गुरुवार, 11 नवंबर 2010

निःशब्द की पहचान...

कभी-कभी सन्नाटों में
खामोश पत्थर भी चीखते हैं,
हवाएं सीटियाँ बजाती हैं,
पत्ते मीठा राग सुनाते हैं,
वर्षा की बूँदें संगीत का
अतीन्द्रिय सुख देती हैं,
फूलों की पंखुड़ियां
हवा की लय पर थरथराती हैं
और बहुत कुछ अनकहा कह जाती हैं !
मनुष्य अपनी चेतना के
श्रवण-रंध्रों से उन्हें सुनता है,
मन में गुनता है
और इस अपूर्व सुख-सृष्टि में रमा रहता है !

लेकिन निःशब्द स्वरों को
सुनना-पढ़ना आसान नहीं होता !
आँखें बहुत कुछ बोलती हैं
हम उसे सुन नहीं पाते,
मुद्राएँ जो व्यक्त करती हैं
उन्हें हम समझ नहीं पाते,
लिखी-छपी इबारतें भी
जो कहती हैं, कहना चाहती हैं
उन्हें हम ठीक-ठीक पकड़ नहीं पाते
और सच मानिए,
अभिप्राय की तह तक
ज्यादातर पहुँच नहीं पाते !

सोचता हूँ,
जो मौन की भाषा समझ नहीं पाते,
वे लिखे हुए को भी कितना समझेंगे,
दृश्य को अदृश्य से किस तरह जोड़ेंगे ?
अलग-अलग रंगों के चश्मे से
अपनी ही आँखें फोड़ेंगे !

लेकिन बहुत कुछ ऐसा है
जो रचा नहीं गया
और मुझसे ये कहे बिन रहा नहीं गया
कि शब्द और मौन का द्वंद्व पुराना है,
सन्नाटे का भी अपना एक संगीत है,
छंद है, गाना है !

लेकिन सच है,
सब कुछ कहा नहीं जा सकता,
शब्दों के सांचे में
समष्टि को बांधा नहीं जा सकता !
लेकिन सच ये भी है कि
आज की भीड़-भरी
और शोर-गुल से थरथराती दुनिया में
मौन का दर्शन समझ पाना
सचमुच, आसान नहीं है,
कोलाहल में
निःशब्द की पहचान नहीं है !!

सोमवार, 1 नवंबर 2010

दिन ढला नहीं था, रात हुई...

पल में विधि ने सब बदल दिया,
ये कैसी सौगात हुई ?
दिन ढला नहीं था, रात हुई !

हर क्षण जो अपने पास रहे,
सब चले गए, जो साथ रहे,
पलकों पर ठहरे हुए ज्वार की
रह-रहकर बरसात हुई ! दिन ढला नहीं था...

कल का सूरज जब आएगा,
किरणें सतरंगी लाएगा,
धूप चढ़ेगी, फैलेगी--
वह डाल-डाल औ' पात हुई ! दिन ढला नहीं था...

जब टूटे तारे चमकेंगे,
अम्बर में छटा बिखेरेंगे,
चकित नयन सब देखेंगे--
यह मन की मन से बात हुई ! दिन ढला नहीं था...

साहस के होते पाँव बहुत,
पथ में मिल जाती छाँव बहुत,
राह मिलेगी चलने पर,
यह बात अबूझी ज्ञात हुई ! दिन ढला नहीं था...