रविवार, 27 मार्च 2016

माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेसी...?

कानों सुनी, आँखों देखी... (१)

बात बहुत पुरानी है। तब की, जब आलोक-भरे इस संसार को देखने के लिए मैंने आँखें भी नहीं खोली थीं, उसके भी कई-कई बरस पहले की। यह कहानी पिताजी से सुनी थी-मेरी स्मृति में कहीं चिपक कर रह गयी है। आप सुनेंगे? कहूँ कहानी, वही पुरानी... ?

मैंने अपनी पितामही (रामदासी देवी) को बाल्यकाल में देखा था, तब वह ८०-८५ के बीच की रही होंगी। वृद्धावस्था की उस उम्र में भी वह बहुत सुन्दर दिखती थीं, जबकि रुग्ण और शय्याशायी थीं! अत्यंत ममतामयी, मृदुभाषिणी और स्वच्छ-निर्मल मन की महिला! सारा खानदान उन्हें 'भौजी' की जगह जाने क्यों 'भौजा' कहता था, शायद इसलिए कि वह खानदान की सबसे बड़ी बहू थीं! उनकी ननदें और देवर मेरी बड़ी बुआ और पिताजी के हमउम्र थे। पितामही थीं तो वाराणसी की, लेकिन बनारसी भाषा बिसारकर अच्छी भोजपुरी बोलने लगी थीं; क्योंकि उनकी ससुराल की भाषा वही थी। पितामही के सभी बच्चे सुदर्शन और सर्वगुण-संपन्न थे! उद्भट विद्वान, सस्ंकृतज्ञ, सदाचारी और अनुशासनप्रिय कठोर पिता (साहित्याचार्य पं. चन्द्रशेखर शास्त्री) तथा उदार, करुणामयी, ममतामयी माता की छाया में उन सबों की परवरिश हुई थी। पितामही की दो बेटियां थीं--मेरी बड़ी बुआ और छोटी बुआ--दोनों एक-से बढ़कर एक--सुदर्शना! उन दोनों ने अपनी माता के सारे गुण ग्रहण कर लिये थे--मीठा बोलना, परदुःखकातर हो जाना और परोपकार के लिए सदैव प्रस्तुत रहना आदि-आदि।

संभवतः, वह १९२८-३० का ज़माना रहा होगा। तब छोटी उम्र में ही विवाह की परंपरा थी। बालपन में ही छोटी बुआजी (इंदिरा तिवारी) का विवाह बिहार में, भोजपुर के एक गाँव 'चनउर' के सम्भांत तिवारी परिवार में हुआ था। छोटे फूफाजी (रामसकल तिवारी) सरकारी पद (तहसीलदार) पर तो थे ही, उनके पास जोत की बहुत उपजाऊ पर्याप्त भूमि थी! लेकिन, निपट देहाती गाँव था--बहुत पिछड़ा हुआ! उन दिनों दो कोस पैदल या किसी बैलगाड़ी से चलकर ही वहाँ पहुँचना सम्भव हो पाता था। तब विवाह के बाद गौने की प्रथा थी। विवाह के ४-५ बरस बाद छोटी बुआजी का गौना हुआ था। छोटी बहन के स्नेह से बँधे पिताजी प्रायः उनसे मिलने के लिए इलाहाबाद से 'चनउर' जाया करते थे। वह ज़माना ऐसी रूढ़ियों से बँधा था कि नव-वधू के मायके से भी कोई आये, तो उसे तत्काल मिलने की अनुमति नहीं मिलती थी। उसे बाहरी दालान, ओसारे या बैठके में ही रोक लिया जाता था। थोड़ी देर बाद घर की कोई बालिका पीतल के परात में जल लेकर आगंतुक के पास आती थी। लोटे से जल डालकर आगंतुक के पाँव पखारती थी और, यह काम वह पूरे मनोयोग से, परिश्रमपूर्वक, करती थी, जिससे पदयात्रा की थकन मिट जाए! तत्पश्चात, गुड, मिस्री अथवा मनकुन्ती दाना मिश्रित गुड का एक विशेष प्रकार का लड्डू खिलाकर पेय-जल दिया जाता था।

