बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

धूमकेतु-से चमके आचार्य नलिन...


[समापन क़िस्त]

पिताजी-नलिनजी की मित्र-मंडली वैसे तो बहुत बड़ी थी, लेकिन उनमें 'मीरा की प्रेम साधना' के प्रसिद्ध लेखक भुवनेश्वर मिश्र 'माधव' और बटुकदेव मिश्रजी को मैं भूल नहीं पाता। बटुकदेव मिश्रजी सिद्ध तंत्र-साधक और ज्योतिष के अच्छे ज्ञाता थे। उनकी भविष्यवाणियां हमेशा सत्य सिद्ध होती थीं। एक बार वे माधवजी के साथ घर आये और पिताजी की बैठक में बातचीत के दौरान अचानक उन्होंने बहुत क्षोभ के साथ कहा था--"इन दिनों नलिनजी के लिए बहुत चिंतित हूँ। इकसठ का वर्ष उनके लिए अच्छा नहीं है। यह वर्ष वह निकाल ले गए तो दीर्घ जीवन व्यतीत करेंगे और साहित्य और समाज की भरपूर सेवा कर सकेंगे, लेकिन ऐसा होता मुझे दीखता नहीं। मेरी पीड़ा यह है कि मैं उनसे इस बारे में कुछ कह भी नहीं सकता, लेकिन ह्रदय से चाहता हूँ कि मेरा कथन असत्य सिद्ध हो जाए।"...इतना कहकर वह लगभग रो पड़े थे और पिताजी बस यह कहकर अवसन्न रह गए थे--"ऐसा न कहिये बटुकदेवजी...!" यह चर्चा मेरी उपस्थिति में हुई थी। नलिनजी को छोड़कर उनके निकटस्थ और आत्मीय मित्रों में यह भविष्यवाणी बेचैनी का सबब बनी रही। लेकिन मौत को तो नलिनजी के पास दबे पाँव आना था। वह निर्मम आ धमकी १२ सितम्बर १९६१ को। अचानक हृदयाघात से आचार्य नलिन ने असार संसार छोड़ दिया। साहित्याकाश में धूमकेतु-से चमके थे आचार्य नलिन और अपनी विद्वत्ता की विलक्षण चकाचौंध, अनोखी चमक बिखेरकर विलुप्त हो गये थे।

पिताजी उनकी अंत्येष्ठि में सम्मिलित हुए थे। 'नई धारा', पटना के 'नलिन-स्मृति अंक' में उन्होंने एक लंबा संस्मरण नलिनजी पर लिखा था, जिसमें उनकी शव-यात्रा का मार्मिक वृत्तांत है--"उस दिन जैसे सारा शहर ही उमड़ आया था उनके घर। और उस बड़ी भीड़ में कौन नहीं था? छात्र-अध्यापक तो थे ही, कवि और लेखक थे, पत्रकार और व्यवसायी थे, अफसर और राजनेता थे, धनी और गरीब थे। और सबसे अलौकिक जो बात थी, वह यह कि सभी लोग यह अनुभव कर रहे थे कि बिछड़नेवाला यह व्यक्ति उन्हीं का सबसे अपना, सबसे सगा, सबसे प्रिय रहा हो। मुझे लगता है, नलिन का सबसे बड़ा अर्जन यही था। उन्होंने जन-जन के मन को कब, किस तरह, किस कौशल से, इस प्रकार जीत लिया था, यह सोचकर वस्तुतः आश्चर्य होता है। नालिन ने विद्या का, यश का, सम्मान का चाहे जितना अर्जन किया हो, उन्होंने अगणित लोगों के मन की जो अनिर्वचनीय प्रीति अर्जित की थी, उसकी तुलना नहीं की जा सकती।"

नलिनजी के बाद भी कुमुदजी ने पिताजी से आजीवन संपर्क बनाये रखा। वे नलिनजी के यत्र-तत्र बिखरे लेखन को समेटती-सहेजती रहीं और परामर्श के लिए पिताजी के पास आती रहीं। १९९५ में पिताजी के निधन के बाद जब वे घर आयीं तो उन्होंने पिताजी की बीमारी से दिवंगत होने के दिन तक की सारी कथा विस्तारपूर्वक मुझसे पूछ-पूछकर सुनी थी, फिर कहा था--"यह सारा वृत्तांत किसी डायरी में लिख रखिये। समय के साथ स्मृतियाँ धुँधली पड़ जाती हैं। मैंने भी इनके (नलिनजी) बारे में सबकुछ कहीं लिखा रखा है। उस दिन, नलिनजी के गुज़र जाने के ३४-३५ वर्षों बाद भी, कुमुदजी की आँखों में मैंने पहली बार नमी देखी थी, मर्माहत हुआ था और मेरी ही कुछ काव्य-पंक्तियाँ मेरे मन में घुमड़ने लगी थीं--
"खिंची हुई प्रत्यंचा से
जब छूटा वह शर
लक्ष्य भेदकर भटक गया वह,
जाने किस पथ कहाँ गया वह...।"
[समाप्त]

