रविवार, 31 जनवरी 2016

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (४०)

['बंद आँखों का वह चाक्षुष-दर्शन'…]

पिताजी से पूछे जानेवाले प्रश्नों की फेहरिस्त लम्बी होती जा रही थी। उनसे संपर्क की इच्छा बार-बार मन में उठती थी, जिसे मैं मन में ही दबा देता था। मेरी हिम्मत ही नहीं होती थी कि प्लेंचेट बोर्ड बिछाकर बुलाऊँ उन्हें ! डर था कि कहीं बोर्ड पर ही बुरी तरह डाँट न खानी पड़े। पिताजी को गुज़रे सवा साल बीत गए थे, इस बीच उनको स्वप्न में कई बार देखा था, बातें की थीं, विलाप किया था; किन्तु प्लेंचेट पर बुलाकर बात करने की कभी हिम्मत नहीं हुई।

एक रात गहरी नींद सोया और विचित्र स्वप्न-दर्शन हुआ। मैंने देखा--
"एक प्रभामयी अप्सरा ने सोते से मुझे जगाया। मैं हक्का-बक्का उठ बैठा, कुछ समझ न पाया। अप्सरा ने मेरा हाथ पकड़ा और कहा--'चलो मेरे साथ !' क्षण-भर में काले-लम्बे-घुँघराले केशोंवाली अप्सरा ने मेरा हाथ थाम लिया और मुझे अपने साथ अनंत आकाश में लेकर उड चली। उसके आसपास बिखरी हैं ज्योतिमयी रश्मियाँ! कुंतल केश-राशि हवा में लहरा रही है। उसका मुख मेरी विपरीत दिशा में है और मैं लगातार उससे पूछ रहा हूँ--'कौन हैं आप ? मुझे कहाँ लिए जा रही हैं? मेरी ओर देखिये तो सही, ताकि मैं जान सकूँ, कौन हैं आप देवि ?'
मेरे प्रश्नों का उत्तर दिए बिना और मुझसे मुखातिब हुए बिना, वह उड़ी जा रही है, मुझे भी अपने साथ हवा में लहराते हुए। मैं आतंकित हो रहा हूँ। मेरे पाँव अधर में हैं, कहीं अड़ जाने का ठौर भी नहीं और वह तेजोमयी कुछ सुनती ही नहीं! विवशता आर्त्त बना देती है, मैं रोने लगता हूँ। मेरे रुदन का स्वर सुनकर वह बोल पड़ती है--'तुम्हें अपने पिताजी से कई प्रश्न पूछने हैं न? उन्हीं के पास ले जा रही हूँ तुम्हें, रोते क्यों हो? चलो मेरे साथ, अपने मन के सारे प्रश्न पूछ लेना और उन दो श्वेत-वस्त्रधारियों के बारे में भी--याद से!'
मैंने कहा--'पहले आप यह बतायें, आप कौन हैं?'
हवा में तरंगित महिला बोल पड़ी--"न जाने कितनी बार यही सवाल मुझसे कर चुके हो तुम! और कितनी बार पूछोगे?'
उसका उत्तर सुनते ही मुझे वृश्चिक-दंशन-सी अनुभूति हुई। मैंने तड़पकर पूछा--'क्या तुम चालीस दुकानवाली ?'
वह हँसकर बोली--'मेरे सिवा और कौन?'
मैंने कहा--'आज तक बातें ही होती रही हैं तुमसे। एक बार मेरी तरफ मुड़ो, देखूँ तुम्हें, कैसी हो तुम?'
चालीस दुकानवाली ने हँसते हुए कहा--'सुनो, मुड़ तो मैं जाऊँ, लेकिन तुम देख नहीं सकोगे मुझे!'
मैंने पूछा--'वह क्यों?'
उसने कोई उत्तर नहीं दिया और अचानक वह पलटी। सच में, मेरी आँखें चुँधिया गयीं। आँख उसके चेहरे पर ठहरी ही नहीं। उसके मुख-मण्डल से प्रकाश-पुञ्ज छिटक रहा था, हजारों रश्मियाँ बिखर रही थीं। मैंने एक हाथ से अपनी दोनों आँखें ढँक लीं। उसकी हँसी का स्वर फिर कानों में पड़ा, वह कह रही थी--'मैंने कहा था न, तुम देख नहीं सकोगे मुझे!'
मैं चकित-विस्मित था ! सोच रहा था, उसे देखना भाग्य में ही नहीं है शायद... !

वह मुझे किसी अपूर्व लोक में ले गयी। और, बहुत दूर से ही, इशारे से, मुझे दिखाती हुई बोली--'वह देखो, तुम्हारे पिताजी वहाँ उस वृक्ष के नीचे विराजमान हैं और उसके आगे जो लोक है, वहीं रहते है वे दो श्वेतवस्त्रधारी ! पिताजी से उनके बारे में जरूर पूछना और लौटकर मुझे बताना ! उनके बारे में जानने की मुझे भी उत्कंठा है। आगे अब तुम्हें अकेले जाना है। इसके आगे मेरी गति नहीं, मैं वहाँ नहीं जा सकती, वह मेरे लिए वर्जित क्षेत्र है ! जाओ...!' इतना कहकर उसने मेरा हाथ छोड़ दिया था।
मैं आँखें फाड़कर उधर देखता हूँ, जिधर चालीस दुकानवाली ने इशारा किया था। खासी दूरी पर श्वेत वस्त्र में लिपटे जाज्वल्यमान पिताजी मूर्तिमान दिखे। उनपर दृष्टि पड़ते ही मन में भयानक उत्क्रांति मची। मैं चालीस दुकानवाली को वहीं छोड़ उनकी तरफ दौड़ पड़ा और पिताजी के समीप पहुँचकर विलाप करता हुआ उनके चरणों में गिर पड़ा।"

मेरा तड़पकर गिरना ही निद्रा-भंग का कारण बना। जागकर भी देर तक अलस-भाव से बिस्तर पर पड़ा रहा और मन में उथल-पुथल मची रही। यह समझने और मान लेने में वक़्त लगा कि वह स्वप्न था। जानता हूँ, स्वप्न आँखों में टिककर लम्बे समय तक रहता नहीं, रहे तो वह स्वप्न काहे का ? स्वप्न तो शीघ्र मिट जाता है, किन्तु यह स्वप्न तो पिछले बीस वर्षों से आँखों में यथावत ठहरा हुआ है। इसकी स्मृति कभी धुँधली नहीं हुई। सच है, बंद आँखों का वह अद्भुत चाक्षुष-दर्शन था।....

अब तो चालीस दुकानवाली की उखड़ी-उखड़ी-सी स्मृति अवशिष्ट रह गई है और अनुत्तरित रह गए हैं वे प्रश्न, जिनकी बनायी थी फेहरिस्त! उन दो श्वेत-वस्त्रधारियों को अपना ही देव-पितर मानकर संतोष कर लिया है मैंने! सपनों का पीछा तो सभी करते हैं, मैं भी कर आया; लेकिन हवाओं का पीछा कौन करे--कब तक और कैसे.. ?
इस परा-विलास से मुक्त हुए ३०-३१ वर्ष हो गए हैं, लेकिन मन में जड़ जमाकर बैठी रही हैं स्मृतियाँ! आज उन्हें भी कागज़ पर उतारकर भार-मुक्त हो गया हूँ!...

फिर सोचता हूँ, स्मृतियाँ भी कितनी अक्षुण्ण हैं? कितना दीर्घ है स्मृतियों का जीवन? मस्तिष्क की शिराओं में जब तक रक्त-संचार है, जब तक दिल की धड़कनें गतिशील हैं, जब तक श्वास की गति अबाध है--उनमें स्मृतियाँ पल रही हैं ! और जैसे ही इन चेष्टाओं में व्यतिक्रम होगा, स्मृतियाँ भी विलुप्त हो जायेंगी! जो कल था, वह आज नहीं है; जो आज है, वह कल नहीं रहेगा। कितनी पीढ़ियाँ आयीं और चली गयीं तथा ले गयीं अपने साथ उनके अनुभव, संवेदन; यादें उनकी-- कितनी-कितनी स्मृतियाँ उनके साथ ही मिट गयीं !... लगता है, स्मृति-बोध भी अपराध-बोध जैसा ही होता है, लेकिन शायद मैं कुछ गलत कह गया।... अपनी युवावस्था के घनिष्ठ कवि-मित्र रामकुमार 'कृषक' की कुछ पंक्तियाँ, भिन्न सन्दर्भ में, किञ्चित स्पर्शाघात के साथ, यहां रखना चाहूँगा--
"तुम अगर स्मृति हो
तो मेरा मस्तिष्क तुम्हारा कृतज्ञ है,
संवेदन हो तो हृदय
और लहू हो तो रोम-रोम!....
जब तक मैं हूँ,
तुम भी जीवित रहोगी...
जैसे स्मृति, जैसे संवेदन,
जैसे लहू...!"

इस अछोर संसार में और अनन्त आकाश-गंगाओं में जीवन न जाने कहाँ-कहाँ अपनी मृत्यु-यात्रा कर रहा है, कौन जानता है? विज्ञान भी इस अनुसंधान में लगा है। उसके सामने चुनौतियाँ बहुत हैं; जाने हुए से अजाना बहुत है, स्पष्ट आलोक से रहस्य का अन्धकार बहुत है ! और, समय-काल ढूंढता ही रहेगा अनसुलझे सवालों के उत्तर...!

अतीत की मञ्जूषा से स्मृतियों की धरोहर को निकालकर मैंने उन्हें इस दस्तावेज़ में मूर्त्त करने की चेष्टा की है। आप विश्वास करें, सुदूर अतीत में लौटने की मेरी यह यात्रा सचमुच कष्टकर ही थी। किन्तु, विचित्र बात है, यह कष्ट सहना भी सुखानुभूति देता रहा है... !
(समाप्त)

सोमवार, 25 जनवरी 2016

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (३९)

['स्मृतियों को समर्पित थे वे अश्रु-कण'…]

१६ नवम्बर १९९५। संध्या रात्रि का परिधान पहनने लगी थी। पिताजी कई घण्टों से मौन थे और खुली आँखों से कमरे से आते-जाते, बैठे-बोलते हमलोगों को चुपचाप देख रहे थे--निश्चेष्ट! शारीरिक यंत्रणाओं और अक्षमताओं ने उन्हें अवश कर दिया था। रात के आठ बजे थे, तभी कथा-सम्राट प्रेमचंदजी के कनिष्ठ सुपुत्र अमृत रायजी सपत्नीक पधारे। वे किसी प्रयोजन से पटना आये थे और मित्रों से यह जानकार कि पिताजी सांघातिक रूप से बीमार हैं, उन्हें देखने चले आये थे। अमृतजी पिताजी के सिरहाने कुर्सी पर बैठे और उनकी गृहलक्ष्मी सुधाजी (सुभद्रा कुमारी चौहान की सुपुत्री) पिताजी के पायताने। वे दोनों प्रायः दो घण्टे तक बैठे रहे और हमलोगों से बातें करते रहे। पिताजी पूरे समय मौन ही रहे, बस एक वाक्य मुझसे बोले--'इनको चाय पिलाओ।'

