शनिवार, 24 दिसंबर 2016

'ज़मीं खा गयी आस्माँ कैसे-कैसे' ...

उस साल शरद ऋतु आयी नहीं थी, लेकिन वर्षा विगत-कथा हो चुकी थी। उसी समय की बात है--संभवतः 1981-82 की। पटना के दैनिक पत्र 'आर्यावर्त्त' के लब्ध-प्रतिष्ठ संपादक पं. हीरानंद झा शास्त्रीजी की उत्प्रेरणा से पिताजी को एक साहित्यिक विमर्श के लिए दरभंगा जाना था। पहले यह निश्चित हुआ था कि शास्त्रीजी पिताजी को अपने साथ लेकर दरभंगा जायेंगे और राजकुमार शुभेश्वर सिंह (संभवतः नाम-स्मरण में गफ़लत नहीं कर रहा हूँ) से मिलेंगे और विमर्श के बाद साथ ही पटना लौट आयेंगे। उन्होंने इस मुलाकात और विमर्श के लिए राजकुमार साहब से तिथि और समय की स्वीकृति भी ले ली थी, लेकिन यात्रारम्भ के ठीक दो दिन पहले शास्त्रीजी ने अपना जाना अपरिहार्य कारणों से स्थगित कर दिया था और इसकी सूचना पिताजी को देने घर पधारे थे।
पिताजी ने उनकी बात सुनकर कहा--'शास्त्रीजी, जब आप ही नहीं जायेंगे तो मैं वहाँ अकेला जाकर क्या करूँगा ? लिहाज़ा, मान लेता हूँ कि पूरा कार्यक्रम ही स्थगित हो गया।'

शास्त्रीजी पिताजी की बात सुनकर विचलित-व्याकुल हो उठे, बोले--'नहीं-नहीं, मैं इसीलिए तो स्वयं आपके पास आया हूँ। अगर पूरा कार्यक्रम ही स्थगित करना होता, तो इसकी सूचना मैं फ़ोन पर ही आपको देकर निश्चिन्त हो जाता। राजकुमार साहब ज़्यादातर बाहर-बाहर रहते हैं। मुश्किल से तो उनसे समय मिला है, सारी बातें दूरभाष पर हो चुकी हैं और विमर्श का विषय भी पत्र द्वारा उनके सामने मैं रख चुका हूँ। बस, आप एक बार उनसे मिलकर बातें कर आइये, बाकी सब मुझ पर छोड़ दीजिये।'
पिताजी इसके लिए राज़ी नहीं हो रहे थे। उन्होंने अपनी विवशता उन्हें बतायी--'शास्त्रीजी, उम्र की इस दहलीज़ पर, अशक्तता की इस दशा में, इन आँखों से मुझ अकेले से यात्रा संभव नहीं हो सकेगी। आप तो मुझे क्षमा ही करें। अगली बार जब कभी संयोग बनेगा, आपके साथ ही वहाँ जाऊँगा।'

लेकिन गरज़मंद तो सहस्रबाहु होता है। शास्त्रीजी की आन भी कहीं अटकी पड़ी थी शायद। बोले--'हाँ, तो अकेले मत जाइये, किसी को साथ ले लीजिये।' पिताजी कहने ही जा रहे थे कि 'किसे साथ ले जाऊँ', तब तक मैंने चाय की ट्रे के साथ कक्ष में प्रवेश किया। शास्त्रीजी झट मेरी ओर इशारा करते हुए बोले--'इनके साथ ही चले जाएँ न। आने-जाने में जितना भी वक़्त लगे, बैठक तो घंटे भर में समाप्त हो जायेगी। फिर पटना लौट आइयेगा।'

चाय पीकर और दो खिल्ली पान, सुपारी-तम्बाकू के साथ खाकर शास्त्रीजी जब विदा हुए, तब पिताजी ने चिंतित स्वर में मुझसे कहा--'लगता है, शास्त्रीजी ने मेरी स्वीकृति-अस्वीकृति के पहले ही कुमार साहब से कह दिया है कि मैं मीटिंग के लिए वहाँ पहुँचूँगा। अब क्या करूँ, जाना तो पड़ेगा, अन्यथा शास्त्रीजी संकट में पड़ेंगे। मित्र हैं, उनकी अवमानना हो, यह मैं नहीं चाहूँगा।'
मैंने कहा--'हाँ, तो चलिए न, मैं साथ चलता हूँ, इसमें चिंता की क्या बात है।' मेरी बात सुनकर पिताजी कुछ बोले नहीं, लेकिन मैंने लक्ष्य किया कि उन्हें शास्त्रीजी यह बात रुचिकर नहीं लगी थी।

दो दिन बाद पिताजी के साथ मैंने भी सुबह-सुबह दरभंगा के लिए प्रस्थान किया। घर से निकलने के पहले पिताजी ने मुझसे कहा--'तुम सड़क तक पहुँचो, मैं आता हूँ।' मैंने बिना कुछ कहे बैग उठाया और चल पड़ा। जानता था, वह ऐसा क्यों कह रहे हैं । दरअसल पिताजी थे तो अत्याधुनिक विचारों के, लेकिन कई पुरानी मान्यताओं का मान भी रखते थे। उन्हीं के श्रीमुख से बारहाँ सुना था--
'पिता पुत्रौ न गच्छेत्, न गच्छेत ब्राह्मण त्रयं !'
अर्थात पिता-पुत्र को और तीन ब्राह्मणों को अदिन में एक साथ यात्रा नहीं करनी चाहिए। इस पंक्ति में दी गयी वर्जना का वह ध्यान रखते और कहीं की भी यात्रा की तिथि निश्चित करते हुए दिशाशूल का विचार भी करते थे। अत्यावश्यक न हो तो दिशाशूल में भरसक यात्रा नहीं करते थे और यदि विवशता ही आ पड़े, तो विधि-निषेधोपचार के बाद ही यात्रा पर निकलते थे।

उन दिनों दरभंगा जाने का एक ही मार्ग था--गंगा नदी को बच्चा बाबू के स्टीमर से अथवा सरकारी जहाज से पार करके पहलेजा पहुँचना, फिर रेल या बस से दरभंगा। तब तक निर्माणाधीन गाँधी-सेतु बनकर तैयार होने की दशा में तो था, लेकिन लोकार्पित नहीं हुआ था। हमने सरकारी जहाज से ही यात्रा करना तय किया। घण्टे-डेढ़ घण्टे में हम पहलेजा पहुँचे, फिर दरभंगा के लिए चल पड़े।

निश्चित समय पर हम दरभंगा-राजप्रासाद पहुँचे। वह विशाल प्रासाद था--उन्नत द्वार और मेहराबदार परकोटों से घिरा हुआ। हम वहाँ पहुँचे, जहाँ राजकुमार शुभेश्वर सिंह का निवास था। उस भवन को देखकर ही अनुमान किया जा सकता था कि कभी वहाँ का श्री-वैभव कैसा विलक्षण रहा होगा। काल ने उसे श्रीहीन कर दिया था, रंग-रोगन के बिना दीवारें उदास लग रही थीं, लेकिन वैभव और सम्पन्नता अन्दर विद्यमान थी। हमें एक सेवक ने बहुत बड़े कक्ष में सादर बिठा दिया और कुमार साहब को सूचित करने अंदर चला गया। शीघ्र ही कुमार साहब पधारे और नमस्कारोपरांत बोल पड़े--"बैठिये, मैं आपकी ही प्रतीक्षा कर रहा था।" युवावस्था की दहलीज़ लाँघ जाने की कगार पर खड़े कुमार साहब बहुत कद्दावर और सुदर्शन व्यक्ति थे। वह पिताजी से किसी गंभीर विषय पर विमर्श में निमग्न हो गए और मैं चुपचाप बैठा-बैठा कक्ष की एक-एक चीज़ को निहारता रहा। सोचता रहा कि संगीतप्रेमी राजा साहब के युग में वहाँ कैसी रौनक रही होगी, कैसी चहल-पहल और राग-रागिनियों का कैसा आनन्द-विलास होता रहा होगा !

मैंने कई पुस्तकों में दरभंगा राज-परिवार के संगीत-प्रेम के बारे में पढ़ा भी था कि संगीतकारों की एक सुदीर्घ परम्परा महाराजाधिराज की कृपा-छाया में पुष्पित-पल्लवित होती रही है, उनका भरण-पोषण होता रहा है वहाँ। धुरपद (ध्रुपद) के प्रख्यात गायक पं रामचतुर मल्लिक तो हमारे ज़माने के वयोवृद्ध फ़नकार रहे हैं, लेकिन पुराने वक़्त की पढ़ी-जानी कथाओं की बात करूँ तो मुझे बौराही कनीज़ (बड़ी कनीज़) की याद आती है। उसकी तानों में गज़ब की तड़प थी, कहन में अपूर्व कशिश थी, तासीर थी और वह मन्त्र-मुग्ध कर देनेवाला ठुमरी-गायन करती थी। उसकी समकालीन गानेवालियाँ थीं--अल्लाजिलाई, मोहम्मद बाँदी और ज़ोहराबाई पटनावाली। ये सभी अपने ज़माने की सरनाम गायिका थीं। ठुमरी, दादरा, टप्पा और ग़ज़ल-गायन में इनका कोई सानी नहीं था। राज्याश्रय में ही ज़ोहराबाई का गायन परवान चढ़ा था। महाराज कामेश्वर सिंह के राज्याभिषेक के अवसर पर अपनी गायकी से उसने दिग्गज उस्तादों को भी हैरत में डाल दिया था। उसने बड़े-बड़े दंगल जीते थे और दरभंगा-राज का वर्चस्व क़ायम रखा था। पटनावाली ज़ोहरा की मौत पर महाराज बहुत दुखी हुए थे। पटनासिटी में उसे दफ़्न किया गया। उसकी कब्र की शानोशौकत बरकरार रखने के लिए राजा साहब ने सस्ती के उस ज़माने में अपने कोष से ग्यारह हज़ार रुपयों की धन-राशि देकर चुनार के लाल पत्थरों से उसकी मज़ार की शोभा बढ़ायी थी।

लेकिन, बड़ी कनीज़ की कहानी बहुत पीड़ादायी है। उसकी विक्षिप्त मनोदशा के कारण ही लोग उसे बड़ी कनीज़ की जगह 'बौराही' कनीज़ पुकारने लगे थे। किसी छोटी-सी बात पर उसके मन को गहरी ठेस लगी थी और उसने राज-दरबार का मोह त्याग दिया था। कुछ वर्षों तक उसका कुछ पता ही नहीं चला कि वह कहाँ चली गयी। महाराज उसके इस आचरण-व्यवहार से दुखी थे, उन्होंने कुछ समय तक उसकी तलाश की चेष्टाएँ कीं; फिर उसकी तरफ से विमुख हो गए।

वर्षों बाद बड़ी कनीज़ पटनासिटी की बदनाम गलियों में देखी गई। उसकी मानसिक दशा बिगड़ गयी थी। गलियों-सड़कों पर वह बदहवास गाती-गुनगुनाती और सुरों की मारक तान लगाती निकल जाती। चलते-फिरते लोग ठगे-से खड़े रह जाते और मन्त्रमुग्ध-से उसे सुनने लगते। उसके सुरों में बला की तासीर थी और कण्ठ का नाद ऐसा कि वह दूर-दूर तक गूँजता, जैसे हवा की तरंगों पर तिरता सुरों का बाण चारो दिशाओं में बिखर रहा हो। अपने इन्हीं सुरों के कारण वह पहचानी भी गयी और बात कानों-कान महाराज तक पहुँची। उन्होंने उसे मनाने-बुलाने के लिए के लिए दूत भेजे, लेकिन वह तो अपनी सुध-बुध खो चुकी थी, संसार से उसका सरोकार प्रायः समाप्त हो गया था। सरोकार रह गया था, तो सिर्फ़ सुरों से। उसने कहीं भी जाने से इनकार कर दिया।
कालान्तर में मुफ़लिसी और दुरावस्था में पटनासिटी में ही उसकी मौत हुई। पटनासिटी की जाने किस गली में उसे सुपुर्दे-ख़ाक किया गया। जब तक राजा साहेब को उसके इंतकाल की ख़बर मिली, तब तक कई महीने गुज़र गए थे। राज-वैभव और विलासितापूर्ण जीवन का त्याग कर ख़ाक में मिल जानेवाली बड़ी कनीज़ की कहानी मेरे ज़ेहन से कभी मिटी नहीं और दिमाग में गूँजते रहे ये शब्द--'ज़मीं खा गयी आसमाँ कैसे-कैसे !'

(समापन अगली किस्त में)

गुरुवार, 1 दिसंबर 2016

।।पुण्य-स्मरण : प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त'।।

[आज पूज्य पिताजी की २१वीं पुण्य-तिथि है। उनका स्मरण तो साँसों की लय पर रहता है, लेकिन सोचता हूँ कि उन्हें नमन करते हुए आज उनका एक संस्मरणात्मक आलेख आपके साथ बाँटूँ। यह आलेख स्वयं अपनी बात आपके सम्मुख रखेगा, मुझे उसके बारे में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। लेख थोड़ा लम्बा जरूर है, लेकिन रोचक है। मुझे विश्वास है, इसे पढ़कर आपको आनन्द तो मिलेगा ही, संभव है, किंचित् ज्ञान-लाभ भी हो। सप्रणाम--आनन्द.]

दो सीमाएँ ...
--प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त'

जीवन के विभिन्न क्षेत्र में अक्सर ऐसे रोचक अनुभव प्राप्त होते हैं कि उन्हें बाँटने की इच्छा होती है। यहाँ मैं दो ऐसे रोचक अनुभवों का उल्लेख करना चाहता हूँ, जो रोचक तो थे ही, परस्पर विरोधी भी थे।

उन दिनों डॉ. ज़ाकिर हुसैन बिहार के राज्यपाल थे और मैं पटना रेडियो स्टेशन में हिंदी-विभाग का प्रोड्यूसर था। साल में दो-तीन बार ज़ाकिर साहब किसी-न-किसी रिकॉर्डिंग के लिए रेडियो स्टेशन आया करते थे। उन्हें जब पहली बार देखा था, तभी उनके सौजन्य, शिष्टाचार और विद्वत्ता की छाप मुझ पर पड़ी थी। 'विद्या ददाति विनयम्' के वह मानो मूर्त्त रूप थे। भाषा सरल उर्दू लिखते थे और बीच-बीच में संस्कृत शब्दों का इतना खूबसूरत और उचित प्रयोग करते थे कि उससे वाक्य का सौन्दर्य बढ़ जाता था। एक बार ऐसे ही एक संस्कृत शब्द का (शब्द मुझे स्मरण नहीं आ रहा) उन्होंने तीन बार प्रयोग किया था। वह हमेशा फ़ारसी लिपि में लिखा अपना आलेख साथ लेकर आते थे। फ़ारसी लिपि से अनभिज्ञ होने के कारण मेरे लिए उनके आलेख को पढ़ने का प्रश्न ही नहीं उठता था। उस दिन जब बूथ में बैठकर मैं रिकॉर्डिंग कर रहा था, मैंने सुना कि उस संस्कृत शब्द का उनका उच्चारण सही नहीं था। लेकिन आगे दो बार जब उन्होंने फिर उसी शब्द का उच्चारण किया तो मैंने समझा कि उसका उच्चारण उन्हें मालूम नहीं है। रिकॉर्डिंग हो जाने के बाद मैं स्टूडियो में आया, जहाँ स्टेशन डायरेक्टर मौजूद थे। मैंने ज़ाकिर साहब से कहा कि आपने इस शब्द का इस रूप में उच्चारण किया है, जबकि उसका शुद्ध रूप यह है।
ज़ाकिर साहब ने पूछा--'मैं ग़लत बोला?'
मैंने कहा--'जी।'

हमारा वार्तालाप सुनकर स्टेशन डायरेक्टर महोदय भयभीत और आतंकित हो रहे थे। उन्होंने एक बार आग्नेय नेत्रों से मेरी ओर देखा भी, लेकिन मैंने उसे अनदेखा कर दिया।
ज़ाकिर साहब ने पूछा--'सही उच्चारण आपने क्या बताया ?'
मैंने सही रूप उन्हें फिर बता दिया और मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब वह बच्चों की तरह उसे रटने लगे। कम-से-कम दस शुद्ध आवृत्तियों के बाद उन्होंने पूछा--'अब ठीक है?
मैंने कहा--'बिलकुल।'
उन्होंने फिर पूछा--'आप फिर रिकॉर्डिंग कर सकते हैं?'
मैंने कहा--'अवश्य।'

ज़ाकिर साहब ने अपनी पूरी वार्ता दुबारा रिकॉर्ड करवाई और इस बार उन्होंने बिलकुल शुद्ध उच्चारण किया।
जब वह रेडियो स्टेशन से विदा हो गए तो स्टेशन डायरेक्टर मुझे अपने कमरे में ले गए। बैठते ही उन्होंने कहा--'मुक्तजी, आप किसी-न-किसी दिन मेरी नौकरी खा जाइयेगा। आप जानते हैं, ज़ाकिर साहब जल्दी ही उप-राष्ट्रपति होकर दिल्ली जानेवाले हैं। अगर आपकी बात उन्हें बुरी लगी होगी तो उनके ज़रा-से इशारे पर मैं तो कहीं का न रहूँगा। आप में यह बड़ा दोष है कि आप किसी को बख़्शते नहीं हैं।'
मैंने उन्हें बहुत आश्वस्त करना चाहा कि वह विद्वान् पुरुष है, बुरा मानने का सवाल ही नहीं उठता। अगर कुछ मानेंगे तो उपकार मानेंगे और यदि मेरी धारणा गलत भी हुई तो नौकरी आपकी नहीं, मेरी जायेगी; क्योंकि आपने तो कुछ कहा ही नहीं था।
बहरहाल, स्टेशन डायरेक्टर आश्वस्त नहीं हो सके और अक्सर साप्ताहिक मीटिंग में इस घटना का उल्लेख करके कहा करते थे कि मुक्तजी ने राज्यपाल को कह दिया कि आप गलत बोलते हैं।

दो-तीन महीनों के बाद ज़ाकिर साहब फिर किसी रिकॉर्डिंग के सिलसिले में रेडियो स्टेशन आनेवाले थे। इस बार एक अनहोनी बात हुई कि ज़ाकिर साहब का हिंदी में टंकित आलेख मेरे पास पहले ही आ गया। मैंने उसे पहले ही पढ़ लिया था और टंकण के कुछ दोष सुधार दिए थे। आलेख मेरी मेज़ पर पड़ा हुआ था।

