मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

तीन क्षणिकाएं...

होना क्या ज़रूरी है ?

चेतना के शब्द लिखने के लिए
अचेत होना पड़ता है ।
अचेत होने के लिए
होना क्या ज़रूरी है ?

कोरी किताब

दावात ने लिखना शुरू किया,
कलम स्याही देती रही,
पुस्तक के पृष्ठों पर
अक्षर
उगे ही नहीं ।

फुर्र से...

मेरी शाख पर बैठे
कुछ परिंदे;
उन्होंने बातें कीं,
चोंच लड़ाई,
मुंह से मुंह में दाने बदले
मैंने जब उनसे कहा--
मेरी टहनी थामे रहना
कसकर--
आँधियों का अंदेशा है;
वे उड़ गए
फुर्र-से....!

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

दोस्ती की दरारें...

गहरा प्रेम प्रदर्शित करते हुए
उसने मुझे अपने पास बुलाया,
मेरा हाथ अपने हाथों में लिया,
फिर अपने तेज़ औज़ार से
मेरे नाखून काट डाले।
शायद वह प्रेम के बीच
कोई अंकुश नहीं रहने देना चाहता था ।

मैंने कोई विरोध नहीं किया,
काल-चक्र से लिपटे
प्रेम की गति तीव्रतर होती गई,
हंसते-हँसते
उसने मेरी उंगलियाँ काट दीं,
फिर मेरे हाथों पर भी
अपने औजारों का जंग छुडाया,
मैं हाय-हाय कर उठा !

पास ही प्रगतिशील विज्ञान खड़ा था,
मुस्कुरा कर
उसने मुझे पास बुलाया,
कहा,
अरे रे ! रोता क्यों है ?
'ला, मैं प्लास्टिक के हाथ
लगाए देता हूँ ...'

मैं चिल्लाता हुआ
भाग खड़ा हुआ--
'नहीं, नहीं,
अब और दोस्ती नहीं .... !'