शुक्रवार, 25 नवंबर 2016

कटहल से कुश्ती ...

।। विनोद-कथा।।

झारखण्ड का रांची प्रक्षेत्र अपनी वन्य सम्पदा और प्राकृतिक सौन्दर्य के कारण आकर्षण का केंद्र रहा है। आज की स्थिति का तो पता नहीं, लेकिन जिस ज़माने की कह रहा हूँ, उस ज़माने में यह सम्पदा सड़क-किनारे ही बिखरी पड़ी दीखती थी। तब छोटा ही तो था--१९६५-६६ में, सातवीं-आठवीं का छात्र!

राँची जिले के एक जनपद 'खूँटी' में, माँ और छोटे भाई-बहन के साथ, रहता था। विद्यालय के लिए रोज़ दो-ढाई किलोमीटर की पद-यात्रा करता था। उन दिनों खूँटी बड़ा रमणीय स्थान था। पर्याप्त वन-सम्पदा सर्वत्र सहज सुलभ थी। पुष्ट जामुन-केले-बेर बहुत सुस्वादु तो थे ही, बहुतायत में निःशुल्क उपलब्ध भी थे। मिठुआ आम--कच्चे-पक्के, मीठे-खट्टे--वृक्षों पर लदे मिलते थे, जिनका कोई देखनहार नहीं था। मनचाहे पेड़ पर चढ़ जाइये, तोड़िये और खाइये, चबाइये या अधखाये को फेंक दीजिये, कोई पूछनेवाला नहीं! और, विशालकाय पपीते इतने मीठे कि मत पूछिये, उसके स्वाद के मज़े ! कटहल क़द-काठी में इतने बड़े कि देखकर आश्चर्य होता। दो-ढाई वर्षों के खूँटी-प्रवास में मैंने बड़े मज़े किये वहाँ ! यह अलग बात है कि १९६५ के पकिस्तान युद्ध के बाद अन्न का जो भीषण संकट देश में उत्पन्न हुआ था, खाद्यान्न की विपन्नता के उस काल में, खूँटी में ही हमने कुछ दिनों तक 'मिलो' (देशव्यापी भाषा में उसे जाने क्या कहते हैं!) की रोटी भी खायी थी, जो बहुत बेस्वाद और कड़क होती थी। और, उन कठिन दिनों में मेरी उदर-पूर्ति का साधन प्रचुर वन-सम्पदा से ही प्राप्त होता था मुझे।

विद्यालय जाते हुए तो समय से पहुँचने का बंधन था, लेकिन लौटते हुए मैं बाग़-बगीचों में उन्मुक्त विचरण करता हुआ घर लौटता। कभी आम की शाखाओं पर झूमता-इठलाता, तो कभी जामुन के वृक्षों पर मँडराता! फल तोड़ता, खाता-चबाता, तोड़ता-फेंकता और मस्ती करता--अशोक वाटिका में विचरण करते हनुमानजी की तरह। उन वृक्षों पर किसी का हक़-मालिकाना तो था नहीं, पटना के श्रीकृष्ण नगर मोहल्ले की तरह रोज़ शाम मेरी ढेर सारी शिकायतें भी घर नहीं आती थीं। घर आते हुए स्कूल बैग में आम, अमरूद, बेर, जामुन भी भर लाता। माँ देखतीं, तो फटकार लगातीं, लेकिन मैं बाज़ न आता। एक बार तो हद ही हो गयी। मैं जामुन के पेड़ से उतरा तो मीठा, रसभरा और बहुत पुष्ट जामुन बैग में भर लाया। लेकिन पीठ पर लदा-लदा वह जामुन घर पहुँचते-पहुँचते पिचक गया। पिचक गया तो कोई बात नहीं थी, पेड़ों पर इफ़रात लदा पड़ा था वह। लेकिन, फेंके जाने के पहले वह मेरे बैग को जमुनी रंग से रँग गया था। माँ ने देखा तो मेरी खूब ख़बर ली उन्होंने !

लोक निर्माण विभाग की लंबी और प्रायः जनशून्य सड़क पर दोनों ओर कटहल के छोटे-बड़े पेड़ लगे थे, जिन पर हर मौसम में लटकता ही मिलता था कटहल ! पिछले कुछ महीनों से विद्यालय आते-जाते कटहल का एक दरख़्त मुझे बहुत आकर्षित कर रहा था--दस-बारह फ़ीट तक उसका मोटा तना सीधा खड़ा था, उसके बाद दो भागों में विभक्त होकर दो अलग-अलग दिशाओं में बढ़ता चला गया था। मेरे आकर्षण का केंद्र वह विशालकाय कटहल था, जो विभक्त हुई दो शाखों की संधि से लटका हुआ था। मैं स्कूल आते-जाते कई बार उस वृक्ष के नीचे ठहरकर हसरत-भरी दृष्टि से उस बलवान कटहल को देखा करता था ! उस कटहल को देखते-देखते उसे हस्तगत करने का विचार मेरे मन में पुष्ट होने लगा था, लेकिन अल्पज्ञानी मैं, तब यह सुनिश्चित नहीं कर सका था कि आख़िर उसे पाकर मैं करूँगा भी क्या ?

एक दिन घर से विद्यालय जाते हुए छुरी और छोटी-सी बोरी मैंने अपने बस्ते में डाल ली और विद्यालय चला गया। शाम तीन बजे विद्यालय से छूटा तो कटहल के उसी वृक्ष पर मैंने आरोहण किया--तने से लटके दीर्घकाय कटहल के पृष्ठ-भाग से; क्योंकि सामने का मार्ग तो कटहलजी ने अवरुद्ध कर रखा था। तब शरीर में इतनी फुर्ती और चपलता थी कि बस थोड़ी ही देर में मैं दस-बारह फ़ीट ऊपर, तने से विभक्त होती शाख़ों तक, पहुँच गया। विभक्ति की संधि पर पेट के बल लेटकर मैं छुरी से कटहल की डंडी को रेतकर काटने लगा, लेकिन कटहल की तरह वह भी बलशाली थी, हठी भी। कटहल वृक्ष का तना छोड़ने को तैयार नहीं था और मैं उसे अपने साथ घर ले जाने की ज़िद पर अड़ा हुआ था। यह ज़द्दोज़हद लंबी चली, जबकि मेरी छुरी इतनी भोथरी भी नहीं थी। पंद्रह मिनट के निरंतर प्रयास के बाद कटहल का डंठल आधा कट तो गया, लेकिन एक ही दशा में औंधेमुँह लटककर श्रम करते हुए मेरे हाथ और पेट में दर्द होने लगा। स्थिति ऐसी थी कि सब कुछ अधर में था--मैं भी, कटहल भी !
मैंने क्षण-भर का विश्राम लेकर दबे हुए पेट को थोड़ा आराम दिया और फिर काम पर लग गया। मेरा दायाँ हाथ ऐंठने लगा था, कन्धों तक दर्द चढ़ आया था। थोड़ा और झुककर मैंने दायें हाथ से कटहल की डंडी को थाम लिया और बाएं हाथ से उसे पुनः काटने लगा। बस, दो-तीन मिनट के परिश्रम में ही कटहल की डंडी अपने कटे हुए स्थान से चिटकने लगी। मैं समझ गया कि अब बच्चू कटकर मेरी ज़द में आने ही वाले हैं। मैंने छुरी से डंडी को काटने का क्रम जारी रखा और दाएं हाथ की पकड़ और मज़बूत कर ली। और तभी... 'पट्ट' की एक आवाज़ के साथ कटहलजी भू-लुंठित होने को मचल उठे। उन्होंने मुझे इतनी ज़ोर का झटका दिया कि मैं कमर तक घिसटकर सिर के बल लटक गया। वह तो भला हो उन दो शाखाओं का, जिन्होंने कटहल के साथ मुझे भी भूमि पर सिर के बल गिरने से बचा लिया था। दो शाखाओं की संधि के सँकरे भाग में मेरी कमर घिसटकर जा फँसी थी। और, यह सब क्षण-भर में हठात् हो गया था।...

