शुक्रवार, 26 जनवरी 2018

।। सर्वत्र नारायणो हरिः ।।

(27 जनवरी : पूज्य पिताजी की 108वीं जयन्ती पर विशेष)

[याद आती है मुझे पिताजी की उदारता और चर्मशिल्पी की कृतज्ञता ...]

पटना की कंकड़बाग काॅलनी की एक व्यस्त सड़क पर बने 'मुक्त कुटीर' के मुख्य द्वार से बाहर निकलते ही दायीं तरफ बिजली के खम्भे के नीचे नियम से रोज़ आ बैठते थे एक बूढ़े बाबा, अपने थैले-झोले के साथ और दिन-भर करते रहते थे मरम्मत जूते-चप्पलों की। हमलोग तो उन्हें 'बाबा' ही कहते थे, लेकिन पिताजी जानते थे उनका नाम--'हरिनाथ'। उनका यह नाम भी पिताजी ने अपनी सुविधा के लिए स्वयं रख लिया था। कहते थे, 'इसी बहाने हरि-स्मरण भी हो जाता है। प्रभु श्रीहरि का अंश ही तो प्रत्येक प्राणी में है न!' बाबा का नाम कोई नहीं जानता था, लेकिन वह इसी नाम से चल निकले। मज़े की बात, 'हरि' संबोधन सुनकर बाबा भी प्रतिक्रिया देने लगे थे। कभी बाबूजी घर से बाहर निकलते और बिजली के खम्भे के पास पहुँचकर 'हरिजी' पुकारते तो बाबा झट मुखातिब होते और पिताजी से विनयपूर्वक कहते--'हँऽ बाबा, कहूँ न, की करिऐ?' (हाँ बाबा, कहिये न, क्या करूँ?)

बाबूजी की जूती तला छोड़ देती या चट्टी के बेल्ट की कीलें निकल आतीं तो वह मुझे ही पुकारते और चट्टी, जूता या चप्पल देते हुए कहते--'ले जाओ इसे, हरिजी को दे दो। वह सुधार दें तो ले आना थोड़ी देर में। पूछते आना, कितने पैसे हुए।' 1980-90 के जमाने में पैसों में कोई काम होता कहाँ था, बात रुपयों तक आ पहुँची थी; लेकिन पिताजी की याद से पैसे मिटे नहीं कभी। कोई उनसे किसी काम के लिए रुपये माँगता तो बड़ी सरलता से पूछते--'कितने पैसे दूं?'

कभी-कभी अपनी पीकदान पलटने के लिए पिताजी बाहर तक चले जाते तो हरिजी से उनकी कुशलता पूछते, दो मीठी बातें करके लौट आते, लेकिन उन्हें पुकारते 'हरिजी' ही। और, हरिजी उत्तर देने को प्रस्तुत हो जाते। एक दिन मैंने बाबा से पूछा--'जब आपका नाम हरिनाथ है ही नहीं तो बाबूजी की पुकार पर आप उत्तर क्यों देने लगते हैं?' हरिजी मुस्कुरा के बोले--'का कहते हैं मुन्ना बाबू! बाबा बड्ड अमदी हैं, जैसे पुकारें, उनकर आसिरबादे न है! हम भी मान लिये हैं कि हमरा नाँव हरिए है।' (क्या कहते हैं मुन्ना बाबू! बाबा बड़े व्यक्ति हैं, जैसे पुकारें, उनका आशीर्वाद ही न है। मैंने भी मान लिया है कि मेरा ना 'हरि' ही है।)

कोई सामान बगल के बनिये की दुकान से लाना हो, सड़क पार की दवा-दुकान से कोई औषधि लानी हो, किसी को आवाज़ देनी हो या रिक्शावाले को रोकना हो, हरिजी हमेशा तैयार, सेवा को तत्पर!

