सोमवार, 29 जनवरी 2018

अपने घर का दर्शन...

अपने घर की खिड़की से
दीखते हैं दूसरों के घर,
ऊपरी मंजिल पर हों तो
सड़कें भी दीखती हैं,
जंगल भी दीखते हैं
और माचिस के डिब्बे-से
रेंगते वाहन भी,
मजमे भी;
लेकिन अपना घर तो क्या,
उसकी खिड़कियाँ भी बस,
अंदर से ही दिखती हैं।

अपना घर देखना हो तो
घर से निकलकर थोड़ी दूर
जा खड़ा होना होता है--
तटस्थ भाव से--
असंलग्न!

क्या तुम्हारा भी मन होता है कभी
अपने घर को देखने का?
मेरा तो होता है;
लेकिन क्या करूँ?
अपना घर छोड़कर
बाहर जाया नहीं जाता,
तटस्थ हुआ नहीं जाता,
असंपृक्त रह नहीं पाता;
आज भी वहीं रह गया हूँ
जहाँ छोड़ गये थे तुम;
वहीं मोहाविष्ट रहता हूँ,
दुःख-सुख घर में रहकर सहता हूँ।

कैसे निकलूं घर से, बतलाओ
यह मोहावरण किस तरह हटाऊँ,
तुम्हीं समझाओ,
है कोई युक्ति तुम्हारे पास?
(--आनन्द.)
====


पुनः --
नयनों ने ली है अँगड़ाई
पहली शल्य-क्रिया है भाई!
अस्पताल में जाना होगा,
क्षुद्र मोतिया हटवाना होगा।

दस दिन का अवकाश चाहिए,
दुआएं सबकी पास चाहिए!
--आ. 17-1-2018.

शुक्रवार, 26 जनवरी 2018

।। सर्वत्र नारायणो हरिः ।।

(27 जनवरी : पूज्य पिताजी की 108वीं जयन्ती पर विशेष)

[याद आती है मुझे पिताजी की उदारता और चर्मशिल्पी की कृतज्ञता ...]

पटना की कंकड़बाग काॅलनी की एक व्यस्त सड़क पर बने 'मुक्त कुटीर' के मुख्य द्वार से बाहर निकलते ही दायीं तरफ बिजली के खम्भे के नीचे नियम से रोज़ आ बैठते थे एक बूढ़े बाबा, अपने थैले-झोले के साथ और दिन-भर करते रहते थे मरम्मत जूते-चप्पलों की। हमलोग तो उन्हें 'बाबा' ही कहते थे, लेकिन पिताजी जानते थे उनका नाम--'हरिनाथ'। उनका यह नाम भी पिताजी ने अपनी सुविधा के लिए स्वयं रख लिया था। कहते थे, 'इसी बहाने हरि-स्मरण भी हो जाता है। प्रभु श्रीहरि का अंश ही तो प्रत्येक प्राणी में है न!' बाबा का नाम कोई नहीं जानता था, लेकिन वह इसी नाम से चल निकले। मज़े की बात, 'हरि' संबोधन सुनकर बाबा भी प्रतिक्रिया देने लगे थे। कभी बाबूजी घर से बाहर निकलते और बिजली के खम्भे के पास पहुँचकर 'हरिजी' पुकारते तो बाबा झट मुखातिब होते और पिताजी से विनयपूर्वक कहते--'हँऽ बाबा, कहूँ न, की करिऐ?' (हाँ बाबा, कहिये न, क्या करूँ?)

बाबूजी की जूती तला छोड़ देती या चट्टी के बेल्ट की कीलें निकल आतीं तो वह मुझे ही पुकारते और चट्टी, जूता या चप्पल देते हुए कहते--'ले जाओ इसे, हरिजी को दे दो। वह सुधार दें तो ले आना थोड़ी देर में। पूछते आना, कितने पैसे हुए।' 1980-90 के जमाने में पैसों में कोई काम होता कहाँ था, बात रुपयों तक आ पहुँची थी; लेकिन पिताजी की याद से पैसे मिटे नहीं कभी। कोई उनसे किसी काम के लिए रुपये माँगता तो बड़ी सरलता से पूछते--'कितने पैसे दूं?'

कभी-कभी अपनी पीकदान पलटने के लिए पिताजी बाहर तक चले जाते तो हरिजी से उनकी कुशलता पूछते, दो मीठी बातें करके लौट आते, लेकिन उन्हें पुकारते 'हरिजी' ही। और, हरिजी उत्तर देने को प्रस्तुत हो जाते। एक दिन मैंने बाबा से पूछा--'जब आपका नाम हरिनाथ है ही नहीं तो बाबूजी की पुकार पर आप उत्तर क्यों देने लगते हैं?' हरिजी मुस्कुरा के बोले--'का कहते हैं मुन्ना बाबू! बाबा बड्ड अमदी हैं, जैसे पुकारें, उनकर आसिरबादे न है! हम भी मान लिये हैं कि हमरा नाँव हरिए है।' (क्या कहते हैं मुन्ना बाबू! बाबा बड़े व्यक्ति हैं, जैसे पुकारें, उनका आशीर्वाद ही न है। मैंने भी मान लिया है कि मेरा ना 'हरि' ही है।)

कोई सामान बगल के बनिये की दुकान से लाना हो, सड़क पार की दवा-दुकान से कोई औषधि लानी हो, किसी को आवाज़ देनी हो या रिक्शावाले को रोकना हो, हरिजी हमेशा तैयार, सेवा को तत्पर!

एक बार हरिजी बीमार पड़े। इलाज के लिए पैसे नहीं थे उनके पास। पिताजी को पता चला तो बाहर गये। देखा, शक्लो-सूरत से ही हरिजी ख़ासे बीमार लगे। उनसे पूछा हाल और सब जानकर बोले--' जब तबीयत इतनी खराब है तो यहाँ आकर धूप में क्यों बैठते हो? कुछ दिन घर पर रहकर आराम क्यों नहीं करते?'
हरिजी विकल हो गये, आर्त्त स्वर में बोले--'घर बईठ के केना चलतई काम बाबा? खैबई की? कमवा तऽ करहीं पड़तई !' (घर बैठकर कैसे काम चलेगा बाबा? क्या खाऊँगा? काम तो करना ही पड़ेगा।)
पिताजी चिंतातुर हुए और बोले--'ऐसे तो तबीयत और बिगड़ती जाएगी।'
हरिजी कातर स्वर में बोले--'रामजी के रक्खे के होतई तऽ धीरे-धीरे ठीके कर देथिन बाबा!' (रामजी को रखना होगा तो धीरे-धीरे ठीक ही कर देंगे बाबा!)
पिताजी ने पूछा--एक दिन के खाने का कितना खर्च है तुम्हारा?'
हरिजी बोले--'30-40 रोपया तऽ खरचा होइए जा हई बाबा। एतना तऽ कमाहीं पड़ऽ हई।' (30-40 रुपये तो खर्च हो ही जाते हैं। इतना तो कमाना ही पड़ता है।)
पिताजी कुछ नहीं बोले। सीधे अपने कमरे में लौट आये। मुझे रोककर उन्होंने पर्स से 350/ रुपये निकाल कर मुझे दिये और कहा--'जाओ, हरिजी को ये रुपये दे आओ और उनसे कह दो कि सात दिनों तक वह यहाँ दिखाई न दें मुझे।'

मैं आदेशानुसार रुपये लेकर हरिजी पास पहुँचा। दोपहर का वक्त था। भोजनावकाश में घर गये दुकानदारों की दुकानें बंद थीं, एक दुकान के ओटे पर मेहराये हुए बैठे थे हरिजी! तीन सौ पचास रुपये उनकी ओर बढ़ाते हुए मैंने कहा--'लीजिये, बाबूजी ने भेजे हैं ये रुपये और कहा है कि सात दिन घर पर रहकर आराम कीजिये।'
उस दीन-हीन बीमार वृद्ध का स्वाभिमान देखिये कि रुपये लेने से उन्होंने साफ इन्कार कर दिया। कातर होते हुए उन्होंने मुझसे कहा था--'बाबा काँहे एतना फिकिर करई छथिन, हम दु-चार दीन में अपने ठीक हो न जैबई मुन्ना बाबू ! रोपया ले लेबई तऽ लौटइबई केना?' (बाबा इतनी फ़िक्र क्यों करते हैं, मैं दो-चार दिनों में अपने-आप ठीक हो जाऊँगा मुन्ना बाबू! रुपये ले लूँगा तो लौटाऊँगा कैसे?)

पिताजी के पास जाकर मैंने रुपये लौटाते हुए हरिजी का कथन दुहरा दिया। पिताजी को आश्चर्य नहीं हुआ। यह कहते हुए वह उठ खड़े हुए--'कमाल करता है, यह भला आदमी! दातव्य के रुपये भी मिलें तो पहले लौटाने की फिक्र करेगा।' पिताजी ने पाँव में चट्टी डाली और चल पड़े बाहर, पीछे-पीछे मैं चला। बिजली के खम्भे के पास पहुँचकर थोड़े उच्च स्वर में पिताजी ने आवाज़ लगायी--'हरिजी! ये क्या तमाशा है? आपने रुपये लौटा क्यों दिये?' हरिजी घबराकर उठ खड़े हुए। हाथ जोड़कर कहने लगे--'नैय बाबा, नैय! ई बात नईं। हम तऽ कहलिइऐ जे दु-तीन दीन मऽ अपने ठीक होइए जैबे।' (नहीं बाबा, नहीं! ये बात नहीं, मैंने तो बस यही कहा कि दो-तीन दिन में मैं खुद ही ठीक हो जाऊँगा।)

पिताजी बोले--'नहीं, आप घर जाकर आराम कीजिये और स्वस्थ होकर काम पर आइये। आपके सात दिनों के खाने-खर्चे के लिए 350 रुपये मैंने भिजवाये थे। ये लीजिए और सात दिनों तक यहाँ आने की आपको कोई जरूरत नहीं है।'
पिताजी के जोर देकर कहने पर भी हरिजी के हाथ रुपये लेने के लिए बढ़ नहीं रहे थे। पिताजी ने खीझकर कहा--'अब क्या है?' हरिजी की तो जैसे घिग्घी बँध गयी, रुक-रुक कर कठिनाई से बोले--'ले तऽ लेबै बाबा, लौटैबए कैना?' (ले तो लूँगा बाबा, लौटाऊँगा कैसे?)
पिताजी ने हरिजी को डपटते हुए कहा--'मैंने कहा क्या कि इतने दिनों में रुपये लौटाने होंगे आपको? पैसे लीजिए और घर जाकर विश्राम कीजिए। ये रुपये लौटाने के लिए नहीं दे रहा हूँ। लीजिए।'

पिताजी के आदेश के आगे हरिजी अवश हो गये। दोनों अंजुरी जोड़कर उन्होंने रुपये ले लिये। और, पूरी श्रद्धा-भक्ति से अपने जुड़े दोनों हाथों को उठाकर उन्होंने मस्तक से लगाया, लेकिन उनकी यह कृतार्थता देखने के लिए पिताजी वहाँ नहीं थे, वह रुपये देते ही पलटकर घर में जा चुके थे।

उसके बाद सात नहीं, दस दिनों तक हरिजी दिखाई नहीं दिये। ग्यारहवें दिन वह प्रकट हुए। बिजली के खम्भे के नीचे बैग-झोला रखकर उन्होंने घर की काॅल बेल बजायी। मैंने द्वार खोला तो हरिजी ने कहा--'बाबा के दरसन भेंटैत?' (बाबा के दर्शन होंगे?) मैं उल्टे पाँव लौटा और बाबूजी के पास जाकर बोला--'हरिजी आये हैं, मिलना चाहते हैं।'
पिताजी दरवाज़े तक गये, हरिजी को देखकर बोले--'अब कैसी तबीयत है?'
हरिजी ने अतिशय विनम्रता से कहा--'अब एकदम ठीक भै गेलौं बाबा! पूरा जिनगी बीत गेल, कब्बो दस दीन आराम न केलौं! अपने के बड्ड किरपा... बाबा!' (अब एकदम ठीक हूँ बाबा! पूरी ज़िंदगी बीत गयी, कभी दस दिन आराम नहीं किया। आपकी बहुत कृपा...बाबा!)

