मंगलवार, 12 दिसंबर 2017

शीर्षक-विहीन...

पिछली रात किसी ने दी आवाज़
मैं उस पुकार की खामोशी से
शिनाख़्त करता रहा ।
खिल उठते हैं फूल बेशुमार, रंग-बिरंगे
मोगरे-लिलि-गुलदाउदी के
जब-जब यह अजानी पुकार सुनी है
ऐसा ही होता आया है,
जीवन में तब-तब वसंत आया है।

यह मुगालता भी अजीब है
कि जो दीखता है
वह होता नहीं
और जो होता है
उसका वजूद नहीं।

सोचता हूँ,
किस रहस्य-लोक से आती है पुकार ?
कौन है जो पुकरता है मुझे
और आँखें खोलते ही हो जाता है विलुप्त
वह तुम नहीं हो सकते न?
तुम होते तो अंतर्धान क्यों होते?
मुझको ही तुम्हारे होने का
भ्रम हुआ होगा
वह होगा कोई गुल नया,
तुम्हें ही पता होगा?

अब इस फिक्र से हलकान हूँ कि
वह किसकी पुकार थी,
जो आवाज़ देकर हो गया ख़ामोश
क्यों उसकी पुकार इतनी बेकरार थी।

जानता हूँ,
परदों के पीछे भी
हो रहा यातनाओं का सफ़र
सामने जो मंज़र है
दिखावे की दुनिया है...
आवाज़ देकर तुम गुमसुम न रहो
तो कैसे चलेगा बापर्दा
यातनाओं का कारवां?

'जिन पर गुज़रता है हादसा,
वही जानते हैं,
हमदर्द तो अफ़सोस भी
डकार जाते हैं..।'
(--आनन्द. 6-12-2017)

बुधवार, 6 दिसंबर 2017

पाटलिपुत्र के सहित्याकाश में जब चमकी थी 'बिजली'...सजी थी 'आरती'...(समापन किस्त, 5)

फिर आया वह दौर, जिसमें बिहार की तरुणाई ने अंगड़ाई ली थी। लोकनायक जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति का दौर! आन्दोलन के समर्थन में जगह-जगह होनेवाली नुक्कड़ कवि-गोष्ठियों में नागार्जुन और फणीश्वर नाथ 'रेणु' के नेतृत्व में हम युवा उत्साही कवियों, साहित्यानुरागियों का एक दल अनायास बन गया था। जयप्रकाशजी की प्रेरणा से पटना सिटी के चौक पर तीन युवा कवि बारह घंटे की सांकेतिक भूख-हड़ताल पर बैठे थे, उनमें एक मैं भी था। भूख-हड़ताल की समाप्ति पर हमें शिकंजी पिलाने के लिए महाकवि नागार्जुन पधारे थे। उसके बाद जाने कितने चौराहों पर हमने उनकी अगुआई में कविताएँ पढ़ी थीं, भाषण दिए थे और चायखानों में बैठकर सम-सामयिक चर्चाएँ की थीं। आन्दोलन की धार को और अधिक पैनापन देने के लिए नागार्जुन के पास एक-से-बढ़कर एक कारगर साहित्यिक हथियार थे। युवा साथियों के साथ नागार्जुन नवयुवक बन जाते थे। वह अनूठी आत्मीयता और परम स्नेह के साथ हमें अपने साथ ले चले थे। हम सभी उन्हें प्यार से 'नागा बाबा' कहते थे। वार्धक्य की अशक्तता उन्हें रोक न पाती थी, स्वस्थ्य की नरम-गरम स्थितियाँ उनकी गति को अवरुद्ध न कर पाती थीं। सम्पूर्ण क्रांति के आन्दोलन में नागार्जुन मसिजीवियों के प्रखर नेता थे। उन दिनों उनकी एक कविता बहुत लोकप्रिय हुई थी, जिसका पाठ वह झूम-झूमकर और चुटकियाँ बजाकर करते थे --
''इन्दुजी, इन्दुजी!
क्या हुआ आपको, क्या हुआ आपको ?
बेटे को ताड़ दिया, बोड़ दिया बाप को ?
क्या हुआ आपको...?"

बिहार आन्दोलन की गर्म हवाओं में पूरा प्रदेश तपने लगा था। सर्वत्र हिंसक और अहिंसक अवरोध जारी था। हम नवयुवकों की टोली महाकवि नागार्जुन की अगुआई में नुक्कड़ कवि-गोष्ठियाँ करती चलती। कितने उत्साह और ऊर्जा से भरे दिन थे वे ! हम दिन भर एक नुक्कड़ से दूसरे नुक्कड़ का परिभ्रमण करते और जन-जागरण का अभियान चलाते। बीच-बीच में जब भी अवकाश मिलता, हम सभी पटना के कॉफ़ी हाउस या कॉफ़ी बोर्ड की शरण लेते। उन दिनों ये दोनों संस्थान आन्दोलन के युवा नेताओं, प्रबुद्ध नागरिकों, रचनाधर्मी युवा साथियों के प्रमुख अड्डे थे। वहीं आन्दोलन की दशा-दिशा पर गहन विचार-विमर्श होता और आगे की रणनीति तय होती थी। वहाँ एक कप कॉफ़ी का मतलब था--एक घंटे का विश्राम ! कॉफ़ी हाउस की प्रत्येक बैठक में रेणुजी अनिवार्य रूप से उपस्थित रहते थे। चर्चाओं का दौर चलता, कॉफ़ी पर कॉफ़ी पी जाती और हम युवा रचनाकार उत्साहपूर्वक आन्दोलन-समर्थित अपनी-अपनी रचनाएँ उन्हें सुनाते। रेणुजी और नागार्जुनजी पूरे मनोयोग से कविताएँ सुनते और आवश्यक संशोधन-परिमार्जन की सलाह देकर हमारा मार्गदर्शन-उत्साहवर्धन करते। जिस रचना को उन दोनों की स्वीकृति मिल जाती, वह नुक्कड़ कवि-गोष्ठियों में पढ़ी जाती।

पटनासिटी के चौक पर हमारे दो प्रमुख अड्डे थे--भज्जन पहलवान का होटल और सिटी स्वीट हाउस। नागा बाबा सिटी में होते तो हम सदल-बल वहीं जमे रहते। चाय, चर्चाओं, काव्य-विमर्श का दौर अनवरत चलता। हमारे लिए संघर्षों के बीच वे बहुत कुछ सीखने-समझने के दिन थे। हमारा दायरा बढ़ रहा था। हमें बुजुर्गों का आशीष, अग्रजों का मार्गदर्शन और समवयसियों का अतीव उत्साह मिला था। जैसे-जैसे हमारा संघर्ष बढ़ा, शासन का दमन-चक्र भी बढ़ता गया। मुझे याद आते हैं उस दौर के कई नाम, जो हमारी पूर्ववर्ती पीढ़ी के थे, अग्रज थे हमारे--कवि सत्यनारायण, प्रो. आनन्दनारायण शर्मा, गोपीवल्लभ सहाय, कवि राधेश्याम आदि, जिनकी पंक्तियों में तीखी धार थी और तेज आक्रामक अंदाज़ भी था। कवि सत्यनारायणजी की दो पंक्तियाँ देखिये--
'इस नगरी में यही हुआ है,
आग नहीं, सब धुआँ-धुआँ है।'

राधेश्यामजी ने उन्हीं दिनों की गर्म हवाओं में कहा था--
'लंग भरता हुआ आदमी तन के खड़ा हो जाता है।'

हमारी पीढ़ी के शायर प्रेम किरण उसी काल में चर्चित हुए थे और आज तो मकबूल शायरों में शुमार हैं। उनका यह मतला मुझे बहुत मुतासिर करता है--
'एक बच्चा न मिला गाँव में रोनेवाला,
अबके बैरंग ही लौटा है खिलौनेवाला।'
उस दौर में मेरी एक कविता की भी भरपूर सराहना हुई थी--
'तल्खियों से भरा एक जुलूस
चल पड़ा है...।'