एक बार हरिजी बीमार पड़े। इलाज के लिए पैसे नहीं थे उनके पास। पिताजी को पता चला तो बाहर गये। देखा, शक्लो-सूरत से ही हरिजी ख़ासे बीमार लगे। उनसे पूछा हाल और सब जानकर बोले--' जब तबीयत इतनी खराब है तो यहाँ आकर धूप में क्यों बैठते हो? कुछ दिन घर पर रहकर आराम क्यों नहीं करते?'
हरिजी विकल हो गये, आर्त्त स्वर में बोले--'घर बईठ के केना चलतई काम बाबा? खैबई की? कमवा तऽ करहीं पड़तई !' (घर बैठकर कैसे काम चलेगा बाबा? क्या खाऊँगा? काम तो करना ही पड़ेगा।)
पिताजी चिंतातुर हुए और बोले--'ऐसे तो तबीयत और बिगड़ती जाएगी।'
हरिजी कातर स्वर में बोले--'रामजी के रक्खे के होतई तऽ धीरे-धीरे ठीके कर देथिन बाबा!' (रामजी को रखना होगा तो धीरे-धीरे ठीक ही कर देंगे बाबा!)
पिताजी ने पूछा--एक दिन के खाने का कितना खर्च है तुम्हारा?'
हरिजी बोले--'30-40 रोपया तऽ खरचा होइए जा हई बाबा। एतना तऽ कमाहीं पड़ऽ हई।' (30-40 रुपये तो खर्च हो ही जाते हैं। इतना तो कमाना ही पड़ता है।)
पिताजी कुछ नहीं बोले। सीधे अपने कमरे में लौट आये। मुझे रोककर उन्होंने पर्स से 350/ रुपये निकाल कर मुझे दिये और कहा--'जाओ, हरिजी को ये रुपये दे आओ और उनसे कह दो कि सात दिनों तक वह यहाँ दिखाई न दें मुझे।'

मैं आदेशानुसार रुपये लेकर हरिजी पास पहुँचा। दोपहर का वक्त था। भोजनावकाश में घर गये दुकानदारों की दुकानें बंद थीं, एक दुकान के ओटे पर मेहराये हुए बैठे थे हरिजी! तीन सौ पचास रुपये उनकी ओर बढ़ाते हुए मैंने कहा--'लीजिये, बाबूजी ने भेजे हैं ये रुपये और कहा है कि सात दिन घर पर रहकर आराम कीजिये।'
उस दीन-हीन बीमार वृद्ध का स्वाभिमान देखिये कि रुपये लेने से उन्होंने साफ इन्कार कर दिया। कातर होते हुए उन्होंने मुझसे कहा था--'बाबा काँहे एतना फिकिर करई छथिन, हम दु-चार दीन में अपने ठीक हो न जैबई मुन्ना बाबू ! रोपया ले लेबई तऽ लौटइबई केना?' (बाबा इतनी फ़िक्र क्यों करते हैं, मैं दो-चार दिनों में अपने-आप ठीक हो जाऊँगा मुन्ना बाबू! रुपये ले लूँगा तो लौटाऊँगा कैसे?)

पिताजी के पास जाकर मैंने रुपये लौटाते हुए हरिजी का कथन दुहरा दिया। पिताजी को आश्चर्य नहीं हुआ। यह कहते हुए वह उठ खड़े हुए--'कमाल करता है, यह भला आदमी! दातव्य के रुपये भी मिलें तो पहले लौटाने की फिक्र करेगा।' पिताजी ने पाँव में चट्टी डाली और चल पड़े बाहर, पीछे-पीछे मैं चला। बिजली के खम्भे के पास पहुँचकर थोड़े उच्च स्वर में पिताजी ने आवाज़ लगायी--'हरिजी! ये क्या तमाशा है? आपने रुपये लौटा क्यों दिये?' हरिजी घबराकर उठ खड़े हुए। हाथ जोड़कर कहने लगे--'नैय बाबा, नैय! ई बात नईं। हम तऽ कहलिइऐ जे दु-तीन दीन मऽ अपने ठीक होइए जैबे।' (नहीं बाबा, नहीं! ये बात नहीं, मैंने तो बस यही कहा कि दो-तीन दिन में मैं खुद ही ठीक हो जाऊँगा।)

पिताजी बोले--'नहीं, आप घर जाकर आराम कीजिये और स्वस्थ होकर काम पर आइये। आपके सात दिनों के खाने-खर्चे के लिए 350 रुपये मैंने भिजवाये थे। ये लीजिए और सात दिनों तक यहाँ आने की आपको कोई जरूरत नहीं है।'
पिताजी के जोर देकर कहने पर भी हरिजी के हाथ रुपये लेने के लिए बढ़ नहीं रहे थे। पिताजी ने खीझकर कहा--'अब क्या है?' हरिजी की तो जैसे घिग्घी बँध गयी, रुक-रुक कर कठिनाई से बोले--'ले तऽ लेबै बाबा, लौटैबए कैना?' (ले तो लूँगा बाबा, लौटाऊँगा कैसे?)
पिताजी ने हरिजी को डपटते हुए कहा--'मैंने कहा क्या कि इतने दिनों में रुपये लौटाने होंगे आपको? पैसे लीजिए और घर जाकर विश्राम कीजिए। ये रुपये लौटाने के लिए नहीं दे रहा हूँ। लीजिए।'

