रविवार, 30 अगस्त 2009

वह फिर आयी है...

{मेरे घर अजन्मी बिटिया के लिए}



वह मचलती-इठलाती रही--
मैं देखता रहा।
वह बहुत-सी बातें करती-सुनाती रही
मैं निहारता रहा !
वह आँखें चमकाती,
अभिनय करती,
शरारतें फैलाती रही--
में मूक दर्शक ही रहा--
ईश्वर बना !

लम्बी प्रतीक्षा के बाद
नद-नाले फलांगती,
पहाड़ी दर्रों के बीच राह बनाती
वह आयी थी--
शांत-सुरम्य घाटी में
शान्ति के दो पल बिताने
अपने प्रियतम के पास;
लेकिन उसमे वायु की विकलता थी,
असीम उत्साह था,
अबूझ आतुरता थी--
मैं हतप्रभ, हतवाक था--
मनुष्य बना !

जाने किस प्रमाद में,
नववर्ष की पूर्व-संध्या में
उसने मेरे हाथ पकड़े,
और बलात खींच लिया था मुझे
नृत्य के मंच पर !
मेरे पावों में शक्ति तो थी,
नृत्य की चपलता न थी,
किंचित परिज्ञान न था,
कोई शास्त्रीय विधान न था;
फिर भी मंत्र-मुग्ध-सा
संगीत की धुन पर
मैं नृत्य का अभिनय करता रहा...
मेरी तंद्रा पर
चेतना का ज्वर चढ़ता रहा !

शाम ढली, लेकिन--
रात ठहर गई;
वह व्यतीत होती ही न थी;
फिर भी जाने किन यादों को
पास बुलाता, दूर हटाता रहा रात भर...
सौम्य-सजीली उन आंखों में--
जैसे कोई बात अजब थी,
पैनी-सी वह धार गज़ब थी !

सुबह-सवेरे वायु-यान पर बैठ अचानक
आसमान से बातें करता लौट गया मैं--
यादों के उन गलियारों में
दौड़-दौड़ कर टुकड़े-टुकड़े
बिखर गया मैं !

प्रश्न बहुत थे, हल मुश्किल था--
तन के घाव भरे जाते हैं,
लेकिन मेरे चेतन-तल पर
धंसा हुआ एक शूल विकल था !
कैसे पहचानू मैं उसको
मेरा अंश छोड़ मुझे ही चला गया था,
मेरे बच्चों की जननी का
भाग्य सहज ही छला गया था !
मैं निष्ठुर ही रहा--
अमानुष बना !

स्मृतियों की आंधी सहसा ठहर गई थी
मन को समझाया था मैंने
बीत गया जो, रीत गया जो--क्षण
वह अतीत हो गया,
पूरा वर्ष व्यतीत हो गया !

वह फिर आयी है---
याद दिलाने मुझको मेरी
हठधर्मी की,
निर्दयता की
और न जाने कितने-कितने प्रश्न-बाण से
छलनी करने मेरे मन को !
निरुपाय हो, फिर चुनता हूँ
स्मृतियों के छोटे कण को !

मानव मन की दुर्बलता के
जाने किन अभिशप्त क्षणों में
मैंने निर्णय लेकर जिसको त्याग दिया था--
वह तो मेरी ही बिटिया थी,
हाँ, मैंने पहचान लिया था !!

शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

तीन शब्द-चित्र...

(१)
बंद कमरे में ...
खिड़की खुली ही रहने दीजिये--
क्योंकि
बंद कमरे में
कैद अंधेरों का
दम घुट जाएगा
और
कमरे पर
ह्त्या का
पाप होगा !
(२ )
इसी तरह...
कुछ तकलीफें
सरे मैदान भून दी गईं
और मैं तमाशबीन बना
सजदे में सर झुकाए रहा
वे चीखें सनसनाती सीटियों की तरह
श्रवन-रंध्रों में प्रविष्ट हुईं
और मेरा रोम-रोम सिहर उठा...
लेकिन, वे तकलीफें जान रही थीं
कि अब उन्हें ख़त्म होना है--
इसी तरह.... !
(३ )
हवा हो गई...
ओस की एक बूँद
आसमान से टपकी
नाज़ुक पौधे की टहनी का तन
उसने थाम लिया...
सूरज की नर्म धूप
जैसे ही फैली
ओस की बूँद कांप उठी,
थरथराई,
हवा में घुली
और
हवा हो गई... !!

सोमवार, 24 अगस्त 2009

ठहरी हुई नींद...


जब मेरी चेतना पर

तंद्रा छाने लगती है,

तुम करती हो सवाल...

