तब मैं बहुत छोटा था--चौथी कक्षा का छात्र ! जिस मोहल्ले में रहता था, वह पटना का बहुत पुराना और प्रसिद्ध मुहल्ला है--कदमकुआँ ! उसकी प्रसिद्धि इसलिए भी थी कि वहाँ लोकनायक जयप्रकाश नारायण का आवास था और उसी मोहल्ले में कई प्रसिद्ध साहित्यकारों का जमावड़ा था। कदमकुआँ से जो सड़क पूरब की ओर जाती थी, वह राजेंद्र नगर के चौराहे तक ले जाती थी। चौराहे के गोलंबर के चारो कोणों पर बड़े-बड़े गड्ढे खोदे जा रहे थे, वहाँ भवन-निर्माण की योजना थी। वृत्ताकार बननेवाले उन भवनों के लिए ही नींव खोदी जा रही थी, जिससे पीली मिट्टी और सोने-जैसी पीली बालू निकल आयी थी। बाल्यकाल की धमाचौकड़ी करता मैं प्रायः वहाँ चला जाता था और उसी बालू-मिट्टी में खेला करता था। दीपावली के दिन आये तो वहाँ की पीली और चिकनी मिट्टी तथा सोने-जैसी बालू घरौंदा बनाने के लिए हम भाई-बहन उठा लाये थे। पीली रेत को रँगकर हमने घरौंदे के आसपास की सड़कें बनाई थीं और चिकनी मिट्टी से घरौंदा तैयार किया था। उस मिट्टी के क्या कहने ! उसका रंग तो सोने जैसा था ही, उसमे लुनाई भी इतनी थी कि जिस आकार में ढालो, उसी में ढल जाने को तैयार ! गीले हाथो से ज़रा सहला दो, तो उसकी ऊपरी सतह इतनी चिकनी और चमकदार हो जाती थी कि आज का सनमाईका भी शरमा जाए। खैर, उस घरौंदे की सुन्दरता और चमक को मैं आज तक नहीं भूल सका हूँ ! इसके कई कारण भी हैं...
बहरहाल, बचपन बीता भी न था कि राजेंद्र नगर के चौराहे से गहरी नींव और मिट्टी-बालू गायब हो गई थी और चारो कोणों पर अर्धचन्द्राकार स्वरूप में चार मंजिला इमारतें बनकर खड़ी हो गई थीं। यदि इन इमारतों के बीच से जानेवाली सड़कें हटा दी जातीं और किसी योग-विधान से उन्हें पास लाकर जोड़ दिया जाता, तो एक सम्पूर्ण वृत्त बन जाता ! पूर्वोत्तर कोण पर जो इमारत खड़ी हुई थी, उसी के (संभवतः) तीसरे तल के एक छोटे-से फ्लैट में लतिकाजी के साथ आ बसे थे-- कथाकार फणीश्वरनाथ 'रेणु'। लम्बी-छरहरी देह, नासिका पर काले फ्रेम का मोटा चश्मा--जिससे झांकती तीखी आँखें, काले घुंघराले केश--कंधे तक झूलते हुए, खालता पायजामा और लंबा कुर्ता !
पिताजी की उन पर अनन्य प्रीति थी। आकाशवाणी की सेवा में उन्हें खींच लानेवाले पिताजी ही थे। रेणुजी पिताजी का बहुत आदर-सम्मान करते थे। मुझे याद है, बाल्यकाल में मैं जब कभी पिताजी के साथ उनके निवास पर गया, वह अपनी जलती सिगरेट बुझाने को व्यग्र हो उठे। मेरे घर से उनके राजेंद्र नगर वाले फ्लैट की दूरी अधिक न थी। दो रिक्शों पर सपरिवार सवार होकर पिताजी दस मिनट में उनके फ्लैट के सामने जा खड़े होते थे। सप्ताह-दस दिनों में एक बार उनके यहाँ हमारा जाना तय था। मुझे स्मरण है, यह सिलसिला लंबा चला था। बाल-सुलभ चपलता में कभी-कभी मैं क्षिप्रता से सीढियां चढ़कर रेणुजी के द्वार पर दस्तक देता, पिताजी, माताजी और मेरी बड़ी-छोटी बहनें तथा अनुज पीछे रह जाते। रेणुजी द्वार खोलते ही पूछते--"अरे ! तुम हो ?... और मुक्तजी ?" मैं उन्हें बताता किवह अभी सीढ़ियों पर है, तो रेणुजी 'आओ-आओ' कहते हुए उलटे पाँव लौट जाते और अपनी सिगरेट