गुरुवार, 24 सितंबर 2009

कोई दरमियाँ नहीं होता...


है स्याह या सुफैद ये चेहरे से बयाँ नहीं होता ,
तुमने भी पीर-ए-लफ्ज़ मुसलसल कहा नहीं होता !

एक किरण तो बची रहती मेरे भी आशियाने में,
बदहाल ज़िन्दगी का कोई पासबां नहीं होता !

इन अजीब रिश्तों की कितनी कमज़ोर थी ज़मीन,
बिखरने पे गुलाब के गुलशन खुशनुमां नहीं होता !

पूरी तरह बेनकाब इस ज़िन्दगी को होने दो,
स्याह अंधेरों में कोई दागदां नहीं होता !

मेरा जुनून कभी तो बेहिसाब बोलेगा,
अंधी खमोशियों से कुछ भी अयाँ नहीं होता !

बूंदें शबनम की नहीं आग बरसती हो जहाँ,
शाख-ए-गुल की कौन कहे पतझर भी वहां नहीं होता !

मेरे संग-ए- दर पे फोड़ी है ये किस्मत किसने,
अंपने गिरेबां से उलझना कहाँ नहीं होता !

कभी बलंदियों पे मेरा भी मिजाज़ पहुंचेगा,
बद-दिमाग लोगों का कोई रहनुमां नही होता !

एक अदद दिल था मेरा तड़प उठा वो बेहिसाब,
काश ! इस फितरत का कोई निगेह्बां नहीं होता !

किस कदर लोग परेशां हो उठे समंदर के लिए,
बूंदें मचल के कह उठीं कोई दरमियाँ नहीं होता !

परवाज़ बलंदियों पे मैं करता नहीं, वरना--
इस कदर खफा मेरा आसमां नहीं होता !!

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

अनाज की बात...

[बिहार के एक नर-संहार पर प्रतिक्रिया]

कैसी मासूमीयत से कह दी है तुमने राज़ की बात,
मेरे दिलो-दिमाग में घुमड़ती रही है आज की बात ।
मैंने समंदर को तो दरिया से मिलाना चाहा --
तुमने हौले-से कहा, है ये दूर- दराज़ की बात ॥


बेखौफ सन्नाटों में अब होने लगी सरताज की बात,
कितने मसरूफ हो, कर रहे तुम मेरे हर अल्फाज़ की बात ।
मैंने तो ताल्खियों को अपना इलाही समझा --
तुमने क्यों छेड़ दी मुझसे मेरे हमराज़ की बात॥

इबादत में जो झुकने लगे होने लगी समाज की बात,
शैतानियत का खल्क देख तुमने की ज़र्रानवाज़ की बात ।
मेरी गूंगी पर ठहरते नहीं हैं लफ्ज़ दोस्त--
मैं बड़ा बेजार था, क्या होगी मेरी आवाज़ की बात ॥

इन इबारतों में कहाँ पिन्हा है लिहाज़ की बात,
बड़े मुब्तिला हो करते रहे तुम मुल्क पे नाज़ की बात ।
सरे-शाम खलिहानों में जो मारे गए यारों--
वो कमनसीब तो ताज़िन्दगी करते रहे अनाज की बात ॥

शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी : हुआ जब वह अलभ्य दर्शन दुर्लभ...

[शेषांश]


थोडी ही देर बाद, 'राम' की परम सत्यता का उद्घोष करती भीड़ बाहर आयी। हजारीप्रसादजी को कन्धा देनेवालों की अपार भीड़ थी। लेकिन शव-शय्या जैसे ही द्वार पर आई, दीर्घ देह-यष्टि के अज्ञेयजी आगे बढे, उन्होंने एक सज्जन को अलग करते हुए शय्या का एक छोर थाम लिया। फिर उनका अनुसरण करते हुए पिताजी ने, मैंने और प्रदीप भाई ने कंधा दिया। कृश-काया के जैनेन्द्रजी शव-शय्या का स्पर्श करके अलग हो गए थे। उस भीड़ से कदम मिलाकर चल पाना उनके लिए कठिन था। लोग हजारीप्रसादजी को वहाँ ले चले, जहाँ से कोई लौटकर नहीं आता।


