बुधवार, 22 दिसंबर 2010

विश्वास विखंडित हुआ...

[अपेक्षाकृत थोड़ी लम्बी कविता : एक आघात की प्रतिक्रया-स्वरूप]
धनु पर चढ़ा हुआ शर
उस क्षण बहुत विकल था,
खिंची हुई प्रत्यंचा को बस
एक प्रतीक्षा थी आतुर
कब बंधन से मुक्ति मिले,
मैं निकल पडूँ संधान को,
बेध डालूं,
ध्वस्त कर दूँ
लक्ष्य के अभिमान को !

लक्ष्य बन जो खडा हुआ था
सीना ताने--
उसको भी था बड़ा भरोसा
उस धनुधर का
इतना कठोर वह क्यों कर होगा ?
जिसको उसने पाला-पोसा
मान दिया, संज्ञान दिया,
अपना संचित सब ज्ञान दिया;
वह केवल प्रत्यंचा के बल को तौलेगा,
छोड़ेगा जब वह शर को
अपनी प्रज्ञा के सारे बंधन खोलेगा !
लेकिन क्षण वह भी तो बड़ा विकट होगा,
जब शर लक्ष्य के बहुत निकट होगा !

प्रज्ञानुभूति पाने को तत्पर
खडा हुआ था लक्ष्य बना वह--
अचल पाँव थे,
निश्चल तन था
पलकें विस्फारित-सी उसकी खुली हुई थीं;
किन्तु अधीर-सी मन की गति थी--
आज परिक्षा-फल देने की अंतिम तिथि थी !

लेकिन शर में प्रचंड क्रोध था,
अग्र-भाग में उग्र-बोध था,
उसके कण-कण में अग्नि भरी थी
जैसे ज्वाल लिए तिर रही तरी थी !
किसने भर दी थी घृणा-द्वेष की चिंगारी
आज अजाने अपराधों की
सम्मुख आने की थी बारी !
लक्ष्य आत्मसमर्पण की मुद्रा में खडा हुआ था,
किन्तु एक विश्वास कील-सा
भीतर गहरे गड़ा हुआ था !

किन्तु हाय ! यह क्या ?
शर इतना भी सदय नहीं था,
बींध गया जो लक्ष्य आज--
वह कवि का निर्दोष हृदय था !!

गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

महाजाल की मछली रे...

[एक आग्रह विशेष पर लिखी हुई ये पंक्तियाँ ब्लॉग पर रख रहा हूँ ! संभव है, अप सबों को भी प्रीतिकर लगे--आ।]

महाजाल की मछली क्या तेरा तुझ पर अधिकार नहीं ?
रे काट-काट यह जाल, तभी होगा तेरा व्यापार नहीं !

यह जीवन भी तो एक नदी-सा, जिसमें हलचल है लहर-लहर,
तेज़ धार में बह जाता, बचपन-यौवन जीवन का स्वर !
धाराओं के प्रतिकूल चली तो, जय होगी तेरी हार नहीं !
महाजाल की मछली....

जग पलकों पर बिठा लिया करता है बलशाली को,
शपथ नहीं लेनी पड़ती, सत्पथ पर चलनेवाली को !
उठा नाद एक घोर कि जिसका हो कोई प्रतिकार नहीं !
महाजाल की मछली....

आँचल अगर उलझ जाए,बगिया के काँटों-शूलों में,
छुड़ा के दामन चलना होगा, सुरभि जहां हो फूलों में !
जीवन-उपवन में फूल-फूल हों, मिले राह में खार नहीं !
महाजाल की मछली...

सारे बंधन तोड़ निकल चल, मनः शान्ति के पथ पर,
स्वयं सारथी बन जा तू, चढ़ कर जीवन के रथ पर !
अधिकार छीन कर लेना होता, करता कोई उपकार नहीं !
महाजाल की मछली क्या तेरा तुझ पर अधिकार नहीं !!
रे काट-काट यह जाल...

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

निःशब्द की पहचान...

कभी-कभी सन्नाटों में
खामोश पत्थर भी चीखते हैं,
हवाएं सीटियाँ बजाती हैं,
पत्ते मीठा राग सुनाते हैं,
वर्षा की बूँदें संगीत का
अतीन्द्रिय सुख देती हैं,
फूलों की पंखुड़ियां
हवा की लय पर थरथराती हैं
और बहुत कुछ अनकहा कह जाती हैं !
मनुष्य अपनी चेतना के
श्रवण-रंध्रों से उन्हें सुनता है,
मन में गुनता है
और इस अपूर्व सुख-सृष्टि में रमा रहता है !

लेकिन निःशब्द स्वरों को
सुनना-पढ़ना आसान नहीं होता !
आँखें बहुत कुछ बोलती हैं
हम उसे सुन नहीं पाते,
मुद्राएँ जो व्यक्त करती हैं
उन्हें हम समझ नहीं पाते,
लिखी-छपी इबारतें भी
जो कहती हैं, कहना चाहती हैं
उन्हें हम ठीक-ठीक पकड़ नहीं पाते
और सच मानिए,
अभिप्राय की तह तक
ज्यादातर पहुँच नहीं पाते !

सोचता हूँ,
जो मौन की भाषा समझ नहीं पाते,
वे लिखे हुए को भी कितना समझेंगे,
दृश्य को अदृश्य से किस तरह जोड़ेंगे ?
अलग-अलग रंगों के चश्मे से
अपनी ही आँखें फोड़ेंगे !

लेकिन बहुत कुछ ऐसा है
जो रचा नहीं गया
और मुझसे ये कहे बिन रहा नहीं गया
कि शब्द और मौन का द्वंद्व पुराना है,
सन्नाटे का भी अपना एक संगीत है,
छंद है, गाना है !

लेकिन सच है,
सब कुछ कहा नहीं जा सकता,
शब्दों के सांचे में
समष्टि को बांधा नहीं जा सकता !
लेकिन सच ये भी है कि
आज की भीड़-भरी
और शोर-गुल से थरथराती दुनिया में
मौन का दर्शन समझ पाना
सचमुच, आसान नहीं है,
कोलाहल में
निःशब्द की पहचान नहीं है !!

सोमवार, 1 नवंबर 2010

दिन ढला नहीं था, रात हुई...

पल में विधि ने सब बदल दिया,
ये कैसी सौगात हुई ?
दिन ढला नहीं था, रात हुई !

हर क्षण जो अपने पास रहे,
सब चले गए, जो साथ रहे,
पलकों पर ठहरे हुए ज्वार की
रह-रहकर बरसात हुई ! दिन ढला नहीं था...

कल का सूरज जब आएगा,
किरणें सतरंगी लाएगा,
धूप चढ़ेगी, फैलेगी--
वह डाल-डाल औ' पात हुई ! दिन ढला नहीं था...

जब टूटे तारे चमकेंगे,
अम्बर में छटा बिखेरेंगे,
चकित नयन सब देखेंगे--
यह मन की मन से बात हुई ! दिन ढला नहीं था...

साहस के होते पाँव बहुत,
पथ में मिल जाती छाँव बहुत,
राह मिलेगी चलने पर,
यह बात अबूझी ज्ञात हुई ! दिन ढला नहीं था...

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

तीन क्षणिकाएं...

होना क्या ज़रूरी है ?

चेतना के शब्द लिखने के लिए
अचेत होना पड़ता है ।
अचेत होने के लिए
होना क्या ज़रूरी है ?

कोरी किताब

दावात ने लिखना शुरू किया,
कलम स्याही देती रही,
पुस्तक के पृष्ठों पर
अक्षर
उगे ही नहीं ।

फुर्र से...

मेरी शाख पर बैठे
कुछ परिंदे;
उन्होंने बातें कीं,
चोंच लड़ाई,
मुंह से मुंह में दाने बदले
मैंने जब उनसे कहा--
मेरी टहनी थामे रहना
कसकर--
आँधियों का अंदेशा है;
वे उड़ गए
फुर्र-से....!

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

दोस्ती की दरारें...

गहरा प्रेम प्रदर्शित करते हुए
उसने मुझे अपने पास बुलाया,
मेरा हाथ अपने हाथों में लिया,
फिर अपने तेज़ औज़ार से
मेरे नाखून काट डाले।
शायद वह प्रेम के बीच
कोई अंकुश नहीं रहने देना चाहता था ।

मैंने कोई विरोध नहीं किया,
काल-चक्र से लिपटे
प्रेम की गति तीव्रतर होती गई,
हंसते-हँसते
उसने मेरी उंगलियाँ काट दीं,
फिर मेरे हाथों पर भी
अपने औजारों का जंग छुडाया,
मैं हाय-हाय कर उठा !

पास ही प्रगतिशील विज्ञान खड़ा था,
मुस्कुरा कर
उसने मुझे पास बुलाया,
कहा,
अरे रे ! रोता क्यों है ?
'ला, मैं प्लास्टिक के हाथ
लगाए देता हूँ ...'

मैं चिल्लाता हुआ
भाग खड़ा हुआ--
'नहीं, नहीं,
अब और दोस्ती नहीं .... !'

रविवार, 12 सितंबर 2010

समाधान ही विराम बन गया है...

सांप-सी रेंगती नदी के पास
मैं आज भी खाली हाथ
खड़ा हूँ !
उजाले का विश्वासघात
और अंधेरों का सपना
मैं बहुत पीछे छोड़ आया हूँ !
इस रुआंसी हो आयी शाम में
पाकड़ की टहनी से लटके
किसी चमगादड़ की तरह
उलटबांसियों-सी ज़िन्दगी का
ज़हर मैंने पिया है
और घूरे पर फ़ेंक आया हूँ
अपना भाग्य...
और याचना की तमाम कुंठाएं
उस रूपसि के चरणों पर
रख आया हूँ,
जिसने मेरी सारी भावनाओं को
संबोधनहीन स्नेह के नाम पर
कैद कर लिया है !

न जाने कौन-से लुत्फ़ के लिए
जिसने मेरे विश्वास को ज़हर
और अपने स्नेह को अमृत कहा है--
उस सम्मिश्रण को विष जानकार भी
मैंने पिया है !
लेकिन एक प्रश्न
आज भी ज़िंदा है;
सांप-सी रेंगती और
अनिर्दिष्ट तक चली गई
उस नदी की तरह,
जिसके मुहाने पर
मैं आज भी खाली हाथ खड़ा हूँ--
पीछे छूट गए तुम्हारे तमाम
आश्वासनों की लाश पर
औंधा पड़ा हूँ !!

मस्तिष्क की पतली शिराओं में
आज भी बहती-सी लगती है वह नदी...
और मैं वहीं खड़ा देखता हूँ अपने आपको
जहां तेज़ बहाव से कट रही है
मुहाने की मिट्टी... !

इस ज़िन्दगी के दस्तावेज़ पर
वक़्त के पड़े बे-वक़्त निशान
और उस पहचान के नाम--
प्रवाहित करता हूँ ये इबारतें;
जिसमे हर शक्ल अनजान
और हर समाधान
एक विराम बन गया है !!

सोमवार, 30 अगस्त 2010

'मेरी आवाज़ सुनो...'

मित्रों !

तुलसीदासजी की पंक्ति है :

'छिति जल पावक गगन समीरा...' से रचित जो प्राण-तत्व है, वही तो मैं हूँ, आप हैं, हम सभी हैं ! इसी भाव-भूमि का अधिष्ठान बनकर जो कविता मैंने लिखी थी और जिसे मैंने ब्लॉग पर पहले कभी पोस्ट भी किया था, उसे मैंने अपनी आवाज़ में स्वरांकित किया है ! चाहता हूँ, आप भी उसे सुनें ! इसी कामना से कविता का ऑडियो क्लिप यहाँ रख रहा हूँ ! --

कृपया आप इसे सुनने की पीड़ा उठायें और पीत-प्रसन्न हों ! साभिवादन--आनंदवर्धन.


मंगलवार, 24 अगस्त 2010

शोला बुझा भी था, नहीं था...

आसमाँ पर एक सितारा ऐसा भी था,
चमक रहा था, लेकिन थोड़ा मद्धम ही था !

उसकी आँखों में सपने थे रौशन-रौशन,
वह भी तो आँखों के धोखे-जैसा ही था !

छाती में तूफ़ान लरजता रहता हरदम,
दूर-दूर तक कोई समंदर वहाँ नहीं था !

खोज रहा था वही सितारा हमदम अपना,
बादल पीछे छिपा सितारा वहाँ नहीं था !

जब भी मैंने हाथ बढाया, मिला नहीं वो,
गुस्से में था आग-बबूला जहाँ कहीं था !

हाय, समझ पर उसकी हैरानी होती है,
'मैं' भी मेरा था कि वह मेरा नहीं था !

जख्म खाकर क्या दिखाते हो मुझे,
क्या बह रहा जो खून था, मेरा नहीं था ?

राख के इस ढेर को तुम मत कुरेदो,
क्या पता शोला बुझा भी था, नहीं था !

मंगलवार, 3 अगस्त 2010

दे जाती है दग़ा....

[मित्रो ! एक अनुभव अद्वितीय को शब्द दे रहा हूँ, क्या पता, मेरे कुछ समानधर्मी मित्र मुझे और मिल जाएँ !]

भिक्षुक के कटोरे में

खनकती अठन्नी-चवन्नी की तरह

यह मायामय दिन जब बीत जाता है

और रात की चार रोटियों के बाद

जब डूबने लगती है मेरी नब्ज़,

पलकों पर गाने लगती है नींद

कोई मीठा राग--

तब कविता की बेशुमार पंक्तियाँ

मेरी अर्धचेतनावस्था पर गिरने लगती हैं;

कहती हैं मुझसे--

लिखो मुझे--

मैं कटी उँगलियों की पीड़ा हूँ,

मैं अबोध शिशु का रुदन हूँ,

मैं गीली आँखों की नमी हूँ

मैं बेबसी और भूख का विलाप हूँ,

मैं सागर-सी पीडाओं का आर्तनाद हूँ;

मैं अतीत और वर्तमान से छूटकर

प्रकट हूँ तुम्हारे अन्तराकाश में !

लिखो मुझे !!

मैं उन पंक्तियों में

आकार पाने की छटपटाहट

साफ़ देखता हूँ,

निहारता हूँ उन्हें,

कलम उठाने की चेष्टा में

तंद्रा भंग हो जाती है,

मुट्ठियों में भर आयी पंक्तियाँ

तिरोहित होने लगती हैं

और कुछ-एक शब्दों के अंकन के बाद

विलुप्त हो जाती है

हाथ आयी एक समूची कविता !

सचेत होते ही

मैं अठन्नी-चवन्नी की तरह

फिर खनकने लगता हूँ--

इस मायामय संसार में....!

सोचता हूँ,

कविता क्या अवचेतन का ही

द्वार खटखटाती है ?

और चैतन्य होते ही

दे जाती है दग़ा ??

बुधवार, 21 जुलाई 2010

सूरज के अंधेरों से...

तुम में सहस्रों सूर्य का आलोक है,
तुम हजारों जागरण के स्वर बने हो,
तुम को समय की शक्ति का आभास है;
फिर भला क्यों एक जड़ता ने
जकड़ तुम को रखा है,
एक रंगीनी शहर में क्या भरी--
तुम भूल गए जीवन क्या है
और तुम क्या हो ?
मैं समझ नहीं पाता हूँ,
इस झुलसते नीड़ में तुम क्या करोगे ?

मैं समझ नहीं पाता हूँ,
संवादहीनता का शिकार
मुर्दों का यह जुलूस
न जाने कब उस चौराहे पर पहुंचेगा--
जहाँ एक पागल कवि
एक मरी हुई चुहिया को अपनी हथेलियों में दबाये
महात्मा की प्रतिमा के नीचे खड़ा
चिल्लाता होगा,
अनजान बना, जीवन के गीत गाता होगा !