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

धूमकेतु-से चमके आचार्य नलिन...

[तीसरी क़िस्त]

पिताजी के प्रति नलिनजी का अनुज-भाव ऐसा प्रबल था कि वे पिताजी को देखते ही उठ खड़े होते थे। एक बार वे किसी सभा की अध्यक्षता कर रहे थे, तभी पिताजी ने सभा-भवन में प्रवेश किया। पिताजी को देखते ही नलिनजी उठ खड़े हुए। पिताजी के बैठ जाने के बाद ही वे आसनासीन हुए। पिताजी को उनका यह अभ्युत्थान उचित नहीं जान पड़ा। उन्होंने सभा की समाप्ति पर एकांत में नलिनजी से कहा था--"आप सभा में नलिन ही नहीं थे, अध्यक्ष भी थे। यह तो आदर देने की पराकाष्ठा हुई। सभा-भावन में अध्यक्ष सर्वोच्च आसन पर होता है। उसका किसी के लिए भी उठ खड़ा होना उचित नहीं है।" नलिनजी ने पिताजी की बात शांति से सुनी, फिर अपनी गम्भीर शालीनता से बोले--"सम्भवतः आप उचित ही कह रहे हैं, लेकिन आपके आदेश का पालन करना मेरे लिए अब कठिन है; क्योंकि ऐसे आचरण की मुझे आदत पड़ चुकी है।" पिताजी हंसकर चुप रह गए थे!

नलिनजी ऐसे ही थे, जिन्हें आदर देते, भरपूर देते; जिनपर स्नेह लुटाते, दिल खोलकर लुटाते; जिनकी मदद को आतुर हो जाते, उनके लिए किसी भी हद तक जाने को तत्पर रहते। वे बड़ों के प्रति विनयी और अत्यंत शिष्ट थे, लेकिन किसी अनुचित बात का प्रतिकार करने से कभी नहीं चूकते थे। कठोर व्यंग्य भी उनकी ज़बान से ऐसी प्रच्छन्न तहों में लिपटा उद्धृत होता कि जिसपर आक्रमण होता, उसे भी समझने में वक़्त लग जाता कि यह प्रहार उसी पर हुआ है।

नलिनजी ने बहुत पढ़ा था, मर्मस्पर्शी कहानियाँ लिखी थीं। उनकी कहानी 'विष के दाँत' को कालजयी कथा का गौरव मिला था। उन्होंने निबंध लिखे, कविताएँ लिखीं, अनेक ग्रंथावलियों का सम्पादन किया और सम्पादकीय आलेख लिखे। आलोचना-समालोचना तो उनकी सहज लेखनचर्या-सी थी। इन सब में उनकी कलम का जादू सिर चढ़कर बोलता है, सबमें उनकी निजस्विता की गहरी छाप है। उन्होंने कविता में एक नए वाद की स्थापना की थी--'नकेनवाद' की। हिंदी काव्य-साहित्य के विवेचन-विश्लेषण में जिसकी चर्चा आज भी अनिवार्यतः होती है। उनकी क्षणिकाओं, उनके सॉनेट की विद्वद्जन मीमांसा और अर्थविन्यास ही करते रह जाते थे।