नहीं होता मुझसे

दुनिया का हिसाब-किताब,

नहीं आती मुझे

अंकों की ठीक-ठीक गणना;

तुम फिर देती हो नसीहतें--

नहीं आता मुझे

बताई हुई डगर पर,

नाक की सीध चलना...

मैं खीझता हूँ और--

नहीं आती मुझे

ठीक-ठाक नींद...

रात भर !


नींद, जो सुबह

तरोताजा होकर जागने के लिए

बेहद ज़रूरी है,

उसे तुम्हारे सवालों से

ठेस पहुँचती है और

अधखुली पलकें लिए

जागी रह जाती है--

लम्बी स्याह रात !


तभी तुम--

अपनी नर्म हथेलियों का

सुर्ख मोती

मेरे हाथ में रखती हो,

मेरे सफ़ेद हो आये केशों में

फिराती हो अपनी नाज़ुक उंगलियाँ

और सांत्वना देते हुए कहती हो --

'खैर, कोई बात नहीं ...

याद नहीं रहा, तो छोडो ...

जाने दो...'

मेरे वक्तव्य

अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिये

तुम्हारी प्रभा-दीर्घा में

दुम हिलाते नज़र हैं !

मैं तुम्हे कैसे समझाऊं--

व्यथा कहने से नहीं,

सहने से कम होती है !
मुझे मौन देखकर

बड़े स्नेह से

और थोडी आजिजी से भी

तुम कहती हो--

'अच्छा भई, सो जाओ !'


जैसे तुम्हारे आदेश की प्रतीक्षा में

ठहरी हुई है--

मेरी नींद !!

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

रास-लीला के कुछ छंद---- 'मुक्त'

[बात नयी नहीं, तो बहुत पुरानी भी नहीं है। मेरे पुण्यश्लोक पिताश्री पं० प्रफुल्लचंद्र ओझा 'मुक्त' जी का एक महाकाव्य था-- 'वृन्दावन'। सन १९५०-५१ में उसकी पाण्डुलिपि गीता प्रेस, गोरखपुर के स्व० हनुमान प्रसाद पोद्दार जी को उनके मांगने पर भेजी गई थी। अपरिहार्य कारणों से उसका प्रकाशन लंबित होता रहा और एक दिन ज्ञात हुआ कि पाण्डुलिपि प्रेस में ही कहीं खो गई। पिताजी को इसका क्लेश जीवन भर रहा; क्योंकि उसकी जो दूसरी प्रति घर पर थी, वह दीमकों का ग्रास बन चुकी थी। पिताजी दो-तीन वर्षों तक पाण्डुलिपि के लिए गीता प्रेस से पत्राचार करते रहे, लेकिन पोद्दारजी की मृत्यु के बाद यह प्रयास भी शिथिल पड़ता गया... पाण्डुलिपि को मिलना न था, वह नहीं मिली।... बहरहाल, यह अवांतर कथा है...

आज कृष्ण जन्माष्टमी है। आज के दिन सुबह से ही पिताजी उतफ़ुल्ल नज़र आते थे और 'वृन्दावन' काव्य की रास-लीला की पंक्तियाँ गुनगुनाने लगते थे। बहुत छुटपन से सुनता रहा हूँ ये पंक्तियाँ। आज भी ये पंक्तियाँ अन्तर मन में गूँज रही हैं... सुन पा रहा हूँ उनकी आवाज़ .... सोचता हूँ, क्यों न अपने ब्लोगेर मित्रों के साथ बांटूं ये पंक्तियाँ ! इसी ख़याल से 'रास लीला' के कुछ छंद ब्लॉग पर रख रहा हूँ। ये भी इसलिए बच गईं क्योंकि पटना की एक पत्रिका में प्रकाशित हुई थीं--]