बुझा देते। हम सभी उनके अतिथि-कक्ष में बैठ जाते। लतिकाजी मेरी माता से और रेणुजी पिताजी से बातें करने में मशगूल हो जाते। रेणुजी और पिताजी की बातों में लातिकाजी जब भी शामिल होतीं, बातें बँगला में होने लगतीं। बँगला न समझने वाले हमलोग तीनों कीमुख-मुद्रा और भाव-भंगिमा निहारते रहते। हम भाई-बहन उनके घर में धमाचौकड़ी मचाया करते। वहाँ मेरे आकर्षण का प्रमुख केंद्र रेणुजी का पोषित कुत्ता था। मैं उसे चिढाता, उसके आगे-पीछे दौड़ता और सच कहूँ तो किसी हद तक उसे परेशान किया करता था। वह छोटा-सा झबरा कुत्ता भी कम चंचल न था। वह बड़ी-बड़ी छलांगें लगाता, मेरी छाती तक अपने पंजे मारता, भौंकता । मुझे उसकी ये हरकतें बहुत अच्छी लगतीं। रेणुजी को कई बार अपने कुत्ते को डपटना पड़ता था, लेकिन पिताजी की आँखों से मेरी दुष्टता छिपी न रह सकी। एक दिन उन्होंने मुझसे कहा भी था--"तुम खामख्वाह उसे परेशान किया करते हो। किसी दिन ऐसा न हो किबहुत परेशान होकर वह तुम्हें काट खाए और तुम्हारे पेट में चौदह इंजेक्शन लगवाने पड़ें।" 'पेट में चौदह इंजेक्शन' की बात मैं आज तक नहीं भूला; क्योंकि एक दिन ऐसा ही दुर्योग हुआ। शायद वह किसी छुट्टी का दिन था। हम सपरिवार रेणुजी के अतिथि-कक्ष में विराजमान थे। बड़े लोग चाय पी रहे थे और हम बच्चों को नमकीन और क्रीम वाले बिस्कुट की प्लेटें मिली थीं। वह नामाकूल झबरा मेरे सामने ही बैठा था--ज़मीन पर और मैं कुर्सी पर बैठा एक-एक बिस्कुट उसे दिखा-दिखा कर पीट रहा था। हर बिस्कुट को वह ललचाई नज़रों से देखता और दुम हिलाता। अंततः उसके सब्र का बांध टूट गया। प्लेट से उठानेवाले बिस्कुट पर अब वह मीठा गुर्राने लगा था। मैंने प्लेट का अंतिम बिस्कुट उठाकर उसकी ओर बढाया और जैसे ही वह उसे अपने मुंह में पकड़ने को उद्यत हुआ, मैंने बिस्कुट अपने मुंह में डाल लिया। झबरा उद्विग्न हो उठा था। वह उस अंतिम बिस्कुट को लेने के लिए छलांग लगा चुका था। ग्रास तो मेरे मुंह में चला गया, किन्तु झबरे के दोनों पंजे मेरी नाक और मुंह पर खरोंच दे गए। फिर तो घर में कोहराम मच गया। रेणुजी ने बड़ी फुर्ती से उठकर कुत्ते को पकड़ा और ज़ंजीर से बांध दिया। पिताजी ने हलकी डांट पिलाई और लतिकाजी ने मेरे नाक-मुंह की खरोंच पर मरहम लगाया था। खरोंच गहरी न थी, लिहाज़ा वह धीरे-धीरे मरहम से ही ठीक हो गयी और पेट में लगनेवाले चौदह इंजेक्शनो से मैं बाल-बाल बच गया। लेकिन उसके बाद श्वान-क्रीडा से मैं पूरी तरह विरत हो गया।...
[क्रमशः] (पटना रेलवे स्टेशन पर लिया गया दुर्लभ चित्र, संभवतः १९६० का; बाएं से--रेणुजी, अज्ञेयजी और मुक्तजी)
2 टिप्पणियां:
एक सांस में पढ गई पूरा संस्मरण. दो दिन से ये शीर्षक चिट्ठाजगत पर चमक रहा है, आज जाकर पोस्ट मिली. मेरी तरह आपके अन्य पाठक भी हैरान थे.... बहुत ही रोचक शैली में लिखा हुआ संस्मरण. हमेशा की तरह अविस्मरणीय. तस्वीर की ही तरह दुर्लभ भी. आभार.
हूँ....तो काफी शरारती थे बचपन में आप .....और उदंड भी ....!!
अच्छी लगीं बचपन की यादें ....!!
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