अब मेरी दशा विचित्र थी। जैसे मैं किसी गिरगिटान की तरह पेड़ से उतरते हुए अपने शिकार को एकाग्र भाव से देख रहा होऊँ--फर्क सिर्फ इतना था कि गिरगिट की एकाग्रता में विश्वास की चमक उसकी आँखों में होती है, जबकि मेरी विस्फारित आँखों में भय भरा था। कटहल मुझे नीचे खींच रहा था और मैं उसे ऊपर। बालपन की उस उम्र में मैं पिद्दी-सा ही तो था, जबकि कटहलजी हृष्ट-पुष्ट और ख़ासे वज़नी थे। इस रस्साक़शी में मैं हिम्मत हारने लगा, कटहलजी सचमुच बहुत भारी थे। सोचने लगा, छोड़ूँ कटहल का मोह और प्राण-रक्षा कर सही-सलामत पेड़ से उतर जाऊँ। कटहलजी गिरते तो पाँव के बल गिरते और मैं गिरता तो सिर के बल! रण छोड़ निकलने का मेरे मन में उपजता यह विचार कटहल की तरह ही पुष्ट हो पाता, इसके ठीक पहले दूर से आते मेरे एक प्रिय मित्र प्रभात (प्रभात कुमार दास 'लाइट') दिखे। हमउम्र और कोमल-सुदर्शन बालक थे और जाने किस उल्लास में उन्होंने अपने नाम के साथ 'लाइट' तख़ल्लुस भी जोड़ लिया था, उसी कच्ची उम्र में। खूँटी छोड़ने के बाद कुछ समय तक उनसे मेरा पत्राचार होता रहा और फिर वह इस भरी दुनिया में मेरे लिए अलभ्य ही हो गए। बहरहाल, उन्हें देखते ही मैं जोर-जोर-से उनका नाम लेकर चिल्लाने लगा--'प्रभात, प्रभात', इधर आओ....!' मेरे स्वरों का संधान करते हुए वह पेड़ के नीचे आ पहुँचे। मुझे विस्मय से देखते हुए बोले--'क्या कर रहे हो वहाँ ? नीचे आ जाओ, गिरोगे तो हाथ-पैर टूट जायेंगे।'


मैंने दीनता और क्रोध-मिश्रित स्वर में कहा--'पहले इसे पकड़ो यार, वरना यह मुझे अपने साथ जरूर ले गिरेगा।' दूर से देखकर पहले शायद वह यही समझे थे कि कटहल वृक्ष से ही लटक रहा है, लेकिन पास आने पर जान सके कि मैंने ही उसे अपने दोनों हाथो में थाम रखा है। कटहल के ठीक नीचे आकर उन्होंने अपने दोनों हाथ ऊपर उठाये और बोले--'हाँ, छोड़ दो, मैं कैच कर लूँगा।' उन्हें कटहल के वज़न का अनुमान नहीं था, मुझे था। मैं देख रहा था कि उनके दोनों उठे हाथ और कटहल के बीच ढाई-तीन फ़ीट की दूरी है। वह बज़िद हो गए कि मैं कटहल को छोड़ ही दूँ। उलटा लटका हुआ मैं अब तक पूरी तरह ऐंठ गया था, शरीर का अंग-प्रत्यंग पीड़ा से बेहाल था। सच पूछिये तो कटहल हाथ की पकड़ से बस छूटने ही वाला था। प्रभात के बार-बार के इसरार पर मैंने कटहल को अपनी पकड़ से मुक्त कर ही दिया। प्रभात उसका भार और आघात सँभाल नहीं सके और वह प्रभात के हाथों को चोट पहुँचता ज़मीन पर जा गिरा। गिरा और 'भद्द' की आवाज़ के साथ दो भागों में फटकर बिखर गया। कटहल अंदर-ही-अंदर पक चुका था। उसके फटते ही तीखी-भीनी गंध हवा में बिखर गयी चारों ओर....!

मैं बड़ी कठिनाई से जब पेड़ से उतरकर भूमि पर खड़ा हुआ तो मेरे दोनों पाँव काँप रहे थे। रक्त-संचार को भी सिर से पाँव की ओर उतरने में थोड़ा वक़्त लगा, ठीक वैसे ही जैसे मुझे धीरे-धीरे सरककर सिर की जगह पैरों के बल पृथ्वी पर आने में लगा था। मैं पास की ही एक पुलिया पर प्रभात के साथ बैठ गया। प्रभात अपनी दोनों हथेलियाँ दिखाकर क्षोभ व्यक्त कर रहे थे कि मैंने नाहक उसे थाम लेने की ज़िद की। उनकी दोनों हथेलियों को कटहल की नामाकूल काँटेदार त्वचा खरोंच दे गयी थी। कटे हुए कटहल ने भूमि पर गिरकर फटने के पहले अपना क्रोध प्रभात पर निकाल लिया था। और, मैं तो इसी बात से खुश था कि कटहल से हुई कुश्ती में मैं विजयी होकर वृक्ष से उतरा था।...ये बात और है कि घर पहुँचने पर मुझे पता चला था कि तने की रगड़ से मेरी कमर और मेरे पेट पर भी खरोंच के कई निशान बन गए थे। खैर, उसी पुलिया पर बैठे-बैठे हम दोनों ने उस फटे हुए कटहल के दो-दो कोए खाये और तृप्त-प्रसन्न हुए। मेरे घोर परिश्रम का प्रतिफल थे वे कोए--बहुत मीठे, बड़े सुस्वादु...! अब उसके शेष भाग का क्या करना था ? उसे वहीं धराशायी छोड़कर हम अपने-अपने घर लौटे...स्कूल की कापियों से फाड़े गए पन्नों में चार-चार कोए लपेटकर...!

कटहल से हुई उस ज़ोर-आज़माइश को आज आधी शती बीत गयी है, लेकिन मैं न तो प्रभात को भूल सका हूँ, न उस वज़नी कटहल को।...

[चित्र : १) प्रभात कुमार दास 'लाइट ', १९६६; मेरे बंग-बंधु थे, निकटतम मित्र थे। कलकत्ता से भी उनके परिवार का कोई सरोकार था। मैं नहीं जानता, अब वह कहाँ हैं, कैसे हैं, कैसे दीखते हैं और क्या कर रहे हैं। मेरे फेस-बुक मित्रों में कोई उन्हें जानता हो, तो मुझे अवश्य बताये--'का जाने केहि भेस में नारायन मिल जायँ।' २) कटहल, जो उतना ही बड़ा है, जितने विशालकाय से मेरी मुठभेड़ हुई थी।]

शुक्रवार, 18 नवंबर 2016

परदों के पीछे का सफर..