पिताजी के चेहरे पर संतोष की लकीरों को आसानी से पढ़ सकता था मैं। हल्की मुस्कराहट के साथ उन्होंने कहा--'हाँ, ठीक है। तबीयत ठीक है तो अब काम करो।'

हरिजी आजीवन पिताजी की सेवा करते रहे और जूते-चप्पल की छोटी-बड़ी मरम्मत के लिए पैसे न लेने की ज़िद करते रहे, लेकिन शुरूआत में ही पिताजी की एकमात्र कठोर वर्जना के बाद यह सिलसिला थम गया।...

1995 में पिताजी गुज़र गये। हरिजी बदस्तूर उसी बिजली के खम्भे के नीचे बैठते रहे--उदास। 2009 में पटना छोड़ जब मैं दिल्ली चला गया, तब तक उम्र की अशक्तता ने उन्हें बहुत कमज़ोर बना दिया था। लंबे अंतराल पर जब कभी मैं पटना जाता, उनका कुशल-क्षेम पूछना न भूलता और हरिजी पिताजी का स्मरण करते हुए उनके औदार्य का उल्लेख करना न भूलते...!

एक बार की ऐसी ही पटना-यात्रा में हरिजी के स्थान पर एक युवक बैठे मिले। मैं चकराया। उस युवक से मैंने बाबा के बारे में पूछा तो उत्तर मिला--'बाबा तऽ चलि गेला।' (बाबा तो चले गये।) सुनकर बुरा लगा। और, कानों में गूँजने लगा हरिजी का वाक्य--'पूरा जिनगी बीत गेल, कब्बो दस दीन आराम न केलौं!...'


रात्रि-शयन और एक घण्टे की दिवा निद्रा के अलावा मैंने पिताजी को भी कभी विश्राम करते नहीं देखा--आजीवन लिखते-पढ़ते और किताबों-पाण्डुलिपियों के अंबार में डूबे हुए ही मिले वह !... कहते भी थे--'परिश्रम करना जीवन-यात्रा का आध्यात्मिक नियम है...!'

अब पिताजी और हरिजी दोनों आराम में हैं।... दोनों को नमन हमारा...! 🙏

[--आनन्द. 27-1-2018]
[चित्र : 1. 'मुक्त कुटीर' के आँगन में पिताजी, सुबह की चाय और अखबार के साथ 2. हरिजी (काल्पनिक चित्र), अपने अड्डे पर.]

गुरुवार, 25 जनवरी 2018

मेरे बुद्धिजीवी झोले में दस दिनों का जीवन...

[अंतिम क्षेपक]

मेरे कंधे पर युवावस्था से रहा है बुद्धिजीवी झोला। पुणे में मेरे पास दो झोले थे--एक कहीं छूट गया, दूसरा बहुत पुराना और जर्जर हो गया। मैं झोले के बिना ही यात्रा पर निकल आया। अनुज हरिश्चंद्र दुबे के सुपुत्र अविजित ने विदा होते वक़्त खादी ग्रामोद्योग से मेरे पसंदीदा दो झोले मुझे खरिदवा दिये थे। ऐसे झोले पुणे में नहीं मिलते न!...भाई सुनील तिवारी के घर जब शाम होने को आयी, चाय पीने का मन था; लेकिन श्रेया विद्यार्थी बिटिया का फोन बार-बार आ रहा था--'कब आओगे मामा? यहीं आकर चाय पीना। बस, अब चले आओ।'

यह इस प्रवास की अंतिम कनपुरिया शाम थी। दूसरे दिन हमें लखनऊ से पकड़नी थी पुणे की फ्लाइट। जब कानपुर की सड़कों पर दौड़ती कार में अपने नये खरीदे झोले के साथ चला तो याद आया--इन्हीं सड़कों को तीन वर्षों तक कितना धाँगा है मैंने साइकिल से। तब भी कंधे से लटकता था ऐसा ही झोला, लेकिन तब उसमें होता नहीं था पनडब्बा, सुपारी-सुरती की झन-झन बजती टिन की डिब्बियाँ और कविता की एक अदद डायरी; बल्कि उसमें होता था प्लेनचैट का बोर्ड, शीशे की छोटी गिलसिया--नर्म-मखमली कपड़े की तहों में लिपटी हुई और सिल्क की स्वच्छ धोती। सोचने लगा, कितना बदल गया है वक़्त और कितना बदल गया हूँ मैं। आईने के बिना अपनी ही शक्ल तो देखी नहीं जा सकती न! लेकिन, मन हुआ, देखूँ अपना चेहरा, पहचानूं, वही हूँ न, जो वहाँ जा रहा हूँ; जहाँ होती थीं मेरी स्नेहमयी दो-दो दीदियाँ! स्वदेशी-सेवा के ज़माने में जिनके पास प्रति सप्ताह शनिवार की शाम पहुँच जाता था मैं। दफ़्तर से छुट्टी पाते ही बुद्धिजीवी झोला कंधे से लटकाकर मैं मित्रवर ध्रुवेन्द्र के साथ चल पड़ता अपनी-अपनी साइकिलों से। आर्यनगर में ध्रुवेन्द्र ठहर जाते अपने बड़े पापा के घर, मैं वहाँ से आधा किलोमीटर आगे बढ़ जाता तिलक नगर तक, जहाँ हुतात्मा पूज्य गणेशशंकर विद्यार्थीजी की बड़ी-सी कोठी थी, विशालकाय परिसर में। जिसमें रहती थीं मेरी दोनों दीदियाँ--श्रीलेखा और मधुलेखा विद्यार्थी--गणेशशंकरजी की पौत्रियाँ!

यह गणेशशंकर विद्यार्थीजी से चला आ रहा हमारी चौथी पीढ़ी का स्नेह-संबंध था। अपने जीवनकाल में गणेशशंकरजी जब-जब प्रयाग जाते, मेरे पितामह 'शारदा'-संपादक साहित्याचार्य पं.चन्द्रशेखर शास्त्री से मिलना न भूलते। पितामह के दारागंज स्थित आवास पर उनसे मिलकर और एक लंबी बैठक के बाद ही प्रयाग से लौटते। 'प्रताप' पत्र में गणेशशंकरजी ने पिताजी की कई कहानियां छापी थीं और पिताजी भी 'प्रताप'-कार्यालय में कई बार गणेशजी से मिले थे। वह युग तो बीत गया, लेकिन उसी संपर्क-सूत्र को मैंने अपने तीन वर्षों के प्रवास में थाम लिया था और दोनों बहनों का अनुगत भ्राता बना था।

प्रति सप्ताह शनिवार की रात बिछ जाता था हमारा बोर्ड और शुरू होतीं हमारी परा-शक्तियों से लंबी-लंबी वार्ताएं! जिसमें रोना-गाना और यदा-कदा हँसना भी होता था। कई बार तो सुबह के वक़्त पक्षियों का कलरव सुनकर हम बोर्ड से उठते और शय्याशायी होते। रविवार विश्राम का दिन बन जाता।...फिर सोमवार की सुबह मैं वहीं से स्वदेशी के लिए निकलता, आर्यनगर से ध्रुव को लेता हुआ। यही क्रम अबाध चलता रहा...

मन में स्मृतियों के कितने स्फुलिंग कौंध रहे थे उस शाम, जब पत्नी के साथ मैंने उसी परिसर में प्रवेश किया, जिसमें अपनी माताओं के साथ श्रेया को बित्ते-भर का देखा था कभी...! अब वह बड़ी और समझदार बेटी बन गयी है। हमारे पहुँचते ही उसने हमें चाय पिलायी, मुझसे और अपनी मामी से बातें कीं, फिर हमारे लिए बाटी-चोखा बनवाने में जुट गयी। मामीजी भी उसी के साथ हो लीं।...

मैं उस भवन के हर कमरे में गया--बड़ी दीदी और मधु दीदी के शयन कक्ष में, श्रीदीदी के ऑफिस में, बैठक में--सर्वत्र। घर के गोशे-गोशे से मेरी अटूट संपृक्ति थी। मैंने और मधु दीदी ने मिलकर कभी पुराने गट्ठर खोले थे, प्राचीन काल के बक्से खोलकर गणेशशंकरजी के महत्वपूर्ण साहित्यिक अवदानों को सहेजा था। एक गहरा सन्नाटा पसरा था वहाँ! बड़ी दीदी के जिस दफ़्तर में हाली-मुहाली लगी रहती थी कभी, आज वहाँ अस्त-व्यस्तता और धूल का साम्राज्य था। विधि-न्याय की पुस्तकों का अंबार शेल्फ में उदास पड़ा था। मधु दी' की साहित्यिक पुस्तकें भी गुमसुम थीं--यह सब देखकर मन दुखी हो गया, अवसाद से भर आया, एक अव्यक्त बेचैनी मेरी संपूर्ण सत्ता पर छाने लगी और मैं बीच के डायनिंग हाॅल में एक सोफ़े पर ख़ामोश बैठ गया। सच है, जगत् का सारा कार्य-व्यापार व्यक्ति के होने से चलता है। जब वही नहीं होता तो लगता है, वक्त वहीं ठिठक-सहमकर रुक गया है। एक वर्ष के अंतराल पर दोनों दीदियाँ जगत्-मुक्त हुईं--पहले छोटी, फिर बड़ी दीदी! मैं उस शाम जहाँ, जिस सोफ़े पर बैठा था, उसके पीछे दोनों दीदियाँ मालाएं धारण किये शीशे के फ्रेम में कैद थीं, फिर भी मुस्कुरा रही थीं और मुझसे जी-भरकर रोया भी न जा रहा था। ऊपर दीवार पर उन दोनों के पूज्य पिता स्व. हरिशंकर विद्यार्थीजी का चित्र था। मैं इन सारी विभूतियों से नज़रें मिलाने से बचता पीठ दे बैठा रहा। जाने कब श्रीमतीजी कमरे में आयीं और उन्होंने पीछे से इसी भाव-भंगिमा की मेरी एक तस्वीर उतार ली।

श्रेया की पुकार पर हम सबों ने मिल-बैठकर बाटी खायी, बातें कीं और जब लौटने को उद्यत हुए तो श्रेया खादी के दो बुद्धिजीवी झोले मुझे देते हुए बोली--'ये लो मामा! मैं ले आयी तुम्हारे लिए झोले!' मैंने कहा--'मैंने तो आज ही खरीद लिया है बेटा! इस सर्दी में तुमने नाहक दौड़ लगायी।'... लेकिन उसने मेरी एक न सुनी और दोनों झोलों के साथ ही मुझे विदा किया। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे दोनों दीदियों ने एक-एक झोला मुझे श्रेया के हाथों दिलवाया है।... अब बुद्धि चाहे जितनी हो मेरे पास, झोले बहुत हो गये थे--चार-चार।...

