बुधवार, 26 जनवरी 2011

दम तोड़ते हैं विचार...

[गणतंत्र दिवस पर विशेष]

बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं में,
वातानुकूलित कमरों में
रेस्तरां और कॉफ़ी-शॉप में--
उपजते हैं बड़े-बड़े विचार और
सड़कों-फुटपाथों पर आकर
दम तोड़ देते है !

स्वतन्त्रता दिवस के जश्न पर
बिखरे बालोंवाली
उस मासूम लड़की की
भोली शक्ल
मेरे ख़यालों में
चींटियों-सी रेंगती है आज भी
और याद आती है मुझे--
उसकी जिद,
उसकी आतुरता, विकलता और व्यग्रता !
वह लगातार करती है मनुहार--
दो रूपए में
कागज़ का एक तिरंगा झंडा खरीदने की !!

तब भी विचारों का गणित
मस्तिष्क में चलता रहता है;
लेकिन वातानुकूलित कार की खिड़की का
बंद शीशा नहीं खुलता !
टैफिक सिग्नल की लाइट
जैसे ही हरी होती है--
कार दौड़ने लगती है--
विचारों को ढोते हुए...... !
विचार--जो सद्भाव के हैं,
समुन्नति के हैं,
पर-पीड़ा के हैं,
अभिवंचितों के उद्धार के हैं
और वर्ग-वैषम्य के निवारण के हैं !

भागती कार के बंद शीशे से
मैं पढता रह जाता हूँ--
उस भोली-भाली लड़की के
चहरे की मायूसी, हताशा, निराशा
और आँखों का सूनापन... !

ज़िन्दगी यूँ ही भागती रहती है
ज़िदगी से
और विचार यूँ ही उपजते
और दम तोड़ते रहते हैं--
सड़कों पर,
फुटपाथों पर
और शहर के
तमाम चौराहों पर !!

बुधवार, 19 जनवरी 2011

कैसे समझाऊं उसे...

[मित्रवर श्रीमुकेश कुमार तिवारी को सप्रीत...]
{कई महीने पहले मित्रवर श्री मुकेश कुमार तिवारी की एक कविता ब्लॉग पर पढ़ी थी--'वो करती है मुझसे शिकायत'। उसे पढकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ था--शानदार कविता थी वह । उसे पढ़ते हुए लगा था कि कवि मेरी बात कुछ अलग अंदाज़ में कैसे लिख रहा है ? फिर याद आया कि बहुत पहले बिलकुल इसी भाव-भूमि की एक कविता कभी मैंने भी अपनी छोटी बेटी के लिए लिखी थी। मुकेश जी की कविता पर टिपण्णी भेजते हुए मैंने उन्हें यह लिखा भी था। प्रत्युत्तर में उन्होंने मेरी कविता देखने की इच्छा प्रकट की थी, लेकिन कविता पटना में थी और मैं नॉएडा प्रवास में। कविता उन्हें मैं भेज न सका था। पिछले दिनों जब पटना गया, तो पुरानी डायरी से यह कविता ले आया हूँ। २५-५-१९९३ की यह कविता भाई तिवारी जी के और आप सबों के सम्मुख रख रहा हूँ । --anand }
एक शाम मेरे घर के
मुंडेरे पर उतर आयी है,
दूर धुंधली-सी
एक तस्वीर उभर आयी है,
जिसके हाथो में चाक़ू है;
वह काटेगी केक -- आज !
ज़िन्दगी की उमंग में
ग्यारह साल पहले लिखी
एक पुरानी कविता को
सजीव , सम्मुख देखता हूँ--
खूब पहचानता हूँ उसे,
जाने कितनी खंडित प्रतिमाओं से
जिसने आकार पाया है :
उस भोली-भाली लड़की के
मासूम चहरे पर
वही जानी-पहचानी मायूसी है
और वह करती है
मुझसे कई सवाल...
मांगती है मुझसे--
अपने हिस्से की कविता !
ग्यारह मोमबत्तियों की रौशनी में
देखता हूँ--
उसका उदास चेहरा,
जिसे उसने टेबल के सिरे पर
केहुनी टिका,
अपनी मुट्ठी पर
ठुड्डी रख
स्थिर कर लिया है--
उसकी उल्लासित आँखों में
आज भी जल रहे हैं सवाल,
थोड़ी मायूसी भी है उसके चहरे पर...
सोचना नहीं पड़ता मुझे
उसकी मायूसी का सबब !
जानता हूँ,
फ़रमाईशें पूरी नहीं हुई उसकी;
लेकिन वह मासूम
मेरी पसलियों के दर्द
और खाली जेब की
पीड़ा क्या जाने ?
अपनी आँखों में ही
उसके प्रश्नों का उत्तर
लिखना चाहता हूँ
और मेरी आखें
निष्प्रभ हुई जाती हैं !
उसके प्रश्न मेरी चेतना पर
छा गए हैं घने कुहरे की तरह
मैं उद्विग्न होता हूँ;
कैसे समझाऊं उसे--
कि तू ही तो मेरी सबसे मासूम
और दुलारी कविता है--
मेरी बेटी !
अपनी ही कविता पर
कविताई कैसे हो भला ?
कोई बतलाये मुझे--
कैसे समझाऊं उसे ??