[भ्रमण-कथा]

सफ़र लंबा था, तकरीबन ३०-३१ घण्टों का। शाम चार बजे पूना से ट्रेन से मैंने प्रस्थान किया था। वातानुकूलित द्वितीय श्रेणी के डब्बे में किनारे की निचली बर्थ थी मेरी। मेरे सिर पर जो बर्थ थी, उसपर पूना से ही आये थे सत्तर वर्षीय एक वृद्ध दक्षिण भारतीय सज्जन। वह तमिलभाषी थे, लेकिन लगभग आधी सदी उन्होंने पूना में व्यतीत की थी और इसीसे टूटी-फूटी हिंदी बोल-समझ लेते थे। रात के भोजन के बाद लगभग ९ बजे वह अपनी बर्थ पर चले गए। तबतक जितनी बातें हो सकती थीं, हम दोनों ने कीं। उन्हें कोयम्बतूर जाना था और मुझे उससे भी आगे--'अलुवा' तक।

भारतीय रेल की वातानुकूलित श्रेणियाँ भी अब सहयात्रियों से असम्बद्ध रहकर यात्रा की श्रेणियाँ बन गयी हैं, उस पर भी यदि वातानुकूलन की द्वितीय श्रेणी हो, तो फिर क्या कहने ! हर क्यूबिक के परदे बंद। किनारे की सीट पर बैठा यात्री देख भी नहीं सकता कि सामने की बर्थ के चार मुसाफ़िर क्या खा-पी रहे हैं, कैसा प्रमोद-परिहास या आनन्द-लाभ कर रहे हैं ! मेरी ऊपरवाली बर्थ के दक्षिण भारतीय बुज़ुर्ग भी जो एक बार अपनी सीट पर गए, तो ऊपर ही रह गए। पर्दा-बंद कोलकी में ऐसे दुबके कि दूसरे दिन शाम के वक़्त कोयम्बतूर पहुँचने के थोड़ा पहले ही प्रकट हुए और मुझसे हाथ मिलकर उन्होंने अपनी यात्रा संपन्न कर ली।

खैर, यह तो पूरी रात और सारा दिन बीत जाने के बाद की बात है। दिन कैसा बीता, यह न पूछिये ! सुबह जब आँख खुली तो हमारी ट्रेन महाराष्ट्र की सीमा-रेखा लांघ गयी थी। जीवन-भर उत्तर भारत में रेल की यात्रा करनेवाला मैं तो बुरा फँसा इस बार। बॉगी में अपरिचित शान्ति थी, सर्वत्र स्वच्छता थी और आगन्तुकों की विशेष हलचल भी नहीं ! कोई ऐसा नया मुसाफिर भी नहीं, जो कहे कि 'जरा सरकिये', 'बैठने तो दीजिये', 'रिजर्भेसन करा लिए हैं तो का ट्रेने खरीद लिए हैं ?' न फर्श पर केले के छिलके, न चिनियाबादाम के; न पानी की खाली बोतलें डगरती हुई, न चाय के जूठे कागज़ी कप बिखरे हुए। यात्रियों के बीच न राजनीति पर लंबी-चौड़ी बयानबाज़ी, न कोई बहस-मुबाहिसा। अजीब साफ़-सुथरी-शांत यात्रा थी और वह निर्विघ्न सम्पन्न हो रही थी।

थोड़ी हलचल तभी होती, जब कोई स्टेशन आता--उतरनेवाले यात्री शान्ति से उतर जाते, नए यात्री थोड़ी मर्मर ध्वनि के साथ प्रवेश करते और ट्रेन के पुनः चल पड़ने के पहले ही यथास्थान स्थिर हो जाते। कभी-कभी पेंट्री के फेरीवाले आवाज़ें लगाते निकल जाते। रेल-यात्रा में इतनी शान्ति का मुझे अभ्यास नहीं था, चाहता था, किसी से बातें हों, कोई प्यारा-सा बच्चा मुझे अपनी ओर आकर्षित करे, किसी भद्र परिवार से थोड़ी निकटता बने! थोड़ा नयन-सुख तो मिले कहीं! लेकिन, खिंचे पर्दों के पीछे दृष्टि पहुँचे तो कैसे? वह तो ग़नीमत हुई, घर से एक वृहद् पुस्तक लेकर चला था--"कठिन प्रस्तर में अगिन सुराख़"। पुस्तक अज्ञेय के व्यक्तित्व-कृतित्व का मूल्यांकन करती हुई आलोचनात्मक कृति थी, जिसके संस्मरण-खण्ड (परिशिष्ट) में मेरा अज्ञेयजी पर एक सुदीर्घ संस्मरणात्मक आलेख भी प्रकाशित हुआ था। मैं सारे दिन इसी पुस्तक में डूबा रहा और शाम होने पर ही उससे विमुख हुआ।

गाड़ी समय से दौड़ रही थी। मेरी समस्या यह थी कि पान की पीक फेंकने के लिए मुझे बार-बार बेसिन पर जाना पड़ता था, लिहाज़ा अपनी बर्थ के दो परदों में से एक पल्ले को मैंने खोल रखा था। वे क्या ही अच्छे दिन थे, जब स्लीपर क्लास में सफ़र करता था। ट्रेन में भीड़-भाड़ तो मिलती, लेकिन पीक फेंकने के लिए बार-बार सीट से उठना नहीं पड़ता था। खिड़की से अपनी चोंच बाहर निकली और दे मारी पीक हवा में। तेज हवा में लहराती पीक सहस्रांशों में बिखरकर पिछली कई बोगियों की चूनर धानी कर जाती। सहयात्री आपस में खूब बातें करते और थोड़ी निकटता होते ही अपने भोज्य-पदार्थों को मिल-बाँटकर खाते। कोई मासूम-प्यारा-सा बच्चा आपको देखकर आँखें चमकाता और आपके हाथ के बिस्कुट को हसरत से देखता। कोई सुघड़-सुन्दर बाला चोर नज़रों से आपको देखती और आँखें चुराती। बॉगी में कहीं विवाद होता, तो कहीं हँसी के सोते फूटते। सभी उसका लुत्फ़ उठाते। सहयात्री एक परिवार के सदस्य बनकर सफर करते। आधुनिकता की इस बदलती बयार ने सुख के वे दिन हमसे छीन लिए हैं।

