आज देश-दुनिया में संगीतसेवियों की क्या कमी है ? एक-से बढ़कर-एक फ़नकार हैं, जानदार-शानदार गाते-बजाते हैं, मुरकियाँ-तानें, आरोह-अवरोह के करतब दिखाते हैं, संगीत की अधुनातन उपलब्धियों से उन्हें सजाते-सँवारते हैं और पूरी कायनात में एक शोर बरपा करते हैं; लेकिन संगीत के इस शोर-शराबे में गीत की आत्मा कहीं दबी-कुचली-सी लगती है मुझे। मुझे लगता है, ब्रह्मदेव चाचा एक ऐसे संगीतज्ञ थे, जो शब्दों की गहरी समझ रखते थे--एकः शब्द: शुष्ठु ज्ञातः !' वह शब्दों के प्राण-तत्व को समझकर संगीत की आत्मा को गाते थे, जो श्रोताओं की अंतरात्मा में सिहरन भर देती थी, भाव-विभोर कर देती थी उन्हें। उनका गाया हुआ कबीर का निर्गुण 'झीनी-झीनी बीनी रे चदरिया...' सुनकर मैं आज भी सिहर उठता हूँ।...
एक दिलचस्प वाक़या याद आता है। १९८२ में मेरे अनुज यशोवर्धन का विवाह हुआ था। नाते-रिश्तेदारों और हित-मित्रों से घर भरा हुआ था। छोटे चाचा भी दिल्ली से आये हुए थे। आगंतुकों के लिए हमारा घर छोटा पड़ रहा था। स्थानाभाव के कारण सड़क के पार, ठीक सामनेवाले ब्रजकुमारजी के मकान में, दो कमरों की व्यवस्था पिताजी ने कर ली थी, जिसमें एक बड़ा-सा हॉल था और एक कमरा! जिस दिन बरात को दूसरे शहर के लिए प्रस्थान करना था, उसकी पूर्व-संध्या में ब्रह्मदेव चाचा छोटे चाचा से मिलने की ललक लिए आ पहुँचे। उन्हें भी सामनेवाले घर के हॉल में पहुँचा दिया गया, जहाँ छोटे चाचाजी ठहरे हुए थे। दोनों पुराने मित्र हुलसकर मिले और बातें चल निकलीं। परिवार के बहुत-से लोग हॉल में एकत्रित थे, शोर-गुल था, हलचल थी। तभी पिताजी वहाँ प्रकट हुए। उनकी उपस्थिति से थोड़ी शान्ति स्वयं व्याप गयी। पिताजी ने उच्च स्वर में कहा--'भई, क्या करते हैं आपलोग ? पुत्र-परिणय का मांगलिक अवसर है और ब्रह्मदेवजी उपस्थित हैं, मधुर स्वर में इनका भजन सुनिये, ऐसा मौका फिर कब मिलेगा ?' इतना कहकर पिताजी ब्रह्मदेव चाचा से मुखातिब हुए, भोजपुरी में बोले--"काँहें, एक-दू गो भजने हो जाए दS !" (क्यों, एक-दो भजन ही हो जाने दीजिये।)
संभवतः ब्रह्मदेव चाचा को ऐसे किसी आमंत्रण की आशा नहीं थी। वह अकचकाये और बोले--"दँतवा तS घरे छूट गइल बा, गाइब कइसे ?" (दाँत तो घर पर ही छूट गया है, गाऊँगा कैसे ?)