बिहार आन्दोलन अपनी चरम परिणति पर पहुँचा ही था कि सन् 1974 में स्नातक अंतिम वर्ष की परीक्षा देकर मै पिताजी के पास दिल्ली चला गया, जो उन दिनों जयप्रकाशजी के आन्दोलन को समर्थित साप्ताहिक पत्र 'प्रजानीति' का संपादन कर रहे थे और जिन्हें जयप्रकाशजी ने ही यह दायित्व उठाने के लिए पटना से दिल्ली भेज दिया था। पटना (बिहार) तो छूटा, मेरी संपृक्ति न छूटी। वह आज भी यथावत् बनी हुई है।




पिताजी की छोड़ी हुई विरासत को परवर्ती पीढ़ियों ने बहुत आगे बढ़ाया है। 'बिजली' और 'आरती' को साहित्य की प्राचीन और नवीन धाराओं के संगम का उज्ज्वल आयोजन कहना उचित होगा। मुझे यह देखकर परम प्रसन्नता और गौरव की अनुभूति होती है कि पिताजी और अज्ञेयजी--दो अभिन्न मित्रों के अथक परिश्रम का स्मारक बनकर ये दोनों पत्रिकाएं तीन जिल्दों में बिहार हितैषी पुस्तकालय में आज भी सुरक्षित हैं।

--आनन्दवर्द्धन ओझा.
27/09/2017

[चित्र : 1) विशाल जन-समुद्र को संबोधित करते जयप्रकाश नारायणजी 2) पटना जंक्शन पर बायें से रेणुजी, अज्ञेयजी, मुक्तजी 3) पूज्य पिताजी 4) नागार्जुनजी।]

रविवार, 3 दिसंबर 2017

माँ की 49वीं पुण्यतिथि पर...!

[बस अर्ध शती पूरी होने में एक बरस बाकी है और माँ, तुम्हारे बिना मन का आँगन वैसा ही है--बियाबान-सा! 4 दिसम्बर 2014 की वही पुरानी कविता माँ की स्मृति में, उसके पूज्य चरण में अर्पित...]

माँ : एक अनुस्मृति...

अब बहुत याद नहीं आती उसकी--
वह, जो बहुत पहले
बीच राह में मुझे छोड़ गयी थी;
लेकिन मेरी स्मृतियों के
निर्मल कोश में
सदा-सदा के लिए अंकित है वह...!

अब बहुत याद नहीं आती उसकी,
किसी कार्य-प्रयोजन पर,
किसी अनुष्ठान-विशेष पर,
जैसे छोटे भाई का विवाह हो,
मेरी बिटिया की शादी हो
और देव-पितर के स्मरण के बाद
मातृका-पूजन करते हुए
उसके नाम का अन्न-ग्रास
निकाला गया हो और--
ज्येष्ठाधिकार के कारण
मुझे ही वह थाली उसे सौंपनी हो
तो बड़ी शिद्दत से याद आती है वह,
चुभती हुई यादें--
मर्म को बेधती हुई...!

हर साल मेरे साथ
दिसंबर माह में ऐसा ही होता है,
यादों के आसमान में
पीछे, बहुत पीछे कहीं
उड़ता चला जाता हूँ
और उसकी पतली किनारीवाली
सफ़ेद साड़ी का आँचल थाम लेता हूँ,
पूछता हूँ उससे--
'तुम कैसी हो अम्मा?
बहुत दिनों से याद भी नहीं आयीं,
क्यूँ...?'
वह कुछ नहीं कहती,
रहती है मौन
और जैसी उसकी आदत थी,
धूप में स्याह पड़ जानेवाले
पावर के शीशे का अपना चश्मा
वह ऊपर उठाती है और
आँचल के एक छोर से
पोछती है अपनी गीली हो आई आँखें...
यह दृश्य देखते हुए
मेरी आँखें धुंधली पड़ जाती हैं
और ओझल होने लगती है
उसकी सम्मोहक छवि...!