ट्रेन जब कोयम्बतूर से आगे बढ़ी और त्रिषूर पहुँचनेवाली थी, तो मैं मुँह खाली करने के लिए फिर बेसिन पर गया। बॉगी के दरवाज़े पर देखा कि एक बुज़ुर्ग दम्पति के बीच में साँवली-सलोनी, लंबी-छरहरी, जीन्स पैंट और गंजीधारी एक कन्या मय-सरोसामान खड़ी है। मुझे लगा, माता-पिता-पुत्री का यह परिवार यहीं उतरनेवाला है। मुख-प्रक्षालन के बाद मैंने सहज जिज्ञासा से पूछा--"कौन-सा स्टेशन आनेवाला है ?" प्रश्न तीनों यात्रियों के बीच रखा था मैंने, किन्हीं विशेष को संबोधित करके नहीं, लेकिन उत्तर दिया उस तन्वंगी ने, जो स्थिर दृष्टि से मुझे ही देख रही थी--'त्रिषूर'! यह उत्तर पाकर मैं अपनी जगह पर लौट आया, लेकिन एक सवाल मन में कौंध रहा था कि वह कन्या मुझे क्यों ऐसी प्रगाढ़ दृष्टि से देख रही थी भला? त्रिषूर आया, गाड़ी रुकी, फिर चल पड़ी।

त्रिषूर के बाद सिर्फ़ ५५ किलोमीटर की यात्रा शेष थी। मैं बार-बार घड़ी देख रहा था। अलुवा पहुँचने में जब १०-१५ मिनट शेष थे, मैंने भी अपना बैग-झोला समेटा-उठाया और बढ़ चला दरवाज़े की ओर। द्वार पर पहुँचकर मैंने देखा, वही कन्या वहाँ खड़ी है--अकेली। अपने बाएं हाथ से उसने दरवाज़े का हैंडिल-रॉड थाम रखा था और दाएँ हाथ में अपने मोबाइल को कान से लगाए बेफ़िक्री से बातें कर रही है--फर्राटे से, अंग्रेजी में! उसे वहाँ देखकर मुझे हैरत हुई और मुझे देखकर उसकी आंखों में भी अनजाना अचरज तैर गया। लेकिन वह फ़ोन पर बातें कर रही थी, मैं कुछ कह न सका। और वह थी कि फ़ोन पर बातें तो कर रही थी, लेकिन वैसी ही गहरी नज़रों से मुझे देखे जा रही थी--निर्निमेष !

जल्दी ही उसने अपनी फोन-वार्ता बंद की और मेरी तरफ मुखातिब हुई; लेकिन उसके कुछ कहने के पहले मैंने ही प्रश्न किया--"आप त्रिषूर पर उतरीं नहीं?"
उसने कहा--"नहीं, मुझे अलुवा पर उतरना है।"
मैंने कहा--"और वे लोग जो आपके साथ थे ?"
--"वे उतर गए, मेरी बगल की बर्थ पर थे, मैं उन्हें 'हेल्प' और 'सी-ऑफ़' कर रही थी।"

अब गन्तव्य पर पहुँचने में केवल ८-१० मिनट बचे थे, इन्हीं क्षणों में हमने थोड़ी-सी बातें कीं, जिससे मुझे पता चला कि वह अलुवा की ही रहनेवाली पितृहीना कन्या है, मुम्बई की किसी फ़र्म में काम करती है और घर लौट रही है। घर पर उसकी माँ हैं और बड़े भाई-भाभी। उसने भी पूछकर मुझसे जान लिया कि मैं पुणे से अलुवा अपनी बेटी-दामाद के पास जा रहा हूँ। चलती ट्रेन से ही थोड़ा आगे झुकते हुए उसने मुझे एर्नाकुलम का अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा दिखाया, जो प्रकाश से जगमगा रहा था। अड्डे की ओर इंगित करते हुए वह दरवाज़े के बहुत किनारे जा खड़ी हुई थी और उससे बाहर झुक गयी थी। मैंने सचेत करते हुए थोड़े आदेशात्मक स्वर में कहा--"देखिये, इतना किनारे मत जाइये, एक क़दम पीछे ही रहिये। इतनी सावधानी जरूरी है।"

उसने उन्हीं स्थिर नज़रों से मुझे फिर देखा और एक कदम पीछे आ खड़ी हुई। पांच मिनट ही बीते होंगे कि ट्रेन अलुवा के प्लेटफॉर्म पर रेंगती हुई आ पहुँची। इन पाँच मिनटों में भी वह बार-बार मेरी ओर देखती और नज़रें फेरती रही। गाड़ी रुकी, तो पहले वही उतरी, फिर मैं। मेरे हाथ का बैग लेने को उसने हाथ बढ़ाया, मेरे नकार की अनदेखी करके उसने बैग मेरे हाथ से ले ही लिया। अब विदा का क्षण था, तभी अप्रयाशित घटित हुआ।

अपने कदम आगे बढ़ाते ही वह ठिठकी और अँगरेज़ी में मुझसे बोली--"मे आई टच योर फ़ीट अंकल?" और, इतना कहते ही वह मेरे पाँव की ओर झुकी। मैं 'बस-बस' कहता ही रह गया और उसने बाक़ायदा झुककर मेरे चरण छुए, उठकर खड़ी हुई और बोली--"अंकल, यू आर ऑलमोस्ट लुकिंग लाइक माई फ़ादर ! वह होते, तो वे भी इसी तरह मुझे दरवाज़े से पीछे खड़े होने को कहते।"

मैंने देखा, इतना कहते-कहते उसकी आँखों के आकाश में नमी तैर गयी थी। वह अचानक पलटी और 'बाय' कहती हुई तेज़ी से चल पड़ी। मैं हतप्रभ-हतवाक, जड़ बना उसे देखता ही रह गया। तभी देखा, मेरी ज्येष्ठ कन्या अपने बेटे के साथ मेरी तरफ आ रही है तेज़ कदमों से। एक बेटी मुझे पिता-सदृश बताकर जा रही थी और दूसरी बेटी मेरी ओर चली आ रही थी। दोनों एक-दूसरे के बिलकुल अगल-बगल से गुज़रती हुई भिन्न दिशाओं में बढ़ चली थीं। नियति की इस प्रवंचना ने मुझे उस क्षण विचलित और स्तंभित कर दिया था....!
कालिदास गुप्ता रज़ा साहब के एक शेर की अर्द्धाली याद आयी--
'मंज़िल पे अलग हुए, तो मुसाफ़िर का पता चला।'

मैं सोचता रहा, काश, ट्रेन की बोगी के हर क्यूबिक में परदे खिंचे न होते और वह बिटिया मुझे यात्रारम्भ में ही मिली होती तो पूरा सफ़र इतना एकाकी और नीरस न होता।....शयन के लिए शय्या पर गया तो ये ख़याल मन में उबलता ही रहा कि जाने कौन-कौन, कितने पास-पास, दूर-दूर, सम्मुख या परदे के पीछे सफर कर रहा है ? संभव यह भी है कि हम सभी पर्दों के पीछे ही पूरी कर रहे हों अपनी-अपनी यात्राएँ... !

[चित्र : गूगल सर्च से साभार, लेकिन इस तलाश में ट्रेन की बोगी के द्वार पर खड़ी एक भी दक्षिण भारतीय कन्या नहीं मिली.]

सोमवार, 7 नवंबर 2016

अन्तरात्मा की अदालत में...