रास-लीला

शांत आकाश है, शांत वातास है, इंदु-कर भूमि पर शान्ति जड़-सा रहा।

आज यमुना किनारे खड़े कृष्ण के, चित्त में रास-रस है उमड़-सा रहा॥

ईश की कामना से बना विश्व यह, आज रह-रह बुलाता उन्हें पास है।

धर अधर पर मुरलिका मधुर श्याम ने, इसलिए ही बजाई अनायास है॥

गोपियाँ लग्न थीं गेह के नेह में, वेणु का स्वर सुना भ्रांत-सी हो गईं।

कृष्ण के प्रेम को क्षेमकर जानकर, देह-मन खो, मगन हो, विजन को गईं॥

वेणु की तान में गान जो प्राण का, चित्त को खींचकर वह बुला-सा रहा।

अमित आनंद-संदोह के पालने, ब्रह्म ज्यों जीव को है झुला-सा रहा॥

यह घड़ी है बड़ी भाग्यशाली की जो, श्याम ने आप ही है पुकारा हमें।

कर कृपा-कोर चितचोर ने चाव से, आज ही तो प्रथम है निहारा हमें॥

व्यर्थ असमर्थता का न कुछ अर्थ है, त्याग कर दर्प अर्पण स्वयं को करें।

आज आत्मा मिले तत्त्व परमात्म से, हम अमरलोक का रस रसा में भरें॥

सोच कर इस तरह रह सकीं थिर न फिर, श्याम की लालसा से मचलने लगीं।

तोड़ बंधन सभी, मोड़ मुंह मोह से, गोपियाँ घर-नगर से निकलने लगीं॥

धेनु पय-भार से रान्भती रह गई, बह गई छाछ फिर दूर गिर पात्र से।

सुधि बिसर कर, सिहर कर किधर जा रहीं, वसन-भूषण गिरे स्रस्त हो गात्र से॥

कंठलग्ना स्वपति की नवोढा निकल, चल पड़ी हो विकल तिलमिलाती हुई।

स्तन्य छूटा सरल शिशु मचलता रहा, माँ चली मोद में गीत गाती हुई॥

जो सती थी, व्रती, मतिमती, कान्त की चरण-आराधना छोड़ वह चल पड़ी।

घर संजोती, बिलोती हुई दूध जो, काज से आज मुंह मोड़ वह चल पड़ी॥

मोद में मग्न होकर कहीं गोपियाँ, ताल से स्वर मिला, गीत गाने लगीं।

कंठ के नीड़ से मीड़-खग को सुभग, मूर्छना-ग्राम-संयुत उडाने लगीं॥

गोपियों का परम भाग्य थीं हेरतीं, स्वर्ग में मुग्ध देवांगनाएँ खडीं।

सोचतीं, क्यों न ब्रज में मिला जन्म जो, कृष्ण का संग पातीं सहज दो घड़ी॥

यों महारास रस है बरस-सा रहा, है सरस यह रसा डोलती लोल-सी।

आज की चांदनी से छनी यामिनी, है मही पर रही मत्तता घोल-सी॥

नाचते गोपियों संग माधव मुदित, नाचती सृष्टि सारी निहारी गई।

सोम-रवि के सहित, स्वर्ग की छवि अमित, आज यमुना किनारे उतारी गई॥

नाचने-सी लगी यह रसा रास में, अब्धि में दूर तक पूर आने लगा।

स्वर्ग में यक्ष-गन्धर्व-किन्नर-निकर, मत्त हो नाचने और गाने लगा॥

नाचने लग गए ग्रह-उपग्रह सभी, रह सके जड़ न जड़, आज चेतन बने।

दूर कर देह का दाह देही रहा, विजित जग में सजग मीन-केतन बना॥

बुधवार, 12 अगस्त 2009

अनंत यात्री नागार्जुन

[गतांक का शेषांश]

नागा बाबा के मुख से कवितायें सुनने का आनंद अलग था। वह अपनी कवितायें झूम-झूमकर सुनाया करते थे। 'बादल को घिरते देखा है...' और 'बहुत दिनों तक चूल्हा रोया...' --इन दोनों कविताओं का उनका पाठ मेरे मन पर नक्श होकर रह गया है। आन्दोलन-समर्थित उनकी कवितायें भी जेहन में गूंजती रहती

बहरहाल, राजकमल की सेवा से मुक्त होने के बाद मैंने दूसरी नौकरी पकडी। दिल्ली छूटी तो बाबा से प्रायः रोज़ का संपर्क भी छूट गया। लेकिन बाबा के पोस्टकार्ड की चार-छः पंक्तियाँ मुझ नाचीज़ तक अवश्य पहुँचती रहीं और मुझे अहसास दिलाती रहीं कि वह मुझ से दूर नहीं हैं। यह उनका असीम स्नेह ही था।
नौकरी को नितांत प्रतिभानाशी व्यापार माननेवाले मेरे दिमाग ने अंततः निर्णय लेकर अपने पितामह की तरह ही सन १९८२ में अच्छी-खासी नौकरी को लात मारी और मैं पटना आ बसा। पटना के लोहिया नगर के छोटे-से मकान में सुख-दुःख के दोनों तीरों को छूती ज़िन्दगी चल पड़ी। पिताजी मुझसे पहले ही पटना आ गए थे। एक दिन घर के बरामदे में चटाई बिछाकर वह लिखने-पढने का कुछ काम कर रहे थे कि अचानक नागार्जुनजी प्रकट हुए और अपना झोला रखकर चटाई पर ही पिताजी के पास बैठ गए। पिताजी ने मुझे आवाज़ लगाई और बाबा के आगमन की सूचना दी। मैं भागकर उनके पास पहुँचा और प्रणाम करके मैंने पूछा--''बाबा ! आप अचानक कैसे आ पहुंचे ?'' वह पूरी सहजता से बोले--''हाँ, तुम लोगों से मिले बहुत दिन हो गए थे, सोचा मिलता चलूँ ।'' उस दिन बाबा देर शाम तक हमारे साथ रहे थे, उन्होंने बहुतेरी बातें की थीं, कवितायें सुनाई थीं और अपनी मनपसंद खिचडी खाई थी। मेरे घर में उनका निर्बाध प्रवेश था। वह स्वयं रसोईघर तक चले जाते और मेरी गृहलक्ष्मी को नाश्ते, खाने और चाय का आदेश दे आते।