जब राजभवन से फ़ोन आया कि राज्यपाल रेडियो के लिए रवाना हो चुके हैं तो स्टेशन डायरेक्टर सहित हम तीन-चार आदमी उनकी अगवानी के लिए पोर्टिको की सीढ़ियों पर आ खड़े हुए। लेकिन ज्यों ही पायलट आया, मैं ज़ाकिर साहब का आलेख लेने के लिए अपने कमरे की ओर दौड़ गया। ज़ाकिर साहब गाड़ी से उतरकर सामने खड़े प्रत्येक व्यक्ति से हाथ मिलाया करते और तब बारामदे की सीढियाँ चढ़ते। जब आलेख लेकर मैं पहुँचा तो मैंने सुना, ज़ाकिर साहब डायरेक्टर से पूछ रहे हैं. 'आज मुक्तजी नहीं हैं?'
मैंने आगे बढ़कर नमस्कार किया, उन्होंने हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा--'भई, आज मैंने फिर एक नया लफ़्ज़ इस्तेमाल किया है, देखिये ठीक है न?'
शब्द का उच्चारण ठीक ही था।

स्टूडियो में पहुँचकर बैठते हुए ज़ाकिर साहब ने कहा--'मैं आपका बड़ा मशक़ूर हूँ। आपने उस दिन मेरी इज़्ज़त बचायी। यहां तो आप दो-चार आदमियों ने ही मेरा ग़लत बोलना सुना था, अगर उसी तरह ब्रॉडकास्ट हो जाता तो हज़ारों लोग सुनते कि ज़ाकिर हुसैन ग़लत बोलते हैं। अब तो जब कभी मैं संस्कृत का नया लफ़्ज़ इस्तेमाल करूँगा, आपसे पूछ लिया करूँगा।'
वह बड़ी स्निग्ध-सी हँसी हँसे। हम सबने उनका अनुसरण किया।
यह ज़ाकिर साहब की विद्वत्ता थी, जिसने उन्हें इतना नम्र और सहज बनाया था।

इसके ठीक विपरीत एक दूसरी घटना का स्मरण आता है, जिसके नायक बिहार के राजनेता श्रीकृष्णवल्लभ सहाय थे।

कृष्णवल्लभ बाबू अपनी राजनीतिक सूझबूझ, कार्य-पटुता और अशिष्टता के लिए प्रसिद्ध थे। बिहार में वह दूसरी पंक्ति के काँग्रेसी नेता थे और देश की स्वतंत्रता के बाद बनानेवाले मंत्रिमंडलों में सदा स्थान पाते रहे थे, जिसने प्रथम पंक्ति के नेताओं के दिवंगत हो जाने के बाद उन्हें बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया। इसे संयोग ही कहेंगे कि उनके मुख्यमंत्रित्व काल में जितने उपद्रव, दंगे, आगजनी और लाठी-गोली-काण्ड हुए, उतने पहले कभी नहीं हुए थे। एक बार ऐसी ही भीषण घटना के अवसर पर, जब बिहार का गाँधी ग्रामोद्योग भवन जलाया जा चुका था और गोली चलने के परिणामस्वरूप कितने ही लोग हताहत हुए थे, राज्य की जनता के नाम मुख्यमंत्री के रूप में अपने सन्देश की रिकॉर्डिंग के लिए कृष्णवल्लभ बाबू रेडियो स्टेशन आये।

रेडियो की यह नीति रही है कि किसी व्यक्ति, दल, धर्म और व्यवसाय आदि के सम्बन्ध में नामतः आक्षेप नहीं किया जाना चाहिए। स्टूडियो में जब मैंने कृष्णवल्लभ बाबू के आलेख पर नज़र डाली तो आरम्भ में ही यह उल्लेख मिला कि इस उपद्रव के मूल में कम्युनिस्ट पार्टी का हाथ है। मैंने व्यावसायिक विनम्रता के साथ उनसे निवेदन किया कि रेडियो की नीति के अनुसार नाम लेकर किसी दल पर आक्षेप नहीं किया जा सकता।

मैंने अपनी बात अभी पूरी भी नहीं की थी कि वह आग बबूला हो उठे। कुर्सी से उठाते हुए उन्होंने बड़े तैश से कहा--'मुख्यमंत्री मैं हूँ कि आप हैं ? आप मुझे नीति सिखाइयेगा ? मैं जाता हूँ। मैं पटना रेडियो से कभी ब्रॉडकास्ट नहीं करूँगा। मैं अपने मिनिस्टरों से भी कहूँगा की वे ब्रॉडकास्ट न करें। मैं दिल्ली में आपकी शिकायत करूँगा।'
कृष्णवल्लभ बाबू का यह रौद्र रूप देखकर स्टेशन डायरेक्टर के हाथ-पाँव फूल गए। वह बार-बार प्रार्थना करने लगे कि वह बड़े हैं, महान हैं, वह जो भी कहना चाहते हैं, वही ब्रॉडकास्ट होगा आदि।

बड़ी मुश्किल से स्टेशन डायरेक्टर उन्हें रिकॉर्डिंग के लिए राजी कर सके, यद्यपि यह मुझे बिलकुल पसंद नहीं आया। यदि स्टेशन डायरेक्टर वहाँ उपस्थित न होते तो कृष्णवल्लभ बाबू के उठ खड़े होने पर मैं उन्हें नमस्कार करता और धन्यवाद देकर विदा कर देता; क्योंकि मैं जानता था कि औचित्य मेरे पक्ष में है और ग़लत बात को प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए।

रिकॉर्डिंग तो स्टेशन डायरेक्टर ने करा ली, लेकिन स्वयं संकट में पड़ गए; क्योंकि कृष्णवल्लभ बाबू के वक्तव्य की शब्दावली प्रसारण के योग्य नहीं थी। रात के आठ बज चुके थे और सन्देश को साढ़े नौ बजे प्रसारित करना था। मुझे और राधाकृष्ण प्रसाद को, जो उन दिनों पटना रेडियो में प्रोग्राम एक्सक्यूटिव थे, साथ लेकर स्टेशन डायरेक्टर अपने कमरे में चले गए और इस असमंजस में पड़े कि क्या किया जाए। मैंने अपना स्पष्ट निर्णय दिया कि कम्युनिस्ट पार्टी के नाम का उल्लेख किसी भी हालत में नहीं प्रसारित होना चाहिए। अच्छा यह होगा कि यह वाक्य ही रिकॉर्डिंग से हटा दिया जाए। लेकिन स्टेशन डायरेक्टर आतंरिक तौर से भयभीत थे और उन्हें इस बात का ख़तरा था कि अगर कृष्णवल्लभ सहाय स्वयं उस ब्रॉडकास्ट को सुनेंगे और उस वाक्य अनुपस्थित पायेंगे, जिसके लिए बात इतनी बढ़ गयी थी, तो उनकी नौकरी जाते देर न लगेगी। मैंने जरा विनोद से कहा था कि नौकरी तो आपकी कम्युनिस्ट पार्टी के नाम के उल्लेख के कारण ज्यादा आसानी से जा सकती है। मेरे इस विनोद ने उन्हें इतना दयनीय बना दिया कि मुझे साँप-छछून्दर की याद आने लगी। अंततोगत्वा, बीसों प्रयत्नों के बाद उन्होंने दिल्ली में डायरेक्टर जनरल से दूरभाष पर बातें कीं और उनसे मार्गदर्शन माँगा। डी.जी. ने उत्तर में कहा कि मामला बड़ा गम्भीर है और वह केंद्रीय मंत्री से बात करके साढ़े नौ बजे के पहले ही स्वयं सूचित करेंगे कि क्या करना चाहिए।

घडी की सुइयों के साथ स्टेशन डायरेक्टर महोदय का दिल भी धड़क रहा था। समय को शायद पंख लग गये थे। प्रत्येक क्षण के साथ उनके चेहरे की रंगत बदल रही थी और लो, सवा नौ बज गए। दिल्ली से कोई खबर नहीं आयी। स्टेशन डायरेक्टर ने विक्षिप्तता के साथ फिर संपर्क करने की बारहाँ कोशिश की, लेकिन सफलता नहीं मिली। जब नौ बजकर आठ मिनट हो गए तो उन्होंने रुआंसे स्वर में कहा कि जैसा है, वैसा ही ब्रॉडकास्ट करा दीजिये। अब तो जो होना है, होकर रहेगा।

इस बात ने आगे चलकर बहुत तूल पकड़ा था। संसद में प्रश्न हुए थे और अंततः डायरेक्टर जनरल ने सभी स्टेशनों को यह आदेश भेजा था कि पद और प्रतिष्ठा का ध्यान न रखते हुए किसी भी व्यक्ति के आलेख की पूरी जाँच होनी चाहिए और रेडियो-नीति के प्रतिकूल कोई भी वाक्य अथवा वाक्यांश किसी भी हालत में प्रसारित नहीं होना चाहिए।

लेकिन इस घटना का रोचक पक्ष दूसरा ही है।
उसी रात साढ़े ग्यारह बजे सी.आई.डी. के एक इंस्पेक्टर ने स्टेशन डायरेक्टर की कोठी पर पहुँचकर उन्हें जगाया और पूछा कि कुरता-पायज़ामा पहने हुए उस कम्युनिस्ट से दिखनेवाले आदमी का मकान कहाँ है, जिसने मुख्यमंत्री को ब्रॉडकास्ट करने से रोका था ? स्टेशन डायरेक्टर मेरा घर जानते तो थे, कई बार मेरे घर आ चुके थे, लेकिन उस वक़्त उन्होंने बड़ी जवाँमर्दी से काम लिया और कहा कि रेडियो स्टेशन में इतने लोग काम करते हैं, मैं सबके घर का पता कैसे जान सकता हूँ? बहुत बहस-मुबाहिसे के बाद भी जब स्टेशन डायरेक्टर ने उसे मेरे घर का पता नहीं दिया तो वह यह धमकी देता हुआ कि आपके न बताने पर भी हम उसका मकान ढूँढ ही लेंगे, चला गया। दूसरे दिन मुझे मोहल्ले के लोगों से यह जानकर बड़ा मज़ा आया कि सी.आई.डी. के वह सज्जन मुझे ढूँढ़ने लिए मेरे ही घर नहीं पधारे, बाकी कई घरों में मेरी टोह लेते हुए असफल होकर लौट गए थे।

ज़माना ऐसा था कि जब कम्युनिस्ट कहकर अकारण ही किसी को गिरफ़्तार करके जेल में डाल दिया जा सकता था और कृष्णवल्लभ सहाय के लिए तो यह मामूली बात थी।

अगले दिन जब मैं रेडियो स्टेशन पहुंचा तो मुझसे ज्यादा मेरे स्टेशन डायरेक्टर आतंकित थे और उन्होंने मुझे इस बात के लिए विवश किया कि दफ़्तर तो मैं आता रहूँ, लेकिन आठ-दस दिनों के लिए अपना घर छोड़कर कहीं अन्यत्र चला जाऊँ। उन्होंने कहा कि कृष्णवल्लभ सहाय यदि दफ़्तर से आपको गिरफ़्तार करवायेंगे तो बात दूसरी होगी, लेकिन अगर घर पर आपकी गिरफ्तारी हुई तो कुछ नहीं किया जा सकेगा। मुझे सात-आठ दिनों तक अज्ञातवास करना पड़ा था।

ये दो घटनाएँ शिष्टता और अशिष्टता की दो सीमाओं का स्पर्श करती हैं। जब कभी ये दोनों घटनाएँ मुझे एक साथ याद आती हैं तो सहज ही मुझे ज़ाकिर साहब के सौजन्य का और कृष्णवल्लभ सहाय की अशिष्टता का स्मरण हो आता है। ज़ाकिर साहब को मैंने उनके अशुद्ध उच्चारण के लिए टोका था और कृष्णवल्लभ सहाय को भी उनकी ग़लतबयानी के लिए सावधान किया था। एक ने बड़ी सहजता से मेरी बात स्वीकार ही नहीं की थी, मेरे प्रति कृतज्ञता भी प्रकट की थी और दूसरे ने उससे बड़ी गलती के लिए मेरा तिरस्कार किया था और मुझे जेल में डालने की कोशिश की थी। एक में मुझे विद्या का विनय देखने को मिला था और दूसरे में मुझे शक्ति मद। इस प्रसंग में सहज ही संस्कृत के इस श्लोक का स्मरण हो आता है--

'विद्या विवादाय धनं मदाय
शक्तिः परेषां परिपीडनाय।
खलस्य साधोर्विपरीतमेतद्
ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।।'
(रचना-काल : ११-१२-१९७७)

[चित्र : पूज्य पिताजी की एक आकर्षक मुद्रा]

शुक्रवार, 25 नवंबर 2016

कटहल से कुश्ती ...

।। विनोद-कथा।।

झारखण्ड का रांची प्रक्षेत्र अपनी वन्य सम्पदा और प्राकृतिक सौन्दर्य के कारण आकर्षण का केंद्र रहा है। आज की स्थिति का तो पता नहीं, लेकिन जिस ज़माने की कह रहा हूँ, उस ज़माने में यह सम्पदा सड़क-किनारे ही बिखरी पड़ी दीखती थी। तब छोटा ही तो था--१९६५-६६ में, सातवीं-आठवीं का छात्र!

राँची जिले के एक जनपद 'खूँटी' में, माँ और छोटे भाई-बहन के साथ, रहता था। विद्यालय के लिए रोज़ दो-ढाई किलोमीटर की पद-यात्रा करता था। उन दिनों खूँटी बड़ा रमणीय स्थान था। पर्याप्त वन-सम्पदा सर्वत्र सहज सुलभ थी। पुष्ट जामुन-केले-बेर बहुत सुस्वादु तो थे ही, बहुतायत में निःशुल्क उपलब्ध भी थे। मिठुआ आम--कच्चे-पक्के, मीठे-खट्टे--वृक्षों पर लदे मिलते थे, जिनका कोई देखनहार नहीं था। मनचाहे पेड़ पर चढ़ जाइये, तोड़िये और खाइये, चबाइये या अधखाये को फेंक दीजिये, कोई पूछनेवाला नहीं! और, विशालकाय पपीते इतने मीठे कि मत पूछिये, उसके स्वाद के मज़े ! कटहल क़द-काठी में इतने बड़े कि देखकर आश्चर्य होता। दो-ढाई वर्षों के खूँटी-प्रवास में मैंने बड़े मज़े किये वहाँ ! यह अलग बात है कि १९६५ के पकिस्तान युद्ध के बाद अन्न का जो भीषण संकट देश में उत्पन्न हुआ था, खाद्यान्न की विपन्नता के उस काल में, खूँटी में ही हमने कुछ दिनों तक 'मिलो' (देशव्यापी भाषा में उसे जाने क्या कहते हैं!) की रोटी भी खायी थी, जो बहुत बेस्वाद और कड़क होती थी। और, उन कठिन दिनों में मेरी उदर-पूर्ति का साधन प्रचुर वन-सम्पदा से ही प्राप्त होता था मुझे।

विद्यालय जाते हुए तो समय से पहुँचने का बंधन था, लेकिन लौटते हुए मैं बाग़-बगीचों में उन्मुक्त विचरण करता हुआ घर लौटता। कभी आम की शाखाओं पर झूमता-इठलाता, तो कभी जामुन के वृक्षों पर मँडराता! फल तोड़ता, खाता-चबाता, तोड़ता-फेंकता और मस्ती करता--अशोक वाटिका में विचरण करते हनुमानजी की तरह। उन वृक्षों पर किसी का हक़-मालिकाना तो था नहीं, पटना के श्रीकृष्ण नगर मोहल्ले की तरह रोज़ शाम मेरी ढेर सारी शिकायतें भी घर नहीं आती थीं। घर आते हुए स्कूल बैग में आम, अमरूद, बेर, जामुन भी भर लाता। माँ देखतीं, तो फटकार लगातीं, लेकिन मैं बाज़ न आता। एक बार तो हद ही हो गयी। मैं जामुन के पेड़ से उतरा तो मीठा, रसभरा और बहुत पुष्ट जामुन बैग में भर लाया। लेकिन पीठ पर लदा-लदा वह जामुन घर पहुँचते-पहुँचते पिचक गया। पिचक गया तो कोई बात नहीं थी, पेड़ों पर इफ़रात लदा पड़ा था वह। लेकिन, फेंके जाने के पहले वह मेरे बैग को जमुनी रंग से रँग गया था। माँ ने देखा तो मेरी खूब ख़बर ली उन्होंने !

लोक निर्माण विभाग की लंबी और प्रायः जनशून्य सड़क पर दोनों ओर कटहल के छोटे-बड़े पेड़ लगे थे, जिन पर हर मौसम में लटकता ही मिलता था कटहल ! पिछले कुछ महीनों से विद्यालय आते-जाते कटहल का एक दरख़्त मुझे बहुत आकर्षित कर रहा था--दस-बारह फ़ीट तक उसका मोटा तना सीधा खड़ा था, उसके बाद दो भागों में विभक्त होकर दो अलग-अलग दिशाओं में बढ़ता चला गया था। मेरे आकर्षण का केंद्र वह विशालकाय कटहल था, जो विभक्त हुई दो शाखों की संधि से लटका हुआ था। मैं स्कूल आते-जाते कई बार उस वृक्ष के नीचे ठहरकर हसरत-भरी दृष्टि से उस बलवान कटहल को देखा करता था ! उस कटहल को देखते-देखते उसे हस्तगत करने का विचार मेरे मन में पुष्ट होने लगा था, लेकिन अल्पज्ञानी मैं, तब यह सुनिश्चित नहीं कर सका था कि आख़िर उसे पाकर मैं करूँगा भी क्या ?