पटना महाविद्यालय के वाणिज्य विभाग (तब तक वह अलग से वाणिज्य महाविद्यालय घोषित नहीं हुआ था) में पहुँचा तो वहाँ भी मित्रता हिंदी से ही रही, वाणिज्य के सभी विषय अनजाने और दुरूह थे। मैं उनसे दोस्ती करने का परिश्रम करने लगा। प्री.कॉम. तथा स्नातक वाणिज्य का प्रथम वर्ष (बी.कॉम, पार्ट-I) शांति से व्यतीत हुआ, परीक्षाओं में अंक भी संतोषजनक मिले और मैंने द्वितीय वर्ष में प्रवेश किया। इसी सत्र में तीसरी अदावत की अनपेक्षित कथा लिखी गयी। लगता है, ये अदावतें मेरे भाग्य में लिखी थीं।

महाविद्यालय के प्रारंभिक दो वर्षो में हमारे हिंदी के शिक्षक थे, सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. कुमार विमल। उनकी मुझ पर बड़ी कृपा थी। पूरी कक्षा में मुझे उनसे सर्वाधिक अंक मिलते थे। वह ऐसी साफ़ ज़बान बोलते कि उन्हें सुनकर तबीयत खुश हो जाती। विषय का ऐसा पुंखानुपुंख प्रतिपादन-विश्लेषण करते कि पाठ सहज बनकर स्पष्ट हो जाता। उनके सम्भाषण से ही उनके वैदुष्य का ज्ञान हो जाता था। किन्तु वाणिज्य के अधिकांश विद्यार्थी हिंदी की कक्षाओं को गंभीरता से नहीं लेते थे और उनकी इस विषय में रुचि भी कम थी। इसीसे हिंदी की कक्षाओं में उपस्थिति भी कम होती थी। साल-दर-साल कई-कई पीढ़ियों को पढ़ाते हुए हिदी-शिक्षक भी इस वास्तविकता से परिचित थे। ऐसा उनके वक्तव्यों से परिलक्षित होता था।

बी.कॉम, पार्ट-II में जाने किन कारणों से छात्रों को हिंदी पढ़ाने श्रीजयमंगल प्रसाद पधारे। गौर वर्ण और पुष्ट देह-यष्टि के क़द्दावर गुरुदेव थे--उन्नत ललाट, खड़ी नासिकावाले सुदर्शन और भद्र महानुभाव--कुरता-धोती-बंडी में शोभायमान ! विद्वान् व्यक्ति थे, अपने विषय के मर्मज्ञ! उनकी भाषा-शैली भी बहुत प्राञ्जल और प्रभावित करनेवाली थी ! पाठ का नीर-क्षीर विवेचन करते। उनकी कक्षा में मैं पूरी तन्मयता से बैठता और पूरा लेक्चर आत्मसात कर लेता, आवश्यक नोट भी कक्षा में ही बना लेता।

वह प्रातःकालीन महाविद्यालय था, कक्षाएँ सुबह ६.३० से ही शुरू हो जातीं और ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे के आसपास महाविद्यालय से हमें मुक्ति मिल जाती। यारबाशी के लिए पूरा दिन हमें खुला मिलता। वहाँ अच्छे दिन गुज़र रहे थे। अनेक नए-पुराने मित्रों का साथ-संग होता और हम मटरगश्तियां करते फिरते। कभी महाविद्यालय की कैंटीन में जा बैठते, तो कभी कॉलेज परिसर के खेल के मैदान में बैठकर मूँगफलियाँ फोड़ते हुए क्रिकेट-मैच का आनंद लेते। मेरे विद्यालय के कई सहपाठी भी वाणिज्य के छात्र बने थे। हम सभी पटनासिटी से बिहार राज्य ट्रांसपोर्ट की बसों में साथ-साथ महाविद्यालय आते, लिहाज़ा हमजोलियों का एक पूरा जत्था मेरे साथ होता, जिनमें शम्मी रस्तोगी, जगमोहन शारदा, नीरज रस्तोगी, अरुण गुलाटी, दिलीप अग्रवाल (दिल्लू) आदि प्रमुख थे।
हमारी इसी टोली में शामिल हुए पटनासिटी-निवासी विनोद कपूर, जो हरदिलअजीज़ शख्श थे। वह अपने नाम के अनुरूप बहुत विनोदी स्वभाव के और शीघ्र सबसे घुल-मिल जानेवाले हँसमुख युवक थे। उनमें भी हिंदी-प्रेम के नावांकुर उन्हीं दिनों फूटे थे। वह महाविद्यालय में मेरे आत्मीय बंधु बने। मेरे साथ वह भी एकाग्र भाव से हिन्दी की कक्षाओं में नियमित रूप से बैठते। अब सम्मिलित अध्ययन के अखाड़े बदल गए थे। मैं ज़्यादातर विनोद के घर में होता और उन्हीं के साथ रात्रिकालीन अध्ययन-मनन के सत्र व्यतीत करता।

कई बार हम सभी मित्र-बंधु शम्मी रस्तोगी के घर में एकत्रित होते--सारी रात वहीं पढ़ते, उधम मचाते और रात-भर में रसोईघर में रखा भुना-पका खाद्यान्न चबा जाते--एक रात में फोरनी से भरा मर्तबान पूरा साफ़! दूसरे दिन मेरे मित्र इसके लिए मुझे जिम्मेदार ठहरा देते, कहते--'रात-भर में ओझा पण्डित सब खा गया ।' लेकिन शम्मी और विनोद के माता-पिता बहुत उदार और स्नेही थे। हमारी उद्दंडताओं पर कभी क्रुद्ध नहीं होते। शम्मी हमारी टोली के सर्वप्रिय मित्र तो थे ही, हमारे बीच के 'राजेश खन्ना' भी वही थे। वही सूरत शक्ल, वही अंदाज़, वही अदाएँ ! राजेश खन्ना रजत-पट पर चमकते और शम्मी हमारे बीच! राजेश खन्ना तो बहुत बाद में लोकान्तरित हुए, लेकिन शम्मी अपनी चढ़ती उम्र में ही अचानक हमें बीच राह में छोड़ गए। उनकी कमी हमारी पूरी मित्र-मण्डली में आज भी शिद्दत से महसूस की जाती है। वह अद्भुत मित्र-वत्सल बंधु थे!
नीरज और जगमोहन एकाउंट्स और बुक-कीपिंग के मास्टर थे। कभी-कभी दिन-भर की बैठकी जगमोहन के घर भी लगती। इन सभी मित्रों के सहयोग से मैं वाणिज्य के अन्यान्य विषयों से सामंजस्य बिठाने का प्रयत्न करने लगा।

वह संभवतः १९७२-७३ की बात होगी। एक दिन जयमंगल प्रसादजी कक्षा में पढ़ा रहे थे और हम सभी छात्र शांतिपूर्वक उनका सम्भाषण सुनने में निमग्न थे। कक्षा की समाप्ति के ठीक पहले प्रसंगवश उन्होंने पूछा--'क्या आप में से कोई अकर्मक और सकर्मक क्रिया की परिभाषा बता सकता है ?'
प्रश्न सुनते ही बचपन का कण्ठाग्र एक दोहा मेरे मस्तिष्क में स्फुल्लिंग-सा चमका और मैंने अपना हाथ ऊपर उठा दिया। जयमंगल प्रसादजी ने इशारा करते हुए मुझसे कहा--'हाँ, आप बताइये।' मैं उत्साह से उठ खड़ा हुआ और बोला--
'क्रिया अकर्मक और सकर्मक दो प्रकार की होती,
जैसे राम आम खाता है, और सुधा है सोती।'

