शनिवार, 8 अगस्त 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (१)

[मित्रो, ये चर्चाएं कई किस्तों में पूरी होंगी और क्रमशः एक पुस्तक की शक्ल अख्तियार कर लेंगी शायद। आप इन्हें किस्तों में पढ़ते जाने का अवकाश निकालेंगे तो मुझे प्रसन्नता होगी। ये चर्चाएं एक ओर मैं लिखता जाऊँगा, दूसरी तरफ आपके सम्मुख रखता जाऊँगा, इसमें काल का अंतर अथवा विक्षेप भी हो सकता है, जितना अवकाश मिलेगा, उतना ही लेखन हो सकेगा...! आपकी संस्तुति और आपके मंतव्य ही तय करेंगे इस लेखन का भविष्य। बस, आप इसे पढ़ने का श्रम करें, मुझे प्रसन्नता होगी। इस लेखन से बंधु-बांधवों के दीर्घकालिक अनुरोध की पूर्ति भी कर रहा हूँ। --आनंद]

प्रथम हस्तक्षेप...

वे मेरे बचपन के दिन थे। गर्मी की छुट्टियों में हम भाई-बहन को चाचाजी (स्व. कृष्णचंद्र ओझा) के पास भेज दिया जाता था। बात उन दिनों की है, जब चाचाजी जनता कॉलेज, तुर्की, मुजफ्फरपुर में पदस्थापित थे। पटना-मुजफ्फरपुर के बीच मुख्य राजमार्ग पर ही यह कॉलेज स्थापित था, जो मुजफ्फरपुर से ८ किलोमीटर पहले पड़ता था। कॉलेज का प्रांगण विशालकाय था, जिसमें खपरैलवाले छोटे-बड़े कॉटेज थे, पतले-सँकरे रास्ते थे--ईंट की चिनाई किये हुए, फूल-पौधों से भरी क्यारियां थीं, तो विशाल और पुरातन वृक्ष भी थे। आम, अमरूद, लीची, केला, शरीफा और न जाने कितने-कितने फलों के पेड़! कॉलेज-प्रांगण की शोभा देखते ही बनती थी। वहाँ हमारे बड़े मज़े थे। तुर्की कॉलेज पहुंचते ही हम पूरे परिसर में फैल जाते, दौड़ लगाते, वृक्षों पर चढ़ते, तितलियाँ पकड़ते और बरगद के वृक्ष पर झूले लगाते, झूलते। ठीक-ठीक स्मरण तो नहीं, लेकिन तब मैं संभवतः छह-सात साल का बालक था--चंचल, शरारती और कुछ हद तक उद्दंड भी।
चाचाजी बड़े मनमौजी थे--आनंदी जीव! पूरा जीवन उन्होंने अपनी ही शर्तों पर जिया और सुख-दुःख भोगते रहे। आज उनका स्मरण करते हुए याद आता है कि उनके जीवन में दुःख और संघर्षों की बदली हमेशा छायी रही, लेकिन वह सूर्य की तेजस्विता के साथ चमकने की ज़िद पर अड़े रहे।
वह बहुत सुरीली बांसुरी बजाते थे और भोजपुरी में श्रेष्ठ गीत और कविताएँ लिखते थे। निःशुल्क होम्योपैथी चिकित्सा करना और उसकी मीठी गोलियों से लोगों का इलाज़ करना उन्हें अच्छा लगता था, जबकि इसके लिए उनके पास कोई आधिकारिक प्रमाण-पत्र नहीं था। तुर्की जनपद के गरीब लोग उनके पास सुबह-सुबह बड़ी संख्या में जुटते थे और सबों को उनकी दावाओं से लाभ होता था। उनका प्रिय पेय चाय थी और निरंतर बीड़ी पीना उनका व्यसन। अपने सारे गौर-वर्ण भाई-बहनो में एकमात्र वही श्यामवर्णी थे, संभवतः इसीलिए उनका नाम 'कृष्णचन्द्र' रखा गया था और पिताजी आजीवन उन्हें 'कृष्णा' कहकर पुकारते रहे। वह पिताजी से नौ साल छोटे थे--खड़ी नासिका, उन्नत ललाट, चौड़ी छाती, बलशाली भुजाएं। पिताजी से सुना है, अपनी युवावस्था में इलाहाबाद के अखाड़े में जोर-आज़माइश भी करते थे और रात्रि में श्मशान-साधना भी...! वह जहां रहे, पूरी शान से रहे। जनता कॉलेज में भी उन्हीं का वर्चस्व था, कालेज के प्राचार्य भी उनके निर्णय के विरुद्ध नहीं जाते थे, जबकि चाचाजी उनके अधीनस्थ व्याख्याता पद पर कार्यरत थे। वहीं प्रसिद्ध लोक-गीत गायक संतराज सिंह 'रागेश' को मैंने पहली बार चाचाजी के पास आते-जाते देखा था। वह