हम सभी अज्ञेयजी की कार से निगमबोध घाट पहुंचे। हमें घाट के बाहर गाड़ी से उतारकर चालाक अज्ञेयजी के आदेशानुसार चला गया। घाट पर भी बहुत भीड़ थी। बहुत-से लोग सीधे वहीँ पहुंचे थे। उनमे साहित्यकारों के आलावा राजनेता भी थे। वैदिक विधि-विधान और पंडितों के मंत्रोच्चार के बाद अग्नि-संस्कार हुआ। चिता से उठी धूम ने जन-समूह, पेड़-पौधों को अपने पाश में ले लिया। उस धूम-गंध ने मुझे विह्वल कर दिया... ऐसा प्रतीत हुआ किकल तक जिनका वरद-हस्त मेरे सर पर था, आज उनकी सम्पूर्ण सत्ता सर्वत्र व्याप्त होने को अधीर हो उठी है--इन वनस्पतियों में, आकाश में, वायु में, अग्नि में, यमुना के जल में, पृथ्वी के कण-कण में और मुझमे भी ! मेरे मन में तुलसीदासजी की पंक्ति गूंजने लगी--'क्षिति जल पावक गगन समीरा.... ।' और मैं सिहर उठा ! हम सबों ने हिन्दी मनीषा के जीवंत प्रतीक आचार्यश्री के पार्थिव शरीर को पवित्र अग्नि के सुपुर्द कर दिया था। अग्नि-संस्कार के बाद ही लोग-बाग़ धीरे-धीरे बिखरने लगे, लेकिन हम वहीँ बने रहे। धूम अग्नि में परिवर्तित हुई, फिर तेज लपटों ने चिता को भस्मीभूत करना शुरू कर दिया।


पौन घंटे बाद हमलोग भी घाट से बाहर आए और सड़क के किनारे खड़े हो गए। प्रदीप भाई अपने पिताजी के साथ एक वाहन से चले गए, उन्हें दूसरी दिशा में दरियागंज जाना था। बचे हम तीन--अज्ञेयजी, पिताजी और मैं ! पिताजी ने अज्ञेयजी से कहा--"आपकी गाड़ी तो चली गई, अब उस दिशा में कोई जाता हुआ मिल जाए, तो अच्छा हो !" अज्ञेयजी ने बड़ी गंभीरता से कहा--"लोग यहाँ ले तो आते हैं, ले कोई नहीं जाता।" उनके इस वाक्य में छिपी पीड़ा मर्म को छूनेवाली थी। थोडी देर हम वहीँ प्रतीक्षारत रहे। हठात एक गाड़ी पास आकर रुकी। उसे चला रहे थे प्रख्यात कवि रामनाथ अवस्थी । उन्होंने आग्रहपूर्वक हमें गाड़ी में बिठाया और अपने साथ ले चले। सभी मौन थे। मेरे मन में एक ही बात बार-बार उठ रही थी कि अब हजारीप्रसादजी का दुर्लभ दर्शन सदा-सदा के लिए अलभ्य हो गया है, अट्टहासों कि वह गूँज अब सुनने को नहीं मिलेगी कहीं... !

[इति...]

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी : हुआ जब वह अलभ्य दर्शन दुर्लभ...