बाबा दमे के मरीज़ थे। वह दमे के दम को बेदम करते निरंतर यात्राएँ करते रहे। लेकिन, १९८६ के बाद उनका स्वस्थ्य तेज़ी से गिरने लगा। यात्राएँ भारी पड़ने लगीं। अंततः उन्होंने अपने पुत्र श्रीकांत के पास दिल्ली में रहने का निश्चय किया। तब तक श्रीकांत ने अपना प्रकाशन संस्थान खोल लिया था और बाबा की पुस्तकों का पुनरमुद्रण करने लगे थे। गिरते स्वास्थ्य के बावजूद बाबा प्रकाशन के कामों में श्रीकांत की मदद करने लगे, लेकिन पटना और पित्रीगृह का मोह उन्हें बार-बार बिहार ले आता था।
९० के दशक में सूचना मिली कि पटना के डी.आई.जी श्री रामचंद्र खान की कोठी पर नागा बाबा ठहरे हुए हैं। मैं उनसे मिलने खान साहब के बंगले पर पहुँचा। बाबा अपने कक्ष में अकेले थे। वह बड़ी आत्मीयता से मिले। दमे के कष्ट के कारण उन्हें बोलने में असुविधा हो रही थी। मैंने उनसे कहा--"बाबा ! आप न बोलें, मैं आपको घर-परिवार और अन्य मित्रों की सारी बातें बताता हूँ।" लेकिन बाबा के अपने प्रश्न थे और उन्हें पूछे बिना उनका मन मान नहीं रहा था। बोलने में उन्हें जो असह्य पीड़ा हो रही थी, उसे देखकर मैं विचलित होता रहा। उनके पास दो घंटे रूककर मैं जब लौटा, तो मन बहुत दुखी था। सरल शिशु की उन्मुक्त और निश्छल हँसी हंसनेवाले नागा बाबा को उस दिन मैंने पहली और अन्तिम बार असह्य पीड़ा में देखा था। उस मुलाकात में बाबा ने कहा था--''आज ज्यादा कष्ट में हूँ। कल ऐसी हालत नहीं थी। सरस्वती ही रूठ जायें तो मुझ-जैसा मसिजीवी क्या करे ?'' उनके इस वाक्य में जो मर्मंतुद वेदना थी, पीड़ा थी, उसने मुझे आहात कर दिया था। इस मुलाकात के बाद बाबा से फिर कभी मिलना न हो सका।
कुछ समय बाद वह गंभीर रूप से अस्वस्थ हो गए। समाचार-पत्रों से उनके स्वास्थ्य की क्रमशः बिगड़ती दशा की सूचनाएं मिलती रहीं। एक दिन यह शोक-समाचार भी मिला किदरभंगा के पैत्रिक निवास पर महाकवि नागार्जुन ने अन्तिम साँस ली। जीवन-भर अपने स्वास्थ्य कि अनदेखी कर निरंतर यात्रा करनेवाले बाबा उस दिन काल के सम्मुख अवश हो गए थे; किंतु क्या यह भी सत्य नहीं है कि जीवनपर्यंत यात्रा करनेवाले बाबा एक नवीन महायात्रा पर प्रस्थित हो गए थे। ....
[दो-तीन शब्द शुद्ध नहीं हो पाते , ब्लॉगर मित्र उन्हें मेरे साथ बर्दाश्त करें !]