अमृत रायजी पापाजी (मेरे श्वसुर) से और साधनाजी सुधाजी से बातें करती रहीं। मैं बीच-बीच में दोनों के प्रश्नों के उत्तर देता रहा। दो घंटे में पिताजी एकमात्र वाक्य के सिवा कुछ नहीं बोले, चुपचाप आँखें खोले सबकी सुनते रहे। चाय के साथ नमकीन और शाम के वक़्त अभय भैया की लायी मिठाई (प्रसाद) भी उनके सामने रखी गई। मिठाई की प्लेट देखकर अमृतजी बोले--'ये मिठाइयाँ क्यों?'
उनका प्रश्न सहज-स्वाभाविक था। जहां इतना दुःख-दैन्य, रोग-शोक पसरा हो, वहाँ मिष्टान्न कैसे? मैंने उन्हें साधनाजी की नियुक्ति और अपनी विवाह की वर्षगाँठ के बारे में विस्तार से बताया। दो श्वेतवस्त्रधारियों के आगमन और अग्रिम सूचना देने की बात भी उन्हें बतायी। सारी बात सुनकर अमृतजी बहुत चकित नहीं दिखे, मुस्कुराकर बोले--'वे दो श्वेतवस्त्रधारी आपके ही कोई देव-पितर होंगे, जिनकी मुक्तजी पर अगाध प्रीति रही होगी। वे मुक्तजी की कृपा-पात्रता के विश्वासी देव होंगे और उन्होंने मुक्तजी के मुक्त-मन को ही इस पूर्व सूचना का अधिकारी माना होगा। मुक्तजी के मनःलोक में घुमड़नेवाली चिंताओं के निवारण के लिए ही वे अग्रिम सूचना देने आये होंगे। मैंने ऐसे कई देशी-विदेशी किस्से पढ़े हैं और जीवन में ऐसे एक-दो अनुभव मुझे भी प्राप्त हुए हैं। मेरी सलाह है कि आपलोग उन्हें अपना परम हितैषी और आराध्य-देव मानकर नमन करें।'
अमृत रायजी की बात सुनकर मैं विचारमग्न हो उठा--तो क्या वे श्वेतवस्त्रधारी मेरी ही पूर्व पीढ़ी के कोई सिद्ध-शिखर-पुरुष थे? क्या उन्होंने मुझे चालीस दूकानवाली से विलग करने में ही मेरा कोई हित देखा था? तत्काल किसी निश्चय पर पहुँच पाना मेरे लिए कठिन था। मेरे मन में उनकी यह बात घुलती रही और मैं सोचता रहा कि वह स्निग्ध, स्नेही, कोमल मन की चंचला, मेरी हित-चिंता में निमग्न और स्वयं पीड़ित चलीस दुकानवाली आत्मा मेरा कौन-सा अहित करनेवाली थी कि मेरे देव-पितरों ने उसे मुझसे मिलने नहीं दिया ? मेरा मन तो दुविधा में ही पड़ा रहा...!

दो घण्टे बाद अमृतजी जाने लगे तो उन्होंने पिताजी को झुककर प्रणाम किया। पिताजी ने हाथ बढ़ाकर उनके बद्ध हस्त-द्वय को थाम लिया, बोले कुछ नहीं। फिर पिताजी के पायताने से उठते हुए सुधाजी ने उनके चरण छुए और पिताजी के सिरहाने करबद्ध आ खड़ी हुईं। पिताजी ने अपना बायाँ हाथ बढाकर उनके हाथों को थाम लिया और थोड़ी कठिनाई से कहा--'इतना बता दो, तुम वही सुधा हो न?'
सुधाजी बोलीं--'हाँ मामाजी, मैं वही हूँ, सुभद्रा...!' उनकी आवाज़ काँप रही थी और आँखें डबडबा आयी थीं।
पिताजी ने सुधाजी का वाक्य पूरा होने न दिया, बीच में ही बोल पड़े--'बस, बस! और कुछ न कहो। थोड़ा झुको, तुम्हारी पीठ पर थपकी दूँ मैं... ।'
सुधाजी झुकीं और पिताजी ने दायें हाथ से उनकी पीठ पर स्नेह-पूरित थपकियाँ दीं और हमने पूरी बीमारी में पहली बार उन्हें विह्वल होते देखा। उनकी आाँखों से आँसू की दो बूँदें लुढ़ककर बह चलीं। सुधाजी पिताजी के पास से सिसकते हुए हट गयीं।
अवांतर कथा यह थी कि सुप्रसिद्ध कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहानजी पिताजी की मुँहबोली बहन थीं। उनकी यत्र-तत्र बिखरी हुई कविताओं को एकत्रित करके पिताजी ने ही पहली बार अपनी प्रकाशन-संस्था 'ओझा-बंधु आश्रम', इलाहबाद से 'मुकुल' के रूप में पुस्तकाकार प्रकाशित किया था कभी....। इस प्रयत्न में वह कई बार इलाहबाद से जबलपुर गए थे और सुभद्राजी के घर पर ही ठहरे थे। यह उन दिनों की बात है, जब स्वतंत्रता-संग्राम में संलग्न सुभद्राजी के पति, प्रसिद्ध वकील, चौहान साहब जेल में थे और घर की दशा अच्छी नहीं थी। उन्हीं जबलपुर-प्रवासों में पिताजी ने सुधाजी को बालपन में देखा था।.... (इन सारे प्रसंगों को पिताजी ने अपने संस्मरणों की पुस्तक 'अतीतजीवी' में 'मेरी बहन और हिंदी की ऊर्जा : सुभद्रा कुमारी चौहान' शीर्षक के अंतर्गत लिपिबद्ध किया है)... और, अब इतने वर्षों बाद वह पिताजी के सामने एक बुज़ुर्ग महिला के रूप में आ खड़ी हुई थीं। उस दीन-कातर दशा में पिताजी के मन में जाने क्या-क्या उमड़ा-घुमड़ा होगा--कौन जानता है? ये दो बूँद आँसू उन्हीं स्मृतियों का प्रतिफल थे, जो पिताजी के नयन-कोरों से बह चले थे।....

२ दिसंबर, १९९५ की सुबह पिताजी ने पास बुलाकर मुझसे स्पष्ट कहा था--'ये सारी औषधियां बंद कर दो। आज मैं जाऊँगा--ये सारी किताबें छोड़कर आज मैं जाऊँगा !'
और हुआ भी ऐसा ही। प्रायः १६ दिनों की शारीरिक यंत्रणा के बाद पिताजी ने शरीर के साथ ही पीडाओं से भी मुक्ति पायी थी।... उनकी 'इलाहाबादवाली भाभी' ने ठीक ही कहा था--'ई तकलीफ़ो कौन रही!'... न पिताजी रहे, न तकलीफें रहीं!... पिताजी जीवन-मुक्त हुए... !

पिताजी के विछोह की दारुण पीड़ा साल भर तक मुझे और परिवारजनों को सालती रही ! साल-भर बाद जब मन की उद्विग्नता कुछ कम हुई और हृदय में लावा-सा धधकता शोक किंचित शिथिल हुआ, तो कई बार इच्छा हुई कि पिताजी से सम्पर्क साधूँ, बुलाऊँ उन्हें अपने प्लेंचेट के बोर्ड पर और पूछूँ उनसे कि "परालोक में क्या उनकी मुलाक़ात 'दो श्वेतवस्त्रधारियों' हुई कभी? कौन थे वे दोनों? वहाँ उनकी 'इलाहाबादवाली भाभी' भी मिलीं क्या? और, क्या कभी 'चालीस दुकानवाली' नाम की कोई आत्मा तो नहीं मिली उनसे?" मेरी यह जिज्ञासा प्रबल थी, लेकिन प्लेंचेट करके पिताजी को बुलाने में मुझे बड़ा संकोच होता था। इसके दो प्रमुख कारण थे--एक तो पिताजी इस संपर्क-साधन के पक्षधर नहीं थे और इसे दुविधा की दुनिया कहा करते थे, दूसरा यह कि इन प्रयत्नों को छोड़े हुए मुझे प्रायः दस वर्ष हो गए थे। फिर उसी 'दुविधा की दुनिया' में लौटने का मेरा न मन होता था, न साहस। मैं सोचता ही रहा, लेकिन पिताजी से कभी संपर्क साध न सका।
और, दिन पर दिन बीतते गए....!
(क्रमशः)

गुरुवार, 21 जनवरी 2016

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (३८)

['विषाद की छाया में सच हुआ स्वप्नादेश'…]

