-लौट आते हैं,
मन में अशांति के गीत गाते है !

खयालों की वह छोटी घोड़ी
अब तो काफी बड़ी हो गई--
जाकर भी वह गई न मन से,
चुभती रही हमेशा, हरदम
भग्न काँच-सी,
पैनेपन से !

अपने इन्हीं खयालों से अब
ऊब गया मैं !
जितना चाहा, ऊपर उठ आऊं,
उतना गहरे डूब गया मैं !!