[गतांक से आगे]

दूसरे ही दिन ऑफिस में भोजनावकाश के बाद शीलाजी ने मुझे बुलाकर कहा--"तुम गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान चले जाओ। डाक्टरों के अनुसार हजारीप्रसादजी की हालत ठीक नहीं है। देर शाम तक वहीँ रहना, उनकी तबीयत और बिगडे तो फ़ौरन मुझे फ़ोन करना।" मैं तुंरत भागकर गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान पहुँचा। वहां बड़ी हलचल थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी मेरे पहुँचने के ठीक पहले अपने गुरुवर के दर्शन करके लौट गईं थीं। डाक्टरों का एक दल उनकी चिकित्सा में लगा था। बहार लॉन में साहित्यकारों की एक भीड़ जमा थी। सभी के चहरे पर घोर चिंता के बादल थे--सभी बेचैन, व्याकुल ! मैंने दूर से ही हिन्दी के उस तेजस्वी सूर्य को देखा, जो क्रमशः निष्प्रभ होता जा रहा था। मैंने मन-ही-मन उन्हें नमन किया। लम्बी बीमारी से हजारीप्रसादजी का चेहरा निस्तेज हो आया था। मुझे ऐसा लगा कि उन्हें श्वांस लेने में असुविधा हो रही है। गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान के अहाते में इतने लोग थे, लेकिन वहां अजीक सन्नाटा पसरा था, जिससे मन घबरा रहा था। मैं रात ९ बजे तक वहीँ रहा, फिर घर लौट आया।
इसके बाद एक दिन भी न बीता था कि शाम होते-होते वह ख़बर आ गई, जिसकी आशंका से सबों का मन आतंकित था। हजारीप्रसादजी का जीवन-दीप बुझ गया था। राजकमल में अफरा-तफरी मच गई। दफ्तर बंद कर दिया गया। मैं भागा-भागा घर गया और पिताजी को यह मर्मंतुद समाचार औचक ही दे बैठा। पिताजी धम्म-से चौकी पर बैठ गए। उनके मुंह से दो शब्द निकले--'हे राम !' वह रात मुश्किल से गुजरी। पिताजी से उनकी प्रीति पचास वर्षों की थी--वह मर्माहत थे।
सुबह-सबेरे ९ बजे मैं पिताजी के साथ प्रतिष्ठान पहुंचा। वहां दिल्ली के प्रायः सभी छोटे-बड़े साहित्यकारों की भीड़ जमा थी। पिताजी की दृष्टि जैनेन्द्रजी पर पड़ी। दोनों ने एक-दूसरे को देखा और गले मिलकर भाव-विगलित हो गए। मैं जैनेन्द्रजी के सुपुत्र प्रदीप भाई के पास जा खड़ा हुआ। प्रदीप भाई ने मेरा हाथ देर तक पकड़े रखा। वहां जितने लोग थे, सबकी आँखें भीगी थीं, चहरे पर विषाद की गहरी छाया थी और मन में भावनाओं का विचित्र आलोडन था। सच है, हजारीप्रसादजी के साथ एक युग का अवसान हुआ हुआ था। गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान के बड़े-से अहाते में सभी मौन खड़े थे--अलग-अलग गुच्छों में ! तभी अज्ञेयजी आए और सीधे जैनेन्द्रजी-पिताजी के पास आकर नमस्कार करते हुए खड़े हो गए। बोले कुछ नहीं । जैनेन्द्रजी ने अपनी धीमी आवाज़ में कुछ कहना चाहा, लेकिन उनका गला रुंध गया। तब पिताजी बोले--"अज्ञेयजी ! इस वज्रपात की आशंका से मन आतंकित था पिछले कुछ दिनों से।" अज्ञेयजी मौन ही रहे। उनकी तेजस्वी आंखों में भी करुणा की छाया थी। पिताजी, जैनेन्द्रजी और अज्ञेयजी को एक साथ खड़ा देख अनेक साहित्यकार उनके पास आते और नमस्कार करके आगे बढ़ जाते। मैं प्रदीप भाई के साथ इन्हीं त्रिमूर्ति के समीप मौन साधे खड़ा था।
प्रतिष्ठान के बाहर राजघाट जानेवाली सड़क पर मोटर-गाड़ियों का लंबा काफिला जमा हो गया था बाहर अन्दर हजारीप्रसादजी की अन्तिम-यात्रा की तैयारियां चल रही थीं। करीब घंटे भर बाद लोग कहने लगे कि निगमबोध घाट पहुंचना है। भीड़ धीरे-धीरे अहाते से बाहर की ओर खिसकने लगी। हम लोग भी बढ़ चले और प्रतिष्ठान के बड़े-से द्वार पर जा पहुंचे। तभी अंदर से कपिला वात्स्यायनजी बहार आयीं और अज्ञेयजी को द्वार पर देख उनके पास जा खड़ी हुईं। उनकी आखों से निरंतर अश्रु-धारा बह रही थी। अज्ञेयजी ने दोनों हाथ जोड़ लिए थे और प्रस्तर मूर्ति बने खड़े थे। रोते-रोते कपिलाजी ने अज्ञेयजी के जुड़े हाथों को थाम लिया और बोलीं--"यह सब क्या हो गया....?" अज्ञेयजी यथावत--मौन, निश्चल रहे ! कपिलाजी की विह्वलता और अज्ञेयजी की निश्चलता में जाने क्या-कुछ था कि यह दृश्य देखकर प्रदीप भाई अपने को रोक न सके, मेरे कंधे पर हाथ रखकर मुझे एक ओर खींचते हुए फफक पड़े--"देखो आनंद ... पीड़ा की यह पराकाष्ठा देखो...!" उनकी यह चेष्टा भी थी कि इस विह्वलता पर किसी की दृष्टि न पड़े। दो मिनट बाद ही कपिलाजी रोती-बिलखती अपनी कार की ओर बढ़ गईं।