और तो सब ठीक था, लेकिन इलाहाबाद के शहरी माहौल से आये पिताजी को ये पद-पखारन और पद-चम्पन बहुत अखरता था! फिर भी छोटी बहन की नयी-नयी ससुराल में वह कोई आपत्ति दर्ज़ नहीं करते थे! उसके बाद शुरू होती थी पुरुष-प्रधान वर्ग की नीरस चर्चा, जिसमें आगंतुक के परिवार के प्रत्येक बुज़ुर्ग से लेकर बच्चों तक के कुशल-क्षेम की जानकारी ली जाती थी। जिससे यह परिलक्षित हो कि आगंतुक के परिवार के सभी सदस्यों की उन्हें भी बहुत फ़िक्र है! क्या ठिकाना, होती हो; लेकिन ऐसे प्रश्नों में जितनी आत्मीयता झलकती थी, उससे अधिक औपचारिकता ! जो भी हो, गाँव की सोंधी मिट्टी की वह ख़ास तरह की मिठास थी। मर्यादाओं का निर्वाह सजगता से होता था और मेहमानों की बहुत आवभगत होती थी।

आगंतुक बेचारा मन-ही-मन ऐंठता रहता था, मुस्कुराता हुआ सम्बद्ध-असम्बद्ध प्रश्नों के उत्तर देता जाता था, लेकिन अपने जिस स्वजन-परिजन से मिलने को वह आतुर-उद्विग्न होता, उससे मिलने की नौबत न आती थी। आगंतुक की दशा 'दरस को दुक्खन लागे नैन' जैसी हो जाती थी। सुबह के आये हुए व्यक्ति को मन मारकर पहले नाश्ता, फिर भोजन करने तक, बाहर ही रुके रहना पड़ता था। जब दोपहर का चौका-बर्तन सिमट जाता था, तब आगंतुक को गोबर से लिपे-पुते दो बड़े-बड़े आँगन पार करके तीसरे आँगन में ले जाया जाता था। उस तीसरे आँगन में बने अनेक छोटे-छोटे कमरों में एक कमरा उसका होता था, जिससे मिलने की आस लिए बेचारा प्रियजन तड़प रहा होता था।

छोटी बुआजी की ससुराल का घर बिलकुल ऐसा ही था--मिट्टी की मोटी दीवारों तथा फूस-खपरैल की छतों वाला बड़ा-सा घर! पहले आँगन में सानी-पानी की नादों के साथ मवेशियों का अड्डा और अन्न का भण्डार था। दूसरे और तीसरे आँगन में रहाइशी कमरे थे--बड़े-से आँगन के चौतरफे बने हुए! कमरे भी ऐसे, जिनमें खिड़कियां नहीं थीं, हवा-प्रकाश के लिए सिर्फ प्रवेश-द्वार को ही पर्याप्त माना गया था। दिन में भी उस एकलौते द्वार को बंद कर दिया जाए तो कमरे में अन्धकार उपस्थित हो जाता था! लेकिन आश्चर्य, कमरे बहुत शीतल, गोबर से लिपे हुए--परम पवित्रता का बोध देते हुए-से थे । होशगर होने के बाद मैं भी छोटी बुआ के गांव-घर कई-कई बार गया और पिताजी से सुनी हुई इस कहानी की कथाभूमि अपनी आँखों देख आया।

बहरहाल, शुरूआती दिनों में, उपर्युक्त समस्त प्रेममय अत्याचारों को बार-बार सहकर भी पिताजी अपनी छोटी बहन से मिलने वहाँ जाते रहे! ऐसी ही कई मुलाकातों के बाद,एक बार पिताजी प्रचण्ड गर्मी के दिनों में वहाँ सुबह-सुबह पहुँचे तो तीसरे आँगन में पहुँचने में उन्हें दिन के ढाई-तीन बज गए थे। छोटी बुआजी ने एक चारपाई पर चादर डालकर पिताजी को बिठाया और स्वयं दरवाज़े के पास बैठ गयीं। भीषण गर्मी तो थी ही, पूरे आँगन में अरहर की दाल भी फैली हुई थी। पिताजी ने समझा कि दाल की निगरानी के लिए बहन वहाँ बैठ गयी हैं। भाई-बहन में बातें होने लगीं, लेकिन पिताजी की चारपाई से बुआजी थोड़ी अधिक दूरी पर बैठी थीं। सहजता से संवाद हो सके, इसलिए पिताजी ने बुआजी से कहा--'इतनी दूर क्यों बैठी हो, थोड़ा पास आ जाओ!'
बुआजी ने कहा--'ना भइया, एहिजे ठीक बा। तनी हावा लागSता !' (नहीं भैया, यहीं ठीक है, थोड़ी हवा लग रही है)