पिताजी विनोद में बोले--"हम तS ईहे जानत रहीं जे गला से गावल जाला, ई तS विचित्र बात पता चलल कि रउआ दाँत से गाइले!" (मैं तो यही जानता था कि गले से गाया जाता है, यह तो विचित्र बात चली कि आप दाँत से गाते हैं।)
हॉल में जोरदार हँसी के स्वर गूंजे। ब्रह्मदेव चाचा दो क्षण चुप रहे, फिर बोले--"ना, ई बात नइखे। गाइब तs हमहूँ गले से, लेकिन शब्द के उच्चारण स्पष्ट ना होई !" (नहीं, ये बात नहीं है। गाऊँगा तो मैं भी गले से ही, लेकिन शब्दों के उच्चारण स्पष्ट नहीं होंगे।)
पिताजी ने कहा--"ठीक बा, रउआ अस्पष्टे गायीं, हम सब ओकरा स्पष्ट करिके सुनब जा !" (ठीक है, आप अस्पष्ट ही गायें, हम सभी उसे स्पष्ट करके सुन लेंगे।)
उस दिन पिताजी ने ब्रह्मदेव चाचा को भजन सुनाने को विवश कर दिया था। उन्होंने थोड़ी मुश्किल से ही सही, कई भजन सुनाये थे उस दिन! उन्होंने ठीक कहा था, कई शब्द उलझे-से उच्चरित जरूर हो रहे थे, लेकिन उन स्वरों की मधुरता के क्या कहने! उनके स्वरों का आलोड़न वैसा ही मोहक था। स्वरों की उस भाव-धारा में वहाँ उपस्थित सभी लोग बह चले--अत्यंत मुग्धकारी थी स्वरों-शब्दों की वह संयोजना--अत्यंत प्राणवान... !
सन १९८५ में ब्रह्मदेव चाचा आकाशवाणी, पटना से संगीत प्रोड्यूसर के पद से सेवा-निवृत्त हुए, लेकिन संगीत-सेवा से कभी मुक्त नहीं हो सके। उनके ऊपर सरस्वती की असीम कृपा थी।
मेरी श्रीमतीजी (साधना अवस्थी) आकाशवाणी की सुगम-संगीत की सुमधुर गायिका रही हैं। वह १९७६ से ही आकाशवाणी, छतरपुर से सम्बद्ध रहीं, लेकिन १९७८ में विवाहोपरांत उनके गायन और अभ्यास में व्यतिक्रम आ गया था। १९८२ में पटना में स्थापित होने के कुछ साल बाद उन्होंने पुनः गायन की शुरूआत की, लेकिन दो-तीन वर्षों के आकाशवाणीय प्रसारणों के उपरान्त उनकी संगीत-बद्ध गीत-भजनों की झोली खाली हो चली थी। तभी एक दिन पिताजी से मिलने ब्रह्मदेव चाचा घर आये--वह १९९२ का साल था। पिताजी ने उन्हें साधिकार आदेश दिया कि वह साधनाजी को संगीत की शिक्षा दें...! ब्रह्मदेव चाचा बोले--"राउर हुकुम बा तS हम ना तS कहिये ना सकीं, लेकिन हमरा पहिले ओकर परीक्षा लेबे दीहीं।" (आपका आदेश है तो मैं ना तो कह ही नहीं सकता, लेकिन पहले मुझे उसकी परीक्षा लेने दें।) उन्होंने साधनाजी की परीक्षा ली और पिताजी से कहा था--"ई लईकिया तS गावहीं खातिर जनम लेले बिया भइया !" (इस लड़की ने तो गाने के लिए ही जन्म लिया है भइया !)
उस दिन के बाद से ब्रह्मदेव चाचा दो वर्षों तक लगातार, सप्ताह में तीन दिन, साधनाजी को संगीत की शिक्षा देने घर आते रहे। उन्होंने ही प्रसिद्ध तबला-वादक पंडित भोलाप्रसाद सिंह को भी संगत के लिए बुला लिया था। जब वह पहले दिन मेरे घर आये थे, मैंने ही द्वार पर चरण-स्पर्श कर उनका स्वागत किया था। चाचाजी ने जब हारमोनियम लेकर पहला सुर साधा--"राम कहो, राम कहो, राम कहो बावरे, अवसर न चूक प्यारे पायो बड़ो दाँव रे....", मैं स्वयं को रोक नहीं सका, यंत्रवत उठ खड़ा हुआ और आगे बढ़कर मैंने चाचाजी के चरण पुनः छुए! चाचाजी को मेरे इस कृत्य पर हैरानी हुई, मेरी ओर आश्चर्य से देखते हुए बोले--"का भइल हो? फेरु काँहें गोड़ लाग तारs ?" (क्या हुआ? फिर क्यों पैर छू रहे हो ?) मैंने कहा--"मेरा ये प्रणाम तो आपके गले में विराजनेवाली देवी सरस्वती को है !" मेरी बात सुनकर उनके मुख पर एक मीठी मुस्कान खेल गयी ! उनकी वह आश्चर्य-मिश्रित मधुर मुस्कान वाली मुद्रा मैं कभी भूल न सका।
साधनाजी मधुरकंठी तो थीं ही, सुघड़ शिष्या भी थीं। ब्रह्मदेव चाचा के शिक्षण का परिणाम यह हुआ कि बाद के दिनों में उनके गायन में भी कबीर के निर्गुण और रैदास, नानक, विद्यापति के भजनों में चाचाजी के स्वरों की बारीकियाँ प्रकट होने लगीं, वही मनमोहक अनुगूँज सुनाई देने लगी। चाचाजी ने दो वर्षों में साधनाजी के स्वरों में भी नए और मर्मबेधी रंग भर दिए थे, यह कहने में मुझे संकोच नहीं है। सप्ताह में तीन दिन मेरा घर साहित्य और संगीत की जुगलबंदी का मुग्धकारी मंच बनता रहा--एक कमरे में ब्रह्मदेव चाचा के स्वर गूंजते तो दूसरे कक्ष में पिताजी की साहित्यिक गोष्ठियों की मर्मर ध्वनियाँ! हाय, वे मनहर दिन पलक झपकते बीत गए...!