[शेषांश फिर...]

मंगलवार, 8 सितंबर 2009

आचर्य हजारीप्रसाद द्विवेदी : हुआ जब वह अलभ्य दर्शन दुर्लभ...

[ब्लॉगर मित्रों ! हिन्दी पखवारे में भारतीय मनीषा के प्रतीक और हिन्दी जगत के उद्भट विद्वान् आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदीजी का पुण्य-स्मरण कर रहा हूँ... उनसे मेरा व्यक्तिगत संपर्क नाममात्र का था, लेकिन जो स्मृतियाँ मेरे पास सुरक्षित हैं, आज इस अवसर पर आप सबों के साथ बाँटना चाहता हूँ--आनंद...]

बात १९७७-७८ की है। मैं पूरी तन्मयता से अपने दफ्तर में बैठा काम कर रहा था, अचानक अट्टहासों की गूँज ने चौंका दिया। राजकमल प्रकाशन की प्रबंध-निदेशिका श्रीमती शीला संधू की उपस्थिति में दफ्तर में सुईपटक सन्नाटा छाया रहता था, मजाल किसी की कि कोई उर्ध्व स्वर में कुछ बोल जाए ! लेकिन उस दिन ठहाके-पर-ठहाके लगने लगे और घोर गर्जन-तर्जनवाले उन अट्टहासों से पूरा दफ्तर गुंजायमान होने लगा। मैं अपनी सीट से उठा और ठहाकों का पीछा करता शीलाजी के कक्ष तक पहुँच गया। मेरे आश्चर्य कीसीमा न रही, जब मैंने जाना कि ठहाकों की इबारत उसी कक्ष में लिखी जा रही है। पूछने पर ज्ञात हुआ कि हिन्दी साहित्याकाश के तेजस्वी नक्षत्र आचार्यश्री हजारीप्रसाद द्विवेदीजी पधारे हैं । उनके नामोल्लेख से ही मैं उत्साहित हो उठा। किंतु शीलाजी के कक्ष में प्रवेश करना अशोभन था। इस भय से कि कहीं मेरी पीठ पीछे वह चले न जाएँ, मैं वहीँ एक पतले गलियारे में टहलता, उनकी प्रतीक्षा करने लगा। बाल्यावस्था से ही मैं उनके बारे में पिताजी से बहुत कुछ सुनता रहा था और पिताजी की पत्र-मञ्जूषा में मैंने हजारीप्रसादजी के कई पत्र भी देखे-पढ़े थे।
हजारीप्रसादजी जब शान्ति-निकेतन में थे, तभी सन १९३६ में पिताजी उनके निकट संपर्क में आए थे। पिताजी ने अपनी पत्रिका 'बिजली' और 'आरती' में उनकी कई रचनाएँ प्रकाशित की थीं और पत्राचार का क्रम चलता रहा था। उनके एक पत्र की दो-तीन पंक्तियाँ मुझे आज भी शब्दशः याद हैं। 'बिजली' के लिए कोई रचना भेजने के बार-बार के आग्रह पर भी जब रचना नहीं आई तो पिताजी ने उलाहना देते हुए उन्हें पत्र लिखा था। उसी के उत्तर में शान्ति-निकेतन से लिखा हजारीप्रसादजी का पोस्टकार्ड आया था। उनकी पंक्तियाँ थीं--"प्रिय मुक्तजी, वर्ष में एक बार मेरी आँखें मानवती नायिका की तरह रूठ जाती हैं। लिखना-पढ़ना कठिन हो जाता है। अभी कुछ दिन पहले मानिनी का मान भंग हुआ है..." आगे यह आश्वासन था कि लिखना-पढ़ना शुरू हो तो शीघ्र ही आपके लिए सामग्री भेजूंगा।

