बुधवार, 22 दिसंबर 2010

विश्वास विखंडित हुआ...

[अपेक्षाकृत थोड़ी लम्बी कविता : एक आघात की प्रतिक्रया-स्वरूप]
धनु पर चढ़ा हुआ शर
उस क्षण बहुत विकल था,
खिंची हुई प्रत्यंचा को बस
एक प्रतीक्षा थी आतुर
कब बंधन से मुक्ति मिले,
मैं निकल पडूँ संधान को,
बेध डालूं,
ध्वस्त कर दूँ
लक्ष्य के अभिमान को !

लक्ष्य बन जो खडा हुआ था
सीना ताने--
उसको भी था बड़ा भरोसा
उस धनुधर का
इतना कठोर वह क्यों कर होगा ?
जिसको उसने पाला-पोसा
मान दिया, संज्ञान दिया,
अपना संचित सब ज्ञान दिया;
वह केवल प्रत्यंचा के बल को तौलेगा,
छोड़ेगा जब वह शर को
अपनी प्रज्ञा के सारे बंधन खोलेगा !
लेकिन क्षण वह भी तो बड़ा विकट होगा,
जब शर लक्ष्य के बहुत निकट होगा !

प्रज्ञानुभूति पाने को तत्पर
खडा हुआ था लक्ष्य बना वह--
अचल पाँव थे,
निश्चल तन था
पलकें विस्फारित-सी उसकी खुली हुई थीं;
किन्तु अधीर-सी मन की गति थी--
आज परिक्षा-फल देने की अंतिम तिथि थी !

लेकिन शर में प्रचंड क्रोध था,
अग्र-भाग में उग्र-बोध था,
उसके कण-कण में अग्नि भरी थी
जैसे ज्वाल लिए तिर रही तरी थी !
किसने भर दी थी घृणा-द्वेष की चिंगारी
आज अजाने अपराधों की
सम्मुख आने की थी बारी !
लक्ष्य आत्मसमर्पण की मुद्रा में खडा हुआ था,
किन्तु एक विश्वास कील-सा
भीतर गहरे गड़ा हुआ था !

किन्तु हाय ! यह क्या ?
शर इतना भी सदय नहीं था,
बींध गया जो लक्ष्य आज--
वह कवि का निर्दोष हृदय था !!

गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

महाजाल की मछली रे...

[एक आग्रह विशेष पर लिखी हुई ये पंक्तियाँ ब्लॉग पर रख रहा हूँ ! संभव है, अप सबों को भी प्रीतिकर लगे--आ।]

महाजाल की मछली क्या तेरा तुझ पर अधिकार नहीं ?
रे काट-काट यह जाल, तभी होगा तेरा व्यापार नहीं !

यह जीवन भी तो एक नदी-सा, जिसमें हलचल है लहर-लहर,
तेज़ धार में बह जाता, बचपन-यौवन जीवन का स्वर !
धाराओं के प्रतिकूल चली तो, जय होगी तेरी हार नहीं !
महाजाल की मछली....

जग पलकों पर बिठा लिया करता है बलशाली को,
शपथ नहीं लेनी पड़ती, सत्पथ पर चलनेवाली को !
उठा नाद एक घोर कि जिसका हो कोई प्रतिकार नहीं !
महाजाल की मछली....

आँचल अगर उलझ जाए,बगिया के काँटों-शूलों में,
छुड़ा के दामन चलना होगा, सुरभि जहां हो फूलों में !
जीवन-उपवन में फूल-फूल हों, मिले राह में खार नहीं !
महाजाल की मछली...

सारे बंधन तोड़ निकल चल, मनः शान्ति के पथ पर,
स्वयं सारथी बन जा तू, चढ़ कर जीवन के रथ पर !
अधिकार छीन कर लेना होता, करता कोई उपकार नहीं !
महाजाल की मछली क्या तेरा तुझ पर अधिकार नहीं !!
रे काट-काट यह जाल...