पिताजी की शारीरिक अक्षमता बढ़ती जा रही थी, हमारा सारा ध्यान उन्हीं की परिचर्या में लगा था, दो श्वेतवत्रधारियों का चिंतन करने का अवकाश भी कहाँ था? पिताजी की शोचनीय दशा की ख़बर पाकर स्थानीय और दूर-दराज़ के परिजन घर आने लगे थे। मेरी सासुमाँ और श्वसुर मध्यप्रदेश से आ गये थे। घर भरा हुआ था। पिताजी आगंतुकों को पूरे आत्मविश्श्वास से बताते कि साधना की नियुक्ति केंद्रीय विद्यालय में हो गई है और आगंतुक साधनाजी को बधाइयाँ देने उनके पास पहुँच जाते। साधनाजी क्षुब्ध और निरीह हो जातीं; उन्हें कहतीं कि बाबूजी को भ्रम हुआ है, ऐसा कुछ हुआ नहीं है; लेकिन यह सिलसिला तो चलता ही रहा। पिताजी बार-बार मुझसे पूछते कि मैं साधनाजी के लिए साड़ियाँ खरीद लाया या नहीं? मैं उन्हें कहता कि आप स्वस्थ हो जाएँ, फिर मैं साड़ियाँ भी ले आऊँगा उनके लिए। कहने का तात्पर्य यह कि पिताजी ने अपनी कही बात का दृढ़ निश्चय मन में बद्धमूल कर रखा था और उसे बीमारी की शोचनीय दशा में भी बार-बार दुहराते जा रहे थे।
जिन्होंने जीवन-भर अंग्रेज़ी दवाओं से परहेज किया था, उनके शरीर में वे ही दवाएं भरी जाने लगीं। डॉक्टर, औषधि, इलाज, परीक्षणों का दौर चल रहा था। इन एलोपैथिक औषधियों को त्याज्य माननेवाले पूज्य पिता पर उनका दुष्प्रभाव ही होना था। तभी, एक दिन अचानक पिताजी ट्रांस में चले गए और असम्बद्ध बातें बोलने लगे; लेकिन साहित्य-संसार और युवावस्था तक सेवित इलाहाबाद से जुड़ी बातें! मेरे मन-प्राण की शक्ति चुक रही थी, वह पत्ते-सा काँप रहा था--पिताजी ७६ घंटे से जाग रहे थे और निरंतर कुछ-न-कुछ बोलते जा रहे थे। कभी कवि-सम्मेलनों का आयोजन करते और दिग्गज रचनाकारों को काव्य-पाठ के लिए आमंत्रित करते। कभी अपने बचपन के दिनों की याद करते और कभी अपने मित्रों से बातें करने लगते। मैं उनकी छाया बना उनके आसपास ही रहता और मूक-दर्शक बना, सिर धुनता...!
पूरे छिहत्तर घंटे बाद पिताजी ट्रांस से बाहर आये। उन्होंने मुझे आवाज़ दी। तिथि तो ठीक-ठीक स्मरण में नहीं रही, लेकिन वह भी सुबह का ही समय था, तकरीबन आठ-साढ़े आठ का। मुँहअँधेरे थोड़ी बारिश हुई थी। मिट्टी के भीगने की सोंधी महक सर्वत्र फैली हुई थी। मैं उनके सिरहाने जा खड़ा हुआ, बोला कुछ नहीं। मुझे देखते ही उन्होंने कहा--'बाहर बारिश हुई है क्या?'
यह सुनते ही मेरी जान में जान आयी, मैं आश्वस्त हुआ कि पिताजी की चेतना लौट आयी है और इतने घंटों तक ट्रांस में रहने का कोई दुष्प्रभाव उनके मस्तिष्क पर नहीं पड़ा है। मैंने हामी भरी, तो पिताजी बोले--"जानते हो, 'इलाहाबादवाली भाभी' आयी थीं। विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ, मैं निद्राभिभूत नहीं था। ब्राह्ममुहूर्त के ठीक पहले वह सचमुच आयी थीं।"
अपने पायताने छत की ओर इशारा करते हुए उन्होंने अपनी बात जारी रखी--"सस्मित दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार की मुद्रा में थीं। केश खुले थे, श्वेत साड़ी में थीं। मैंने उनसे कहा--'मैं इतनी तकलीफ में हूँ और तुम मुस्कुरा रही हो?' भाभी इलाहाबादी में बोलीं--'ई तकलीफ़ो कौन रही! ... हम इधर से जात रही तो सोचा तोंसे मिल लेई!" ....
मैं, मेरा परिवार ही नहीं, हिंदी-साहित्य पढ़ने-लिखनेवाला सुधी-समाज भी जानता है कि जब पिताजी 'इलाहाबादवाली भाभी' का नामोल्लेख करते थे, तो उनका अभिप्राय कविवर बच्चनजी की प्रथम पत्नी पूजनीया श्यामाजी से होता था। सन १९३६ में ही उनका देहावसान हो गया था, लेकिन साठ वर्षों की दीर्घावधि में उनकी आत्मा ने चार बार पिताजी के गाढ़े वक़्त में परालोक से आकर हस्तक्षेप किया था, उनकी सहायता की थी, सांत्वना दी थी। 'मरणोत्तर जीवन' नामक आलेख में ऐसी तीन घटनाओं की पिताजी ने विस्तार से चर्चा की है। इस अंतिम हस्तक्षेप के बारे में कुछ लिखने का मौक़ा उन्हें क्रूर काल ने नहीं दिया था। ...
बहरहाल, पिताजी से यह वृत्तान्त सुनकर मैं आश्वस्त हुआ था कि अब उनकी तकलीफें दूर हो जायेंगी और वह पहले की तरह स्वस्थ-प्रकृतिस्थ हो जायेंगे। तब मोही मन यह सोच भी न सका था कि जब शरीर ही न रहेगा, तो तकलीफें भी न रहेंगी।...
६ नवम्बर की सुबह पधारे दो श्वेतवस्त्रधारियों की कथा के बाद, परालोक से हस्तक्षेप की यह दूसरी कथा थी, जो पिताजी ने रुग्णावस्था में मुझे सुनाई थी। हम सभी हतचेत, संज्ञा-शून्य और विस्मित हो रहे थे। इसके बाद प्रभु-कृपा की याचना करते दस दिन और बीत गए थे।
फिर आ पहुँचा १६ नवम्बर, १९९५ का दिन। वह मेरे विवाह की वर्षगांठ का दिन भी था। लेकिन मन-प्राण और हमारी समस्त चेतना पिताजी की चिंता में लगी थी।
शाम हुई, चार बज रहे होंगे, मैं रात्रि-जागरण से क्लांत, भोजन के बाद थोड़े विश्राम के लिए लेटा ही था कि मेरी आँख लग गयी। तभी डाक से एक राजिस्टर्ड पत्र आया। मेरी श्रीमतीजी ने लिफ़ाफ़ा देखा और प्रेषक के नियत स्थान पर यह पढ़कर कि वह भुवनेश्वर से आया है, रोमांचित हो उठीं। उन्होंने मेरे पास आकर मुझे जगाया तो मैंने खीझकर कहा कि 'थोड़ा सो लेने दो भई!' वह मन की उत्सुकता पर अंकुश लगा न सकीं, बगल के कमरे में बैठे अपने पिताजी के पास गयीं और उन्हें लिफ़ाफ़ा देते हुए बोलीं--'देखिये न पापाजी, क्या है इसमें?'
उनके पापाजी ने लिफ़ाफ़ा खोला, पढ़ा और घर में तहलका मच गया--वह साधनाजी का नियुक्ति-पत्र था, जिसके अनुसार उड़ीसा संभाग के केंद्रीय विद्यालय में उन्हें प्रशिक्षित शिक्षिका (हिंदी) के रूप में पदभार ग्रहण करना था।
नियुक्ति-पत्र तो पढ़ा गया, लेकिन देर शाम को जब उसे पूरे मनोयोग से दुबारा देखा-पढ़ा गया तो यह जानकर हम सभी सिहर उठे कि पत्र के शीर्ष पर ६ नवम्बर तिथि पड़ी हुई थी। यह वही तिथि थी, जिस दिन ब्राह्म-मुहूर्त में दो श्वेतवस्त्रधारियों ने पिताजी को इस नियुक्ति की अग्रिम सूचना दी थी। फिर तो घर-भर में अफ़रा-तफ़री मच गयी। हम सभी भागे-भागे पिताजी के कक्ष में गए, उन्हें यह सुसंवाद सुनाया। उन्होंने मुस्कुराते हुए पूरी आश्वस्ति के भाव से कहा था--'मुझे क्या बताते हो? मैंने तो उसी दिन कह दिया था।'
श्वेतवस्त्रधारियों का कथन यथारूप सत्य सिद्ध हुआ था और पूरा घर और सभी आगन्तुक हैरत में थे।
शाम ५ बजे के आसपास मेरे ममेरे बड़े भाई अभयशंकर पराशर पिताजी को देखने घर आये। उन्हें भी नियुक्ति का समाचार मिला तो वह बाहर जाकर मिठाइयाँ ले आये और साधनाजी से बोले--'इतनी प्रसन्नता की खबर आयी है, घर में मिष्टान्न तो आना ही चाहिए। जाओ, ठाकुरजी को भोग लगाकर सबको प्रसाद दो!'
मुझे अच्छी तरह स्मरण है, मिष्टान्न-प्रेमी पिताजी ने प्रसाद (मिष्टान्न) का वही अंतिम ग्रास ग्रहण किया था।
उस दिन जग्गनियन्ता की यह प्रवंचना कुछ समझ न आई। जीवन में ऐसे अवसर कम ही आते हैं, जब एक ओर विषाद की गहरी छाया हो और दूसरी ओर स्तंभित प्रसन्नता ! ६ नवम्बर की सुबह पिताजी को दिया गया दो श्वेतवस्त्रधारियों का स्वप्नादेश सत्य होकर साकार खड़ा था और हम सभी मुमूर्षुवत हतप्रभ, स्थिर-जड़ थे। वे दोनों श्वेतवस्त्रधारी तो अपने दिव्यलोक को चले गए थे और दे गए थे हमें हर्ष-विषाद की मिश्रित सौगात। उस दिन विषाद और हर्ष को हमलोगों ने एक-दूसरे के ठीक सामने खड़ा देखा था--परस्पर घूरते हुए !....
(क्रमशः)

रविवार, 17 जनवरी 2016

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (३७)

['फिर आ पहुंचे दो श्वेतवस्त्रधारी देवदूत'…]

मित्र के घर देर से जागा और एक कप चाय पीकर दूसरे मित्र के घर गया। वह मुझे देखते ही शर्मसार हुए, कहने लगे--'कल श्रीमतीजी ने बहुत बखेड़ा कर दिया था। बहुत दुखी हूँ यार कि कल रात मैं आ नहीं सका ! ये बताओ, संपर्क हुआ क्या? समाधान का कोई सूत्र तुम्हें मिला क्या?'
मैं उन्हें क्या बताता, बस इतना भर कहा कि 'तुमने जिनका आह्वान करने को कहा था, वे तो आये नहीं; लेकिन चालीसदुकानवाली आत्मा ने मुझे बताया है कि तुम्हारी पत्नी को किसी प्रकार की प्रेत-बाधा नहीं है। उनका बहुत प्रेम और गहरी सहानुभूति से परिपालन किया जाए तथा किसी योग्य चिकित्सक से उनका इलाज करवाया जाए। वह स्वस्थ हो जाएंगी।'
उनकी शक़्ल पर आते-जाते भावों के आलोक में मैंने परिलक्षित किया कि वह बहुत संतुष्ट नहीं थे। मुझे अपने घर लौटना था, सिर चकरा रहा था मेरा! उनका जलपान का आग्रह ठुकराकर मैंने प्रस्थान किया।

चित्त पर एक अवसाद छाया हुआ था और चालीस दुकानवाली की बातें मेरे चेतन-अवचेतन में निरंतर गूँज रही थीं। हमारी अवधारणाएँ किस हद तक ग़लत, सत्य से कोसों दूर और कल्पित-निर्मित होती हैं, हो सकती हैं--यह पिछली रात की वार्ता से सिद्ध हो चुका था। मैं और चालीस दुकानवाली--हम दोनों अपनी-अपनी कल्पना के संताप से ८-९ वर्षों तक विकल रहे थे और जब सत्य निरावृत्त हुआ तो चकित-विस्मित रह गए थे। जब हमारे अवगुंठन का तिलस्म टूटा, तब मन का बोझ हल्का तो हुआ था, लेकिन एक नयी त्रासद पीड़ा अपनी जड़ें जमा चुकी थी और वह थी-- चालीस दुकानवाली का 'अलविदा' कह जाना। मुझे विश्वास हो चुका था कि अब उससे कभी संपर्क-संवाद न हो सकेगा। उसे उधार की ओढ़ी हुई शकल में नहीं, यथारूप देख पाना कभी नसीब न होगा--मेरी यह पीड़ा बड़ी थी। मेरी अंतरात्मा पर छाया हुआ यह अवसाद दीर्घजीवी भी हुआ। जिसे मैं अपनी स्मृतियों के प्रकोष्ठ से खुरचकर कभी हटा न सका।
समय बड़ा आनंदी प्रवाह है। पानी-सा बहता जाता है--सबों को उनके हिस्से का सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, आनंद-उमंग, राग-विराग और रोग-शोक बाँटता, निर्विकार भाव से, अप्रतिहत। वह किसी भी भाव-प्रभाव से निरपेक्ष होता है। वही समय अवसाद-विराग के साथ एक जटिल प्रश्न की सौगात दे गया कि 'वे दो श्वेतवस्त्रधारी कौन थे? मुझे चालीस दुकानवाली से अलग रखने के पीछे उनका अभिप्राय क्या था? इस प्रश्न का कोई उत्तर पाना मेरी शक्ति-सीमा से परे था।