मंगलवार, 11 अगस्त 2009

अनंत यात्री नागार्जुन

[गतांक से आगे]
आपातकाल लागू हो चुका था। दिल्ली में मॉडल टाऊन के साथ लगी एक कालोनी है--टैगोर पार्क! इसी कालोनी के ३८ संख्यक मकान में हम किरायेदार के रूप में रह रहे थे। १३८ नम्बर मकान से कुछ युवा रचनाकार पिताजी से मिलने प्रायः आया करते--जींस का पैंट और खादी का रंगीन कुरता धारण किए तथा कंधे से बुद्धिजीवी झोला लटकाए ! कई मुलाकातों के बाद उनसे मेरी घनिष्ठता हो गई। उनमे प्रखर वक्ता और शोधपूर्ण आलेख लिखनेवाले सुधीश पचौरी थे, उनके उदीयमान चित्रकार अनुज (नाम अब स्मरण में नहीं रहा) थे, चुटीली और व्यंग-प्रधान कवितायें लिखनेवाले अशोक चक्रधर थे और युवा पत्रकार अरुणवर्धन थे। इन मित्रों के साथ उन्हीं के घर में जा बैठना, बातें करना और कवितायें सुनना-सूनानाहोने लगा। आपातकाल की समाप्ति के बाद एक दिन इन्हीं मित्रों ने बताया कि बाबा नागार्जुन आए हुए हैं और उन्हीं के पास ठहरे हैं। मैं तत्काल वहां जा पहुँचा। नागा बाबा से बहुत दिनों बाद मिलना हुआ था--ढेरों बातें हुईं। बाबा ने कारावास के दिनों की कथाएँ सुनाईं। पचौरी और चक्रधर ने मिलकर खिचडी बनाई और हम सबों ने मिल-बैठकर भोजन किया।
उन दिनों बाबा ने एक नवीन प्रयोग शुरू किया था। वह प्रत्येक व्यक्ति के नाम के हर शब्द का प्रथम अक्षर लेकर पुकारा करते थे। जैसे वह मुझे आ.व.ओ (जिसका बिहारी अंदाज़ में अर्थ होता है--'ऐ आओ।') कहकर पुकारा करते। कुमार दिनेश उनके लिए कु.दि थे और अशोक चक्रधर अ.च। हम सबों ने उनके इस प्रयोग को अपना लिया था। बाबा अपने पत्रों में भी ऐसा ही संबोधन लिखा करते।
कालांतर में बाबा ने भीं टैगोर पार्क में ही अलग किराये का मकान लिया और अपने कनिष्ठ पुत्र श्रीकांत को बिहार से दिल्ली ले आए। उन दिनों मैं राजकमल प्रकाशन के सम्पादकीय विभाग में कार्यरत था। श्रीकांत को भी राजपाल एंड संस में नौकरी मिल गई। हम दोनों एक साथ बस पकड़ते। श्रीकांत कश्मीरी गेट उतर जाते और मैं दरियागंज चला जाता। कई बार लौटने में भी श्रीकांत का साथ हो जाता। श्रीकांत के साथ जब कभी लौटना होता, तो मैं नागा बाबा से मिलता हुआ अपने घर जाता। ऐसी मुलाकातों में बाबा अनन्य प्रीति के साथ शाम की चाय स्वयं बनाकर हमें पिलाते। हमारी 'हाय-तौबा' सुनकर कहते--'मैंने समय पर निगाह रखी थी, जनता था श्रीकांत अब आनेवाले होंगे, इसलिए धीमी आंच पर चाय का पानी मैंने पहले ही चढा दिया था।' उनकी इस सरलता-सज्जनता और प्रीति देख मैं निहाल हुआ जाता था।
मॉडल टाऊन में ही त्रिलोचन शास्त्री और शमशेर बहादुर सिंह का भी आवास था। नागार्जुनजी के साथ ये दोनों साहित्यकार भी दो-तीन दिनों के अन्तर से पिताजी मिलने आया करते। नागार्जुनजी, शमशेरजी, त्रिलोचनजी और पिताजी के बीच घंटो साहित्यिक चर्चाएँ होतीं। मैं इन चर्चाओं का श्रोता बना रहता। एक दिन बाबा ने तंत्र-मंत्र वाली अंपनी एक कविता विशिष्ट अंदाज़ में सुनायी। पिताजी मंत्रमुग्ध हुए। उन्होंने कविता की प्रशंसा करते हुए कहा--''ऐसी अनूठी कविता की रचना आप ही कर सकते थे। मेरा विश्वास है, हिन्दी में इस कविता की द्वितीयता नहीं है।'' पिताजी की प्रशंसा से उस दिन बाबा पुलकित दिखे थे।
सन १९७८ में मेरा विवाह हुआ था। वधू-स्वागत-समारोह में अनेक वरिष्ठ साहित्यकार पधारे थे, जिनमे नागार्जुनजी भी थे। राजकमल के मोहन गुप्त ने वियोगी हरि, अज्ञेयजी और नागार्जुनजी को वहां एक साथ देखकर मुझसे कहा था--''तीन अलग-अलग धाराओं के वरिष्ठ साहित्यकार यहाँ उपस्थित हैं, ये आपके पिताजी का ही सौजन्य है। आप किसी तरह इन त्रिदेवों का एक सम्मिलित चित्र अवश्य खिंचवा लें--वह चित्र अपूर्व होगा। संयोगवश ऐसा हो न सका; लेकिन इसी अवसर पर इन त्रिदेवों का अलग-अलग लिया गया चित्र मेरे संग्रह में सुरक्षित है। नागा बाबा ने मेरी नवोढा पत्नी को उस दिन जयदेव विरचित 'गीत-गोविन्द' के पद्यानुवाद की एक प्रति उपहारस्वरूप दी थी।
नागार्जुन मस्तमौला फकीर थे, उन्हें कोई बंधन बाँध न पता था। आज यहाँ तो कल वहां--दिल्ली, जयपुर, भोपाल, कलकत्ता, पटना की यात्राएं वह करते ही रहते थे। दिल्ली की बसों में मेरे साथ यात्रा करते हुए उन्होंने बात-की-बात में क्षणिकाओं की रचना की थी, व्यंग-चित्र बनाये थे। चुहल करना, चुटकियाँ लेना उन्हें प्रिया भी था और उनके सहज स्वभाव का हिस्सा भी। विलक्षण मेधा और असामान्य प्रतिभा के धनी नागार्जुनजी का प्रत्युत्पन्नमतित्व सदा जाग्रत रहता था। अपने युग-सत्य को अभिव्यक्ति प्रदान करनेवाले जन-पक्षधर रचनाकार महाकवि नागार्जुन आजीवन प्रचलित आभिजात्य को विखण्डित और अस्वीकार करते रहे। ...
{शेषांश अगली किस्त में}

