शुक्रवार, 13 दिसंबर 2013

याद आते हैं गंगा चाचा...

[समापन क़िस्त]

कभी गंगा चाचा घर आते और पिताजी से कहते--"मैं तुम्हारे लिए सिर्फ पंद्रह मिनट का वक़्त निकालकर किसी तरह भाग आया हूँ। तुम कुछ नहीं कहोगे, मैं जल्दी से अपनी बात कह लूँ तो चलूँ।" लेकिन जब वह बैठ जाते और बातें शुरू हो जातीं तो दो-ढाई घंटे कैसे बीत जाते, पता ही नहीं चलता। घड़ी पर नज़र पड़ते ही वह घबरा कर उठ खड़े होते और यह कहते हुए चल देते--"तुमने आज मेरा बहुत नुक्सान कर दिया 'मुक्त'! अब चलता हूँ, फिर मिलते है।"

मद्रास में दिनकरजी के निधन के वक़्त और आपातकाल की घोषणा के बाद जयप्रकाशजी की गिरफ्तारी के समय दिल्ली के गांधी शान्ति प्रतिष्ठान में गंगा चाचा उपस्थित थे। उन्हीं से इन दोनों कठिन अवसरों का विस्तृत विवरण पिताजी को मिला था--दिनकरजी के महाप्रयाण की व्यापक चर्चा से पिताजी शोकाकुल हो उठे थे। गंगा चाचा से ही यह सुनकर पिताजी विस्मित-हतप्रभ हुए थे कि जेल जाने से पहले जयप्रकाशजी ने इंडियन एक्सप्रेस के स्वत्वाधिकारी रामनाथ गोयनकाजी को अलग ले जाकर पिताजी का ख़याल रखने का उनसे अनुरोध किया था। गंगा चाचा का मित्र-मंडल बहुत बड़ा और श्रेष्ठ-सिद्ध लोगों से भरा था. वह देशरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद और लोकनायक जयप्रकाश नारायण के बहुत निकट थे. देश के तत्कालीन राजनेताओं, वरेण्य साहित्यकारों और विद्वद्जनों की पूरी जमात में उनकी गहरी पैठ थी और सर्वत्र उनका समादर होता था।

एक बार पिताजी ने गंगा चाचा से कहा था--"तुम्हारे पास अनुभवों और अनमोल संस्मरणों का खज़ाना है, भाषा पर तुम्हारा पूरा अधिकार है। अब भाग-दौड़ भी तुम्हारे वश की बात नहीं रही। एक जगह जमकर बैठो और उन संस्मरणों-अनुभवों को लिख डालो। मैं शपथपूर्वक कह सकता हूँ कि तुम्हारा वह लेखन साहित्य की अमूल्य निधि और समय का जीवित इतिहास सिद्ध होगा।" पिताजी की बात सुनकर गंगा चाचा मुस्कुराये थे और उन्होंने कहा था--"मुक्त, सचमुच चाहता हूँ, कुछ लिखूं। जानता हूँ, लिखने लायक बातें मेरे पास हैं; लेकिन इस यायावरी, इस भाग-दौड़ से मुक्ति नहीं मिलती। लगता है, इस जीवन में अब मिलेगी भी नहीं। फिर, समय की पूंजी भी कितनी बची है मेरे पास....?"

सचमुच, समय की पूंजी तो धीरे-धीरे ख़त्म ही हो गई, जब ८३ वर्ष की अवस्था में सन १९८८ में गंगा चाचा ने जीवन-जगत से मुक्ति पाई। मैं पिताजी को लेकर राजेंद्र नगर (पटना) वाले आवास पर गया था। गंगा चाचा निर्विकार भाव से चिरनिद्रा में सोये थे, किन्तु उनके मुख-मंडल पर एक सहज स्मित परिलक्षित कर मैं स्तंभित रह गया था। एक समर्पित जीवन में वह जितना कुछ हिंदी के उन्नयन के लिए और देश की राजनीति के लिए भी कर गए हैं, आज की दुनिया का आदमी तो उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। लेकिन सच है कि अनुभवों का, संस्मरणों का और प्रखर चिंतन का विशाल भण्डार भी उन्हीं के साथ चला गया था। वह उसे लिपिबद्ध नहीं कर सके थे।