दोहा तो दो पंक्तियों का ही था, उसे सुनाकर मैं चुप हुआ ही था कि पूरी कक्षा 'खी-खी' करके हँसने लगी। विनोद कपूर मेरी बाँह पकड़कर मुझे बैठ जाने का इशारा कर रहे थे और मैं हतप्रभ था कि मित्र-बन्धु आख़िर ऐसा उपहास क्यों कर रहे हैं! तभी मेरी दृष्टि अपनी कक्षा की एकमात्र छात्रा पर पड़ी, जो इस हलचल के कारण चौंककर जाग पड़ी थीं और अपनी आँखें मलते हुए सजग हो रही थीं। और, अचानक मुझे ख़याल आया कि उफ़, उनका नाम भी 'सुधा' ही तो है। इस दुर्योग पर मैं अपना सिर पीटते हुए सकुचाकर बैठ गया।

जयमंगल प्रसादजी ने इसे मेरी इरादतन की गयी शरारत समझकर गंभीरता से लिया और मुझे फिर उठ खड़े होने का आदेश दिया। उन्होंने मुझसे मेरा क्रमांक पूछा और एक पर्ची पर लिखकर कहा---"कक्षा के बाद मुझसे 'स्टाफ रूम' में मिलिए।" उन्होंने दो-तीन और छात्रों का क्रमांक पूछकर लिखा था, जो मुखर हास्य का प्रदर्शन करते हुए इस आकस्मिक उत्सव का आनंद-लाभ कर रहे थे। इन सबों के लिए समान आदेश की उदघोषणा करते हुए गुरुवर कक्षा से चले गए।

मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि मेरा किसी को चिकोटी काटने का इरादा हरगिज़ नहीं था और संयोग से पद में 'सुधा' नाम का ही उल्लेख था, तो मैं क्या करता ? बचपन के रटे-रटाये पद में नाम का परिवर्तन मैं हठात कर नहीं सकता था और वह भी महज़ इसलिए कि इसी नाम की एक छात्रा मेरी कक्षा में थीं। सच तो यह है कि जब मैंने पद सुनाया था, तब मुझे सुधाजी की सुधि भी कहाँ थी ?

लेकिन, मेरा नाम तो अपनी पर्ची में जयमंगल प्रसादजी लिख ले गए थे और आदेशानुसार मुझे उनके सामने उपस्थित होना ही था। मैं 'स्टाफ़ रूम' की ओर बढ़ा तो मित्रों ने सलाह दी कि "सर, अभी बहुत क्रोध में होंगे, उनसे कल मिल लेना। अभी चलो न क्रिकेट-मैच देखने, 'लीज़र पीरियड' भी है।" मुझे भी यही उचित जान पड़ा और मैं अपने मित्रों के साथ खेल के मैदान में जा पहुँचा। यही और इतनी ही गफ़लत मुझसे हुई थी, अन्यथा मैं पूरी तरह निर्दोष था।

क्रिकेट देखते हुए हम प्रमोद में मग्न थे कि घण्टे-भर बाद संकट का परवाना लिए विभागाध्यक्ष का गण सिर पर आ पहुँचा। उसने पर्ची देखकर एक क्रमांक संख्या का उल्लेख किया और पूछा--'आपलोगों में यह किनका रॉल नम्बर है ?'
मैंने कहा--'मेरा !' वह बोला--'चलिये, शर्माजी आपको बुला रहे हैं।' यह सुनकर तो मेरे होश फ़ाख़्ता हो गए।' वह तो आसन्न संकट की पुकार थी। मैं गण का अनुगामी बना उसके पीछे चल पड़ा।

विभागाध्यक्ष श्रीपद्मदेव नारायण शर्मा (प्रॉ. पी.एन. शर्मा के नाम से विख्यात) के नाम से तो विश्वविद्यालय के बड़े-से-बड़े दिग्गजों की रूह काँप जाती थी, फिर मेरी क्या हस्ती थी ! उनकी पुकार पर मैदान छोड़कर मैं भाग भी नहीं सकता था। सिर झुकाये, गण का अनुगमन करते हुए, मैं विभागाध्यक्ष महोदय के कक्ष के समीप पहुँचा तो बंद द्वार के बाहर भी उनके क्रुद्ध गर्जन का तीव्र स्वर पिघले शीशे की तरह मेरे श्रवण-रंध्रों में उतर गया। और तभी मेरा एक सहपाठी लाल चेहरा और नम आँखें लिए द्वार खोलकर बाहर आया तथा भयभीत हिरण-सा भाग चला। अगला नंबर मेरा ही था। प्राण हथेलियों पर लेकर मैं उनके कक्ष में जैसे ही प्रविष्ट हुआ, गुरुदेव ने कर्कश स्वर में कहा--'अच्छा, तो वह तुम हो !' दरअसल वह पिताजी के पूर्व-परिचित थे और उनका बड़ा सम्मान करते थे। मुझे सम्मुख आया देख उन्हें आश्चर्य हुआ था।

मैंने अपनी सफाई में कुछ कहना चाहा तो वह एकदम उग्र हो उठे और पलटकर आलमारी के ऊपर से उन्होंने एक मोटा रूल उठा लिया और सिंह-गर्जना की--'तुम भी नालायक़ निकलोगे, मैंने सोचा नहीं था।' सोचता हूँ, मेरे नाम के साथ पूज्य पिताजी का नाम न जुड़ा होता, तो उस दिन न जाने मेरी कैसी दुर्गति हुई होती।

मैंने अपनी प्राण-रक्षा में तत्काल निवेदन किया--'माफ़ करें सर, गलती हो गयी। अब कभी ऐसा नहीं होगा।' उन्होंने चीखकर ही मुझे बाहर निकल जाने का आदेश दिया। वह अत्यधिक क्रोध में थे। एक बार फिर, मैं उस अपराध की क्षमा मांग आया था, जो मैंने किया नहीं था। बस, ज़रा-सी बात थी, जो समंदर को खल गयी थी।...
लेकिन, मन पर इसका बोझ लंबे समय तक नहीं रहा; क्योंकि कुछ दिन बाद ही शर्माजी ने मुझे फिर अपने कक्ष में बुलाया। मैं हाज़िर हुआ तो देखा, हिन्दी-शिक्षक जयमंगल प्रसादजी वहीं विराज रहे हैं। उसी दिन बातें साफ़ हो गयीं और मेरा क्षोभ तथा मनोमालिन्य धुल गया। लेकिन, मैं कक्ष से बहार निकलूं, उसके पहले शर्माजी ने हिंदी-शिक्षक महोदय की ओर इशारा करते हुए मुझसे कहा था--'अगर तुम उसी दिन इनसे मिल लेते तो बात मुझ तक नहीं पहुँचती ! आगे से ध्यान रखना, किसी शिक्षक के आदेश की अवमानना न हो।'
मैंने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा था--'भविष्य में किसी आदेश की अवज्ञा मुझसे नहीं होगी सर!'... और, मेरी कागज़ की नाव भँवर से बचकर निकल गयी थी।...