बहरहाल, थोडी प्रतीक्षा के बाद हजारीप्रसादजी शीलाजी के कक्ष से बाहर आए और मैंने उनका प्रथम दर्शन किया--दीर्घ काया, उन्नत ललाट, खड़ी नासिका, गौर वर्ण, एक हाथ में छड़ी और चहरे पर असाधारण तेज ! धोती-कुर्ता और खादी की बंडी--उत्तरीय भी कंधे से उतरता हुआ--शोभायमान ! उस दिव्य मूर्ति को देखते ही श्रद्धानत हो जाना स्वाभाविक था। मैं आगे बढ़ा और चरण-स्पर्श करके बोला--"मैं मुक्तजी का ज्येष्ठ पुत्र आनंदवर्धन प्रणाम करता हूँ !" वह किंचित अचकचाए, फिर पूछा--"क्या कहा आपने ? मुक्तजी के पुत्र ? मेरे हामी भरते ही वह उत्साहित होकर बोले--"आजकल कहाँ हैं मुक्तजी ? बहुत दिनों से उनसे संपर्क ही नहीं हुआ। कैसे हैं ?" मैंने उन्हें यथास्थिति बताई। वह प्रसन्न हुए। मेरे कंधे पर अपना दायाँ हाथ रखकर कहने लगे--"दिल्ली में ही हैं तो उनसे कहिये, किसी दिन आकर मिलें। उनसे सत्संग हुए बहुत दिन बीते। और आप क्या करते है ?" मैंने उन्हें अपनी स्थिति बताई-- वह बहुत प्रसन्न हुए। प्यार से मेरे सर पर हाथ रखा, बोले--"परिश्रम और इमानदारी से अपना काम करते रहिये, सफलता की ये ही दो चाभियाँ हैं। " बीच दफ्तर में खड़े-खड़े अधिक बातों की स्थिति न थी। मैंने पुनः प्रणाम किया और हजारीप्रसादजी विदा हुए । पहली मुलाक़ात में ही उनकी आत्मीयता, सरलता और भव्यता का मेरे मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। उनकी प्रकांड विद्वत्ता ने उन्हें विनयी और विनोदी बनाया था। पिताजी कहा करते थे कि हजारीप्रसादजी का अट्टहास घन-गर्जना के समान होता था।
दूसरे दिन फ़ोन पर बातें करके पिताजी हजारीप्रसादजी से मिलने गए थे। मैं अपने दफ्तर से बंधा था, इसलिए हार्दिक इच्छा होने पर भी दुबारा उनके दर्शन से वंचित रह गया। ....