गंगा चाचा के निधन पर पिताजी ने बहुत विह्वल होकर कहा था--"गंगा भाई शारीरिक रूप से बहुत पीड़ा में थे, मुझसे चार-पांच साल बड़े भी थे; उनका चला जाना उनके लिए चाहे जितना अच्छा रहा हो, लेकिन उनका विछोह मुझे निरीह और कातर बना गया है। एक वही मेरे दुःख-सुख के साथी बचे थे, आज वह भी साथ छोड़ गए... !" पिताजी की पैंसठ साल पुरानी मित्रता की मज़बूत डोर उस दिन टूट गई थी। उनकी इस पीड़ा का मैं साक्षी रहा हूँ।
मेरे मन-प्राण में बसनेवाले गंगा चाचा मुझे आज भी रह-रहकर याद आते हैं...!
{समाप्त}
{चित्र में : बाएं मेरे पिता मुक्तजी और दायें बाबू गंगाशरण सिंहजी}

गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

याद आते हैं गंगा चाचा...

[तीसरी कड़ी]

सच है, गंगा चाचा आजीवन हिंदी-प्रेम को अपनी आत्मा में बसाये रहे। फ़ोन की घण्टी  बजते ही वह उसे उठाते और 'जी', 'जी हाँ', 'हाँ कहिये', 'मैं गंगाशरण बोल रहा हूँ, कहा जाए' आदि से वार्तारंभ करते। उनके उपर्युक्त कथन से प्रभावित होकर मैंने भी यह प्रयोग कुछ समय तक किया था; लेकिन बाद में मैं उसे निभा न सका था, इसका मुझे खेद है। मुझे लगता है कि सेठ गोविन्द दास और राजर्षि टण्डन के बाद गंगा चाचा ही हिंदी के ऐसे हिमायती थे, जिन्होंने हिंदी-सेवा को ही अपने जीवन का एकमात्र ध्येय बना लिया था। वह अप्रतिम हिंदी-सेवा-व्रती थे। उन्होंने कश्मीर से कन्याकुमारी तक हिदी के प्रचार-प्रसार का बहुत काम किया था। मुझे लगता है कि वह शताधिक हिन्दीसेवी संस्थानों से अभिन्न रूप से जुड़े हुए थे। निरंतर गिरते स्वास्थ्य की अनदेखी करके वह लगातार देशव्यापी यात्राएँ किया करते थे। आयोजनों, व्याख्यानों, अभिभाषणों,मंत्रणाओं और बैठकों के दौर से उन्हें जीवन-भर मुक्ति नहीं मिली। मुझे याद है, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली के एक आयोजन में वह सम्मिलित हुए थे, जिसमें 'संस्मरण सत्र' की अध्यक्षता करने के लिए पिताजी भी पटना से दिल्ली गए थे। सभा-भवन में गंगा चाचा की तबीयत बिगड़ गई थी और वह मूर्च्छित हो गए थे। जब उनकी हालत थोड़ी सँभली तो पिताजी ने उन्हें समझाया था और थोड़ी तुर्शी से कहा भी था--"तुम क्या समझते हो, तुम न रहोगे तो क्या ये आयोजन ठप पड़  जायेंगे ? जब तबीयत इतनी नासाज़ थी, तो तुम्हें यहाँ नहीं आना चाहिए था।" पिताजी की नाराज़गी देखकर गंगा चाचा निरीह भाव से बोले थे--"तब तो सारा झगड़ा ही ख़त्म हो जायेगा। लोग इतने प्यार से बुलाते हैं कि इनकार  करते नहीं बनता। बोलो,क्या करूँ?" सच है कि गंगा चाचा अंतिम समय तक शारीरिक व्याधियों-पीड़ाओं की  परवाह किये बिना हिंदी और हिन्दीसेवी संस्थानों के उत्थान के लिए प्राणपण से जुटे  रहे।