अनंत-यात्री नागार्जुन


वैद्यनाथ मिश्र उर्फ़ नागार्जुन ! खादी का मोटा कुरता-पायजामा, कंधे से लटकता झोला, मंझोला क़द, कृष काया, गेंहुआ वर्ण, वटवृक्ष के बरोह की तरह विषम दाढ़ी, बेबाक वाणी, मस्तमौला मन, फकीरी बाना--महाकवि नागार्जुन की यही धज थी।
सन १९७४ के बिहार आन्दोलन के दौरान मुझे नागार्जुन के निकट आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। आन्दोलन के समर्थन में जगह-जगह होनेवाली नुक्कड़ कवि-गोष्ठियों में नागार्जुन और फणीश्वर नाथ 'रेणु' के नेतृत्व में हम युवा उत्साही कवियों, साहित्यानुरागियों एक दल अनायास बन गया था। जयप्रकाशजी की प्रेरणा से पटना सिटी के चौक पर तीन युवा कवि बारह घंटे की सांकेतिक भूख-हड़ताल पर बैठे थे, उनमें एक मैं था। भूख-हड़ताल की समाप्ति पर हमें शिकंजी पिलाने के लिए नागार्जुन पधारे थे। उसके बाद जाने कितने चौराहों पर हमने उनकी अगुआई में कवितायें पढ़ी थीं, भाषण दिए थे और चायखानों में बैठकर सम-सामयिक चर्चाएँ की थीं। आन्दोलन की धार को और अधिक पैनापन देने के लिए नागार्जुन के पास एक-से-बढ़कर एक कारगर साहित्यिक हथियार थे। युवा साथियों के साथ नागार्जुन नवयुवक बन जाते थे। वह अनूठी आत्मीयता और स्नेह के साथ हमें अपने साथ ले चले थे। हम सभी उन्हें अपने प्यार से 'नागा बाबा' कहते थे। वार्धक्य की अशक्तता उन्हें रोक न पातीथी, स्वस्थ्य की नरम-गरम स्थितियां उनकी गति को अवरुद्ध न कर पाती थीं। सम्पूर्ण क्रांति के आन्दोलन में नागार्जुन मसिजीवियों के प्रखर नेता थे । उन दिनों उनकी एक कविता बहुत लोकप्रिय हुई थी, जिसका पाठ वह झूम-झूमकर और चुटकियाँ बजाकर करते थे --
''इन्दुजी, इन्दुजी क्या हुआ आपको, क्या हुआ आपको ?
बेटे को तर दिया, बोड दिया बाप को ?
क्या हुआ आपको, क्या हुआ आपको ?''
जिन नुक्कड़ कवि-गोष्ठियों में नागार्जुन ने इस कविता का पाठ किया, उनमें श्रोताओं की तालियाँ सामान रिदम पर बजती रहती थीं और श्रोता भावः-विभोर हो जाते थे। उन दिनों मेरे पूज्य पिताजी (स्व. प्रफुल्लचंद्र ओझा 'मुक्त') जयप्रकाश आन्दोलन के विचारवाही और समर्थित पत्र 'प्रजानीति' के संपादक बनकर दिल्ली जा बसे थे। पिताजी और नागार्जुनजी की पुरानी मित्रता थी, लेकिन मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि महाकवि नागार्जुन मेरे भी मित्र थे । सच तो यह है कि नागा बाबा की प्रभा-दीर्घा में जितनी पीढियों के प्रतिनिधि आए, सभी उनके मित्र बन गए। बाबा का हृदय समुद्र की तरह विशाल था। वह सबों को जोड़कर चलने के पक्षधर थे। भारत का कोई ऐसा शहर न होगा, जहाँ उनके युवा मित्रों की टोली न रही हो। वह अपनी प्रीती की डोर से सबको बांधे रखते थे।