पीड़ा का, हताशा का
बोझ मत रखो हृदय पर,
ज़िन्दगी सारी, जीने की तैयारियों में मत गुजारो
दोष विष पर अब न डालो,
गरल ने ही शिव बनाया है,
आज बुद्धि की बुहारन को
क्रोध के इन अंकुशों से मत कुरेदो,
चुप रहो, यह गीत बनने दो !

लेकिन इस बहरे जुलूस को कौन सुनाये
कौन अपनी आत्मा का चीत्कार प्रकट करे,
हिम्मत साथ नहीं देती,
संज्ञाएँ शून्य हो जाती हैं
और गीत, गद्य हो जाते हैं !

लेकिन, फिर भी,
संवादहीनता का शिकार
यह समय इतना कडवा पेय है
जो मुझमे पैठ नहीं पाता है,
परिस्थियों का खुरदुरापन
और दृढ़ हो जाता है !

बुधवार, 30 जून 2010

उम्मीदों की आत्महत्या !

तुमने उसे पत्थर समझ
जोर से पटका--
कि जानो आग कितनी है !
तुमने उसे पारस समझ
जोर से रगडा--
कि जानो तुम्हारे संशयों में
सच्चाई कितनी है !
तुमने उसे स्वलिखित कविता समझ
निःशब्द पढ़ डाला--
कि जानो तुम्हारे संप्रेषणों में
अर्थपूर्ण बात कितनी है !

सच है,
तुमने उसे पत्थर समझ
जोर से पटका--
पत्थर के कण-कण बिखरे
क्षत-विक्षत हुआ था फर्श
और बिखरे कण छिटककर
दूरस्थ आत्मीय और हितैषी
बंधुओं को भी लगे थे--
तुम ही अनजान थे इससे !
तुम्हीं अनजान थे इससे
कि टूटे और तडके थे--
उनकी मन-वीणा के तार
बिखरकर रह गए थे
आशाओं के अम्बार !

पीड़ा थी--
असह्य पीड़ा,
बोझिल था मन,
विथकित और असहाय था--
प्रकृति का तन !

तुम उन्हें ही टेरने लगे पहले,
उस पुनीता कि कथा
पहुंचाई थी तुमने
स्वजन पंचों के बीच--
वे सभी मूक-द्रष्टा ही रहे--
ईश्वर बने !

तभी तुमने फिर ये चाहा
कि सहेजूँ उसी पत्थर को--
समेटूं -- अंजुरी भर लूं !
छद्म वेश में,
नए आवेश में--
तुम फिर बढे...
पर हाय, नियति की रूप-रेखा,
जिसे तुमे पत्थर समझ
फर्श पर था जोर से पटका--
वह तो स्फटिक रत्न था,
कण-कण बिखरकर
वह भी अपनी नियति पर स्तब्ध था !

तुमने उसे पत्थर समझकर
था जोर से पटका
और विधाता ने तुम्हारे हाथ से
यूँ ही अचानक
जो मिला था रत्न--
वह झटका !!

सोमवार, 21 जून 2010

सारी हदें बढ़ने लगी हैं ...

[ग़ज़लनुमा]

गुमशुदा लाशें लहरों से ये कहने लगी हैं --

क्यों हवाएं आज परेशान-सी रहने लगी हैं !


वतन की हर गली में हादसों की क्या कमी थी,

सौहार्द्र की इन सीढ़ियों पर चींटियाँ चढ़ने लगी हैं !


वे जल-समाधि पा गए जो उम्र भर जलते रहे,

नाशुक्र आँखें आज फिर क्यों इस तरह बहने लगी हैं ?


हमारी गमगुसारी के लिए इस तंत्र में हलचल हुई,

मुआवज़े को ये कतारें फिर वहीँ लगने लगी हैं !


क्यों फरारों के लिए वारंट जारी कर दिए--

इन तमाशों को भला क्यों पीढियां सहने लगी हैं ?


हादसों के सिलसिले अब हद से ज्यादा हो गए,

इस 'बड़े' जनतंत्र में सारी हदें बढ़ने लगी हैं !!

सोमवार, 31 मई 2010

परती पर परिकथा लिखनेवाले शिल्पी :'रेणु'

[समापन किस्त]

स्कूल-कालेज तो आन्दोलन की आंधी में बंद पड़े थे, स्नातक अंतिम वर्ष की मेरी परीक्षा भी डेढ़ वर्ष बाद हुई थी। हम युवा साथियों के पास पर्याप्त समय था। हम पटना सिटी के बिहार हितैषी पुस्तकालय और पटना की सिन्हा लाइब्रेरी के चक्कर काटते, किताबें लेते और खूब पढ़ते। उन्हीं दिनों रेणुजी के कथा-संसार का मैंने परिभ्रमण किया था। उनकी कहानियों और उपन्यासों ने मुझे बाँध लिया था। परती पर परिकथा लिखने की क्षमता और पात्रता तो बस रेणुजी की ही थी। उनका उपन्यास 'परती परिकथा' पढ़कर मैं अभिभूत हुआ था। उनकी कहानियों में मिटटी की सोंधी महक थी, जो मन-प्राण पर छा जाती थी। उनकी कथा-यात्रा अनेक पडावों को पार करती, गाँव की गलियों से राजपथ और महानगरों तक पहुंची थी। उन्होंने पर्याप्त यश अर्जित किया था, प्रतिष्ठा पायी थी, किन्तु पद-प्रभाव को हमेशा अपने से दूर धकेलते रहे थे। विशिष्ट होकर भी वह सामान्य बने रहना पसंद करते थे। जाने किस चिकनी मिटटी का बना था वह शब्दों का शिल्पी कि अपनी चमक पर और कोई रंग चढ़ने ही न देता था। रेणुजी अनूठे रचनाकार तो थे ही, विलक्षण तत्त्वदर्शी भी थे। भावों-मनोभावों की गहरी पहचान थी उन्हें !
सन १९७४ में स्नातक अंतिम वर्ष की परीक्षा देकर मैं पिताजी के पास दिल्ली चला आया था। ७५ अगस्त में अपनी पहली नौकरी पर मैं स्वदेशी कॉटन मिल्स, कानपुर चला गया। रेणुजी से फिर मिलना नहीं हुआ। नागार्जुनजी तो यदाकदा दिल्ली आ जाते थे और पिताजी से मिलने घर पधारते थे, लेकिन रेणुजी स्वस्थ्य कारणों से पटना की सीमा में ही बद्ध हो गए थे। उनके अंतिम दिन कष्ट और कठिनाइयों में बीते। कुछ समय बाद समाचार-पत्रों से और पिताजी के पास आनेवाली डाक से हमें पता चला था कि रेणुजी गंभीर व्याधियों से ग्रस्त होकर पटना मेडिकल कालेज अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती किये गए हैं । मैं अपनी नौकरी से बंधा था, मन मसोस कर रह गया । सन १९७६ के अंत में कानपुर से स्थानांतरित होकर मैं पुनः पिताजी के पास दिल्ली चला आया। रेणुजी ने इस बीच कई बार घर-अस्पताल की यात्रा की। उनका स्वस्थ्य दिनों-दिन गिरता जा रहा था।
सन १९७७ के प्रारंभिक दिनों में कभी अज्ञेयजी ने पिताजी से कहा था--"रेणुजी की हालत अच्छी नहीं है। सोचता हूँ, पटना जाकर उनसे मिल आऊं। आप भी चार-पांच दिनों का वक़्त निकालें, तो आपके साथ चलना मुझे अच्छा लगेगा।" लेकिन पिताजी कार्यालयीय व्यस्तता के कारण पटना नहीं जा सके। अज्ञेयजी अकेले ही गए और रेणुजी से अस्पताल में मिलकर दिल्ली लौट आये। उन्होंने पटना से लौटकर पिताजी को बताया था कि 'रेणुजी के जीवन की अब बहुत आशा नहीं करनी चाहिए। व्याधियों ने उन्हें अपनी गिरफ्त में ले लिया है, उससे उनका उबर पाना मुश्किल लगता है।' अज्ञेयजी की आशंका निर्मूल नहीं थी। थोड़ा ही समय बीता था कि अप्रैल १९७७ में हमें रेणुजी के महाप्रस्थान का दु:संवाद मिला। हम सभी शोक-विह्वल थे और अपनी-अपनी स्मृतियों में उन्हें निहार रहे थे।
अब तो लंबा अरसा गुजर गया है, लेकिन स्मृति-शेष हुए रेणुजी की जब भी याद आती है, अथवा मैं राजेंद्र नगर के गोलंबर से गुजरता हूँ, तो वृत्ताकार बने उन भवनों के चतुर्थांश की नींव मुझे दीख जाती है और नींव से निकली मिटटी-रेत पर रेणुजी की 'परती परिकथा' साकार रूप लेती नज़र आती है। 'परती परिकथा' की कथा-भूमि तो अन्यत्र है, किन्तु उस कथा का अनूठा रचनाकार मेरे बाल-मन में संजोई हुई नींव में आज भी कहीं बिखरा पडा लगता है मुझे.... ।

परती पर परिकथा लिखनेवाले शिल्पी : 'रेणु'


[तीसरी कड़ी]

किशोरावस्था की दहलीज़ पर कर जब मैं युवा हुआ और महाविद्यालय में प्रविष्ट हुआ तो दो वर्षों के बाद ही बिहार आन्दोलन की गर्म हवाओं में पूरा प्रदेश तपने लगा था। सर्वत्र हिंसक और अहिंसक अवरोध जारी था। हम नवयुवकों की टोली महाकवि नागार्जुन की अगुआई में नुक्कड़ कवि-गोष्ठियां करती चलती थी। कितने उत्साह और ऊर्जा से भरे दिन थे वे ! हम दिन भर एक नुक्कड़ से दूसरे नुक्कड़ का परिभ्रमण करते और जन-जागरण का अभियान चलाते। बीच-बीच में जब भी अवकाश मिलता, हम सभी पटना के कॉफ़ी हाउस यां कॉफ़ी बोर्ड की शरण लेते। उन दिनों ये दोनों संस्थान आन्दोलन के युवा नेताओं, प्रबुद्ध नागरिकों, रचनाधर्मी युवा साथियों के प्रमुख अड्डे थे। वहीँ आन्दोलन की दशा-दिशा पर गहन विचार-विमर्श होता और आगे की रणनीति तय होती थी। वहाँ एक कप कॉफ़ी का मतलब था--एक घंटे का विश्राम ! कॉफ़ी हाउस की प्रत्येक बैठक में रेणुजी अनिवार्य रूप से उपस्थित रहते थे। चर्चाओं का दौर चलता, कॉफ़ी पर कॉफ़ी पी जाती और हम युवा रचनाकार उत्साहपूर्वक आन्दोलन-समर्थित अपनी-अपनी रचनाएँ उन्हें सुनाते। रेणुजी और नागार्जुंजी पूरे मनोयोग से कवितायें सुनते और आवश्यक संशोधन-परिमार्जन की सलाह देकर हमारा मार्गदर्शन-उत्साहवर्धन करते। जिस रचना को उन दोनों की स्वीकृति मिल जाती, वह नुक्कड़ कवी-गोष्ठियों में पढ़ी जाती। मेरी एक कविता सुनकर रेणुजी ने खूब चुटकी ली थी। उस कविता का कुछ अंश ऐसा था --

"सचमुच, आम के मंजर में
वह खुशबू भी नहीं है,
उन्नीस वर्षीया वह,
जो मेरे दरवाज़े के कुएं से
रोज़ पानी भरने आया करती थी;
सुना है, रात उसका बापू
अधमरा घर लौटा है,
उसके शरीर पर नीले निशान हैं,
कमर में बूटों से कुचले जाने की मचक है,
लेकिन, मैं सिगरेट के धुंए को
आँखों से हटाकर
किसी की तलाश कर रहा हूँ,
मेरी चुहलबाजियों पर
किसी ने कर्फ्यू का ताला लगा दिया है... ।"

पूरी कविता सुनकर रेणुजी ने कहा था--"जहाँ न्याय की आवाज़ को बेरहमी से कुचला जा रहा हो, वहाँ तुम्हें अपनी चुहलबाजियों की फिक्र है !" आपसी विमर्श के बाद उन्होंने पुनः कहा था--"कविता के बिम्ब-प्रतीक अच्छे हैं और सबसे बड़ी बात यह कि आन्दोलन के इस संघर्ष-काल का एक भयावह चित्र तो कविता श्रोताओं के सामने रखती ही है। सच है, इस शासन की बर्बरता ने युवा-मन की चुहलबाजियों पर भी कर्फ्यू का ताला तो लगा ही दिया है।".... इतना कहकर वह हंस पड़े थे और मैं संकुचित हो उठा था। याद आता है कि चुहल की बात पर नागार्जुनजी ने भी चुटकी ली थी।

मैं और मेरे मित्र धूमपान की आदत के कारण रेणुजी से नज़रें बचाकर बैठते थे। हमारा यह लिहाज़ और सहज संकोच कॉफ़ी हाउस में हमारे लिए संकट का कारण बना रहता था। नागार्जुन जी से मिली छूट का लाभ उठाते हुए हम सभी उनसे बेतकल्लुफ हो गए थे, किन्तु रेणुजी की तेजस्विता और प्रभा-मंडल के सम्मुख हम स्वतन्त्रता लेने का दुस्साहस नहीं कर पाते थे। उन्होंने इस स्थिति को भांप लिया और एक दिन हम सबों से कहा--"नागार्जुनजी तो मेरे भी बुजुर्ग हैं, जब आप उनके सामने स्मोक कर सकते हैं, तो मेरा लिहाज़ क्यों ? मैंने तो स्वयं यह व्यसन पाल रखा है।" रेणुजी की सहजता और सरलता के प्रति कृतज्ञ होते हुए भी हम उनके खुले आमंत्रण का लाभ उठाने की हिम्मत कभी न जुटा सके। मेरे सामने तो बाल्य-काल के दृश्य उठ खड़े होते थे, जब पिताजी के लिहाज़ में रेणुजी अपनी सिगरेट बुझाने को व्यग्र-आतुर हो उठते थे--यह स्मरण भी मुझ पर अंकुश रखता था।
[अगली कड़ी में समापन]
(मेरे विवाह के बाद 'वधू-स्वागत' में आये महाकवि नागार्जुन, १८-११-१९७८ का चित्र)

परती पर परिकथा लिखनेवाले शिल्पी : 'रेणु'

[गतांक से आगे]

