आशियाना कहे तो क्या...?
रौशन हुआ है राज़, ज़माना कहे तो क्या,हर शख्श बेनियाज़ है, फ़साना कहे क्या ?हर दरो-दीवार सूनी, गुल हैं बत्त्तियाँ,सहमा हुआ ज़माना, ज़माना कहे तो क्या ?ले गए हैं पंख कौवे, गोश्त गीदड़ ले गया,रूह एक सहमी हुई, अफसाना कहे तो क्या ?और नारे और झंडे और घबराया वजूद--हर साँस गिरफ्त्तार है, ठिकाना कहे तो क्या ?बेदाग़ होना जुर्म है, पाक होने के लिए,देती सियासत ये सबक, आशियाना कहे तो क्या ??
6 टिप्पणियां:
एक उत्कृष्ट रचना .......आशियाना को कहे तो क्या....
हर शे’र कमाल का!! बहुत सुन्दर.लेकिन मैं इससे पहले शायद ४ ता. को पोस्ट की गई आपकी कविता ढूंढ रही थी....मिली ही नहीं मैने उसी वक्त पढ ली थी और सोचा था, आराम से टिप्पणी करूंगी....
बेदाग़ होना जुर्म है, पाक होने के लिए,
देती सियासत ये सबक, आशियाना कहे तो क्या ?? bahut khoob .
और नारे और झंडे और घबराया वजूद--
हर साँस गिरफ्त्तार है, ठिकाना कहे तो क्या ?
....Bebak abhivyakti..badhai.
हर शेर पर दाद देनी होगी इतने कंप्रेस्ड हैं की पूरा गध्य झांकता है कुछ शब्दों में.
Wah, itni dillagi se likha ki ham apke kayal ho gaye..lajwab rachna ke liye badhai.Kabhi Dakiya babu ke yahan bhi tashrif laiye na !!
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