[वह मेरी चेतना के द्वार पर देती रही दस्तक…]
वक़्त जिस तेजी से बीत रहा था, उतनी ही तीव्रता से उस अनजानी ऊर्जा-शक्ति का हस्तक्षेप भी बढ़ता जा रहा था। मेरी व्यग्रता और चिंता भी बढ़ने लगी थी! मन हर क्षण इसी फिक्र और उधेड़बुन में लगा रहता कि वह कौन है, जो यह उत्पात कर रहा है। चालीस दुकानवाली तो वर्षों से गायब थी और कानपुर छोड़ने के बाद, मेरी चाहना के बावज़ूद, उसने कभी मेरी सुधि नहीं ली थी। वह तो हमेशा मेरी हित-चिंता में लगी रहती थी, कभी किसी प्रकार का कष्ट मुझे नहीं दिया था उसने। तब फिर वह कौन हो सकता है? क्या वर्षों के मेरे परा-जगत-प्रवेश का ही यह प्रतिफल है? आत्माओं के लोक में अनधिकृत रूप से प्रविष्ट होकर मैंने जो हलचल कई वर्षों तक मचायी थी, उनकी शांति भंग की थी, उसी से रुष्ट होकर कोई आत्मा मुझे दण्डित करना चाहती है क्या? मन में उठनेवाली शंकाएँ बहुत थीं, लेकिन निवारण का मार्ग अवरुद्ध था।...
अब नियमित रूप से पायताने की खिड़की रात में बंद रखी जाने लगी, जिसे सुबह होते ही खोल दिया जाता था। लेकिन बंद खिड़कियाँ आत्माओं का मार्ग भला अवरुद्ध क्या करतीं? यह प्रयत्न तो बस अपनी तसल्ली के लिए था। लेकिन गर्मियों में रात में भी उसे खोलना पड़ता था, क्योंकि खिड़की के बाहर से एक कूलर लगा दिया जाता था, जिससे बाहर की ठंडी हवा का प्रवेश कमरे में हो सके।
जहाँ तक याद है, वे १९८४ की गर्मियों के ही दिन थे। रात के वक़्त आँगन में ज्योत्स्ना का दूधिया उजाला फैला हुआ था। सर्वत्र नीरव शान्ति थी, जिसे कूलर की ज़ोरदार आवाज़ निरंतर भंग कर रही थी । कूलर ने पूरी खिड़की को ढँक लिया था, किन्तु उसके शीर्ष भाग में केवल डेढ़ फुट का स्थान खुला दीखता था, जिससे आँगन के एक छोटे-से टुकड़े का अवलोकन होता था।
गृह-स्वामिनी दोनों बेटियों के साथ निद्रानिमग्न थीं। एक पुस्तक देर तक पढ़कर मैं भी सो गया। जाने कितनी रात बीती होगी, अचानक मैं चौंककर जागा। आँखें खुलते ही मेरी दृष्टि खिड़की के ऊपरी खुले भाग पर पड़ी और मेरे मुँह से हलकी-सी चीख निकल गई। मेरी आवाज़ सुनकर श्रीमतीजी जागीं और उन्होंने घबराकर पूछा--'अरे, क्या हुआ ?' मैं बहुत आतंकित था, उस असहाय दशा में मुंह से आवाज़ भी नहीं निकल रही थी। मैंने हाथ से खिड़की की और इशारा किया। श्रीमतीजी कुछ समझ न सकीं, घबराकर उन्होंने फिर पूछा--'क्या है वहाँ? आपने किसी को देखा क्या?' खिड़की पर दुबारा दृष्टि डालने का मुझे साहस नहीं हो रहा था। मेरी भयभीत दशा से वह भी आतंकित हो रही थीं। अत्यंत बेचैन स्वर में उन्होंने कहा--'आप कुछ कहते क्यों नहीं,कौन था वहाँ?'
बड़ी कठिनाई से मेरे मुँह से इतना भर निकला--'वही, घटवारन, और कौन....?'