फिर तो घर-परिवार की बातें शुरू हो गयीं और एक-डेढ़ घंटा कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला। अचानक पिताजी ने देखा कि बुआजी आहिस्ता-आहिस्ता थोड़ा अंदर सरक आई हैं। पहले तो बुआजी ने एक पल्ला धीरे-से भेड़ा, फिर दूसरा भी बंद करने लगीं। जैसे-जैसे दूसरा पल्ला बंद होता जा रहा था, वैसे-वैसे कमरे में अँधेरा बढ़ रहा था। पिताजी ने पूछा--'दरवाज़ा क्यों बंद कर रही हो?'
बुआजी ने अपनी एक उँगली होठों पर रखकर पिताजी को चुप रहने का इशारा किया, फिर पिताजी के थोड़ा पास सरककर बोलीं--' भइया, चुपे रहS !' (भैया, चुप ही रहिये।)
पिताजी ने पूछा--'कांहें ?' (क्यों?)
बुआजी ने बहुत राज़दारी से धीमी आवाज़ में कहा--'जानत नइखS, पटिदारिन रहरिया चोरावSतिया, हमरा देखि लीही तS लजा जायी !' (आप नहीं जानते, पट्टिदारिन अरहर की दाल चुरा रही है, मुझे देख लेगी तो लज्जित हो जायेगी!)
उनकी बात सुनकर पिताजी विस्मित हुए और उन्होंने पूछा--'दाल किसकी है?'
बुआजी सतर्कता के साथ मंद स्वर में बोलीं--'रहरिया तS हमरे हS, बाकिर लेइओ जाई, तS केतना ले जाई ? ओकरा मनसान्ति से ले जाय दS ! हमरा कछु घटी ना !' (दाल तो हमारी ही है, लेकिन वह ले भी जायेगी तो कितनी? उसे मनःशान्ति से ले जाने दीजिये। मेरा कुछ घटेगा नहीं।)
 
पिताजी तो आश्चर्य से अवाक रह गए। छोटी बुआजी की कही यह बात वह आजीवन नहीं भूले। जब कभी यह कथा वह किसी को सुनाते, तो अंत में कबीर के इस सूफ़ियाना पद का उल्लेख करना नहीं भूलते--'जो घर जारै आपना, चले हमारे संग...!'

पितामह और दादीमाँ के दिये संस्कार उस दिन खुलकर बोल उठे थे। लेकिन सोचता हूँ, इस मायामय संसार में आज ऐसी विभूतियाँ कितनी होंगी...?
[--आनन्दवर्धन ओझा.]
[चित्र : श्रद्धेया दादीमाँ, जिनकी मधुर-मनोहर स्मृतियों से मन कभी मुक्त नहीं हुआ! सन १९६३-६४ का चित्र!]

मंगलवार, 22 मार्च 2016

।।कष्ट-कथा।।
'क्या ज़रूरी था, दाढ़ तोड़ के जाना तेरा,
माना, तू नरमदिल न हुआ, ठेकुआ मेरा...!'

बिहारी भारत के किसी कोने में रहे, वह अपनी प्रवृत्ति से विवश रहता है। गर्मियों में उसे चाहिए आम-लीची-बेल, हर मौसम में सत्तू, सुबह के नाश्ते में जलेबी-कचौड़ी-घुघनी और शाम के वक़्त भूँजा ! गाय-बकरी की तरह दिन-भर जुगाली करने को चाहिए मगही पान और सुगन्धित तम्बाकू! छठ-व्रत के समय ठेकुए-खजूर के लिए उसका जी मचलता है और होली के मौसम में गुझिया-पेडुकिया के लिए उसकी आत्मा ऐंठने लगती है! और, किसी भी दशा में प्रतिदिन रीति-नीति-राजनीति तथा साहित्य पर बतकुच्चन के लिए उसे चाहिए मित्रों-संघतियों की एक टोली, अपने बहुत करीब !
अजीब जीव होता है बिहारी--मेहनतकश, श्रमजीवी और हठी भी! किसी भी काम के लिए तत्पर, यह कहता हुआ--"होइबे नहीं करेगा? अरे, होगा कइसे नहीं?" और बिहार-रत्न कविवर दिनकर लिख भी तो गए हैं--
'ख़म ठोंक ठेलता है जब नर,
पर्वत के जाते पाँव उखड!
मानव जब जोर लगता है,
पत्थर पानी बन जाता है!!'
दिनकरजी की इस ललकार की अनसुनी कर देनेवाला भला बिहारी कैसे हो सकता है?