मेरे जैसे दुष्ट, अशालीन और उद्दंड बालक को
सही राह पर लाने के लिए
उसने जाने कितनी पीड़ा सही-भोगी थी,
कष्ट उठाये थे...
मेरी बड़ी-बड़ी शैतानियों पर
कैसे वह वज्र कठोर हो जाती थी
और मुझे दण्डित कर
स्वयं पीड़ित होती थी...!
ब्राह्म मुहूर्त्त में हमें जगाने के लिए
वह जीवन-भर
सुबह चार बजे जाग जाती,
शरीर, मन और मस्तिष्क के सुपोषण के लिए
सौ-सौ जतन करती
पूजा-पाठ, कीर्तन करती,
दफ्तर जाती, घर के दायित्व निभाती
विद्यालय-निरीक्षण के लिए यात्राएं करती...
उसका तपःपूत कर्ममय जीवन
याद करता हूँ तो हैरत होती है
और अपनी नादानियों के लिए
आज होती है ढेर सारी कोफ़्त...!

उसका अंतिम दर्शन तो
सचमुच अलौकिक दर्शन था--
सुबह-सबेरे वह गई थी गंगा के घाट
मैं उसे पानी के जहाज तक
छोड़ने गया था--
जेटी से होते हुए मैं उसके साथ
जहाज के सबसे ऊपरी तल पर
प्रथम श्रेणी में जा पहुंचा...
मेघाच्छादित आकाश था
नीचे गंगा की कल-कल निर्मल धारा थी
और तेज शीतल-स्वच्छ हवा
निर्द्वन्द्व बह रही थी,
मैंने जहाज के अग्र भाग में
एक छोर पर पड़ी आराम कुर्सी के पास
रखा उसका सामान,
झुककर उसके चरण छुए
और फिर वापसी के लिए चल पड़ा--
मैं पांच कदम ही बढ़ा था
कि उसने पुकारा मुझे,
मैंने पलटकर उसकी तरफ देखा
और हतप्रभ रह गया...!

श्वेत साड़ी में,
तेज हवा में लहराता उसका आँचल
उड़ते, खुले, घने कुंतल केश--
वह कोई देवदूती-सी दिखी मुझे...
जैसे माता जाह्नवी स्वयं
आ खड़ी हुई हों सम्मुख,
मैं मंत्रमुग्ध-सा उसके पास पहुंचा,
उसने अपने दोनों हाथ
मेरे कन्धों पर रखे और--
थोड़े उलाहने, थोड़े उपदेश दिए,
समझाया मुझे...!
मैं हतवाक था, कुछ कह न सका,
बस, उस दिव्य मूर्ति को
अपलक देखता रहा...
और अचानक--
जहाज का भोंपू बज उठा;
पुनः प्रणाम कर लौटना पड़ा मुझे...!
फिर कभी उसे देखना,
बातें करना नसीब न हुआ;
लेकिन उसकी दिव्य मूर्ति,
वह भव्य-भास्वर स्वरूप आज भी
मन-प्राण पर यथावत अंकित है
और उसका वह स्वर गूंजता है कानों में...!
खूब जानता हूँ,
उन्हीं स्वरों ने, उसी पुकार ने
मुझे कमोबेश ठीक-ठाक
आदमी बनाया है...!

सोचता हूँ,
क्यों नहीं बहुत याद आती है वह...?
क्या आधी शती के दीर्घ-काल ने
उसकी स्मृतियों को
इतना धुंधला कर दिया है
कि मन अब उसकी ओर जाता ही नहीं...??

उसकी पुण्य-तिथि पर
आज जब कलम उठाई थी,
सोचा था, स्मृति-तर्पण करूंगा ,
नमन करूंगा उसे,
लिखूंगा मैं भी
अपनी माँ पर एक कविता...!
मानता हूँ, मुझसे माँ पर कविता नहीं होती...!!

'विदा-जगत' कहने के ठीक पहले
एकादशी की पूर्व-संध्या में
वह बाज़ार से ले आई थी
भजन-मग्न पवन-सुत का एक चित्र,
दूसरा राम-जानकी का...!
भजन की मुद्रा में
आज भी मग्न हैं महावीर
और मंद-मंद मुस्कुराते हैं प्रभु राम...
बस, माता जानकी खुली आँखों से निर्निमेष
देखा करती हैं जगत-प्रवाह--
जिसे पार कर गई है मेरी माँ...!!