इसके बाद, संपर्क-साधन और परा-भ्रमण से मुझे ऐसा विराग हुआ कि मैंने इसे अंतिम नमस्कार किया और अपने यन्त्र-तंत्र समेटकर एक किनारे रख आया। मुझे वर्षों पूर्व पिताजी के कथन की सत्यता समझ में आई और उस पर यक़ीन होने लगा कि यह सचमुच दुविधा की अनोखी दुनिया है। इस दुनिया में भटकने का लाभ क्या और हश्र क्या? किसी एक राग की डोर से बंध जाना और आत्यंतिक अवसाद का प्रसाद पाना? मैंने उफ़ और तौबा एकसाथ की।
उसके बाद दीर्घ काल तक मैंने किसी अनुनय-आग्रह का मान न रखा और परा-जगत से विरत रहा, लेकिन पिताजी का मित्र-मंडल बहुत बड़ा था। पिताजी के मित्र अर्थात मेरे बुज़ुर्ग और आदरणीय ! बाद के दस वर्षों के प्रसार में ऐसे मात्र एक-दो अवसर ही आये, जब विवश हो कर और विनयपूर्वक यह निवेदन करते हुए भी कि यह सब मैं छोड़ चुका हूँ, मुझे सम्पर्क-साधन करना पड़ा था; लेकिन उनसे संतोषजनक परिणाम न मुझे मिले थे और न आग्रही बुज़ुर्ग को।
समय अपनी ही गति से उड़ा जा रहा था और उसने जीवन के दस वर्ष चुरा लिए थे। वर्ष १९९५ आ पहुंचा था। मेरी श्रीमतीजी की बड़ी इच्छा थी कि वह नौकरी करें। उन्होंने अनेक प्रयत्न भी किये थे और केंद्रीय विद्यालय में एक शिक्षिका की पद-प्राप्ति के लिए भुवनेश्वर संभाग में आयोजित अंतर्वीक्षा में सम्मिलित हो आयी थीं। मेरी दोनों बेटियां बड़ी हो रही थीं--बड़ी बेटी को इसी वर्ष दसवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा में सम्मिलित होना था, जबकि छोटी बिटिया आठवीं कक्षा की छात्रा थी। सुख-शान्ति से दिन व्यतीत हो रहे थे। पिताजी मानसिक रूप से अविकसित मेरी छोटी बहन की सेवा-सुश्रुषा और अपने लिखने-पढ़ने में व्यस्त रहते तथा मैं 'आस्था प्रकाशन' की देख-सँभाल में।

उन्हीं दिनों की बात है, अचानक काल-गति विषम हुई। अक्टूबर १९९५ में पिताजी बीमार हुए और अनेक उपचार के बाद भी उनका स्वास्थ्य गिरता ही चला गया। उनका शरीर दिन-प्रतिदिन छीज रहा था, अशक्तता बढ़ती जा रही थी और घर-भर का मन आशंकाओं से भरने लगा था। इसी वर्ष जनवरी में पिताजी अपने जीवन का पचासीवाँ वसंत देख आगे बढ़े थे और पूरी तरह स्वस्थ-प्रकृतिस्थ थे, कार्यक्षम थे; लेकिन दस महीने बाद ही उनकी यह दशा देखकर हम सभी व्यथित, उद्विग्न और हतप्रभ हो उठे थे। नवम्बर आते-आते हमें प्रतीत होने लगा था की पिताजी शय्याशायी नहीं, मृत्यु-शय्या पर हैं; लेकिन हमारा मन इसे स्वीकार नहीं कर पता था। उनकी सेवा-सुश्रुषा के लिए और हरक्षण उनका ख़याल रखने के लिए मैं उन्हीं के कमरे के बाहर एक खाट पर सोने लगा था। वे अजीब बेरंग दिन थे--दुश्चिंताओं और मानसिक संताप से भरे हुए।
६ नवम्बर १९९५ की सुबह, छह बजे, पिताजी के कक्ष के सामने लगे बेसिन पर मैं ब्रश कर रहा था कि पिताजी की पुकार सुनकर उनके पास गया, पूछा--'क्या है बाबूजी?'
पिताजी धीमी आवाज़ में कहने लगे--'मेरी बात ध्यान से सुनो। साधना (मेरी पत्नी) का अपॉइंटमेंट केंद्रीय विद्यालय में हो गया है। मेरे अकाउंट से ५००० रुपये निकालकर उसके लिए अच्छी-अच्छी साड़ियाँ खरीद लाओ। अब उसे रोज़ विद्यालय जाना होगा न ?'
मैं आश्चर्य में था ! यह क्या हुआ बाबूजी को? ऐसा विभ्रम कैसे हुआ? क्या ज्वर-अशक्तता और अत्यधिक ताप का प्रभाव उनके मस्तिष्क पर प्रभाव डाल गया है ? मैंने चिंतातुर होकर कहा--'बाबूजी! कोई नियुक्ति-पत्र तो आया नहीं है अब तक, आप कैसे कह रहे हैं कि साधना की नियुक्ति हो गयी है?'
उन्होंने पूरे विश्वास के साथ दृढ़ स्वर में कहा--'मैं कह रहा हूँ न, उसकी नियुक्ति हो गयी है। '
वह कुछ और कहते, इसके पहले ही मैंने पूछा--'लेकिन किस आधार पर...?'
उन्होंने निश्चिन्त स्वर में थोड़ा ठहरकर कहा--"आज सुबह, ब्राह्म-मुहूर्त में दो श्वेतवस्त्रधारी मेरे कमरे में आये थे। उनके सिर छत से लगे थे और पाँव अधर में थे। उन्होंने ही मुझे बताया है। तुम तो वह करो, जो मैंने तुमसे कहा है।'

उनका आदेश सुनकर मैं कमरे से बाहर निकल आया और मैंने मान लिया कि पिताजी किसी स्वप्न के प्रभाव में ऐसी बात कह रहे हैं। लेकिन, उनके मुख से 'दो श्वेतवस्त्रधारियों' का उल्लेख सुनकर मेरा माथा ठनका था ! रोमांचित हो उठा था मैं! दस वर्ष पहले चालीस दुकानवाली ने भी तो 'दो श्वेतवस्त्रधारियों' का ज़िक्र किया था मुझसे। क्या ये वही महानुभाव हैं--तेज से भरे, प्रकाश-पुञ्ज के सदृश देवदूत? मैं सोचता ही रहा, किसी निश्चय पर पहुँच नहीं सका।...
(क्रमशः)

बुधवार, 13 जनवरी 2016

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (३६)

['अलविदा, मेरे अच्छे दोस्त!'…]

लेकिन गहरे ध्यान में जाने अथवा किसी को पुकारने का मुझे अवसर ही नहीं मिला। मैंने जैसे ही गिलास हाथ में उठाया, शरीर में जाना-पहचाना कम्पन हुआ, जो इस बात का संकेत था कि कोई आत्मा बिना बुलाये ही आ पहुंची है। मैंने शीघ्रता से संपर्क साधा और पूछा--'आप कौन हैं? अपना परिचय दें।'
आत्मा ने अपना परिचय पहले हंसकर दिया, फिर बोली--'परिचय क्या पूछते हो ? मैं हूँ चालीस...!'
उसकी उपस्थिति की जानकारी से मेरे पूरे बदन में झुरझुरी-सी हुई। रोमांचित होकर मैंने कहा--'अरे, इतने दिनों बाद तुम्हें मेरी याद आई है?'--'हुश्श... ! याद तो उसकी आती है, जिसे कोई भूल जाता है। मैं तुम्हें भूली ही कब थी ? तुम तो घर-गृहस्थी में ऐसे फँसे कि पलटकर तुंमने हमारी तरफ देखा ही नहीं! मुँह तुमने फेर रखा था, मैंने नहीं।'
--'ऐसा कैसे कह सकती हो तुम? जाने कितनी बार मैंने तुम्हें याद किया है, पुकारा है तुम्हें, तुम कभी आयीं ही नहीं ! हाँ, यह जरूर है कि तुम्हारे लोक से संपर्क की चेष्टा लम्बे-लम्बे अंतराल में हुई है मुझसे। और देखो न, अभी दो घंटे से मैं किसी आत्मा को पुकार रहा था और तुम इतने विलम्ब से आई हो?'
--'हाँ, जानती हूँ, तुम किसी को पुकार तो रहे थे, लेकिन मुझे तो नहीं !'
--'लेकिन तुम आसपास थीं, तो आ सकती थीं न ? एक मित्र संकट में पड़े हैं.... !'
मैंने तात्कालिक समस्या के समाधान के इरादे से उसे मित्र की कहानी सुनानी चाही तो उसने मुझे बीच में ही रोक दिया और बोली--'सब जानती हूँ मैं! अपने मित्र से कहो कि उनकी पत्नी पर किसी प्रेतात्मा की छाया नहीं है। वह अपनी पत्नी पर शासन करना छोड़ दें। उन्हें अपनी प्रीति दें। घर की स्थितियों को सामान्य बनायें और पत्नी का किसी अच्छे चिकित्सक से इलाज़ करायें। धीरे-धीरे स्थितियाँ अनुकूल हो जायेंगी। उनके घर की विद्रूपताओं ने उनकी पत्नी को इस दशा में पहुंचा दिया है।'