यह सुनते ही श्रीमतीजी स्तंभित हो गईं। फटी आँखों से मुझे घूरने लगी। उनकी विस्फारित आँखें देखकर मैं सहम गया। उनका भय, मेरे भय से बड़ा दीखने लगा मुझे! मैंने शीघ्र स्वयं को संयत किया और उन्हें ढाढ़स बंधाने का प्रयास करने लगा--'देखो, परेशान मत हो। ये कौन-सी नयी बात है, मेरे साथ तो यह सब होता ही रहता है।' वह रात तो यूँ ही प्रचंड भय के साये में एक-दूसरे को संयत करते, संभालते बीत गई।
दूसरे दिन के उजाले में श्रीमतीजी मेरे पीछे ही पड़ गईं कि कल रात की बात मैं उन्हें विस्तार से बताऊँ। मैंने उन्हें टालना चाहा, लेकिन वह अपनी ज़िद पर अड़ी रहीं। मैंने उन्हें सावधान भी किया कि रात में उन्हें फिर भय सतायेगा तो मैं जिम्मेदार नहीं होऊँगा। लेकिन वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थीं।
पिछली रात दरअसल हुआ यह था कि तेज़ हवा के झोंके से जिस तरह बंद द्वार हठात खुल जाते हैं, वैसे ही मेरी पलकें भी एकमुश्त खुल गयी थीं और दृष्टि वहीं जा पड़ी थी, जहाँ कूलर और खिड़की के बीच का डेढ़ फुटा आड़ा खुला स्थान था। वहाँ दृष्टि पड़ते ही मेरी रूह काँप गई थी। पूरे बदन में एक झुरझुरी-सी हुई थी और मैं स्तंभित रह गया था।
उस रिक्त स्थान में मुझे एक युवती का सिर दिखा था, जिसके केश खुले और बिखरे हुए थे। उसके अधरों पर एक रहस्य भरी मुस्कान थी और वह मस्तक हवा में खिडकी के कोने से दूसरे कोने तक तैर रहा था। उसके धड़ का कहीं अता-पता नहीं था, या तो वह था ही नहीं अथवा कूलर के पीछे छिपा हुआ था। लेकिन जिस त्वरित गति से वह सिर हवा में तैर रहा था, उससे तो ऐसा ही प्रतीत होता था कि उस बिखरे बालों वाली युवती का मस्तक धड़-विहीन था।... वह दृश्य भयावह था और आज भी मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि वह अर्धतंद्रा या अचेतन की मेरी कल्पना का दृश्य नहीं था। यही देखकर मैं काँप उठा था, मेरे मुँह से हल्की-सी चीख निकल गई थी और मैं जड़वत हो चला था। ...
यह पूरा विवरण मैंने श्रीमतीजी को सुना तो दिया, लेकिन अचिंतित रूप से उनकी सद्यः उपजी प्रथम प्रतिक्रिया चकित करनेवाली थी। उन्होंने कहा--'आपने न जाने क्या सोचकर ऐसी आत्माओं से संपर्क साधा, जो अब आपको ही भयभीत, चिंतित और व्यग्र कर रही हैं। वे जाने क्या-कैसा अहित करें, क्या लाभ हुआ इस सब का ?'
मैंने उन्हें समझाने का प्रयास किया--'ये मेरे द्वारा चयनित आत्माएँ नहीं हैं। ये ऐसी आत्माएँ हैं, जो स्वयं अपनी इच्छा से मेरे संपर्क में आयी हैं। ये हितचिंतक आत्माएं हैं, मेरा कोई अनिष्ट नहीं करेंगी, आप निश्चिन्त रहें। अब तो कई वर्षों से यह सब छूट गया है और वे नहीं चाहतीं कि सम्पर्क पूरी तरह विच्छिन्न हो जाए, इसीलिए मेरी चेतना के द्वार (कमरे की खिड़की के पल्ले) पर दस्तक दे रही हैं।'
श्रीमतीजी क्रुद्ध होती हुई बोलीं--'आपको रात में आकर भयभीत कर देना, कभी कमरे में आकर झकझोरना और कभी खिड़की के आसपास मँडराना--ये कैसी हितचिंता है भला?'