एक दिन घर से विद्यालय जाते हुए छुरी और छोटी-सी बोरी मैंने अपने बस्ते में डाल ली और विद्यालय चला गया। शाम तीन बजे विद्यालय से छूटा तो कटहल के उसी वृक्ष पर मैंने आरोहण किया--तने से लटके दीर्घकाय कटहल के पृष्ठ-भाग से; क्योंकि सामने का मार्ग तो कटहलजी ने अवरुद्ध कर रखा था। तब शरीर में इतनी फुर्ती और चपलता थी कि बस थोड़ी ही देर में मैं दस-बारह फ़ीट ऊपर, तने से विभक्त होती शाख़ों तक, पहुँच गया। विभक्ति की संधि पर पेट के बल लेटकर मैं छुरी से कटहल की डंडी को रेतकर काटने लगा, लेकिन कटहल की तरह वह भी बलशाली थी, हठी भी। कटहल वृक्ष का तना छोड़ने को तैयार नहीं था और मैं उसे अपने साथ घर ले जाने की ज़िद पर अड़ा हुआ था। यह ज़द्दोज़हद लंबी चली, जबकि मेरी छुरी इतनी भोथरी भी नहीं थी। पंद्रह मिनट के निरंतर प्रयास के बाद कटहल का डंठल आधा कट तो गया, लेकिन एक ही दशा में औंधेमुँह लटककर श्रम करते हुए मेरे हाथ और पेट में दर्द होने लगा। स्थिति ऐसी थी कि सब कुछ अधर में था--मैं भी, कटहल भी !
मैंने क्षण-भर का विश्राम लेकर दबे हुए पेट को थोड़ा आराम दिया और फिर काम पर लग गया। मेरा दायाँ हाथ ऐंठने लगा था, कन्धों तक दर्द चढ़ आया था। थोड़ा और झुककर मैंने दायें हाथ से कटहल की डंडी को थाम लिया और बाएं हाथ से उसे पुनः काटने लगा। बस, दो-तीन मिनट के परिश्रम में ही कटहल की डंडी अपने कटे हुए स्थान से चिटकने लगी। मैं समझ गया कि अब बच्चू कटकर मेरी ज़द में आने ही वाले हैं। मैंने छुरी से डंडी को काटने का क्रम जारी रखा और दाएं हाथ की पकड़ और मज़बूत कर ली। और तभी... 'पट्ट' की एक आवाज़ के साथ कटहलजी भू-लुंठित होने को मचल उठे। उन्होंने मुझे इतनी ज़ोर का झटका दिया कि मैं कमर तक घिसटकर सिर के बल लटक गया। वह तो भला हो उन दो शाखाओं का, जिन्होंने कटहल के साथ मुझे भी भूमि पर सिर के बल गिरने से बचा लिया था। दो शाखाओं की संधि के सँकरे भाग में मेरी कमर घिसटकर जा फँसी थी। और, यह सब क्षण-भर में हठात् हो गया था।...

अब मेरी दशा विचित्र थी। जैसे मैं किसी गिरगिटान की तरह पेड़ से उतरते हुए अपने शिकार को एकाग्र भाव से देख रहा होऊँ--फर्क सिर्फ इतना था कि गिरगिट की एकाग्रता में विश्वास की चमक उसकी आँखों में होती है, जबकि मेरी विस्फारित आँखों में भय भरा था। कटहल मुझे नीचे खींच रहा था और मैं उसे ऊपर। बालपन की उस उम्र में मैं पिद्दी-सा ही तो था, जबकि कटहलजी हृष्ट-पुष्ट और ख़ासे वज़नी थे। इस रस्साक़शी में मैं हिम्मत हारने लगा, कटहलजी सचमुच बहुत भारी थे। सोचने लगा, छोड़ूँ कटहल का मोह और प्राण-रक्षा कर सही-सलामत पेड़ से उतर जाऊँ। कटहलजी गिरते तो पाँव के बल गिरते और मैं गिरता तो सिर के बल! रण छोड़ निकलने का मेरे मन में उपजता यह विचार कटहल की तरह ही पुष्ट हो पाता, इसके ठीक पहले दूर से आते मेरे एक प्रिय मित्र प्रभात (प्रभात कुमार दास 'लाइट') दिखे। हमउम्र और कोमल-सुदर्शन बालक थे और जाने किस उल्लास में उन्होंने अपने नाम के साथ 'लाइट' तख़ल्लुस भी जोड़ लिया था, उसी कच्ची उम्र में। खूँटी छोड़ने के बाद कुछ समय तक उनसे मेरा पत्राचार होता रहा और फिर वह इस भरी दुनिया में मेरे लिए अलभ्य ही हो गए। बहरहाल, उन्हें देखते ही मैं जोर-जोर-से उनका नाम लेकर चिल्लाने लगा--'प्रभात, प्रभात', इधर आओ....!' मेरे स्वरों का संधान करते हुए वह पेड़ के नीचे आ पहुँचे। मुझे विस्मय से देखते हुए बोले--'क्या कर रहे हो वहाँ ? नीचे आ जाओ, गिरोगे तो हाथ-पैर टूट जायेंगे।'


मैंने दीनता और क्रोध-मिश्रित स्वर में कहा--'पहले इसे पकड़ो यार, वरना यह मुझे अपने साथ जरूर ले गिरेगा।' दूर से देखकर पहले शायद वह यही समझे थे कि कटहल वृक्ष से ही लटक रहा है, लेकिन पास आने पर जान सके कि मैंने ही उसे अपने दोनों हाथो में थाम रखा है। कटहल के ठीक नीचे आकर उन्होंने अपने दोनों हाथ ऊपर उठाये और बोले--'हाँ, छोड़ दो, मैं कैच कर लूँगा।' उन्हें कटहल के वज़न का अनुमान नहीं था, मुझे था। मैं देख रहा था कि उनके दोनों उठे हाथ और कटहल के बीच ढाई-तीन फ़ीट की दूरी है। वह बज़िद हो गए कि मैं कटहल को छोड़ ही दूँ। उलटा लटका हुआ मैं अब तक पूरी तरह ऐंठ गया था, शरीर का अंग-प्रत्यंग पीड़ा से बेहाल था। सच पूछिये तो कटहल हाथ की पकड़ से बस छूटने ही वाला था। प्रभात के बार-बार के इसरार पर मैंने कटहल को अपनी पकड़ से मुक्त कर ही दिया। प्रभात उसका भार और आघात सँभाल नहीं सके और वह प्रभात के हाथों को चोट पहुँचता ज़मीन पर जा गिरा। गिरा और 'भद्द' की आवाज़ के साथ दो भागों में फटकर बिखर गया। कटहल अंदर-ही-अंदर पक चुका था। उसके फटते ही तीखी-भीनी गंध हवा में बिखर गयी चारों ओर....!

मैं बड़ी कठिनाई से जब पेड़ से उतरकर भूमि पर खड़ा हुआ तो मेरे दोनों पाँव काँप रहे थे। रक्त-संचार को भी सिर से पाँव की ओर उतरने में थोड़ा वक़्त लगा, ठीक वैसे ही जैसे मुझे धीरे-धीरे सरककर सिर की जगह पैरों के बल पृथ्वी पर आने में लगा था। मैं पास की ही एक पुलिया पर प्रभात के साथ बैठ गया। प्रभात अपनी दोनों हथेलियाँ दिखाकर क्षोभ व्यक्त कर रहे थे कि मैंने नाहक उसे थाम लेने की ज़िद की। उनकी दोनों हथेलियों को कटहल की नामाकूल काँटेदार त्वचा खरोंच दे गयी थी। कटे हुए कटहल ने भूमि पर गिरकर फटने के पहले अपना क्रोध प्रभात पर निकाल लिया था। और, मैं तो इसी बात से खुश था कि कटहल से हुई कुश्ती में मैं विजयी होकर वृक्ष से उतरा था।...ये बात और है कि घर पहुँचने पर मुझे पता चला था कि तने की रगड़ से मेरी कमर और मेरे पेट पर भी खरोंच के कई निशान बन गए थे। खैर, उसी पुलिया पर बैठे-बैठे हम दोनों ने उस फटे हुए कटहल के दो-दो कोए खाये और तृप्त-प्रसन्न हुए। मेरे घोर परिश्रम का प्रतिफल थे वे कोए--बहुत मीठे, बड़े सुस्वादु...! अब उसके शेष भाग का क्या करना था ? उसे वहीं धराशायी छोड़कर हम अपने-अपने घर लौटे...स्कूल की कापियों से फाड़े गए पन्नों में चार-चार कोए लपेटकर...!

कटहल से हुई उस ज़ोर-आज़माइश को आज आधी शती बीत गयी है, लेकिन मैं न तो प्रभात को भूल सका हूँ, न उस वज़नी कटहल को।...

[चित्र : १) प्रभात कुमार दास 'लाइट ', १९६६; मेरे बंग-बंधु थे, निकटतम मित्र थे। कलकत्ता से भी उनके परिवार का कोई सरोकार था। मैं नहीं जानता, अब वह कहाँ हैं, कैसे हैं, कैसे दीखते हैं और क्या कर रहे हैं। मेरे फेस-बुक मित्रों में कोई उन्हें जानता हो, तो मुझे अवश्य बताये--'का जाने केहि भेस में नारायन मिल जायँ।' २) कटहल, जो उतना ही बड़ा है, जितने विशालकाय से मेरी मुठभेड़ हुई थी।]

शुक्रवार, 18 नवंबर 2016

परदों के पीछे का सफर..

[भ्रमण-कथा]

सफ़र लंबा था, तकरीबन ३०-३१ घण्टों का। शाम चार बजे पूना से ट्रेन से मैंने प्रस्थान किया था। वातानुकूलित द्वितीय श्रेणी के डब्बे में किनारे की निचली बर्थ थी मेरी। मेरे सिर पर जो बर्थ थी, उसपर पूना से ही आये थे सत्तर वर्षीय एक वृद्ध दक्षिण भारतीय सज्जन। वह तमिलभाषी थे, लेकिन लगभग आधी सदी उन्होंने पूना में व्यतीत की थी और इसीसे टूटी-फूटी हिंदी बोल-समझ लेते थे। रात के भोजन के बाद लगभग ९ बजे वह अपनी बर्थ पर चले गए। तबतक जितनी बातें हो सकती थीं, हम दोनों ने कीं। उन्हें कोयम्बतूर जाना था और मुझे उससे भी आगे--'अलुवा' तक।

भारतीय रेल की वातानुकूलित श्रेणियाँ भी अब सहयात्रियों से असम्बद्ध रहकर यात्रा की श्रेणियाँ बन गयी हैं, उस पर भी यदि वातानुकूलन की द्वितीय श्रेणी हो, तो फिर क्या कहने ! हर क्यूबिक के परदे बंद। किनारे की सीट पर बैठा यात्री देख भी नहीं सकता कि सामने की बर्थ के चार मुसाफ़िर क्या खा-पी रहे हैं, कैसा प्रमोद-परिहास या आनन्द-लाभ कर रहे हैं ! मेरी ऊपरवाली बर्थ के दक्षिण भारतीय बुज़ुर्ग भी जो एक बार अपनी सीट पर गए, तो ऊपर ही रह गए। पर्दा-बंद कोलकी में ऐसे दुबके कि दूसरे दिन शाम के वक़्त कोयम्बतूर पहुँचने के थोड़ा पहले ही प्रकट हुए और मुझसे हाथ मिलकर उन्होंने अपनी यात्रा संपन्न कर ली।

खैर, यह तो पूरी रात और सारा दिन बीत जाने के बाद की बात है। दिन कैसा बीता, यह न पूछिये ! सुबह जब आँख खुली तो हमारी ट्रेन महाराष्ट्र की सीमा-रेखा लांघ गयी थी। जीवन-भर उत्तर भारत में रेल की यात्रा करनेवाला मैं तो बुरा फँसा इस बार। बॉगी में अपरिचित शान्ति थी, सर्वत्र स्वच्छता थी और आगन्तुकों की विशेष हलचल भी नहीं ! कोई ऐसा नया मुसाफिर भी नहीं, जो कहे कि 'जरा सरकिये', 'बैठने तो दीजिये', 'रिजर्भेसन करा लिए हैं तो का ट्रेने खरीद लिए हैं ?' न फर्श पर केले के छिलके, न चिनियाबादाम के; न पानी की खाली बोतलें डगरती हुई, न चाय के जूठे कागज़ी कप बिखरे हुए। यात्रियों के बीच न राजनीति पर लंबी-चौड़ी बयानबाज़ी, न कोई बहस-मुबाहिसा। अजीब साफ़-सुथरी-शांत यात्रा थी और वह निर्विघ्न सम्पन्न हो रही थी।

थोड़ी हलचल तभी होती, जब कोई स्टेशन आता--उतरनेवाले यात्री शान्ति से उतर जाते, नए यात्री थोड़ी मर्मर ध्वनि के साथ प्रवेश करते और ट्रेन के पुनः चल पड़ने के पहले ही यथास्थान स्थिर हो जाते। कभी-कभी पेंट्री के फेरीवाले आवाज़ें लगाते निकल जाते। रेल-यात्रा में इतनी शान्ति का मुझे अभ्यास नहीं था, चाहता था, किसी से बातें हों, कोई प्यारा-सा बच्चा मुझे अपनी ओर आकर्षित करे, किसी भद्र परिवार से थोड़ी निकटता बने! थोड़ा नयन-सुख तो मिले कहीं! लेकिन, खिंचे पर्दों के पीछे दृष्टि पहुँचे तो कैसे? वह तो ग़नीमत हुई, घर से एक वृहद् पुस्तक लेकर चला था--"कठिन प्रस्तर में अगिन सुराख़"। पुस्तक अज्ञेय के व्यक्तित्व-कृतित्व का मूल्यांकन करती हुई आलोचनात्मक कृति थी, जिसके संस्मरण-खण्ड (परिशिष्ट) में मेरा अज्ञेयजी पर एक सुदीर्घ संस्मरणात्मक आलेख भी प्रकाशित हुआ था। मैं सारे दिन इसी पुस्तक में डूबा रहा और शाम होने पर ही उससे विमुख हुआ।

गाड़ी समय से दौड़ रही थी। मेरी समस्या यह थी कि पान की पीक फेंकने के लिए मुझे बार-बार बेसिन पर जाना पड़ता था, लिहाज़ा अपनी बर्थ के दो परदों में से एक पल्ले को मैंने खोल रखा था। वे क्या ही अच्छे दिन थे, जब स्लीपर क्लास में सफ़र करता था। ट्रेन में भीड़-भाड़ तो मिलती, लेकिन पीक फेंकने के लिए बार-बार सीट से उठना नहीं पड़ता था। खिड़की से अपनी चोंच बाहर निकली और दे मारी पीक हवा में। तेज हवा में लहराती पीक सहस्रांशों में बिखरकर पिछली कई बोगियों की चूनर धानी कर जाती। सहयात्री आपस में खूब बातें करते और थोड़ी निकटता होते ही अपने भोज्य-पदार्थों को मिल-बाँटकर खाते। कोई मासूम-प्यारा-सा बच्चा आपको देखकर आँखें चमकाता और आपके हाथ के बिस्कुट को हसरत से देखता। कोई सुघड़-सुन्दर बाला चोर नज़रों से आपको देखती और आँखें चुराती। बॉगी में कहीं विवाद होता, तो कहीं हँसी के सोते फूटते। सभी उसका लुत्फ़ उठाते। सहयात्री एक परिवार के सदस्य बनकर सफर करते। आधुनिकता की इस बदलती बयार ने सुख के वे दिन हमसे छीन लिए हैं।

ट्रेन जब कोयम्बतूर से आगे बढ़ी और त्रिषूर पहुँचनेवाली थी, तो मैं मुँह खाली करने के लिए फिर बेसिन पर गया। बॉगी के दरवाज़े पर देखा कि एक बुज़ुर्ग दम्पति के बीच में साँवली-सलोनी, लंबी-छरहरी, जीन्स पैंट और गंजीधारी एक कन्या मय-सरोसामान खड़ी है। मुझे लगा, माता-पिता-पुत्री का यह परिवार यहीं उतरनेवाला है। मुख-प्रक्षालन के बाद मैंने सहज जिज्ञासा से पूछा--"कौन-सा स्टेशन आनेवाला है ?" प्रश्न तीनों यात्रियों के बीच रखा था मैंने, किन्हीं विशेष को संबोधित करके नहीं, लेकिन उत्तर दिया उस तन्वंगी ने, जो स्थिर दृष्टि से मुझे ही देख रही थी--'त्रिषूर'! यह उत्तर पाकर मैं अपनी जगह पर लौट आया, लेकिन एक सवाल मन में कौंध रहा था कि वह कन्या मुझे क्यों ऐसी प्रगाढ़ दृष्टि से देख रही थी भला? त्रिषूर आया, गाड़ी रुकी, फिर चल पड़ी।

त्रिषूर के बाद सिर्फ़ ५५ किलोमीटर की यात्रा शेष थी। मैं बार-बार घड़ी देख रहा था। अलुवा पहुँचने में जब १०-१५ मिनट शेष थे, मैंने भी अपना बैग-झोला समेटा-उठाया और बढ़ चला दरवाज़े की ओर। द्वार पर पहुँचकर मैंने देखा, वही कन्या वहाँ खड़ी है--अकेली। अपने बाएं हाथ से उसने दरवाज़े का हैंडिल-रॉड थाम रखा था और दाएँ हाथ में अपने मोबाइल को कान से लगाए बेफ़िक्री से बातें कर रही है--फर्राटे से, अंग्रेजी में! उसे वहाँ देखकर मुझे हैरत हुई और मुझे देखकर उसकी आंखों में भी अनजाना अचरज तैर गया। लेकिन वह फ़ोन पर बातें कर रही थी, मैं कुछ कह न सका। और वह थी कि फ़ोन पर बातें तो कर रही थी, लेकिन वैसी ही गहरी नज़रों से मुझे देखे जा रही थी--निर्निमेष !

