बुधवार, 28 अप्रैल 2010

शब्दों में सपने...

[एक बाल-कविता]


मैं प्रकाश में चला अकेला,
यह जग भी सपनों का मेला,
दृश्य अपरिमित, स्वप्न अनोखे,
किसको देखें, आँख चुरा लें !
शब्दों में सपने लिख डालें !!

बुढ़िया कात रही थी सूत,
सबको दिखा रही थी भूत,
उसने व्यंजन बहुत बनाया,
सब बच्चों को बुला खिलाया !

बहुत मिले तो थोडा खा लें !

शब्दों में सपने...

स्वप्न बुरे भी हो सकते हैं,
मन में विष को बो सकते हैं,
दुःख में सब कुछ खो सकते हैं,
सुख में भी तो रो सकते है ?

दुह्स्वप्नों का बोझ न पालें !
शब्दों में सपने...

आखें मूंदो, मत कुछ बोलो,
अंतर्मन की आँखें खोलो,
पंख पसारो, नभ में डोलो,
सागर-तट से नौका खोलो !
सब मिल स्वर्ग-पाताल खंघालें !
शब्दों में सपने....

शाखों पर पत्ते डोल रहे हैं,
आपस में कुछ बोल रहे हैं,
फूलों पर तितली नहीं दीखती,
गर्म हवा है खूब चीखती !
मौसम में कैसे मधु-रस डालें ?
शब्दों में सपने...

चिनगारी-सी बुझी कामना,
एक मिटी, फिर नयी याचना,
कितने स्वप्न, सजीली आँखें,
सतरंगी किरणों-सी पांखें !
इन्द्रधनुष पर हम रंग डालें !
शब्दों में सपने...

आज धरा में है क्यों कम्पन,
काँप रहा क्यों घर का आँगन ?
अमराई में छिपा कौन है,
जाने क्यों कोकिला मौन है ?
हम साहस का बिगुल बजा लें !
शब्दों में सपने...

पौधों का एक बाग़ लगाएं,
उपवन में सुरभित फूल खिलाएं,
इस वसुधा को निर्मल कर दें,
प्रेम-प्रीति का नव स्वर भर दें !
नए छंद, नव-रस में गा लें !
शब्दों में सपने लिख डालें !!

रविवार, 18 अप्रैल 2010

मुफलिस दिन बीते...

[एक मनस्थिति का काव्य-चित्र]
गर्म हवाओं-से
मुफलिस दिन बीते...
बाँझ बनी शाम ढल आयी,
रात की धूल भरी
और फटी चादर को
बौराए मच्छर हैं सीते...
गर्म हवाओं-से .... !

तपती दोपहरी में
पिघलती कोलतार-पुती सड़कों पर
बरबस ठंढक बिखेरने की
करती है पुरजोर कोशिशें
कुल्फीवाले की घंटी की
टन ... टन ... टन !

अंतर में बहते
कुंठाओं के सोते में
डुबकियां लगाता है
बेचारा मन;
शीतलता बेस्वाद बनी जाती है;
क्योंकि
कुंठाओं के सोते तो
होते हैं गर्म !

कैसे बताऊँ कि
बूँद-बूँद कर
चौबीस घंटों के क्षण
कैसे रीते !
गर्म हवाओं-से
मुफलिस दिन बीते !!

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

बीमार चेहरों के बीच...

[एक निकट मित्र को अस्पताल से श्मशान तक पहुंचाने की व्यथा-कथा का काव्य : १८-१२-१९७३ की एक रचना]

अब वहाँ कोई नहीं है,
शब्द-सागर में पड़े काले अक्षर की तरह
सब खो गए हैं
और तुम्हारी तलाश के नाम पर
अनुपलब्धियों का एक खोखला वृत्त छोड़ गए हैं !

ज़िन्दगी का काला जुलूस
सामने गुज़र रहा है
समय के शव के साथ
तुम लिपटे हुए उसी तरह

घिसट रहे हो,
जिस तरह मिष्टान्न लिपटी
थोड़ी-बहुत मरी चींटियाँ !