रेणुजी के अद्वितीय कथा-लेखन से सारा देश परिचित है, किन्तु बहुत कम लोग जानते हैं कि 'मैला आँचल' जैसे अप्रतिम आंचलिक उपन्यास ने उनकी लेखनी से कहाँ, किस भूमि पर जन्म पाया था। यह तब की बात है, जब मैं एक अबोध शिशु था और अपनी ननिहाल (पटना सिटी में अवस्थित विशाल परिसरवाली खजांची कोठी') में रहता था । पटना सिटी के मंगल तालाब के किनारे एक सरकारी अस्पताल था। राजेंद्र नगर के फ्लैट में आने से बहुत पहले रेणुजी उसी परिसर के एक आवासीय फ्लैट में निवास करते थे। उन फ्लैटों और मेरी ननिहाल के विशाल आहाते के बीच एक दुर्बल नाला था। रेणुजी अपने फ्लैट के पीछे और पिताजी आहाते के छोर पर जा खड़े होते, तो नाले के अवरोध के बावजूद दोनों आसानी से बातें कर सकते थे। रेणुजी से पिताजी का संपर्क-सम्बन्ध उन प्रारंभिक दिनों का था। पिताजी बताते थे कि मंगल तालाब के उसी छोटे से फ्लैट में रहते हुए रेणुजी के मनःलोक में 'मैला आँचल' के स्फुल्लिंग चमके थे और वहीँ उन्होंने उस अनूठे उपन्यास की रचना की थी।
जब मैं थोड़ा बड़ा हुआ और रेणुजी के लिखे को पढने-समझने लायक हुआ, तो विस्मय-विमुग्ध हो उठा। जिनके घर में मैं शैतानियाँ किया करता था, जिनके कुत्ते को नाहक परेशान किया करता था, वह रेणुजी कितने प्रतिभावान और सरस कथा-लेखक हैं--यह जानकार अपने बालपन की नादानियों का मुझे क्षोभ भी हुआ था; लेकिन तब, मेरा मुझ पर जोर भी कहाँ था ! किराए के मकान को बार-बार बदलने के कारण मेरे पिताजी का आवासीय पता रह-रहकर बादल जाता था। सन १९६१ के अंत में हम श्रीकृष्ण नगर के २३ संख्यक मकान में चले गए थे। राजेंद्र नगर से श्रीकृष्ण नगर की दूरी अधिक थी। अब रेणुजी से साप्ताहिक मुलाकातों में विक्षेप होने लगा था। रेणुजी ही कभी-कभी हमारे घर आ जाते और पिताजी से उनकी लम्बी आकाशवाणीय वार्ताएं हुआ करती थीं । अज्ञेय जी की तरह ही रेणुजी भी गंभीर, किन्तु मस्त मन के यायावर कथाकार थे। उनकी सपनीली आँखों में हमेशा कोई कथा-फलक तैरता रहता था। प्रकृत्या बोलते वह भी कम थे, लेकिन जब बोलते थे, दृढ़ता से बोलते थे। बंधन उन्हें प्रिय नहीं था। स्वछन्द जीवन और लेखन उन्हें रास आता था। हाँ, एक बात उन्हें अज्ञेय जी से किंचित अलग रखती थी--आभिजात्य संस्कारों में पाले-बढ़े अज्ञेय जी अपनी सज-धज और परिधान के प्रति बड़े सजग-सावधान थे और इसके ठीक विपरीत रेणुजी बिलकुल बेफिक्र ! बाद के दिनों में ये बेफिक्री और बढ़ती गई थी। ये बात और है कि बाल्य-काल में मैंने उन्हें सूत-बूट और टाई में भी देखा है। घर में वह ज्यादातर चारखाने कि लुंगी और बनियान पहना करते थे।
एक दिन अचानक ही रेणुजी ने आकाशवाणी की सेवा से छुट्टी पा ली थी और कुछ समय बाद पटना-बम्बई की यात्राओं में व्यस्त रहने लगे थे। उनकी एक कहानी 'मारे गए गुलफाम' पर फिल्म का निर्माण हो रहा था। वह उसी सिलसिले में बम्बई की यात्राएं किया करते थे। अब उनसे मिलना-जुलना कम हो गया था। बाद में वह चलचित्र 'तीसरी कसम' के नाम से जनता के सम्मुख आया। सेल्युलाइड पर वैसा कलात्मक चित्र मैंने दूसरा नहीं देखा। लेकिन, बंबई की रंगीन दुनिया भी उन्हें बाँध न सकी। वह अपनी जड़ और ज़मीन से जुड़े रहे--और अंततः पटना लौट आये।
[क्रमशः]

शनिवार, 29 मई 2010

परती पर परिकथा लिखनेवाले शिल्पी : 'रेणु'

[पहली किस्त]

तब मैं बहुत छोटा था--चौथी कक्षा का छात्र ! जिस मोहल्ले में रहता था, वह पटना का बहुत पुराना और प्रसिद्ध मुहल्ला है--कदमकुआँ ! उसकी प्रसिद्धि इसलिए भी थी कि वहाँ लोकनायक जयप्रकाश नारायण का आवास था और उसी मोहल्ले में कई प्रसिद्ध साहित्यकारों का जमावड़ा था। कदमकुआँ से जो सड़क पूरब की ओर जाती थी, वह राजेंद्र नगर के चौराहे तक ले जाती थी। चौराहे के गोलंबर के चारो कोणों पर बड़े-बड़े गड्ढे खोदे जा रहे थे, वहाँ भवन-निर्माण की योजना थी। वृत्ताकार बननेवाले उन भवनों के लिए ही नींव खोदी जा रही थी, जिससे पीली मिट्टी और सोने-जैसी पीली बालू निकल आयी थी। बाल्यकाल की धमाचौकड़ी करता मैं प्रायः वहाँ चला जाता था और उसी बालू-मिट्टी में खेला करता था। दीपावली के दिन आये तो वहाँ की पीली और चिकनी मिट्टी तथा सोने-जैसी बालू घरौंदा बनाने के लिए हम भाई-बहन उठा लाये थे। पीली रेत को रँगकर हमने घरौंदे के आसपास की सड़कें बनाई थीं और चिकनी मिट्टी से घरौंदा तैयार किया था। उस मिट्टी के क्या कहने ! उसका रंग तो सोने जैसा था ही, उसमे लुनाई भी इतनी थी कि जिस आकार में ढालो, उसी में ढल जाने को तैयार ! गीले हाथो से ज़रा सहला दो, तो उसकी ऊपरी सतह इतनी चिकनी और चमकदार हो जाती थी कि आज का सनमाईका  भी शरमा जाए। खैर, उस घरौंदे की सुन्दरता और चमक को मैं आज तक नहीं भूल सका हूँ ! इसके कई कारण भी हैं...

बहरहाल, बचपन बीता भी न था कि राजेंद्र नगर के चौराहे से गहरी नींव और मिट्टी-बालू गायब हो गई थी और चारो कोणों पर अर्धचन्द्राकार स्वरूप में चार मंजिला इमारतें बनकर खड़ी हो गई थीं। यदि इन इमारतों के बीच से जानेवाली सड़कें हटा दी जातीं और किसी योग-विधान से उन्हें पास लाकर जोड़ दिया जाता, तो एक सम्पूर्ण वृत्त बन जाता ! पूर्वोत्तर कोण पर जो इमारत खड़ी हुई थी, उसी के (संभवतः) तीसरे तल के एक छोटे-से फ्लैट में लतिकाजी के साथ आ बसे थे-- कथाकार फणीश्वरनाथ 'रेणु'। लम्बी-छरहरी देह, नासिका पर काले फ्रेम का मोटा चश्मा--जिससे झांकती तीखी आँखें, काले घुंघराले केश--कंधे तक झूलते हुए, खालता पायजामा और लंबा कुर्ता !
पिताजी की उन पर अनन्य प्रीति थी। आकाशवाणी की सेवा में उन्हें खींच लानेवाले पिताजी ही थे। रेणुजी पिताजी का बहुत आदर-सम्मान करते थे। मुझे याद है, बाल्यकाल में मैं जब कभी पिताजी के साथ उनके निवास पर गया, वह अपनी जलती सिगरेट बुझाने को व्यग्र हो उठे। मेरे घर से उनके राजेंद्र नगर वाले फ्लैट की दूरी अधिक न थी। दो रिक्शों पर सपरिवार सवार होकर पिताजी दस मिनट में उनके फ्लैट के सामने जा खड़े होते थे। सप्ताह-दस दिनों में एक बार उनके यहाँ हमारा जाना तय था। मुझे स्मरण है, यह सिलसिला लंबा चला था। बाल-सुलभ चपलता में कभी-कभी मैं क्षिप्रता से सीढियां चढ़कर रेणुजी के द्वार पर दस्तक देता, पिताजी, माताजी और मेरी बड़ी-छोटी बहनें तथा अनुज पीछे रह जाते। रेणुजी द्वार खोलते ही पूछते--"अरे ! तुम हो ?... और मुक्तजी ?" मैं उन्हें बताता किवह अभी सीढ़ियों पर है, तो रेणुजी 'आओ-आओ' कहते हुए उलटे पाँव लौट जाते और अपनी सिगरेट बुझा देते। हम सभी उनके अतिथि-कक्ष में बैठ जाते। लतिकाजी मेरी माता से और रेणुजी पिताजी से बातें करने में मशगूल हो जाते। रेणुजी और पिताजी की बातों में लातिकाजी जब भी शामिल होतीं, बातें बँगला में होने लगतीं। बँगला न समझने वाले हमलोग तीनों कीमुख-मुद्रा और भाव-भंगिमा निहारते रहते। हम भाई-बहन उनके घर में धमाचौकड़ी मचाया करते। वहाँ मेरे आकर्षण का प्रमुख केंद्र रेणुजी का पोषित कुत्ता था। मैं उसे चिढाता, उसके आगे-पीछे दौड़ता और सच कहूँ तो किसी हद तक उसे परेशान किया करता था। वह छोटा-सा झबरा कुत्ता भी कम चंचल न था। वह बड़ी-बड़ी छलांगें लगाता, मेरी छाती तक अपने पंजे मारता, भौंकता । मुझे उसकी ये हरकतें बहुत अच्छी लगतीं। रेणुजी को कई बार अपने कुत्ते को डपटना पड़ता था, लेकिन पिताजी की आँखों से मेरी दुष्टता छिपी न रह सकी। एक दिन उन्होंने मुझसे कहा भी था--"तुम खामख्वाह उसे परेशान किया करते हो। किसी दिन ऐसा न हो किबहुत परेशान होकर वह तुम्हें काट खाए और तुम्हारे पेट में चौदह इंजेक्शन लगवाने पड़ें।" 'पेट में चौदह इंजेक्शन' की बात मैं आज तक नहीं भूला; क्योंकि एक दिन ऐसा ही दुर्योग हुआ। शायद वह किसी छुट्टी का दिन था। हम सपरिवार रेणुजी के अतिथि-कक्ष में विराजमान थे। बड़े लोग चाय पी रहे थे और हम बच्चों को नमकीन और क्रीम वाले बिस्कुट की प्लेटें मिली थीं। वह नामाकूल झबरा मेरे सामने ही बैठा था--ज़मीन पर और मैं कुर्सी पर बैठा एक-एक बिस्कुट उसे दिखा-दिखा कर पीट रहा था। हर बिस्कुट को वह ललचाई नज़रों से देखता और दुम हिलाता। अंततः उसके सब्र का बांध टूट गया। प्लेट से उठानेवाले बिस्कुट पर अब वह मीठा गुर्राने लगा था। मैंने प्लेट का अंतिम बिस्कुट उठाकर उसकी ओर बढाया और जैसे ही वह उसे अपने मुंह में पकड़ने को उद्यत हुआ, मैंने बिस्कुट अपने मुंह में डाल लिया। झबरा उद्विग्न हो उठा था। वह उस अंतिम बिस्कुट को लेने के लिए छलांग लगा चुका था। ग्रास तो मेरे मुंह में चला गया, किन्तु झबरे के दोनों पंजे मेरी नाक और मुंह पर खरोंच दे गए। फिर तो घर में कोहराम मच गया। रेणुजी ने बड़ी फुर्ती से उठकर कुत्ते को पकड़ा और ज़ंजीर से बांध दिया। पिताजी ने हलकी डांट पिलाई और लतिकाजी ने मेरे नाक-मुंह की खरोंच पर मरहम लगाया था। खरोंच गहरी न थी, लिहाज़ा वह धीरे-धीरे मरहम से ही ठीक हो गयी और पेट में लगनेवाले चौदह इंजेक्शनो से मैं बाल-बाल बच गया। लेकिन उसके बाद श्वान-क्रीडा से मैं पूरी तरह विरत हो गया।...

[क्रमशः] (पटना रेलवे स्टेशन पर लिया गया दुर्लभ चित्र, संभवतः १९६० का; बाएं से--रेणुजी, अज्ञेयजी और मुक्तजी)

गुरुवार, 27 मई 2010

'खूब तोर नाम होई...'


[भोजपुरी के दो गीत]


{वर्ष तो याद नहीं रहा, लेकिन दस-ग्यारह साल पहले बिहार शिक्षा परियोजना, पटना ने 'मुनिया बेटी पढ़ती जाए' नाम की एक कार्यशाला का आयोजन किया था, जिसमे बिहार की आंचलिक भाषाओं में ऐसे गीत लिखे गए थे, जो ट्राइबल बेल्ट की गाय-बकरी चरानेवाली, गोबर चुननेवाली और घरों में काम करनेवाली छोटी बच्चियों को पढ़ने-लिखने की प्रेरणा दें। उस कार्यशाला में मैंने भी भाग लिया था और भोजपुरी में दो गीत लिखे थे। कार्यशाला में लिखे गए गीतों में से चुने गए गीतों को स्वरबद्ध कर हज़ारों की संख्या में ऑडियो कैसेट बानाया गया था और सुदूर गाँव-देहात में उनका वितरण किया गया था। कैसेट के 'ए' साइड का पहला गीत और 'बी' साइड का दूसरा गीत मेरा था। कैसेट के साथ मुद्रित गीतों की एक बुकलेट भी रखी गयी थी। इस बार पटना-प्रवास में वह मुझे मिल गयी अचानक। सोचता हूँ, उन दोनों गीतों को आपके सम्मुख भी रख दूं--आ।}


(१)

खूब तोर नाम होई, देखी दुनिया रे,
ककहरा के पढ़े-लिखे चल मुनिया रे !

भोरे-सांझे, रात-दिन अउरु दुपहरिया,
पढला बिना रे लागी सगरो अन्हरिया,
ठगी लीही तोहरा के सारी दुनिया रे ! ककहरा के...

गोबरो तूं पथलू, चरवलू बकरिया,
बीति जाई जिनगी चलावते चकरिया ,
मनवां के माने रहि जाई रनिया रे ! ककहरा के...

दुखवा-दरिदरा के बीति जाई दिनवां,
सांच-सांच होई तोर सब रे सपनवां,
पूरी जाई मनसा तोहार मुनिया रे ! ककहरा के...

(२)

गूरुजी दीहें सब गियान हो, किरिनियाँ लउकल,
पढ़ी-लिखी बनब बिदवान हो, किरिनिया लउकल !
अमवां के फेंड तरे माई पेठ्व्ली तनि पढ़ी-लिखी आव ,
बाबूजी कहले हमरा जा बेटी पढ़ के आपन ग्यान बढाव ,
ना होई जिनगी जियान हो, किरिनिया लउकल... !

खडिया-सिलेट से हम पढि के ककहरा, माई ग्यान कमाइब ,
सिच्छा प्रसार के जे बह तारी गंगाजी, हम खूब नहाइब ,
घरवो के करब कुछो काम हो, किरिनिया लउकल.... !

टोला-मोहल्ला अउरु सगरो जवार में ई लहर चलल बा,
घर-घर के मुनियाँ बेटी, छोटकी बबुनिया सभे पढ़े लगल बा,
जानता ई दुनियाँ-जहान हो, किरिनियाँ लउकल .... !!

मंगलवार, 4 मई 2010

सच, 'बौरा डूबन डरा...'

[आत्म-निरीक्षण]

एक दिन मुझसे कहा उन्होंने--
'आओ मेरे साथ,
सागर में उतरो,
गहरी भरकर सांस
यार, तुम डुबकी मारो;
क्या जाने सागर कब दे दे--
रंग-बिरंगे रत्न और
एक सच्चा मोती !'

चला गया मैं सागर-तट पर
रहा सोचता बहुत देर तक--
साहस संचित कर
बहुत-बहुत श्रम करना होगा,
गहरी साँसें भर,
सागर में मुझको गहरे धंसना होगा !
श्रम की आकुल चिंता से
भय-भीरु बना मैं--
रहा किनारे बैठ !