नागा बाबा निरभिमानी व्यक्ति थे--सरल, सहज और उन्मुक्त मन के यायावर कवि ! निरंतर चलायमान, गृहस्थ होते हुए वीतरागी ! अंहकार, अभिमान उन्हें छू भी न सका था, किंतु स्वाभिमान उनमें प्रचुर मात्र में था। पटना सिटी के चौक पर हमारे दो अड्डे थे--जहाँ बाबा के साथ प्रतिदिन बैठका लगता था। एक था सिटी स्वीट हॉउस और दूसरा भज्जन पहलवान का होटल ! इंदिराजी बिहार आन्दोलन को सख्ती से कुचलने पर आमादा थीं। बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर भी बिहार की जन-भावना की अनदेखी करके सैन्य-बल से आन्दोलन को दबा देने की हर सम्भव चेष्टा कर रहे थे। कर्फ्यू के दिन थे। कर्फ्यू में जब कभी घंटे भर की ढील होती, हम अपने अड्डे से बहार निकल आते--समाचारों का संग्रहण होता, चर्चाएँ होतीं, और चौराहों पर गोलबंद होकर हम नगर्जुंजी के नेतृत्व में आन्दोलन समर्थित अपनी-अपनी कवितायें पढ़ते, नारे लगते। वे अजीब ऊर्जा और उत्साह से भरे दिन थे। एक बार कर्फ्यू में ढील का लाभ उठाकर हूँ नुक्कड़ गोष्ठी कर रहे थे। हम युवा कवियों का काव्य-पाठ समाप्त हुआ तो बाबा उठे, वह तन्मय होकर अपनी काव्य-पंक्तियाँ गाने लगे। समय पर किसी का ध्यान न था, सभी मंत्र-मुग्ध थे। एक घंटे का वक्त कब बीत गया, पता ही न चला, अचानक सायरन बजती बी.एस.ऍफ़। की गाडियां चौक पर आ पहुंचीं। देखते-देखते भीड़ गलियों में गुम हो गई। हम युवा साथी भी भागकर सिटी स्वीट हाउस में जा छिपे; लेकिन वृद्ध बाबा बी.एस.ऍफ़ के हत्थे चढ़ गए। हम सबों ने होटल के दरवाजों से झाँककर देखा--जवानों ने बाबा को पकड़ लिया था, उनमें कुछ बातें हुईं, फिर अचानक बाबा ने विचित्र मुद्रा बनाई और चुटकियाँ बजा-बजाकर नृत्य करने लगे। हमने देखा, जवान बाबा को दुत्कार रहे हैं। बाबा ठुमकते हुए धीरे-धीरे हमारे पास आ पहुंचे। हमने शीघ्रता से दरवाज़ा खोलकर उन्हें अन्दर खींच लिया। नायक के आते ही हमारी टोली होटल की कुर्सियों पर फिर से जम गई। हमारी जिज्ञासा पर बाबा ने बताया--''आज तो बांकीपुर जेल की खिचडी खानी पड़ती, लेकिन मैंने भी चालाकी से काम लिया, बी.एस.ऍफ़. वालों ने मेरा नाम पूछा, तो 'बैजनाथ मिसिर, बैजनाथ मिसिर' कहते हुए मैं चुटकियाँ बजाने और नाचने लगा। एक जवान ने कहा--'लगता है, पागल है', दूसरे ने कहा--'जाने दो'। कभी-कभी लादिमाग हो जाना कितना सुखकर होता है ! देखो, मैं उनकी पकड़ से छूटकर नाचता-ठुमकता तुमलोगों के पास आ पहुँचा !'' बाबा की बात सुनकर हम सभी हंस पड़े थे।
लेकिन, बाबा का बचा रहना बहुत दिनों तक हो न सका, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। वह अपनी कविताओं, आग उगलते व्याख्यानों और चुटकियाँ लेती, फब्तियां कसती क्षणिकाओं के कारन 'हिट-लिस्ट' में थे। उनकी क्षणिकाएं शूल की तरह चुभनेवाली थीं--
'माई ! तुम तो काले धन की बैसाखी पर टिकी हुई हो...'
और-- 'गुर्राती बैठी है वह टीले पर बाघिन,
चबा चुकी है ताज़ा नर-शिशुओं को गिन-गिन।
गुर्राती बैठी है...'
बाबा जेल चले गए तो हम युवा साथियों की शक्ति क्षीण हो गई, फिर भी हम अपनी शक्ति भर आन्दोलन की गति को तीव्रतर बनने में लगे रहे। सन ७४ के अंत में स्नातक अन्तिम वर्ष की परीक्षा देकर मैं पिताजी के पास दिल्ली चला गया।
[क्रमशः]