एक शाम ब्रह्मदेव चाचा संगीत-शिक्षण के लिए घर पधारे, वह साधनाजी का जन्म-दिन था। जब उन्हें खाने के लिए केक और मिठाइयाँ दी गयीं और बताया गया कि आज साधना का जन्म-दिन है, तो उन्होंने यूँ ही पूछ लिया--'आज कौन-सी तारीख है ?' उन्हें बताया गया कि आज ४ अप्रैल है तो उल्लसित होकर बोले--'फिर तो आज मेरा भी जन्म-दिन है।" उसी दिन यह राज़ फ़ाश हुआ कि गुरु-शिष्या की जन्म-तिथि एक ही है। लेकिन, यह निरासक्ति उनके स्वभाव की अनूठी विशेषता थी।
१९९५ में साधनाजी के नौकरी पर पटना से दूर, दूसरे शहर, चले जाने से और पिताजी के दुनिया से कूच कर जाने से साहित्य और संगीत का वह नशेमन ध्वस्त हो गया, लेकिन मेरी श्रीमतीजी आज भी श्रद्धानमित होकर ब्रह्मदेव चाचा का स्मरण-नमन करती हैं ! आज भी, कभी-कभी, उनके निर्गुण और भजनों के स्वर गूँजते हैं हमारे मन में, मेरे घर-आंगन में... !
ब्रह्मदेव चाचा ने अपने जीवन में पर्याप्त लोकप्रियता अर्जित की थी, यथेष्ट सम्मान पाया था, जन-जन की प्रीति प्राप्त की थी, किन्तु इसी ज़िन्दगी ने उन्हें गहरे आघात भी दिए थे। सबसे बड़ा आघात वह था, जब काल-मूसल ने उनके युवा कनिष्ठ पुत्र को एक दिन औचक ही कुचल दिया था। वह विक्षिप्त कर देनेवाला वज्राघात था! ऐसे कठिन काल में भी कबीर के शब्दों और उनके स्वरों ने ही उन्हें सहारा दिया था, सम्हाला था उन्हें और उनके कण्ठ से फूट पड़े थे कबीर के शब्द--"रहना नहिं देस बिराना है...!"
जीवन के चौथेपन में ब्रह्मदेव चाचा को अपनी सहधर्मिणी के विछोह की पीड़ा भी सहनी पड़ी थी। दुःख की उस घडी में (श्राद्ध के दिन, शाम के वक़्त) मैं वहाँ उपस्थित हुआ था--देखा, ब्रह्मदेव चाचा निर्लिप्त भावेन दायित्व-पूर्ति में व्यस्त हैं, उनके चेहरे पर फ़िक्र की एक भी वक्र रेखा नही, बस, हल्की शोक-छाया थी; लेकिन जानता था, उनकी मन-वीणा का कोई तार चटख कर टूट गया था...!
