[दूसरी क़िस्त]
आचार्यश्री को मैंने अपने बाल्यकाल में कई बार निकट से देखा था, बहुत कुछ न समझते हुए भी उनकी बातें सुनी थीं और उनकी दिव्य मूर्त्ति को नमन किया था--दीर्घ काया, उन्नत ललाट, खड़ी नासिका जिसपर शोभायमान काला चश्मा और उससे झांकती तीक्ष्ण आँखें। देह-यष्टि के अनुरूप ही वे हृष्ट-पुष्ट थे, स्थूल होने का भ्रम देते हुए-से। खालता पायजामा और घुटनों से नीचे तक झूलता श्वेत कुर्ता धारण करते थे। गुलाबी ठण्ड हो तो वे एक ऊनी चादर शरीर पर डाल लेते थे, जो उनकी विराट काया पर बहुत शोभा पाती थी। उनके धीर-गम्भीर मुख-मंडल पर एक सहज मुस्कान सदैव बनी रहती थी। धूमपान का एकमात्र व्यसन उन्होंने पाल रखा था,लेकिन पिताजी की उपस्थिति में वे परहेजी बन जाते थे। अगर कभी पिताजी की उपस्थिति दीर्घकालिक हुई, तो वे अगल-बगल खिसकने का उपक्रम करते दीखते थे।
मैंने जब से आचार्य नलिन को देखा-जाना था, वह पटना विश्वविद्यालय के हिंदी-विभागाध्यक्ष थे। वे हिंदी आलोचना-साहित्य के शीर्षस्थ पुरुष थे। उनकी टिप्पणियाँ, व्यंगोक्तियाँ, संस्तुतियां और उनके कटाक्ष सर्वस्वीकृत थे--'आचार्य वाक्यं प्रमाणम्' की तरह!
मुझे याद है, गर्मियों के दिन में आकाशवाणी, पटना से लौटते हुए वे अक्सर पिताजी की खुली कार में बैठकर घर आ जाते थे। चाय पीते, फिर पिताजी के साथ एक्जीबिशन रोड वाले अपने घर लौट जाते थे। ऐसे कई अवसरों का स्मरण मुझे इसलिए है, क्योंकि पिताजी की गाड़ी का सेल्फ प्रायः रूठा रहता था और उसे हैंडल रॉड से स्टार्ट करने का दायित्व हमेशा मुझे ही सौंपा जाता था। जब पिताजी नलिनजी के साथ कार में बैठ जाते और गाड़ी स्टार्ट करने की तमाम चेष्टाएँ निष्फल हो जातीं, तब मुझे पुकारा जाता। मैं गाड़ी के मुख में हैंडल डालकर कई बार घुमाता, तो मानिनी का मान भंग हो जाता और वह चल पड़ने को तैयार हो जाती। नलिनजी के घर पर साहित्यिक मित्रों का जमघट होता था और नैश साहित्यिक गोष्ठियां देर तक चलती थीं। पिताजी ९-१० बजे तक घर लौट आते थे, लेकिन गोष्ठी आधी रात तक जमी रहती थी।
नलिनजी पर दायित्वों का बहुत बोझ था--विश्वविद्यालय के विभागाध्यक्ष की जिम्मेदारियां, हिंदी साहित्य सम्मलेन के महामंत्री का दायित्व, बद्रीनाथ सर्वभाषा महाविद्यालय के प्राचार्य पद का बोझ, 'साहित्य' एवं 'कविता' नाम की दो-दो पत्रिकाओं का सम्पादन-भार...और इतना कुछ जैसे नाकाफी हो, सुबह से देर रात तक आगंतुकों की भीड़, जिनकी समस्याओं के समाधान का मार्ग नलिनजी के हस्तक्षेप से ही प्रशस्त होता था। उनका कक्ष पुस्तकों, पांडुलिपियों, उत्तर-पुस्तिकाओं, पत्र-पत्रिकाओं से भरा रहता था। वे उन्हीं में डूबे रहते थे दिन-रात! वे सच्चे अर्थों में विद्वान् व्यक्ति थे, विद्या-विलासी थे...!
आचार्य नलिन की गृहस्वामिनी श्रीमती कुमुद शर्मा विदुषी, मृदुभाषिणी और बिहार की पहली चित्रकार महिला थीं। उन्होंने एक्जीबिशन रोड वाली कोठी में ही एक विद्यालय की स्थापना की थी--'रत्नावती विद्या-मंदिर'। मुझे याद है, एक बार उनके विद्यालय में 'फेट' का आयोजन था। मैं माता-पिताजी के साथ उसमें सम्मिलित हुआ था और वहाँ जितने प्रकार के खेल के स्टाल थे, सबों पर मुझ जैसे खिलंदड़ किशोर ने प्रथम पुरस्कार जीता था। उस दिन नलिनजी ने मेरी पीठ थपथपाई थी, शाबाशी दी थी और कहा था--"खेलों में अव्वल आना अच्छी बात है, लेकिन पढ़ाई में भी अपनी वही जगह बनाने का ध्यान रखिये।"
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