सोमवार, 10 अगस्त 2009

आकाश की शिल्प-सृष्टि...

[एक और यात्रा-कथा का काव्य : राजस्थान के बलोत्तरा से जालोर के रस्ते में]
यह पूरा प्रदेश बंजर है,
बलुआयी ज़मीन है,
प्रकृति की गोद में उग आए हैं
कांटे, झाडियाँ और
नुकीले छोटे-बड़े पहाड़--
आकाश की छाती में जैसे
चुपचाप धंस जाना चाहते हों !
पहाड़ काले पत्थरों के मौन हैं,
उन पर बिछी है--
धूपजली , काली, भूरी, बिछली घास,
जैसे रात्रि में निस्तब्ध उतर आनेवाली
शीत के प्रकोप से बचने के लिए
उन्होंने ओढ़ लिए हों--
फटे-पुराने कम्बल !
आकाश निर्विकार है,
उसके मन में
जाने कौन-सा विचार है !
संभवतः वह तौल रहा है--
धरती की गोद की उद्दाम सुन्दरता,
झाड़, पहाड़, काँटों की व्याकुलता !
निर-वृक्ष नंगे पहाडों के बौनेपन पर
वह मन-ही-मन हँसता है
और प्यारी वसुंधरा से यूँ कहता है--
''मेरे सूर्य से झरनेवाली ऊष्मा,
मेरी गोद से छलांग लगनेवाले
बादलों के ये छोटे-नन्हे बच्चे
तुम्हारी सुषमा बढाते हैं,
तुम्हारी सुन्दरता में चार चाँद लगते हैं...
और क्या तू नहीं जानती,
मेरी आत्मा के बगीचे में
कैसे-कैसे फूल खिल आते हैं ?
तेरे कांटे मुझे दंश नहीं देते,
मुझे गुदगुदाते हैं,
पहाड़ मुझे छूने की कोशिश में
आनंद के गीत गाते हैं,
हरी सूखी कंटीली झाडियाँ
मुझे सहलाती हैं,
मिलन की मौन प्रतीक्षा के गीत गाती हैं !
और सच है,
यह सब मुझे सहज भाते हैं,
मेरी छाया में उगने वाले हर पत्ते पर
वायु के मंद झखोरे
प्रीति-पराग के अनछुए छंद लिख आते हैं !
इसलिए प्यारी धरित्री !
तू मेरी चेरी है,
और मेरे असीम विस्तार में
बिछी हुई
यह सम्पूर्ण सृष्टि मेरी है !!''

बुधवार, 5 अगस्त 2009

आशियाना कहे तो क्या...?


रौशन हुआ है राज़, ज़माना कहे तो क्या,
हर शख्श बेनियाज़ है, फ़साना कहे क्या ?

हर दरो-दीवार सूनी, गुल हैं बत्त्तियाँ,
सहमा हुआ ज़माना, ज़माना कहे तो क्या ?

ले गए हैं पंख कौवे, गोश्त गीदड़ ले गया,
रूह एक सहमी हुई, अफसाना कहे तो क्या ?

और नारे और झंडे और घबराया वजूद--
हर साँस गिरफ्त्तार है, ठिकाना कहे तो क्या ?

बेदाग़ होना जुर्म है, पाक होने के लिए,
देती सियासत ये सबक, आशियाना कहे तो क्या ??

रविवार, 2 अगस्त 2009

समवेत स्वर में...


नक्कारखाने में
तूती की आवाज़ कोई नहीं सुनता !

उठो,
अपनी आवाज़ बुलंद करो--
एक लम्बी लडाई के लिए
कमर कसो,
पंख खोलो ,
बल को तौलो
जो मांगो, लो--
बोलो तो !

इस धर्म-युद्ध में,
महासमर में
विचार-शस्त्र के
जितने पिटारे बंद पड़े हैं
सबको खोलो;
अधिकारों और प्राप्तव्य के नाम पर
रेवारियां बाँट रहे
इस तंत्र की आँखें खोलो--
करो सिंहनाद --
समवेत स्वर में !!