[निषेध-विपत्र]
टूटा हुआ घर
टूटी हुई खाट
बिना तेल का बुझता दिया
सिमटती दीवारें
और उनके बीच कैद--बेबस इंसान
समाजवाद की रोटी का
एक टुकड़ा पाने की आशा में
आश्वासनों का बादशाह बनकर
कंकाल बन आये कुत्ते से
अपनी तुलना कर रहा है
और तुम उसे धिक्कार भी नहीं सकते;
क्योंकि तुमने भी,
तुम्हारी पुतलियों ने भी
अनगिनत सपनों को
दफ्न होते देखा है !
लेकिन, बेनकाब अंधेरों में
घिर आये मेरे अजीज दोस्त !
तुम में ज़िन्दगी का ताजापन है
और तुम अंधेरों का जलता हुआ चेहरा देख कर
आश्चर्य का अर्घ्य देनेवाली
अपनी पलकें झपका सकते हो,
बेहोश भी हो सकते हो;
लेकिन एक नज़र मेरी निश्चलता को देखो
मैं तो मुर्दा हूँ,
मुझे बेहोश हो जाने का भी हक नहीं है !
प्रतिबिम्बों के ख़ूबसूरत युद्ध को देखते हुए
तुम कितनी ईमानदारी से
झूठ बोलते हो,
इन्साफ का एक-एक शब्द
कैद कर लिया जाता है
न जाने क्यों
तुम्हें तमाशा बनने में मज़ा आता है !
अदृश्य गूंजती आवाजों से मत लड़ो,
बुद्धि का वृक्ष होने का दंभ मत पालो !
मैं तुम्हें कोई आश्वासन नहीं दूंगा
मंदिरों की शंख-ध्वनि सुनने को
तुम्हारे कान बहरे हैं शायद !
मेरे अजीज़ दोस्त !
मैं तुम्हें खबरदार करता हूँ--
कड़वाहटों को अपने भीतर
मत पनपने दो !
सिमटती दीवारों को खुद तक
मत सिमटने दो !!
टूटा हुआ घर
टूटी हुई खाट
बिना तेल का बुझता दिया
सिमटती दीवारें
और उनके बीच कैद--बेबस इंसान
समाजवाद की रोटी का
एक टुकड़ा पाने की आशा में
आश्वासनों का बादशाह बनकर
कंकाल बन आये कुत्ते से
अपनी तुलना कर रहा है
और तुम उसे धिक्कार भी नहीं सकते;
क्योंकि तुमने भी,
तुम्हारी पुतलियों ने भी
अनगिनत सपनों को
दफ्न होते देखा है !
लेकिन, बेनकाब अंधेरों में
घिर आये मेरे अजीज दोस्त !
तुम में ज़िन्दगी का ताजापन है
और तुम अंधेरों का जलता हुआ चेहरा देख कर
आश्चर्य का अर्घ्य देनेवाली
अपनी पलकें झपका सकते हो,
बेहोश भी हो सकते हो;
लेकिन एक नज़र मेरी निश्चलता को देखो
मैं तो मुर्दा हूँ,
मुझे बेहोश हो जाने का भी हक नहीं है !
प्रतिबिम्बों के ख़ूबसूरत युद्ध को देखते हुए
तुम कितनी ईमानदारी से
झूठ बोलते हो,
इन्साफ का एक-एक शब्द
कैद कर लिया जाता है
न जाने क्यों
तुम्हें तमाशा बनने में मज़ा आता है !
अदृश्य गूंजती आवाजों से मत लड़ो,
बुद्धि का वृक्ष होने का दंभ मत पालो !
मैं तुम्हें कोई आश्वासन नहीं दूंगा
मंदिरों की शंख-ध्वनि सुनने को
तुम्हारे कान बहरे हैं शायद !
मेरे अजीज़ दोस्त !
मैं तुम्हें खबरदार करता हूँ--
कड़वाहटों को अपने भीतर
मत पनपने दो !
सिमटती दीवारों को खुद तक
मत सिमटने दो !!
16 टिप्पणियां:
kin shabdon mein tarif karoon.
आपकी हर एक रचना तारिफे काबिल है !
जब मैं आपको पढ़ता हूँ तो कहीं खो सा जाता हूँ...और जब अंत पर पहुँचता हूँ तो एहसास होता है कि मैने एक बेहतरीन रचना कब पढ़ डाली....फिर से एक बार पढ़ता हूँ
हॉं ,
सिमटती दीवारों को खुद तक
मत सिमटने दो !!
वरना रह सिर्फ दीवारें ही रह जायेंगी और हम उन दीवारों के अंदर खो जायेंगे ।
मेरे अजीज़ दोस्त !
