[गतांक से आगे]
रेणुजी के अद्वितीय कथा-लेखन से सारा देश परिचित है, किन्तु बहुत कम लोग जानते हैं कि 'मैला आँचल' जैसे अप्रतिम आंचलिक उपन्यास ने उनकी लेखनी से कहाँ, किस भूमि पर जन्म पाया था। यह तब की बात है, जब मैं एक अबोध शिशु था और अपनी ननिहाल (पटना सिटी में अवस्थित विशाल परिसरवाली खजांची कोठी') में रहता था । पटना सिटी के मंगल तालाब के किनारे एक सरकारी अस्पताल था। राजेंद्र नगर के फ्लैट में आने से बहुत पहले रेणुजी उसी परिसर के एक आवासीय फ्लैट में निवास करते थे। उन फ्लैटों और मेरी ननिहाल के विशाल आहाते के बीच एक दुर्बल नाला था। रेणुजी अपने फ्लैट के पीछे और पिताजी आहाते के छोर पर जा खड़े होते, तो नाले के अवरोध के बावजूद दोनों आसानी से बातें कर सकते थे। रेणुजी से पिताजी का संपर्क-सम्बन्ध उन प्रारंभिक दिनों का था। पिताजी बताते थे कि मंगल तालाब के उसी छोटे से फ्लैट में रहते हुए रेणुजी के मनःलोक में 'मैला आँचल' के स्फुल्लिंग चमके थे और वहीँ उन्होंने उस अनूठे उपन्यास की रचना की थी।
जब मैं थोड़ा बड़ा हुआ और रेणुजी के लिखे को पढने-समझने लायक हुआ, तो विस्मय-विमुग्ध हो उठा। जिनके घर में मैं शैतानियाँ किया करता था, जिनके कुत्ते को नाहक परेशान किया करता था, वह रेणुजी कितने प्रतिभावान और सरस कथा-लेखक हैं--यह जानकार अपने बालपन की नादानियों का मुझे क्षोभ भी हुआ था; लेकिन तब, मेरा मुझ पर जोर भी कहाँ था ! किराए के मकान को बार-बार बदलने के कारण मेरे पिताजी का आवासीय पता रह-रहकर बादल जाता था। सन १९६१ के अंत में हम श्रीकृष्ण नगर के २३ संख्यक मकान में चले गए थे। राजेंद्र नगर से श्रीकृष्ण नगर की दूरी अधिक थी। अब रेणुजी से साप्ताहिक मुलाकातों में विक्षेप होने लगा था। रेणुजी ही कभी-कभी हमारे घर आ जाते और पिताजी से उनकी लम्बी आकाशवाणीय वार्ताएं हुआ करती थीं । अज्ञेय जी की तरह ही रेणुजी भी गंभीर, किन्तु मस्त मन के यायावर कथाकार थे। उनकी सपनीली आँखों में हमेशा कोई कथा-फलक तैरता रहता था। प्रकृत्या बोलते वह भी कम थे, लेकिन जब बोलते थे, दृढ़ता से बोलते थे। बंधन उन्हें प्रिय नहीं था। स्वछन्द जीवन और लेखन उन्हें रास आता था। हाँ, एक बात उन्हें अज्ञेय जी से किंचित अलग रखती थी--आभिजात्य संस्कारों में पाले-बढ़े अज्ञेय जी अपनी सज-धज और परिधान के प्रति बड़े सजग-सावधान थे और इसके ठीक विपरीत रेणुजी बिलकुल बेफिक्र ! बाद के दिनों में ये बेफिक्री और बढ़ती गई थी। ये बात और है कि बाल्य-काल में मैंने उन्हें सूत-बूट और टाई में भी देखा है। घर में वह ज्यादातर चारखाने कि लुंगी और बनियान पहना करते थे।
एक दिन अचानक ही रेणुजी ने आकाशवाणी की सेवा से छुट्टी पा ली थी और कुछ समय बाद पटना-बम्बई की यात्राओं में व्यस्त रहने लगे थे। उनकी एक कहानी 'मारे गए गुलफाम' पर फिल्म का निर्माण हो रहा था। वह उसी सिलसिले में बम्बई की यात्राएं किया करते थे। अब उनसे मिलना-जुलना कम हो गया था। बाद में वह चलचित्र 'तीसरी कसम' के नाम से जनता के सम्मुख आया। सेल्युलाइड पर वैसा कलात्मक चित्र मैंने दूसरा नहीं देखा। लेकिन, बंबई की रंगीन दुनिया भी उन्हें बाँध न सकी। वह अपनी जड़ और ज़मीन से जुड़े रहे--और अंततः पटना लौट आये।
[क्रमशः]
4 टिप्पणियां:
nice
उपयोगी श्रंखला लिख रहे हैं आप!
ऐसे-ऐसे महारथियों, दिग्गजों के साथ रहे हैं आप, जिनको हमने केवल पढा है. और हमारे लिये किसी कहानी के पात्र की तरह हैं... लेकिन आपको तो उन सब का सान्निध्य मिला है. और हम लोगों को आपका. बहुत सुन्दर श्रृंखला.
मंगल तालाब के उसी छोटे से फ्लैट में रहते हुए रेणुजी के मनःलोक में 'मैला आँचल' के स्फुल्लिंग चमके थे और वहीँ उन्होंने उस अनूठे उपन्यास की रचना की थी।
अद्भुत .....!!
मैला आँचल मैंने भी पढ़ी है एम ए के कोर्स में थी ....!!
बहुत दिनों से कम्प्युताए खराब पड़ा था ....ये यादों का खजाना पढ़ नहीं पाई ....!!
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