जल्दी ही उसने अपनी फोन-वार्ता बंद की और मेरी तरफ मुखातिब हुई; लेकिन उसके कुछ कहने के पहले मैंने ही प्रश्न किया--"आप त्रिषूर पर उतरीं नहीं?"
उसने कहा--"नहीं, मुझे अलुवा पर उतरना है।"
मैंने कहा--"और वे लोग जो आपके साथ थे ?"
--"वे उतर गए, मेरी बगल की बर्थ पर थे, मैं उन्हें 'हेल्प' और 'सी-ऑफ़' कर रही थी।"

अब गन्तव्य पर पहुँचने में केवल ८-१० मिनट बचे थे, इन्हीं क्षणों में हमने थोड़ी-सी बातें कीं, जिससे मुझे पता चला कि वह अलुवा की ही रहनेवाली पितृहीना कन्या है, मुम्बई की किसी फ़र्म में काम करती है और घर लौट रही है। घर पर उसकी माँ हैं और बड़े भाई-भाभी। उसने भी पूछकर मुझसे जान लिया कि मैं पुणे से अलुवा अपनी बेटी-दामाद के पास जा रहा हूँ। चलती ट्रेन से ही थोड़ा आगे झुकते हुए उसने मुझे एर्नाकुलम का अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा दिखाया, जो प्रकाश से जगमगा रहा था। अड्डे की ओर इंगित करते हुए वह दरवाज़े के बहुत किनारे जा खड़ी हुई थी और उससे बाहर झुक गयी थी। मैंने सचेत करते हुए थोड़े आदेशात्मक स्वर में कहा--"देखिये, इतना किनारे मत जाइये, एक क़दम पीछे ही रहिये। इतनी सावधानी जरूरी है।"

उसने उन्हीं स्थिर नज़रों से मुझे फिर देखा और एक कदम पीछे आ खड़ी हुई। पांच मिनट ही बीते होंगे कि ट्रेन अलुवा के प्लेटफॉर्म पर रेंगती हुई आ पहुँची। इन पाँच मिनटों में भी वह बार-बार मेरी ओर देखती और नज़रें फेरती रही। गाड़ी रुकी, तो पहले वही उतरी, फिर मैं। मेरे हाथ का बैग लेने को उसने हाथ बढ़ाया, मेरे नकार की अनदेखी करके उसने बैग मेरे हाथ से ले ही लिया। अब विदा का क्षण था, तभी अप्रयाशित घटित हुआ।

अपने कदम आगे बढ़ाते ही वह ठिठकी और अँगरेज़ी में मुझसे बोली--"मे आई टच योर फ़ीट अंकल?" और, इतना कहते ही वह मेरे पाँव की ओर झुकी। मैं 'बस-बस' कहता ही रह गया और उसने बाक़ायदा झुककर मेरे चरण छुए, उठकर खड़ी हुई और बोली--"अंकल, यू आर ऑलमोस्ट लुकिंग लाइक माई फ़ादर ! वह होते, तो वे भी इसी तरह मुझे दरवाज़े से पीछे खड़े होने को कहते।"

मैंने देखा, इतना कहते-कहते उसकी आँखों के आकाश में नमी तैर गयी थी। वह अचानक पलटी और 'बाय' कहती हुई तेज़ी से चल पड़ी। मैं हतप्रभ-हतवाक, जड़ बना उसे देखता ही रह गया। तभी देखा, मेरी ज्येष्ठ कन्या अपने बेटे के साथ मेरी तरफ आ रही है तेज़ कदमों से। एक बेटी मुझे पिता-सदृश बताकर जा रही थी और दूसरी बेटी मेरी ओर चली आ रही थी। दोनों एक-दूसरे के बिलकुल अगल-बगल से गुज़रती हुई भिन्न दिशाओं में बढ़ चली थीं। नियति की इस प्रवंचना ने मुझे उस क्षण विचलित और स्तंभित कर दिया था....!
कालिदास गुप्ता रज़ा साहब के एक शेर की अर्द्धाली याद आयी--
'मंज़िल पे अलग हुए, तो मुसाफ़िर का पता चला।'

मैं सोचता रहा, काश, ट्रेन की बोगी के हर क्यूबिक में परदे खिंचे न होते और वह बिटिया मुझे यात्रारम्भ में ही मिली होती तो पूरा सफ़र इतना एकाकी और नीरस न होता।....शयन के लिए शय्या पर गया तो ये ख़याल मन में उबलता ही रहा कि जाने कौन-कौन, कितने पास-पास, दूर-दूर, सम्मुख या परदे के पीछे सफर कर रहा है ? संभव यह भी है कि हम सभी पर्दों के पीछे ही पूरी कर रहे हों अपनी-अपनी यात्राएँ... !

[चित्र : गूगल सर्च से साभार, लेकिन इस तलाश में ट्रेन की बोगी के द्वार पर खड़ी एक भी दक्षिण भारतीय कन्या नहीं मिली.]

सोमवार, 7 नवंबर 2016

अन्तरात्मा की अदालत में...

पटना महाविद्यालय के वाणिज्य विभाग (तब तक वह अलग से वाणिज्य महाविद्यालय घोषित नहीं हुआ था) में पहुँचा तो वहाँ भी मित्रता हिंदी से ही रही, वाणिज्य के सभी विषय अनजाने और दुरूह थे। मैं उनसे दोस्ती करने का परिश्रम करने लगा। प्री.कॉम. तथा स्नातक वाणिज्य का प्रथम वर्ष (बी.कॉम, पार्ट-I) शांति से व्यतीत हुआ, परीक्षाओं में अंक भी संतोषजनक मिले और मैंने द्वितीय वर्ष में प्रवेश किया। इसी सत्र में तीसरी अदावत की अनपेक्षित कथा लिखी गयी। लगता है, ये अदावतें मेरे भाग्य में लिखी थीं।

महाविद्यालय के प्रारंभिक दो वर्षो में हमारे हिंदी के शिक्षक थे, सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. कुमार विमल। उनकी मुझ पर बड़ी कृपा थी। पूरी कक्षा में मुझे उनसे सर्वाधिक अंक मिलते थे। वह ऐसी साफ़ ज़बान बोलते कि उन्हें सुनकर तबीयत खुश हो जाती। विषय का ऐसा पुंखानुपुंख प्रतिपादन-विश्लेषण करते कि पाठ सहज बनकर स्पष्ट हो जाता। उनके सम्भाषण से ही उनके वैदुष्य का ज्ञान हो जाता था। किन्तु वाणिज्य के अधिकांश विद्यार्थी हिंदी की कक्षाओं को गंभीरता से नहीं लेते थे और उनकी इस विषय में रुचि भी कम थी। इसीसे हिंदी की कक्षाओं में उपस्थिति भी कम होती थी। साल-दर-साल कई-कई पीढ़ियों को पढ़ाते हुए हिदी-शिक्षक भी इस वास्तविकता से परिचित थे। ऐसा उनके वक्तव्यों से परिलक्षित होता था।

बी.कॉम, पार्ट-II में जाने किन कारणों से छात्रों को हिंदी पढ़ाने श्रीजयमंगल प्रसाद पधारे। गौर वर्ण और पुष्ट देह-यष्टि के क़द्दावर गुरुदेव थे--उन्नत ललाट, खड़ी नासिकावाले सुदर्शन और भद्र महानुभाव--कुरता-धोती-बंडी में शोभायमान ! विद्वान् व्यक्ति थे, अपने विषय के मर्मज्ञ! उनकी भाषा-शैली भी बहुत प्राञ्जल और प्रभावित करनेवाली थी ! पाठ का नीर-क्षीर विवेचन करते। उनकी कक्षा में मैं पूरी तन्मयता से बैठता और पूरा लेक्चर आत्मसात कर लेता, आवश्यक नोट भी कक्षा में ही बना लेता।

वह प्रातःकालीन महाविद्यालय था, कक्षाएँ सुबह ६.३० से ही शुरू हो जातीं और ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे के आसपास महाविद्यालय से हमें मुक्ति मिल जाती। यारबाशी के लिए पूरा दिन हमें खुला मिलता। वहाँ अच्छे दिन गुज़र रहे थे। अनेक नए-पुराने मित्रों का साथ-संग होता और हम मटरगश्तियां करते फिरते। कभी महाविद्यालय की कैंटीन में जा बैठते, तो कभी कॉलेज परिसर के खेल के मैदान में बैठकर मूँगफलियाँ फोड़ते हुए क्रिकेट-मैच का आनंद लेते। मेरे विद्यालय के कई सहपाठी भी वाणिज्य के छात्र बने थे। हम सभी पटनासिटी से बिहार राज्य ट्रांसपोर्ट की बसों में साथ-साथ महाविद्यालय आते, लिहाज़ा हमजोलियों का एक पूरा जत्था मेरे साथ होता, जिनमें शम्मी रस्तोगी, जगमोहन शारदा, नीरज रस्तोगी, अरुण गुलाटी, दिलीप अग्रवाल (दिल्लू) आदि प्रमुख थे।
हमारी इसी टोली में शामिल हुए पटनासिटी-निवासी विनोद कपूर, जो हरदिलअजीज़ शख्श थे। वह अपने नाम के अनुरूप बहुत विनोदी स्वभाव के और शीघ्र सबसे घुल-मिल जानेवाले हँसमुख युवक थे। उनमें भी हिंदी-प्रेम के नावांकुर उन्हीं दिनों फूटे थे। वह महाविद्यालय में मेरे आत्मीय बंधु बने। मेरे साथ वह भी एकाग्र भाव से हिन्दी की कक्षाओं में नियमित रूप से बैठते। अब सम्मिलित अध्ययन के अखाड़े बदल गए थे। मैं ज़्यादातर विनोद के घर में होता और उन्हीं के साथ रात्रिकालीन अध्ययन-मनन के सत्र व्यतीत करता।

कई बार हम सभी मित्र-बंधु शम्मी रस्तोगी के घर में एकत्रित होते--सारी रात वहीं पढ़ते, उधम मचाते और रात-भर में रसोईघर में रखा भुना-पका खाद्यान्न चबा जाते--एक रात में फोरनी से भरा मर्तबान पूरा साफ़! दूसरे दिन मेरे मित्र इसके लिए मुझे जिम्मेदार ठहरा देते, कहते--'रात-भर में ओझा पण्डित सब खा गया ।' लेकिन शम्मी और विनोद के माता-पिता बहुत उदार और स्नेही थे। हमारी उद्दंडताओं पर कभी क्रुद्ध नहीं होते। शम्मी हमारी टोली के सर्वप्रिय मित्र तो थे ही, हमारे बीच के 'राजेश खन्ना' भी वही थे। वही सूरत शक्ल, वही अंदाज़, वही अदाएँ ! राजेश खन्ना रजत-पट पर चमकते और शम्मी हमारे बीच! राजेश खन्ना तो बहुत बाद में लोकान्तरित हुए, लेकिन शम्मी अपनी चढ़ती उम्र में ही अचानक हमें बीच राह में छोड़ गए। उनकी कमी हमारी पूरी मित्र-मण्डली में आज भी शिद्दत से महसूस की जाती है। वह अद्भुत मित्र-वत्सल बंधु थे!
नीरज और जगमोहन एकाउंट्स और बुक-कीपिंग के मास्टर थे। कभी-कभी दिन-भर की बैठकी जगमोहन के घर भी लगती। इन सभी मित्रों के सहयोग से मैं वाणिज्य के अन्यान्य विषयों से सामंजस्य बिठाने का प्रयत्न करने लगा।

वह संभवतः १९७२-७३ की बात होगी। एक दिन जयमंगल प्रसादजी कक्षा में पढ़ा रहे थे और हम सभी छात्र शांतिपूर्वक उनका सम्भाषण सुनने में निमग्न थे। कक्षा की समाप्ति के ठीक पहले प्रसंगवश उन्होंने पूछा--'क्या आप में से कोई अकर्मक और सकर्मक क्रिया की परिभाषा बता सकता है ?'
प्रश्न सुनते ही बचपन का कण्ठाग्र एक दोहा मेरे मस्तिष्क में स्फुल्लिंग-सा चमका और मैंने अपना हाथ ऊपर उठा दिया। जयमंगल प्रसादजी ने इशारा करते हुए मुझसे कहा--'हाँ, आप बताइये।' मैं उत्साह से उठ खड़ा हुआ और बोला--
'क्रिया अकर्मक और सकर्मक दो प्रकार की होती,
जैसे राम आम खाता है, और सुधा है सोती।'

दोहा तो दो पंक्तियों का ही था, उसे सुनाकर मैं चुप हुआ ही था कि पूरी कक्षा 'खी-खी' करके हँसने लगी। विनोद कपूर मेरी बाँह पकड़कर मुझे बैठ जाने का इशारा कर रहे थे और मैं हतप्रभ था कि मित्र-बन्धु आख़िर ऐसा उपहास क्यों कर रहे हैं! तभी मेरी दृष्टि अपनी कक्षा की एकमात्र छात्रा पर पड़ी, जो इस हलचल के कारण चौंककर जाग पड़ी थीं और अपनी आँखें मलते हुए सजग हो रही थीं। और, अचानक मुझे ख़याल आया कि उफ़, उनका नाम भी 'सुधा' ही तो है। इस दुर्योग पर मैं अपना सिर पीटते हुए सकुचाकर बैठ गया।

जयमंगल प्रसादजी ने इसे मेरी इरादतन की गयी शरारत समझकर गंभीरता से लिया और मुझे फिर उठ खड़े होने का आदेश दिया। उन्होंने मुझसे मेरा क्रमांक पूछा और एक पर्ची पर लिखकर कहा---"कक्षा के बाद मुझसे 'स्टाफ रूम' में मिलिए।" उन्होंने दो-तीन और छात्रों का क्रमांक पूछकर लिखा था, जो मुखर हास्य का प्रदर्शन करते हुए इस आकस्मिक उत्सव का आनंद-लाभ कर रहे थे। इन सबों के लिए समान आदेश की उदघोषणा करते हुए गुरुवर कक्षा से चले गए।

मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि मेरा किसी को चिकोटी काटने का इरादा हरगिज़ नहीं था और संयोग से पद में 'सुधा' नाम का ही उल्लेख था, तो मैं क्या करता ? बचपन के रटे-रटाये पद में नाम का परिवर्तन मैं हठात कर नहीं सकता था और वह भी महज़ इसलिए कि इसी नाम की एक छात्रा मेरी कक्षा में थीं। सच तो यह है कि जब मैंने पद सुनाया था, तब मुझे सुधाजी की सुधि भी कहाँ थी ?

लेकिन, मेरा नाम तो अपनी पर्ची में जयमंगल प्रसादजी लिख ले गए थे और आदेशानुसार मुझे उनके सामने उपस्थित होना ही था। मैं 'स्टाफ़ रूम' की ओर बढ़ा तो मित्रों ने सलाह दी कि "सर, अभी बहुत क्रोध में होंगे, उनसे कल मिल लेना। अभी चलो न क्रिकेट-मैच देखने, 'लीज़र पीरियड' भी है।" मुझे भी यही उचित जान पड़ा और मैं अपने मित्रों के साथ खेल के मैदान में जा पहुँचा। यही और इतनी ही गफ़लत मुझसे हुई थी, अन्यथा मैं पूरी तरह निर्दोष था।

क्रिकेट देखते हुए हम प्रमोद में मग्न थे कि घण्टे-भर बाद संकट का परवाना लिए विभागाध्यक्ष का गण सिर पर आ पहुँचा। उसने पर्ची देखकर एक क्रमांक संख्या का उल्लेख किया और पूछा--'आपलोगों में यह किनका रॉल नम्बर है ?'
मैंने कहा--'मेरा !' वह बोला--'चलिये, शर्माजी आपको बुला रहे हैं।' यह सुनकर तो मेरे होश फ़ाख़्ता हो गए।' वह तो आसन्न संकट की पुकार थी। मैं गण का अनुगामी बना उसके पीछे चल पड़ा।

विभागाध्यक्ष श्रीपद्मदेव नारायण शर्मा (प्रॉ. पी.एन. शर्मा के नाम से विख्यात) के नाम से तो विश्वविद्यालय के बड़े-से-बड़े दिग्गजों की रूह काँप जाती थी, फिर मेरी क्या हस्ती थी ! उनकी पुकार पर मैदान छोड़कर मैं भाग भी नहीं सकता था। सिर झुकाये, गण का अनुगमन करते हुए, मैं विभागाध्यक्ष महोदय के कक्ष के समीप पहुँचा तो बंद द्वार के बाहर भी उनके क्रुद्ध गर्जन का तीव्र स्वर पिघले शीशे की तरह मेरे श्रवण-रंध्रों में उतर गया। और तभी मेरा एक सहपाठी लाल चेहरा और नम आँखें लिए द्वार खोलकर बाहर आया तथा भयभीत हिरण-सा भाग चला। अगला नंबर मेरा ही था। प्राण हथेलियों पर लेकर मैं उनके कक्ष में जैसे ही प्रविष्ट हुआ, गुरुदेव ने कर्कश स्वर में कहा--'अच्छा, तो वह तुम हो !' दरअसल वह पिताजी के पूर्व-परिचित थे और उनका बड़ा सम्मान करते थे। मुझे सम्मुख आया देख उन्हें आश्चर्य हुआ था।

मैंने अपनी सफाई में कुछ कहना चाहा तो वह एकदम उग्र हो उठे और पलटकर आलमारी के ऊपर से उन्होंने एक मोटा रूल उठा लिया और सिंह-गर्जना की--'तुम भी नालायक़ निकलोगे, मैंने सोचा नहीं था।' सोचता हूँ, मेरे नाम के साथ पूज्य पिताजी का नाम न जुड़ा होता, तो उस दिन न जाने मेरी कैसी दुर्गति हुई होती।

मैंने अपनी प्राण-रक्षा में तत्काल निवेदन किया--'माफ़ करें सर, गलती हो गयी। अब कभी ऐसा नहीं होगा।' उन्होंने चीखकर ही मुझे बाहर निकल जाने का आदेश दिया। वह अत्यधिक क्रोध में थे। एक बार फिर, मैं उस अपराध की क्षमा मांग आया था, जो मैंने किया नहीं था। बस, ज़रा-सी बात थी, जो समंदर को खल गयी थी।...
लेकिन, मन पर इसका बोझ लंबे समय तक नहीं रहा; क्योंकि कुछ दिन बाद ही शर्माजी ने मुझे फिर अपने कक्ष में बुलाया। मैं हाज़िर हुआ तो देखा, हिन्दी-शिक्षक जयमंगल प्रसादजी वहीं विराज रहे हैं। उसी दिन बातें साफ़ हो गयीं और मेरा क्षोभ तथा मनोमालिन्य धुल गया। लेकिन, मैं कक्ष से बहार निकलूं, उसके पहले शर्माजी ने हिंदी-शिक्षक महोदय की ओर इशारा करते हुए मुझसे कहा था--'अगर तुम उसी दिन इनसे मिल लेते तो बात मुझ तक नहीं पहुँचती ! आगे से ध्यान रखना, किसी शिक्षक के आदेश की अवमानना न हो।'
मैंने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा था--'भविष्य में किसी आदेश की अवज्ञा मुझसे नहीं होगी सर!'... और, मेरी कागज़ की नाव भँवर से बचकर निकल गयी थी।...

बात आयी-गयी हो गयी। महाविद्यालय से बाहर निकला तो स्नातक वाणिज्य (ससम्मान) की उपाधि तो मिली ही, साथ ही मिले थे हिन्दी में विशेष योग्यता के अंक (डिस्टिंग्शन मार्क्स)।

अपने विद्यार्थी-जीवन की ये तीन घटनाएँ मैं कभी भूल नहीं सका। मेरा अपराध रहा हो या न रहा हो, मेरे आचरण में उशृंखलता तो थी ही। खूँटी (रांची) के हिन्दी-शिक्षक श्रीसियाराम सिंह ने मुझे कभी क्षमा किया भी या नहीं, यह मैं जान न सका; क्योंकि उनसे जीवन में फिर कभी मिलना ही नहीं हुआ। अन्य दोनों हिंदी-शिक्षकों ने मुझे माफ़ी भी दी और उनकी यथेष्ट प्रीति भी मैं अर्जित कर सका। फिर भी, उम्र की इस दहलीज़ पर पहुँचकर यह परम ज्ञान मुझे अवश्य प्राप्त हुआ कि अंतरात्मा की अदालत में कभी माफ़ी नहीं मिलती।...
(समाप्त)




[चित्र : १) विनोद कपूर और मैं, २) मैं, अभी, ३) बाएं से--स्व. शम्मी रस्तोगी, मैं, दिलीप और प्रह्लाद  ४) जगमोहन शारदा राजगृह की पहाड़ी पर मैं; १९७२-७३ की छवियाँ.]

बुधवार, 2 नवंबर 2016

वह निर्भीक स्वीकारोक्ति...