ब्रह्मदेव चाचा ने ८६ वर्षों का दीर्घ जीवन जिया था--अपनी ही शर्तों पर, अपने ही अंदाज़ में। पिताजी कहा करते थे--"दीर्घ आयुष्य सहनशीलता की पराकाष्ठा है। यह समझना कठिन है कि दीर्घ जीवन प्रभु का वरदान है या अभिशाप!" ब्रह्मदेव चाचा के सभी निकट मित्र संसार से विदा हो गए थे--अभिन्न मित्र भालचंद्र चाचा, सहपाठी मित्र काश्यप चाचा और पिताजी भी। विछोह की यह आतंरिक पीड़ा उन्हें भी सहनी पड़ी थी। कालान्तर में वह अपने ज्येष्ठ सुपुत्र विनोदनारायण सिंह के पास राँची चले गए थे। मैं जब कभी पटना में उनके अनुज-मित्र कविवर केदारनाथ सिंह (राष्ट्रकवि दिनकर के कनिष्ठ पुत्र) के राजेंद्र नगर स्थित आवास पर जाता, तो उन्हीं से ब्रह्मदेव चाचा के कुशल-क्षेम की जानकारी मुझे मिल जाती।
दिन पर दिन बीतते रहे। मैं श्रीमतीजी की नौकरी के साथ शहर बदलता रहा--पहले नोएडा, फिर पूना। पटना पीछे छूट गया और ब्रह्मदेव चाचा का कुशल-समाचार पाना भी दुस्तर होता गया। तभी, एक दिन (२-२-२०१३ को) पता चला कि शब्दों का मर्म समझनेवाला, भजनों और निर्गुण की आत्मा को गानेवाला, स्वरों का वह चितेरा चला गया। मर्मन्तुद समाचार था। मैं अवसन्न रह गया। रांची में ही उनका देहावसान हो गया था। जाने कितनी पुरानी यादें मन में तैरने लगीं और मस्तिष्क में गूंजने लगे उनके स्वर--"पिया की हवेली, मैं तो चली रे अकेली...!"
संगीत के आसमान में अपने सुरों की जो इंद्रधनुषी छटा ब्रह्मदेव चाचा बिखेर गए हैं, उसके रंग कभी धूमिल नहीं होंगे ! वह ऐसा इंद्रधनुष है जो सदैव आकाश में चमकता ही रहेगा...! शरीर तो मरणधर्मा है, विनष्ट हो जाता है, किन्तु कीर्ति जीवित रहती है--'कीर्तस्य स जीवति....!' ब्रह्मदेव चाचा के स्वरों की यशःकाया हमेशा हमारे बीच रहेगी, हमें अनुप्राणित और सम्मोहित करती हुई...!
(समाप्त)
[चित्र-परिचय : ब्रह्मदेव नारायण सिंह, साधनाजी और मैं... संगीत-शिक्षण के दौर की दुर्लभ छवि...।
एक दिलचस्प वाक़या याद आता है। १९८२ में मेरे अनुज यशोवर्धन का विवाह हुआ था। नाते-रिश्तेदारों और हित-मित्रों से घर भरा हुआ था। छोटे चाचा भी दिल्ली से आये हुए थे। आगंतुकों के लिए हमारा घर छोटा पड़ रहा था। स्थानाभाव के कारण सड़क के पार, ठीक सामनेवाले ब्रजकुमारजी के मकान में, दो कमरों की व्यवस्था पिताजी ने कर ली थी, जिसमें एक बड़ा-सा हॉल था और एक कमरा! जिस दिन बरात को दूसरे शहर के लिए प्रस्थान करना था, उसकी पूर्व-संध्या में ब्रह्मदेव चाचा छोटे चाचा से मिलने की ललक लिए आ पहुँचे। उन्हें भी सामनेवाले घर के हॉल में पहुँचा दिया गया, जहाँ छोटे चाचाजी ठहरे हुए थे। दोनों पुराने मित्र हुलसकर मिले और बातें चल निकलीं। परिवार के बहुत-से लोग हॉल में एकत्रित थे, शोर-गुल था, हलचल थी। तभी पिताजी वहाँ प्रकट हुए। उनकी उपस्थिति से थोड़ी शान्ति स्वयं व्याप गयी। पिताजी ने उच्च स्वर में कहा--'भई, क्या करते हैं आपलोग ? पुत्र-परिणय का मांगलिक अवसर है और ब्रह्मदेवजी उपस्थित हैं, मधुर स्वर में इनका भजन सुनिये, ऐसा मौका फिर कब मिलेगा ?' इतना कहकर पिताजी ब्रह्मदेव चाचा से मुखातिब हुए, भोजपुरी में बोले--"काँहें, एक-दू गो भजने हो जाए दS !" (क्यों, एक-दो भजन ही हो जाने दीजिये।)
संभवतः ब्रह्मदेव चाचा को ऐसे किसी आमंत्रण की आशा नहीं थी। वह अकचकाये और बोले--"दँतवा तS घरे छूट गइल बा, गाइब कइसे ?" (दाँत तो घर पर ही छूट गया है, गाऊँगा कैसे ?)