शुक्रवार, 1 दिसंबर 2017

पूज्य पिताजी की 22वीं पर पुण्य-तिथि पर... (समझ नहीं आता कैसे बीत गये बाईस बरस : एक पुरानी रचना...!)

।। बाबूजी की चरण-पादुका, चश्मा-चट्टी ।।
[पूज्य पिताजी के नाम एक भावुकतापूर्ण काव्य-पत्र]

"मैं ले आया हूँ गृह-प्रदेश से
बाबूजी की चरण-पादुका, चश्मा-चट्टी!
खोज रहा पगचिह्न 
डाल अपनी उँगली
जूते में,
हाँ, मुझे मिली है पगचिन्हों की
गहरी छाप, जिसे बारम्बार 
कांपती उँगलियों से
छूता हूँ, सहलाता हूँ,
फिर मस्तक से लगाता हूँ,
करके पॉलिश आज
उनकी जूती चमकाता हूँ,
सच कहता हूँ,
मेरी आँखें धुँधला जाती हैं,
कितनी यादें मेरे मन में 
उमड़ी आती हैं…!

वे कितने शुभ्र चरण थे
जो अथक यात्री-से 
आजीवन चलते आये थे,
पद से कर आघात 
पादुका दलते आये थे,
कहाँ गए वे चरण.… ?
कहाँ गए वे चरण 
जिनका मैं वंदन करता था,
जिनकी रज को
मैं मस्तक का चन्दन कहता था…?
जान रहा हूँ,
पूज्य चरण वे नहीं मिलेंगे,
अब वरद हस्त
सिर पर रखने को नहीं उठेंगे।

वो चट्टी की खट-पट घर में 
सुनने को भी नहीं मिलेगी,
कोई कलिका 
हृद-प्रदेश में नहीं खिलेगी।
ऋषि-तपस्वी की कुटिया में 
जो गूंजा करती थी,
उसी नाद-सी कर्ण-मधुर झनकार 
विलुप्त हो गई इस जीवन से,
खोज कहाँ से लाऊंगा वह स्वराघात 
किस जन-जीवन से, किस वन से…? 

धो-पोंछ कर साफ़ किया है उनका चश्मा 
सम्मुख रखकर देख रहा हूँ निर्निमेष, 
चुभता-सा कुछ लगता मन में,
कोई बाण से बींध रहा हो
जैसे मेरा ह्रदय-प्रदेश...!
वहाँ भी अतल-तल तक बेधती 
आँखें नहीं हैं,
झील-सी प्रशांति समेटे  
मर्मबेधी, पारदर्शी आँखें नहीं हैं !
कौन जाने कहाँ छुप गईं आँखें,
क्यों तारे-सी चमकती बुझ गईं आखें ?
पावर के शीशे के पार देखने की 
जब-जब करता हूँ मैं कोशिश 
बस, धुँधला-सा जैसे सबकुछ हो जाता है,
स्वप्न-भंग पर जैसे 
सपना खो जाता है!

जानता हूँ,
यही जीवन-सत्य है, फिर भी ,
मन के प्रश्न बहुत अकुलाते हैं,
स्मृतियों के एक भँवर में
हम तो डूबे जाते हैं…! 

आप नहीं हैं पास हमारे 
बरसों-बरस के बाद, सत्य 
स्वीकार किया मैंने,
इस चरण-पादुका, चट्टी पर
अधिकार किया मैंने…!
जब तक जीवन है,
इस पर मैं तो पॉलिश  करता जाऊंगा
और सँजोये रखूंगा मन में
स्मृतियाँ--मधुर-मनोहर, मीठी-खट्टी!
मैं ले आया हूँ गृह-प्रदेश से
बाबूजी की चरण-पादुका, चश्मा-चट्टी!!"...



(--आनन्द, 2 दिसम्बर.)