खूँटी (रांची) से पटना बैरंग लौट आने के दो-तीन महीने बाद बहुत सारी हिदायतों और उपदेशों के साथ मेरा नामांकन श्रीमारवाड़ी उच्चतर-माध्यमिक विद्यालय, पटनासिटी की नवमी कक्षा में, बीच सत्र में करवाया गया। पिताजी के उपदेशों का इतना असर जरूर हुआ कि मैंने मन में निश्चय कर लिया कि यहाँ अपनी छवि सुधार कर रहूँगा। लेकिन, अपने पूर्व कृत्य पर शर्म थी कि मुझे आती न थी। हाँ, एक क्षोभ जरूर था कि मैं जिन पर प्रहार कर बैठा, वही स्कूल में छोड़ा हुआ मेरा बैग लौटाने मेरे घर आ रहे थे। एक प्रिय और आदरणीय हिन्दी-शिक्षक पर आघात करने की लांछना से मैं संतप्त रहा, जबकि वह प्रहार कदाचित उनपर नहीं था । सच तो यह है कि तत्कालीन मानसिकता में मैं सुनिश्चित भी नहीं कर सका कि मेरा अविवेकी क्रोध आखिर किस पर बरसने को आतुर हुआ था--गुरुदेव पर या सहपाठी राजेश पर अथवा दोनों पर!...
मारवाड़ी विद्यालय का माहौल अच्छा था। वहाँ के सांस्कृतिक समारोहों में भाग लेकर और हिन्दी की कक्षाओं में उत्साहपूर्वक पिताजी के समसामयिक चिंतनों का वाचन कर मैंने शीघ्र ही अपनी ख़ास जगह वहाँ बना ली थी। नवमी कक्षा मैंने ठीक-ठाक अंकों से उत्तीर्ण की और हिंदी में सर्वाधिक अंक अर्जित किये। पांच-एक महीनों में मेरे कई मित्र वहीं बने, लेकिन दो हिन्दीप्रेमी मित्र भी मिले--एक कुमार दिनेश, दूसरे शरदेंदु कुमार। उनसे मेरी मित्रता परवान चढ़ती रही। दसवीं कक्षा में पहुंचकर मैं अपने इन्हीं मित्रों के साथ विद्यालय पत्रिका का संपादक भी बना। हमने मिल-जुलकर विद्यालय के सभी समारोहों में नए रंग भरे और प्राचार्यजी तथा शिक्षक-वृन्द की प्रीति तथा उनका प्रोत्साहन-आशीष प्राप्त किया। कुमार दिनेश मुझसे अच्छे विद्यार्थी थे, किन्तु शरदेंदु सभी विषयों में निष्णात थे--गणित, रसायन, पदार्थ विज्ञान में भी अव्वल ! वही सर्वाधिक अंक अर्जित करते। दिनेशजी उनके प्रतिस्पर्धी थे और हर विषय में उनकी शरदेंदु से काँटे की टक्कर होती, लेकिन मैं इस स्पर्धा से बाहर था। एकमात्र विषय हिंदी के अलावा किसी अन्य विषय में मेरी गति नहीं थी। मैंने दोनों मित्रों की अधीनता स्वीकार कर ली थी। हम तीनों साथ मिलकर अध्ययन करते--कभी शरदेंदु के घर, कभी दिनेशजी घर !...




मारवाड़ी विद्यालय में हिन्दी के कई शिक्षक थे, उनमें एक अपेक्षया कम उम्र के थे और हम किशोरावस्था की दहलीज़ पार करते छात्रों से मित्रवत स्नेह और व्यवहार करते थे। उनके स्नेहसिक्त व्यवहार के कारण ही हम सभी बातचीत में उनसे थोड़ी स्वतंत्रता ले लेने का साहस जुटाते थे। हिंदी-व्याकरण वह अच्छा पढ़ाते थे, लेकिन बोलने में उनसे यदाकदा स्खलन हो जाता था--कभी वाक्य-रचनाएँ गलत हो जातीं, तो कभी शब्दों का उच्चारण अशुद्ध हो जाता। ऐसा अशुद्ध उच्चारण, जो हमारे कानों पर हथौड़े-सा पड़ता। दरअसल, इसमें उनका दोष भी नहीं था, बिहार की आँचलिक भाषाओं का उनकी जिह्वा पर गहरा प्रभाव था और वह इसपर कभी ध्यान नहीं दे सके थे। और, हम उनके स्नेह के वशीभूत उनसे कभी कुछ कह न पाते थे।
हम तीनों मित्र कक्षा की अग्रिम पंक्ति में बैठते। हमने आपसी विमर्श से स्वपरीक्षण का एक निरापद मार्ग ढूँढ़ निकाला था। तय किया गया कि जब जिस शब्द का अशुद्ध उच्चारण या अशुद्ध वाक्य-प्रयोग शिक्षक महोदय करेंगे तो हम तीनों आँखों-आँखों में एक-दूसरे को देखकर इशारा करेंगे और अपनी-अपनी कॉपी के पृष्ठ भाग में उस शब्द या वाक्य को लिख लेंगे। हम उनकी कक्षा में बगुले की तरह ध्यानस्थ होकर बैठते और सुन्दर मछलियों की तरह अशुद्धियाँ पकड़ते। कक्षा की समाप्ति पर हम कॉपियों का मिलान करते। हमारा यह प्रयोग बहुत सफल हुआ। इस प्रयोग का हमें दुहरा लाभ हुआ, एक तो पाठ कक्षा में ही ग्राह्य हो जाता और अशुद्धियों की पकड़ की योग्यता की परीक्षा भी हो जाती।
एक दिन की बात है, हम उन्हीं शिक्षक की कक्षा में थे। वह पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' की कहानी पढ़ा रहे थे--'वंशीवाला' ! पाठ-क्रम में उनके मुख से एक वाक्य निकला--'...और उसने वंशी फ़ेंक दिया !' तत्काल हमारी नज़रें आपस में टकरायीं और वह पंक्ति कॉपी में दर्ज़ हो गई। ऐसी गफ़लत उनसे अक्सर होती थी, लेकिन 'उसने वंशी फ़ेंक दिया' तो मुझे किसी तरह हज़म नहीं हो रही थी। दस-बारह दिनों के बाद मुझसे वह अपराध हो ही गया, जिससे मुझे बचना चाहिए था। एक दिन वह एकान्त में मुझे मिल गए। मैंने बहुत विनीत भाव से एक वाक्य उनसे कह ही दिया--'सर, आप अपनी ही धुन में कभी-कभी ग़लत बोल जाते हैं!' उन्होंने घूरकर मुझे देखा और पूछा--'क्या ? मैं क्या ग़लत बोल गया?'
दरअसल, वह मेरी बात समझ नहीं सके। मैंने अपने कथन का आशय स्पष्ट करते हुए कहा--'सर, कभी किसी शब्द का उच्चारण और कभी वाक्य-प्रयोग...।' यह सुनकर उनका मुख म्लान हो गया, चेहरे पर क्रोध की हल्की-सी छाया भी दिखी। लेकिन उन्होंने अद्भुत संयम का परिचय दिया और बस इतना कहकर कमरे से बाहर निकल गए--'मैं ऐसा कैसे बोल सकता हूँ? तुम्हें भ्रम हुआ है।' उनके जाने के बाद मैं अपना सिर धुनता रहा और सोचता रहा कि नाहक मैंने उन्हें कष्ट पहुँचाया। जानता था, उन्हें मेरी टीका-टिप्पणी बहुत बुरी लगी थी। इस घटना के बाद की कक्षाओं में वह बहुत सावधान रहते। पाठ पढ़ाते हुए मेरी ओर संकोच से देखते और मैं उन्हें ख़ुश करने की हर संभव चेष्टा में लगा रहता।...
जब मैट्रिक की परीक्षा में दो-तीन महीने शेष थे, मेरी माँ ने अचानक ही जगत से प्रस्थान किया। माँ ने अन्तिम मुलाक़ात में मुझसे जो कुछ कहा था, उसका आशय यही था कि मैं अच्छा विद्यार्थी और अच्छा इंसान बनूँ। खूँटी (राँची) से लौटने के बाद मैं भी इसी प्रयत्न में लगा हुआ था, लेकिन माँ को इतने से संतोष नहीं था कि अब कहीं से (मोहल्ले या विद्यालय) मेरी शिकायत नहीं आती थी। वह चाहती थीं कि सिर्फ़ 'पासिंग मार्क्स' नहीं, मैं अव्वल अंक अर्जित करूँ। लेकिन उनके जीवनकाल में मैं ऐसा कुछ कर न सका। हाँ, विद्यालय के अंतिम दिनों में जो एक अनचाहा अपराध मुझसे हुआ था, चाहता था, उसका मार्जन जरूर करूँ। लेकिन इसका अवसर भी मुझे नहीं मिला। एक दिन उन्हीं हिन्दी-शिक्षक ने मुझे अलग बुलाकर कहा था--'ओझा, तुमने बहुत ग़लत नहीं कहा था, मैंने ग़ौर किया तो पाया कि बोलने में मुझसे कहीं-कहीं गलतियाँ हो जाती हैं।'
यह उनकी उदारता थी, कृपा थी। उन्होंने मुझे क्षमा ही नहीं किया था, अपनी आत्म-स्वीकृति से मुझे चकित-विस्मित और विह्वल भी कर दिया था। उनकी निर्भीक स्वीकारोक्ति की फाँस मेरे कलेजे में कहीं गड़ी रह गयी, जो विद्या के साथ विनय की अनुशंसा करती थी। यह सबक मैंने उन्हीं से सीखा था। कॉलेज में पहुंचते ही उनसे प्रतिदिन का मिलना तो बाधित हुआ, लेकिन जब कभी वह राह-चलते मिल जाते, मैं उनके चरण छूकर आशीष लेता, जैसे अपने अपराध की क्षमा माँग रहा होऊँ; अन्यथा खूब जानता हूँ, मुझ अपदार्थ की विद्या-बुद्धि उन दिनों क्या थी, कितनी थी।....
मैट्रिक की परीक्षा देकर हम सभी एक ही विश्वविद्यालय के अलग-अलग महाविद्यालय-प्रांगण में पहुँचे। दिनेशजी ने अर्थशास्त्र के समुद्र में तैरने का मन बना लिया था, शरद विज्ञान की उच्च शिक्षा लेने चल पड़े थे और मैं वाणिज्य का विद्यार्थी बन गया था। विभिन्न महाविद्यालयों और अन्यान्य संकायों में पहुंचकर भी हमारी अभिन्नता यथावत बनी रही। आई.एस.सी. के बाद ही शरद ने अचानक विषय की पटरी बदल ली थी। उन्होंने हिन्दी से स्नातक और स्नातकोत्तर की उपाधियाँ अर्जित कीं। कालांतर में दिनेशजी स्तरीय और वरीय पत्रकार बने और शरद भाई पटना विश्वविद्यालय से स्वर्णपदक प्राप्त कर वहीं हिंदी के प्राध्यापक नियुक्त हुए। एक अकेला हिंदी-प्रेमी मैं ही वाणिज्य का विद्यार्थी और स्नातक बनकर अंकों से आँखें फोड़ता रहा। लेकिन वह भी मुझे कहाँ रास आनेवाला था ?...
ये बात और है कि 1987 में जब श्रीमारवाड़ी विद्यालय की स्वर्णजयंती पर आयोजित समारोह में मुझे, और कुमार दिनेश को 'छात्र-रत्न' की उपाधि, रजत पदक और प्रमाण-पत्र से नवाज़ा गया था, तब तक मैं अपनी नौकरियों से मुक्त होकर पटना लौट आया था और पटनासिटी से छह किलोमीटर दूर कंकड़बागवाले घर में जा बसा था। समारोह की सूचना मुझे विलम्ब से मिली थी। मैं उस अवसर पर विद्यालय में उपस्थित न हो सका था। लेकिन कुछ समय बाद जब वह रजत पदक मेरे हाथ आया, तो मन में पहला ख़याल यही उपजा कि काश, आज माँ होतीं तो इस पदक को देखकर उन्हें शायद यक़ीन होता कि मैं इतना भी नाकारा होकर विद्यालय से बाहर नहीं आया था, जितना उनके जीवनकाल में घोषित हुआ था।...
(अगली क़िस्त में तीसरी अदावत के साथ समापन.)
(चित्र : मैं और मेरा त्रय, कुमार दिनेश और मैं, कु० दि० और शरदेंदु, मैं और शरद। महाविद्यालय में पदार्पण के बाद की छवियाँ, शरदेंदु के पुराने घर का प्रांगण, 1972]

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2016

जब देश-निकाला दिया वन-देश से...

।।दुर्बुद्ध की अपराध-कथा।।

मैं मानता हूँ, मैं अच्छा विद्यार्थी कभी नहीं रहा। एकमात्र विषय हिन्दी को छोड़कर किसी भी विषय से मेरी पटरी बैठती ही नहीं थी। रसायन के रस-सूत्र मुझे नीरस लगते थे, पदार्थ के अर्थ दुरूह और गणित तो मेरे माथे की टिक (शिखा) ही थाम लेता था। बस, हिन्दी में ही पूरी कक्षा में मुझे सर्वाधिक अंक प्राप्त होते थे। आठवीं कक्षा तक पहुँचते-पहुँचते मैंने इब्ने सफी बी.ए. की पूरी जासूसी शृंखला पढ़ डाली थी, फिर उम्र रूमानी डगर पर ले चली और मैं प्रेम वाजपेयी और कुशवाहा कान्त का पूरा साहित्य चाट गया। सातवीं कक्षा में पहली छंदोबद्ध कविता लिखी थी मैंने ! उस कविता की पंक्तियाँ तो स्मृति से उतर गयी हैं, लेकिन पिताजी की कलम के किंचित हस्तक्षेप के बाद वह इतनी बुरी भी नहीं रह गयी थी और बाद में विद्यालय-पत्रिका में छपी थी। उसके बाद रुचियाँ रंग बदलती रहीं। घर में ही साहित्यिक पुस्तकों की क्या कमी थी! मैं उन्हें बाँचने लगा।...

पिताजी की विराट छाया में रहते हुए हम सभी भाई-बहनों में हिन्दी-प्रेम और उसकी शुद्धता के प्रति आग्रही होने का भाव जाने कब-कैसे समा गया, हमें खुद ही ज्ञात न हुआ। संभवतः इसकी शुरूआत बहुत छुटपन में हुई थी, जब पिताजी अपनी कार से राह चलते हुए हमें इस आज़माइश में डालते कि तुम तीनों में जो कोई साइनबोर्ड की सर्वाधिक अशुद्धियाँ पकड़ेगा, उसे टॉफ़ी (लेमनचूस) दी जायेगी। कई बार तो अति-उत्साह और अपने अल्प-ज्ञान में हम शुद्धियों को भी अशुद्धि बता देते और गलत बतानेवाले की एक टॉफी कम हो जाती। इस स्पर्धा में भी ज़्यादातर मैं ही अधिक अंक अर्जित करता, लेकिन कई बार बड़ी दीदी जीत जातीं और मुझे कोफ़्त होती। अनुज यशोवर्धन तब छोटे थे, जबतक टटोलकर किसी बोर्ड पर लिखा हुआ पढ़ पाते, तबतक कार आगे बढ़ जाती और वह दुखी होकर अपना मुँह फुला लेते। उनकी इस शिकायत का असर यह हुआ कि अधिक अंक चाहे जिसे मिलें, टॉफ़ी सबको बराबर-बराबर मिलने लगी; लेकिन इससे हमारी स्पर्धा की भावना और उत्साह में कोई कमी नहीं आयी।

थोड़ी बड़ी कक्षाओं में पहुँचते ही हम अपनी पाठ्य-पुस्तकों में अशुद्धियाँ ढूँढ़ने लगे और हिन्दी-शिक्षक के अशुद्ध वाचन-लेखन पर चुपचाप नज़र रखने लगे थे। कहने का तात्पर्य यह कि विद्यालय की ग्यारह सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते मैं अपनी चंचलता और उद्दण्डता के कारण बारह विद्यालयों का भ्रमण कर चुका था, किन्तु सर्वत्र मेरे प्रिय शिक्षक हिन्दी के ही रहे और मैं उनका प्रिय छात्र बना रहा। उन्हीं से मुझे प्रीति मिली, प्रोत्साहन मिला, अन्यथा विज्ञान और गणित के शिक्षकों से तो बस भर्त्सना ही मिलती और मिलता रहा कठोर दण्ड ! लेकिन, मज़े की बात है, हिंदी के जिन अध्यापकों के प्रति मेरी सर्वाधिक प्रीति थी, जो मेरे आदरणीय गुरु थे, उन्हीं में तीन से मेरी अदावत भी हुई और मुझे स्कूल का मैदान छोड़कर भागना पड़ा। कहना होगा, उन्हीं से मोहब्बत थी, उन्हीं से लड़ाई हुई।
अब लगता है, मेरी मनोरचना में ही कुछ गड़बड़ी थी, मस्तिष्क में कहीं 'हेयर क्रैक' भी था शायद। बाल्यकाल में जब, जहाँ मैं गलती पर होता, अपना अपराध तुरंत स्वीकार कर लेता, परिमार्जन में जो दण्ड मिलता, नतशिर होकर उसे सह लेता; लेकिन लांछना मुझे सह्य नहीं थी। मेरी नीयत पर कोई संदेह करता तो मैं दृढ़ता से उसका प्रतिकार करता। ऐसी ही तीन अदावतों का ज़िक्र करना चाहता हूँ, जिन्हें मैं कभी भूल नहीं सका ।