मैं तुम्हें खबरदार करता हूँ--
कड़वाहटों को अपने भीतर
मत पनपने दो !
सिमटती दीवारों को खुद तक
मत सिमटने दो !!
प्यार का सन्देश देती उत्कृष्ट रचना!
बेबस इंसान जो अपनी कड़वाहटों को भी दबा लेता है..और जो सही भी है..कविता में इतना कुछ समेत दिया गया है की और कुछ कहते नहीं बनता..
लेकिन एक नज़र मेरी निश्चलता को देखो
मैं तो मुर्दा हूँ,
मुझे बेहोश हो जाने का भी हक नहीं है !
आम इन्सान की कडवाहट और व्यवस्था से उपजा आक्रोश बहुत तीव्रता से उभरा है. बधाई.
इतने सुंदर शब्दों के ताने बाने से बाहर निकल पाई तब जाकर कहीन अर्थ की ओर ध्यान गया
मेरे अजीज़ दोस्त !
मैं तुम्हें खबरदार करता हूँ--
कड़वाहटों को अपने भीतर
मत पनपने दो !
सिमटती दीवारों को खुद तक
मत सिमटने दो !!
बहुत सुन्दर आप तो शब्दों के जादूगर हैं ही लेकिन ये विचार ,ये मश्वरे आपके मन की पवित्रता का दर्शन कराते हैं
बधाई हो .
मेरे अजीज़ दोस्त !
मैं तुम्हें खबरदार करता हूँ--
कड़वाहटों को अपने भीतर
मत पनपने दो !
सिमटती दीवारों को खुद तक
मत सिमटने दो !!
hridyasparshi ,aapko padhna hamara saubhagya hai ,nayi disha ka gyaan jo prapt hota hai ,kitni sundar baate kahi hai aapne in panktiyon me aaj ke daur me ye bahut aham hai .shayad jaroort bhi .
बेमिसाल रचना
मेरे अजीज़ दोस्त !
मैं तुम्हें खबरदार करता हूँ--
कड़वाहटों को अपने भीतर
मत पनपने दो !
कविता काम करे,जैसा कि कवि कहता है ...कविता से गुजारिश है
-ओम
ब्लॉग जगत से कुछ समय बाहर रहने की वजह से आपकी लेखनी का रसास्वादन नही कर सका..मगर इस कविता को पढ़ कर क्षोभ दूर हो गया..कितना असहिष्णु, असहज और एकाकी होती जा रहे हैं हम एक समाज के तौर पर..ग्लोबल होते जा रहे इस दौर मे?..यथार्थ की कटुता को शब्द देती इस कविता का संदेश हमारे समय की जरूरत है..जो सिर्फ़ एक दोस्त की जबानी ही समझी जा सकती है..
मेरे अजीज़ दोस्त !
मैं तुम्हें खबरदार करता हूँ--
कड़वाहटों को अपने भीतर
मत पनपने दो !
सिमटती दीवारों को खुद तक
मत सिमटने दो !!
वैसे पूरी कविता मे मुझे हमारी ही आंतरिक विडम्बना का प्रतिबिम्ब दिखायी देता है..जो हम अपने ही हाथों से चक्र्व्यूह रच कर खुद ही फंस जाते हैं..
बार-बार पढ़े जाने की मांग करती है कविता..और अभी तो पिछली प्रविष्टियाँ भी पढ़े जाने को बाकी हैं..
उदास मन को नई उर्जा देने में समर्थ है यह कविता.
अदृश्य गूंजती आवाजों से मत लड़ो,
बुद्धि का वृक्ष होने का दंभ मत पालो !
मैं तुम्हें कोई आश्वासन नहीं दूंगा
मंदिरों की शंख-ध्वनि सुनने को
तुम्हारे कान बहरे हैं शायद !
सच और सच के सिवा और कुछ नहीं.........
अनुभवों सागर मचलता दिख रहा है इस कविता की गगरी में.
हार्दिक आभार.
होली पर आपको हमारी हार्दिक बधाइयाँ.
चन्द्र मोहन गुप्त
बहुत सुन्दर आप तो शब्दों के जादूगर हैं ही लेकिन ये विचार ,ये मश्वरे आपके मन की पवित्रता का दर्शन कराते हैं
बधाई हो .
जी समझ गया..हा कान बहरे थे..अभी अभी मन्दिर के घन्टे भी सुने मैने..
आपने जो ज़िन्दगी की ताज़गी दिखायी है, वो मेरे भेजे मे घुस आयी है..
बहुत ही प्यारे शब्द...और उन शब्दो से रचा गया ये कविता रूपी इन्सान..
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