मैंने उन्हें कुछ और समझाना चाहा तो वह अपने नन्हें बच्चों का हवाला देकर अपनी नाराज़गी का इज़हार करने लगीं और उनकी आँखों में आँसू भर आये। इस विवाद का कोई लाभ नहीं होना था। मुझे वहाँ से हट जाना ही उचित प्रतीत हुआ।
पूरा दिन इसी चिंता में गुज़रा कि अब क्या हो ? इस बाधा से मुक्ति कैसे मिले? तन्द्रा-भंग के स्पष्ट आलोक में देखा हुआ दृश्य मदिर स्वप्नलोक नहीं था। वह जाग्रत अन्तर्चक्षुओं से देखा गया भयावह दृष्टि-संयोग था--निर्वृत्त सत्य-सा..., जिसे मैं कभी भूल न सका। लेकिन श्रीमतीजी की जिज्ञासा पर जो प्रथम बोल मुंह से फूटे थे, मेरा मन उसी पर ठहर गया था--'वही, घटवारन, और कौन....?' मुझे याद आया, कभी चालीस दुकानवाली ने भी स्वयं को 'घटवारन' कहा था। दीर्घकालिक चिन्तना से मेरे मन में यह धारणा बद्धमूल होने लगी कि वह बिखरे केशों वाला मस्तक किसी और का नहीं, बल्कि चालीस दुकानवाली आत्मा का ही था। वही मेरी खिड़की के पल्ले बजा रही है। निश्चय ही, वह कुछ कहना चाहती है मुझसे। एक अदद मुलाक़ात के लिए वह व्यग्र-विह्वल है शायद।... इसी सत्य की प्रतीति मुझे होने लगी थी...!
घर से दोपहर का निकला मैं शाम के वक़्त लौटा। श्रीमतीजी अब तक रुष्ट थीं। उन्हें समझाना और संयत करना जरूरी था। मैंने अपना आकलन और अपनी अवधारणा से उन्हें अवगत कराते हुए चालीस दुकानवाली आत्मा का पूरा वृत्तांत कह सुनाया। उन्हें विश्वास दिलाया कि वह मेरी परम हितैषी आत्मा है और उसकी हितैषणा बिल्कुल संदिग्ध नहीं। संभव है, वह मुझसे कुछ कहने को विकल हो, इसीलिए हस्तक्षेप कर रही है। सब सुनकर उन्होंने कहा--'आप जैसा कह रहे हैं, अगर वही सच है तो इस मामले को जल्दी ही सुलझा लें, ताकि आप भी चैन से सो सकें और बच्चों के साथ मैं भी।'
लेकिन तब मेरे वश में कुछ भी नहीं था--उस घर में आत्मा से संयोग की सुविधा बिलकुल नहीं थी। श्रीमतीजी की अति-चिंता भी अकारण नहीं थी... ! लेकिन इस बात का पता मुझे बहुत बाद में चला था कि उसी दिन मेरे घर से बाहर चले जाने के बाद श्रीमतीजी का आक्रोश मेरे प्लेंचेट के बड़ेवाले बोर्ड और आत्माओं से संपर्क की मेरी निजी डायरी पर निकला था और उन्होंने उसे नष्ट कर दिया था।.....
(क्रमशः)
[पुनश्च : मेरी रचनाओं की प्रथम पाठिका मेरी श्रीमतीजी हैं। चर्चा-३३ और इस आलेख को पढ़कर वह कह रही हैं--'वर्षों के प्रयत्न से जिन घटनाओं को मैं भूल सकी थी, उनकी याद आपने फिर दिला दी है। लगता है, अब मेरी रातें फिर भय से भरी होंगी!'--आ.]