४  अप्रैल १९८७ का एक वाकया याद आता है। उस दिन अचानक गंगा चाचा मेरे घर आ पहुंचे थे। वाहन से उतरकर दस-पंद्रह कदम चलना भी उनके लिए दुष्कर था। बड़ी कठिनाई से वह पिताजी के पास पहुँच सके थे। उन्होंने अपने शरीर को एक लौह-शिकंजे से जकड़ रखा था, सोफे पर बैठते हुए उनका एक पाँव भी सहजता से मुड़ता नहीं था। उसे लंबवत उन्होंने ज़मीन पर टिका दिया था. उठाने-बैठने में उन्हें असह्य पीड़ा होती थी, लेकिन जाने किस योग-बल से चहरे पर उसका प्रभाव वह आने न देते थे। वह उसी शाम अपने साथ पिताजी से लखीसराय के बालिका विद्यापीठ के वार्षिकोत्सव में मुख्य-अतिथि के रूप में सम्मिलित होने का आग्रह करने आये थे। पिताजी का स्वास्थ्य अच्छा नहीं था। उन्होंने अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए क्षमा-याचना की। पल भर को गंगा चाचा पिताजी को देखते रहे, फिर बोले--"तुमसे सौ गुना ज्यादा मैं तकलीफ में हूँ और अनेक व्याधियों से जूझ रहा हूँ। मैं मानता हूँ कि इस दशा में यदि मैं इस उत्सव में शरीक हो सकता हूँ तो तुम भी सम्मिलित हो सकते हो।" इसके बाद उन्होंने अपनी व्याधियों और शारीरिक दशा का जो वर्णन किया, वह सचमुच मर्म-विद्ध करनेवाला था। उनकी रीढ़ की हड्डी में एक दोष हो गया था, जिससे रक्त-प्रवाह में अवरोध उत्पन्न होता था और उन्हें चक्कर आते थे। इसी वजह से वह लोहे का एक बेल्ट कमर पर बांधते थे। बेल्ट बांधने में उनकी हड्डियां तड़कती थीं और वह पीड़ा से तड़प उठते थे। गठिया ने उनके पाँव को जकड़ लिया था और पाँव मोड़ पाना भी उनके लिए असम्भव हो गया था। बहरहाल, पिताजी उसी दिन गंगा चाचा के साथ लखीसराय गए थे और वहीं उन्हें और गंगा चाचा को आकाशवाणी से यह दुःखद समाचार मिला था कि हिंदी के वरेण्य साहित्यकार महाकवि अज्ञेय नहीं रहे। लखीसराय का समारोह संपन्न कर पिताजी पटना लौट आये थे, किन्तु अज्ञेयजी के विछोह से बहुत विकल और अवसन्न-मन थे।

गंगा चाचा अपनी शारीरिक अक्षमताओं और असह्य पीड़ा की अनदेखी कर निरंतर यात्राएं करते रहे, किन्तु उनके श्रीमुख पर हमेशा एक सहज मुस्कान खेलती रही। वह विनोदी वृत्ति के थे, बातें खूब रस लेकर करते थे और बातों-बातों में अपने अनुभवों, संस्मरणों और शेरो-शायरी की ऐसी छौंक लगाते कि सुननेवाला मुग्ध भाव से सुनता ही जाता। उनके मुख से कथा-सरित-सागर ही छलकता जाता था। मेरे पिताजी भी इसी कोटि के रस-सिद्ध साहित्यकार थे, दोनों मित्र जब मिलते, समय को पंख लग जाता। एक बार गंगा चाचा पिताजी और दिनकरजी को अपने साथ देवघर ले गए थे। रात की गाडी से जाना था। वह पूरी रात का सफ़र नहीं था। मध्य-रात्रि में ही देवघर स्टेशन पर उतरना था। तीनों मित्रों ने तय किया कि ट्रेन में सवार होते ही थोड़ा विश्राम कर लिया जाएगा और एक नींद ले ली जायेगी, ताकि मध्य-रात्रि में जब ट्रेन से उतरना पड़े तो सभी तरोताज़ा रहें। उस यात्रा से लौटकर पिताजी ने बताया था कि ट्रेन में सवार होते ही बातों का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह देवघर तक अनवरत चलता रहा और तीनों मित्र मुखर वक्ता बने रहे तथा ठहाकों का दौर चलता रहा।
{क्रमशः}

मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

याद आते हैं गंगा चाचा...