तत्कालीन मूर्धन्य लेखकों, कवियों-कथाकारों में नलिनजी की प्रशंसा पाने की होड़ मची रहती थी। मुझे याद है, बाल्यकाल में मेरे छोटे चाचा स्व. भालचंद्र ओझाजी की एक कहानी 'कतार के पैर' की उन्होंने आकाशवाणी, पटना पर एक वार्ता में भूरि-भूरि प्रशंसा की थी, जिसे सुनकर छोटे चाचा प्रफुल्लित हो उठे थे। तब मैं बहुत छोटा था, किन्तु पिताजी की छाया बना उन्हीं के कक्ष के आसपास मँडराता रहता था। अतः पिताजी और नलिनजी की ऐसी कई प्रियवार्ताएँ मैंने सुनी थीं, जिनमें इन्हीं साहित्यिक विषयों पर बातें होती थीं। छोटे चाचाजी की कहानी की अतिशय प्रशंसा सुनकर एक दिन पिताजी ने नलिनजी से कहा था--"भालचंद्र की कहानी की आपने आत्यंतिक प्रशंसा की है। ज़रा सँभल के, कहीं ऐसा न हो कि इस प्रशंसा से उनका दिमाग फिर जाए।" पिताजी की बात सुनकर नलिनजी हमेशा की तरह मुस्कुराये और बोले--"मैं प्रशंसा, भर्त्सना या कटु आलोचना नहीं करता। रचना जैसी होती है, मेरी कलम उसे वैसा ही महत्व-सम्मान देती है। भालचंद्र में कहानी-लेखन की अद्भुत प्रतिभा है और यह कहानी तो नई बुनावट में कही गई सचमुच अनूठी कथा है। मैं मखमल को टाट कैसे कह दूँ ?" नलिनजी की प्रशंसा श्रेष्ठ लेखन के प्रमाण-पत्र की तरह थी। आमतौर पर लोग आलोचनाएं पचा नहीं पाते हैं, लेकिन नलिनजी द्वारा की गई कटुतम आलोचनाएं भी कुनैन की गोली पर मीठी चाशनी चढ़ी-सी होती थीं और उन्हें नतशिर होकर सर्वत्र स्वीकार किया जाता था।

[क्रमशः]

सोमवार, 17 फ़रवरी 2014

धूमकेतु-से चमके आचार्य नलिन...

[दूसरी क़िस्त]

आचार्यश्री को मैंने अपने बाल्यकाल में कई बार निकट से देखा था, बहुत कुछ न समझते हुए भी उनकी बातें सुनी थीं और उनकी दिव्य मूर्त्ति को नमन किया था--दीर्घ काया, उन्नत ललाट, खड़ी नासिका जिसपर शोभायमान काला चश्मा और उससे झांकती तीक्ष्ण आँखें। देह-यष्टि के अनुरूप ही वे हृष्ट-पुष्ट थे, स्थूल होने का भ्रम देते हुए-से। खालता पायजामा और घुटनों से नीचे तक झूलता श्वेत कुर्ता धारण करते थे। गुलाबी ठण्ड हो तो वे एक ऊनी चादर शरीर पर डाल लेते थे, जो उनकी विराट काया पर बहुत शोभा पाती थी। उनके धीर-गम्भीर मुख-मंडल पर एक सहज मुस्कान सदैव बनी रहती थी। धूमपान का एकमात्र व्यसन उन्होंने पाल रखा था,लेकिन पिताजी की उपस्थिति में वे परहेजी बन जाते थे। अगर कभी पिताजी की उपस्थिति दीर्घकालिक हुई, तो वे अगल-बगल खिसकने का उपक्रम करते दीखते थे।

मैंने जब से आचार्य नलिन को देखा-जाना था, वह पटना विश्वविद्यालय के हिंदी-विभागाध्यक्ष थे। वे हिंदी आलोचना-साहित्य के शीर्षस्थ पुरुष थे। उनकी टिप्पणियाँ, व्यंगोक्तियाँ, संस्तुतियां और उनके कटाक्ष सर्वस्वीकृत थे--'आचार्य वाक्यं प्रमाणम्' की तरह!

मुझे याद है, गर्मियों के दिन में आकाशवाणी, पटना से लौटते हुए वे अक्सर पिताजी की खुली कार में बैठकर घर आ जाते थे। चाय पीते, फिर पिताजी के साथ एक्जीबिशन रोड वाले अपने घर लौट जाते थे। ऐसे कई अवसरों का स्मरण मुझे इसलिए है, क्योंकि पिताजी की गाड़ी का सेल्फ प्रायः रूठा रहता था और उसे हैंडल रॉड से स्टार्ट करने का दायित्व हमेशा मुझे ही सौंपा जाता था। जब पिताजी नलिनजी के साथ कार में बैठ जाते और गाड़ी स्टार्ट करने की तमाम चेष्टाएँ निष्फल हो जातीं, तब मुझे पुकारा जाता। मैं गाड़ी के मुख में हैंडल डालकर कई बार घुमाता, तो मानिनी का मान भंग हो जाता और वह चल पड़ने को तैयार हो जाती। नलिनजी के घर पर साहित्यिक मित्रों का जमघट होता था और नैश साहित्यिक गोष्ठियां देर तक चलती थीं। पिताजी ९-१० बजे तक घर लौट आते थे, लेकिन गोष्ठी आधी रात तक जमी रहती थी।