उसकी पूरी बात सुनकर मैंने पूछा--'अच्छा, यह बताओ इतने दिनों से गायब कहाँ थीं तुम?'
--'हाँ, मैं बंधन में थी।'
--'कैसे बंधन में ?'
--'छोडो, वह बात पुरानी हुई! आज तो मैं तुमसे कुछ जरूरी बातें कहने आई हूँ।'
--'तुम्हारी जरूरी बातें भी सुनूँगा, पहले यह बताओ कि वह तुम्हीं थीं न, जो मेरे कमरे में मुझे जगाने आई थीं? और कमरे की खिड़की के खुले प्रभाग में तैर रहा था तुम्हारा भयावह मुख-मंडल... ?'
--'हाँ, वह मैं ही थी। तुम्हें आकृष्ट करने का मेरे पास और कोई साधन या मार्ग नहीं था।'
--'आकृष्ट करने का? वह आकृष्ट करने का यत्न था या भयभीत करने का ? मैं तो बुरी तरह डर गया था उस रात। क्या तुम वैसी ही हो, जैसी उस रात दिखी थीं मुझे ? मेरे मन का भय अवसन्न कर गया था मुझे।'
--'अरे नहीं, मैं तो सुन्दर-सी हूँ, बहुत प्यारी! जिस शक्ल में मैंने तुम्हारे कमरे की खिड़की पर खट-खट की थी, वह तो उधार की ओढ़ी हुई शक्ल थी। मैंने तुमसे कहा था न, जब कभी तुम मुझे देखोगे तो आँखें चुँधिया जाएंगी तुम्हारी! क्या याद नहीं तुम्हें?'
--'हाँ, अच्छी तरह याद है...! लेकिन तुम हमेशा मेरे सामने भयप्रद स्थितियों और भयावह शक्लों में क्यों आती हो? आठ-नौ साल पहले भी तुमने झड़बेरी के पेड़ के पास ऐसी विषम और विकट मायाजाल की संरचना की थी और मेरी आत्मा को इस तरह भय और आतंक से भर दिया था कि मैं प्राण छोड़कर वहाँ से भाग खड़ा हुआ था। हलक सूख गया था मेरा! आखिर हर बार तुम ऐसा क्यों करती हो मेरे साथ ?'
उस रात की बातचीत में चालीस दुकानवाली का अंदाज़ कुछ निराला था, जैसे उसके पास वक़्त कम हो और उसे जल्दी-जल्दी बहुत-सी बातें मुझसे कहनी हों। वह मेरे हर प्रश्न के लिए जैसे पहले से तैयार होकर आयी हो। मेरी आत्मा पर पड़ी हर खरोंच पर जैसे वह मलहम लगाने का इरादा, निश्चय और उत्साह लेकर आयी हो! मैं आश्चर्य में पड़ा था, तभी वह बोल पड़ी--'ऐसा इरादतन कभी नहीं किया मैंने! तुम नहीं जानते, हम जगत से विलग हुए लोगों की सीमाएँ क्या हैं? तुम्हारे जगत में पुनःप्रकट होने के लिए कितने कष्ट उठाने पड़ते हैं, कितनी बाधाएँ पार करनी होती हैं और कितनी अधिक मर्यादाओं का निर्वाह करना पड़ता है हमें! कितनी सीमित संभावनाएं हैं हमारे पास! हवा की तरंगों में मैं इठलाती फिरूँ, तो कहीं कोई बंधन नहीं, निःसीम में विचारण करूँ, नदी-समुद्र-पहाड़ लाँघती रहूँ, तो किसी को आपत्ति नहीं कोई; लेकिन तुम्हारे जगत में थोड़े-से हस्तक्षेप के लिए मुझे इन्हीं मर्यादाओं के बीच से राह बनानी पड़ती है--सच में, यह लक्ष्मण-रेखा के उल्लंघन से कम पीड़ादायक नहीं है। और, शक्लों का क्या है, हर शक्ल को तो अंततः बदशक्ल ही होना है न ? तुम्हारे जगत से जो कोई हमारे लोक में आता है, चाहे वह अपमृत्यु, अकालमृत्यु या सामान्य मौत पाकर आया हो, विकृत शक्ल ही लेकर आता है। जीवन की यही परिणीति है--यह तुम क्या नहीं जानते? मैं जहाँ रहती हूँ, जहाँ से आती हूँ, वहाँ तो ऐसी ही विकृत शक्लें मिलती हैं! शीघ्रता में उन्हीं में से किसी एक का चयन करना पड़ता है हमें ! जीवन-सत्य जानकार भी तुम उनसे भयभीत क्यों होते हो, मुँह क्यों फेरते हो, घृणा क्यों करते हो? तुम्हारी यह बात मेरी समझ में नहीं आती....!'
चालीस दुकानवाली धाराप्रवाह बोले जा रही थी। कागज़-कलम और गिलास को सँभालना मुझ अकेले के लिए कठिन हो रहा था। गिलास की गति भी बोर्ड पर इतनी अधिक थी कि मैं चकित था। एकमात्र स्पर्श से ऐसी असाध्य गति मैंने पहले कभी देखी नहीं थी। उसके इतने लम्बे संवाद से मैं आक्रान्त हुआ और मेरे मुँह से अविचारित वाक्य सहसा निकल गया--'हाँ, तुम्हें डर क्यों लगेगा, तुम तो उसी लोक से आती हो, उन्हीं लोगो के बीच से, उसी मसानी मुहल्ले से न? डरते तो इहलोक के वासी हैं।'
वह क्षण-भर के लिए मौन रही, फिर बोली--'तुम्हारी इस बात से मुझे दुःख पहुंचा है। कोई बात नहीं कि तुम परम सत्य से मुख फेरकर भ्रम की परिधि में खड़े रहना चाहते हो; लेकिन याद रखना, यह भ्रम स्थिर नहीं रहनेवाला ! एक-न-एक दिन वह टूटेगा ज़रूर..।'
मुझे तुरत महसूस हुआ, मैंने अपने कथन से अकारण उसे पीड़ा पहुँचायी है, मैंने क्षमा-याचना के स्वर में संभलकर कहा--'तुम्हें दुखी करने का मेरा इरादा नहीं था, मैं तो बस अपने दुर्वह भय के बारे में बता रहा था। सच कहो, तुम्हीं नहीं, कोई भी इस तरह भयभीत करता पास आएगा तो डर व्यापेगा नहीं क्या? क्या तुम नहीं जानतीं कि खिड़कीवाली घटना के बाद मेरी श्रीमतीजी मुझ से ही भयभीत रहने लगी हैं ?'
मेरी बात पर चालीस दुकानवाली आत्मा हंस पड़ी और बोली--'भय एक प्रकार की स्वनियोजित दुर्बलता है, निजता की सृष्टि है। जीवन-सत्य जाननेवाले भयग्रस्त नहीं होते... !'
मैंने कहा--'चलो, ठीक है, मान ली तुम्हारी बात! अब यह भी बता दो कि झड़बेरी के पेड़ से उतरते हुए मुझे डराना क्यों जरूरी समझा तुमने? शक्ल-सूरत की बात मैं नहीं कहता, फिर भी, एक सामान्य चेहरा लेकर तुम शांति से मेरे सामने आ खड़ी होतीं, तो क्या मैं इतना भयभीत होकर बदहवास-सा भाग खड़ा होता? जब इतने आत्म-संयम से मैं भैरवघाट तक चला आया था, तो उस दिन तुमसे मिलकर और बातें करके ही लौटता न? तुमने वातावरण को इतना भयोत्पादक क्यों बना दिया था आखिर?'
कुछ क्षणों का उसने फिर मौन धारण किया। मैंने पूछा--'क्या हुआ ? तुम चली गयीं क्या?'
चालीस दुकानवाली ने फिर भी चुप्पी साधे रखी तो मैं चिंतातुर हुआ। गिलास पर ध्यान केंद्रित किया तो लगा, आत्मा स्थिर और जड़ बनी हुई है, गयी नहीं अभी ! मैंने पूछा--'बोलो न, क्या हुआ तुम्हें ?'
अंततः उसने कहा--'मैंने बातचीत की शुरुआत में कहा था न, मैं बंधन में थी!'
मैंने आतुर प्रश्न किया--'कैसा बंधन?'
वह सम्भ्रम में पड़ी बोल पड़ी--'हाँ भई, मैं उस रात झड़बेरी तक पहुंची ही कहाँ थी ?"
अब चकराने की बारी मेरी थी, आश्चर्यचकित होकर मैंने पूछा-'क्या मतलब?'
--'सच में, मुझे बेरी के पेड़ के एक बाँस पहले ही रोक लिया गया था। मैं विवश हो गयी थी। मैंने जब तुम्हारी ओर देखा तो पाया कि तुम घबराकर सीढ़ियाँ फलाँगते बदहवास-से दौड़ते जा रहे हो।'
--'किसने तुम्हें रोक लिया था? कौन था वह?'
चालीस दुकानवाली ने दीन स्वर में कहा--'वे दो श्वेतवस्त्रधारी थे--देवदूत-से प्रकाश-पुञ्ज, उज्ज्वल आभा-मंडल से घिरे हुए। एक ने झड़बेरी से दूर ही मुझे रोककर जड़वत बना दिया था और दूसरे झड़बेरी के पेड़ तक गये थे और उन्होंने ही वृक्ष को समूल झकझोर दिया था और तुम्हें भय से आकण्ठ भर दिया था।'
यह विवरण सुनकर मैं तो जैसे आसमान से गिरा, तभी मेरी चेतना से प्रश्न उभरा--'लेकिन मैंने तो एक काली छाया देखी थी वहाँ, जो सीढ़ियों पर चढ़ने की कोशिश कर रही थी। उसी छाया को देखकर मेरा मन-प्राण सिहर उठा था। जबकि तुम उसे उज्ज्वल आभा बता रही हो। तुम्हारी बात सत्य से मेल नहीं खाती। मुझे सबकुछ सच-सच बताओ न।'
उसने साधिकार कहा--'मैं सच कह रही हूँ, विश्वास करो मेरा! तुम्हें वे श्वेतवस्त्रधारी काली छाया-से दिखे, तो इसमें भी उन्हीं की कोई माया होगी। मेरा कुछ अपराध नहीं। वे इतने प्रभावी, बलशाली और तेज से भरे हुए थे कि मेरे चंचल पाँव, जो तुमसे मिलने की व्यग्रता में थिरक रहे थे, जड़ हो गए थे। तुमसे मिलने के लिए मैंने बहुत श्रम किया था, शृंगार किया था और अनेक प्रयत्न किये थे, लेकिन मुझसे पहले वे दोनों वहाँ पहुँच गए थे और उन्होंने सारी योजना उलट-पलटकर रख दी थी।'
--'कौन थे वे दोनों श्वेतवस्त्रधारी ? मैं समझ नहीं पा रहा कि मुझे इस तरह डराकर वहाँ से भगा देने से उन्हें क्या लाभ होनेवाला था ? इसमें उनका प्रयोजन क्या था?'
--'यह तो मैं भी नहीं जानती, सच्ची....! मैंने अपने लोक में भी ऐसे तेजोमय देवदूत कहीं नहीं देखे। शपथ ले लो, मैं नहीं जानती कि वे कौन थे और ऐसा करने के पीछे उनका मक़सद क्या था! उनका रहस्य तो मैं आज तक नहीं जान सकी। लेकिन इतने वर्षों तक उन्होंने ही मुझे तुमसे दूरी बनाये रखने को विवश कर रखा था। जाने क्यों, पिछले दो वर्षों से वे दिखे नहीं मुझे। मैं तभी से तुमसे संपर्क की चेष्टा कर रही हूँ और तुम थे कि इसी कालखण्ड में तुमने पराजगत से दूरी बना रखी थी। अनेक प्रयत्न के बाद मुझे वह सब करना पड़ा, जिससे प्रभावित होकर तुम मुझसे संपर्क-संवाद करो।'
--'तुम मन से इस अपराध-बोध को निकाल दो, मैं तुम्हें किसी प्रकार का दोष कहाँ दे रहा हूँ? सच्ची बात तो यह है कि मैं खुद को ही डरकर भागने का अपराधी मान रहा था। मेरे मन पर इसका बड़ा बोझ रहा है अब तक। आज तुमसे सारा वृत्तांत सुनकर भार-मुक्त हो गया हूँ मैं! सच मानो, मैं तो बहुत-बहुत आभारी हूँ तुम्हारा !'
--'लो, मिलने का वादा करके, नियत समय पर न पहुँच पाने का दोषी तो मैं स्वयं को माने बैठी थी। क्षमा की याचना तो मुझे करनी थी। आज मेरे कलेजे को भी ठण्डक मिली है....।'
मैंने निरीह होते हुए पूछा--'इन तारों भरे आकाश में तुम कब तक, कहाँ-कहाँ भटकती फिरोगी ? आखिर कब तक चलेगा यह सिलसिला...?'
--'मेरी मुक्ति के दिन भी आएंगे ही। लौटूंगी तुम्हारे पास ही कभी-न-कभी, किसी-न-किसी युग-काल में--विश्वास करना मेरा!'
सुबह के चार बजने में बस थोड़ी ही देर थी, अचानक उसने कहा--'अब मुझे जाने दो। अलविदा, मेरे अच्छे दोस्त!'
'मेरे अच्छे दोस्त?' मैं भाव-विगलित हो रहा था--स्तंभित और अवाक! मेरे पास ऐसी कोई अलौकिक शक्ति नहीं थी कि देख सकूँ उसे, लेकिन जान रहा था कि चालीसदुकानवाली आत्मा की आँखें भी सजल हो गयी होंगी। यह उत्तर जैसे ही आया, बोर्ड पर रखा गिलास स्थिर हो गया और मुझे लगा, मेरे हाथ में आया चालीस दुकानवाली आत्मा का हाथ छूटकर मुझसे दूर होता जा रहा है और मैं ब्रह्माण्ड की विराट सत्ता में एक पत्ते-सा गिरा जा रहा हूँ--अवलम्ब-हीन होकर।....
(क्रमशः)