 [दूसरी कड़ी]

गंगा चाचा मस्तमौला मन के प्रसन्नचित्त व्यक्ति थे। सबसे खुले ह्रदय से मिलते थे।  सन १९७२ में जब मैं पहली बार पिताजी और बड़ी बहन के साथ दिल्ली गया था, तब गंगा चाचा राज्यसभा के सदस्य थे और वेस्टर्न कोर्ट में सांसदों के एक फ्लैट में उनका निवास था। पिताजी ने उन्हें फ़ोन किया और मिलने कि इच्छा ज़ाहिर की। उन्होंने कहा कि "तुम दोनों बच्चों को भी साथ ले आओ। मेरे पास सुबह का ही वक़्त है, फिर तो संसद जाना है। बच्चे अगर संसद-दर्शन करना चाहेंगे, तो उन्हें भी साथ ले चलूँगा।" हमें बिन माँगे  ही मन की मुराद मिल गई थी। दूसरे दिन सुबह-सुबह हम दोनों पिताजी के साथ वेस्टर्न कोर्ट पहुंचे। गंगा चाचा पिताजी से मिलकर प्रफुल्लित हो उठते थे, उनके साथ हमें देखकर उस दिन वह बहुत प्रसन्न हुए थे और छोटे बच्चों-जैसा व्यवहार हमारे साथ कर थे, जबकि बड़ी दीदी एम० ए० की छात्रा थीं और मैं स्नातक का विद्यार्थी था। उनका यह वत्सल स्वरूप  देखकर हम बड़े खुश थे। हमारे एक-एक प्रश्न का वह विस्तृत उत्तर देते। बातें बहुत बारीकी से हमें समझाते। उनकी बातों में कई कथाएँ, उद्धरण, शेरो-शायरियाँ आ जुड़ती थीं। हमने वेस्टर्न कोर्ट में उनके साथ नाश्ता किया। वह खाने-खिलाने के बड़े शौक़ीन थे।  एक-एक व्यंजन का रस लेकर खाते थे और उतनी ही प्रीति से सबों को खिलाते भी थे--व्यंजनों का गुणावगुण बताते हुए। जल्दी ही संसद पहुँचने का समय गया। वह हम सबों को लेकर संसद-भवन पहुँचे।  उन्हीं की कृपा से हमने पहली बार संसद की कारवाई देखी। संसद-भवन का सम्पूर्ण दिग्दर्शन उन्होंने ही हमें करवाया और वह स्थल भी पूर्ण विवरण के साथ हमें दिखाया, जहां से कभी शहीद भगत सिंह ने बम का प्रहार किया था।  फिर दोपहर के वक़्त गंगा चाचा हमें संसद के भोजनालय में ले गए थे, जहाँ हम सबों ने मिल-बैठकर स्वादिष्ट भोजन किया था। वह पूरा दिन उन्होंने हमारे साथ व्यतीत किया था और बहुतेरी बातें की  थीं। उनकी प्रीति, उनके वात्सल्य और अपरिमित स्नेह से भीगे-भीगे हम शाम ५ बजे उनसे विलग हुए थे।