पिताजी विनोद में बोले--"हम तS ईहे जानत रहीं जे गला से गावल जाला, ई तS विचित्र बात पता चलल कि रउआ दाँत से गाइले!" (मैं तो यही जानता था कि गले से गाया जाता है, यह तो विचित्र बात चली कि आप दाँत से गाते हैं।)
हॉल में जोरदार हँसी के स्वर गूंजे। ब्रह्मदेव चाचा दो क्षण चुप रहे, फिर बोले--"ना, ई बात नइखे। गाइब तs हमहूँ गले से, लेकिन शब्द के उच्चारण स्पष्ट ना होई !" (नहीं, ये बात नहीं है। गाऊँगा तो मैं भी गले से ही, लेकिन शब्दों के उच्चारण स्पष्ट नहीं होंगे।)
पिताजी ने कहा--"ठीक बा, रउआ अस्पष्टे गायीं, हम सब ओकरा स्पष्ट करिके सुनब जा !" (ठीक है, आप अस्पष्ट ही गायें, हम सभी उसे स्पष्ट करके सुन लेंगे।)
उस दिन पिताजी ने ब्रह्मदेव चाचा को भजन सुनाने को विवश कर दिया था। उन्होंने थोड़ी मुश्किल से ही सही, कई भजन सुनाये थे उस दिन! उन्होंने ठीक कहा था, कई शब्द उलझे-से उच्चरित जरूर हो रहे थे, लेकिन उन स्वरों की मधुरता के क्या कहने! उनके स्वरों का आलोड़न वैसा ही मोहक था। स्वरों की उस भाव-धारा में वहाँ उपस्थित सभी लोग बह चले--अत्यंत मुग्धकारी थी स्वरों-शब्दों की वह संयोजना--अत्यंत प्राणवान... !
सन १९८५ में ब्रह्मदेव चाचा आकाशवाणी, पटना से संगीत प्रोड्यूसर के पद से सेवा-निवृत्त हुए, लेकिन संगीत-सेवा से कभी मुक्त नहीं हो सके। उनके ऊपर सरस्वती की असीम कृपा थी।
मेरी श्रीमतीजी (साधना अवस्थी) आकाशवाणी की सुगम-संगीत की सुमधुर गायिका रही हैं। वह १९७६ से ही आकाशवाणी, छतरपुर से सम्बद्ध रहीं, लेकिन १९७८ में विवाहोपरांत उनके गायन और अभ्यास में व्यतिक्रम आ गया था। १९८२ में पटना में स्थापित होने के कुछ साल बाद उन्होंने पुनः गायन की शुरूआत की, लेकिन दो-तीन वर्षों के आकाशवाणीय प्रसारणों के उपरान्त उनकी संगीत-बद्ध गीत-भजनों की झोली खाली हो चली थी। तभी एक दिन पिताजी से मिलने ब्रह्मदेव चाचा घर आये--वह १९९२ का साल था। पिताजी ने उन्हें साधिकार आदेश दिया कि वह साधनाजी को संगीत की शिक्षा दें...! ब्रह्मदेव चाचा बोले--"राउर हुकुम बा तS हम ना तS कहिये ना सकीं, लेकिन हमरा पहिले ओकर परीक्षा लेबे दीहीं।" (आपका आदेश है तो मैं ना तो कह ही नहीं सकता, लेकिन पहले मुझे उसकी परीक्षा लेने दें।) उन्होंने साधनाजी की परीक्षा ली और पिताजी से कहा था--"ई लईकिया तS गावहीं खातिर जनम लेले बिया भइया !" (इस लड़की ने तो गाने के लिए ही जन्म लिया है भइया !)