शनिवार, 9 जनवरी 2016

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (३५)

[वह आ पहुँची फिर एक बार…]

श्रीमतीजी का हाल यह था कि वह अब मुझसे ही परहेज करने (डरने) लगी थीं। यह मेरे लिए असहनीय स्थिति थी। वह प्रायः मुझसे पूछतीं--'क्यों, आप अकेले ही हैं न? कोई आपके साथ, आपके पास, आप में तो नहीं ?' उनके ये प्रश्न मुझे निरीह बना देते ! लेकिन यह सब मुझे सहना था--उनकी अति-चिंता भी, उनका तिरस्कार भी। और, मेरे दुर्भाग्य से और दैव-योग से उन्हें सहना था मुझ निर्दोष, अकिंचन का दिया हुआ अकूत भय...! सच तो यह था कि तब इतना धीरोदात्त मैं भी कहाँ था?...
जीवन में इसी तरह का हस्तक्षेप और उत्पात चलता रहा, कुछ-न-कुछ खटपट होती रही और मैं किसी अवसर का कोना-अँतरा ढूँढ़ता रहा। लेकिन ऐसा एक अवसर बहुत विलम्ब से मुझे मिला--प्रायः सात-आठ महीने बाद।
वे संभवतः १९८५ के जाड़ों के अंतिम दिन थे--शायद फ़रवरी का महीना! एक मित्र संकट में पड़ गए थे, मुझसे मदद चाहते थे। उनकी पत्नी दुविधाग्रस्त-अस्थिर मानसिकता की शिकार थीं। मेरे मित्र यह मानते थे कि उन पर किसी ऊपरी ताक़त का असर हुआ है, कोई साया उन पर सवार है। मुझसे इतना भर चाहते थे कि मैं परा-जगत में प्रवेश कर इस समस्या का मूल कारण जानूँ और यदि संभव हो तो बाधा-निवारण का कोई उपाय तलाश करूँ! मैंने उनसे कहा कि पहले किसी चिकित्सक का परामर्श लेना उचित होगा, सीधे इस निष्कर्ष पर आ जाना ठीक नहीं कि उनके मानसिक उद्वेलन का कारण किसी ऊपरी शक्ति का प्रभाव ही है। मित्र महोदय ने एक सिरे से मेरा कहा एक किनारे कर दिया। कहने लगे कि वह डॉक्टर-वैद्य का इलाज करके हार चुके हैं। मित्र से उनकी श्रीमतीजी का पूरा हाल जानकार मैंने उनके घर एक दिन प्लेंचेट करना तय किया। लेकिन उन्होंने कहा कि उनके घर में श्रीमती के रहते यह संभव ही नहीं है। उन्होंने ही एक अन्य मित्र के घर प्लेंचेट करने का मुझे सुझाव दिया। वे हम दोनों के मित्र थे, संपन्न परिवार के थे, उनका तिमंजिला मकान था और ऊपरी माले पर बना शांत-एकांत एक कमरा अतिथि-कक्ष के रूप में सुरक्षित था।
संयोग से उसी महीने में पिताजी वाल्मीकीय रामायण के बालकाण्ड के मुद्रण के लिए वाराणसी जानेवाले थे। मैंने अपने मित्र से कहा कि पिताजी के वाराणसी जाने के बाद किसी दिन पूरी तैयारी से आता हूँ तुम्हारे घर। लेकिन मित्र तो चेतक पर सवार थे, चाहते थे, शीघ्रातिशीघ्र प्रयत्न किये जाएँ। मैने उन्हें बहुत समझा-बुझाकर विदा किया। जाते-जाते वह कह गए कि जिन मित्र के घर परा-संपर्क का यत्न करना है, उनसे बातें करके वह सबकुछ सुनिश्चित कर लेंगे और तदनुसार मुझे सूचित करेंगे। दो-तीन दिनों बाद ही उन्होंने सूचित किया कि इस अनुष्ठान के लिए अमुक मित्र सहर्ष तैयार हैं और तुम जब, जिस दिन का कार्यक्रम बनाओ, मैं भी उनके घर पहुँच जाऊँगा। सबकुछ नियत हो गया था और अब मुझे उचित अवसर की प्रतीक्षा थी।
कुछ दिन और बीते। पिताजी वाराणसी-प्रवास पर गये। संयोग बन गया था। मैंने मित्रवर को सूचित किया कि अमुक तारीख़ की रात उनके घर आ रहा हूँ। भयप्रद रातें, विचित्र अनुभूतियाँ और डरावनी आकृतियों के दर्शन से आक्रान्त तो मैं था ही, मेरी श्रीमतीजी भी उद्विग्न-अस्थिर हो उठी थीं। मैंने निश्चय किया कि अब समय आ गया है कि इन समस्याओं के निवारण का मार्ग ढूंढा जाए।
मैं यथानिश्चय मित्रवर के घर पहुंचा--शाम के वक़्त। उन्होंने अपनी पिछली पीढ़ी के एक दिवंगत बुज़ुर्ग का चित्र चुपके-से मुझे दिया और कहा--'मेरी श्रीमतीजी को कोई शंका न हो, इसलिए तुम उसी मित्र के घर चले जाओ। मैंने उससे बात कर ली है। मैं रात का खाना खाकर १०-१०.३० तक वहाँ आ जाऊँगा।'
मैं दूसरे मित्र के घर पहुंचा, जिनका मकान उसी गली के दूसरे छोर पर था--उनके तिमंजिले मकान के ऊपरी तल के एकांत कमरे में। बंधुवर पहले से ही सजग-सावधान थे। उनके घर में किसी को भी इस बात की हवा नहीं लगी थी कि आज की रात वहाँ मेरी ओझागिरी होनेवाली है। कमरे में मेरे साथ सिर्फ मेरे वही मित्र थे और हम दोनों उनकी प्रतीक्षा करने लगे, जिनकी श्रीमतीजी के कष्ट-निवारण के लिए यह सारा इंतज़ाम किया गया था। लेकिन ११.३० बज गए और वह तो आये ही नहीं। संभवतः वह पत्नी-बाधा से ग्रस्त हो गए थे।...
बहरहाल, हम दोनों ने बारह बजने की और मित्र महोदय के आ जाने की बेसब्र प्रतीक्षा की--यह बेसब्री मित्रवर को अधिक बेचैन कर रही थी। वह मुझसे बार-बार कह रहे थे--'बताओ, जिसके लिए यह सारा प्रबंध किया है, वही नदारद है, अजीब बात है!'
मैंने उन्हें समझाया--'कोई बात नहीं, उसकी उपस्थिति उसके संतोष के लिए ही थी, लेकिन लगता है, वह किसी विवशता के कारण आने में असमर्थ हो गया है। हमें उसकी समस्या का पता है और हम उसकी अनुपस्थिति में भी यह प्रयोग तो कर ही सकते हैं और उनकी समस्या के कारणों का पता लगा सकते हैं। अब उसकी चिंता छोड़ दो !'
बारह बजने के पहले ही हमने वहाँ विधि-व्यवस्था जमा ली थी। मित्र महोदय ने जो चित्र मुझे दिया था और जिनका मुझे आह्वान करना था, बारह बजते ही मैंने उन्हें पुकारना शुरू किया; लेकिन मेरी पुकार व्यर्थ गई। किसी आत्मा ने मेरी चेतना के द्वार पर दस्तक नहीं दी। अपनी कई-कई पुकार को बेअसर होता देख मैं उद्विग्न होने लगा था। मित्रवर भी प्रश्नवाचक मुद्रा में मेरी शक्ल पर अपनी तीखी नज़रों से प्रहार कर रहे थे। हार-थककर मैंने हथियार डाल दिए। मित्र से कहा--'थोड़ा ठहरना होगा भाई!'
पास पड़ी एक चौकी पर मैं लेट गया और सोचने लगा--क्या मेरी शक्तियां क्षीण हो गयी हैं? क्या मेरी एकाग्रता अब पहले-सी पैनी नहीं रह गयी? क्या लम्बे अंतराल ने मुझे पराजगत् में प्रवेश का अधिकारी नहीं रहने दिया? चंचल मन की विचित्र दशा थी, वह बेलगाम और अनियंत्रित तुरंग-सा दस दिशाओं में दौड़ रहा था। मेरी दुश्चिंताओं में मित्रवर अपने आतुर प्रश्नों से बार-बार विक्षेप कर रहे थे। एक-डेढ़ घंटे का वक़्त बिताकर मैं पुनः दत्तचित्त होकर आसान पर विराजमान हुआ, अपनी सम्पूर्ण प्राण-चेतना को समेटकर परा में पुकार भेजने लगा। डेढ़-दो का वक़्त रहा होगा, सर्वत्र शान्ति का साम्राज्य था। पुकार पर पुकार जाती और निरुत्तरित लौटती रही। अब मेरी और मित्रवर की सहनशीलता जवाब देने लगी थी। मित्र ने खीझकर पूछा--'क्या हुआ यार, कोई आता क्यों नहीं?'
मैंने ठंढे स्वर में कहा--'मैं जिन्हें बुला रहा हूँ, संभव है, उनकी आने की इच्छा न हो। लम्बे समय के बाद यह संधान कर रहा हूँ, संभव है, मेरी पुकार में अब वह असर न रहा हो! और क्या कहूँ?'
मित्र ने आजिजी से कहा--'तो किसी और को बुलाओ न, तुम्हारे तो जाने कितने हमदर्द हैं उस लोक में !'
मैंने कहा--'कोशिश करता हूँ।'
मैंने बारहाँ कोशिश की, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। मैंने हतोत्साहित होकर मित्र से कहा--'लगता है, आज सुयोग नहीं है, बात बनेगी नहीं। हमें यह प्रयत्न रोक देना चाहिए। मैं तो अब सो जाना ही श्रेयस्कर समझता हूँ।'
मित्र को बेहद निराशा हुई। उन्होंने मान रखा था कि आज हम दोनों मिलकर उस मित्र की समस्या का निवारण कर लेंगे और कुछ ही दिनों में उसका सुफल हमारे मित्र को दीखने लगेगा। मेरी बात सुनकर वह घोर निराशा में डूबे और बोले--'फिर क्या होगा यार ?'
मैंने कहा--'निराश होने से क्या लाभ? सबकुछ मेरे हाथ में तो नहीं? मैं जितनी कोशिश कर सकता था, कर चुका। फिर किसी दिन प्रयत्न करूँगा, तुम निराश मत होओ भाई!'
निराशा उन्हें ही क्या, मुझे भी हुई थी, लेकिन आत्मा का उपस्थित होना तो उसी की मर्ज़ी पर निर्भर था। मैं आसन से उठकर चौकी पर लेट गया। मैंने मित्र से आग्रह किया कि वह भी मेरे साथ लेटकर सोने का यत्न करें, लेकिन वह क्षोभ से भर उठे थे, दुखी भाव से बोले--'मैं नीचे जाता हूँ, हम दोनों को इसी एक चौकी पर असुविधा होगी। तुम यहाँ आराम करो। सुबह मिलता हूँ।'
इतना कहकर मित्रवर निचले माले पर चले गए। मैं एक पतली चादर ओढ़कर सोने की चेष्टा करने लगा, लेकिन आँखों में नींद कहाँ थी! मन में अपनी पराजय का क्षोभ था और मित्र की निराशा मुझे बहुत उद्विग्न कर रही थी। दस-पंद्रह मिनट ही बीते होंगे कि निद्रादेवी ने कब मुझ पर आक्रमण कर अपने अधीन कर लिया, पता ही नहीं चला।
कह नहीं सकता सोते हुए कितना वक़्त बीता होगा, अचानक मेरी नींद खुल गई। ऐसा लगा कि श्वेतवसना एक अपरूप युवती मेरे बगल में लेटी है, उसी ने झकझोर कर मुझे जगाया है और किञ्चित क्रुद्ध स्वर में मुझसे कहा है--"मैं आई हूँ द्वार तुम्हारे, सोते ही रहोगे क्या? उठो न, बातें करो मुझसे....!" मैं हतप्रभ-सा चौंककर उठ बैठा था। कमरे में जल रहे नाइट बल्ब की मद्धिम रोशनी में मैं फटी आँखों से अपनी चौकी और कमरे को घूरने लगा, यह समझ पाने के लिए कि मैं कहाँ हूँ!
यह रुष्ट आमंत्रण जैसे ही मेरी समझ में आया, मैंने ओढ़ी हुई चादर एक ओर फेंकी और हठात उठा खड़ा हुआ। कमरे का ट्यूब जलाया, मुंह पर पानी के छींटे मारे और प्लेंचेट के आसान पर अकेले जा बैठा। यह चकित करनेवाली विचित्र प्रतीति और स्पष्ट पुकार सुनकर मुझे जाने क्यों पक्का विश्वास-सा हुआ कि वह चालीस दुकानवाली आत्मा की ही आतुर पुकार थी। मैंने अगरबत्तियां जलायीं और ध्यानस्थ हुआ।....
(क्रमशः)