नलिनजी पर दायित्वों का बहुत बोझ था--विश्वविद्यालय के विभागाध्यक्ष की जिम्मेदारियां, हिंदी साहित्य सम्मलेन के महामंत्री का दायित्व, बद्रीनाथ सर्वभाषा महाविद्यालय के प्राचार्य पद का बोझ, 'साहित्य' एवं 'कविता' नाम की दो-दो पत्रिकाओं का सम्पादन-भार...और इतना कुछ जैसे नाकाफी हो, सुबह से देर रात तक आगंतुकों की भीड़, जिनकी समस्याओं के समाधान का मार्ग नलिनजी के हस्तक्षेप से ही प्रशस्त होता था। उनका कक्ष पुस्तकों, पांडुलिपियों, उत्तर-पुस्तिकाओं, पत्र-पत्रिकाओं से भरा रहता था। वे उन्हीं में डूबे रहते थे दिन-रात! वे सच्चे अर्थों में विद्वान् व्यक्ति थे, विद्या-विलासी थे...!

आचार्य नलिन की गृहस्वामिनी श्रीमती कुमुद शर्मा विदुषी, मृदुभाषिणी और बिहार की पहली चित्रकार महिला थीं। उन्होंने एक्जीबिशन रोड वाली कोठी में ही एक विद्यालय की स्थापना की थी--'रत्नावती विद्या-मंदिर'। मुझे याद है, एक बार उनके विद्यालय में 'फेट' का आयोजन था। मैं माता-पिताजी के साथ उसमें सम्मिलित हुआ था और वहाँ जितने प्रकार के खेल के स्टाल थे, सबों पर मुझ जैसे खिलंदड़ किशोर ने प्रथम पुरस्कार जीता था। उस दिन नलिनजी ने मेरी पीठ थपथपाई थी, शाबाशी दी थी और कहा था--"खेलों में अव्वल आना अच्छी बात है, लेकिन पढ़ाई में भी अपनी वही जगह बनाने का ध्यान रखिये।"

[क्रमशः]

चित्र परिचय : बीच में कुर्सी पर बैठे मेरे पिताजी, बाएं से महादेव जोशी (सम्भवतः) नलिनजी और सस्ता साहित्य मंडल, दिल्ली के मंत्री मार्तण्ड उपाध्यायजी.

रविवार, 16 फ़रवरी 2014

धूमकेतु-से चमके आचार्य नलिन...

[18 फरवरी को आचार्य नलिनविलोचन शर्माजी की जयंती है. वे हिंदी-काव्यालोचन और आलोचना-साहित्य के शिखर-पुरुष थे! जब मैं कुल 9 वर्ष का था, वे 1961 में संसार छोड़ गए थे...! अपने बाल्य-काल की कुछ खट्टी-मीठी यादों को मैंने 'धूमकेतु-से चमके आचार्य नलिन' नामक संस्मरण में सहेजा है.  उसी की पहली क़िस्त... आनंद]


मैं जानता हूँ और मानता भी हूँ कि आचार्य नलिनविलोचन शर्मा-जैसे विराट व्यक्तित्व पर कुछ लिखने की योग्यता-पात्रता मुझमें नहीं है, फिर भी मेरी स्मृतियों में उभरता है उनका दैदीप्यमान चेहरा.… बार-बार ! बहुत थोड़ी-सी बातें हैं मेरे पास, जिन्हें लिखकर मैं स्मृति-तर्पण करना चाहता हूँ।