उस पर तुर्रा ये कि बिहारी अगर ब्राह्मण हुआ तो उसका विलक्षण मिष्टान्न-प्रेम तो जग-जाहिर है ही! कहा गया है न,'विप्रम् मधुरं प्रियं!' इसी कथन का उल्लेख करते हुए एक बार किसी ने कहा था--'पण्डितजी तो ऐसे मिष्टान्न-प्रेमी होते हैं कि गुड़ का एक टुकड़ा कहीं डाल दीजिए, पंडितजी वहीं चिपके मिलेंगे!' मुझे लगता है, भलेआदमी ने बहुत गलत नहीं कहा था। ....

पिछले साल अक्टूबर में, छठ पूजा के बाद, आस लगी रही कि बिहार से कोई-न-कोई आएगा, छठ के ठेकुए लाएगा--पांच-दस मुझे भी प्रसाद के रूप में दे जाएगा। सो, प्रतीक्षारत रहा और पलटते पन्नों की तरह दिन बीतते रहे, बिहार से कोई भलामानुस आया ही नहीं और ठेकुए की लालसा में जी मचलता रहा, आत्मा ऐंठती ही रही।
आख़िरश, एक दिन बिहारी का ब्रह्मतेज जागा, हठधर्मी, श्रमजीवी और स्वाबलम्बी जो ठहरा ! श्रीमतीजी विद्यालय गयी थीं। पूरे घर में मेरा साम्राज्य था। मैंने गुड़ की भेली उठाई। भई, पुणे का गुड़ था--पत्थरदिल था ! तोड़े न टूटता था। मैंने उसे नरमदिल बनाने के लिए धीमी आँच पर पानी में डालकर चढ़ा दिया। बगल के कमरे में टी.वी.ऑन था। बिहार से संबंधित महत्त्व का एक समाचार कानों पड़ा तो मैं दूसरे कमरे में दाखिल हुआ और समाचार सुनाने लगा ! अचानक गुड का ख़याल आया। किचेन में दौड़कर पहुँचा। पत्थरदिल गुड़ तो मोम-सा पिघलकर लेई बन गया था और खौल रहा था। मैंने शीघ्रता से बर्नर बुझाया और आंटे में उसे मिलाकर हाथ जला-जलाकर गूँथने लगा। खोजकर पटनहिया साँचा निकाला और उस पर परिश्रमपूर्वक आंटे की छोटी-छोटी गोलियों को ठेकुए की आकृति में ढालने लगा। जैसे-जैसे गुँथा हुआ आँटा ठंढा होता जा रहा था, वैसे-वैसे वह पथराता जा रहा था। अब तो साँचे पर दबने में भी उसे आपत्ति थी! मेरे हठी और श्रमजीवी मन ने हठ न छोड़ा ! बिहारी के स्वाभिमानी मन में दो ही वाक्य गूँज रहे थे--'तू है बिहारी, तो कर परिश्रम ! हार गया, तो बिहारी कैसा?'

लीजिये हुज़ूर, घंटों श्रम का प्रतिफल हुआ कि अब शक्लो-सूरत से ठेकुए तैयार थे, बस, उन्हें रिफाइंड में डूब-उतरा कर और थोड़ी देर नर्त्तन कर कड़ाही से बाहर आना भर था! श्रीमतीजी के विद्यालय से लौट आने के पहले ही यह कृत्य भी पूरा हुआ! ठेकुए तो देखते ही बनते थे--तले हुए लाल-लाल, सोंधे-कुरकुरे ठेकुए! लेकिन अभी गर्म थे, मुँह में डाल लेने का रिस्क कौन लेता ? सुविज्ञ बिहारी तो हरगिज़ नहीं !!

ठेकुए के शीतल होने की प्रतीक्षा हो ही रही थी कि श्रीमतीजी आ पहुँचीं ! घर में पाँव रखते ही चहकीं--"क्या बना है घर में ? बड़ी सुगंध आ रही है। क्या बनाया है 'मेड' ने ?"
मैंने गौरव से भरकर कहा--ठेकुए बनाये हैं मैंने--खास्ते और कुरकुरे--टुह-टुह लाल!'
श्रीमतीजी को सहसा विश्वास नहीं हुआ, विस्फारित नेत्रों से मुझे घूरते हुए बोलीं--'आपने?'
मेरा जी तो अगराया हुआ था--छाती ठोंकते हुए मैंने कहा--'हाँ भई, मैंने !'
दो-तीन घण्टों बाद ठेकुएजी ठंडे पड़े, एक मैंने, एक श्रीमतीजी ने मुश्किल से खाए। मेरा मन रखने को श्रीमतीजी ने नरमदिली से कहा--'मोयन नहीं डाला क्या? ठेकुआ थोड़ा कड़ा हो गया है।'
मैं भला क्या कहता? 'मोयन' शब्द से पहली बार मुलाकात जो हुई थी!