सागर ने अपने गर्जन-तर्जन से
मुझको थोड़े शब्द दे दिए,
तट पर छोड़ गया जो सागर--
चिकने पत्थर, कंकड़-सीपी
चुनकर उनको मैंने अपनी
अंजुरी भर ली ;
उसने मुझको मुद्राएँ दीं,
उच्चावच लहरों ने मुझको संज्ञाएँ दीं,
सम्यक शोध-समन्वय का
अद्भुत सौम्य विचार दिया,
भाव-बोध का सचमुच उसने
मुझको पारावार दिया !

इस जीवन में
रहा खेलता उनसे ही मैं !
जितना मिला,
उसीसे मैं तो तृप्त रहा !
जुगनू-सा मेरा जीवन यह
बुझा-बुझा-सा दीप्त रहा !

बस थोड़े-से शब्द,
चिकने पत्थर, कंकड़-सीपी,
अनछुई मुद्राएँ
अनाहत संज्ञाएँ,
भाव-बोध और सद्विचार--
इतना कुछ, क्या कम है ?
वैसे, जीवन से मैंने जाना--
करना हर क्षण श्रम है !

गहरे नहीं उतरने का
मुझको क्षोभ नहीं है !
मन पर मेरे अवसादों का
बिलकुल बोझ नहीं है !!

किन्तु, बन्धु !
सच है,
मैं 'बौरा डूबन डरा...
जो रहा किनारे बैठ !'

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

शब्दों में सपने...

[एक बाल-कविता]


मैं प्रकाश में चला अकेला,
यह जग भी सपनों का मेला,
दृश्य अपरिमित, स्वप्न अनोखे,
किसको देखें, आँख चुरा लें !
शब्दों में सपने लिख डालें !!

बुढ़िया कात रही थी सूत,
सबको दिखा रही थी भूत,
उसने व्यंजन बहुत बनाया,
सब बच्चों को बुला खिलाया !

बहुत मिले तो थोडा खा लें !

शब्दों में सपने...

स्वप्न बुरे भी हो सकते हैं,
मन में विष को बो सकते हैं,
दुःख में सब कुछ खो सकते हैं,
सुख में भी तो रो सकते है ?

दुह्स्वप्नों का बोझ न पालें !
शब्दों में सपने...

आखें मूंदो, मत कुछ बोलो,
अंतर्मन की आँखें खोलो,
पंख पसारो, नभ में डोलो,
सागर-तट से नौका खोलो !
सब मिल स्वर्ग-पाताल खंघालें !
शब्दों में सपने....

शाखों पर पत्ते डोल रहे हैं,
आपस में कुछ बोल रहे हैं,
फूलों पर तितली नहीं दीखती,
गर्म हवा है खूब चीखती !
मौसम में कैसे मधु-रस डालें ?
शब्दों में सपने...

चिनगारी-सी बुझी कामना,
एक मिटी, फिर नयी याचना,
कितने स्वप्न, सजीली आँखें,
सतरंगी किरणों-सी पांखें !
इन्द्रधनुष पर हम रंग डालें !
शब्दों में सपने...

आज धरा में है क्यों कम्पन,
काँप रहा क्यों घर का आँगन ?
अमराई में छिपा कौन है,
जाने क्यों कोकिला मौन है ?
हम साहस का बिगुल बजा लें !
शब्दों में सपने...

पौधों का एक बाग़ लगाएं,
उपवन में सुरभित फूल खिलाएं,
इस वसुधा को निर्मल कर दें,
प्रेम-प्रीति का नव स्वर भर दें !
नए छंद, नव-रस में गा लें !
शब्दों में सपने लिख डालें !!

रविवार, 18 अप्रैल 2010

मुफलिस दिन बीते...

[एक मनस्थिति का काव्य-चित्र]
गर्म हवाओं-से
मुफलिस दिन बीते...
बाँझ बनी शाम ढल आयी,
रात की धूल भरी
और फटी चादर को
बौराए मच्छर हैं सीते...
गर्म हवाओं-से .... !

तपती दोपहरी में
पिघलती कोलतार-पुती सड़कों पर
बरबस ठंढक बिखेरने की
करती है पुरजोर कोशिशें
कुल्फीवाले की घंटी की
टन ... टन ... टन !

अंतर में बहते
कुंठाओं के सोते में
डुबकियां लगाता है
बेचारा मन;
शीतलता बेस्वाद बनी जाती है;
क्योंकि
कुंठाओं के सोते तो
होते हैं गर्म !

कैसे बताऊँ कि
बूँद-बूँद कर
चौबीस घंटों के क्षण
कैसे रीते !
गर्म हवाओं-से
मुफलिस दिन बीते !!

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

बीमार चेहरों के बीच...

[एक निकट मित्र को अस्पताल से श्मशान तक पहुंचाने की व्यथा-कथा का काव्य : १८-१२-१९७३ की एक रचना]

अब वहाँ कोई नहीं है,
शब्द-सागर में पड़े काले अक्षर की तरह
सब खो गए हैं
और तुम्हारी तलाश के नाम पर
अनुपलब्धियों का एक खोखला वृत्त छोड़ गए हैं !

ज़िन्दगी का काला जुलूस
सामने गुज़र रहा है
समय के शव के साथ
तुम लिपटे हुए उसी तरह

घिसट रहे हो,
जिस तरह मिष्टान्न लिपटी
थोड़ी-बहुत मरी चींटियाँ !

कलंक के नाम पर
मेरी साधुवत्ता को ललकारने में
तुम्हें शर्म आनी चाहिए;
क्योंकि मेरी साँसों में,
मेरे शरीर के हर अणु में
विषबुझी हवाओं ने ज़िन्दगी पायी है--
स्वप्न की सुन्दरता और यथार्थ की कड़वाहट को
एक साथ ग्रहण कर
मैं नीलकंठ बन गया हूँ !
रेत के संबंधों को
संबोधन देने की कोशिश में
मैं खुद संबोधनहीन हो गया हूँ !

प्रीति की गवाही के
चिनार खड़े तकते है,
प्रेम-स्नेह-सिक्त मेरी भावनाएं
दुर्दिन की आंधी में बिखर गयीं इधर-उधर,
बह चली नाव गुलमुहर के फूलों की...
बहार की तलाश में आँखों का अंधापन जाग गया !
जो एक सपना
अंतर में उपजा था,
सुबह के तारे-सा भाग गया !

फिर वही कविता दरवाज़े पर आयी है
आँखों में अर्चना
आश्वासन की आंधी भी लाई है;
लेकिन...
लेकिन, अब वहाँ कोई नहीं है,
धूल के गुब्बार और सिमटी हुई ज़िन्दगी की आँखों में
समस्याओं का पीलापन बाकी है
और मरते हुए मरीज़ के आसपास
बिखरी दवाओं की तीखी गंध
मेरे फेफड़े में घुस रही है !

अब वहाँ कोई नहीं है,
श्मशानी सन्नाटे में
पीपल और बरगद से लटके घंट
चीखती-चिल्लाती मदहोश हवाएं
और ठिठकी हुई मेरी मायूस कविता
बदहवास आँखों से
नियति का बेतकल्लुफ मज़ाक देख रही है
और श्मशान की खिली हुई चांदनी में--
जैसे मेरी कविता नंगी हो गई है !

सच मेरे मित्र !
बीमार चेहरों के बीच
अंधेपन का अभिनय
कभी-कभी
ज़िन्दगी दे जाता है !!

रविवार, 4 अप्रैल 2010

चलो आज फिर...

[ग्रीष्म का प्रणय-काव्य]
चलो आज फिर
आशाओं की बंजर धरती पर
चाँद की चंचल और स्निग्ध छाया में
अपने जलते और जख्म भरे चहरे पर
चन्दन का ही लेप चढ़ा लें !

चलो आज फिर
गीत विरह के छोड़
प्रीति भरे उन्मुक्त पवन में
नहीं प्रणय का दाह
और नहीं अंतर की ज्वाला को भड़काने
किन्तु चलो तुम साथ हमारे
स्निग्ध प्रेम की शीतल बारिश में
अपनी अंजुरी आज बढ़ाने !

वैसे तपिश बहुत है अंतर की
औ ' आक्रोश उबलता जैसे ज्वार,
यह नहीं बाँध की तैयारी है,
यह नहीं समय की शक्ति परखने का अवसर है,
चलो आज फिर साथ हमारे--
हम अपने आंसू की शीतलता से
आज तपिश यह झूठी कर देंगे,
अंगारों की जगह तुम्हारे आँचल में हम
फूलों का अम्बार लगा देंगे !

स्नेह मनुज की स्वाभाविकता है
और मुट्ठियों में
भरे हुए जो अंगारे हैं,
उनसे भी हम प्रेम करेंगे;
हम वचन तुम्हें देते हैं--
जीवन में विश्वास भरेंगे !

जब तक आग तुम्हारे अंतर में जीवित है
सच मानो, तब तक जीवन है,
आओ मिथ्या से दूर चलें
आओ कुनैन की गोली को
शीतलता औ ' सपनों संग पी जाएँ
आओ यथार्थ की कड़वाहट के साथ-साथ
हम नीलकंठ को जीने की कोशिश करते हैं !

इसे न कहना स्थितियों से
समझौता करने की कविता है,
नहीं भला जीवन किसका संघर्षों से भरा हुआ है ?
नहीं भला दुर्दिन की हथकड़ियों में
है कौन मनुज जो बँधा हुआ है ?

हम प्रण लेते हैं,
जीवन में संघर्ष करेंगे !
जीतेंगे वह दुर्ग, तभी जीने का उद्घोष करेंगे !
लेकिन ठहरो ज़रा,
अभी घड़ियाँ बाकी हैं,
हाथों में शीतलता की मदिरा ले
आयीं किरणे बनकर साकी हैं !!

बुधवार, 31 मार्च 2010

एक दशाब्दी की कविता...

{सौवीं प्रविष्टि}

उपनगरों के देवता !
महानगर के कुम्भकर्ण की आँखों में
अब तुम भी जीने लगे हो !

शहर के कुछ आवारा छोकरों ने
शुरू कर दिया है
तुम्हें ब्लैकमेल करना,
पान की गुमटियों पर खड़े होकर
सीटियाँ बजाने में,
फब्तियां कसने में,
किसी नवयौवना को
नगरवधू की संज्ञाएं देकर पुकारने में
तुम ज़िन्दगी का चाहे जितना मज़ा लो,
इस यात्रा तुम खो गए हो--
यह निश्चित है !

भाग-दौड़ की इस कविता में
एक दशाब्दी से मैं
खुद अपने आपको तलाश रहा हूँ;
लगता है,
बंद सीलन-भरे कमरे में
बूँद-बूँद कर मैं रीत गया हूँ,
अंधे उजड्ड मौसम-सा बीत गया हूँ !

प्रेम-संबंधों की शव-यात्रा में
मुझे शामिल मत करो
इस अहसान के बदले
मैं अपनी ज़िन्दगी की
तमाम जीवित संवेदनाएं
तुम्हें भेंट कर सकता हूँ;
लेकिन, इस उपलब्धि पर
तुम जश्न मत मनाना--
इस त्याग में भी
मेरा ही स्वार्थ होगा;
क्योंकि मैं--
भावनाओं के कमजोर आंसुओं में
एक मज़बूत इरादे को जन्म दे रहा हूँ !

जब तुमने मेरी छाया के कई टुकड़ों को
बहुत सारे आवारा नाम मत पुकारा था
और रेत की दीवार समझ
मेरी भावनाओं पर
अपने दिमागी बेहया खच्चरों को
दौडाया था--
मैं तब भी चुप था,
आज भी हूँ;
भाषा को उद्गारो का
आधार मान लिया है मैंने;
क्योंकि --
महानगर की इन काली छायाओं के बीच
अखंड मौन का एक कठिन व्रत लेकर
मैं दशाब्दी से खडा हूँ !!

बुधवार, 24 मार्च 2010

ताहि बिधि 'मस्त' रहिये...


[समापन किस्त]

एक दिन पिताजी राजेन्द्र बाबू के पास पहुंचे, तो उनके आसपास अधिक भीड़-भाड़ नहीं थी। वह हलके-फुल्के मूड मे थे। संभवतः, अलभ्य-से फुर्सत के क्षण थे वे ! पिताजी और राजेंद्र बाबू के बीच वार्ता अधिकतर भोजपुरी में ही होती थी। वह शुरू हुई। पिताजी ने कहा--"जब आपके कक्ष में प्रवेश करता हूँ, तो द्वार पर लगे लकड़ी के पट्ट पर दृष्टि पड़ जाती है--उसे पढता हूँ और सोचता हूँ की बाबा तुलसीदासजी तो ज्ञानी थे; बात तो उन्होंने ठीक ही लिखी है; लेकिन इसमें आदमी का पुरुषार्थ महत्त्वहीन हो जाता है, उसके पौरुष का कोई मतलब नहीं रह जाता। वह बहुत दीन-हीन बन जाता है कि हे भगवान् ! तुम जैसे रखोगे, वैसे ही रहूंगा । मैं इसमें एक शब्द जोड़ दूंगा, तो छान्दोभंग तो हो जाएगा; किन्तु बात में मज़ा आ जाएगा ।" ['जब राउर कोठरिया में प्रवेश करेनीं, तअ दुअरा प लागल लकडिया के पट्ट पर दृष्टि परि जाला। ओकरा पढ़ेनीं अउर सोचेनीं कि बाबा तुलसीदासजी त गियानी अमदी रहले। बतिया त ठीके लिखले बाड़े, बाकिर एकरा में अदमी के पुरुषारथ एकदमे महत्त्वहीन हो जाला। ओकर पौरुष के कौनो मतलबे ना रहि जाला, ऊ बड़ा दीन-हीन बनि जाला कि हे भगवान् ! तूं जइसे रखब, ओसहीं रहब। हम एकरा में एगो शब्द जोड़ देब, त छान्दोभंग त हो जाई, बाकिर बात में मज़ा आ जाई।']

पिताजी बताते थे कि अपनी घनी और लम्बी मूंछों में राजेंद्र बाबू बड़ा मीठा मुस्कुराते थे। वैसी ही मीठी मुस्कुराहट के साथ उन्होंने पूछा--"क्या जोड़ देंगे ?" [ 'का जोर देब ?']
पिताजी ने कहा--" पहली पंक्ति तो ठीक ही है कि न हिम्मत हारिये और न प्रभु को बिसार दीजिये। दूसरी पंक्ति में--जाहि बिधि राखे राम, ताहि बिधि 'मस्त' रहिये। मैं बीच में एक शब्द 'मस्त' जोड़ देना चाहता हूँ कि हे प्रभु ! तुम जैसे भी रखो, मैं तो मस्त ही रहूँगा।" ['पहिल पंक्तिया त ठीके ह कि ना हिम्मत हार, ना प्रभु के बिसार द। दूसर पंक्तिया में--जाहि बिधि राखे राम, ताहि बिधि 'मस्त' रहिये। हम बीच में एगो शब्द 'मस्त' जोर दीहल चाह तानी कि हे प्रभु ! तूं जैसे राख, हम त मस्ते रहब।']

पिताजी कि बात सुनकर राजेंद्र बाबू ठठाकर हंस पड़े; किन्तु दो क्षण बाद ही संयत होकर गंभीर स्वर में उन्होंने काहा--"आप कह तो ठीक ही रहे हैं; लेकिन ये 'मस्त' रहना बड़ा कठिन है। यह इतना आसान नहीं है।" [रऊआ कहत त ठीके बानी, बाकिर ई 'मस्त' रहल बड़ा कठिन बा। ई एतना आसान नइखे ।']
बात आयी-गई, हो गई। पिताजी मुलाक़ात के बाद घर लौट आये, लेकिन राजेंद्र बाबू की बात उनके दिल में कहीं गहरे बैठ गई थी । सन १९५२ से १९९५ तक--४३ वर्षों के प्रसार में मैंने पिताजी के श्रीमुख से यह कथा बार-बार सुनी है, कभी किसी प्रसंग में, कभी किसी आगंतुक को सुनाते हुए, परिवारी या किसी मुलाकाती को सांत्वना देते हुए अथवा ज्ञानवर्धन के लिए हमें समझाते हुए।

राजेंद्र बाबू का कथन असंगत नहीं था। हम छोटी-छोटी तकलीफों में टूट जाते हैं, व्यथा के स्पर्श मात्र से हमारी रंगत बदल जाती है, निष्प्रभ और विदीर्ण हो जाता है हमारा मुख-मंडल--ऐसे में 'मस्त' रहने की कल्पना भी हम नहीं कर पाते। लेकिन होशगर होने के बाद से, पूज्य पिताजी से विछोह के क्षण तक, मैंने हमेशा उन्हें 'मस्त' ही देखा है। आत्यंतिक दुःख, कष्ट, पीड़ा और तनाव के क्षणों में भी मैंने उन्हें प्रसन्न और सस्मित ही देखा है। उन्होंने 'मस्त' रहने के कठिन कर्म को जाने किस योगबल से अपने लिए सरल बना लिया था--ऐसा मैं साधिकार कह सकता हूँ; क्योंकि मैं इसका साक्षी रहा हूँ !
[इति]

ताहि बिधि 'मस्त' रहिये....