वक़्त जिस तेजी से बीत रहा था, उतनी ही तीव्रता से उस अनजानी ऊर्जा-शक्ति का हस्तक्षेप भी बढ़ता जा रहा था। मेरी व्यग्रता और चिंता भी बढ़ने लगी थी! मन हर क्षण इसी फिक्र और उधेड़बुन में लगा रहता कि वह कौन है, जो यह उत्पात कर रहा है। चालीस दुकानवाली तो वर्षों से गायब थी और कानपुर छोड़ने के बाद, मेरी चाहना के बावज़ूद, उसने कभी मेरी सुधि नहीं ली थी। वह तो हमेशा मेरी हित-चिंता में लगी रहती थी, कभी किसी प्रकार का कष्ट मुझे नहीं दिया था उसने। तब फिर वह कौन हो सकता है? क्या वर्षों के मेरे परा-जगत-प्रवेश का ही यह प्रतिफल है? आत्माओं के लोक में अनधिकृत रूप से प्रविष्ट होकर मैंने जो हलचल कई वर्षों तक मचायी थी, उनकी शांति भंग की थी, उसी से रुष्ट होकर कोई आत्मा मुझे दण्डित करना चाहती है क्या? मन में उठनेवाली शंकाएँ बहुत थीं, लेकिन निवारण का मार्ग अवरुद्ध था।...
अब नियमित रूप से पायताने की खिड़की रात में बंद रखी जाने लगी, जिसे सुबह होते ही खोल दिया जाता था। लेकिन बंद खिड़कियाँ आत्माओं का मार्ग भला अवरुद्ध क्या करतीं? यह प्रयत्न तो बस अपनी तसल्ली के लिए था। लेकिन गर्मियों में रात में भी उसे खोलना पड़ता था, क्योंकि खिड़की के बाहर से एक कूलर लगा दिया जाता था, जिससे बाहर की ठंडी हवा का प्रवेश कमरे में हो सके।
जहाँ तक याद है, वे १९८४ की गर्मियों के ही दिन थे। रात के वक़्त आँगन में ज्योत्स्ना का दूधिया उजाला फैला हुआ था। सर्वत्र नीरव शान्ति थी, जिसे कूलर की ज़ोरदार आवाज़ निरंतर भंग कर रही थी । कूलर ने पूरी खिड़की को ढँक लिया था, किन्तु उसके शीर्ष भाग में केवल डेढ़ फुट का स्थान खुला दीखता था, जिससे आँगन के एक छोटे-से टुकड़े का अवलोकन होता था।
गृह-स्वामिनी दोनों बेटियों के साथ निद्रानिमग्न थीं। एक पुस्तक देर तक पढ़कर मैं भी सो गया। जाने कितनी रात बीती होगी, अचानक मैं चौंककर जागा। आँखें खुलते ही मेरी दृष्टि खिड़की के ऊपरी खुले भाग पर पड़ी और मेरे मुँह से हलकी-सी चीख निकल गई। मेरी आवाज़ सुनकर श्रीमतीजी जागीं और उन्होंने घबराकर पूछा--'अरे, क्या हुआ ?' मैं बहुत आतंकित था, उस असहाय दशा में मुंह से आवाज़ भी नहीं निकल रही थी। मैंने हाथ से खिड़की की और इशारा किया। श्रीमतीजी कुछ समझ न सकीं, घबराकर उन्होंने फिर पूछा--'क्या है वहाँ? आपने किसी को देखा क्या?' खिड़की पर दुबारा दृष्टि डालने का मुझे साहस नहीं हो रहा था। मेरी भयभीत दशा से वह भी आतंकित हो रही थीं। अत्यंत बेचैन स्वर में उन्होंने कहा--'आप कुछ कहते क्यों नहीं,कौन था वहाँ?'
बड़ी कठिनाई से मेरे मुँह से इतना भर निकला--'वही, घटवारन, और कौन....?'