31 दिसम्बर की रात कठिनाई से बीती। पुरानी स्मृतियाँ चैन से सोने न देती थीं। दूसरे दिन सुबह ही हम कानपुर से विदा हुए और एक अभिन्न बाल-सखा का अनुसंधान करते हुए लखनऊ से पुणे की हवाई यात्रा पर चल पड़े। 1 जनवरी की मध्य रात्रि में हम पुणे पहुँच गये।...






अब तो यात्रान्त हुए दस दिन बीत गये हैं, लेकिन मन उन्हीं दस दिनों की सुधियों में खोया हुआ है। इस संक्षिप्त यात्रा में मैंने दुनिया की भीड़ में गुम हुए भाई को खोज निकाला, दीर्घकाल से बिछड़े मित्रों और आत्मीय अनुज से मिला--समझिये, परमानंद हुआ! इसे मैं वर्ष 2017 की उपलब्धि मानता हूँ और इसका सारा श्रेय अपनी गृहलक्ष्मी को देता हूँ; क्योंकि उन्होंने ही नौ वर्षों के मेरे एकरस जीवन को देखकर इस कार्यक्रम की सहर्ष स्वीकृति दी थी मुझे।... जैसे किसी चलचित्र में पिता ने पुत्री से कहा था न--'जा सिमरन, जा, जी ले अपनी ज़िंदगी!'... यह सुनकर सिमरन बेतहाशा दौड़ चली थी और भागती ट्रेन में चढ़कर अपने प्रेमी की बाँहों में झूल गयी थी।... मैं भी श्रीमतीजी की स्वीकृति पाकर दौड़ चला, लेकिन सिमरन की तरह मैं अकेला नहीं था, मेरे साथ तो मेरी जीवन-संगिनी थीं ही; लिहाज़ा मैंने मित्रों को अपनी बाहों में बाँध लिया।... पिता का आदेश पाते ही कलानेत्री 'सिमरन' तो जीवन-भर के लिए भाग चली थी, लेकिन मुझे सिर्फ दस दिनों का जीवन जीने की मुहलत मिली थी।...
(--आनन्द. 31-12-2017.)

[चित्र : 1) श्रेया विद्यार्थी 2) उद्विग्न-मन--मैं 3) बड़ी दीदी के वीरान दफ़्तर में 4) मैं, जब दोनों दीदियों की ओर देखने की हिम्मत न रही 5) मैं और साधनाजी, जब प्रस्थान के लिए उठ खड़े हुए 6) बुद्धिजीवी झोलों के साथ वापसी के गलियारे में 7) कोठी के द्वार पर...।

सोमवार, 22 जनवरी 2018

भ्रमण-कथा के अंतिम चरण में 'हरि'-कथा...!

[भ्रमण-कथा]

मेरी उत्तर प्रदेश की भ्रमण-कथा में एक महत्वपूर्ण क्षेपक रह गया...! 'रह गया' का तात्पर्य यह नहीं कि वह छूट गया, बल्कि जान-बूझकर रोक रखा गया, ताकि कानपुर-प्रवास के उन क्षेपक प्रसंगों को ही मैं समापन-कथा बना सकूँ। कानपुर का प्रवास चार दिनों का था, गणना के हिसाब से सबसे अधिक दिनों का। पटना के सहपाठी मित्र मित्र विनोद कपूर के घर दो दिन, अभिन्न बंधु ध्रुवेन्द्र प्रताप शाही के घर दो दिन और शेष चार दिन कानपुर के साढ़ूभाई सुनील तिवारी के घर। इस प्रवास के आठ दिन और दो दिन यात्रा में व्यतीत होने के--कुल मिलाकर दस दिन! साधनाजी का शीतकालीन अवकाश बस इतना ही तो था। उन्हें हर हाल में 2 जनवरी तक पुणे पहुँच जाना था। 3 जनवरी से उन्हें लगानी थी विद्यालय की दौड़। यात्रा-पथ बदल जाने से एक दिन का हमें अतिरिक्त लाभ मिला। जानता हूँ, इस रोजनामचे में आपकी रुचि भला क्या होगी, लिहाजा सीधे मूल कथ्य पर आता हूँ।

29 दिसम्बर को जब मैं बंधुवर ईश्वर से मिल आया तो मुझे उनके अनुज हरि की याद आयी। उनसे मिले हुए भी बहुत लंबा अरसा हो गया था। हरि की याद के साथ याद आये पुराने दिन--1976-77 के। स्वदेशी कॉटन मिल्स के दिन! कानपुर में स्थापित हो जाने के पाँच-एक महीने बाद ही ईश्वर अपने अनुगत अनुज हरि को गाँव से अपने साथ ले आये थे। तब तक ईश्वर-ध्रुवेन्द्र और मैं गम्भीर मैत्री-सूत्र में बँध चुके थे, हम साथ-साथ रहते, खाते-पीते, मौज-मस्ती करते। ऊपर कोई नाथ नहीं थे, किसी के हाथ में हमारा पगहा भी नहीं था, हम छुट्टे युवा थे और मनमौजी भी। हवा की तरंगों पर तरंगित होते रहते थे हम तीनों! मेरे परा-विलास के कौतुकों में ईश्वर बहुत रुचि लेते और ध्रुवेन्द्र मेरे इस कृत्य के कठोर आलोचक थे। ईश्वर के सहयोग से मेरी शक्ति बढ़ गयी थी। हम दिन-भर तो साथ रहते ही, कई-कई रातें भी परा-विलास-रत साथ बिताते।

ईश्वर के अनुज हरिश्चंद्र के आ जाने से इस साथ-संग और एकांत साधना में व्यवधान पड़ा। शाम होते ही ईश्वर कहने लगते--'अब मैं जाता हूँ, हरि अकेला है डेरे पर।' और, वह चले जाते, लेकिन परा-विलास का सुख ऐसा तीखा नशा है, जिसके सिर चढ़ जाय, आसानी से उतरता नहीं। शीघ्र ही ईश्वर के आमंत्रण पर हमारा नैश-सम्मेलन ईश्वरचंद्र दुबे के घर होने लगा।

हम वहीं ईश्वर के छोटे भाई हरिश्चंद्र दुबे से मिलने लगे।
वह बहुत ज़हीन, शिष्ट-शालीन, सभ्य-सुसंस्कृत और अनुगत किशोर थे। विनम्रता उनकी उत्कृष्ट विशेषता थी, बड़े-बुजुर्गों के सम्मुख नत रहना उनकी जन्मना वृत्ति थी, आज्ञाकारिता उनका आभूषण थी और सोने पर सुहागा यह कि अनूठा साहित्यानुराग उनके अंतर्मन में पलता था।

रात्रि-सम्मेलन में और परा-शक्तियों को आमंत्रित करने के सुकृत में हरि विस्मयाविभूत, कौतुहल-जड़ बालक की तरह बैठे पलकें झपकाते रहते, किंचित् अविश्वास के साथ। ईश्वर के अनुरोध पर एक रात मैंने उनकी दिवंगता बड़ी माँ का आवाहन किया। वह आयीं और जिन बातों का उन्होंने स्वयं उल्लेख किया, उससे हरि बहुत प्रभावित हुए; क्योंकि उनकी बतायी सारी बातें पूर्णतः सत्य थीं। ईश्वर और हरि--दोनों भाई चकित रह गये थे।...

रात्रिकालीन भोजन और हमारी समस्त सुविधाओं का ख़याल हरि रखते। वह गाँव से लाये गये पाकशास्त्री सेवक को निर्देश देते, व्यस्त रहते। उनकी जिज्ञासाओं का अंत नहीं था। वह मुझसे प्रश्न पूछते जाते और मैं उनकी जिज्ञासा शांत करने की चेष्टा करता रहता। अंततः हरि के 'ध्रुव भैया' चिढ़ जाते और तुनककर कहते--'अब यहाँ खाली भूते-प्रेत बतिआओगे का तुमलोग?' और, यह कहकर ध्रुवेन्द्र बाहर निकल जाते कुहराकशी (धूमपान) के लिए। यह देख हरि संकुचित हो जाते। वह हम तीनों भाइयों में से किसी की नाराज़गी मोल नहीं ले सकते थे। मैं उनसे कहता--'फिक्र मत करो, बीड़ी फूंककर अभी लौट आयेगा नामाकूल!'... ईश्वर सब सुनते और शांत रहते, अपनी मंद-मंद मुस्कान के साथ। उमंग-भरे अजब नशीले दिन थे वे भी, कभी न भुलाये जानेवाले।...

अपने दो-दो ऐंठे हुए अभिन्न (एक तो राजा ठाकुर ध्रुवेन्द्र और दूसरे खड़ी मूंछों और चढ़ी आँखोंवाले जमींदार ईश्वर), किंतु असाहित्यिक मित्रों के बीच हरि का आगमन मुझे तप्त भूमि में शीतल बयार-सा लगा; क्योंकि वह छोटी-छोटी पर्चियों पर मोती-जैसे अक्षरों में कविताएं लिख लाते और मुझसे ससंकोच कहते--'ओझा भइया, जरा देख लीजिएगा इसे?' मैं उनकी छोटी-बड़ी कविताएँ देखता और चकित होता। हरि भी तो उसी बड़े जमींदार परिवार के कुल-दीपक हैं, उनमें इतनी साहित्यिक समझ और साहित्यानुराग कैसे भला?... सच्ची बात तो यह है कि गहरा अनुराग प्रगति की पहली शर्त होता है। यह अनुराग हरि में प्रचुर मात्रा में था। सच्चे अर्थों में वह मेरे भी अनुज बन गये। अब कानपुर में हरि के एक नहीं, तीन-तीन अग्रज थे। वह हम सबका बड़ा ख़याल रखते, आदर देते और हम उन्हें अपनी आन्तरिक प्रीति देते। कानपुर-प्रवास में हमारे बीच हरि की उपस्थिति मुझे अपने छोटे भाई यशोवर्धन ओझा की और ध्रुवेन्द्र को राकेश प्रताप शाही की कमी का अहसास न होने देती। वह हमारे इतने अपने हो गये थे, इतने अंतरंग अनुज! दफ़्तर का व्यवधान न होता तो हम सभी दिन-रात साथ होते।...

सन् 1977 में जब अचानक मुझे स्थानान्तरण का आदेश मिला तो इस सूचना से मित्रों के अलावा जो सबसे ज्यादा संतप्त हुए, वह अनुज हरि ही थे। मुझे याद है, कानपुर स्टेशन पर मुझे विदा करने वह भी आये थे और ठीक विदा के वक्त रुआँसे हो गये थे। वह यात्रा मुझे उनसे दूर ले गयी थी, लेकिन वह मेरे मन से कभी दूर नहीं हुए। यही कारण है कि जब 1978 में मेरा विवाह हुआ तो वधू-स्वागत के अवसर पर ईश्वर ने उन्हें ध्रुवेन्द्र भाई के साथ दिल्ली भेजा था। स्वागत-समारोह में सम्मिलित होकर और दिल्ली के बड़े-बड़े साहित्यकारों के दर्शन कर हरि खिल उठे थे--अतिशय प्रसन्न!