तब मैं अपनी माँ के पास था, जो राँची के पास खूँटी में पदस्थापित थीं, छोटे भाई-बहन भी साथ थे। दीदी पटना के छात्रावास में। सन १९६६ में मैं आठवीं कक्षा में शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय का छात्र था। वहाँ भी मेरी वही छवि थी--अगंभीर विद्यार्थी की! खूँटी विद्यालय के हिंदी-शिक्षक श्रीसियाराम सिंह मेरे प्रिय और श्रद्धेय शिक्षक थे--लंबी कद-काठी के, गोरे-चिट्टे, सुदर्शन व्यक्ति! ३५-३८ वर्षीय युवा ही थे, लेकिन बड़े अनुशासनप्रिय। वह मेरी कक्षा के अन्य सहपाठियों को मेरा उदाहरण देते थे, जो 'मुंडारी' भाषा के प्रभाव में अशुद्ध हिन्दी बोलते-लिखते थे। एक दिन उन्हीं की कक्षा में था। वह सुबह का दूसरा पीरियड ही था। उसके बादवाली कक्षा गणित की थी, जिसका होम-वर्क मैंने नहीं किया था। गणित के शिक्षक कठोराचार्य थे, मुझे भय था कि उनके पीरियड में मेरी खूब खबर ली जायेगी। मेरी बगल में बैठनेवाला सहपाठी तो पूरा गणितज्ञ था। मैंने विद्यालय पहुँचते ही उससे गणित के गृहकार्य की कॉपी मांगी थी, मगर वह देता नहीं था। मैं बार-बार उससे आग्रह करता, वह उत्तर न देता। दरअसल, उसकी नाराज़गी बाज़िव थी। दो दिन पहले ही उससे किसी बात पर मेरी हल्की नोक-झोंक हुई थी। लेकिन अब तो नाक-तक पानी आ पहुंच था, गणित की कक्षा के पहले ही मैं चाहता था कि उसकी कॉपी से गणित का गृह-कार्य हिन्दी की इसी कक्षा में चुपचाप उतार लूँ। हिंदी की कक्षा में बहुत ध्यान देकर पढ़ना वैसे भी मुझे आवश्यक नहीं लगता था, क्योंकि मैं मूढ़ इस विषय में स्वयं को निष्णात मान बैठा था। लेकिन, वह भला आदमी तो अपने कंधे पर हाथ ही नहीं रखने दे रहा था। मैंने दूसरी-तीसरी बार पूछा, लेकिन वह कुनमुनाता रहा--नकार भी नहीं और कॉपी देना स्वीकार भी नहीं। हिंदी शिक्षक जब श्याम-पट्ट की ओर मुंह करके खड़िया से कुछ लिखते, मैं सहपाठी से धीमे स्वर में मनुहार करता। मेरी ऐसी ही एक चेष्टा पर सहपाठी उचक गया और उसके मुंह से हलकी-सी आवाज़ निकल गयी--'उँह !' सियाराम सिंह सर ने पलटकर मुझे देखा और कड़ककर पूछा--'क्या कर रहे हो तुम ?'
मैंने कहा--'कुछ नहीं सर, मैं तो... !'
हिन्दी-शिक्षक की आवाज़ में तुर्शी बढ़ गयी, उन्होंने सहपाठी मित्र से पूछा--'क्या हुआ? ओझा क्या कह रहा है तुमसे ?'
अपनी प्राण-रक्षा में सहपाठी ने असत्य-वाचन किया--'सर, ये मुझे परेशान कर रहा है और अभी तो इसने मुझे पेन्सिल चुभायी है !'
बस, क्या था, सियाराम सर ने मुझे अपने पास बुलाया और पूरी कक्षा को पीठ देकर तथा श्यामपट्टवाली दीवार से नाक सटाकर खड़ा रहने का अपमानजनक आदेश सुना दिया। विवशता में मुझे उनके आदेश का पालन करना तो पड़ा, लेकिन इससे मेरे आत्म-सम्मान को बड़ी चोट लगी। मेरे मन में अंगारे धधकने लगे। मित्र के प्रति मैं क्रोध से भर उठा। मुझे भरी कक्षा में उस अपराध की सज़ा मिली थी, जो मैंने किया ही नहीं था।
सियारामसिंह सर फिर पढ़ाने की ओर प्रवृत्त हुए और मैं उबलता रहा। इसी दशा में तीन-चार मिनट बीते होंगे कि मैंने याचना की--'सर, मैंने कुछ नहीं किया है, मुझे मेरी सीट पर जाने दें।'
सियाराम सिंह मेरी इस याचना पर और क्रोधित हुए, बोले--'चुपचाप वहीं खड़े रहो।' मैं लाचार था, क्या करता ? वहीं खड़ा रहा, लेकिन यह दण्ड मुझे असह्य हो रहा था। पाँच मिनट बाद मैं मौन न रह सका, फिर बोल पड़ा--'सर, यह अनुचित है, आपने राजेश (कल्पित नाम) की बात पर विश्वास करके मुझे दण्ड दिया है, जो साफ़ झूठ बोल रहा है।'
सियाराम सिंह सर इस बात पर उबल पड़े, उच्च स्वर में बोले--'उचित-अनुचित अब तुम बताओगे मुझे ? इधर आओ !'
इस आदेश पर मैं उनके सम्मुख जा खड़ा हुआ। उन्होंने डेस्क पर रखी ख़जूर की छड़ी उठायी और मुझसे अपना हाथ बढ़ाने को कहा। मैंने अपना दायाँ हाथ आगे कर दिया और उन्होंने छड़ी का एक भरपूर प्रहार मेरी हथेली पर किया। मैं तिलमिला उठा। उन्होंने दूसरा हाथ बढ़ने को कहा। मैंने बायाँ हाथ जैसे ही बढ़ाया, वैसे ही उन्होंने दूसरा आघात भी किया। मेरा सर्वांग काँप उठा। क्रोध से उबलता हुआ मैं बोल पड़ा--'बस, बहुत हुआ सर, अब और नहीं ! अब और नहीं सहूँगा !'
यह कहते हुए मैं तीन कदम पीछे हट गया था, लेकिन सियाराम सिंह सर तो उस दिन ऋषि दुर्वासा हो गए थे। हाथ में दुःखहरिणी खजूर की छड़ी लिए वह मेरी ओर लपके और मैं अपना बैग-बस्ता वहीं छोड़ भाग चला। उन्होंने छड़ी फेंककर मुझ पर प्रहार किया, लेकिन छड़ी मुझसे दूर जा गिरी और मैं हुआ नौ-दो-ग्यारह...!

बेतहाशा भागते हुए विशालकाय विद्यालय-प्रांगण मैं पलक झपकते लाँघ गया, लेकिन मैं रुका नहीं, दौड़ाता ही रहा। बिरसा चौक से हुए मैं घर जानेवाली सड़क पर मुड़ा, लेकिन घर जाना तो और भी संकट में डालनेवाला था। माँ के अनेक प्रश्नों और प्रचण्ड क्रोध का सामना करने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। घर से दो-तीन फर्लांग पहले ही एक सँकरी गली लोबिन्दो वृद्धा के बागीचे में ले जाती थी, जिन्हें हम सभी 'लोबिन्दो बुढ़िया का बगीचा' कहते थे। उस बागीचे में आम-अमरुद-शरीफ़ा-कटहल आदि के वृक्ष थे और सपाट खेत में मिटटी की हल्की परत के नीचे से निकलते थे चिनियाबादाम (मूँगफली) के दूधिया दाने ! मैं दौड़ते हुए उसी बागीचे में जा ठहरा।

राजेश के प्रति प्रतिशोध की भावना से मन और मस्तिष्क खौल रहा था। राजेश के घर लौटने की राह भी वही थी--मैं जानता था, स्कूल की छुट्टी होते ही वह भी इसी मुख्य-मार्ग से गुज़रेगा। मैंने निश्चय किया, आज उसे छोड़ूँगा नहीं--झूठ बोलने का मज़ा चखा दूँगा। मैंने पूरा दिन उसी बागीचे में व्यतीत किया और राजेशजी की आवभगत के लिए आधी ईंट का एक वज़नी टुकड़ा उस पतली गली के मुहाने पर रख आया, जो मुख्य सड़क से जा मिलती थी।
दिन-भर मैं अमरूद-चिनियाबादाम खाता रहा, वृक्षों पर इठलाता रहा और राजेश की बेसब्र प्रतीक्षा करता रहा। शाम चार बजे स्कूल की छुट्टी हुई, घर लौटते हुए बच्चे दूर से ही दीखने लगे। मैं सँकरी गली के मुहाने पर छिपकर खड़ा रहा और स्कूली बच्चों की भीड़ में राजेश को चिह्नित कर लेने के लिए आँखें फाड़े देखता रहा--हर टोली को, हर जत्थे को...! प्रायः आधा घण्टा बीत गया, सारे बच्चे चले गए, लेकिन राजेशजी तो अलभ्य हो गए। मुझे लगा, वह किसी दूसरी लंबी राह से घर लौट गया आज!

क्रोध था कि उबल रहा था और मैं उसे ज़ब्त नहीं कर पा रहा था। क्रोध-वमन के लिए सुपात्र को न पाकर निराशा मन में उपजने लगी थी। मैं लौटने की बात सोच ही रहा था कि दूर से आती एक साइकिल दिखी, जिसपर दो व्यक्ति नज़र आये। जब साइकिल थोड़ा करीब आयी तो ज्ञात हुआ कि उसे हिंदी-शिक्षक सियाराम सिंहजी चला रहे हैं और विद्यालयीय-गणवेश में पीछे दुबककर बैठे हैं श्रीमान राजेश ! संभवतः मेरे दुर्धर्ष चरित्र से वह आक्रान्त थे, इसीलिए आज उन्हें हिन्दी-शिक्षक के साथ ही घर लौटना उचित और निरापद जान पड़ा था। दोनों महाप्रभुओं को साथ देखकर मैं दुविधा में पड़ा--अब क्या करूँ? मन की यह आग बुझे कैसे? उबलते क्रोध का यह विष निकले कैसे ? लेकिन जैसे ही वह साइकिल गली के सामने आ पहुँची, मैं क्रोध में उन्मत्त हो उठा। ईंट के अद्धे पर मेरी पकड़ मज़बूत हुई और मेरे अविवेकी क्रोध ने राजेश को लक्ष्य कर उसका भरपूर प्रहार मुझसे करवा ही दिया। गनीमत हुई, आधी ईंट पूरी गति से, वायु-मार्ग से, भ्रमण करती हुई सीधी हिन्दी-शिक्षक की साइकिल के अगले चक्के पर जा गिरी, उन पर नहीं। उस चक्के के कई 'स्पोक' टूट गए और 'रिम' टेढ़ा हो गया। उनकी साइकिल झटके-से उलझकर गिर पड़ी और उसके साथ ही दोनों महानुभाव बीच सड़क पर गिर पड़े धड़ाम ! मेरे भाग निकलने का एक ही मार्ग शेष था--वही पतला-सँकरा गलियारा ! मैं सरपट भागा और लोबिन्दो वृद्धा के बागीचे में जा छिपा !

स्कूल की छुट्टी के नियत समय से एक घण्टा जान-बूझकर विलम्ब कर मैं घर पहुँचा और माताजी के प्रचण्ड क्रोध का शिकार हुआ। सियारामराम सिंह सारी ख़बर उन्हें दे गए थे, अपने सिर की और राजेश की केहुनी की चोट दिखा गए थे तथा विद्यालय में छोड़ा हुआ मेरा स्कूल-बैग माँ के हवाले कर गए थे।

मेरी कठिनाइयों के दिन बमुश्किल बीते और अन्ततः सारा मुआमला पिताजी की अदालत में जा पहुँचा। ढेर सारी लानत-मलामत, तीखी आलोचना-भर्त्सना और मार-कुटम्मस के बाद मुझे वापस पटना भेज दिया गया।... माना गया, मैं वहाँ निरंकुश रहने के योग्य न रहा।...
(अगली किस्त में दूसरी अदावत की कथा...)

[चित्र : पटना में उपनयन-संस्कार के बाद खूँटी (रांची) लौटने के एक-डेढ़ महीने बाद का चित्र, माँ के साथ मैं और छोटी बहन के साथ मेरे अनुज यशोवर्धन, १९६६; माताजी के ऑफिस की सीढ़ियों पर]

शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

वह गहरी नीली फोम की जर्सी...

मेरे ख़यालों के बियाबान में गहरे नीले रंग की फ़ोम की एक जर्सी अपनी बाहें फैलाये उड़ती रहती है लगातार। वह कभी बारिश में भीगती है, कभी ठण्ड में ठिठुरती है और कभी गर्म हवाओं में झुलसती किसी काँटेदार वृक्ष में उलझी फहराती रहती है--हाहाकार मचाती हुई, मुझे पुकारती हुई और मैं अनासक्त भाव से मुँह फेरे रहता हूँ। अब तो उससे विरक्त हुए प्रायः आधी सदी बीतने को है, वह फिर भी मेरा पीछा नहीं छोड़ती ! सोचता हूँ, यह कैसी विरक्ति है, कैसा विराग है, जो आज तक ख़यालों से चिपका हुआ है ? क्या विराग भी राग की चादर में अपना चेहरा छिपाये पीछे लगा रहता है ? मैं सोचता ही जाता हूँ, किसी निश्चय पर नहीं पहुँच पाता।

दीपावली और छठ के बाद से ही बिहार में ठण्ड पड़ने लगती है। उत्तर भारत के हर प्रदेश में मौसम अपने प्रचण्ड वेग से उतरता है--अति-वर्षा होती है तो प्रचण्ड ताप भी आसमान से उतरता है और शीतकाल में हाड़ कँपा देनेवाली भीषण ठंड भी पड़ती है।

१९६८ के जाड़ों की याद है मुझे ! उस साल भीषण ठण्ड पड़ी थी। तब मेरी माँ (श्रीमती भाग्यवती देवी) गंगा के पार हाजीपुर में पदस्थापित थीं, उनका सरकारी कार्यालय और आवास एक ही परिसर में था। छठ-पूजन में मैं अपनी बड़ी दीदी और पिताजी के साथ वहाँ गया था। माँ ने छठ का व्रत किया था और बड़े भक्ति-भाव से छठ मइया और भगवान् भास्कर का पूजन किया था। व्रत के पारायण के पहले उगते सूर्य को अंतिम अर्घ्य दिया जाता है। मुझे स्मरण है, हम सुबह-सुबह कौनहारा घाट (जहाँ गज-ग्राह का युद्ध हुआ था ) पहुँच गए थे। गुलाबी मीठी ठण्ड तभी पसर गयी थी। माँ ने गंडक नदी के पावन जल से आचमन किया, स्नान किया और सूर्य को अर्घ्य दिया। बाल-सूर्य क्षितिज पर मुस्कुराते हुए प्रकट हुए थे, उदयाचल रक्ताभ हो उठा था। अर्घ्य-दान के बाद माँ ने सूप हमें सौंप दिया और अपनी अञ्जलि से जल का तर्पण करने लगीं। नदी के तेज प्रवाह से निकलने के पहले मुख-प्रक्षालन करते हुए उनके मुख से कृत्रिम दाँत का एक सेट निकलकर नदी के तीव्र प्रवाह में जा गिरा। अब वह कहाँ मिलनेवाला था ? हम सभी लौट आये।...

हमें हाजीपुर में अभी एक दिन और रुकना था। माँ दो दिनों के उपवास के बाद अत्यल्प भोजन ग्रहण कर विश्राम करने गयीं। जब शाम के वक़्त प्रकृतिस्थ होकर जागीं, तो पटना के घर-परिवार के लिए प्रसाद के अलग-अलग पैकेट बनाने लगीं। तभी माँ-पिताजी के सामने मैंने अपनी बात रखी। तब मैं महाविद्यालय के प्रवेश-द्वार पर खड़ा था। दो-तीन महीने बाद मैट्रिक की परीक्षा होनेवाली थी। मेरा कोट पुराना और छोटा पड़ गया था। मैंने माँ-पिताजी कहा--'अगले सत्र में मुझे कॉलेज में जाना है। मुझे एक जर्सी दिलवा दीजिये। लगता है, इस साल जाड़ा भी खूब पड़ेगा।' उन्हीं दिनों चमड़े और फ़ोम की शानदार जर्सी का चलन हुआ था, धनवान परिवारों के मेरे कई मित्र ऐसी जर्सियाँ पहनकर विद्यालय आते थे और हम सबों के बीच अलग चमकते दीखते थे।

मेरे आग्रह का विरोध करते हुए माँ ने कहा--'अभी तुम्हारे बढ़ने की उम्र है और तुम्हारा कोट पुराना जरूर हुआ है, लेकिन इतना छोटा भी नहीं हुआ कि तुम उसे पहन न सको। इस साल ठहर जाओ, अगले साल नया कोट सिलवा दूँगी।' माताजी की बात तो पत्थर की लकीर हो गयी। लेकिन मैं भी पिताजी का हठी मानधन था, अपनी ज़िद पर अड़ा रहा।

हाजीपुर से पटना लौटकर मैं आये दिन पिताजी को अपनी नयी जर्सी के लिए परेशान किया करता। नवम्बर के समाप्त होते-न-होते पटना में शीत का प्रकोप बढ़ गया था। मैंने पिताजी को इतना हलकान कर दिया कि एक दिन खीझकर उन्होंने कहा--'ठीक है भाई, आज शाम तुम मेरे दफ़्तर आ जाना, वहीं से पटना मार्केट चलूँगा और तुम्हें मनचाही जर्सी दिलवा दूँगा।' उस उम्र में कितना नादान था मैं, पिताजी की अनमनी स्वीकृति पाकर खिल उठा। ये न सोचा कि यह पिताजी की विवश स्वीकृति है--नाख़ुशी से भरी हुई।

वह १९६८ की २९ नवम्बर की शाम थी। मैं यथासमय पिताजी के दफ़्तर जा पहुँचा और वहाँ से पटना मार्किट ! मैंने २५० रुपये की गहरे नीले रंग की फ़ोम की एक जर्सी पसंद की। पिताजी ने उसे मेरे लिए खरीद लिया। मैं प्रसन्नचित्त घर लौटा। उस ज़माने में २५० रुपये भी बहुत होते थे, महीने-भर की पूरी तनख़्वाह का एक-तिहाई भाग...! लेकिन मैं खुश था, मेरी इच्छा-पूर्ति हो गयी थी। लेकिन यह ख़ुशी तो बस चार-पाँच दिन की ही थी।...