कलंक के नाम पर
मेरी साधुवत्ता को ललकारने में
तुम्हें शर्म आनी चाहिए;
क्योंकि मेरी साँसों में,
मेरे शरीर के हर अणु में
विषबुझी हवाओं ने ज़िन्दगी पायी है--
स्वप्न की सुन्दरता और यथार्थ की कड़वाहट को
एक साथ ग्रहण कर
मैं नीलकंठ बन गया हूँ !
रेत के संबंधों को
संबोधन देने की कोशिश में
मैं खुद संबोधनहीन हो गया हूँ !

प्रीति की गवाही के
चिनार खड़े तकते है,
प्रेम-स्नेह-सिक्त मेरी भावनाएं
दुर्दिन की आंधी में बिखर गयीं इधर-उधर,
बह चली नाव गुलमुहर के फूलों की...
बहार की तलाश में आँखों का अंधापन जाग गया !
जो एक सपना
अंतर में उपजा था,
सुबह के तारे-सा भाग गया !

फिर वही कविता दरवाज़े पर आयी है
आँखों में अर्चना
आश्वासन की आंधी भी लाई है;
लेकिन...
लेकिन, अब वहाँ कोई नहीं है,
धूल के गुब्बार और सिमटी हुई ज़िन्दगी की आँखों में
समस्याओं का पीलापन बाकी है
और मरते हुए मरीज़ के आसपास
बिखरी दवाओं की तीखी गंध
मेरे फेफड़े में घुस रही है !

अब वहाँ कोई नहीं है,
श्मशानी सन्नाटे में
पीपल और बरगद से लटके घंट
चीखती-चिल्लाती मदहोश हवाएं
और ठिठकी हुई मेरी मायूस कविता
बदहवास आँखों से
नियति का बेतकल्लुफ मज़ाक देख रही है
और श्मशान की खिली हुई चांदनी में--
जैसे मेरी कविता नंगी हो गई है !

सच मेरे मित्र !
बीमार चेहरों के बीच
अंधेपन का अभिनय
कभी-कभी
ज़िन्दगी दे जाता है !!

रविवार, 4 अप्रैल 2010

चलो आज फिर...

[ग्रीष्म का प्रणय-काव्य]
चलो आज फिर
आशाओं की बंजर धरती पर
चाँद की चंचल और स्निग्ध छाया में
अपने जलते और जख्म भरे चहरे पर
चन्दन का ही लेप चढ़ा लें !

चलो आज फिर
गीत विरह के छोड़
प्रीति भरे उन्मुक्त पवन में
नहीं प्रणय का दाह
और नहीं अंतर की ज्वाला को भड़काने
किन्तु चलो तुम साथ हमारे
स्निग्ध प्रेम की शीतल बारिश में
अपनी अंजुरी आज बढ़ाने !

वैसे तपिश बहुत है अंतर की
औ ' आक्रोश उबलता जैसे ज्वार,
यह नहीं बाँध की तैयारी है,
यह नहीं समय की शक्ति परखने का अवसर है,
चलो आज फिर साथ हमारे--
हम अपने आंसू की शीतलता से
आज तपिश यह झूठी कर देंगे,
अंगारों की जगह तुम्हारे आँचल में हम
फूलों का अम्बार लगा देंगे !

स्नेह मनुज की स्वाभाविकता है
और मुट्ठियों में
भरे हुए जो अंगारे हैं,
उनसे भी हम प्रेम करेंगे;
हम वचन तुम्हें देते हैं--
जीवन में विश्वास भरेंगे !

जब तक आग तुम्हारे अंतर में जीवित है
सच मानो, तब तक जीवन है,
आओ मिथ्या से दूर चलें
आओ कुनैन की गोली को
शीतलता औ ' सपनों संग पी जाएँ
आओ यथार्थ की कड़वाहट के साथ-साथ
हम नीलकंठ को जीने की कोशिश करते हैं !

इसे न कहना स्थितियों से
समझौता करने की कविता है,
नहीं भला जीवन किसका संघर्षों से भरा हुआ है ?
नहीं भला दुर्दिन की हथकड़ियों में
है कौन मनुज जो बँधा हुआ है ?

हम प्रण लेते हैं,
जीवन में संघर्ष करेंगे !
जीतेंगे वह दुर्ग, तभी जीने का उद्घोष करेंगे !
लेकिन ठहरो ज़रा,
अभी घड़ियाँ बाकी हैं,
हाथों में शीतलता की मदिरा ले
आयीं किरणे बनकर साकी हैं !!