बुधवार, 6 जनवरी 2016

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (३४)

[वह मेरी चेतना के द्वार पर देती रही दस्तक…]

वक़्त जिस तेजी से बीत रहा था, उतनी ही तीव्रता से उस अनजानी ऊर्जा-शक्ति का हस्तक्षेप भी बढ़ता जा रहा था। मेरी व्यग्रता और चिंता भी बढ़ने लगी थी! मन हर क्षण इसी फिक्र और उधेड़बुन में लगा रहता कि वह कौन है, जो यह उत्पात कर रहा है। चालीस दुकानवाली तो वर्षों से गायब थी और कानपुर छोड़ने के बाद, मेरी चाहना के बावज़ूद, उसने कभी मेरी सुधि नहीं ली थी। वह तो हमेशा मेरी हित-चिंता में लगी रहती थी, कभी किसी प्रकार का कष्ट मुझे नहीं दिया था उसने। तब फिर वह कौन हो सकता है? क्या वर्षों के मेरे परा-जगत-प्रवेश का ही यह प्रतिफल है? आत्माओं के लोक में अनधिकृत रूप से प्रविष्ट होकर मैंने जो हलचल कई वर्षों तक मचायी थी, उनकी शांति भंग की थी, उसी से रुष्ट होकर कोई आत्मा मुझे दण्डित करना चाहती है क्या? मन में उठनेवाली शंकाएँ बहुत थीं, लेकिन निवारण का मार्ग अवरुद्ध था।...

अब नियमित रूप से पायताने की खिड़की रात में बंद रखी जाने लगी, जिसे सुबह होते ही खोल दिया जाता था। लेकिन बंद खिड़कियाँ आत्माओं का मार्ग भला अवरुद्ध क्या करतीं? यह प्रयत्न तो बस अपनी तसल्ली के लिए था। लेकिन गर्मियों में रात में भी उसे खोलना पड़ता था, क्योंकि खिड़की के बाहर से एक कूलर लगा दिया जाता था, जिससे बाहर की ठंडी हवा का प्रवेश कमरे में हो सके।

जहाँ तक याद है, वे १९८४ की गर्मियों के ही दिन थे। रात के वक़्त आँगन में ज्योत्स्ना का दूधिया उजाला फैला हुआ था। सर्वत्र नीरव शान्ति थी, जिसे कूलर की ज़ोरदार आवाज़ निरंतर भंग कर रही थी । कूलर ने पूरी खिड़की को ढँक लिया था, किन्तु उसके शीर्ष भाग में केवल डेढ़ फुट का स्थान खुला दीखता था, जिससे आँगन के एक छोटे-से टुकड़े का अवलोकन होता था।
गृह-स्वामिनी दोनों बेटियों के साथ निद्रानिमग्न थीं। एक पुस्तक देर तक पढ़कर मैं भी सो गया। जाने कितनी रात बीती होगी, अचानक मैं चौंककर जागा। आँखें खुलते ही मेरी दृष्टि खिड़की के ऊपरी खुले भाग पर पड़ी और मेरे मुँह से हलकी-सी चीख निकल गई। मेरी आवाज़ सुनकर श्रीमतीजी जागीं और उन्होंने घबराकर पूछा--'अरे, क्या हुआ ?' मैं बहुत आतंकित था, उस असहाय दशा में मुंह से आवाज़ भी नहीं निकल रही थी। मैंने हाथ से खिड़की की और इशारा किया। श्रीमतीजी कुछ समझ न सकीं, घबराकर उन्होंने फिर पूछा--'क्या है वहाँ? आपने किसी को देखा क्या?' खिड़की पर दुबारा दृष्टि डालने का मुझे साहस नहीं हो रहा था। मेरी भयभीत दशा से वह भी आतंकित हो रही थीं। अत्यंत बेचैन स्वर में उन्होंने कहा--'आप कुछ कहते क्यों नहीं,कौन था वहाँ?'
बड़ी कठिनाई से मेरे मुँह से इतना भर निकला--'वही, घटवारन, और कौन....?'

यह सुनते ही श्रीमतीजी स्तंभित हो गईं। फटी आँखों से मुझे घूरने लगी। उनकी विस्फारित आँखें देखकर मैं सहम गया। उनका भय, मेरे भय से बड़ा दीखने लगा मुझे! मैंने शीघ्र स्वयं को संयत किया और उन्हें ढाढ़स बंधाने का प्रयास करने लगा--'देखो, परेशान मत हो। ये कौन-सी नयी बात है, मेरे साथ तो यह सब होता ही रहता है।' वह रात तो यूँ ही प्रचंड भय के साये में एक-दूसरे को संयत करते, संभालते बीत गई।

दूसरे दिन के उजाले में श्रीमतीजी मेरे पीछे ही पड़ गईं कि कल रात की बात मैं उन्हें विस्तार से बताऊँ। मैंने उन्हें टालना चाहा, लेकिन वह अपनी ज़िद पर अड़ी रहीं। मैंने उन्हें सावधान भी किया कि रात में उन्हें फिर भय सतायेगा तो मैं जिम्मेदार नहीं होऊँगा। लेकिन वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थीं।
पिछली रात दरअसल हुआ यह था कि तेज़ हवा के झोंके से जिस तरह बंद द्वार हठात खुल जाते हैं, वैसे ही मेरी पलकें भी एकमुश्त खुल गयी थीं और दृष्टि वहीं जा पड़ी थी, जहाँ कूलर और खिड़की के बीच का डेढ़ फुटा आड़ा खुला स्थान था। वहाँ दृष्टि पड़ते ही मेरी रूह काँप गई थी। पूरे बदन में एक झुरझुरी-सी हुई थी और मैं स्तंभित रह गया था।
उस रिक्त स्थान में मुझे एक युवती का सिर दिखा था, जिसके केश खुले और बिखरे हुए थे। उसके अधरों पर एक रहस्य भरी मुस्कान थी और वह मस्तक हवा में खिडकी के कोने से दूसरे कोने तक तैर रहा था। उसके धड़ का कहीं अता-पता नहीं था, या तो वह था ही नहीं अथवा कूलर के पीछे छिपा हुआ था। लेकिन जिस त्वरित गति से वह सिर हवा में तैर रहा था, उससे तो ऐसा ही प्रतीत होता था कि उस बिखरे बालों वाली युवती का मस्तक धड़-विहीन था।... वह दृश्य भयावह था और आज भी मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि वह अर्धतंद्रा या अचेतन की मेरी कल्पना का दृश्य नहीं था। यही देखकर मैं काँप उठा था, मेरे मुँह से हल्की-सी चीख निकल गई थी और मैं जड़वत हो चला था। ...

यह पूरा विवरण मैंने श्रीमतीजी को सुना तो दिया, लेकिन अचिंतित रूप से उनकी सद्यः उपजी प्रथम प्रतिक्रिया चकित करनेवाली थी। उन्होंने कहा--'आपने न जाने क्या सोचकर ऐसी आत्माओं से संपर्क साधा, जो अब आपको ही भयभीत, चिंतित और व्यग्र कर रही हैं। वे जाने क्या-कैसा अहित करें, क्या लाभ हुआ इस सब का ?'
मैंने उन्हें समझाने का प्रयास किया--'ये मेरे द्वारा चयनित आत्माएँ नहीं हैं। ये ऐसी आत्माएँ हैं, जो स्वयं अपनी इच्छा से मेरे संपर्क में आयी हैं। ये हितचिंतक आत्माएं हैं, मेरा कोई अनिष्ट नहीं करेंगी, आप निश्चिन्त रहें। अब तो कई वर्षों से यह सब छूट गया है और वे नहीं चाहतीं कि सम्पर्क पूरी तरह विच्छिन्न हो जाए, इसीलिए मेरी चेतना के द्वार (कमरे की खिड़की के पल्ले) पर दस्तक दे रही हैं।'
श्रीमतीजी क्रुद्ध होती हुई बोलीं--'आपको रात में आकर भयभीत कर देना, कभी कमरे में आकर झकझोरना और कभी खिड़की के आसपास मँडराना--ये कैसी हितचिंता है भला?'
मैंने उन्हें कुछ और समझाना चाहा तो वह अपने नन्हें बच्चों का हवाला देकर अपनी नाराज़गी का इज़हार करने लगीं और उनकी आँखों में आँसू भर आये। इस विवाद का कोई लाभ नहीं होना था। मुझे वहाँ से हट जाना ही उचित प्रतीत हुआ।

पूरा दिन इसी चिंता में गुज़रा कि अब क्या हो ? इस बाधा से मुक्ति कैसे मिले? तन्द्रा-भंग के स्पष्ट आलोक में देखा हुआ दृश्य मदिर स्वप्नलोक नहीं था। वह जाग्रत अन्तर्चक्षुओं से देखा गया भयावह दृष्टि-संयोग था--निर्वृत्त सत्य-सा..., जिसे मैं कभी भूल न सका। लेकिन श्रीमतीजी की जिज्ञासा पर जो प्रथम बोल मुंह से फूटे थे, मेरा मन उसी पर ठहर गया था--'वही, घटवारन, और कौन....?' मुझे याद आया, कभी चालीस दुकानवाली ने भी स्वयं को 'घटवारन' कहा था। दीर्घकालिक चिन्तना से मेरे मन में यह धारणा बद्धमूल होने लगी कि वह बिखरे केशों वाला मस्तक किसी और का नहीं, बल्कि चालीस दुकानवाली आत्मा का ही था। वही मेरी खिड़की के पल्ले बजा रही है। निश्चय ही, वह कुछ कहना चाहती है मुझसे। एक अदद मुलाक़ात के लिए वह व्यग्र-विह्वल है शायद।... इसी सत्य की प्रतीति मुझे होने लगी थी...!