उस दिन के बाद से ब्रह्मदेव चाचा दो वर्षों तक लगातार, सप्ताह में तीन दिन, साधनाजी को संगीत की शिक्षा देने घर आते रहे। उन्होंने ही प्रसिद्ध तबला-वादक पंडित भोलाप्रसाद सिंह को भी संगत के लिए बुला लिया था। जब वह पहले दिन मेरे घर आये थे, मैंने ही द्वार पर चरण-स्पर्श कर उनका स्वागत किया था। चाचाजी ने जब हारमोनियम लेकर पहला सुर साधा--"राम कहो, राम कहो, राम कहो बावरे, अवसर न चूक प्यारे पायो बड़ो दाँव रे....", मैं स्वयं को रोक नहीं सका, यंत्रवत उठ खड़ा हुआ और आगे बढ़कर मैंने चाचाजी के चरण पुनः छुए! चाचाजी को मेरे इस कृत्य पर हैरानी हुई, मेरी ओर आश्चर्य से देखते हुए बोले--"का भइल हो? फेरु काँहें गोड़ लाग तारs ?" (क्या हुआ? फिर क्यों पैर छू रहे हो ?) मैंने कहा--"मेरा ये प्रणाम तो आपके गले में विराजनेवाली देवी सरस्वती को है !" मेरी बात सुनकर उनके मुख पर एक मीठी मुस्कान खेल गयी ! उनकी वह आश्चर्य-मिश्रित मधुर मुस्कान वाली मुद्रा मैं कभी भूल न सका।
साधनाजी मधुरकंठी तो थीं ही, सुघड़ शिष्या भी थीं। ब्रह्मदेव चाचा के शिक्षण का परिणाम यह हुआ कि बाद के दिनों में उनके गायन में भी कबीर के निर्गुण और रैदास, नानक, विद्यापति के भजनों में चाचाजी के स्वरों की बारीकियाँ प्रकट होने लगीं, वही मनमोहक अनुगूँज सुनाई देने लगी। चाचाजी ने दो वर्षों में साधनाजी के स्वरों में भी नए और मर्मबेधी रंग भर दिए थे, यह कहने में मुझे संकोच नहीं है। सप्ताह में तीन दिन मेरा घर साहित्य और संगीत की जुगलबंदी का मुग्धकारी मंच बनता रहा--एक कमरे में ब्रह्मदेव चाचा के स्वर गूंजते तो दूसरे कक्ष में पिताजी की साहित्यिक गोष्ठियों की मर्मर ध्वनियाँ! हाय, वे मनहर दिन पलक झपकते बीत गए...!
एक शाम ब्रह्मदेव चाचा संगीत-शिक्षण के लिए घर पधारे, वह साधनाजी का जन्म-दिन था। जब उन्हें खाने के लिए केक और मिठाइयाँ दी गयीं और बताया गया कि आज साधना का जन्म-दिन है, तो उन्होंने यूँ ही पूछ लिया--'आज कौन-सी तारीख है ?' उन्हें बताया गया कि आज ४ अप्रैल है तो उल्लसित होकर बोले--'फिर तो आज मेरा भी जन्म-दिन है।" उसी दिन यह राज़ फ़ाश हुआ कि गुरु-शिष्या की जन्म-तिथि एक ही है। लेकिन, यह निरासक्ति उनके स्वभाव की अनूठी विशेषता थी।
१९९५ में साधनाजी के नौकरी पर पटना से दूर, दूसरे शहर, चले जाने से और पिताजी के दुनिया से कूच कर जाने से साहित्य और संगीत का वह नशेमन ध्वस्त हो गया, लेकिन मेरी श्रीमतीजी आज भी श्रद्धानमित होकर ब्रह्मदेव चाचा का स्मरण-नमन करती हैं ! आज भी, कभी-कभी, उनके निर्गुण और भजनों के स्वर गूँजते हैं हमारे मन में, मेरे घर-आंगन में... !