बात आयी-गयी हो गयी। महाविद्यालय से बाहर निकला तो स्नातक वाणिज्य (ससम्मान) की उपाधि तो मिली ही, साथ ही मिले थे हिन्दी में विशेष योग्यता के अंक (डिस्टिंग्शन मार्क्स)।

अपने विद्यार्थी-जीवन की ये तीन घटनाएँ मैं कभी भूल नहीं सका। मेरा अपराध रहा हो या न रहा हो, मेरे आचरण में उशृंखलता तो थी ही। खूँटी (रांची) के हिन्दी-शिक्षक श्रीसियाराम सिंह ने मुझे कभी क्षमा किया भी या नहीं, यह मैं जान न सका; क्योंकि उनसे जीवन में फिर कभी मिलना ही नहीं हुआ। अन्य दोनों हिंदी-शिक्षकों ने मुझे माफ़ी भी दी और उनकी यथेष्ट प्रीति भी मैं अर्जित कर सका। फिर भी, उम्र की इस दहलीज़ पर पहुँचकर यह परम ज्ञान मुझे अवश्य प्राप्त हुआ कि अंतरात्मा की अदालत में कभी माफ़ी नहीं मिलती।...
(समाप्त)




[चित्र : १) विनोद कपूर और मैं, २) मैं, अभी, ३) बाएं से--स्व. शम्मी रस्तोगी, मैं, दिलीप और प्रह्लाद  ४) जगमोहन शारदा राजगृह की पहाड़ी पर मैं; १९७२-७३ की छवियाँ.]

बुधवार, 2 नवंबर 2016

वह निर्भीक स्वीकारोक्ति...

खूँटी (रांची) से पटना बैरंग लौट आने के दो-तीन महीने बाद बहुत सारी हिदायतों और उपदेशों के साथ मेरा नामांकन श्रीमारवाड़ी उच्चतर-माध्यमिक विद्यालय, पटनासिटी की नवमी कक्षा में, बीच सत्र में करवाया गया। पिताजी के उपदेशों का इतना असर जरूर हुआ कि मैंने मन में निश्चय कर लिया कि यहाँ अपनी छवि सुधार कर रहूँगा। लेकिन, अपने पूर्व कृत्य पर शर्म थी कि मुझे आती न थी। हाँ, एक क्षोभ जरूर था कि मैं जिन पर प्रहार कर बैठा, वही स्कूल में छोड़ा हुआ मेरा बैग लौटाने मेरे घर आ रहे थे। एक प्रिय और आदरणीय हिन्दी-शिक्षक पर आघात करने की लांछना से मैं संतप्त रहा, जबकि वह प्रहार कदाचित उनपर नहीं था । सच तो यह है कि तत्कालीन मानसिकता में मैं सुनिश्चित भी नहीं कर सका कि मेरा अविवेकी क्रोध आखिर किस पर बरसने को आतुर हुआ था--गुरुदेव पर या सहपाठी राजेश पर अथवा दोनों पर!...
मारवाड़ी विद्यालय का माहौल अच्छा था। वहाँ के सांस्कृतिक समारोहों में भाग लेकर और हिन्दी की कक्षाओं में उत्साहपूर्वक पिताजी के समसामयिक चिंतनों का वाचन कर मैंने शीघ्र ही अपनी ख़ास जगह वहाँ बना ली थी। नवमी कक्षा मैंने ठीक-ठाक अंकों से उत्तीर्ण की और हिंदी में सर्वाधिक अंक अर्जित किये। पांच-एक महीनों में मेरे कई मित्र वहीं बने, लेकिन दो हिन्दीप्रेमी मित्र भी मिले--एक कुमार दिनेश, दूसरे शरदेंदु कुमार। उनसे मेरी मित्रता परवान चढ़ती रही। दसवीं कक्षा में पहुंचकर मैं अपने इन्हीं मित्रों के साथ विद्यालय पत्रिका का संपादक भी बना। हमने मिल-जुलकर विद्यालय के सभी समारोहों में नए रंग भरे और प्राचार्यजी तथा शिक्षक-वृन्द की प्रीति तथा उनका प्रोत्साहन-आशीष प्राप्त किया। कुमार दिनेश मुझसे अच्छे विद्यार्थी थे, किन्तु शरदेंदु सभी विषयों में निष्णात थे--गणित, रसायन, पदार्थ विज्ञान में भी अव्वल ! वही सर्वाधिक अंक अर्जित करते। दिनेशजी उनके प्रतिस्पर्धी थे और हर विषय में उनकी शरदेंदु से काँटे की टक्कर होती, लेकिन मैं इस स्पर्धा से बाहर था। एकमात्र विषय हिंदी के अलावा किसी अन्य विषय में मेरी गति नहीं थी। मैंने दोनों मित्रों की अधीनता स्वीकार कर ली थी। हम तीनों साथ मिलकर अध्ययन करते--कभी शरदेंदु के घर, कभी दिनेशजी घर !...