४ दिसंबर की सुबह ९-१० बजे आकाशवाणी, पटना से पिताजी के अनुज सहकर्मी केशव पांडेयजी मेरे घर आये। पिताजी स्नान के पहले खुले आँगन में बैठकर तैल-मर्दन कर रहे थे। पांडेयजी पिताजी के सम्मुख करबद्ध आ खड़े हुए। वह कुछ बोलते ही नहीं थे। पिताजी ने बार-बार उनसे आगमन का कारण पूछा, लेकिन वह जड़वत खड़े रहे। अंततः पिताजी ने खीझकर कहा--"अरे, कोई मर गया है क्या ?' अमूमन ऐसा होता था कि किसी बड़े साहित्यिक, राजनेता, उच्च पदेन अधिकारी का निधन हो जाता, तो आकाशवाणी से तुरंत गाड़ी आ जाती और पिताजी को तत्काल उसी गाड़ी से आनन-फानन में आकाशवाणी जाना पड़ता। पिताजी ने इसी कारण यह प्रश्न किया था। पिताजी की आशंका निर्मूल नहीं थी, लेकिन जिस निधन की सूचना लेकर केशव पांडेयजी आये थे, वह बिजली हमारे ही घर पर गिरी थी, यह तो हमारे अवचेतन में भी कहीं नहीं था। हाजीपुर में मेरी माताजी का स्वर्गवास हो गया था, इस समाचार से पूरा घर शोकार्त्त हो गया।

उसी क्षण हम सभी भागे-भागे महेन्द्रू घाट से पानी का जहाज पकड़कर पहलेजा घाट होते हुए हाजीपुर पहुंचे। काल अपना क्रूर कर्म कर गुज़रा था और सर्वत्र फैला था--रुदन, विलाप, शोक, संताप! मेरी छोटी बहन और अनुज तो वहीं माँ के साथ थे , अब हम सभी आ पहुँचे थे, मिल-जुलकर आर्त्त-विकल, विह्वल होने के लिए। नियति की इस प्रवञ्चना से उस दिन हम सभी स्तब्ध रह गए थे।

माँ के आवास से कौनहारा घाट की दूरी कम नहीं थी। हाजीपुर जैसे अविकसित क्षेत्र में शव-वाही वाहन उन दिनों कहाँ मिलनेवाले थे ! हम माँ को अपने कन्धों पर ही ले चले--कभी दायें, कभी बायें कन्धे पर लिए हुए ! देर शाम तक माँ की देह-भस्म को हम उसी कौनहारा घाट पर, गंडक नदी के जल-प्रवाह में विसर्जित कर आये, जहाँ डेढ़-एक महीने पहले माँ अपने दाँतों का एक सेट विसर्जित कर आयी थीं।

उस कठिन कृत्य से निवृत्त होकर देर रात हम घर आये--विक्षिप्त होने की हद तक शरीर और मन से क्लान्त हुए...! मैंने अपनी नयी जर्सी उतारी और तह करके रख दी। विकलता से भरी वह रात किसी तरह गुज़र ही गयी। दो दिनों में पिताजी ने हाजीपुर का जाल समेटा और हम सभी पटना लौट आये।
कुछ दिनों बाद कहीं बाहर जाने के लिए मैंने एक सप्ताह पहले खरीदी हुई अपनी नयी जर्सी निकाली, तो देखा कि उसके दोनों कन्धों का फ़ोम बुरी तरह उधड़ गया है। संभवतः माँ को श्मशान-भूमि ले जाते हुए बाँस की रगड़ से वह क्षतिग्रस्त हो गया था। जर्सी फ़ोम की थी, उसकी मरम्मत भी नहीं हो सकती थी। माँ की बात न मानने का मुझे बड़ा कठोर दण्ड मिला था। मेरी आँखों से आँसू टपकने लगे थे। मैंने उस जर्सी का परित्याग कर दिया। उसके बाद के जीवन में कभी जर्सी-नुमाँ कोई वस्त्र मैंने कभी धारण नहीं किया।

अब तो माँ और उस अभिशप्त जर्सी को गुज़रे लगभग आधी शती बीत गयी है, लेकिन माँ के स्मरण के साथ-साथ वह नीली फ़ोम की जर्सी आज भी याद आती है मुझे।...

चौंसठ वर्षों के जीवन में न जाने मेरे कितने वस्त्र बने-खरीदे गए होंगे--झबले से लेकर कुर्ते-पायज़ामे तक, पैंट-शर्ट से लेकर कोट-बंडी-सूट तक--समय पाकर वे सब पुराने पड़े होंगे, जीर्ण-शीर्ण हुए होंगे, बाँटे-फेंके गए होंगे--आज किसी की याद भी नहीं आती; लेकिन वह अजीब नामुराद नीली जर्सी ऐसी थी, जो मेरे ज़ेहन से कभी उतरी ही नहीं, जबकि सबसे ज़्यादा विराग मुझे उसीसे हुआ था !

आप कहेंगे, इस एकांत-रुदन के अश्रु-कण को कागज़ पर पसारने की आवश्यकता क्या थी ? आपका प्रश्न स्वाभाविक ही होगा; लेकिन जिस जर्सी से मुझे वर्षों पहले अनुराग-विराग हुआ था और जिसे मैंने अपने शरीर से उतार फेंका था, वह कहीं गयी नहीं थी--मेरी अंतरात्मा से लिपटी रह गयी थी, आज उसे ही अपने चेतन-अवचेतन और अपनी आत्मा से उतार देने की चेष्टा का यत्न-भर है यह लेखन। मुझे सफलता मिली तो ठीक, अन्यथा वह चिपकी ही रहेगी मुझसे--ताउम्र!...


सुना-जाना है, जीवन-मृत्यु वस्त्र बदलने के सामान है। तो क्या अब अगले जन्म में वस्त्र बदलने के बाद ही मेरी माँ मुझे दिलवायेंगी नया कोट या नयी जर्सी और क्या तभी छूटेगा इस नीली जर्सी से मेरा पिण्ड ? कौन जाने... ?
(समाप्त)
[चित्र : माँ (श्रीमती भाग्यवती देवी) और वह नीली जर्सी।]

सोमवार, 29 अगस्त 2016

ब्रह्मदेव नारायण सिंह : कबीर गाते-गुनते हुए 'कबीर'... (२)

आज देश-दुनिया में संगीतसेवियों की क्या कमी है ? एक-से बढ़कर-एक फ़नकार हैं, जानदार-शानदार गाते-बजाते हैं, मुरकियाँ-तानें, आरोह-अवरोह के करतब दिखाते हैं, संगीत की अधुनातन उपलब्धियों से उन्हें सजाते-सँवारते हैं और पूरी कायनात में एक शोर बरपा करते हैं; लेकिन संगीत के इस शोर-शराबे में गीत की आत्मा कहीं दबी-कुचली-सी लगती है मुझे। मुझे लगता है, ब्रह्मदेव चाचा एक ऐसे संगीतज्ञ थे, जो शब्दों की गहरी समझ रखते थे--एकः शब्द: शुष्ठु ज्ञातः !' वह शब्दों के प्राण-तत्व को समझकर संगीत की आत्मा को गाते थे, जो श्रोताओं की अंतरात्मा में सिहरन भर देती थी, भाव-विभोर कर देती थी उन्हें। उनका गाया हुआ कबीर का निर्गुण 'झीनी-झीनी बीनी रे चदरिया...' सुनकर मैं आज भी सिहर उठता हूँ।...

एक दिलचस्प वाक़या याद आता है। १९८२ में मेरे अनुज यशोवर्धन का विवाह हुआ था। नाते-रिश्तेदारों और हित-मित्रों से घर भरा हुआ था। छोटे चाचा भी दिल्ली से आये हुए थे। आगंतुकों के लिए हमारा घर छोटा पड़ रहा था। स्थानाभाव के कारण सड़क के पार, ठीक सामनेवाले ब्रजकुमारजी के मकान में, दो कमरों की व्यवस्था पिताजी ने कर ली थी, जिसमें एक बड़ा-सा हॉल था और एक कमरा! जिस दिन बरात को दूसरे शहर के लिए प्रस्थान करना था, उसकी पूर्व-संध्या में ब्रह्मदेव चाचा छोटे चाचा से मिलने की ललक लिए आ पहुँचे। उन्हें भी सामनेवाले घर के हॉल में पहुँचा दिया गया, जहाँ छोटे चाचाजी ठहरे हुए थे। दोनों पुराने मित्र हुलसकर मिले और बातें चल निकलीं। परिवार के बहुत-से लोग हॉल में एकत्रित थे, शोर-गुल था, हलचल थी। तभी पिताजी वहाँ प्रकट हुए। उनकी उपस्थिति से थोड़ी शान्ति स्वयं व्याप गयी। पिताजी ने उच्च स्वर में कहा--'भई, क्या करते हैं आपलोग ? पुत्र-परिणय का मांगलिक अवसर है और ब्रह्मदेवजी उपस्थित हैं, मधुर स्वर में इनका भजन सुनिये, ऐसा मौका फिर कब मिलेगा ?' इतना कहकर पिताजी ब्रह्मदेव चाचा से मुखातिब हुए, भोजपुरी में बोले--"काँहें, एक-दू गो भजने हो जाए दS !" (क्यों, एक-दो भजन ही हो जाने दीजिये।)
संभवतः ब्रह्मदेव चाचा को ऐसे किसी आमंत्रण की आशा नहीं थी। वह अकचकाये और बोले--"दँतवा तS घरे छूट गइल बा, गाइब कइसे ?" (दाँत तो घर पर ही छूट गया है, गाऊँगा कैसे ?)
पिताजी विनोद में बोले--"हम तS ईहे जानत रहीं जे गला से गावल जाला, ई तS विचित्र बात पता चलल कि रउआ दाँत से गाइले!" (मैं तो यही जानता था कि गले से गाया जाता है, यह तो विचित्र बात चली कि आप दाँत से गाते हैं।)
हॉल में जोरदार हँसी के स्वर गूंजे। ब्रह्मदेव चाचा दो क्षण चुप रहे, फिर बोले--"ना, ई बात नइखे। गाइब तs हमहूँ गले से, लेकिन शब्द के उच्चारण स्पष्ट ना होई !" (नहीं, ये बात नहीं है। गाऊँगा तो मैं भी गले से ही, लेकिन शब्दों के उच्चारण स्पष्ट नहीं होंगे।)
पिताजी ने कहा--"ठीक बा, रउआ अस्पष्टे गायीं, हम सब ओकरा स्पष्ट करिके सुनब जा !" (ठीक है, आप अस्पष्ट ही गायें, हम सभी उसे स्पष्ट करके सुन लेंगे।)

उस दिन पिताजी ने ब्रह्मदेव चाचा को भजन सुनाने को विवश कर दिया था। उन्होंने थोड़ी मुश्किल से ही सही, कई भजन सुनाये थे उस दिन! उन्होंने ठीक कहा था, कई शब्द उलझे-से उच्चरित जरूर हो रहे थे, लेकिन उन स्वरों की मधुरता के क्या कहने! उनके स्वरों का आलोड़न वैसा ही मोहक था। स्वरों की उस भाव-धारा में वहाँ उपस्थित सभी लोग बह चले--अत्यंत मुग्धकारी थी स्वरों-शब्दों की वह संयोजना--अत्यंत प्राणवान... !
सन १९८५ में ब्रह्मदेव चाचा आकाशवाणी, पटना से संगीत प्रोड्यूसर के पद से सेवा-निवृत्त हुए, लेकिन संगीत-सेवा से कभी मुक्त नहीं हो सके। उनके ऊपर सरस्वती की असीम कृपा थी।

मेरी श्रीमतीजी (साधना अवस्थी) आकाशवाणी की सुगम-संगीत की सुमधुर गायिका रही हैं। वह १९७६ से ही आकाशवाणी, छतरपुर से सम्बद्ध रहीं, लेकिन १९७८ में विवाहोपरांत उनके गायन और अभ्यास में व्यतिक्रम आ गया था। १९८२ में पटना में स्थापित होने के कुछ साल बाद उन्होंने पुनः गायन की शुरूआत की, लेकिन दो-तीन वर्षों के आकाशवाणीय प्रसारणों के उपरान्त उनकी संगीत-बद्ध गीत-भजनों की झोली खाली हो चली थी। तभी एक दिन पिताजी से मिलने ब्रह्मदेव चाचा घर आये--वह १९९२ का साल था। पिताजी ने उन्हें साधिकार आदेश दिया कि वह साधनाजी को संगीत की शिक्षा दें...! ब्रह्मदेव चाचा बोले--"राउर हुकुम बा तS हम ना तS कहिये ना सकीं, लेकिन हमरा पहिले ओकर परीक्षा लेबे दीहीं।" (आपका आदेश है तो मैं ना तो कह ही नहीं सकता, लेकिन पहले मुझे उसकी परीक्षा लेने दें।) उन्होंने साधनाजी की परीक्षा ली और पिताजी से कहा था--"ई लईकिया तS गावहीं खातिर जनम लेले बिया भइया !" (इस लड़की ने तो गाने के लिए ही जन्म लिया है भइया !)

उस दिन के बाद से ब्रह्मदेव चाचा दो वर्षों तक लगातार, सप्ताह में तीन दिन, साधनाजी को संगीत की शिक्षा देने घर आते रहे। उन्होंने ही प्रसिद्ध तबला-वादक पंडित भोलाप्रसाद सिंह को भी संगत के लिए बुला लिया था। जब वह पहले दिन मेरे घर आये थे, मैंने ही द्वार पर चरण-स्पर्श कर उनका स्वागत किया था। चाचाजी ने जब हारमोनियम लेकर पहला सुर साधा--"राम कहो, राम कहो, राम कहो बावरे, अवसर न चूक प्यारे पायो बड़ो दाँव रे....", मैं स्वयं को रोक नहीं सका, यंत्रवत उठ खड़ा हुआ और आगे बढ़कर मैंने चाचाजी के चरण पुनः छुए! चाचाजी को मेरे इस कृत्य पर हैरानी हुई, मेरी ओर आश्चर्य से देखते हुए बोले--"का भइल हो? फेरु काँहें गोड़ लाग तारs ?" (क्या हुआ? फिर क्यों पैर छू रहे हो ?) मैंने कहा--"मेरा ये प्रणाम तो आपके गले में विराजनेवाली देवी सरस्वती को है !" मेरी बात सुनकर उनके मुख पर एक मीठी मुस्कान खेल गयी ! उनकी वह आश्चर्य-मिश्रित मधुर मुस्कान वाली मुद्रा मैं कभी भूल न सका।
साधनाजी मधुरकंठी तो थीं ही, सुघड़ शिष्या भी थीं। ब्रह्मदेव चाचा के शिक्षण का परिणाम यह हुआ कि बाद के दिनों में उनके गायन में भी कबीर के निर्गुण और रैदास, नानक, विद्यापति के भजनों में चाचाजी के स्वरों की बारीकियाँ प्रकट होने लगीं, वही मनमोहक अनुगूँज सुनाई देने लगी। चाचाजी ने दो वर्षों में साधनाजी के स्वरों में भी नए और मर्मबेधी रंग भर दिए थे, यह कहने में मुझे संकोच नहीं है। सप्ताह में तीन दिन मेरा घर साहित्य और संगीत की जुगलबंदी का मुग्धकारी मंच बनता रहा--एक कमरे में ब्रह्मदेव चाचा के स्वर गूंजते तो दूसरे कक्ष में पिताजी की साहित्यिक गोष्ठियों की मर्मर ध्वनियाँ! हाय, वे मनहर दिन पलक झपकते बीत गए...!

एक शाम ब्रह्मदेव चाचा संगीत-शिक्षण के लिए घर पधारे, वह साधनाजी का जन्म-दिन था। जब उन्हें खाने के लिए केक और मिठाइयाँ दी गयीं और बताया गया कि आज साधना का जन्म-दिन है, तो उन्होंने यूँ ही पूछ लिया--'आज कौन-सी तारीख है ?' उन्हें बताया गया कि आज ४ अप्रैल है तो उल्लसित होकर बोले--'फिर तो आज मेरा भी जन्म-दिन है।" उसी दिन यह राज़ फ़ाश हुआ कि गुरु-शिष्या की जन्म-तिथि एक ही है। लेकिन, यह निरासक्ति उनके स्वभाव की अनूठी विशेषता थी।

१९९५ में साधनाजी के नौकरी पर पटना से दूर, दूसरे शहर, चले जाने से और पिताजी के दुनिया से कूच कर जाने से साहित्य और संगीत का वह नशेमन ध्वस्त हो गया, लेकिन मेरी श्रीमतीजी आज भी श्रद्धानमित होकर ब्रह्मदेव चाचा का स्मरण-नमन करती हैं ! आज भी, कभी-कभी, उनके निर्गुण और भजनों के स्वर गूँजते हैं हमारे मन में, मेरे घर-आंगन में... !

ब्रह्मदेव चाचा ने अपने जीवन में पर्याप्त लोकप्रियता अर्जित की थी, यथेष्ट सम्मान पाया था, जन-जन की प्रीति प्राप्त की थी, किन्तु इसी ज़िन्दगी ने उन्हें गहरे आघात भी दिए थे। सबसे बड़ा आघात वह था, जब काल-मूसल ने उनके युवा कनिष्ठ पुत्र को एक दिन औचक ही कुचल दिया था। वह विक्षिप्त कर देनेवाला वज्राघात था! ऐसे कठिन काल में भी कबीर के शब्दों और उनके स्वरों ने ही उन्हें सहारा दिया था, सम्हाला था उन्हें और उनके कण्ठ से फूट पड़े थे कबीर के शब्द--"रहना नहिं देस बिराना है...!"
जीवन के चौथेपन में ब्रह्मदेव चाचा को अपनी सहधर्मिणी के विछोह की पीड़ा भी सहनी पड़ी थी। दुःख की उस घडी में (श्राद्ध के दिन, शाम के वक़्त) मैं वहाँ उपस्थित हुआ था--देखा, ब्रह्मदेव चाचा निर्लिप्त भावेन दायित्व-पूर्ति में व्यस्त हैं, उनके चेहरे पर फ़िक्र की एक भी वक्र रेखा नही, बस, हल्की शोक-छाया थी; लेकिन जानता था, उनकी मन-वीणा का कोई तार चटख कर टूट गया था...!

ब्रह्मदेव चाचा ने ८६ वर्षों का दीर्घ जीवन जिया था--अपनी ही शर्तों पर, अपने ही अंदाज़ में। पिताजी कहा करते थे--"दीर्घ आयुष्य सहनशीलता की पराकाष्ठा है। यह समझना कठिन है कि दीर्घ जीवन प्रभु का वरदान है या अभिशाप!" ब्रह्मदेव चाचा के सभी निकट मित्र संसार से विदा हो गए थे--अभिन्न मित्र भालचंद्र चाचा, सहपाठी मित्र काश्यप चाचा और पिताजी भी। विछोह की यह आतंरिक पीड़ा उन्हें भी सहनी पड़ी थी। कालान्तर में वह अपने ज्येष्ठ सुपुत्र विनोदनारायण सिंह के पास राँची चले गए थे। मैं जब कभी पटना में उनके अनुज-मित्र कविवर केदारनाथ सिंह (राष्ट्रकवि दिनकर के कनिष्ठ पुत्र) के राजेंद्र नगर स्थित आवास पर जाता, तो उन्हीं से ब्रह्मदेव चाचा के कुशल-क्षेम की जानकारी मुझे मिल जाती।

दिन पर दिन बीतते रहे। मैं श्रीमतीजी की नौकरी के साथ शहर बदलता रहा--पहले नोएडा, फिर पूना। पटना पीछे छूट गया और ब्रह्मदेव चाचा का कुशल-समाचार पाना भी दुस्तर होता गया। तभी, एक दिन (२-२-२०१३ को) पता चला कि शब्दों का मर्म समझनेवाला, भजनों और निर्गुण की आत्मा को गानेवाला, स्वरों का वह चितेरा चला गया। मर्मन्तुद समाचार था। मैं अवसन्न रह गया। रांची में ही उनका देहावसान हो गया था। जाने कितनी पुरानी यादें मन में तैरने लगीं और मस्तिष्क में गूंजने लगे उनके स्वर--"पिया की हवेली, मैं तो चली रे अकेली...!"