कालान्तर में मुझ अकिंचन को ईश्वर-हरि के पूज्य माता-पिता की सहज प्रीति भी मिली थी। मैं उनका स्नेहभाजन बना था, जबकि दिल्ली-वासी बन जाने के कारण उनसे मेरी मुलाक़ातें न्यूनतम थीं। स्वास्थ्य कारणों से बाद में वे दोनों कानपुर आ गये थे और हरि के पास ही रहने लगे थे। वहाँ भी उनके दर्शन का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ था। हरि कानपुर में ही जे.के. सिन्थेटिक्स जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में नौकरी से लग गये थे। हरि के पिता बड़े प्रज्ञावान नैष्ठिक ब्राह्मण थे और माता अत्यन्त विदुषी महिला थीं। हरि के पिताजी का अपने क्षेत्र में बड़ा मान-सम्मान और प्रभाव था। लेकिन दैव-दुर्विपाकवश सन् 1996 में मस्तिष्क के आघात के कारण वह जीवन-जगत् से मुक्त हो गये। हरि की पूजनीया माताजी ने दीर्घ जीवन पाया था और अंतिम वर्षों में दीर्घायुष्य की यातनाएं सही थीं।...

सन् 1979 के अंत में मैंने दिल्ली छोड़ी और कई शहरों की खाक छानता हुआ अंततः पटना पहुँच गया। वहाँ पहुँचकर जीवन स्थिर हो गया था--पारिवारिक जिम्मेदारियों में उलझा हुआ। ऐसे में मित्रों-आत्मीयों के लिए अवकाश ही कहाँ था? बरसों-बरस के दिन अपनी उलझी सुलझाने में ही बीत गए।... लेकिन मैं जहाँ भी रहा, हरि का पोस्टकार्ड या अंतर्देशीय पत्र मुझ तक पहुँचता रहा, जबतक पत्रों के आवागमन का जीवन शेष रहा। इसी बीच सन् 1994 में कानपुर से संबंधों के नये तार जुड़े। हर्षनगर-निवासी सुनील तिवारी मेरे साढ़ूभाई बने। साल-दो साल पर उनके पास आना-जाना होने लगा। इसी क्रम में 2007 की गर्मियों में जब मैं कानपुर में था, मुझे हरि की याद आयी तो मैंने उन्हें फ़ोन किया। मेरा स्वर सुनकर आनन्दातिरेक में वह बोले--'मैं आपसे मिलने अभी आता हूँ भइया!' और, दफ़्तर छोड़कर आधे घण्टे में आ पहुँचे हरि! वर्षों बाद मिले थे वह--हुलसित और उत्फुल्ल! हमारी लंबी वार्ताएं हुईं। हमने आपस में दुःख-सुख बाँटे। हरि प्रगति की सीढियां चढ़ते उच्च पद पर आ पहुँचे थे और एक पुत्र और एक पुत्री के पिता बनकर संतुष्ट-प्रसन्न और व्यवस्थित हो चुके थे तथा कमला नगर में कंपनी की काॅलोनी में रहने लगे थे।
हरि ने बताया कि "अम्मा कष्ट में हैं। कूल्हे के दो-दो फ्रैक्चर की पीड़ा झेल चुकी हैं, वाॅकर के सहारे चल पाती हैं और आपको याद करती हैं। पूछा करती हैं--'ओझा बहुत दिनों से कानपुर नहीं आया, हमें तो भूल ही गया शायद।"... हरि से यह सुनकर मैं सिहर उठा। जिन श्रद्धेया के जीवन के परिदृश्य से मैं वर्षों पहले हट गया था, उनकी स्मृतियों के किसी एकांत में मैं आज भी रहता हूँ? आश्चर्य! लेकिन आश्चर्य भी कैसा? उस युग के लोग ऐसे ही स्नेही थे। अम्मा भी वैसी ही थीं--स्नेह लुटानेवाली। मैंने वस्त्र बदले और उनके दर्शन के लिए हरि के साथ तत्काल चल पड़ा।
कई बरस बाद अम्मा के दर्शन कर मन दुखी हो गया। वह वाॅकर से चलते हुए सम्मुख आयीं। अत्यन्त कृश हो गयी थीं। वह बैठ गयीं तो मैंने चरण छुये और बातें शुरू कीं। मेरा ख़याल है, वह अस्सी वर्षों से अधिक का दुःख-सुख देख आयी थीं। रुग्ण थीं, वार्धक्य की अशक्तता ने शरीर तोड़ दिया था, लेकिन अदम्य जिजीविषा थी उनमें, वाणी की टंकार वही थी पहलेवाली। उन्होंने मुझे उलाहने दिये, मेरा हाल पूछा, पुरानी यादें ताज़ा कीं और इतना स्नेह दिया कि मैं आकंठ भर पाया। दो घण्टे बाद उनका आशीर्वाद लेकर जब मैं हरि के घर से लौटा तो मन-प्राण भीगा-भीगा था। उनसे हुई वही मुलाक़ात अंतिम सिद्ध हुई। तीन वर्ष बाद रीढ़ की हड्डी में एक और सांघातिक आघात लेकर वह भी दुनिया से चली गयीं और हमारी स्मृतियों का हिस्सा बन गयीं।...

वक़्त का एक लंबा टुकड़ा फिर हाथों से फिसल गया।... तात्कालिक कानपुर-प्रवास में, जब अंतिम और एक अतिरिक्त दिन का लाभ मुझे मिला तो अभिन्न अनुज हरि से मिलकर लौटना ही सुनिश्चित हुआ। लखनऊ में ध्रुवेन्द्र ने ताकीद भी की थी कि 'हरि से जरूर मिल लेना, वह तुम्हें बहुत याद करता है।' मैंने हरि से फोन पर संपर्क किया तो वह बज़िद हो गये कि दिन का भोजन आप मेरे घर, मेरे साथ ही करेंगे। मैंने इस झंझट से मुक्ति चाही, क्योंकि पुणे के पथरीले पानी ने पाचन-तंत्र ध्वस्त कर रखा था। लखनऊ में गोमती के और कानपुर में गंगा के मीठे-शीतल और तृप्तिकर जल से पाचन-तंत्र की क्लीनिंग का कार्य प्रगति पर था। पिछले सप्ताह में पच्छिम का सुस्वादु भोजन भी हमने कम तो नहीं किया था न! लेकिन हरि किसी तरह मानने को तैयार नहीं थे। मुझे हामी भरनी पड़ी।

इस वार्ता के दूसरे दिन मैं साधनाजी के साथ हरि के घर गया, जो सुनील भाई के घर से नातिदूर था। हम हरि के घर के छोटे-से आँगन में, धूप में, बैठे। वहाँ सबकुछ था--भरा-पूरा घर, मधुर-मनोहर स्मृतियों का सैलाब, बड़े हो गये दोनों बच्चे--मुकुल-मनु, सुघड़-सुदर्शना हरि की पत्नी सुशीला, मीठे रस-भरे स्वस्थ रसगुल्ले, चाय-काॅफ़ी और भोजन की तमाम व्यवस्था, लेकिन नहीं थीं तो अम्माजी। वह माला धारण कर एक कमरे की दीवार पर ईश्वर-हरि के पिताजी की अनुगामिनी बनी विराज रही थीं। उन दोनों की तस्वीर देखकर मन द्रवित हुआ।...

जाड़े की नर्म धूप में बैठकर हमारी बातें शुरू हुईं तो उनका अंत नहीं था कहीं। कितना कुछ एकत्रित हो गया था हमारे पास साझा करने को...! मुझे यह देखकर बहुत प्रसन्नता हुई कि हरि ने अपने दोनों बच्चों को अच्छे संस्कार दिए हैं, उन्हें अपनी ही तरह विनयी, शालीन और सुयोग्य बनाया है। ज्येष्ठ सुपुत्र मुकुल (अविजित दुबे) शांत, गम्भीर, सुशील और विनयी युवक हैं और उत्तर प्रदेश क्रिकेट संघ के दफ़्तर में आयोजक-संयोजक का दायित्व सँभाल रहे हैं तथा सुपुत्री मनु (प्रत्यांशा) अध्यनशील मेधावी कन्या है और अत्यन्त मधुर गायन की योग्यता रखती है। उसने अपने गाये एक-दो गीतों की वीडियो क्लिप मोबाइल फोन पर दिखा-सुनाकर हमें चकित-प्रसन्न कर दिया था।

बहू सुशीला ने मनुहार करके मुझे अल्प भोजन करने को विवश कर दिया, जबकि कल की यात्रा के लिए मैं उग्र उदर को आराम देना चाहता था। भोजनोपरान्त पिताजी को संबोधित अपनी एक कविता मैंने हरि को सुनायी तो उन्होंने भी अपनी एक कविता मुझे सुनायी, जिसे उन्होंने मेरे लिए तब लिखा था, जब 2007 में मैं अम्मा से मिलने उनके घर गया था। कविता में उनके दिल की धड़कनें साफ सुनाई देती हैं। वह कविता क्या है, हरि के उदात्त मनोभावों की पराकाष्ठा है मेरे प्रति। उनकी कविता ( उन्हीं की हस्तलिपि में पूरी कविता की फोटो क्लिप संलग्न है) की अंतिम चार पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहूंगा--
'यह पूर्वजन्म का रिश्ता अपना
अमर रहेगा जनम-जनम,
इस जीवन में हम यहाँ मिले,
उस जीवन में हो कहाँ मिलन?'

जब आँगन से धूप निकल भागी, तब हम ड्राइंग रूम में जा बैठे। थोड़ी अंतरंग चर्चाओं के बाद हम सभी प्रस्थान की भाव-भंगिमा के साथ उठ खड़े हुए। घर के अहाते में हम सब एकत्रित हुए और हमने सम्मिलित तस्वीरें उतरवायीं और विदा हुए।






मनुष्य की संरचना में जो गुण-तत्व प्रारंभिक काल में समाहित होते जाते हैं और लंबे समय तक स्थिर भाव में रहते हैं, वे ही उसकी वृत्ति का हिस्सा बन जाते हैं, वे संस्कार का आधार होते हैं। लौटती सड़कें नापते हुए मन के आकाश में भावनाओं का विचित्र आलोड़न था। हरि ने जीवन में बहुत संघर्ष किया, बुजुर्गों की सेवा की, कष्ट सहे, लेकिन कभी धर्म, कर्तव्य और दायित्व से विमुख नहीं हुए, विचलित नहीं हुए। चालीस वर्षों के दीर्घकालिक प्रसार में हरि जितनी आत्मीयता से मेरे अंतरंग अनुज बने रहे हैं, अभिन्न और पूर्णतः समर्पित भ्रातृ-भाव से मेरे अनुगत रहे हैं, वह ऐसे ही बने रहेंगे--इसका पूरा विश्वास है मुझे। मेरे 65 वर्षों के जीवन में हरि-जैसे सुपात्र की द्वितीयता नहीं है और जानता हूँ, अब होगी भी नहीं।...
(--आनन्द. 5-1-2018.)

[चित्र  : 1) ईश्वर-हरि के पूज्य पिताजी, 2) पूजनीया अम्माजी, 3) अनुज हरि और मैं, 4) हरि सपरिवार और मैं,
 5) वर के वेश में बंधु ध्रुवेन्द्र, 5) साढ़ूभाई सुनील तिवारी के साथ]

बुधवार, 17 जनवरी 2018

जब दुनिया के मेले में बिछड़े थे दो भाई...!