गंगा चाचा का हिंदी-प्रेम अप्रतिम था। एक बार मैंने उनसे पूछा था--"फ़ोन की घण्टी बजने पर जब आप उसे उठाते हैं तो 'हेलो' के स्थान पर 'जी' क्यों कहते है? सब लोग तो 'हेलो' बोलते हैं।" मेरा प्रश्न सुनकर वह हँस पड़े थे, फिर गम्भीर होकर उन्होंने कहा था--"मैं दूसरी ज़बान में क्यों उत्तर दूँ ? मेरी अपनी भाषा है। मैं अपनी भाषा में उत्तर दूँगा। मान लो, किसी ने तुम्हारे दरवाज़े पर दस्तक दी। तुम द्वार खोलकर आगंतुक को देखोगे, फिर क्या कहोगे ? यही न, कि 'कहिये, किससे मिलना है ?' फ़ोन की घण्टी को मैं दरवाज़े पर हुई दस्तक मानता हूँ, इसीलिए फ़ोन उठाकर 'जी हाँ, कहिये' कहता हूँ। हिंदी ही हमारी बोली-बानी है। हमारी सत्ता की  संरचना में हिंदी की महत्वपूर्ण भूमिका है। हिंदी हमारी आत्मा में रची-बसी है। मैं उसी भाषा में उत्तर देता हूँ।"
{क्रमशः}

रविवार, 8 दिसंबर 2013

याद आते हैं गंगा चाचा …

[एक आत्मीय स्मरण-नमन]
 
राष्ट्रवादी नेता, गांधीवादी विचारक, प्रखर सांसद और हिन्दीसेवी स्व० गंगा शरण सिंह को मैं भूल नहीं पाता। वह मुझे याद आते हैं। औसत क़द, स्थूल शरीर, खादी का शफ्फ़ाक़ श्वेत परिधान--धोती-कुर्ता और सिर पर दुपल्ली गांधी टोपी। बिहार के एक ज़मींदार परिवार में जन्मे और बड़ी शानो-शौकत में पले-बढ़े। अपनी युवावस्था में अत्यंत सुदर्शन और गठीली देह-यष्टि के रहे होंगे: क्योंकि बाल्य-काल में जब मैंने उनके प्रथम दर्शन किये थे, तब वह अधेड़ावस्था की दहलीज़ थे, किन्तु हृष्ट-पुष्ट, सक्षम और फुर्तीले व्यक्ति थे। मेरे पूज्य पिताजी (स्व० पं प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त') से उम्र में चार-पाँच वर्ष बड़े थे, लेकिन युवावस्था के दिनों से ही पिताजी से उनकी 'तुम-ताम' कि प्रगाढ़ मित्रता थी। सर्वप्रथम वह स्वतन्त्रता सेनानी बने और स्वेच्छा से उन्होंने असहयोगी के कठिन जीवन का वरण किया था। आरंभिक दौर में गांधीजी के विचारों से प्रभावित हुए, लेकिन कालान्तर में नरेंद्रदेवजी और जयप्रकाश के निकटतर होते गए और बाद में उन्होंने अपने आपको पूरी तरह हिंदी-सेवा के लिए समर्पित कर दिया था। 

एक ज़माना ऐसा भी था, जब बिहार में गंगा, मुक्त और बेनीपुरी--इन त्रिदेवों की तूती। बोलती थी। सन १९३७ में रामवृक्ष बेनीपुरीजी और गंगा शरण सिंहजी सम्मिलित रूप से 'युवक' नाम की पत्रिका निकालते थे और पिताजी 'बिजली'। मित्रता अपनी जगह थी और पत्रिका का ख़म-पेंच अपनी जगह। तब पिताजी, बेनीपुरीजी और गंगा चाचा--ये सभी मित्र पटना में आसपास ही रहते थे और इन सबों के बीच अत्यंत घनिष्ठ और प्रगाढ़ सम्बन्ध थे। गया (बिहार) के प्रख्यात कवि मोहनलाल महतो 'वियोगी' ने १९३८ के एक पत्र में पिताजी को था--"… और तुम--क्या मैं भूल गया हूँ तुम्हें ? इस जन्म में तो शायद गंगा, मुक्त और बेनीपुरी--त्रिदेवों को भूल नहीं सकता, पर-जन्म की राम जाने!... " सच है, उस ज़माने में बिहार की साहित्यिक भूमि पर इन तीनों मित्रों ने अच्छी-खासी धूम धूम मचा रखी थी।  लेकिन गंगा चाचा से पिताजी की मित्रता उस समय की थी, जब पिताजी इलाहाबाद में थे। बिहार से बेनीपुरीजी के साथ गंगा चाचाजी भी इलाहाबाद जाते तो मेरे पितामह (साहित्याचार्य पं० चंद्रशेखर शास्त्री) के  दर्शन करना न भूलते। युवावस्था के उन्हीं दिनों की मित्रता आजीवन बनी रही।