[स्मृतियों की मंजूषा से एक लघु संस्मरणात्मक आलेख]

बात तब की है, जब देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ० राजेंद्र प्रसाद अपना कार्य-काल पूरा करके पटना लौट आये थे और सदाकत आश्रम में निवास करने लगे थे। तब मैं बहुत छोटा था, संभवतः पांचवीं कक्षा में पढता था। मुझसे पाँच साल छोटी बहन 'महिमा', मस्तिष्क-ज्वर की मारी हुई, अविकसित बोध की बच्ची, तो बहुत ही छोटी थी। उन दिनों उसे न जाने क्या धुन सवार रहती थी कि किसी भी आगंतुक को देखती तो झट अपने दायें हाथ की तर्जनी से उसके चरणों का स्पर्श करती और वही उंगली अपने मस्तक से लगाती। अपने इस आचरण में वह कोई भेद-भाव न करती। घर में काम करनेवाली धाय हो या धोबी, अखबारवाला हो या रिक्शेवाला, ढूधवाला हो अथवा संभ्रांत वेश-भूषावाला कोई मुलाकाती--वह सबके चरण अपने इसी कौशल से छुआ करती।

एक दिन पिताजी (पुण्यश्लोक पं० प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त') दफ्तर से जल्दी लौट आये । आते ही उन्होंने मेरी माता से कहा--"मुझे एक कप चाय दीजिये और आपलोग जल्दी से तैयार हो जाइए। सदाकत आश्रम जाना है। राजेंद्र बाबू ने मिलने के लिए सपरिवार बुलाया है।" हम सभी जितनी देर में तैयार हुए, उतनी देर में पिताजी ने चाय पी ली थी। उन्होंने अपनी कार निकाली और हम चारों भाई-बहन माता-पिताजी के साथ सदाकत आश्रम की ओर चल पड़े।

सदाकत आश्रम तो तपस्थली-सा था। वहाँ नीरव शान्ति विराज रही थी। गाँधी टोपीधारी एक कार्यपालक ने हमें सीधे पूज्य राजेंद्र बाबू के कक्ष में पहुंचा दिया। पुराने ज़माने की ऊँची पलंग पर देशपूज्य राजेंद्र बाबू पालथी लगाए बैठे थे। हम सबों ने बारी-बारी से उनके चरणों का स्पर्श किया। मेरी माता ने सबसे अंत में उन्हें प्रणाम निवेदित करने के बाद महिमा से कहा--"बाबा को प्रणाम करो बेटा ।" मेरी बहन फर्श पर खड़ी थी और राजेंद्र बाबू ऊँची पलंग पर थे। महिमा ने आँखें नीची कीं और राजेंद्र बाबू के चरण खोजने लगी; लेकिन चरण तो पालथी में दबे थे, मिलते कैसे ! महिमा संभ्रम में थी कि चरण ही नहीं हैं, तो प्रणाम कैसे करूँ ? अचानक उसने अपना सिर उठाया और तभी उसे राजेंद्र बाबू के एक पैर की उंगलियाँ पालथी से झांकती दिख गईं। उसके चहरे पर प्रसन्नता की रेखाएं खिंच आयीं। फिर उसने ज़रा भी देर नहीं की, अपनी तर्जनी से राजेंद्र बाबू के चरण को छूकर उसने अपने मस्तक से लगाया। राजेंद्र बाबू खुलकर हँसे और महिमा को फर्श से उठाकर उन्होंने अपनी गोद में बिठा लिया। हमलोग वहाँ करीब एक घंटे तक रहे। बच्चों के लिए मिठाइयाँ और बिस्कुट तथा माता-पिताजी के लिए चाय आयी। पिताजी देर तक राजेंद्र बाबू से घर-परिवार, स्वास्थ्य और काम-धाम की बातें करते रहे। हम लौटे, तो गौरव-भाव से भरे हुए थे--गर्व-स्फीत हुए-से ! बहुत नज़दीक से पहली और अंतिम बार वही उनका दुर्लभ दर्शन मुझे मिला था।

लेकिन, अब जो मुझे कहना है, वह बात थोड़ी पुरानी है--सन १९४० के आसपास की। मेरे जन्म के प्रायः १२ वर्ष पहले की। कालान्तर में, ४३ वर्षों के सान्निध्य में, मैंने पिताजी से अनेक बार यह कथा सुनी है और यत्किंचित मन में गुनी भी है। उन दिनों पिताजी 'आरती' नाम की एक साहित्यिक पत्रिका का सम्पादन कर रहे थे। इस पत्रिका के संरक्षक थे--देशरत्न डॉ० राजेंद्र प्रसाद। पत्रिका से सम्बंधित अनेक विषयों पर चर्चा के लिए पिताजी जब-तब सदाकत आश्रम जाया करते थे। राजेंद्र बाबू के कक्ष के बाहर द्वार के दोनों तरफ लकड़ी के दो पट्ट लगे हुए थे। एक पट्ट पर लिखा था-- "हारिये न हिम्मत बिसारिये न हरि नाम।" और दूसरे पर अंकित था--"जाहि बिधि राखे राम ताहि बिधि रहिये ।" पिताजी जब जाते, इन दोनों पट्ट पर उनकी नज़र पड़ती और वह राजेंद्र बाबू के कक्ष में प्रविष्ट हो जाते।...

[अगली कड़ी में समापन...]

रविवार, 21 मार्च 2010

'चट्टान नहीं हूँ...'

[एक परित्यक्ता की व्यथा-कथा का यह काव्य पहले भी मेरे ब्लॉग पर अवतरित हुआ था। लेकिन मेरी ही किसी असावधानी से कतिपय टिप्पणियों के साथ विलुप्त हो गया था। उसे पुनः आपके सम्मुख रख रहा हूँ--आ।]

आओ मुझको तोड़ो
खंड-खंड कर दो
धूल-धूसरित कर दो मुझको
मैं प्रतीक्षा में मौन सदियों से खड़ी हूँ !

मन के आँगन की हरियाली
सूख गई है,
बंजर धरती बन
मरुभूमि की मृगतृष्णा भी
रूठ गई है।
फिर भी जाने कौन पुकारा करता मुझको
और न जाने मैं किसको
तकती रहती हूँ;
निपट अकेली, वन-प्रांतर में
क्षीण नदी की धारा-सी
बहती रहती हूँ !

टूटेंगे, सब भ्रम टूटेंगे,
दुर्दिन-दुर्योग कभी छूटेंगे--
इसी आस में चट्टान बनी
रह गई अकेली;
लडती हूँ अपने ही मन से
आसपास बिखरे कण-कण से ।

दैव-कृपा भी जाने कब हो
मन-ही-मन सोचा करती हूँ
उस निष्ठुर अपराधी प्रभु को
पल-प्रतिपल कोसा करती हूँ ।

जान रही हूँ,
बनी अहल्या -जैसी प्रतिमा
जाने किसके पदाघात से
कब, अनजाने--
प्राण-संचरण होंगे मुझमे
और न जाने प्रभु राघव की अनुकम्पा से
सदविचार, सदगुण, सद्भाव
जागेंगे तुममे !

मेरे पुण्य, तपस्या मेरी
यूँ ही क्या निष्फल जायेगी ?
एक घडी तो वह आएगी
बहुत दूर से चलकर तुमको
जब मुझ तक आना ही होगा;
कुलिश-कठोर अपने प्रहार से
वज्र सरीखी प्रीति-धार से
खंड-खंड कर मुझमे तुमको
नव-जीवन भरना ही होगा--
इतना ही विश्वास मुझे है,
इसका ही आभास मुझे है !

आओ मुझको तोड़ो
खंड-खंड कर दो
धूल-धूसरित कर दो मुझको
मैं प्रतीक्षा में मौन
सदियों से खड़ी हूँ !
किन्तु, यह विश्वास तुम्हें करना होगा--
चट्टान नहीं हूँ !!

मंगलवार, 16 मार्च 2010

दुविधा की देहरी से...

[सच, वह सच कहता है !]
साम्प्रदायिकता की बोतलों में
संकीर्णता का लेबल चिपका कर
कुंठाओं के कार्क लगा
तुम मुझे भी उसमें
बंद कर देना चाहते हो :
मेरे लिए तो बड़ी मुश्किल है,
भई , बड़ा द्वंद्व है !

प्रातः-प्रकाश
सांस लेने की
देता है अनुमति
और कलमुहीं रात
हाथ में काला हंसिया ले
मेरी ह्त्या कर देना चाहती है !
समझ नहीं पाता मैं
कब तक--
मैं अपने चहरे पर चूना रगड़ता रहूंगा;
और तुम्हारे चहरे पर
इंसानियत की नर्म रेखाओं की
तलाश में भटकता रहूंगा !
और मस्तिष्क के तूफ़ान को
कागज़ की फजीहत बनाता रहूंगा !!

क्या यही बेहतर है
कि मैं भी बोतल-बंद हो जाऊं ?
शांत कर लूं अपना भेजा
और मानवता की निस्सीम परिधि से
बाहर हो जाऊं ?
लेकिन, उस कैद से पहले,
मैं कुछ प्रश्न पूछ लेना चाहता हूँ--
आत्म-प्रहरी से,
दुविधा की देहरी से !

क्या आपने कभी
दुविधा की देहरी से
आत्म-प्रहरी के दरवाज़े की
सांकल बजायी है ?
एक अदद कोशिश से
क्या बिगड़ता है ?
क्योकि
वह प्रहरी जो कहता है--
सच कहता है !!

शनिवार, 13 मार्च 2010

इसी शहर में...

दीवारो-दर पे लिख दीं कहानियाँ तुमने,
हैं कहाँ-कहाँ छोड़ीं नहीं निशानियाँ तुमने !

मेरा जुनून रहा हाशिये पे आज तलक,
पशेमाँ हसरतों की बढ़ा दीं परेशानियां तुमने !

एक समंदर आँख में लबरेज़ होता ही रहा,
नज़रअंदाज़ नज़रों को सौंपीं निगहबानियाँ तुमने !

हर दरखत की ज़मीन पुख्ता हो, ज़रूरी तो नहीं,
शाख के पत्तों को दीं क्यों जवानियाँ तुमने !

इसी शहर में कहीं खो गया मेरा जख्मी वजूद,
बड़े ख़ुलूस से पैदा कर दीं निगरानियाँ तुमने !!

बुधवार, 3 मार्च 2010

कागज़ से उठकर...

[वि-संवादी कविता]

एक दिन तुम्हारे शब्द
ठीक तुम्हारे सामने आ खड़े होंगे !
घूरेंगे तुम्हें,
पूछेंगे सवाल,
कुछ कहते बनेगा तुमसे ?
क्या उत्तर दोगे उन्हें ?
उत्तर के लिए
शब्दों को तौलकर
जोड़ लिया है क्या ??

गैरमुनासिब वक़्त में
आवेश में, और--
क्रोध की गिरफ्त में
वमन किया था
जिन शब्दों का तुमने
वे समयाकाश में
पंक्तिबद्ध, प्रतिबद्ध खड़े हैं
एक अंतराल की प्रतीक्षा में
कि कब --
सघर्षों और तनावों की डोर में
थोड़ी-सी ढील हो
और वे सम्मुख उपस्थित हो जाएँ
तुमसे हिसाब मांगते हुए...

और...
और जीवन की डोर में
ढील तो होनी थी --
हुई;
और वे उगले हुए शब्द
सचमुच आ पहुंचे हैं
ठीक तुम्हारे सामने !
अपने प्रश्नों और
तुम्हारे उत्तरों की समीक्षा के लिए !
पलटवार के लिए !!

मैंने भी अन्तराकाश में
जोड़ लिए हैं कुछ शब्द--
नवीनतम उत्तर के लिए--
दीनता से नहीं,
दृढ़ता से कहूंगा उनसे :--
"कविता एक दिन
जीवन बन जायेगी
कागज़ से उठकर !!"

रविवार, 28 फ़रवरी 2010

कोई रंग ऐसा...

[होली बोली दबी जुबां से...]


टेसू और पलाश में वो टहक न रही,
रंगे-अबीर में वो मोहिनी महक न रही !
जिस रंग से रौशन था मन का आईना,
उस नूर में वो पहले-सी चमक न रही !!

होली है तो झूमेंगे, नाचेंगे, गायेंगे,
जाकर बाज़ार से रंगो-गुलाल लायेंगे !
रँग दोगे मुझको तुम, तुमको रंगेंगे हम,
रंगों में भी बे-रंग हम नज़र आयेंगे !!

बचा सको तो बचा लो दामन यारों,
निगाहें पाक रखो, रंग लो ये तन यारों !
जिस्म बेदार न हो, फिक्र को सुकून मिले,
कोई रंग ऐसा मेरी रूह पे डालो यारों !!

{मैं कहता हूँ गला खोलकर -- "होली की बहुत-बहुत शुभकामनाएं !"}

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

सिमटती दीवारों के बीच से...

[निषेध-विपत्र]

टूटा हुआ घर
टूटी हुई खाट
बिना तेल का बुझता दिया
सिमटती दीवारें
और उनके बीच कैद--बेबस इंसान
समाजवाद की रोटी का
एक टुकड़ा पाने की आशा में
आश्वासनों का बादशाह बनकर
कंकाल बन आये कुत्ते से
अपनी तुलना कर रहा है
और तुम उसे धिक्कार भी नहीं सकते;
क्योंकि तुमने भी,
तुम्हारी पुतलियों ने भी
अनगिनत सपनों को
दफ्न होते देखा है !

लेकिन, बेनकाब अंधेरों में
घिर आये मेरे अजीज दोस्त !
तुम में ज़िन्दगी का ताजापन है
और तुम अंधेरों का जलता हुआ चेहरा देख कर
आश्चर्य का अर्घ्य देनेवाली
अपनी पलकें झपका सकते हो,
बेहोश भी हो सकते हो;
लेकिन एक नज़र मेरी निश्चलता को देखो
मैं तो मुर्दा हूँ,
मुझे बेहोश हो जाने का भी हक नहीं है !