दूसरे दिन जब ठेकुए बिलकुल ठण्डे पड़ गए। मैं बड़ी हसरत से उनके पास गया। थोड़ी देर तक निहारता रहा उन्हें ! दिखने में तो वे बहुत सुदर्शन थे, आकर्षित करते थे अपनी ओर, किन्तु पुणे के गुड की तरह पत्थरदिल हो गये थे रात-भर में! मन मारकर रह गया, दाँत से उसका एक टुकड़ा भी काट लेना असंभव था ! मेरा सारा उत्साह भी ठण्ढा पड़ने लगा।
सप्ताह-भर में श्रीमतीजी ने ऐलानियाँ घोषणा कर दी कि ये ठेकुए असाध्य-असंभव खाद्य-सामग्री हैं! उन्होंने स्टील का एक बड़ा कटोरदान ठेकुओं से भरकर कबर्ड के किसी एकांत में झोंक दिया और शेष ठेकुओं को एक पॉलिथीन में भरकर कामवाली बाई को दे दिया, इस हिदायत के साथ कि लोढ़े से तोड़-कूचकर अपने बच्चों को खाने को दे! बाई तो खुश हुई, लेकिन मिष्टान-प्रेमी बिहारी का मन मुरझा गया! वह सोचता ही रहा कि जिन ठेकुओं के लिए स्वयंपाकी बना, उनकी रक्षा वह कैसे करे?
लेकिन एक-डेढ़ महीना बीत गया, ठेकुए तो मन से उतर ही गए थे, यादों की गलियों में कहीं खो भी गए।

वह जनवरी का महीना था! उस दिन भी घर पर मेरा ही आधिपत्य था। जैसे चूहा किसी खाद्य-सामग्री के लिए घुरियाता है, ठीक वैसे ही सुबह के जलपान के बाद किसी मीठी सामग्री की तलाश में भटकता हुआ मैं कबर्ड में रखे कटोरदान तक जा पहुँचा! बहुत दिनों के बाद उन्हें देखकर मन में हर्ष की लहर दौड़ गई! मैंने एक ठेकुआ उठाया और बांयीं दाढ़ से तोड़ने की कोशिश की। वज्र ठेकुआ काहे को टूटता? मैंने बायीं दाढ़ से भरपूर जोर लगाया और तभी दायीं दाढ़ में कनपटी के पास नगाड़े बज उठे--'कड़-कड़-कड़'! दिन में तारे देखने का सुख तो मिला, लेकिन असहनीय पीड़ा भी हुई! दायें कल्ले पर हाथ रखकर अपनी चौकी पर धम्म-से जा बैठा।
दोपहर में जब श्रीमतीजी आयीं, तब तक तो दायें जबड़े पर सूजन आ गयी थी! उन्होंने मेरी हालत देखी तो दाँतों तले अपनी ऊँगली दबा ली, फिर गुस्से से बोलीं--'इन नामुराद ठेकुओं पर मुँह मारने की क्या जरूरत थी? मैं तो इन्हें फेंकने ही वाली थी!' मैं अपने मिष्टान्न-प्रेम पर शर्मिन्दा होने के सिवा और कर भी क्या सकता था!
दूसरे दिन दन्त-चिकित्सक के पास गया और महीने-भर की दवाएँ लेकर लौट आया! दवाओं के सेवन से तात्कालिक आराम तो हुआ, लेकिन मेरा मुँह तो कड़कड़डूमा की अदालत बन गया है !


मित्रो, वह एक अकेला ठेकुआ मुझे कम-से-कम एक हजार रुपये का तो पड़ ही गया और जबड़े का दर्द अपनी जगह कायम है ! आज भी कुछ खाता हूँ तो दायाँ जबड़ा 'कड़कड़-कड़कड़' बोलता है। लगता है, लोहे के चने चबा रहा हूँ! लेकिन बिहारी तो बिहारी ठहरा--ज़िद्दी, श्रमजीवी और संघर्षशील! उसका पान और ठेकुआ-प्रेम आज भी यथावत बना हुआ है !...लेकिन, सोचता हूँ, क्या ज़रूरी था मेरी दाढ़ तोड़ के जाना उसका? ....जाने अब कब मिलेगा पथराए ठेकुओं की जगह मीठा, मुलायम, खस्ता और कुरकुरा ठेकुआ...!
[--आनन्दवर्धन ओझा]