उनसे भोजपुरी लोकगीतों के लिए आग्रह करने आते थे। मेरी उद्दंडता को सराहनेवाले और शरारतों को दुलरानेवाले एकमात्र चाचाजी ही थे। जाने क्यों, उनकी मुझ पर अगाध प्रीति थी, अपने बाल-बच्चों से भी अधिक! वह मुखर व्यक्ति थे, आत्मगोपन उनकी वृत्ति में नहीं था, किन्तु जिन बातों को वह बतलाना नहीं चाहते थे, उन्हें कोई उनसे कहलवा नहीं सकता था। मुझे स्मरण है, कई अवसरों पर मेरे किसी साहसिक कारनामे से प्रसन्न होकर वह मुझे कॉलेज से एक-डेढ़ किलोमीटर दूर एक बागान में ले जाते थे, जहां नौटंकी कंपनी के नाटक होते थे, मेला लगता था। उन्हीं के सौजन्य से मैंने कंपनी की कई नाट्य-प्रस्तुतियाँ देखी थीं--नौलखा हार, रानी पुतलीबाई, सुल्ताना डाकू वगैरह। इन नौटंकियों से मैं इतना प्रभावित होता था कि स्वयं मुख्य पात्र बनकर दिन-भर उनके संवाद की नक़ल करता फिरता था। वे अजब बेफिक्री और आनंद के दिन थे।
लेकिन, फिक्र को तो एक दिन पीछे लगना ही था और आनंद को काफूर होना। गर्मी के दिन थे। चाचीजी को छोड़ घर के सारे सदस्य बाहर विस्तृत मैदान में सो रहे थे। सबकी अलग-अलग चौकियां लगी थीं और मच्छरों से रक्षा के लिए मशहरियां। मंझले चाचा के बिस्तर पर दिन में सफ़ेद चादर बिछती, लेकिन रात के वक़्त वह शरीर में गड़नेवाले एक मोटे-काले कम्बल पर सोते, उस पर कोई चादर न बिछाते। यह मुझे अजीब-सा लगता, लेकिन कोई उनसे इसरार भी न करता कि एक चादर बिछा लें, कम्बल गड़ेगा। उस रात भी उन्होंने रोज़ की तरह लेटते ही बाँसुरी बजानी शुरू की। बाँसुरी की मधुर ध्वनि सुनते-सुनते जाने कब मेरी आँख लग गई। निद्राभिभूत हुए कितना वक़्त गुज़रा था, यह तो पता नहीं, संभवतः आधी रात बीत चुकी होगी; अचानक बातें करने की कुछ अस्पष्ट ध्वनि सुनकर मेरी नींद खुली और थोड़ा भय भी हुआ। आज भी उस रात की याद करता हूँ तो सिहरन होती है। बहरहाल, बिछी हुई चादर के एक छोर को खींचकर मैंने अपना मुंह ढँक लिया और डर के मारे आँखें बंद कर लीं, लेकिन मेरे सजग कान आती हुई अस्पष्ट ध्वनियों पर केंद्रित रहे। चाचाजी की धीमी आवाज़ तो मैं पहचान रहा था, किन्तु एक महिला का बहुत मंद स्वर चाचीजी का तो हरगिज़ नहीं था। मैं डरते हुए सोच रहा था कि चाचाजी किनसे बातें कर रहे हैं? और बातें क्या हो रही हैं, यह तो बिलकुल स्पष्ट नहीं था। मेरी जिज्ञासा ने भय पर विजय प्राप्त की और मैंने हिम्मत जुटाकर चाचाजी की चौकी की ओर अपनी अधमुंदी आँखों से देखा--वह चित्त लेटे हुए थे, शरीर में कोई हरकत नहीं थी। उस अँधेरी रात में उनकी मुख-मुद्रा की धुंधली छाया-भर देखी जा सकती थी, अधरों की हरकत को देख पाना तो असंभव था। लेकिन बातचीत की आवाज़ निरंतर कानों में पड़ रही थी और मैं सिहर रहा था। मैंने अपनी पूरी चेष्टा से अपनी अवलोकन-शक्ति को केंद्रित किया और गौर से देखा--आँखें फाड़कर। चाचाजी अकेले ही थे, उनके आसपास कोई नहीं था--कोई छाया-साया भी नहीं; फिर भी बहुत मंद्र नारी-स्वर मेरे श्रवण-पटल पर आघात कर रहा था लगातार। चाचाजी के पास किसी को न देखकर ऐसा भय समाया कि शरीर में कम्पन होने लगा और थोड़ी ही देर में मेरा रुदन गूँज उठा। आखिर मैं छह-सात साल का बालक ही तो था! … 
(क्रमशः)
[चित्र : पूज्य पिता के निधन के बाद शोकमग्न बैठे स्व. कृष्णचन्द्र  ओझा, सन 1934 का मेरे पास उपलब्ध एकमात्र चित्र]