[अपेक्षाकृत थोड़ी लम्बी कविता : एक आघात की प्रतिक्रया-स्वरूप]
धनु पर चढ़ा हुआ शर
उस क्षण बहुत विकल था,
खिंची हुई प्रत्यंचा को बस
एक प्रतीक्षा थी आतुर
कब बंधन से मुक्ति मिले,
मैं निकल पडूँ संधान को,
बेध डालूं,
ध्वस्त कर दूँ
लक्ष्य के अभिमान को !
लक्ष्य बन जो खडा हुआ था
सीना ताने--
उसको भी था बड़ा भरोसा
उस धनुधर का
इतना कठोर वह क्यों कर होगा ?
जिसको उसने पाला-पोसा
मान दिया, संज्ञान दिया,
अपना संचित सब ज्ञान दिया;
वह केवल प्रत्यंचा के बल को तौलेगा,
छोड़ेगा जब वह शर को
अपनी प्रज्ञा के सारे बंधन खोलेगा !
लेकिन क्षण वह भी तो बड़ा विकट होगा,
जब शर लक्ष्य के बहुत निकट होगा !
प्रज्ञानुभूति पाने को तत्पर
खडा हुआ था लक्ष्य बना वह--
अचल पाँव थे,
निश्चल तन था
पलकें विस्फारित-सी उसकी खुली हुई थीं;
किन्तु अधीर-सी मन की गति थी--
आज परिक्षा-फल देने की अंतिम तिथि थी !
लेकिन शर में प्रचंड क्रोध था,
अग्र-भाग में उग्र-बोध था,
उसके कण-कण में अग्नि भरी थी
जैसे ज्वाल लिए तिर रही तरी थी !
किसने भर दी थी घृणा-द्वेष की चिंगारी
आज अजाने अपराधों की
सम्मुख आने की थी बारी !
लक्ष्य आत्मसमर्पण की मुद्रा में खडा हुआ था,
किन्तु एक विश्वास कील-सा
भीतर गहरे गड़ा हुआ था !
किन्तु हाय ! यह क्या ?
शर इतना भी सदय नहीं था,
बींध गया जो लक्ष्य आज--
वह कवि का निर्दोष हृदय था !!
8 टिप्पणियां:
बेहद गहन भावाव्यक्ति
ध्वस्त कर दूँ
लक्ष्य के अभिमान को !
आनंद भैया ,कमाल है ज़बर्दस्त अध्ययन पूरी कविता में प्रकट हो रहा है
इतना कठोर वह क्यों कर होगा ?
जिसको उसने पाला-पोसा
मान दिया, संज्ञान दिया,
अपना संचित सब ज्ञान दिया;
वह केवल प्रत्यंचा के बल को तौलेगा,
छोड़ेगा जब वह शर को
अपनी प्रज्ञा के सारे बंधन खोलेगा !
दुनिया में जगह-जगह यही तो हो रहा है
किन्तु हाय ! यह क्या ?
शर इतना भी सदय नहीं था,
बींध गया जो लक्ष्य आज--
वह कवि का निर्दोष हृदय था !!
वाह वाह !बेहतरीन !
आप की कविताएं मुझे कई बार पढ़नी पड़ती हैं जो मुझे बहुत कुछ सोचने पर विवश करती हैं,जिसे पढ़ने के बाद मैं बहुत देर तक कुछ नहीं पढ़ती
बधाई !
बहुत अच्छी रचना.
I m nt sure dat i cud get da depth behind these words bt surely as a poem it is awesome :)
इतना कठोर वह क्यों कर होगा ?
जिसको उसने पाला-पोसा
मान दिया, संज्ञान दिया,
अपना संचित सब ज्ञान दिया;
वह केवल प्रत्यंचा के बल को तौलेगा,
These lines r really impressive.. kisi apne ko samne pa k bhi achal aur nischal rehna vikal kar deta h :)
... bahut sundar ... saargarbhit rachanaa !!!
आज बड़े दिनों बाद बड़ी देर से इस ’मुक्ताकाश’ में विचरण करता फिर रहा हूँ एकदम फुरसत में...
सोचा था पिछली कुछ पोस्टों को पढ़कर इस अद्यतन पोस्ट पर आपका हाल भी पूछूँगा....किंतु कविता जो किसी आघात की प्रतिक्रिया में उपजी है और आखिरी पंक्ति जब स्तब्ध कर गयी है एकदम से, पहली प्रतिक्रिया यही हुई कि कास मेरे पास आपका मोबाइल या फोन नंबर होता तो आपको तत्काल फोन कर पूछता कि आप कैसे हैं?
समस्त शुभकामनाओं सहित...इसी उम्मीद में कि अगले साल की फुरसतें मुझे लगातार इस ’मुक्ताकाश’ में विचरण करती देती रहेंगी।
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