संगीत के आसमान में अपने सुरों की जो इंद्रधनुषी छटा ब्रह्मदेव चाचा बिखेर गए हैं, उसके रंग कभी धूमिल नहीं होंगे ! वह ऐसा इंद्रधनुष है जो सदैव आकाश में चमकता ही रहेगा...! शरीर तो मरणधर्मा है, विनष्ट हो जाता है, किन्तु कीर्ति जीवित रहती है--'कीर्तस्य स जीवति....!' ब्रह्मदेव चाचा के स्वरों की यशःकाया हमेशा हमारे बीच रहेगी, हमें अनुप्राणित और सम्मोहित करती हुई...!
(समाप्त)

[चित्र-परिचय : ब्रह्मदेव नारायण सिंह, साधनाजी और मैं... संगीत-शिक्षण के दौर की दुर्लभ छवि...।

शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

ब्रह्मदेव नारायण सिंह : कबीर गाते-गुनते हुए 'कबीर'... (१)

वे मेरे छुटपन के दिन थे, लेकिन इतने भी बालपन के नहीं कि विस्मृति के गर्भ में समा जाएँ ! मुझे याद है, तब मैं तीसरी कक्षा में पढ़ता था और पटना के एक पुराने मोहल्ले कदमकुआँ में किराये के मकान में रहता था--मुख्तार साहब के मकान में ! मुख्तार साहब रोज़ कचहरी जाते थे--दो घोड़ोंवाली बग्घी से। अवकाश के समय में और छुट्टी के दिनों में बग्घी आहाते में खड़ी रहती थी और घोड़े अस्तबल में ! मैं बग्घी की झूठी सवारी खूब करता और अपनी कल्पना के घोड़ों को हाँक लगता, चाबुक फटकारता उनपर। तब, परिवार अपेक्षया बड़ा था--दादी थीं, छोटे चाचा (भालचंद्र ओझा) थे और बड़े चाचा (कृष्णचन्द्र ओझा) की ज्येष्ठ कन्या (गीता ओझा) थीं तथा हम चार भाई-बहन तो माता-पिता के साथ थे ही। दुमंजिला बड़ा-सा मकान था। निचले तल पर हमलोग थे और ऊपर मुख्तार साहब--सपरिवार ! मेरे घर के सामने ही एक विशालकाय कदम्ब का पेड़ था, जिसके चौतरफे चबूतरा बना हुआ था। मैं बग्घी पर या उसी चबूतरे पर मँडराता रहता और किसी भी आगंतुक के प्रथम दर्शन का सौभाग्य प्राप्त करता।
छोटे चाचा के मित्रों की टोली बड़ी थी, उनमें शिवसागर मिश्र, रामेश्वर सिंह काश्यप, केशव पाण्डेय, काशीनाथ पाण्डेय तथा ब्रह्मदेव नारायण सिंह प्रमुख थे ! ये सभी मित्र 'कोहराकशी' (धूमपान) के अभ्यासी थे, किन्तु वे सब पिताजी के दफ्तर चले जाने की बेसब्र प्रतीक्षा किया करते और उनके विदा होते ही बातों का सिलसिला शुरू हो जाता, सबों के ठहाके गूँजते और कदम्ब के पेड़ का चबूतरा गुलज़ार हो जाता तथा कदम्ब का विशाल वृक्ष पीता रहता सिगरेट के धुएँ का उठता गुबार--लगातार ! मैं छोटे चाचा की महफ़िलों का आज्ञाकारी सेवक था--चाय-पानी, सिगरेट-सलाई, पान-तम्बाकू लाने-पहुँचानेवाला और पिताजी के पदार्पण की अग्रिम सूचना देनेवाला भी।

ब्रह्मदेव नारायण सिंहजी छोटे चाचा जैसे ही सुदर्शन व्यक्ति थे। वह जब कभी अकेले मेरे घर आ पहुँचते, मेरी दादी को प्रणाम करना कभी न भूलते। छोटे चाचा से कहते--"चलो, ज़रा माई को प्रणाम कर लूँ।" दादी उन्हें पकड़ बिठातीं और उनसे कहतीं--"ब्रह्मदेव, ऊ वाला गनवाँ सुनावs ना ! ओकर सूर मनवाँ से छूटत नइखे !" (ब्रह्मदेव! वही गाना सुनाओ न! उसके सुर मन से उतरते नहीं हैं।) ब्रह्मदेव चाचा को उनसे पूछना नहीं पड़ता कि वह कौन-सा गीत सुनना चाहती हैं। वह दादी की पसंद जानते थे, गाने लगते--"गंगा नहाये हो रामा सुरुज मिलन के बेरिया...!" (शब्द तो ठीक-ठीक स्मरण में नहीं रहे, लेकिन ऐसा ही कुछ था वह गीत, जिसकी धमक-महक आज भी कहीं मन-प्राण में बसी हुई है)। उनके स्वरों के बाण छूटते ही पूरा घर दादी के कमरे में सिमट आता। दादी तो तन्मय होकर सुनतीं ही, हम सभी मंत्रमुग्ध हो जाते। ब्रह्मदेव चाचा की दानेदार आवाज़ में गजब की खनक थी, पुरअसर कशिश थी, विचित्र सम्मोहन था, अद्भुत आकर्षण था। कई बार ब्रह्मदेव चाचा एक हारमोनियम लेकर भालचंद्र चाचा के साथ कदम्ब की छाया में घंटों बैठे रहते और किसी कविता, किसी पद, किसी गीत को स्वरों में बांधने में लगे रहते। छोटे चाचा काव्य-पक्ष की मीमांसा करते और ब्रह्मदेव चाचा स्वरों की पेचीदगियों का निवारण करते हुए उसकी धुन बनाते। इस तरह दोनों मित्रों के आपसी विमर्श में रचनाएँ स्वर-बद्ध होतीं। मेरी माँ, चचेरी बड़ी दीदी बार-बार उनके लिए चाय बनातीं और चाय की हर प्याली के बाद दोनों मित्र कोहराकशी करते हुए चिंतन-मग्न हो जाते। मेरे बचपन की शरारती आँखों ने देखे थे वे दिन !
सन १९५७ में जब आकाशवाणी, रांची की शुरुआत हुई, तो छोटे चाचा अपने दो मित्रों शिवसागर मिश्र और केशव पाण्डेय के साथ वहाँ उद्घोषक के रूप में नियुक्त हुए थे। मुझे याद है, आकाशवाणी, रांची के उद्घाटन के अवसर पर पिताजी ने एक अभिनन्दन-गीत लिखा था, जिसके शब्द कुछ इस तरह थे--
"एक और स्वर बोला अम्बर की वाणी का अभिनन्दन !
....... ....... जन-जन-कल्याणी का अभिनन्दन !!"
ब्रह्मदेव नारायण सिंहजी १९४८ से ही आकाशवाणी, पटना से बहैसियत 'कैजुअल आर्टिस्ट' जुड़े हुए थे, लेकिन १९६० में संगीत-संयोजक में रूप में वह भी रांची में पदस्थापित हुए। छोटे चाचा की मित्रों की टोली का एक बड़ा टुकड़ा अब रांची में जा बसा था। मित्रता प्रगाढ़ होती गयी और यावज्जीवन यथावत बनी रही। छोटे चाचा और ब्रह्मदेव चाचा में अद्भुत समानता थी--कद-काठी, नाक-नक्श और पहिरावे की भी। दोनों आजीवन खादी का सफ़ेद कुरता-पायजामा पहनते रहे। दोनों एक साथ चल पड़ें तो किसी को भी उनके सगे भाई होने का भ्रम हो सकता था। वैसे, वे सहोदर भ्राता न होकर भी, सगे भाई से कम न थे। आज ब्रह्मदेव चाचा के बारे में लिखते हुए छोटे चाचा के बिना उन्हें स्मरण कर पाना मेरे लिए कठिन हो रहा है। मेरी यह मुश्किल समझी जा सकती है।
४ अप्रैल, १९२७ को ग्राम जैर, जिला नालंदा में जन्मे ब्रह्मदेव नारायण सिंहजी ने अपने पिता के लिए नियुक्त संगीत-शिक्षक से अनायास ही संगीत की शिक्षा पायी थी, लेकिन उनमें संगीत की प्रभु-प्रदत्त असामान्य प्रतिभा थी और संगीत-ज्ञान की उत्कट पिपासा भी। आकाशवाणी, रांची से जुड़ने के बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा, उत्तरोत्तर आगे बढ़ते गए। पद की गरिमा से नहीं, अपनी सांगीतिक-प्रज्ञा से और गायन-प्रतिभा से संगीत-जगत में उन्होंने अपना वह स्थान बनाया, जिसकी कामना कोई भी संगीतज्ञ करेगा।
दो वर्ष बाद ही सन १९६२ में ब्रह्मदेव चाचा पदोन्नति पाकर पटना स्थानांतरित हुए। छोटे चाचा से प्रतिदिन का संपर्क बाधित हुआ, लेकिन १९६६ में छोटे चाचाजी भी राँची छोड़कर दिल्ली जा बसे और आकाशवाणी की सेवा करते हुए आजीवन वहीं रहे।
भिन्न-भिन्न विधाओं और दिशाओं के प्रतिभा-पुरुषों की उस टोली में सबने अपने-अपने क्षेत्र में खूब नाम कमाया, कीर्ति-पताकाएं फहराईं--किसी ने लेखन के क्षेत्र में, किसी ने काव्य-फलक पर, किसी ने व्यंग्य-विनोद-अभिनय के मंच पर, तो किसी ने राजकीय सेवा के उच्चतम पदों पर पहुंचकर; लेकिन सुरों की जीवनव्यापी साधना करते हुए ब्रह्मदेव नारायण सिंहजी ने जरा-मरण के भय से अपने आपको ऊपर उठा लिया था। उनके स्वरों का सम्मोहन श्रोताओं को बाँध लेता था और एक सच्चे सुर-साधक की तरह उन्होंने अपने आपको बंधन-मुक्त कर लिया था।....
सन १९५० से १९८० के तीन दशकों का काल-फलक रेडियो-प्रसारणों के नाम रहा। तब दूरदर्शन का आविर्भाव नहीं हुआ था, समाचार से मनोरंजन तक सबकुछ रेडियो-प्रसारणों से मिलता था। हर घर में तीन से सात बैंड का एक रेडियो-सेट होता था और उन्हीं से समाचार, संगीत, ज्ञानप्रद वार्ताएँ और रेडियो-नाटक सुनने को मिलते थे। रेडियो के उस स्वर्ण-काल में आकाशवाणी, पटना से पिताजी के लिखे नाटक, रामेश्वर सिंह काश्यप का लिखा तथा अभिनीत हास्य-व्यंग्य प्रधान नाटक 'लोहा सिंह', विंध्यवासिनी देवी के गाये लोकगीत और ब्रह्मदेव नारायण सिंहजी का गायन बहुत लोकप्रिय हुआ। श्रोता आतुरता से इन कार्यक्रमों की प्रतीक्षा करते थे। मेरी दादी ने ठीक ही कहा था--ब्रह्मदेव चाचा के सुर मन से उतरते नहीं थे, मन-प्राण में कहीं बस जाते थे।
मेरे पिताजी आकाशवाणी, पटना के स्थापना-काल (१९४८) से ही हिन्दी सलाहकार के रूप में जुड़े हुए थे। जब १९६२ में ब्रह्मदेव चाचा स्थानांतरित होकर पटना चले आये, तो आकाशवाणी में पिताजी से उनका प्रतिदिन का मिलना-जुलना होने लगा। पिताजी से उनका सम्बन्ध तो पुराना था, लेकिन प्रतिदिन के संपर्क से हुआ यह कि चाचा के सभी मित्रों में एक वही थे जो उनके मुँहलगे अनुज थे। अपनी बात साहस करके वही पिताजी से कह सकते थे, अन्यथा सभी मित्र पिताजी से दूरी बनाये रखते थे और सहज संकोच के एक अदृश्य आवरण के पीछे रहना पसंद करते थे।
सन १९६९-७० से मैं भी अपनी कविताओं के ध्वन्यांकन के लिए रेडियो जाने लगा था। वैसे भी, किसी-न-किसी काम से मुझे पिताजी के पास प्रायः वहाँ जाना पड़ता था। 'मुक्त'जी का पुत्र होने के कारण वहाँ सभी मुझसे स्नेह करते थे--पिताजी का कक्ष सम्मिलित रूप से शेयर करनेवाले उर्दू सलाहकार सुहैल अजीमाबादी, फणीश्वरनाथ रेणु, सत्या सहगल, विंध्यवासिनी देवी, पुष्पा आर्याणी, मधुकर गंगाधर और ब्रह्मदेव नारायण सिंह आदि! इन सबों की प्रीति पाकर मैं फूला न समाता था। अक्सर ऐसा होता कि जब मैं 'युववाणी' कार्यक्रम में अपनी कविताओं की रिकॉर्डिंग के लिए स्टूडियो में जाता तो देखता, किसी अन्य कक्ष में ब्रह्मदेव चाचा वादकों की मण्डली के साथ गायन में मशगूल हैं। ध्वन्यांकन कक्ष में तो प्रवेश वर्जित था, लिहाज़ा मैं द्वार पर लगे शीशे के पास ठहर जाता, कक्ष स्वर-अवरोधी था, सुन तो कुछ पाता नहीं, बस, उनके गायन की तन्मय मुद्रा निहारता रहता। जब वह बाहर आते, मैं चरण-स्पर्श करता। वह खिल उठते, कुशल-क्षेम पूछते, खासकर भालचंद्र चाचा की कुशलता के समाचार लेते, आशीष देते मुझे। और मैं उनकी सहज प्रीति पाकर प्रसन्नचित्त हो जाता।
बाद के वर्षों में ब्रह्मदेव चाचा ने गायन के अनेक कीर्तिमान स्थापित किये थे। मेरा संगीत-ज्ञान तो नगण्य है, फिर भी एक मुग्ध और सजग श्रोता होने की हैसियत से कह सकता हूँ कि उनके स्वरों का सम्मोहन, आवाज़ का अनूठापन और अदायगी का अंदाज़ अपने प्रभा-मंडल में श्रोताओं को बाँध लेता था। उन्होंने भक्ति-पदों का गायन इतनी भाव-प्रवणता से किया कि श्रोतागण उसके स्वर-लोक में आबद्ध हो जाते थे। उन्होंने देश के दिग्गज रचनाकारों के गीतों को संगीतबद्ध कर उनका गायन किया, जिनमें दिनकर, बच्चन, वीरेन्द्र मिश्र, शम्भुनाथ सिंह आदि प्रमुख थे। वह संगीत के सच्चे शिल्पकार थे। ऐसे सच्चे सुर लगाते जो हृदय पर सीधा असर करते थे। मुझे लगता है, उनके गायन में एक अजीब-सा बाँकपन भी था, जो दूसरे गायकों से उन्हें अलग खड़ा करता था। वह अपने समय के सर्वाधिक लोकप्रिय सुगम-संगीत गायक थे। मोमिन का एक शेर है--
'उस गैरत-ए-नाहीद की हर तान है दीपक,
शोला-सा लपक जाय है, आवाज़ तो देखो !'
उनकी हर तान की बात ही कुछ अलहदा थी। उन्होंने ग़ज़ल गायन का अपना अलग ही अंदाज़ विकसित किया था, जिससे मलिका-ए-ग़ज़ल बेगम अख्तर भी बहुत प्रभावित हुई थीं और उन्होंने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी।
उनमें अभिमान लेशमात्र नहीं था, किन्तु स्वाभिमान प्रचुर मात्रा में था। खरे आदमी थे, खरी बात बोलते थे--पीठ पीछे नहीं, मुंह पर बोलते थे। भालचंद्र चाचा से ही सुना था, मुम्बई की मायानगरी ने भी उन्हें कई बार पुकारा-बुलाया था, कई प्रलोभन दिए थे उन्हें, लेकिन अपनी जड़-ज़मीन से जुड़े ब्रह्मदेव चाचा ने ऐसे आमंत्रणों-प्रलोभनों को कभी महत्त्व नहीं दिया। जब मित्रों ने उन्हें बहुत समझाने की कोशिश की तो एक दिन खीझकर बोले--"मैं यहीं खुश हूँ, उस जन-समुद्र में कौन जाए अपना कंधा छिलवाने? जिसको गरज़ पड़ी हो, आये और मुझे पकड़ ले जाए।"... लेकिन इस सुविधाभोगी दुनिया में किसको फुर्सत थी, उन्हें पकड़ ले जाने की और ब्रह्मदेव चाचा थे कि अपने ही स्वरों की दुनिया में मग्न थे, पूरी बेफ़िक्री के साथ...।
जीवन-भर संगीत की साधना करते हुए ब्रह्मदेव चाचा ने निर्गुण-गायन की ऐसी झड़ी लगायी कि उस संगीत-वर्षा में कई-कई पीढ़ियाँ भीगती रहीं, अनुप्राणित होती रहीं। उन्होंने विद्यापति, मलूकदास, रैदास, नानक आदि के भजनों को ऐसी निपुणता से स्वर-बद्ध किया और इतनी तन्मयता से गाया कि उसका प्रभाव आज भी यथावत बना हुआ है। उन्होंने तुलसीकृत रामचरित मानस का गायन किया था, जिसका प्रसारण आकाशवाणी के सभी केंद्रों से प्रातःकालीन कार्यक्रम के प्रारम्भ में 'मानस-पाठ' के रूप में होता था। मैंने कई बार उन स्वरों के साथ ही सुबह-सबेरे अपनी आँखें खोली थीं। संभव है, उसका प्रसारण आज भी आकाशवाणी के सभी केंद्रों से होता हो, लेकिन उसे सुननेवाले श्रोता अब नहीं रहे। उन्होंने बिहार की तीन आँचलिक भाषाओं--मैथिली, भोजपुरी और मगही-- में अप्रतिम लोकगीतों का गायन भी किया। कबीर के निर्गुण पद गाते-गाते और गुनते-गुनते उनका अपना अंदाज़ और रहन-सहन भी कबीराना हो गया था--बेफिक्र, अलमस्त और सूफ़ियाना !.... कबीर उनकी अंतरात्मा पर कुछ इस क़दर छा गए थे और ऐसी शिद्दत से स्वरों में उतर आये थे कि लोग-बाग उन्हें 'संगीत का कबीर' ही कहने लगे थे! कबीर के निर्गुण उनके श्रीमुख से सुनकर ऐसा लगता था कि कबीर स्वयं अलमस्त भाव से अपना ही पद गाते हुए चल पड़े हैं--'साहब हैं रंगरेज कि चुनरी मोरी रंग डारी'...!
(अगली क़िस्त में समापन)
[चित्र : स्वर-साधक ब्रह्मदेवनारायण सिंह की युवावस्था की एक छवि]