[भ्रमण-कथा]

जीवन-पथ है बड़ा विलक्षण! आज से 46 साल पहले सन् 1971में जब मैंने विद्यालय की दहलीज़ लाँघकर महाविद्यालय की देहरी पर पाँव रखा था, तब दुनिया के मेले में दो भाई मिले थे, मित्र बने थे, फिर उसी मेले में बिछड़ भी गये। यह उसी युग की कहानी है। उस युग में उन दोनों की बस दो-तीन मुलाक़ातें हुईं; क्योंकि वे दोनों दूर-दूर के शहरों में रहते थे, छोटे भी थे और माता-पिता की आज्ञा के बिना एक-दूसरे के शहर की दौड़ नहीं लगा सकते थे। वह युग बुजुर्गों की अवज्ञा का युग नहीं था। फिर भी, दो-तीन संक्षिप्त मुलाक़ातों में ही उनकी मैत्री प्रगाढ़ हो गयी। चूँकि दुनिया के मेले में बिछड़ने के पहले दोनों पढ़ना-लिखना सीख गये थे, लिहाज़ा पत्राचार के दम पर मित्रता पलती रही और दिन बीतते रहे। फिर पत्राचार शिथिल हुआ, वे दोनों अपने-अपने जीवन में संघर्षों का जुआ कंधे पर लेकर अलग-अलग दिशाओं में दौड़ने लगे। फिर तो दशक पर दशक बीतते गये। एक मित्र का तो पता नहीं, पर दूसरे को याद रह गया वह पता, जिस पते पर वह लिखता रहा था पत्र, अपने मित्र के नाम। चार दशक बीत गए। दूसरे मित्र की स्मृति से मिट गया पता, नाम भर याद रह गया दोस्त का और भीनी-भीनी सुगंधि बसी रह गयी मित्रता की मिठास के साथ...।

मैं बताऊँ आपको वे दो मित्र कौन थे? एक थे राकेश शर्मा और दूसरे थे आनन्दवर्धन ओझा। 46 साल बाद, विगत शरदावकाश में, जब परम मित्र ध्रुवेन्द्रप्रताप शाही और विनोद कपूर की पुकार पर मैं लखनऊ गया और ध्रुवेन्द्र के घर पहुँचा तो मुझे अपने बिछड़े मित्र का नाम याद आया, उसके घर की शक्ल याद आयी। उसका घर शाही के निवास से दूर नहीं था। मैंने शाही से कहा, कल मुझे पार्क रोड जाना है, पुराने और बिछड़े भाई से मिलने। शाही मुझे अपने वाहन से वहाँ ले चलने को सहर्ष तैयार हो गये।

अर्द्धशती में पार्क रोड की शक्ल बेतरह बदल गई थी। बचपन की आँखों देखे घर को चिह्नित कर लेना आसान नहीं था। गली-गली पूछता-ढूँढ़ता मैं उस लेन में प्रविष्ट हुआ जो धुंधली यादों में कहीं रचा-बसा था। जब एक सज्जन के बताये हुए ठिकाने पर पहुँचा तो स्मृतियों की कोठरी रौशन हो गयी। ओह, यही तो था, मेरी स्नेहमयी मौसी और अनुशासनप्रिय, कठोर सिद्धांतवादी मौसाजी का घर, जिसकी तस्दीक कर रहा था घर के द्वार पर लगा शिलापट्ट! मेरे घण्टी बजाने पर जो भद्र महिला प्रकट हुईं, उन्होंने बताया कि राकेश शर्मा अब यहाँ नहीं रहते। वह अपने नये आवास पर मिलेंगे। प्रयत्न निष्फल हुआ देख निराशा हुई, लेकिन उन्हीं भद्र महिला से मुझे राकेश भाई का सेलफोन नंबर मिला। मैंने वहीं खड़े-खड़े राकेश से फोन पर बातें कीं। उस वक्त वह कार चला रहे थे। 'ओझा' शब्द सुनते ही उन्होंने मुझे पहचान लिया और गर्मजोशी से बातें कीं। मध्य मार्ग में किसी मीटिंग प्वाइंट पर मिल लेने को कहा। लेकिन उस दिन यह संभव हो न सका और दूसरे दिन सुबह-सबेरे मैं निकल आया कानपुर। राकेश से न मिल पाने का क्षोभ तो था, लेकिन यह संतोष भी था कि अब उसका संपर्क-सूत्र मेरे पास है।

कानपुर पहुँचकर मैंने ह्वाट्सऐप पर राकेश की तलाश की। वहीं उसकी ताजा तस्वीर मैंने देखी और चकित हुआ--वह तो ठीक वैसा ही है, जैसा 46 साल पहले था। इस दीर्घकाल में वक़्त ने प्रयत्नपूर्वक महज उसके केश को रजत महिमा से मण्डित किया था।...मैंने उसे ह्वाट्सऐप पर कई संवाद भेजे। भला आदमी मैसेज देखता ही नहीं था। अचानक मुझे उस एकमात्र तस्वीर की याद आयी, जो किशोरावस्था में बिछड़ने के पहले हमने स्टूडियो में खिंचवाई थी। पिछले वर्ष जब मई में पटना गया था, तब सामानों की उठा-पटक में मिली थी वह तस्वीर और मैंने उसकी क्लिप सेल में सुरक्षित रख ली थी। 28 दिसंबर को मैंने वह तस्वीर राकेश को ह्वाट्सऐप पर भेज दी। 29-30 दिसंबर के दिन बहुत व्यस्तता में बीते। मैं कानपुर के मित्रों, अनुजों से मिलता हुआ आनन्द-मग्न रहा...।

31 दिसंबर की सुबह मुझे ट्रेन से पुणे के लिए प्रस्थान करना था, लेकिन टिकट कन्फर्म नहीं था। 30 की रात जब चार्ट तैयार हो गया तो ज्ञात हुआ कि मेरी यात्रा का योग तो बना ही नहीं। अब यात्रा की नयी योजना बनानी थी। उसी रात वायुमार्ग से पुणे जाने की सारी व्यवस्था बड़ी बेटी शैली ने कोच्ची से की। जिसके अनुसार बहुत मँहगा हवाई टिकट लेकर मुझे फिर लखनऊ एयरपोर्ट से दिल्ली होते हुए पुणे जाना था। दरअसल, योजना तो स्वयं विधि बना रखी थी। नियति ने भाग्य में पहले ही लिख रखी थी पूरी स्क्रिप्ट कि 'रे मूढ़! तुझे मिलना है राकेश नामक भाई-बंधु से ठीक 46 साल बाद। तू कानपुर से वापसी की यात्रा कैसे कर सकता है भला? और, वह घड़ी अब आ गयी है।'...

मेरी भेजी हुई पुरानी तस्वीर ने अपना श्वेत-श्याम रंग दिखाया और राकेश ने मुझे अपने परिवार के चित्र भेजे। लेकिन, जब 30 दिसम्बर की आधी रात में अचानक यात्रा-पथ बदल गया, तब मैंने यात्रा की पूरी तफ़सील उसे लिख भेजी, बताया कि नववर्ष के पहले दिन 12 बजे तक लखनऊ पहुँच रहा हूँ। 31 की रात राकेश का फोन आया। अब पहचाना था उसने मुझे।... मेरा अल्पज्ञान तो यही जानता था कि राकेश के मित्रों की फेहरिस्त में मैं ही अकेला 'ओझा' हूँ। लेकिन यह मेरा भ्रम था। डॉक्टरी की पढ़ाई के दौरान उसका एक मित्र बना था और संयोग से वह भी ओझा ही था। इस मैत्री ने राकेश को भ्रमित किया था। राकेश ने मुझे अपना वही डाॅक्टर मित्र समझ लिया था, जब मैंने उसे उसके पुराने घर के द्वार से पहली बार फोन किया था। राकेश ने फोन पर मुझे बताया कि मैं लखनऊ आते हुए एयरपोर्ट से दो किलोमीटर आगे अमुक होटल पर उतर जाऊँ, जहाँ वह मेरी प्रतीक्षा करता मुझे मिल जायेगा। अब मिलन की आतुरता-अभीप्सा हम दोनों को विकल कर रही थी।...

नववर्ष के प्रथम दिवस की सुबह मैंने सपत्नीक कानपुर से प्रस्थान किया। हमने दस बजे की बस ली और पौने बारह बजे उस होटल पर उतर गये, जिसके लिए मैंने बस-चालक को पहले से सावधान कर रखा था। उस चौराहे पर वाहनों की सघन भीड़ थी। हम जहाँ बस से उतरे थे, उसके परली पार वह होटल था। होटल के ठीक किनारे खड़े एक श्वेतकेशी सज्जन को सबसे पहले मेरी श्रीमतीजी ने चिह्नित किया। मंथर गति से चलती बसों के अंतराल से श्रीमतीजी के इंगित करने पर प्रकट और ओझल होती हुई अस्पष्ट छवि मैंने राकेश की देखी। उनकी आँखों में भी किसी की तलाश थी। जब विश्वास होने लगा कि वही राकेश हैं तो मैं हाथ उठाकर उसका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने की चेष्टा करने लगा, लेकिन वह अन्यत्र देख रहा था। वाहनों का रेला रुकता नहीं था, हम सड़क पार करने में असमर्थ थे। हमारे पास तीन अदद वजनी बैग थे और मेरी वृद्धा घुटने से लाचर थीं। वह तो ग़नीमत थी, बैग पहियों पर दौड़नेवाले थे। और, राकेश हमारी तरफ दृष्टिपात कर नहीं रहे थे। पाँच मिनट इसी पार खड़े-खड़े लड़खड़ाती हुई दो पंक्तियाँ मन में उपजीं--
'तुम उस पार खड़े हो भाई,
हम इस पार खड़े हैं,
सुधियों की झंझा में कितने
अवरोधी शकट अड़े हैं।'

अचानक दोनों ओर से यू टर्न की हरी बत्ती रौशन हुई और सामने से गुजरनेवाले वाहनों की कतार यथास्थान रुक गयी। हमें सड़क पार करने का मौक़ा मिल गया।
हमने एक-दूसरे को पहचान लिया, हुलसकर गले जा मिले। पूरे 46 साल बाद मेरा भाई, मेरा बंधु मेरी बाहों में था। मेरे हर्ष और आनन्द का ठिकाना नहीं था। राकेश हमें अपने घर ले गया। भाभी ने पहले चाय पिलायी, फिर थोड़ी देर बाद बढ़िया और सुस्वादु भोजन कराया--पूरी, रायता और तीन प्रकार की, सच में, हरी-हरी बोलती सब्जियाँ! ऊपर से व्याज में मिष्ठान्न!...




हमारी बातें, जिज्ञासाएं अनन्त थीं और अवकाश कम। दो-ढाई घंटे की अल्पावधि में 46 वर्षों के बिलगाव की कथा फरियाई नहीं जा सकती थी। हम तृप्ति-अतृप्ति के सम्मिलित भाव से भरे उठ खड़े हुए प्रस्थान के लिए।... राकेश सपत्नीक हमें चौधरी चरण सिंह के हवाई अड्डे के द्वार तक छोड़ने आया। हम फिर गले मिले और विलग हुए। सघन कुहासे के कारण हमारी फ्लाइट विलंबित थी और विलंबित होती गयी...

उस शाम एयरपोर्ट पर प्रतीक्षा के विशाल कक्ष में बैठा-बैठा मैं यही सोच रहा था कि कितने मजबूत होते हैं 'ये मोह-मोह के धागे...!' परम संतोष बस यही, इतना ही कि दुनिया के मेले में बिछड़े आत्मीय बंधु को मैंने अंततः ढूँढ़ लिया था।...अब वह मेरी पकड़ में रहेगा हमेशा...!
(--आनन्द.)

[चित्र  : 1) 46 साल पहले भाई राकेश के साथ मैं, 2) और 46 वर्षों बाद--1-1-2018 को, 3) मैं, राकेश और भाभी, 4) मेले बिछड़ा भाई राकेश.]

सोमवार, 15 जनवरी 2018

'चुका भी हूँ मैं नहीं'... : शमशेर बहादुर सिंह (3).

दिल्ली के पाँच वर्षों के प्रवास में एक ही मुहल्ले मे रहते हुए शमशेरजी से बार-बार मिलने, उनसे बातें करने, उनके घर जाने, उन्हें जानने-समझने का मुझे खूब मौका मिला। उनका रहन-सहन बहुत सामान्य था। वह भी पुस्तकों-पाण्डुलिपियों और फाइलों से घिरे मिले हर बार। ये मसिजीवी लोग आजीवन कितना श्रम करते हैं, यह मैं पिताजी को देखकर जानता ही था, ठीक वैसी ही दशा शमशेरजी की भी थी; जिसका अनुमान सामान्य जन नहीं कर सकते। मैं जब कभी उनके घर गया, वह मोटे फ्रेम का चश्मा लगाये अक्षरों से आँखें फोड़ते मिले। जो आँखें अब ज्योतिहीन हो चली थीं। एक बार की मुलाक़ात में उनकी आँखों की दशा देखते हुए मैंने उनसे यह कहने का साहस किया कि 'जब आँखें साथ नहीं दे रहीं तो आप लिखने-पढ़ने का इतना काम क्यों करते हैं? आँखों को अब थोड़ा विश्राम क्यों नहीं देते?' उन्होंने अजीब नजरों से देखा था मुझे, लेकिन उस दृष्टि-प्रक्षेप में आर्त्त भाव बिल्कुल नहीं था, बल्कि आश्चर्य का आकुल आवेग था। उन्होंने कहा था--'यही तो है खुराक मेरी। खुराक न लूँगा तो कैसे चलेगा?' फिर जैसे उन्हें सहसा याद आया हो, बोले--'ठहरो, मैं तुम्हें एक पुरानी कविता सुनाता हूँ और स्मृति पर जोर डालते हुए उन्होंने वह कविता मुझे सुनायी--

"चुका भी हूँ मैं नहीं
कहाँ किया मैंने प्रेम
अभी ।

जब करूँगा प्रेम
पिघल उठेंगे
युगों के भूधर
उफन उठेंगे
सात सागर ।

किंतु मैं हूँ मौन आज
कहाँ सजे मैंने साज
अभी ।

सरल से भी गूढ़, गूढ़तर
तत्त्व निकलेंगे
अमित विषमय
जब मथेगा प्रेम सागर
हृदय ।

निकटतम सबकी
अपर शौर्यों की
तुम
तब बनोगी एक
गहन मायामय
प्राप्त सुख
तुम बनोगी तब
प्राप्य जय !"

यह कविता बहुत पहले की लिखी है, संभवतः 1941 की। वह शब्दों में जीवन-सत्य रचनेवाले कवि थे। पूरी कविता सुनकर मेरे पास कहने को कुछ शेष नहीं था। हाँ, यह जरूर समझ सका था कि शब्द-साधक शमशेरजी कहीं रुककर विश्राम के पक्ष में बिल्कुल नहीं हैं।

किसी काम से पिताजी ने एक बार सुबह-सुबह मुझे उनके घर भेजा। मैं पहुँचा तो ज्ञात हुआ, वह सुबह की सैर पर गये हैं, अब आते ही होंगे। मैं घर के बरामदे में पड़ी कुर्सी पर बैठकर प्रतीक्षा करने लगा। थोड़ी ही देर में शमशेरजी आते दिखे। थके हुए लगे। पास आये तो मैंने प्रणाम किया। यत्नपूर्वक वह मुस्कुराये और बगल की कुर्सी पर बैठ गए। मैंने बेवकूफ़ी भरा प्रश्न किया--'कैसे हैं आप?' जबकि सामने दीख रहा था, वह ठीक नहीं थे। लंबी चहलकदमी ने उन्हें क्लांत कर दिया था। एक विदीर्ण हँसी हँसकर बोले--'थोड़ा थक गया हूँ और कोई बात नहीं।' इतना कहकर वह दम साधने लगे। मैं चुपचाप बैठा उनकी मुखाकृति पर नज़रें टिकाये रहा। पाँच-छह मिनट बाद ही एक लंबे-चौड़े युवक चाय की दो प्यालियाँ ले आये। शमशेरजी के इशारे पर हम चाय की चुस्कियां लेने लगे। यौवन की उमंग गहराई में उतरने नहीं देती, वह अपनी ही तरंग में ऊपर-ऊपर मचलती रहती है, मैंने उसी तरंग में फिर एक बात दुहरायी--'जब अज़हद थकान हो जाती है तो आपको सुबह की इतनी लंबी पदयात्रा नहीं करनी चाहिये। बहुत इच्छा हो तो यहीं थोड़ा टहल लिया करें और फिर विश्राम...।'

उन्होंने अपने चश्मे के मोटे शीशे से आँख गड़ाकर मुझे यूँ देखा, जैसा अक्सर छोटे मुँह से बड़ी बात निकल जाने पर लोग देखा करते हैं। मैं संकुचित हुआ, लगा नाहक बोल बोल बैठा। लेकिन शमशेरजी ने जैसे मेरी मुख-मुद्रा और भाव-भंगिमा से मेरे मन में उठ रही बात पढ़ ली हो, वह दो क्षण ठहरकर बोले--"जानता हूँ, तुम मेरी हितचिंता में ही ऐसा कह रहे हो, लेकिन विधि ने मेरे भाग्य में विश्राम लिखा कहाँ है! बहुत पहले एक कविता में मैंने विधि को ललकारते हुए कहा था--'काल तुझसे होड़ मेरी'। उसका एक अंश सुनो--

'काल,
तुझसे होड़ है मेरी : अपराजित तू--
तुझमें अपराजित मैं वास करूं ।
इसीलिए तेरे हृदय में समा रहा हूँ
सीधा तीर-सा, जो रुका हुआ लगता हो--
कि जैसा ध्रुव नक्षत्र भी न लगे,
एक एकनिष्ठ, स्थिर, कालोपरि
भाव, भावोपरि
सुख, आनंदोपरि
सत्य, सत्यासत्योपरि
मैं--तेरे भी, ओ' 'काल' ऊपर!
सौंदर्य यही तो है, जो तू नहीं है, ओ काल !'

लगता है, नियति को मेरी यह ललकार अच्छी नहीं लगी। वह जीवन-भर मेरी परीक्षा लेती रही और मैं उसकी। न उसने अपनी टेक छोड़ी और न मैंने अपनी आन तोड़ी। अब विश्राम नहीं करना है, बस चलना है/ पथ पर चलना है।"

मुझे प्रतीत हुआ कि वह अपनी पुरानी कविता का अंश सुनाकर फिर कविता करने लगे हैं।...उनके यहाँ से लौटते हुए काव्य-पंक्तियाँ बढ़ते हुए हर क़दम पर मन में घूर्णित हो रही थीं--'चुका भी हूँ मैं नहीं'!.... उनका जीवट मुझे चकित कर रहा था।...

सन् 1978  में मेरे विवाह के बाद वधू-स्वागत समारोह में शमशेरजी भी पधारे थे। इस अवसर पर उन्होंने कैफ़ी आज़मी की एक काव्य-पुस्तक भेंटस्वरूप मुझे दी थी--'आवारा सज़्दे' और उसके पहले पृष्ठ पर उन्होंने सप्रीत लिखा था--"आनन्द-साधना की जोड़ी जुग-जुग जिये।--हार्दिक आशीर्वाद और अमित शुभकामनाओं-सहित--" पुस्तक आज भी पटना के संग्रह में सुरक्षित होगी कहीं, लेकिन कितनी जर्जर हो चुकी होगी, कहना कठिन है।


सन् 1979 के अंत में हम दिल्ली छोड़ आये थे। शमशेरजी से मुलाक़ातें अलभ्य हो गयी थीं। कभी-कभार उनकी चिट्ठी पिताजी के पास आ जाती थी, लेकिन क्रमशः उसकी गति भी शिथिल होती गयी। अब मास-वर्ष तो याद नहीं रहा, लेकिन शायद वह 1988-89 का साल रहा होगा, जब शमशेरजी पटना पधारे थे, किसी जनवादी विमर्श की कार्यशाला की सदारत करने के लिए। मुझे पता चला, तो मैं उनके दर्शन के लिए उस चिंतन-शिविर में जा पहुँचा। कार्यशाला में बहुत भीड़ तो नहीं थी, लेकिन वामपंथी कामरेडों की खासी हलचल थी। शमशेरजी कृशकायी तो थे ही, इस बार कुछ अधिक दुर्बल दीख रहे थे। मैं घण्टा-भर वहीं पिछली पंक्ति में ख़ामोश बैठा रहा और प्रतीक्षा करता रहा कि कार्यशाला समाप्त हो तथा दो क्षण के लिए शमशेरजी इस भीड़-भाड़ से छूटकर एकांत में मिल जायें। लेकिन लंबे इंतज़ार के बाद भी ऐसा अवसर मुझे मिलता दिखाई न पड़ा। मैं निराश होने लगा और अंततः गोष्ठी से शमशेरजी को देखता हुआ बाहर निकल आया। आज भी उस दिन शमशेरजी से न मिल पाने की याद आती है तो मन में एक टीस-सी उभरती है। काश, दो पल के लिये उनसे मिलना हो पाता; क्योंकि वही उनका अंतिम और दूर का दर्शन सिद्ध हुआ।

'काल तुझसे होड़ मेरी' और 'चुका भी हूँ मैं नहीं' जैसी सबल उद्घोषणा से नियति को चुनौती देनेवाले शमशेरजी को भी अंततः  सन् 1993 में चुक जाना पड़ा। मरणधर्मा शरीर को तो चुकना ही होता है। यही जगत् नियम है, लेकिन शमशेरजी के अचानक चल देने पर पिताजी ने दुखी होकर कहा था--'मुझे हमेशा आगे करके चलनेवाले शमशेर इस मोड़ पर अग्रगामी कैसे हो गये। उनसे पहले मुझे जाना चाहिए था।'

मेरा विश्वास है, शमशेरजी-जैसे लोग कभी चुकते नहीं। अपने व्यापक श्रम और साहित्य की विपुल संपदा में वह सदा जीवित रहते हैं, रहेंगे।...
(समाप्त)

शनिवार, 13 जनवरी 2018

चुका भी हूँ मैं नहीं'... : शमशेर बहादुर सिंह (2).

पिताजी से शमशेरजी का परिचय बहुत पुराना था--सन् 1935 के पहले का। तब वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र थे। पहले वह बच्चनजी के निकट संपर्क में आये, उनके अनुगत बने, फिर बच्चनजी की अंतरंगता से पिताजी के संपर्क में आये और पिताजी को भी यथेष्ट सम्मान देने लगे। लेकिन संपर्क दीर्घावधि का न हो सका; क्योंकि सन् 1934 में पितामह के निधन के साल-भर बाद पिताजी प्रयाग-भूमि का परित्याग कर पटना आ बसे थे। फिर भी पत्राचार से और सभा-सम्मेलनों में उनसे हुई मुलाक़ातों से पिताजी का संपर्क बना रहा।

शमशेरजी का जीवन संघर्षों और घोर परिश्रम का जीवन था, अवसादों के विषपान का भी। विवाह के छह वर्ष बाद ही उनकी जीवन-संगिनी उनका साथ छोड़ गयी थीं। यह बात 1935 की है। शमशेरजी ने शेष जीवन एकाकी व्यतीत किया था। लेकिन उनके अंतर्मन में इस विरह की अनुगूँज बनी रही और अन्यान्य कविताओं में ध्वनित होती रही। उन्होंने अपना संपूर्ण प्राणबल साहित्य-सेवा को समर्पित कर दिया। वह आधुनिक हिंदी कविता की प्रगतिशील त्रयी के एक स्तंभ बने। हिंदी कविता में अनूठे प्रतीकों और मांसल ऐंद्रीय बिंबों के रचयिता शमशेर आजीवन प्रगतिवादी विचारधारा से जुड़े रहे। उन्होंने आजीवन रचा, लिखा और घिसा। यह उनकी लघु सत्ता का विराट् प्राणबल ही था।

सन् 76-79 के जिन वर्षों में मैं उनसे जुड़ा था, वह जीवन की लंबी राह तय कर आये थे, लेकिन शब्दों से निरंतर जूझने का जो सौभाग्य लेकर वह धराधाम पर आये थे, उसने उनका पीछा अब भी न छोड़ा था। उन दिनों वह उर्दू-हिन्दी कोश की एक बृहत् आयोजना पर काम कर रहे थे, जबकि उनकी आँखें ऐसी कठोर अनुसंधित्सा के योग्य नहीं रह गयी थीं। फिर भी वह समर्पित भाव से उस काम में जुटे हुए थे। मैं कभी अपनी अति साहसिकता में उनसे कहता कि 'आँखों पर यह अत्याचार अब बहुत हुआ! आँखें रूठ रही हैं तो आप इस कार्य से विरत क्यों नहीं हो जाते...!' वह चुपचाप मेरी बात सुनते, फिर अपनी ही काव्य-पंक्ति उद्धृत करते हुए उत्तर देते--'चुका भी नहीं हूँ मैं...!' और कभी काल को चुनौती देते हुए कहते--'काल तुझसे होड़ मेरी!'

गृह-गोष्ठियों में उनकी उपस्थिति तो मेरी स्मृति की अक्षय निधियाँ हैं ही, लेकिन दिल्ली-प्रवास में दो ऐसे महनीय अवसरों की मुझे स्पष्ट याद है, जब उनके बहुत निकट बैठने और उनसे बातें करने का मौका मुझे मिला था।

पहला मौक़ा मुझे तब मिला था, जब अज्ञेयजी के सांध्य एकल काव्य-पाठ में शामिल होने का पिताजी के साथ ही मुझे भी याचित आमंत्रण मिला था। यह काव्य-पाठ लक्ष्मीमल्ल सिंघवीजी के आवास पर आयोजित था। अज्ञेयजी को सुनने दिल्ली के लब्धप्रतिष्ठ कवि-साहित्यकार उपस्थित थे, भद्र समाज भी आ जुटा था। वहीं अग्रिम पंक्ति में मैं पिताजी के साथ बैठ गया। वहाँ त्रिलोचन शास्त्री के साथ पहले से विराजमान थे शमशेर बहादुर सिंह। हम उन्हीं के पास बैठ गए। शमशेरजी और त्रिलोचनजी ने बड़े विनम्र भाव से पिताजी को प्रणाम किया और मैंने उन दोनों को। हल्की-फुल्की बातचीत अभी शुरू ही हुई थी कि अज्ञेयजी बड़े सलीके से बिछाये गये एक शुभ्र धवल आसन पर आ बैठे और मुख़्तसर-सी अग्र भूमिका के बाद उन्होंने काव्यपाठ शुरू किया। लंबा हाॅल अतिथियों से भरा हुआ था और नीरव शांति सर्वत्र व्याप्त थी। मात्र अज्ञेयजी की अति-संतुलित वाणी वातावरण में गूँज रही थी--आरोह-अवरोह-विहीन; शिष्ट शब्दों के अर्थपूर्ण और सारगर्भित मोती लुटा रहे थे अज्ञेयजी और श्रोता अभिभूत थे, मुग्ध थे। कई कविताओं के पाठ के बाद अज्ञेयजी 'सागरमुद्रा' सुनाने लगे और मेरे जैसे युवा श्रोता, जिनकी संख्या नगण्य थी, पलकें झपकाने लगे।

कार्यक्रम की समाप्ति पर सबों ने अज्ञेयजी को साधुवाद दिया, पिताजी ने भी और उनके पीछे त्रिलोचन और शमशेरजी ने भी। सभी अज्ञेयजी से अपने मनोभाव, अपनी प्रतिक्रिया और मन्तव्य व्यक्त करते हुए दो-चार शब्द कह रहे थे, लेकिन जब शमशेरजी उनके सम्मुखीन हुए तो विनय में इतना झुक गये कि प्रायः दुहरे हो गये, बोले कुछ नहीं। अज्ञेयजी ने ही आगे बढ़कर उन्हें कंधे से पकड़ कर सीधा खड़ा किया और फिर करबद्ध शमशेरजी सामने से हट गये।...

अज्ञेयजी के आग्रह पर पिताजी उनकी कार से लौटने को राजी हुए और पिताजी की अनुशंसा पर शमशेरजी और त्रिलोचनजी भी साथ हो गये; क्योंकि हम सबों को माॅडल टाउन ही जाना था। अज्ञेयजी ड्राइविंग सीट पर बैठे और उनके बगल में पिताजी। पीछे की सीट पर दो महाकवियों के मध्य मैं बैठ गया। कार सिंघवीजी के घर के पोर्टिको से निकलकर हौजखास की दिशा में दौड़ने लगी। बीच राह में अज्ञेयजी ने पिताजी से कहा--'सागर-मुद्रा तो कई लोगों के ऊपर से निकल गयी।' पिताजी बोले--'ऊपर से नहीं, सिर के बहुत ऊपर से।'...और एक जोरदार ठहाका चलती कार में गूँज उठा। लेकिन मैं थोड़ी तसल्ली महसूस कर रहा था क्योंकि जिन लोगों के सिर के ऊपर से 'सागर-मुद्रा' निकल गयी थी, उनकी सूची में अकेला नाम मेरा नहीं था, बल्कि अज्ञेयजी का इशारा कई दिग्गज रचनाकारों की ओर भी था।...

अज्ञेयजी ने हौजखास से वाहनचालक को कार सुपुर्द कर हमें माॅडल टाउन भेज दिया। वह लंबी राह हमने शमशेरजी और त्रिलोचन के साथ तय की। पिताजी शमशेरजी और त्रिलोचनजी से लगातार बातें करते रहे और यात्रा सम्पन्न हुई।




कार से उतरते हुए शमशेरजी और त्रिलोचनजी ने समवेत स्वर में पिताजी के प्रति आभार व्यक्त करते हुए कहा था--'बहुत दिनों के बाद आज आपके सौजन्य से अज्ञेयजी के साथ इतना वक़्त बिताने का विरल अवसर हमें मिला।...

(आगामी समापन किस्त)
[चित्र  : 1) शमशेरजी 2) मेरे पिताजी--'मुक्तजी 3) अज्ञेयजी 4) त्रिलोचनजी.]

शुक्रवार, 12 जनवरी 2018

चुका भी हूँ मैं नहीं'... : शमशेर बहादुर सिंह.
[13 जनवरी : शमशेरजी की जयन्ती पर विशेष रूप से लिखित संस्मरण]

पिताजी के जीवनकाल में पाँच वर्षों का दिल्ली-प्रवास संघर्षपूर्ण, लेकिन आनन्ददायी था। पिताजी जहाँ रहे, दो चीजें उनके पास हमेशा जुटती रहीं--एक तो साहित्यिक विभूतियाँ, दूसरी पुस्तकें। साप्ताहिक 'प्रजानीति' का सम्पादन, छोटी बहन की सेवा, अनुवाद-कार्य और स्वलेखन की व्यस्तताओं के बीच भी पिताजी इन विभूतियों के लिए पूरी हार्दिकता के साथ हमेशा उपलब्ध रहते थे और उनके लिए वक्त का लंबा-लंबा टुकड़ा निकालकर प्रसन्न होते थे। सच मानिये, लिखना-पढ़ना और साहित्यिक चर्चाएँ उनकी असली खुराक़ थी। मुझे याद नहीं कि सौ व्यस्तताओं के बीच कभी कोई ऐसा दिन वहाँ बीता हो जब दिल्ली के टैगोर पार्क (माॅडल टाउन) वाले हमारे किराए के छोटे-से मकान में कोई साहित्य-प्रेमी पिताजी से मिलने न आये हों। बेशक, यह भीड़ तब अधिक जुटाने लगी, जब आपातकाल लागू होते ही वह इंडियन एक्सप्रेस की सेवा से मुक्त हो गये। मुलाकातियों में हर आयु, हर वर्ग के लोग होते--साहित्यानुरागी, दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापक, नवयुवक कवि-कथाकार, साहित्य-दर्शन के अध्येता और कुछ विद्वान् वीतरागी बुज़र्ग भी। पिताजी सबका स्वागत करते, यथोचित स्नेह-सम्मान और समय देते, लेकिन वह तब अत्यधिक प्रसन्न हो उठते, जब उनके साहित्यिक मित्र आ जुटते। फिर तो उनके छोटे-से बैठके का रंग ही बदल जाता, बातें लंबी खिंच जातीं, अट्टहासों की आख्यायिका लिखी जाती, संस्मरणों की गंगा धाराप्रवाह बहने लगती, जिसे सुनने से न तो आगंतुक अघाते और न सेवा को तत्पर मैं।

इन्हीं साहित्यिक मित्रों में एक त्रय ऐसा भी था जो पिताजी के दरबार में सप्ताह में दो-तीन बार तो अवश्य ही पधारता। इस त्रय के दो पात्र माॅडल टाउन के निवासी थे और एक तो हमारे टैगोर पार्क में ही रहते थे और वह थे--महाकवि नागार्जुन। दो अन्य साहित्य के महारथी थे--त्रिलोचन शास्त्री और शमशेर बहादुर सिंहजी। ये तीनों प्रतिभा-पुरुष जब हमारे घर आ जाते तो घर में साहित्य की त्रिवेणी प्रवाहित होने लगती। एक ऐसी शीतल बयार चलती कि मन-प्राण अनुप्राणित हो जाते। इन चार विभूतियों में पिताजी वयोज्येष्ठ थे, फिर नागार्जुनजी-शमशेरजी, कनिष्ठ थे त्रिलोचनजी।... शमशेरजी छोटी कद-काठी के कृश व्यक्ति थे।

पिताजी से शमशेरजी के किस्से पहले भी सुन चुका था, लेकिन ऐसा लगता है कि उन्हें पहली बार अपने इसी घर में देखा था मैंने। कृश काया, छोटा क़द, खड़ी नासिका, गेहुँआ रंग, सहज-सामान्य परिधान, असावधानी से छोड़े हुए बिखरे केश और आँखों पर बहुत मोटे शीशे का पावरवाला चश्मा, जिससे झाँकती थीं उनकी बड़ी-बड़ी पारदर्शी आँखें। सहसा उन्हें देखकर यह विश्वास करना कठिन हो सकता था कि वह प्रगतिवाद के स्तम्भ कवि हैं। बहुत शालीनता से धीमी आवाज़ में बोलते थे। उन्हीं बैठकों में सबों के बहुत आग्रह पर सुनायी हुई उनकी एक कविता मैं कभी भूलता नहीं--
'लेकर सीधा नारा
कौन पुकारा
अंतिम आशाओं की संध्याओं से ?
पलकें डूबी ही-सी थीं --
पर अभी नहीं;
कोई सुनता-सा था मुझे
कहीं;
फिर किसने यह, सातों सागर के पार
एकाकीपन से ही, मानो हार,
एकाकी उठ मुझे पुकारा
कई बार ?
मैं समाज तो नहीं; न मैं कुल
जीवन;
कण-समूह में हूँ मैं केवल
एक कण ।
--कौन सहारा !
मेरा कौन सहारा !...
शमशेरजी का कविता-पाठ का अंदाज कुछ ऐसा था कि स्वर झंकृत होते हुए अर्थ-अभिप्राय के पट स्वयं खोलता चलता था। वह अपनी कविता में कहीं गहरे डूबकर उसे सुनाते थे, यह बात और है कि वह हमेशा काव्य-पाठ से बचने की चेष्टा में लगे रहते थे। लेकिन पिताजी की पकड़ से वह छूट न पाते थे।...
(क्रमशः)

बुधवार, 10 जनवरी 2018

यह पथ बंधु है मेरा!...