प्रतिबिम्बों के ख़ूबसूरत युद्ध को देखते हुए
तुम कितनी ईमानदारी से
झूठ बोलते हो,
इन्साफ का एक-एक शब्द
कैद कर लिया जाता है
न जाने क्यों
तुम्हें तमाशा बनने में मज़ा आता है !

अदृश्य गूंजती आवाजों से मत लड़ो,
बुद्धि का वृक्ष होने का दंभ मत पालो !
मैं तुम्हें कोई आश्वासन नहीं दूंगा
मंदिरों की शंख-ध्वनि सुनने को
तुम्हारे कान बहरे हैं शायद !

मेरे अजीज़ दोस्त !
मैं तुम्हें खबरदार करता हूँ--
कड़वाहटों को अपने भीतर
मत पनपने दो !
सिमटती दीवारों को खुद तक
मत सिमटने दो !!

रविवार, 7 फ़रवरी 2010

यदि जीवन दुबारा जीने को मिले... 'मुक्त'

[समापन किस्त]

उस समय के जो लोग मेरी तरह आज भी जीवित हैं, उन्हें तो उस ज़माने की वे दृश्यावलियाँ कभी भूल ही नहीं सकतीं। बाद की पीढ़ी के लोगों ने भी उस ज़माने की ज़द्दोज़हद के बारे में पढ़ा और बड़े-बूढों से उस दीवानगी की कहानियां जानी होंगी। आज 'दीवानगी' का प्रयोग करते हुए मैं रोमांचित हो उठाता हूँ; क्योंकि मुझे भली-भांति याद है कि आज़ादी के उस समय के बलिपंथी सचमुच किस तरह और किस हद तक दीवाने हो गए थे। उन्हें घर-परिवार, बाल-बच्चे, खाने-सोने किसी बात का होश नहीं रह गया था; अगर होश था सिर्फ एक बात का कि हमें अपनी आज़ादी विदेशियों के हाथो से हर हालत में वापस लेनी है। यह देख-जानकर अचरज होता था कि आज़ादी के उन दीवानों का का एक लक्ष्य था, एक अभिलाषा थी और एक ही संकल्प था, जिसके लिए अपने प्राणों की आहुति देने, अपने प्रियजनों से भी मुंह फेर लेने में उन्हें संकोच नहीं होता था। एक छोटी-सी घटना से मेरी इस बात का खुलासा हो सकेगा। मेरे एक परिचित लेखक के यहाँ शाम के धुंधलके में गिरफ्तारी का वारंट लेकर पुलिस दल पहुंचा। घर में पति-पत्नी दो ही व्यक्ति रहते थे और पत्नी आसन्न प्रसवा थीं। देखते-ही-देखते पड़ोस के कई लोग वहाँ पहुँच गए, जिनमे सबसे छोटी उम्र का मैं भी था। उनकी पत्नी तो गिरफ्तारी का नाम सुनकर रोने लगीं, लेकिन उन्होंने मुस्कुराकर हाथ आगे बढ़ा दिए और पुलिसवाले उनके हाथ में हथकड़ियां डालकर अपने साथ ले गए। इस घटना ने मेरे बालक मन को झकझोर दिया और मैं रात को बहुत देर तक सोचता रहा कि ऐसी हालत में भाभीजी का क्या होगा और उनके दिन कैसे गुजरेंगे।
लेकिन कहीं कुछ नहीं हुआ। दूसरे दिन मैंने जाकर देखा : घर में न तो पैसा था, न अन्न-पानी। भाभीजी ने अपना मन पोढ़ाबना लिया था और जल पीकर उदास बैठी हुयी थीं, लेकिन फिर ऐसा अजूबा हुआ कि मोहल्ले की अनेक महिलायें वहाँ आ जुटीं। आनन्-फानन में सारा प्रबंध हो गया और आठ- दस दिनों के बाद भाभीजी ने एक पुत्र को जन्म दिया। इस तरह एक परिवार की असुविधा को और कष्ट को मोहल्ले के लोगों ने इस तरह बाँट लिया कि उस घर में अकेली रह गई भाभीजी को ऐसा लगा जैसे वह किसी भरे-पूरे परिवार में हों।
यह एक छोटा-सा चित्र है मेरी ज़िन्दगी के दूसरे दौर का। लेकिन पहला दौर जीतनी जल्दी ख़त्म हो गया था, दूसरा उतना ही लंबा खिंचता रहा। गांधीजी ने सन २० के आरम्भ में जो आन्दोलन चलाया था, वह विभिन्न स्थितियों, रूपों और पडावों से होता, उठाता-गिरता, तेज-मद्धिम होता सन ४७ तक चला और आखिर सन ४७ के १५ अगस्त को भारत स्वतंत्र हो गया। इस दूसरे दौर कि एक झांकी भी मेरी इसी कविता में देखी जा सकती है :
काल के अनंत प्रवाह में
सत्तर-अस्सी सालों का कोई महत्त्व नहीं होता
उस समय मैंने जिन लोगों को देखा था
जिनके साथ उठा-बैठा, जिया-बढ़ा था,
वह अपने देश पर
कुर्बान होने को तैयार रहते थे
उन्हें अपने देश पर,
अपनी संस्कृति पर,
भाषा पर, भूषा पर अभिमान था,
वे प्यार और आत्मीयता के
सुदृढ़ बंधन से बंधे हुए थे,
उनमे एक कि ख़ुशी दूसरे की
दूसरे का दर्द तीसरे का
और तीसरे की मुसीबत
चौथे की अपनी मुसीबत होती थी,
तब हर आदमी एक-दूसरे की मदद करने
एक-दूसरे के काम आने और
एक-दूसरे का दुःख बांटने के लिए
हर वक़्त तैयार रहता था ...
मुझे याद है, सन २० में जब गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन आरम्भ किया, रोज़ जुलूस निकलते, रोज़ धरने दिए जाते, धर-पकड़ होती और चारो ओर गहमा-गहमी मची रहती थी। उन दिनों इलाहाबाद के किसी देहात से एक मस्ताना मर्द खंजड़ी बजा-बजाकर बड़ी दिलकश आवाज़ में एक गाना गाया करता, जिसके बोल अभी तक मेरी स्मृति में गूंजते रहते हैं। गीत था--
सुनि ल का का इहवां होई, जब सुरुजिया होई ना।
गेहूं के रोटी गदेलवा खईहीं, ओपर गुड धई जाई ना॥
इस गीत से स्पष्ट होता था कीउस समय के आम आदमी कि सबसे बड़ी कामना यह थी कि उसके बाल-बच्चों को खाने के लिए गेहूं कि रोटी मिले और उस पर थोड़ा-सा गुड भी रखा हो। परतंत्रता की पीड़ा को उजागर करनेवाला यह एक ऐसा मर्मंतुद चित्र था, जो विदेशी शासन की बर्बरता और तज्जनित भारतीयों की दुर्दशा को एक साथ उजागर करता था....
[७५ वर्षों के विशाल साहित्यिक फलक पर अनवरत चलती मुक्तजी की लेखनी ने इन्हीं शब्दों के साथ चिर-विराम पाया! उन्हें शत-शत प्रणाम !!]

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

यदि जीवन दुबारा जीने को मिले... 'मुक्त'

[दूसरी कड़ी]

वर्षों पहले दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों और काले लोगों के प्रति गोरों के अन्याय और अपमानपूर्ण व्यवहार को देखकर गांधीजी मर्माहत हुए थे और उन्होंने अहिंसा, सविनय अवज्ञा और असहयोग के द्वारा उसका विरोध किया था। वहाँ की पीड़ित प्रजा गोरों के अत्याचार से दबी-पिसी और त्रस्त तो थी ही, उससे उबरने की एक राह जब गांधीजी ने बताई तो लोग उनके पीछे हो लिए। वहाँ भी वर्षों संघर्ष चला; लेकिन अंततः गांधीजी विजयी हुए, वहाँ के अन्यायपूर्ण व्यवहारों पर रोक लगी और गाँधीजी एक प्रचंड आत्मविश्वास व् पराधीनता और अन्याय के प्रतिकार के लिए अनूठी शक्ति लेकर भारत लौटे।

मैं लगभग दस साल का था, जब गांधीजी सन १९२० के आरम्भ में इलाहाबाद आये थे। मुझे आज भी उस जन-पारावार की स्मृति भूली नहीं है, जिसे उस दिन गांधीजी ने संबोधित किया था। उन्होंने देश-भर की यात्राएं करके अपनी आँखों से इस देश की गरीबी, दुरवस्था और शासकों के अत्याचार की असंख्य घटनाएं देखी-सुनी थीं। उन्होंने बड़े शांत-चित्त से लाखों की उस भीड़ को संबोधित किया। पराधीनता के चलते देश की परिस्थियों का व्यापक वर्णन किया और काहा की आप लोग मेरा साथ दें तो मैं एक साल में आपको आज़ादी दिला दूंगा।

पराधीनता के दारुण दुखों से वंचित-पीड़ित लोग पहले से ही स्वाधीनता अर्जित करने के लिए विकल-विह्वल थे। गांधीजी ने उन लोगों से काहा कि आज़ादी पाने के लिए आपको विदेशी वस्तुओं का वहिष्कार करना पड़ेगा, चरखा चलाना पडेगा, अपने घर के विदेशी वस्त्रों को जला देना होगा और जो दुकानदार विदेशी वस्त्र बेचते हैं, उनकी दुकानों पर धरना देकर विदेशी वस्त्रों कि बिक्री रोकनी पड़ेगी। आपके बच्चे अंगरेजी स्कूलों में नहीं पढेंगे; क्योंकि वहाँ एक अच्छा गुलाम बनने की तालीम दी जाती है। गांधीजी ने काहा कि जो बच्चे अंगरेजी स्कूलों में पढ़ रहे हों, वे कल ही से स्कूल जाना बंद कर दें और यहाँ हाथ उठा कर बतावें कि वे स्कूल छोड़ने की प्रतिज्ञा कर रहे हैं। बात-की-बात में हज़ारों हाथ ऊपर उठ गए--भावावेश में मैंने भी अपने दोनों हाथ उठा दिए। उस समय दस साल का मैं निहायत दुबला-पतला और पिद्दी-सा छोकरा था। स्कूल में मेरा दाखिला नहीं हुआ था, फिर भी उस वातावरण में पता नहीं क्या जादू था कि मेरे हाथ अनायास उठ गए और मैं फिर कभी स्कूल नहीं गया। मेरी विधिवत पढ़ाई कभी नहीं हुई।

देखते-ही-देखते असहयोग आन्दोलन ने ऐसा जोर पकड़ा, आज़ादी की धुन लोगों में इस कदर समाई कि लगने कि गांधीजी की भविष्यवाणी सच होकर रहेगी। देश एक साल में निश्चय ही स्वतंत्र हो जाएगा।

आन्दोलन ज्यों-ज्यों जोर पकड़ता गया, सरकार का दमन-चक्र भी उतने ही वेग और निर्ममता से चलता गया। उस समय आम भारतीयों की एक ही इच्छा थी, एक ही धुन थी, एक ही प्रयास था कि उन्हें किसी भी कीमत पर देश कि स्वतन्त्रता अर्जित करनी है। लोग सत्याग्रह करते, शराब और विदेशी वस्तुओं की दुकानों पर धरना देते, जुलूस निकालते और पुलिस उनपर लाठियां बरसाती, उन्हें गिरफ्तार करती और जेल भेज देती; लेकिन यह सिलसिला तो समुद्र और लहरों की तरह चलता रहा, जो एक के बाद एक आती रहती है और जिनका कोई अंत नहीं होता। उस समय आम आदमी को अपनी, अपने परिवार की, अपने बाल-बच्चों की कोई चिंता नहीं थी; उनकी सारी चिंता यह थी कि हमें अपने देश को आज़ाद कराना है। यह एक संकल्प, एल लालसा, एक अभिलाषा लेकर आज़ादी के मतवाले उठाते-गिरते, रुकते-बढ़ते आज़ादी के लिए जूझते रहे।...

[समापन अगली कड़ी में]

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

यदि जीवन दुबारा जीने को मिले : "मुक्त'


[मित्रो ! पूज्य पिताजी को स्मरण-नमन और श्रद्धांजलि अर्पित करने के मेरे संकल्प की अंतिम कड़ी के रूप में उन्हीं का यह अंतिम और अधूरा आलेख प्रस्तुत कर रहा हूँ। काश यह आलेख पूरा हुआ होता, लेकिन... 'होइएहैं वही जो राम रचि राखा...' इस आलेख को इतना ही होना था। कलकत्ता से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका 'वागर्थ' के तत्कालीन सम्पादक श्री प्रभाकर श्रोत्रिय के आग्रह पर पिताजी ने इसे लिखना शुरू किया था। किन्तु आलेख पूरा न हुआ... जीवनदीप बुझ गया। सन १९९५ के अंक ९ नवम्बर-दिसंबर में यह लेख 'वागर्थ' में प्रकाशित हुआ था, अब आपकी नज्र है। पिताजी को पुनः प्रणाम सहित--आनंद]

(मुक्तजी आजीवन साहित्य समाराधक रहे--निष्कलुष, निर्वैर, नई पीढ़ी को राह दिखानेवाले। विभिन्न विधाओं में उनकी कोई दो दर्जन से अधिक पुस्तकें हैं। गत दस वर्षों से वे अपने पिता श्री चंद्रशेखर शास्त्री द्वारा प्रणीत 'वाल्मीकि रामायण' का हिंदी में सृजनानुवाद कर रहे थे। उन्हीने आरती, नया प्रतीक, प्रजानीति के सम्पादन में योगदान किया था। 'वागर्थ' के लिए लिखने के वादे को अंतिम क्षण तक निभाने की कोशिश का यह अधूरा प्रतिफल (उनका अंतिम आलेख) श्रद्धांजलि के साथ.... --सम्पादक, 'वागर्थ')


इतिहास के झरोखे से देखते-देखते...


अजीब लगती है यह संभावना कि यदि मुझे दुबारा जीने का अवसर मिले तो मैं क्या करूंगा। एक ही ज़िन्दगी में मैं क्या तीन-तीन जिंदगियां नहीं जी चूका हूँ ? छियासी साल के विस्तार में मैंने क्या-क्या नहीं देखा है ? क्या-क्या नहीं सहा-भोगा है और कैसे-कैसे अतिसाह सिर काम नहीं किये हैं ? फिर मैं दुबारा क्यों जीना चाहूँगा? क्या करूंगा जीकर ? एक ही जीवन में तीन तरह कि जिंदगियां जीकर मुझे जो अनुभव प्राप्त हुए हैं, आज भी हो रहे हैं, उसके बाद क्या एक बार फिर जीने कि लालसा मेरे मन में उत्पन्न हो सकती है ? राम कहिये !