यह सुनते ही श्रीमतीजी स्तंभित हो गईं। फटी आँखों से मुझे घूरने लगी। उनकी विस्फारित आँखें देखकर मैं सहम गया। उनका भय, मेरे भय से बड़ा दीखने लगा मुझे! मैंने शीघ्र स्वयं को संयत किया और उन्हें ढाढ़स बंधाने का प्रयास करने लगा--'देखो, परेशान मत हो। ये कौन-सी नयी बात है, मेरे साथ तो यह सब होता ही रहता है।' वह रात तो यूँ ही प्रचंड भय के साये में एक-दूसरे को संयत करते, संभालते बीत गई।
दूसरे दिन के उजाले में श्रीमतीजी मेरे पीछे ही पड़ गईं कि कल रात की बात मैं उन्हें विस्तार से बताऊँ। मैंने उन्हें टालना चाहा, लेकिन वह अपनी ज़िद पर अड़ी रहीं। मैंने उन्हें सावधान भी किया कि रात में उन्हें फिर भय सतायेगा तो मैं जिम्मेदार नहीं होऊँगा। लेकिन वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थीं।
पिछली रात दरअसल हुआ यह था कि तेज़ हवा के झोंके से जिस तरह बंद द्वार हठात खुल जाते हैं, वैसे ही मेरी पलकें भी एकमुश्त खुल गयी थीं और दृष्टि वहीं जा पड़ी थी, जहाँ कूलर और खिड़की के बीच का डेढ़ फुटा आड़ा खुला स्थान था। वहाँ दृष्टि पड़ते ही मेरी रूह काँप गई थी। पूरे बदन में एक झुरझुरी-सी हुई थी और मैं स्तंभित रह गया था।
उस रिक्त स्थान में मुझे एक युवती का सिर दिखा था, जिसके केश खुले और बिखरे हुए थे। उसके अधरों पर एक रहस्य भरी मुस्कान थी और वह मस्तक हवा में खिडकी के कोने से दूसरे कोने तक तैर रहा था। उसके धड़ का कहीं अता-पता नहीं था, या तो वह था ही नहीं अथवा कूलर के पीछे छिपा हुआ था। लेकिन जिस त्वरित गति से वह सिर हवा में तैर रहा था, उससे तो ऐसा ही प्रतीत होता था कि उस बिखरे बालों वाली युवती का मस्तक धड़-विहीन था।... वह दृश्य भयावह था और आज भी मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि वह अर्धतंद्रा या अचेतन की मेरी कल्पना का दृश्य नहीं था। यही देखकर मैं काँप उठा था, मेरे मुँह से हल्की-सी चीख निकल गई थी और मैं जड़वत हो चला था। ...
यह पूरा विवरण मैंने श्रीमतीजी को सुना तो दिया, लेकिन अचिंतित रूप से उनकी सद्यः उपजी प्रथम प्रतिक्रिया चकित करनेवाली थी। उन्होंने कहा--'आपने न जाने क्या सोचकर ऐसी आत्माओं से संपर्क साधा, जो अब आपको ही भयभीत, चिंतित और व्यग्र कर रही हैं। वे जाने क्या-कैसा अहित करें, क्या लाभ हुआ इस सब का ?'
मैंने उन्हें समझाने का प्रयास किया--'ये मेरे द्वारा चयनित आत्माएँ नहीं हैं। ये ऐसी आत्माएँ हैं, जो स्वयं अपनी इच्छा से मेरे संपर्क में आयी हैं। ये हितचिंतक आत्माएं हैं, मेरा कोई अनिष्ट नहीं करेंगी, आप निश्चिन्त रहें। अब तो कई वर्षों से यह सब छूट गया है और वे नहीं चाहतीं कि सम्पर्क पूरी तरह विच्छिन्न हो जाए, इसीलिए मेरी चेतना के द्वार (कमरे की खिड़की के पल्ले) पर दस्तक दे रही हैं।'
श्रीमतीजी क्रुद्ध होती हुई बोलीं--'आपको रात में आकर भयभीत कर देना, कभी कमरे में आकर झकझोरना और कभी खिड़की के आसपास मँडराना--ये कैसी हितचिंता है भला?'