ब्रह्मदेव चाचा ने अपने जीवन में पर्याप्त लोकप्रियता अर्जित की थी, यथेष्ट सम्मान पाया था, जन-जन की प्रीति प्राप्त की थी, किन्तु इसी ज़िन्दगी ने उन्हें गहरे आघात भी दिए थे। सबसे बड़ा आघात वह था, जब काल-मूसल ने उनके युवा कनिष्ठ पुत्र को एक दिन औचक ही कुचल दिया था। वह विक्षिप्त कर देनेवाला वज्राघात था! ऐसे कठिन काल में भी कबीर के शब्दों और उनके स्वरों ने ही उन्हें सहारा दिया था, सम्हाला था उन्हें और उनके कण्ठ से फूट पड़े थे कबीर के शब्द--"रहना नहिं देस बिराना है...!"
जीवन के चौथेपन में ब्रह्मदेव चाचा को अपनी सहधर्मिणी के विछोह की पीड़ा भी सहनी पड़ी थी। दुःख की उस घडी में (श्राद्ध के दिन, शाम के वक़्त) मैं वहाँ उपस्थित हुआ था--देखा, ब्रह्मदेव चाचा निर्लिप्त भावेन दायित्व-पूर्ति में व्यस्त हैं, उनके चेहरे पर फ़िक्र की एक भी वक्र रेखा नही, बस, हल्की शोक-छाया थी; लेकिन जानता था, उनकी मन-वीणा का कोई तार चटख कर टूट गया था...!
ब्रह्मदेव चाचा ने ८६ वर्षों का दीर्घ जीवन जिया था--अपनी ही शर्तों पर, अपने ही अंदाज़ में। पिताजी कहा करते थे--"दीर्घ आयुष्य सहनशीलता की पराकाष्ठा है। यह समझना कठिन है कि दीर्घ जीवन प्रभु का वरदान है या अभिशाप!" ब्रह्मदेव चाचा के सभी निकट मित्र संसार से विदा हो गए थे--अभिन्न मित्र भालचंद्र चाचा, सहपाठी मित्र काश्यप चाचा और पिताजी भी। विछोह की यह आतंरिक पीड़ा उन्हें भी सहनी पड़ी थी। कालान्तर में वह अपने ज्येष्ठ सुपुत्र विनोदनारायण सिंह के पास राँची चले गए थे। मैं जब कभी पटना में उनके अनुज-मित्र कविवर केदारनाथ सिंह (राष्ट्रकवि दिनकर के कनिष्ठ पुत्र) के राजेंद्र नगर स्थित आवास पर जाता, तो उन्हीं से ब्रह्मदेव चाचा के कुशल-क्षेम की जानकारी मुझे मिल जाती।
दिन पर दिन बीतते रहे। मैं श्रीमतीजी की नौकरी के साथ शहर बदलता रहा--पहले नोएडा, फिर पूना। पटना पीछे छूट गया और ब्रह्मदेव चाचा का कुशल-समाचार पाना भी दुस्तर होता गया। तभी, एक दिन (२-२-२०१३ को) पता चला कि शब्दों का मर्म समझनेवाला, भजनों और निर्गुण की आत्मा को गानेवाला, स्वरों का वह चितेरा चला गया। मर्मन्तुद समाचार था। मैं अवसन्न रह गया। रांची में ही उनका देहावसान हो गया था। जाने कितनी पुरानी यादें मन में तैरने लगीं और मस्तिष्क में गूंजने लगे उनके स्वर--"पिया की हवेली, मैं तो चली रे अकेली...!"
संगीत के आसमान में अपने सुरों की जो इंद्रधनुषी छटा ब्रह्मदेव चाचा बिखेर गए हैं, उसके रंग कभी धूमिल नहीं होंगे ! वह ऐसा इंद्रधनुष है जो सदैव आकाश में चमकता ही रहेगा...! शरीर तो मरणधर्मा है, विनष्ट हो जाता है, किन्तु कीर्ति जीवित रहती है--'कीर्तस्य स जीवति....!' ब्रह्मदेव चाचा के स्वरों की यशःकाया हमेशा हमारे बीच रहेगी, हमें अनुप्राणित और सम्मोहित करती हुई...!
(समाप्त)
[चित्र-परिचय : ब्रह्मदेव नारायण सिंह, साधनाजी और मैं... संगीत-शिक्षण के दौर की दुर्लभ छवि...।
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