अलौकिक प्रीति अर्जित करनेवाले आचार्य नलिन संस्कृत और दर्शन के प्रकांड विद्वान् पिता के यशस्वी सुपुत्र थे। उनके पिता महामहोपाध्याय पं रामावतार शर्मा मेरे पितामह (साहित्याचार्य पं चंद्रशेखर शास्त्री) के सहपाठी गुरुभाई थे। उन दोनों के बीच प्रगाढ़ मित्रता थी, जिसे दोनों ने आजीवन निभाया था। दोनों संस्कृत के उद्भट विद्वान् थे और वार्तालाप संस्कृत में करते थे तथा तत्कालीन अनेक साहित्यिक पुरस्कार-समितियों के परीक्षक-निर्णायक हुआ करते थे। यह दैव-विधान ही था कि दोनों अल्पजीवी हुए। मेरे पितामह ने ५१ वर्ष की आयु में और महामहोपाध्याय ने ५२ वर्ष की अल्पायु में शरीर-त्याग किया था, किन्तु दोनों ने अपने जीवन-काल में ही अपने-अपने पुत्रों को प्रीति की जिस डोर से बांध दिया था, वह डोर १९६१ में तब टूटी, जब ४५ वर्षों की छोटी-सी जीवन-यात्रा पूरी कर आचार्य नलिन संसार छोड़ गए।

बात पुरानी  है, सम्भवतः १९२२-२३ की। सूर्य का प्रकाश देखने के लिए तब तक मैं दुनिया में आया नहीं था। खड्गविलास प्रेस, पटना से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका 'शिक्षा' के सम्पादन का दायित्व जब मेरे पितामह उठा रहे थे और आचार्य नलिन के पिताश्री 'संस्कृत कोश' के प्रणयन में दत्तचित्त होकर लगे हुए थे, तब दोनों मित्र संयोग से पटना के एक ही भवन में आ जुटे थे। तब पिताजी की उम्र मात्र १२ वर्ष थी और नलिनजी ६ वर्ष के थे। इस तरह मेरे पिताश्री (पं. प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त') नलिनजी से उम्र में ६ वर्ष बड़े थे। वयोज्येष्ठता का यथेष्ट आदर और सम्मान नलिनजी पिताजी को बड़ी सावधानी से जीवन भर देते रहे और अपनी किशोरावस्था में बालक नलिन को पिताजी ने जो एक बार 'बबुआजी' कहा तो वे आजीवन उन्हें इसी सम्बोधन से पुकारते रहे...!

मैं सोचता हूँ और हैरान होता हूँ। हैरान होता हूँ कि जिन लोगों को प्रभु यशःकाय बनाते हैं, जिन्हें अलौकिक प्रीति अर्जित करने का अधिकारी बनाते हैं, विद्वत्ता के शीर्ष आसान पर बैठने के योग्य बनाते हैं, जिन्हें साहित्य और समाज को सवांरने का दायित्व सौंपते हैं, जिन्हें तपोनिष्ठ जीवन व्यतीत करने की योग्यता प्रदान कर एक विभूति बना देते हैं, उनका जीवन क्षीण क्यों कर देते हैं? यह प्रश्न मेरे मन में बार-बार उठता है, लेकिन उसका कोई उत्तर मुझे नहीं मिलता, प्रश्न यथावत खड़ा रहता है। मेरे पितामह, महामहोपाध्याय और नलिनजी ने अल्पकालिक जीवनावधि में जो कुछ अर्जित किया, वह श्लाघनीय ही कहा जा सकता है।
[क्रमशः]

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

तुम आते एक बार...


मेरी देहरी पर आकर
क्यों ठिठक गए थे तुम..?
तुम्हारे हाथों ने
क्यों नहीं बजायी थी सांकल ?
क्या हवाओं ने थाम ली थी तुम्हारी कलाई
या मन के किसी अवगुंठन ने
रोक दिया था तुम्हें...?

मैं तो मन की खिड़की
खोले बैठा था,
द्वार भी खुला था
बस, पल्ले भिड़े थे...
बीच की दरार से
बेख़ौफ़ आती-जाती थी हवाएं,
विषैले मच्छर,
गुनगुनाती मक्खियां
और डंक मारती सुधियाँ...!

तुम्हें तो बस थपकी भर देनी थी,
खुल जाता द्वार
तुम आ जाते निर्विकार
खौलता हमारे बीच
फिर कोई नया विचार
या दमित प्यार
अथवा बढ़ जाती और दरार...
बंधु, तुम आते तो एक बार...!!

बुधवार, 12 फ़रवरी 2014

प्रहार की प्रतिध्वनियाँ...


नयी बहस में
बीच सड़क पर
ठहर गई है ज़िन्दगी
और एक अजनबी ज़बान में
बोलने लगी है,
तुम कैसे समझोगे उसकी बात?
जानता हूँ तुम्हारी मजबूरी,
फिर भी ज़िन्दगी की नयी ज़बान को
समझना है ज़रूरी...!