बहुत पुराने ज़माने में, इसी ज़िन्दगी में एक बार फिर जीने कि लालसा ययाति के मन में जगी थी। लेकिन उनकी समस्या दूसरी थी। वह सांसारिक सुख-भोगों से तृप्त होने के पहले ही, शापवश बूढ़े हो गए थे। उन्होंने अपने बेटे पुरु से उसकी जवानी उधार मांगी और जिए। छककर सांसारिक सुखों का उपभोग किया। नतीजा क्या निकला ? उधार कीजवानी की अवधि पूरी होने पर खुद उन्हें ही कहना पड़ा की--

न जातु कामः कामानामुपभोगेनशाम्यति। हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ।।

अर्थात मनुष्य चाहे जितना सुख-भोग करे, कामनाएं कभी सीमित नहीं होतीं। वे तो उसी तरह बढती चली जाती हैं, जैसे हविष पड़ते अग्नि की ज्वालायें बढती हैं। मतलब यह कि जो ज़िन्दगी मिली है, हमें उससे अधिक की लालसा नहीं करनी चाहिए। उसी को सहेज-संभाल कर रखना चाहिए और लोक-कल्याण के लिए उसे अर्पित कर देना चाहिए। ऐसा करने से एक ही ज़िन्दगी तृप्त और संतुष्ट हो सकती है। लेकिन मैंने कहा, मैं तो एक ही ज़िन्दगी में तीन जिंदगियां जी चुका हूँ--बेशक, उनकी तस्वीर और उनके रंग मुख्तलिफ रहे हैं, कहूँ कि बद से बदतर होते गए हैं। मैं उन स्थितियों के साथ, उन लोगों के साथ जिया हूँ , उन लोगों के हर्ष-विषाद, सुख-दुःख, मन की शान्ति और पीड़ा के दंश को मैंने अनुभव किया है; बदकिस्मती से आज भी कर रहा हूँ।

आज से आठ-दस साल पहले मैंने एक लम्बी कविता लिखी थी। उसमे मैंने यही स्पष्ट करने का प्रयास किया था कि कैसे मैं एक ही ज़िन्दगी में दो जिंदगियां जी चुका हूँ और तीसरी जी रहा हूँ। इस लेख में अपनी बात कि पुष्टि के लिए मैं उसी कविता का सहारा लेना चाहता हूँ। इस शती के दूसरे दशक में जब मैंने होश संभाला, अपने आसपास के, समाज के लोगों को जानने-समझने लगा, सामाजिक परिवेश में हो रही गतिविधियों में रूचि लेने लगा तो जिन लोगों को मैंने देखा-जाना, उनमें --
ज्ञान था, किन्तु अभिमान उसका न था
शक्ति थी, किन्तु पीडन नहीं ध्येय था,
था विभव भी बहुत लोक-कल्याण को,
कोष का धन सभी के लिए देय था।
व्यक्ति था व्यक्ति, आसक्ति थी
एक तो धर्म की धारणा के लिए
भक्ति थी देश की, कार्य था भूमि पर
शांति की कान्त अवतारणा के लिए।

प्रेम की शक्ति थी जीतने के लिए,
लोक-अनुरक्ति थी एक ही भावना,
थी न सुख की उन्हें चाह अपने लिए
सब सुखी हों यही एक थी कामना।

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुखभागभवेत ।
मेरी ज़िन्दगी का दूसरा दौर शुरू होने में ज्यादा समय नहीं लगा। प्रथम विश्व-युद्ध समाप्त होने के बाद भारत में ब्रिटिश हुकूमत का दमनचक्र तेजी से चलने लगा। सन १९१९ में हमारे देश पर रौलट एक्ट लागू किया गया। उसी साल अप्रैल में जालियांवाला बाग का नृशंस हत्याकांड भी हुआ। देश की स्वाधीनता के लिए छटपटाती हुई भारत की आत्मा ब्रिटिश शासन के दमनचक्र से जितनी दबी-पिसी, छटपटाई, उसके हौसले उतने ही बुलंद हए, उसका संकल्प उतना ही दृढ हुआ और इसी समय भारतीय राजनीति के क्षितिज पर गांधीजी का आविर्भाव हुआ। आज़ादी के लिए अब तक हमारे देश में दो प्रकार के प्रयास किये जा रहे थे--एक तो क्रांतिकारियों के द्वारा गोली-बन्दूक की लड़ाई और दूसरी कांग्रेस के द्वारा ब्रिटिश सरकार से अनेक प्रकार की रियातों की मांग। क्रांतिकारियों ने उस ज़माने के संयुक्त बंगाल से आरम्भ करके पंजाब तक में क्रान्ति का बिगुल बजाकर और अत्याचारी अंग्रेज शासकों को मौत के घात उतारने के लिए जो छिटपुट प्रयास किये, उनसे विदेशी शासकों को परेशानियां होती रहीं, लेकिन उसी अनुपात में उनका दमन भी बढ़ता रहा। रौलट एक्ट, खिलाफत और जालियांवाला बाग का हत्याकांड ऐसी घटनाएं थीं, जिन्होंने भारत के स्वाभिमान को ठोकर मारकर जगाया। पूरा देश घृणा, अपमान और पीड़ा से तड़पकर मानसिक रूप से इस बात के लिए तैयार हो गया था कि अब इस शासन को अधिक समय तक नहीं झेला जा सकता। होनी का चमत्कार कि ठीक इसी समय गांधीजी बिहार में निहले गोरों कि बर्बरता के खिलाफ अपने अहिंसक संघर्ष का प्रयोग करने के बाद, उसमे सफलता पाकर भारतीय स्वतन्त्रता युद्ध में एक दैवी वरदान के रूप में उपस्थित हुए थे।
[क्रमशः]

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

कहानी की शक्ति : प्रेमचंद की...

[तीसरी और समापन कड़ी]

प्रेमचंदजी संकोच से, लज्जा से पानी-पानी हुए जा रहे थे। गृह-स्वामी ने जब उनका चरणोदक मुंह में डाल लिया तो उन्होंने उनका हाथ पकड़ लिया। कहा--"आप यह सब तमाशा कीजिएगा तो मैं उठकर चला जाउंगा।" लेकिन इन बातों पर ध्यान देने की मनःस्थिति गृह-स्वामी की नहीं थी। वह आनंदातिरेक में विभोर हो रहे थे। साक्षात भगवान् के प्रकट होने पर जो दशाकिसी भक्त की हो सकती है, वही उनकी हो रही थी। अश्रु-गदगद स्वर में उन्होंने कहा--"आपके चरणों की धुल यहाँ पड़ी, मेरे सारे अरमान पूरे हो गए। अगर आप न होते, आपने वह अफ़साना न लिखा होता, मैं उसे न पढ़ पाता, तो आज मैं इस दुनिया में न होता। तब यह भरा-पूरा घर भी न होता, ये बाल-बच्चे न होते, यह धन-दौलत न होती। यह सब तो आपका ही दिया हुआ है। अब अगर अपने पिछले जन्मों के पुण्य से आज मैंने आपको पा लिया है तो मैं अपने अरमान तो पूरे कर लूं !"
इस तरह गृह-स्वामी अपने अरमान पूरे करते रहे, प्रेमचंदजी संकोच से सिमटते-सिकुड़ते रहे और वक़्त बीतता रहा। आखिर लगभग एक घंटे प्रेम का यह अत्याचार सहते रहने के बाद प्रेमचंदजी का धीरज छूट गया। उन्होंने कहा--"खाने में कितनी देर है ? शाम की गाडी से तो मुझे हर हालत में चला ही जाना है।"
गृह-स्वामी ने कहा--"देर कहाँ है ? लेकिन अभी तो कोई आया ही नहीं। मैंने तो कल सारी सभा को दावत दी थी। इंतज़ार कर रहा था कि और लोग आ जाएँ..... ।"
मैंने कहा--"आपने तो हंसी की बात को सच मान लिया, लेकिन और लोग शायद उसे नहीं मान सके। जो अब तक नहीं आया, वह आगे भी नहीं आयेगा।"
उन्होंने कहा--"और कोई आये न आये, मुझे फर्क नहीं पड़ता। मेरे भगवान् मेरे घर आ गए, मैं सब कुछ पा गया। कब मैंने यह उम्मीद की थी कि जिस अफ़साने ने मुझे मौत के जबड़े से खींच निकाला था, उसके लिखनेवाले को मैं अपनी आँखों से देख सकूंगा, उसके पाँव पखार सकूंगा ? लेकिन आज तो.... ।"
आनंदातिरेक में भर आयी अपनी आँखों पर हथेलियाँ रगड़ते वह उठ खड़े हुए थे और ज़रा देर बाद ही घर के बच्चों ने हमारे सामने थालियों-कटोरियों कि नुमाईश खड़ीकर दी। भोजन का इतना समारोह देखकर प्रेमचंदजी ने हँसते हुए कहा था--"मुझे खाना खिला रहे हैं या सज़ा दे रहे हैं ? आपने तीन सौ आदमियों के लिए जो खाना बनवाया है, वह सब क्या हमीं तीनों को खाना पडेगा ?"
गृह-स्वामी बड़े भोलेपन से बोले थे--"आप कैसी बातें करते हैं ? आप खाना तो शुरू कीजिये।"
और उस लम्बे-चौड़े कमरे में प्रेमचंदजी का अट्टहास गूँज उठा था।
सच्चे अर्थों में जूठन गिराकर प्रेमचंदजी उठ खड़े हुए तो एक बार फिर आरंभिक क्रियाएं दुहराई गईं, यानी परिवार के प्रत्येक व्यक्ति ने आकर उनके पैरों पर माथा टेका और आशीर्वाद लिया। गृह-स्वामी की अधीर आखें बार-बार भर आती थीं। उनका कंठ अवरुद्ध हो जाता था। विदा की घडी सचमुच बड़ी मार्मिक थी।
प्रेमचंदजी उसी शाम वापस चले गए थे और मैं कहानी की असीम शक्ति की बात सोचता अपने आप में खोया रह गया था। आज तो एक ज़माना गुज़र गया है, फिर भी उस घटना की मार्मिक स्मृति जब भी मन में जाग उठती है, तो अनायास मैं अत्यंत भाव-विह्वल हो जाता हूँ। रचना का महत्व और रचनाकार का दायित्व मेरे मन में एक बार फिर सजीव हो जाता है।
['अतीतजीवी' में संग्रहीत होने के पूर्व १९७६-७७ में यह संस्मरण 'नया प्रतीक', नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ था। ]

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

कहानी की शक्ति : प्रेमचंद की...

[दूसरी किस्त]

वक्ता की बातों से मेरा मन तिलमिला उठा। वह जो कुछ कह रहा था, स्पष्ट था, हृदय से कह रहा था, श्रद्धा से कह रहा था। आश्चर्य नहीं कि प्रेमचंदजी उसका आग्रह टालकर कल जाने का ही निर्णय करें तो सचमुच वह रेल से कटकर अपनी जान दे दे। यह कल्पना भी मेरे लिए असह्य हो उठी। मैंने प्रेमचंदजी से अनुमति लिए बिना ही उसे आश्वासन दे दिया--"आप बेफिक्र रहिये। कल आपके यहाँ खाना खाने के बाद ही प्रेमचंदजी बनारस जायेंगे।" लेकिन विनोद में मैंने एक और वाक्य जोड़ दिया--"इस ख़ुशी में तो शिरकत हम सभी की होनी चाहिए। प्रेमचंदजी अकेले कैसे खाना खायेंगे ?" और उस भले आदमी ने इस विनोद को भी सच मान लिया। उसने फ़ौरन एलान किया--"आप सभी को मैं कल की दावत देता हूँ। मेरा पता नोट कर लें और कल मेरे गरीबखाने पर तशरीफ़ ले आयें। आप सब का मैं इंतज़ार करूंगा।"
इसके बाद उन्होंने अपना नाम-पता, मकान नंबर वगैरह बताया। प्रेमचंदजी के पाँव पकड़कर एक बार फिर 'ज़रूर आने' का आग्रह किया। सभा भंग हो गयी।
लौटते हुए मैं थोड़ा गंभीर हो गया था। मेरी कल्पना में उस व्यक्ति की मनःस्थिति साकार हो रही थी। मैं सोच रहा था--यदि प्रेमचंदजी ने सारे जीवन में यही एक कहानी लिखी होती तो क्या उनका लेखक-जीवन धन्य और सार्थक न हो जाता ? जिस कहानी में इतनी शक्ति हो कि वह मरने के लिए उद्यत एक व्यक्ति को मौत के मुंह से लौटा लाये, उसे नयी प्रेरणा दे, जिजीविषा दे, कर्म-पथ पर अग्रसर होने की अपूर्व शक्ति दे, क्या वह विश्व-साहित्य की अमर कृति नहीं है ? यह तो मात्र एक संयोग था कि हम एक ऐसे व्यक्ति को जान सके, जिसके निराशा के अन्धकार से भरे जीवन में प्रेमचंदजी कीएक कहानी ने आशा का दीपक जलाया, उसके मार्ग को प्रकाश से भर दिया और उसके असफल जीवन में सफलता के नवीन अंकुर उत्पन्न किये। जाने ऐसे कितने लोग होंगे, जिन्हें इसी तरह किसी कहानी से, किसी निबंध से प्रेरणा मिली होगी, कर्म का उत्साह मिला होगा, सफलता की शक्ति मिली होगी। और जो रचना ऐसा कुछ करने में समर्थ हुई होगी, उसकी सार्थकता का, उसकी धन्यता कहीं अंत है ?
मैं अपने विचारों में खोया हुआ था, तभी प्रेमचंदजी का स्वर सुन पड़ा--"आपने खा-म-खाह मुझे परेशानी में डाल दिया। कल मेरा जाना निहायत ज़रूरी था। यों ही मैं कई दिनों की देरी कर चुका हूँ। वहाँ सारा काम ठप पडा होगा।"
मैंने कहा--"क्षमा कीजिएगा, इस समय मैं आपकी बात बिलकुल नहीं सोच रहा था। मैं सोच रहा था उस आदमी की बात, उस कहानी की बात, जिसने उसको मरने से बचाया। मुझे तो लगता है कि अगर ज़िन्दगी-भर में आपने सिर्फ वही एक कहानी लिखी होती और वह किसी की जीवन-रक्षा का कारण बनती तो आपका लिखना सार्थक हो जाता, आपकी कहानी अमर हो जाती। आखिर उस आदमी के प्रति भी आपका कुछ कर्त्तव्य है, जिसे आपकी ही एक कहानी ने ज़िंदा रहने का हौसला दिया था, ताकत दी थी।"
प्रेमचंदजी हँसे, बोले--"अब तो खैर आपने बाँध ही दिया है। उपाय क्या है ?"
अगले दिन यथासमय जब हमलोग भोजन के लिए पहुंचे तो वहाँ की तैयारियां देखकर दंगरह गए। उन्होंने सचमुच एक बरात को खिलाने की तैयारियां कर रखी थीं। दरवाज़े के दोनों ओर कदली-स्तम्भ लगे हुए थे, दो जलपूर्ण कुम्भ रखे हुए थे, ज़मीन पर अल्पना चित्रित थी। गृह-स्वामी बाहर ही खड़े थे। बड़े आदर-सम्मान से वह हमें ऊपर ले गए। प्रेमचंदजी को एक ऊँचे आसन पर बैठाया। ज़मीन पर लेटकर उन्हें प्रणाम किया। फिर पत्नी को, पुत्र-पुत्रियों को, बहुओं को, नाती-पोतों को बुलाया। सब ने बारी-बारी से उनके चरण-स्पर्श किये। गृह-स्वामिनी पीतल के बड़े बर्तन में जल ले आयीं। गृह-स्वामी ने अपने हाथों से प्रेमचन्दजी के पाँव पखारे, फिर उस जल का एक चुल्लू उन्होंने मुंह में डाल लिया।
[अगली कड़ी में समापन की किंचित प्रतीक्षा करें]

कहानी की शक्ति : प्रेमचंद की...