घर से दोपहर का निकला मैं शाम के वक़्त लौटा। श्रीमतीजी अब तक रुष्ट थीं। उन्हें समझाना और संयत करना जरूरी था। मैंने अपना आकलन और अपनी अवधारणा से उन्हें अवगत कराते हुए चालीस दुकानवाली आत्मा का पूरा वृत्तांत कह सुनाया। उन्हें विश्वास दिलाया कि वह मेरी परम हितैषी आत्मा है और उसकी हितैषणा बिल्कुल संदिग्ध नहीं। संभव है, वह मुझसे कुछ कहने को विकल हो, इसीलिए हस्तक्षेप कर रही है। सब सुनकर उन्होंने कहा--'आप जैसा कह रहे हैं, अगर वही सच है तो इस मामले को जल्दी ही सुलझा लें, ताकि आप भी चैन से सो सकें और बच्चों के साथ मैं भी।'

लेकिन तब मेरे वश में कुछ भी नहीं था--उस घर में आत्मा से संयोग की सुविधा बिलकुल नहीं थी। श्रीमतीजी की अति-चिंता भी अकारण नहीं थी... ! लेकिन इस बात का पता मुझे बहुत बाद में चला था कि उसी दिन मेरे घर से बाहर चले जाने के बाद श्रीमतीजी का आक्रोश मेरे प्लेंचेट के बड़ेवाले बोर्ड और आत्माओं से संपर्क की मेरी निजी डायरी पर निकला था और उन्होंने उसे नष्ट कर दिया था।.....
(क्रमशः)
[पुनश्च : मेरी रचनाओं की प्रथम पाठिका मेरी श्रीमतीजी हैं। चर्चा-३३ और इस आलेख को पढ़कर वह कह रही हैं--'वर्षों के प्रयत्न से जिन घटनाओं को मैं भूल सकी थी, उनकी याद आपने फिर दिला दी है। लगता है, अब मेरी रातें फिर भय से भरी होंगी!'--आ.]

शनिवार, 2 जनवरी 2016

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (३३)

[अन्तःपुर के वातायन से…]

ज़िन्दगी एक वेगवान् नदी-सी है, जो टेढ़ी-मेढ़ी राह चलती है और हर पल रंग बदलती रहती है। उसे कभी सीधी-सपाट सड़क नहीं मिलती। ज़िन्दगी में छोटी राहें नहीं होतीं।
नवम्बर १९७८ में मेरा विवाह हुआ था और मेरे जीवन की दिशा बदल गयी थी। राग दूसरी डाल से बँधने लगा था। एक वर्ष की अवधि भी पूरी नहीं हुई थी कि पांच वर्षों से सेवित दिल्ली १९७९ में मुझे छोड़नी पड़ी। जीवन में परिवर्तनों का दौर शुरू हुआ। कई पड़ावों पर रुकती-ठहरती, चक्रवातों से जूझती और नौकरियाँ बदलती ज़िन्दगी ज्येष्ठ और कनिष्ठ कन्या की उपलब्धि के साथ १९८२ में पटना आ पहुंची थी, इस निश्चय के साथ कि अब नौकरी-जैसा प्रतिभानाशी व्यापार मुझे नहीं करना। स्वास्थ्य कारणों से पिताजी और छोटी बहन महिमा एक वर्ष पहले ही पटना चले आये थे। मेरे अनुज यशोवर्धन तो १९८० में ही केंद्रीय सेवा में, आंकेक्षक के पद पर बहाल होकर, पटना में ही नियुक्त हो चुके थे। दो वर्ष बाद १९८२ में उनका भी विवाह हो चुका था। लिहाज़ा, आठ-नौ वर्षों की खानाबदोशी के बाद एक बार फिर पूरा परिवार पटना के छोटे-से 'मुक्त-कुटीर' में एकत्रित हुआ।
पिछले चार-पांच वर्षो की अवधि में इतनी उथल-पुथल, भाग-दौड़ और व्यस्तता रही कि परा-जगत से संपर्क-साधन का बहुत संयोग नहीं बना, लेकिन चालीस दुकानवाली का स्मरण मुझे निरंतर बना रहा। मैं सोचता ही रहा कि वह हतभागी आत्मा भी मेरी ही तरह विकल-विह्वल होगी क्या? उसने अब तक शिकायतों के न जाने कितने विषबुझे तीर मेरे विरुद्ध संचित कर लिए होंगे! क्या वह बहुत रुष्ट होगी मुझसे?...
पटना का घर बिहार राज्य आवास बोर्ड से खरीदा गया था, जो एक बड़े भूमि-खंड पर निर्मित दो कमरों का मकान था, उसमें हमने कभी निवास नहीं किया था। १९६६-६७ से उसमें किरायेदारों का ही बसेरा था। १९८१ में जब पिताजी पटना पहुँचे तो उस मकान को किरायेदारों से बमुश्किल खाली करवाया जा सका था। १९८१ में पिताजी मेरे अनुज और छोटी बहन के साथ वहाँ, उस घर में, स्थापित हुए। १९८२ में मैं भी सपरिवार वहाँ पहुंच गया। उस नीड में सुख-दुःख के दिन बीतने लगे।...
मैं जिस कमरे में रहने लगा, वह अपेक्षाकृत छोटा था। उसमें एक बड़ी पलँग डाल दी गई थी। पलँग के बाद तीन किनारों में इतनी ही जगह शेष रह जाती थी कि एक व्यक्ति उसमें चहलकदमी कर सके। रात के वक़्त कमरे के दो दरवाज़े बंद कर दिए जाते थे और स्वच्छ हवा के लिए पायताने की एकमात्र खिड़की खुली रखी जाती थी, जो आँगन में खुलती थी। मेरे घर में आते ही श्रीमतीजी ने गृहस्थी सँभाल ली थी, लेकिन उन्हें बहुत दिनों तक पता ही नहीं चला था कि मैं पराजगत् में विचरण भी करता रहा हूँ। जब पटना के उस नन्हें-से घर में, किसी के अनुनय पर मैंने प्लेंचेट किया था तो वह आश्चर्य से अवाक रह गई थीं।
१९८३ के प्रारंभिक दिनों की बात है, कुछ अप्रत्याशित, आश्चर्यजनक मेरे आसपास घटने लगा। उसे समझने में भी मुझे वक़्त लगा। रात में सोते हुए मुझे लगता, कोई मुझे जगा रहा है, मुझे पुकार रहा है, स्पर्श कर रहा है मुझे। यह विस्मयकर अनुभव मैं किसी के साथ बाँटता नहीं, किसी से कुछ कहता नहीं; लेकिन मेरी रातों की नींद बाधित होने लगी थी, जिसका प्रभाव मुझ पर दिन-भर बना रहता। कुछ ही दिनों में श्रीमतीजी ने मेरी अन्यमनस्कता को लक्ष्य किया, मुझसे बार-बार पूछने लगीं--'क्यों, तबीयत ठीक है न आपकी?' मैं उनके प्रश्न से पलायन का कोई-न-कोई उत्तर ढूंढ़ लेता। वह पति-परायणा विदुषी महिला हैं, किन्तु अत्यंत भीरु प्रवृत्ति की; उनसे कुछ भी कहते हुए मुझे संकोच होता था। जानता था, उन्हें रात्रिकाल के अपने अनुभव बताऊँगा तो वह भयभीत हो जायेंगी अथवा मुझे उपचार के लिए विवश करने लगेंगी। लिहाज़ा, उनकी जिज्ञासाओं पर मैं अधिकतर मौन साध लेता था। मेरे लिए भी यह विचित्र और नवीन अनुभव था और मैं समझ नहीं पता था कि यह सब मेरे साथ क्यों, कैसे और क्या हो रहा है ! रहस्य की धुंध मेरे लिए विस्मय का कारण बनी हुई थी। इसी दशा में दो-तीन महीने बीत गए।
रात में कुछ पढ़कर सोना मेरा वर्षों का अभ्यास रहा है। उस रात भी मैं टेबल लैम्प की रोशनी में देर तक पढ़कर सोया था। आधी रात के बाद अचानक श्रीमतीजी ने मुझे झकझोर कर जगाया और पूछा--'क्या हुआ आपको? आप इस तरह काँप क्यों रहे हैं?' मैं आश्चर्य में पड़ा था और अपने ही हाथो से अपनी शक़्ल और हाथ-पैरों की खैरियत तलाश रहा था। सब कुछ तो सामान्य था, केवल चेहरा पसीने से भीगा था। पूर्णतः चैतन्य होते ही मैंने कहा--'हाँ, मैं स्वप्न देख रहा था। तुमने मुझे ख़ामख़ाह मुझे जगा दिया।'
श्रीमतीजी ने प्रतिवाद किया--'ख़ामख़ाह? आप तो थर-थर काँप रहे थे। हुआ क्या?'
मैंने यह कहकर उनसे पीछा छुड़ाया--'भई, सोने दो मुझे !'
लेकिन, बात दरअसल यह थी कि मैं कोई दुःस्वप्न नहीं देख रहा था, मुझे स्पष्ट अनुभूति हुई थी कि खुली हुई खिड़की की राह कोई मेरे कमरे में आया था और मुझे जगाकर साथ चलने की इल्तज़ा कह रहा था। मेरे विरोध पर वह कुपित हुआ था और मेरे चेहरे और हाथ-पाँव पर आघात करने लगा था। यह विचित्र और भयप्रद अनुभूति थी। मैं इसे स्वप्न इसलिए नहीं कह रहा, क्योंकि जाग जाने के बाद भी वह अहसास देर तक यथावत बना रहा था। दुबारा सोने की चेष्टा की, लेकिन जब नींद नहीं आई तो मैंने उठकर खिड़की बंद की और लेटकर चिंता-निमग्न हो गया !
परा-जगत से संपर्क विच्छिन्न हुए लम्बा अरसा हो चुका था। लम्बे अंतराल के बाद, किसी के बहुत आग्रह पर, कभी-कभार ही, किसी आत्मा को बुलाने की विवशता आ पड़ती थी। उस छोटे-से घर में यह संभव भी कहाँ था! पांच-छह महीनों पर जब कभी प्लेंचेट किया भी, तो वह आग्रही व्यक्ति के घर पर ही संभव हो सका।
उस रात जब देर तक नींद नहीं आई तो मैं विचारशील हो उठा--बहुत सोचने पर भी ऐसी अनहोनी घटनाओं का कोई कारण-सूत्र हाथ नहीं आ रहा था। मैं उद्विग्न हो रहा था। अचानक मुझे चालीस दुकानवाली आत्मा का स्मरण हो आया और मैं चौंक पड़ा! तो क्या वह चालीस दुकानवाली ही है? छह-सात वर्षों बाद उसे अब मेरी याद आई है क्या? क्या उसने मुझे अब ढूंढ़ निकला है और क्या वही मेरे अन्तःपुर के वातायन से मुझ तक आ पहुंची थी? मैं सोचते-सोचते क्लांत हो गया था उस रात और जाने कब निद्रा-निमग्न हुआ था !....
(क्रमशः)