क्या ये अजनबी ज़बान
अनजानी ही रह जायेगी
या सुनहरा हर्फ़ बनकर
किसी बियाबान में
दफ्न हो जायेगी अनंतकाल के लिए?
और फिर गहन निद्रा के बाद,
एक दीर्घकालिक विराम के बाद
क्या फिर उठेगा कोई
भाषाओं और लिपियों का मर्मज्ञ
शिलालेख पढ़ने को?
अर्थ-अभिप्राय समझाने-समझने को?

पैंसठ वर्षों की स्वतन्त्रता में
पूरी आज़ादी से चलती रही है राजनीति
एक-के-पीछे एक सिर झुकाये हुए
भेंड़-चाल-सी..
उन्हें हाँकता रहा है कोई
स्वयंभू आचार्य
और सोया रहा है जन-समुद्र
अपने तल में छिपाए
अनल से भरा विचार-पिंड...!

इसलिए सुनो,
ध्यान से सुनो,
अपनी सम्पूर्ण अंतश्चेतना को जगाकर सुनो--
वह बोल रहा है अजनबी ज़बान
शब्दों के बीच शोर भरते हुए,
वह समय की शिला पर
खोद रहा है नयी लिपियाँ
अपनी पहचान से मुक्त,
गढ़ रहा है नया इतिहास
क्षणों को अतीत का हिसा बनाते हुए...!

क्योंकि अगर तुम सुनोगे-पढ़ोगे नहीं
तो कैसे कर सकोगे स्वागत
नयी सुबह का...?
और सुबह तो होगी...
तुम सबकुछ अनदेखा कर सकते हो
लेकिन,
सुबह के होने को
खारिज नहीं कर सकते...!

तुम प्रहारों को
प्रतिबंधित कर सकते हो
लेकिन जितनी चोटें हो चुकी हैं
उनकी गूँज को,
प्रतिध्वनियों को
नहीं रोक सकते...!
वे गूंजती रहेंगी--
अनवरत...!

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

गुलाब याद आया...


[
गुलाब-
दिवस पर]

मुझको गुल से गुलाब याद आया,
वो एक हसीन ख्वाब याद आया!

लोग तरसते रहे सूरत के लिए,
मुझको मेरा चेहरा जनाब याद आया!

तुझको दिल दे के बढ़ाया था गुलाब,
आज बारहां उनका जवाब याद आया!

आशियाने में रहा जब सदियों अंधेरा,
वो गुमशुदा-सा आफ़ताब याद आया!

हाय, किसके हिस्से का गुल मेरे हाथ था ,
चमन की बुलबुलों का हिसाब याद आया!

रुक गया हूँ तो ठहरी रहेगी मंज़िल भी,
आज हमसफ़र तू बेहिसाब याद आया...!

गफलत हुई हमसे कि दिल पहले दिया,
फिर उसके बाद हमको गुलाब याद आया!

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

कृत्य का इतिहास...


जो बुद्ध हो गया
जो शुद्ध हो गया,
शांत-वीतराग हो गया--
वह कृत्य से बाहर हो गया,
इतिहास में दर्ज नहीं होगा उसका नाम!

जो बद्ध है,
वह समर में है,
वह करेगा कृत्य
पैदा करेगा हलचल,
जीवन-समुद्र का करेगा महामंथन--
उसे नवनीत मिलेगा या गरल,
प्रश्न यह बिलकुल वृथा है,
आनेवाला समय देगा इसका उत्तर,
यही तो सनातन प्रथा है!

वह संघर्षों के नए द्वार खोलेगा--
धरना देगा, प्रदार्शन करेगा,
तोड़ेगा पुरानी मान्यताएं,
नई राह बनाएगा,
आंदोलित-उद्वेलित करेगा जन-मन को!
छोटी रेखाओं के समानांतर
लम्बी लकीरें खींचेगा,
जन को वजन देगा,
छीनेगा मठाधीशों से धन को,
सबल-समृद्ध करेगा निर्धन को!

प्रश्न सभ्यता-असभ्यता का नहीं,
प्रश्न संयमित-मर्यादित होने का भी नहीं,
प्रश्न है कृत्य का;
वह कृत्य करेगा तभी तो
उसका इतिहास भी होगा...!
क्योंकि--
बुद्ध, शुद्ध, सांत का कोई इतिहास नहीं होता
--यही है सच्चाई!
कृत्य का इतिहास होता है भाई...!!