[ 'अतीतजीवी' से ऋषिकल्प पंडित प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त' का एक अनूठा संस्मरण ]


सन १९३१ या ३२ में जब मैं पहली बार जैनेन्द्रजी के पहाड़ी धीरज वाले मकान में जाकर ठहरा था तो उनका प्रथम पुत्र दिलीप साल भर का हो रहा था। मेरे आने के कई दिन बाद प्रेमचंदजी भी आ गए और चार-पांच दिनों तक ठहरे रहे। वह अपने किसी काम से दो-एक दिन के लिए ही आये थे, लेकिन दिलीप की पहली वर्षगाँठ के बहाने हमलोगों ने उन्हें कई दिनों तक रोक लिया था। उधर बनारस में सरस्वती प्रेस और 'हंस' का काम रुका पडा था, प्रेमचंद जी परेशान हो रहे थे, अतः तय हुआ कि कल सबेरे कि गाड़ी से ज़रूर चले जाएँ। कल इसलिए कि आज शाम को दिल्ली नागरी प्रचारिणी सभा ने उनका अभिनन्दन करना चाहा था। प्रेमचंदजी तो उससे भी छुटकारा पाना चाहते थे, लेकिन हमलोगों के जोर देने पर अभिनन्दन स्वीकार करने के लिए राज़ी हो गए थे।

चांदनी चौक में पहली मंजिल के हॉल में अभिनन्दन-समारोह का आयोजन हुआ था। प्रेमचंदजी के साथ जैनेन्द्रजी और मैं भी मंच पर बैठा था। सभा हुई, वक्ताओं ने भाषण दिए, प्रेमचंदजी ने आभार प्रकट किया और सभा समाप्त हो गई। लोग उठाने ही वाले थे कि बड़े नाटकीय ढंग से एक पंजाबी सज्जन मंच पर आये और गिडगिडाने लगे कि श्रोतागण दो मिनट रुककर उनकी बातें भी सुन लें। सभा-समाप्ति के बाद उनका आकस्मिक आविर्भाव और पंजाबी-मिश्रित हिंदी ने श्रोताओं में ऐसा कौतूहल उत्पन्न किया कि जो जहां था, वहीँ रुक कर तमाशा देखने को उद्यत हो गया। वक्ता की हिंदी चाहे जितनी खुरदुरी रही हो, लेकिन वह दो मिनट भी न बोलने पाए थे कि उनकी बातों की ईमानदारी, उनके ह्रदय की गहरी कृतज्ञता और उनकी भावुकता के आतिशय्य ने श्रोताओं को स्तब्ध कर दिया॥ लोग ध्यान देकर उनकी बातें सुनने लगे। उन्होंने अपनी लम्बी वक्तृता में जो कुछ कहा था, उसे संक्षेप में यों प्रस्तुत किया जा सकता है :

"मैं ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं हूँ। अदबी दुनिया से मेरा कोई ताल्लुक नहीं है। मैं प्रेमचंदजी को नहीं जानता--ये मुझे जानें, इसका तो सवाल ही नहीं उठता। लेकिन फिर भी एक बार इन्होंने मेरी जान बचाई है। इनकी एक कहानी मुझे मौत के मुंह से खींच लाई थी। मैं वही कहानी आपको सुनाना चाहता हूँ।

"भाइयो, मैं एक जौहरी हूँ । कलकत्ते में जवाहरात का मेरा अच्छा-खासा कारोबार था। लेकिन किस्मत की बात, एक बार ऐसा हुआ की मुझे दीवालिया हो जाना पड़ा। मैं पैसे-पैसे का मोहताज हो गया। दौलत और अफरात में पले-बढ़ेमेरे बच्चे दाने-दाने को तरसने लगे। मेरी हर कोशिश बेकार हो गई। मैं किसी तरह सँभल नहीं सका। भूखे बच्चों का बिलखता चेहरा मुझसे देखा न जाता था। उनकी बेबस आखें, भूख से सूखा-सिकुड़ा देखने से मर जाना बेहतर था। आखिर मैंने यही तय किया। मैं हुगली में डूबकर मर जाने के लिए घर से निकला। साहबान, जब आदमी जान देने पर आमादा हो जाता है तो उसकी सोचने-समझने की ताकत जाती रहती है। उसका दिमाग सुन्न हो जाता है। उसके दिल में एक वीरानगी घर कर जाती है। मेरी भी ठीक यही हालत हो गई थी। मैं घर से निकला और चल पड़ा। मेरे पाँव चल रहे थे, लेकिन मुझे पता नहीं था कि मैं कहाँ, किस ओर जा रहा हूँ। अचानक मैंने अपने आपको हाबड़ा स्टेशन पर भीड़ से घिरा पाया। भीड़ से निकलने की कोशिश में मैं एक बुक-स्टाल पर पहुँच गया। वहाँ ढेर सारी किताबें और मैगजीनें लगी हुई थीं। कुछ लोग वहाँ खड़े होकर मैग्जीनो के पन्ने पलट रहे थे। जाने कैसे मैं भी वहाँ जा खड़ा हुआ और एक उर्दू मैगजीन उठाकर उसके पन्ने पलटने लगा। उसमें प्रेमचंदजी का एक अफ़साना छापा था। उसकी दो-चार सतरें ही मैंने पढ़ी होंगी कि उसने मुझे बांध लिया। मैंने अपनी जेबें टटोलीं। जाने कैसे मेरी जेब में एक चवन्नी पड़ी रह गई थी। मैंने रिसाला खरीद लिया। उसे लेकर हुगली के किनारे जा बैठा। एक सांस में वह अफ़साना मैंने पढ़ लिया। और हजरात, जब मैंने पढ़ना ख़त्म किया तो मैं एक बदला हुआ आदमी था। उस अफ़साने ने मुझ पर यह असर डाला कि मौत का ख़याल मेरे जेहन से जाता रहा। मैं खुद ही अपनी लानत-मलामत करने लगा। मेरा नज़रिया अचानक बिलकुल बादल गया। मैं सोचने लगा--मैं कैसा बुजदिल हो गया था ? जिन बच्चों को भूख से बिलखता देखकर मैं ख़ुदकुशी के लिए आमादा हो गया था, मेरे मरने के बाद उनका क्या होता ? मेरे मरने से ही उनकी ज़िन्दगी के सारे मसले हल हो जायेंगे ? तब मेरी बीवी, मेरे छोटे-छोटे बच्चे सड़कों पर मारे-मारे फिरेंगे और एक के बाद एक भूखे-प्यासे दम तोड़ देंगे। नहीं, नहीं, मुझे मरना नहीं है। मुझे ज़िंदा रहना है। अपने बच्चों की परवरिश के लिए नई ज़िन्दगी बनानी है।

"हाँ साहेबान, प्रेमचन्दजी के उस अफ़साने ने मुझे मौत से बचाया। मुझे नई ज़िन्दगी दी। मैं वापस घर लौट आया। मैंने फिर काम शुरू किया। उस अफ़साने की ताक़त मेरे साथ थी। किस्मत ने साथ दिया। आज मैं पहले भी अच्छी हालत में हूँ। मेरे बच्चे सयाने हो गए हैं। पढ़े-लिखे हैं। बेटियों की शादियाँ हो गई हैं। और यह सब प्रेमचंदजी की मेहरबानी से हुआ है। ये मेरे लिए इंसान नहीं, भगवान् हैं। और आज वह भगवान् मेरे सामने हैं। कभी सपने में भी मैंने यह नहीं सोचा था किएक दिन ऐसा आएगा, जब मुझे नई ज़िन्दगी देनेवाला मेरा भगवान् मेरे रू-ब-रू होगा। लेकिन अब, जब मैंने अपने भगवान् को पा लिया है, मैं उन्हें यों ही नहीं चला जाने दूंगा। कल मेरे घर अपने पैरों कि धुल देकर, मेरे यहाँ जूठन गिराकर ही यह दिल्ली से जा सकेंगे।"

भावावेश में वक्ता की आवाज़ लडखडाने लगी थी। उनकी आखों से आंसू झरने लगे थे। सारी सभा स्तब्ध थी। प्रेमचंदजी संकोच से गड़े जा रहे थे। वक्ता की बात ख़त्म होने से पहले ही उन्होंने घबराकर कहा--"नहीं, नहीं, कल तो मेरा जाना निहायत ज़रूरी है। मेरा बड़ा नुकसान हो रहा है। कल मैं किसी तरह नहीं रुक सकूंगा। माफी चाहता हूँ। "

वक्ता मंच पर ही खड़े थे। प्रेमचंदजी की बातें उन्होंने सुन लीं और उसी रौ में कहने लगे--"प्रेमचंदजी कहते हैं किकल उनका जाना निहायत ज़रूरी है। इनका बड़ा नुकसान हो रहा है। लेकिन मैं कहता हूँ, इनके जाने से मेरा जो नुकसान होगा, उससे बड़ा किसी का कोई नुकसान हो ही नहीं सकता। एक दिन इनका लिखा अफ़साना मुझे मौत के मुंह से वापस ले आया था, अब अगर यह कल नहीं रुकते, मेरे गरीबखाने पर जूठन गिराए बिना चले जाते हैं तो आप याकीन मानिए, जिस गाड़ी से ये जायेंगे, उसी से कटकर मैं अपनी जान दे दूंगा। यह बात मैं जज्बाती तौर पर नहीं कह रहा, पूरे होशो-हवास में, पूरी इमानदारी के साथ कह रहा हूँ। एक दिन जो ज़िन्दगी इन्होंने बचाई थी, ये चाहें तो कल उसे वापस ले सकते हैं। इनकी दी हुई ज़िन्दगी इन्हीं की है, इन्हें अख्तियार है कि उसे वापस ले लें। मैं ख़ुशी से यह ज़िन्दगी इन्हें सौंप दूंगा।"
(संलग्न चित्र : बाएं 'मुक्तजी' एक मित्र के साथ, संभवतः १९३८-४० )
[क्रमशः]

शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

जब आचार्य द्विवेदी रो पड़े.... : 'मुक्त'

[समापन किस्त]

पिताजी द्विवेदीजी के चरणस्पर्श के लिए झुके ही थे कि उन्होंने दोनों हाथ बढ़ाकर पिताजी को गले से लगा लिया। अपनी कार से जो सज्जन उन्हें ले आये थे, वह हिंदी प्रेस के स्वामी रामजीलाल शर्मा के ज्येष्ठ पुत्र रघुनान्दंजी थे। द्विवेदीजी उन्हीं के यहाँ ठहरे थे।
द्विवेदीजी जब पिताजी से बातें करने लगे, तो मैंने ध्यान से उन्हें देखा। सफ़ेद घनी मूंछें, घनी भौहें, आँखों पर चश्मा--आँखें, जिनकी ज्योति मंद हो चुकी थी, लेकिन जिनका तेज बरकरार था। यह चेहरा जाना-पहचाना था, चित्रों के माध्यम से। उस दिन पहली बार मैंने उन्हें प्रत्यक्ष देखा।
बातें काफी देर तक होती रहीं। कुशल-क्षेम से आरम्भ होकर बातों का सिलसिला बढ़ता गया। पिताजी के कुरेदने पर द्विवेदीजी अतीत-सृतियाँ सुनाने लगे। उन्होंने बहुत-सी बातें सुनाईं। अचानक पिताजी ने कहा--'महाराज, आपके पास तो अनुभवों का अक्षय भण्डार है। मेरा निवेदन है कि आप उन्हें लिख डालें, भावी पीढ़ियों के लिए वह दस्तावेज़ बहुत प्रेरणाप्रद होगा। '
द्विवेदीजी पालथी मारकर बैठे हुए थे। पिताजी की बात सुनते ही वह घुटनों के बल बैठ गए। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर स्वरचित एक श्लोक सुनाया। उनकी आँखों से अश्रुधारा बह चली। अचानक विनय, विषाद और करुणा की त्रिवेणी बहने लगी। हम स्तब्ध रह गए।
इतने दिनों बाद अब वह श्लोक तो मुझे याद नहीं रहा, लेकिन उसका आशय कुछ इस प्रकार था--'इस विशाल संसार-सागर में मैं क्या हूँ ? एक अपदार्थ बुलबुला, जिसके शरीर में न शक्ति है, न मन में उत्साह, परिवार में पुत्र-कलत्र भी नहीं है। नितांत एकाकी, निःसंग, मेरा जीवन क्या, और मेरी उपलब्धियां भी क्या ?'
वातावरण बोझिल हो उठा। मैंने सोचा, नईउम्र के हमलोग अपने आपको बड़ा तीसमारखां समझते हैं। हम अति-भावुक होने का दम भरते हैं। लेकिन द्विवेदीजी की इस गहन-गंभीर वेदना और भावुकता के मुकाबले हमारी भावुकता का क्या मूल्य है ?
इलाहाबाद का अभिनन्दन समारोह अपनी भव्यता के लिए बहुत समय तक लोगों को याद रहा। उस अवसर पर द्विवेदीजी ने ऐतिहासिक महत्त्व का जो भाषण दिया था, लोगों के मन में उसकी याद बहुत दिनों तक बनी रही थी। पता नहीं, उनका वह भाषण लिपिबद्ध हुआ था या नहीं।
एक शाम पंडित रामजीलाल शर्मा ने आचार्य द्विवेदीजी से अनौपचारिक रूप से मिलने के लिए इलाहाबाद के कुछ विशिष्ट साहित्यिक विद्वानों को हिंदी प्रेस में आमंत्रित किया था। मैं तो विशिष्ट क्या, अविशिष्ट की श्रेणी में भी नहीं आता था, फिर भी पिताजी का पल्ला पकड़कर मैं उस जमात में उपस्थित था।
गोष्ठी औपचारिक रूप में ही शुरू हुई थी। फिर अपने आप ही उसने अनौपचारिक रूप धारण कर लिया। कई लोगों ने द्विवेदीजी की सेवाओं का बखान करते हुए उनके प्रति श्रद्धा-कृतज्ञता प्रकट की। कुछ लोगों ने अपनी कवितायें सुनाईं। अंत में द्विवेदीजी ने प्रत्येक व्यक्ति का नामोल्लेख करते हुए अपनी स्पष्ट, निर्भीक और किसी कदर तल्ख़ टिप्पणियाँ प्रस्तुत कीं। उन्होंने कहा--"आपने मुझ पर असंभव प्रशंसाओं का बोझ डाल दिया है। मैं नहीं जानता कि मैं अपने जीवन में ऐसा कुछ कर सका हूँ, जो प्रशंसा के योग्य हो। मैंने जो कुछ किया, वह कर्तव्य समझकर किया। फिर भी यदि आप उसे उचित और उपयोगी मानते हैं, तो मेरी प्रशंसा मत कीजिये, उससे आगे कुछ करने का प्रयास कीजिये। वही मेरी सच्ची प्रशंसा होगी। उसीसे मुझे संतोष होगा।"
कविताओं के सम्बन्ध में भी उन्होंने कुछ ऐसे ही विचार प्रकट किये। उन्होंने कहा--"कविता साहित्य की बहुत बड़ी शक्ति है। उसे मनोविलास या व्योम-विहार की वस्तु मत बनाइये। अपनी कविता के द्वारा साहित्य को और समाज को कुछ ऐसा दीजिये, जो उसे समृद्ध बनाए।"
उस साहित्यिक ऋषि ने उस समय अपने जीवन की अभिज्ञताओं और अनुभव के आधार पर युवा पीढ़ी को जो सीख दी थी, क्या आज के सन्दर्भ में वह उस समय की अपेक्षा कहीं अधिक उपयोगी और आवश्यक नहीं है ?
एक अल्प कालावधि में मैंने तीन अवसरों पर आचार्य द्विवेदी के दर्शन का और उनकी बातें सुनने का सौभाग्य प्राप्त किया था, लेकिन मेरी स्मृति में उनकी वही मूर्ति सबसे अधिक उज्ज्वल और स्पष्ट है, जब वह पिताजी को श्लोक सुनाते हुए रो पड़े थे।
[मित्रो ! इस सप्ताह में सिर्फ बाबूजी की बातें ही होंगी। इन आलेखों से जो प्रेरक तत्त्व मिलें, उन्हें हम सभी ग्रहण करें; यही उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी--ऐसा मेरा मन कहता है। विनीत ----आनंद]