एक वर्ष से कुछ अधिक की अवधि व्यतीत हो गई थी। उस दिन भी मैं राजकमल में ही था, जब फ़ोन पर हजारीप्रसादजी के संघातिक रूप से बीमार होने और अस्पताल में भरती किए जाने की ख़बर आई । मैं विचलित हुआ। देर शाम को जब घर पहुँचा तो यह चिंताजनक सूचना मैंने पिताजी को दी। वह कुछ बोले नहीं, लेकिन उनके चहरे पर उभर आई चिंता की वक्र रेखाएं मैं पढ़ सका था। कुछ दिन तक अस्पताल में रहने के बाद हजारीप्रसादजी को गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान के एक विशाल कक्ष में ले आया गया और वहीँ उनकी परिचर्या और चिकित्सा का प्रबंध कर दिया गया। हजारीप्रसादजी अपनी रोग-व्याधि से संघर्ष करने लगे। कभी हालत में सुधार दीखता तो कभी वह और बिगड़ जाती। उनकी हालत अस्थिर बनी हुई थी। .....
{ क्रमशः }

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

एक मुट्ठी ख़ाक...


किनारे को रात भर लहरों का इतजार रहा,
दरिया किनारे बैठकर मैं भी बड़ा बेजार रहा !

खुशियों के इक सैलाब से जो डूबकर बाहर आया,
सदियों उसी खुशी के नाम वो बहुत बीमार रहा !

उस दरख्त के टूटने का सबब मत पूछो,
कभी हवा में झूमता वह बहुत दमदार रहा ।

जिसने इक आग कलेजे में जलाए रक्खी,
उन्हीं आंखों से बरसात का इज़हार रहा ।

पांव जिनके ज़मीं पर नहीं पड़ते थे कभी,
उनके दामन में ख़ाक बेशुमार रहा ।

इश्क और प्यार की तो बात ही बेमानी है,
क्या खुदा उनकी नज़र में, इंसां भी बाज़ार रहा ।

मोल मिटटी का कुछ भी नहीं होता है, मगर
इक मुट्ठी ख़ाक ही मेरा तो जाँ-निसार रहा ।।

बुधवार, 2 सितंबर 2009

दो टुकड़े ज़िन्दगी...


आदर्शों की कमरतोड़ मेहनत से खीझकर
लटक गए शब्द-शब्द वक्त के त्रिशूल पर
दो टुकड़े ज़िन्दगी बाँट दी गई
रोटी के टुकड़े-सी सुबह और शाम
उग आया एक और विराम !

कल तक जो अर्थों को रौंदते थे
गर्दिश की भीगती सभाओं में
चिर-प्रतीक्षित सपनों की अगवानी
तलाशते रहे... तलाशते रहे--
इतने में हो आई शाम
हहराकर डूबे संघर्षों में प्राण !

दुर्दिन की हथकड़ियों में
कांपते शरीर का सम्मोहन
बादल गईं कितनी संज्ञाएँ
उल्टे कांच के गिलास पर
पानी की धार पड़ी...
युद्ध-स्थल झुर्रियों और लकीरों का
गड्ढे में पड़ी आंखों का डूबता निशान
वक्त के विराम की हो गईं चर्चाएँ आम !

शहरों की कोलतार पुती सड़कों पर
या गावों की लहरदार गलियों में
अंधी लाठी से रास्ता बनाने की
होती हैं पुरजोर कोशिशें
पंक्तिबद्ध लम्बी ज़िन्दगी
बन बैठी गूंगी है...
तालू से जीभ के चिपकने की साजिश में
बंद हुए खुलते आयाम
कुछ मेरे, कुछ तेरे नाम !

जंग लगे, बंद पड़े कमरों में
मकड़ी के जालों का खूबसूरत दर्पण
हड्डी की गर्मी और पिघलते नासूर का
दर्दीला मौसम...
प्रतीक्षा की उठी हुई पलकों में
साथ-साथ तैरता आकाश
बिखरती ज़िन्दगी का टूटता विश्वास
गले में रेगिस्तान लिए
भटक रही प्यास
हर क्षण, प्रतिपल, अविराम
सुबह और शाम !!