मैंने उन्हें कुछ और समझाना चाहा तो वह अपने नन्हें बच्चों का हवाला देकर अपनी नाराज़गी का इज़हार करने लगीं और उनकी आँखों में आँसू भर आये। इस विवाद का कोई लाभ नहीं होना था। मुझे वहाँ से हट जाना ही उचित प्रतीत हुआ।
पूरा दिन इसी चिंता में गुज़रा कि अब क्या हो ? इस बाधा से मुक्ति कैसे मिले? तन्द्रा-भंग के स्पष्ट आलोक में देखा हुआ दृश्य मदिर स्वप्नलोक नहीं था। वह जाग्रत अन्तर्चक्षुओं से देखा गया भयावह दृष्टि-संयोग था--निर्वृत्त सत्य-सा..., जिसे मैं कभी भूल न सका। लेकिन श्रीमतीजी की जिज्ञासा पर जो प्रथम बोल मुंह से फूटे थे, मेरा मन उसी पर ठहर गया था--'वही, घटवारन, और कौन....?' मुझे याद आया, कभी चालीस दुकानवाली ने भी स्वयं को 'घटवारन' कहा था। दीर्घकालिक चिन्तना से मेरे मन में यह धारणा बद्धमूल होने लगी कि वह बिखरे केशों वाला मस्तक किसी और का नहीं, बल्कि चालीस दुकानवाली आत्मा का ही था। वही मेरी खिड़की के पल्ले बजा रही है। निश्चय ही, वह कुछ कहना चाहती है मुझसे। एक अदद मुलाक़ात के लिए वह व्यग्र-विह्वल है शायद।... इसी सत्य की प्रतीति मुझे होने लगी थी...!
घर से दोपहर का निकला मैं शाम के वक़्त लौटा। श्रीमतीजी अब तक रुष्ट थीं। उन्हें समझाना और संयत करना जरूरी था। मैंने अपना आकलन और अपनी अवधारणा से उन्हें अवगत कराते हुए चालीस दुकानवाली आत्मा का पूरा वृत्तांत कह सुनाया। उन्हें विश्वास दिलाया कि वह मेरी परम हितैषी आत्मा है और उसकी हितैषणा बिल्कुल संदिग्ध नहीं। संभव है, वह मुझसे कुछ कहने को विकल हो, इसीलिए हस्तक्षेप कर रही है। सब सुनकर उन्होंने कहा--'आप जैसा कह रहे हैं, अगर वही सच है तो इस मामले को जल्दी ही सुलझा लें, ताकि आप भी चैन से सो सकें और बच्चों के साथ मैं भी।'
लेकिन तब मेरे वश में कुछ भी नहीं था--उस घर में आत्मा से संयोग की सुविधा बिलकुल नहीं थी। श्रीमतीजी की अति-चिंता भी अकारण नहीं थी... ! लेकिन इस बात का पता मुझे बहुत बाद में चला था कि उसी दिन मेरे घर से बाहर चले जाने के बाद श्रीमतीजी का आक्रोश मेरे प्लेंचेट के बड़ेवाले बोर्ड और आत्माओं से संपर्क की मेरी निजी डायरी पर निकला था और उन्होंने उसे नष्ट कर दिया था।.....
(क्रमशः)
[पुनश्च : मेरी रचनाओं की प्रथम पाठिका मेरी श्रीमतीजी हैं। चर्चा-३३ और इस आलेख को पढ़कर वह कह रही हैं--'वर्षों के प्रयत्न से जिन घटनाओं को मैं भूल सकी थी, उनकी याद आपने फिर दिला दी है। लगता है, अब मेरी रातें फिर भय से भरी होंगी!'--आ.]
1 टिप्पणी:
परा जगत मे संपर्क साधन का कोई अनुभव तो नही पर "जीवात्मा जगत के नियम" पुस्तक की लेखिका के अनुसार सिर्फ सूर्योदय से सूर्यास्त के मध्य ही करना चाहिए, क्योंकि दिन मे शुभ आत्माएं आती हैं
बहरहाल आपकी कथा में यह मोड़ आएगा, उम्मीद नही थी. हमारे अंतर्मन मे परा जगत के लिय एक गहरा डर छुपा होता है जोकि सम्भवतः ईश्वर द्वारा प्रेरित होता है जिससे कि हम अकारण प्राकृतिक नियमों से छेड़छाड न करें
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