मारवाड़ी विद्यालय में हिन्दी के कई शिक्षक थे, उनमें एक अपेक्षया कम उम्र के थे और हम किशोरावस्था की दहलीज़ पार करते छात्रों से मित्रवत स्नेह और व्यवहार करते थे। उनके स्नेहसिक्त व्यवहार के कारण ही हम सभी बातचीत में उनसे थोड़ी स्वतंत्रता ले लेने का साहस जुटाते थे। हिंदी-व्याकरण वह अच्छा पढ़ाते थे, लेकिन बोलने में उनसे यदाकदा स्खलन हो जाता था--कभी वाक्य-रचनाएँ गलत हो जातीं, तो कभी शब्दों का उच्चारण अशुद्ध हो जाता। ऐसा अशुद्ध उच्चारण, जो हमारे कानों पर हथौड़े-सा पड़ता। दरअसल, इसमें उनका दोष भी नहीं था, बिहार की आँचलिक भाषाओं का उनकी जिह्वा पर गहरा प्रभाव था और वह इसपर कभी ध्यान नहीं दे सके थे। और, हम उनके स्नेह के वशीभूत उनसे कभी कुछ कह न पाते थे।
हम तीनों मित्र कक्षा की अग्रिम पंक्ति में बैठते। हमने आपसी विमर्श से स्वपरीक्षण का एक निरापद मार्ग ढूँढ़ निकाला था। तय किया गया कि जब जिस शब्द का अशुद्ध उच्चारण या अशुद्ध वाक्य-प्रयोग शिक्षक महोदय करेंगे तो हम तीनों आँखों-आँखों में एक-दूसरे को देखकर इशारा करेंगे और अपनी-अपनी कॉपी के पृष्ठ भाग में उस शब्द या वाक्य को लिख लेंगे। हम उनकी कक्षा में बगुले की तरह ध्यानस्थ होकर बैठते और सुन्दर मछलियों की तरह अशुद्धियाँ पकड़ते। कक्षा की समाप्ति पर हम कॉपियों का मिलान करते। हमारा यह प्रयोग बहुत सफल हुआ। इस प्रयोग का हमें दुहरा लाभ हुआ, एक तो पाठ कक्षा में ही ग्राह्य हो जाता और अशुद्धियों की पकड़ की योग्यता की परीक्षा भी हो जाती।
एक दिन की बात है, हम उन्हीं शिक्षक की कक्षा में थे। वह पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' की कहानी पढ़ा रहे थे--'वंशीवाला' ! पाठ-क्रम में उनके मुख से एक वाक्य निकला--'...और उसने वंशी फ़ेंक दिया !' तत्काल हमारी नज़रें आपस में टकरायीं और वह पंक्ति कॉपी में दर्ज़ हो गई। ऐसी गफ़लत उनसे अक्सर होती थी, लेकिन 'उसने वंशी फ़ेंक दिया' तो मुझे किसी तरह हज़म नहीं हो रही थी। दस-बारह दिनों के बाद मुझसे वह अपराध हो ही गया, जिससे मुझे बचना चाहिए था। एक दिन वह एकान्त में मुझे मिल गए। मैंने बहुत विनीत भाव से एक वाक्य उनसे कह ही दिया--'सर, आप अपनी ही धुन में कभी-कभी ग़लत बोल जाते हैं!' उन्होंने घूरकर मुझे देखा और पूछा--'क्या ? मैं क्या ग़लत बोल गया?'
दरअसल, वह मेरी बात समझ नहीं सके। मैंने अपने कथन का आशय स्पष्ट करते हुए कहा--'सर, कभी किसी शब्द का उच्चारण और कभी वाक्य-प्रयोग...।' यह सुनकर उनका मुख म्लान हो गया, चेहरे पर क्रोध की हल्की-सी छाया भी दिखी। लेकिन उन्होंने अद्भुत संयम का परिचय दिया और बस इतना कहकर कमरे से बाहर निकल गए--'मैं ऐसा कैसे बोल सकता हूँ? तुम्हें भ्रम हुआ है।' उनके जाने के बाद मैं अपना सिर धुनता रहा और सोचता रहा कि नाहक मैंने उन्हें कष्ट पहुँचाया। जानता था, उन्हें मेरी टीका-टिप्पणी बहुत बुरी लगी थी। इस घटना के बाद की कक्षाओं में वह बहुत सावधान रहते। पाठ पढ़ाते हुए मेरी ओर संकोच से देखते और मैं उन्हें ख़ुश करने की हर संभव चेष्टा में लगा रहता।...
जब मैट्रिक की परीक्षा में दो-तीन महीने शेष थे, मेरी माँ ने अचानक ही जगत से प्रस्थान किया। माँ ने अन्तिम मुलाक़ात में मुझसे जो कुछ कहा था, उसका आशय यही था कि मैं अच्छा विद्यार्थी और अच्छा इंसान बनूँ। खूँटी (राँची) से लौटने के बाद मैं भी इसी प्रयत्न में लगा हुआ था, लेकिन माँ को इतने से संतोष नहीं था कि अब कहीं से (मोहल्ले या विद्यालय) मेरी शिकायत नहीं आती थी। वह चाहती थीं कि सिर्फ़ 'पासिंग मार्क्स' नहीं, मैं अव्वल अंक अर्जित करूँ। लेकिन उनके जीवनकाल में मैं ऐसा कुछ कर न सका। हाँ, विद्यालय के अंतिम दिनों में जो एक अनचाहा अपराध मुझसे हुआ था, चाहता था, उसका मार्जन जरूर करूँ। लेकिन इसका अवसर भी मुझे नहीं मिला। एक दिन उन्हीं हिन्दी-शिक्षक ने मुझे अलग बुलाकर कहा था--'ओझा, तुमने बहुत ग़लत नहीं कहा था, मैंने ग़ौर किया तो पाया कि बोलने में मुझसे कहीं-कहीं गलतियाँ हो जाती हैं।'
यह उनकी उदारता थी, कृपा थी। उन्होंने मुझे क्षमा ही नहीं किया था, अपनी आत्म-स्वीकृति से मुझे चकित-विस्मित और विह्वल भी कर दिया था। उनकी निर्भीक स्वीकारोक्ति की फाँस मेरे कलेजे में कहीं गड़ी रह गयी, जो विद्या के साथ विनय की अनुशंसा करती थी। यह सबक मैंने उन्हीं से सीखा था। कॉलेज में पहुंचते ही उनसे प्रतिदिन का मिलना तो बाधित हुआ, लेकिन जब कभी वह राह-चलते मिल जाते, मैं उनके चरण छूकर आशीष लेता, जैसे अपने अपराध की क्षमा माँग रहा होऊँ; अन्यथा खूब जानता हूँ, मुझ अपदार्थ की विद्या-बुद्धि उन दिनों क्या थी, कितनी थी।....
मैट्रिक की परीक्षा देकर हम सभी एक ही विश्वविद्यालय के अलग-अलग महाविद्यालय-प्रांगण में पहुँचे। दिनेशजी ने अर्थशास्त्र के समुद्र में तैरने का मन बना लिया था, शरद विज्ञान की उच्च शिक्षा लेने चल पड़े थे और मैं वाणिज्य का विद्यार्थी बन गया था। विभिन्न महाविद्यालयों और अन्यान्य संकायों में पहुंचकर भी हमारी अभिन्नता यथावत बनी रही। आई.एस.सी. के बाद ही शरद ने अचानक विषय की पटरी बदल ली थी। उन्होंने हिन्दी से स्नातक और स्नातकोत्तर की उपाधियाँ अर्जित कीं। कालांतर में दिनेशजी स्तरीय और वरीय पत्रकार बने और शरद भाई पटना विश्वविद्यालय से स्वर्णपदक प्राप्त कर वहीं हिंदी के प्राध्यापक नियुक्त हुए। एक अकेला हिंदी-प्रेमी मैं ही वाणिज्य का विद्यार्थी और स्नातक बनकर अंकों से आँखें फोड़ता रहा। लेकिन वह भी मुझे कहाँ रास आनेवाला था ?...
ये बात और है कि 1987 में जब श्रीमारवाड़ी विद्यालय की स्वर्णजयंती पर आयोजित समारोह में मुझे, और कुमार दिनेश को 'छात्र-रत्न' की उपाधि, रजत पदक और प्रमाण-पत्र से नवाज़ा गया था, तब तक मैं अपनी नौकरियों से मुक्त होकर पटना लौट आया था और पटनासिटी से छह किलोमीटर दूर कंकड़बागवाले घर में जा बसा था। समारोह की सूचना मुझे विलम्ब से मिली थी। मैं उस अवसर पर विद्यालय में उपस्थित न हो सका था। लेकिन कुछ समय बाद जब वह रजत पदक मेरे हाथ आया, तो मन में पहला ख़याल यही उपजा कि काश, आज माँ होतीं तो इस पदक को देखकर उन्हें शायद यक़ीन होता कि मैं इतना भी नाकारा होकर विद्यालय से बाहर नहीं आया था, जितना उनके जीवनकाल में घोषित हुआ था।...
(अगली क़िस्त में तीसरी अदावत के साथ समापन.)
(चित्र : मैं और मेरा त्रय, कुमार दिनेश और मैं, कु० दि० और शरदेंदु, मैं और शरद। महाविद्यालय में पदार्पण के बाद की छवियाँ, शरदेंदु के पुराने घर का प्रांगण, 1972]