[भ्रमण-कथा-2]

अब तो ठीक-ठीक याद भी नहीं आता कि कितने वर्षों बाद मिला मैं अभिन्न बंधु, आत्मीय स्वजन, कानपुर-प्रवास की मित्रता के हमारे त्रय (ध्रुवेन्द्र-ईश्वर-मैं) की मजबूत कड़ी और मेरी ही राह के सहयात्री ईश्वरचंद्र दुबे से।...योग-वियोग का गणित बिठाऊँ तो लगता है, 32-35 वर्षों का लंबा अरसा तो अपनी-अपनी जीवन-धारा में बहते हुए व्यतीत हो ही गया है और तब मिलना हुआ है मित्रवर ईश्वर से।

28 दिसम्बर की सुबह मित्रवर ध्रुवेन्द्र प्रताप शाही सपत्नीक चारबाग (लखनऊ) बस स्टैंड तक अपने बेटे की कार से आये, कार सुपुत्र ही चला ले आये और वे मुझे उ.प्र. राज्य परिवहन की एक वातानुकूलित बस में बिठा गये। दो-ढाई घंटे की यात्रा करके मैं कानपुर पहुँच गया। योजनानुसार बिछड़े हुए मित्र से मिलना सुनिश्चित कर चुका था मैं। थोड़ी खोज-बीन से मुझे उनका अपूर्ण पता मिला और 29-12-2017 की सुबह उत्साह से भरा मैं चल पड़ा ईश्वर की तलाश में।...

ईश्वरानुसंधान में सन्नद्ध बृहत्तर समाज जानता है कि ईश्वर आसानी से नहीं मिलते। मुझे भी नहीं मिले ईश्वर सहजता से। उन्हें पाने के लिए लंबी कैब और पद-यात्रा मुझे भी करनी पड़ी। और जब मैं उनके सिद्धासन तक जा पहुँचा तो विस्मित हुआ। विस्मित और हतप्रभ होने के पुष्ट कारण सम्मुख थे।

मेरे जिन मित्रों ने 'मेरी परलोक चर्चा' की कड़ियाँ मनोयोग से पढ़ी हैं, वे सभी ईश्वर से परिचित होंगे। वे यह भी जानते होंगे कि सन् 1977 में स्थानान्तरण लेकर मैं कानपुर से दिल्ली चला गया था। कानपुर-त्याग से यहाँ के सभी मित्रों का साथ-संग तो छूट गया, लेकिन संबंध अविच्छिन्न बने रहे। कई वर्षों के बाद एक बार जब कानपुर आया तो ईश्वर के विवाह की बातें चल रही थीं। मेरी अचानक उपस्थिति का लाभ उठाकर ईश्वर ने मुझे, ध्रुवेन्द्र और अनुज हरिश्चंद्र को ही अगुआ बना दिया। हम सभी कन्या-निरीक्षण कर आये, लेकिन मेरे 'वीटो पावर' से कालान्तर में उसी कन्या से ईश्वर का विवाह हुआ, जो आज मेरी स्नेहमयी 'लक्ष्मी भाभी' हैं।... खेद इसी बात का है कि पारिवारिक कारणों से मैं उनके विवाह में शामिल न हो सका।...

उस ज़माने में, परलोक चर्चा की जो धूनी मैंने रमाई थी, ईश्वर उससे उपजी ऊर्जा का सर्वाधिक आनन्द लेते रहे और मेरे पराविलास के उत्सुक-अधीर सहयोगी बने। खानाबदोशी की ज़िन्दगी में कितने तीखे मोड़ लेता हुआ मैं उस पथ से अंततः विलग हो गया, जिसे पूज्य पिताजी और अन्य बुजुर्गों ने 'अंधकार की दुनिया' कहा था। लेकिन, ईश्वर उसी 'अंधकार की दुनिया' से अलौकिक प्रकाश और अनूठी ज्योति ले आने में सफल हुए। इसकी मुझे प्रसन्नता है। आज वह माँ काली के अनन्य उपासक और सिद्धपीठ के अधिष्ठाता भी हैं। वह लोकोपकार का दायित्व निभाने में लगे रहते हैं।

ईश्वर के पास जाने के पहले मैंने उन्हें अपने संवाद में एक शेर लिख भेजा था--
'गुलाब, ख्वाब, दवा, जहर, जाम क्या-क्या है,
मैं आ गया हूँ, बता इंतजाम क्या-क्या है?'

इतने वर्षों बाद उनसे और उनके पूरे परिवार से मिलकर मैं विस्मित हुए बिना न रह सका, क्योंकि मिलने की जो तड़प, व्यग्रता, उत्सुकता और अधीरता इधर थी, वही ईश्वर के घर के जर्रे-जर्रे में व्याप्त थी। मेरी अगवानी में सेवक नियुक्त किये जा चुके थे। वे मुझे ईश्वर के भव्य ड्राइंग रूम में सादर बिठा गये और बस, थोड़ी देर में प्रकट हुए ईश्वर! उन्हें देखकर मैं अपने युग के ईश्वर के अक्स थोड़ी देर तक तलाशता रहा। उनके संपूर्ण व्यक्तित्व में व्यापक परिवर्तन हुआ है। पहचानना कठिन था, लेकिन दो क्षण उनके चेहरे पर दृष्टि गड़ाने पर मुझे मेरे ईश्वर दृष्टिगोचर हुए। हम हुलसकर गले मिले और सुख-सागर में डूब गये। भाभी आयीं और दोनों सुपुत्र भी, बड़ी बहू भी। भाभी कहती न अघायीं कि मैं वही हूँ, जो ईश्वर के जीवन में उन्हें ले आया। ईश्वर ने विनोद में कहा--'तुम्हीं ने मेरे गले में संसार का पट्टा बाँधा और गायब हो गये।'
उन्हें भी सबकुछ याद रहा और हम स्मृतियों में गोते लगाते रहे। हमारी बातों का अंत नहीं था और पूरे परिवार ने आग्रहपूर्वक मुझे इतना खिलाया, जितना ग्रहण करने की मेरी स्थिति नहीं थी। मित्र के आतिथ्य और प्रेम के आधिक्य से मैं आकंठ तृप्त हुआ जब लौट रहा था तो मन की दशा विचित्र थी... कितना कुछ उमड़-घुमड़ रहा था हृदयाकाश में।...

अपने इन पुराने और बिछड़े हुए मित्रों से हुई मुलाक़ातों को मैं वर्ष 2017 की बड़ी उपलब्धि मानता हूँ, जो अब अतीत का ग्रास होनेवाला है। मैं वापसी की राह पर हूँ, और अभिन्न बंधुओं को कहना चाहता हूँ--'कलेजे में नयी ऊर्जा और ताजा हवाएँ भरने के लिए नये साल में फिर मिलूँगा दोस्तों!'...



'यह पथ भी बंधु है मेरा!
पथ, तू ले चल मुझे
जिस ओर चला तू,
चलता हूँ साथ,
बंधु हूँ तेरा!
यह पथ बंधु है मेरा!...

पर, सुन ले स्पष्ट तू, साफ-साफ--
लौटा लायेगा न इसी द्वार
आश्वस्त कर मुझको,
यहाँ छूट रहा है बंधु मेरा!
यह पथ बंधु है मेरा!...'
(--आनन्द)
'अलविदा वर्ष 2017,
--नववर्षाभिनन्दन'!

[चित्र : 1) मेरे मित्र ईश्वर 2) जगत्-मित्र ईश्वर और 3) लक्ष्मी भाभी-ईश्वर के साथ मैं.]

गुरुवार, 4 जनवरी 2018

कह सकता हूँ, सुख में हूँ....

24 दिसम्बर की शाम जेट एयरवेज का वायुयान ले आया मुझे लखनऊ। दो दिन स्कूल के सहपाठी और अभिन्न मित्र विनोद कपूर के नशेमन में गुजरे।...ओह, क्या खूब गुजरे...! विनोद कपूर दो वर्षों के बाद मिले थे, बहुत-सी बातें एकत्रित हो गयी थीं, फरियाने को...हम उन्हें निबटाते रहे।
विनोद की पत्नी उत्तर के इस अंचल की शीत लहरी से क्लांत थीं--भीषण खाँसी की गिरफ़्त में, फिर भी उनकी बातों का अंत नहीं था। बातें भी कम तो नहीं थीं। उनकी बहू की सेवा-भावना और प्यारी पोती मिष्टी की मीठी बातों से मन प्रसन्न रहा। विनोद के घर में दो दिन पलक झपकते बीत गए। ये दो दिन पुरानी यादों को सहलाने में रीत गये।

कल सुबह शाही भाई के घर आ गया हूँ और जब से आया हूँ तभी से अतीत के उलझे धागे सुलझा रहे हैं हम दोनों। कितने झंझावत झेल आये हैं ध्रुवेन्द्र प्रताप शाही इन दस वर्षों में। मेरे अभिन्न मित्र तो हैं ही, जोड़ीदार भी हैं। उनकी अदम्य जिजीविषा और कर्मठता आकर्षित करती है, अभिभूत भी करती है। संकटों-संघर्षों को स्वयं आमंत्रित करते रहे हैं वह, और जूझते रहे हैं उनसे। शाही ने आसन्न अवरोधों को अपने मन की असीम शक्ति से परास्त किया है। यह साहस तो बस उन्हीं के पास है, उन्हीं के योग्य है। उनकी सहधर्मिणी, मेरी स्नेहमयी भाभी हैं।...उनकी और साधनाजी की बातें  निरंतर प्रवहमान हैं और बीच-बीच में मेरी चिकोटियां भी।... तीन पोते-पोतियों से भरा शाही का विशालकाय भवन चहक रहा है और परमानंद विराज रहा है यहाँ।...









ऐसे निकटतम मित्रों की अलभ्य-सी हो चुकी मुलाक़ातों का क्या मज़ा है, यह तो वही जान सकता है, जो ऐसा अवसर पाता है।...ये परम आनंद के दिन हैं, अविस्मरणीय दिन हैं। मैं कह सकता हूँ, सुख में हूँ, सुखी हूँ।...
[चित्र  : विनोद कपूर के साथ मैं और शाही भाई के साथ भी.]
--आनन्द, लखनऊ : 27-12-2017.