बचपन में मैंने गंगा चाचा को कई बार देखा था, लेकिन वह बस देखे-भर का था; क्योंकि तब इतना ही बोध था कि वह पिताजी के मित्र हैं। गंगा चाचा जब घर आते, मैं उन्हें प्रणाम कर दायित्व-मुक्त हो जाता। वह पिताजी के पास बैठते और घंटों बातें करते। थोड़ा  बड़ा हुआ तो इतना जरूर जान सका कि वह पिताजी के अनन्य मित्र हैं और जब आये हैं तो दोनों मित्रों की बैठक लम्बी चलेगी। मेरी माता चाय की  ट्रे या नाश्ते की प्लेटें बैठक में ले जाने का आदेश देतीं या पिताजी पान-सुपारी ले आने का हुक्म देते, तो मैं आदेश का पालन करने को तत्पर रहता। मैं बचपन से ही अतिभाषी था। पिताजी के मित्र मुझसे जो कुछ पूछते, उसका उत्तर मेरी जिह्वा पर तैयार रहता, लेकिन यह जरूरी नहीं था कि वह युक्तिसंगत हो। मेरे बे-सिर-पैर के उत्तरों पर गंगा चाचा भी कई बार ठठाकर हँस पड़ते थे।
 
फिर वक़्त का एक लंबा टुकड़ा हाथों से फिसल गया। सन १९७१-७२ में जब मैं 'दिनकर की डायरी' पर काम कर रहा था, तब पटना के राजेन्द्र  नगर में उनके आवास पर प्रतिदिन जाया करता था। इसी मुहल्ले  में गंगा चाचा ने भी अपना मकान बनवा लिया था। उन दिनों मुझ पर एक फ़ितूर सवार था। मैं जिन बड़े साहित्यकारों से मिलता, उनसे अपनी एक पॉकेट डायरी में 'ज़िन्दगी क्या है'--इस विषय पर कुछ लिख देने का आग्रह करता था। एक दिन दिनकरजी के यहाँ से मैं जल्दी छूट गया। मैंने सोचा, क्यों न गंगा चाचा के दर्शन करता चलूँ। दिनकरजी के आवास से गंगा चाचा का घर दस मिनट की  पदयात्रा की  दूरी पर था। मैं उनके पास पहुँचा। वह बड़े स्नेह से मिले। उनके सिरहाने ही कई डिब्बे रखे होते थे, जिनमें  मठरी,मनेर के लड्डू, स्वादिष्ट मिठाइयाँ,तिलकुट आदि होता था। उन्हीं डिब्बों से निकालकर उन्होंने आग्रहपूर्वक मुझे मिठाइयाँ  खिलायीं और ढेरों बातें कीं। फिर मैंने अपनी पॉकेट डायरी निकली और उनके हाथों में देते हुए आग्रह कि  'ज़िन्दगी क्या है', इस पर दो-चार पंक्तियाँ  लिख देने की करें। उन्होंने एक क्षण भी कुछ न सोचा और कलम उठाकर एक शेर मेरी डायरी में लिख दिया--
यक़ीं  मोहकम अमल पैहम, मोहब्बत फ़ातहे आलम,
ज़हादे  ज़िंदगी में हैं यही मर्दों की शमशीरें !
उर्दू-फ़ारसी मिश्रित इस शेर का अर्थ भी उन्होंने मुझे समझाया था--'सब पर विश्वास करो और उस विश्वास को जीवन में उतारो, सारी  दुनिया को जीत लेनेवाला प्रेम अपने अंदर पैदा करो--जीवन-युद्ध में यही मर्दों की तलवारें हैं।'
[क्रमशः]