पिताजी के आदेश के आगे हरिजी अवश हो गये। दोनों अंजुरी जोड़कर उन्होंने रुपये ले लिये। और, पूरी श्रद्धा-भक्ति से अपने जुड़े दोनों हाथों को उठाकर उन्होंने मस्तक से लगाया, लेकिन उनकी यह कृतार्थता देखने के लिए पिताजी वहाँ नहीं थे, वह रुपये देते ही पलटकर घर में जा चुके थे।

उसके बाद सात नहीं, दस दिनों तक हरिजी दिखाई नहीं दिये। ग्यारहवें दिन वह प्रकट हुए। बिजली के खम्भे के नीचे बैग-झोला रखकर उन्होंने घर की काॅल बेल बजायी। मैंने द्वार खोला तो हरिजी ने कहा--'बाबा के दरसन भेंटैत?' (बाबा के दर्शन होंगे?) मैं उल्टे पाँव लौटा और बाबूजी के पास जाकर बोला--'हरिजी आये हैं, मिलना चाहते हैं।'
पिताजी दरवाज़े तक गये, हरिजी को देखकर बोले--'अब कैसी तबीयत है?'
हरिजी ने अतिशय विनम्रता से कहा--'अब एकदम ठीक भै गेलौं बाबा! पूरा जिनगी बीत गेल, कब्बो दस दीन आराम न केलौं! अपने के बड्ड किरपा... बाबा!' (अब एकदम ठीक हूँ बाबा! पूरी ज़िंदगी बीत गयी, कभी दस दिन आराम नहीं किया। आपकी बहुत कृपा...बाबा!)

पिताजी के चेहरे पर संतोष की लकीरों को आसानी से पढ़ सकता था मैं। हल्की मुस्कराहट के साथ उन्होंने कहा--'हाँ, ठीक है। तबीयत ठीक है तो अब काम करो।'

हरिजी आजीवन पिताजी की सेवा करते रहे और जूते-चप्पल की छोटी-बड़ी मरम्मत के लिए पैसे न लेने की ज़िद करते रहे, लेकिन शुरूआत में ही पिताजी की एकमात्र कठोर वर्जना के बाद यह सिलसिला थम गया।...

1995 में पिताजी गुज़र गये। हरिजी बदस्तूर उसी बिजली के खम्भे के नीचे बैठते रहे--उदास। 2009 में पटना छोड़ जब मैं दिल्ली चला गया, तब तक उम्र की अशक्तता ने उन्हें बहुत कमज़ोर बना दिया था। लंबे अंतराल पर जब कभी मैं पटना जाता, उनका कुशल-क्षेम पूछना न भूलता और हरिजी पिताजी का स्मरण करते हुए उनके औदार्य का उल्लेख करना न भूलते...!

एक बार की ऐसी ही पटना-यात्रा में हरिजी के स्थान पर एक युवक बैठे मिले। मैं चकराया। उस युवक से मैंने बाबा के बारे में पूछा तो उत्तर मिला--'बाबा तऽ चलि गेला।' (बाबा तो चले गये।) सुनकर बुरा लगा। और, कानों में गूँजने लगा हरिजी का वाक्य--'पूरा जिनगी बीत गेल, कब्बो दस दीन आराम न केलौं!...'


रात्रि-शयन और एक घण्टे की दिवा निद्रा के अलावा मैंने पिताजी को भी कभी विश्राम करते नहीं देखा--आजीवन लिखते-पढ़ते और किताबों-पाण्डुलिपियों के अंबार में डूबे हुए ही मिले वह !... कहते भी थे--'परिश्रम करना जीवन-यात्रा का आध्यात्मिक नियम है...!'

अब पिताजी और हरिजी दोनों आराम में हैं।... दोनों को नमन हमारा...! 🙏

[--आनन्द. 27-1-2018]
[चित्र : 1. 'मुक्त कुटीर' के आँगन में पिताजी, सुबह की चाय और अखबार के साथ 2. हरिजी (काल्पनिक चित्र), अपने अड्डे पर.]

2 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (28-01-2017) को "आया बसंत" (चर्चा अंक-2862) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

ब्लॉग बुलेटिन ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, फ़ील्ड मार्शल करिअप्पा को ब्लॉग बुलेटिन का सलाम “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !