फिर आया वह दौर, जिसमें बिहार की तरुणाई ने अंगड़ाई ली थी। लोकनायक जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति का दौर! आन्दोलन के समर्थन में जगह-जगह होनेवाली नुक्कड़ कवि-गोष्ठियों में नागार्जुन और फणीश्वर नाथ 'रेणु' के नेतृत्व में हम युवा उत्साही कवियों, साहित्यानुरागियों का एक दल अनायास बन गया था। जयप्रकाशजी की प्रेरणा से पटना सिटी के चौक पर तीन युवा कवि बारह घंटे की सांकेतिक भूख-हड़ताल पर बैठे थे, उनमें एक मैं भी था। भूख-हड़ताल की समाप्ति पर हमें शिकंजी पिलाने के लिए महाकवि नागार्जुन पधारे थे। उसके बाद जाने कितने चौराहों पर हमने उनकी अगुआई में कविताएँ पढ़ी थीं, भाषण दिए थे और चायखानों में बैठकर सम-सामयिक चर्चाएँ की थीं। आन्दोलन की धार को और अधिक पैनापन देने के लिए नागार्जुन के पास एक-से-बढ़कर एक कारगर साहित्यिक हथियार थे। युवा साथियों के साथ नागार्जुन नवयुवक बन जाते थे। वह अनूठी आत्मीयता और परम स्नेह के साथ हमें अपने साथ ले चले थे। हम सभी उन्हें प्यार से 'नागा बाबा' कहते थे। वार्धक्य की अशक्तता उन्हें रोक न पाती थी, स्वस्थ्य की नरम-गरम स्थितियाँ उनकी गति को अवरुद्ध न कर पाती थीं। सम्पूर्ण क्रांति के आन्दोलन में नागार्जुन मसिजीवियों के प्रखर नेता थे। उन दिनों उनकी एक कविता बहुत लोकप्रिय हुई थी, जिसका पाठ वह झूम-झूमकर और चुटकियाँ बजाकर करते थे --
''इन्दुजी, इन्दुजी!
क्या हुआ आपको, क्या हुआ आपको ?
बेटे को ताड़ दिया, बोड़ दिया बाप को ?
क्या हुआ आपको...?"
बिहार आन्दोलन की गर्म हवाओं में पूरा प्रदेश तपने लगा था। सर्वत्र हिंसक और अहिंसक अवरोध जारी था। हम नवयुवकों की टोली महाकवि नागार्जुन की अगुआई में नुक्कड़ कवि-गोष्ठियाँ करती चलती। कितने उत्साह और ऊर्जा से भरे दिन थे वे ! हम दिन भर एक नुक्कड़ से दूसरे नुक्कड़ का परिभ्रमण करते और जन-जागरण का अभियान चलाते। बीच-बीच में जब भी अवकाश मिलता, हम सभी पटना के कॉफ़ी हाउस या कॉफ़ी बोर्ड की शरण लेते। उन दिनों ये दोनों संस्थान आन्दोलन के युवा नेताओं, प्रबुद्ध नागरिकों, रचनाधर्मी युवा साथियों के प्रमुख अड्डे थे। वहीं आन्दोलन की दशा-दिशा पर गहन विचार-विमर्श होता और आगे की रणनीति तय होती थी। वहाँ एक कप कॉफ़ी का मतलब था--एक घंटे का विश्राम ! कॉफ़ी हाउस की प्रत्येक बैठक में रेणुजी अनिवार्य रूप से उपस्थित रहते थे। चर्चाओं का दौर चलता, कॉफ़ी पर कॉफ़ी पी जाती और हम युवा रचनाकार उत्साहपूर्वक आन्दोलन-समर्थित अपनी-अपनी रचनाएँ उन्हें सुनाते। रेणुजी और नागार्जुनजी पूरे मनोयोग से कविताएँ सुनते और आवश्यक संशोधन-परिमार्जन की सलाह देकर हमारा मार्गदर्शन-उत्साहवर्धन करते। जिस रचना को उन दोनों की स्वीकृति मिल जाती, वह नुक्कड़ कवि-गोष्ठियों में पढ़ी जाती।
पटनासिटी के चौक पर हमारे दो प्रमुख अड्डे थे--भज्जन पहलवान का होटल और सिटी स्वीट हाउस। नागा बाबा सिटी में होते तो हम सदल-बल वहीं जमे रहते। चाय, चर्चाओं, काव्य-विमर्श का दौर अनवरत चलता। हमारे लिए संघर्षों के बीच वे बहुत कुछ सीखने-समझने के दिन थे। हमारा दायरा बढ़ रहा था। हमें बुजुर्गों का आशीष, अग्रजों का मार्गदर्शन और समवयसियों का अतीव उत्साह मिला था। जैसे-जैसे हमारा संघर्ष बढ़ा, शासन का दमन-चक्र भी बढ़ता गया। मुझे याद आते हैं उस दौर के कई नाम, जो हमारी पूर्ववर्ती पीढ़ी के थे, अग्रज थे हमारे--कवि सत्यनारायण, प्रो. आनन्दनारायण शर्मा, गोपीवल्लभ सहाय, कवि राधेश्याम आदि, जिनकी पंक्तियों में तीखी धार थी और तेज आक्रामक अंदाज़ भी था। कवि सत्यनारायणजी की दो पंक्तियाँ देखिये--
'इस नगरी में यही हुआ है,
आग नहीं, सब धुआँ-धुआँ है।'
राधेश्यामजी ने उन्हीं दिनों की गर्म हवाओं में कहा था--
'लंग भरता हुआ आदमी तन के खड़ा हो जाता है।'
हमारी पीढ़ी के शायर प्रेम किरण उसी काल में चर्चित हुए थे और आज तो मकबूल शायरों में शुमार हैं। उनका यह मतला मुझे बहुत मुतासिर करता है--
'एक बच्चा न मिला गाँव में रोनेवाला,
अबके बैरंग ही लौटा है खिलौनेवाला।'
उस दौर में मेरी एक कविता की भी भरपूर सराहना हुई थी--
'तल्खियों से भरा एक जुलूस
चल पड़ा है...।'
बिहार आन्दोलन अपनी चरम परिणति पर पहुँचा ही था कि सन् 1974 में स्नातक अंतिम वर्ष की परीक्षा देकर मै पिताजी के पास दिल्ली चला गया, जो उन दिनों जयप्रकाशजी के आन्दोलन को समर्थित साप्ताहिक पत्र 'प्रजानीति' का संपादन कर रहे थे और जिन्हें जयप्रकाशजी ने ही यह दायित्व उठाने के लिए पटना से दिल्ली भेज दिया था। पटना (बिहार) तो छूटा, मेरी संपृक्ति न छूटी। वह आज भी यथावत् बनी हुई है।
पिताजी की छोड़ी हुई विरासत को परवर्ती पीढ़ियों ने बहुत आगे बढ़ाया है। 'बिजली' और 'आरती' को साहित्य की प्राचीन और नवीन धाराओं के संगम का उज्ज्वल आयोजन कहना उचित होगा। मुझे यह देखकर परम प्रसन्नता और गौरव की अनुभूति होती है कि पिताजी और अज्ञेयजी--दो अभिन्न मित्रों के अथक परिश्रम का स्मारक बनकर ये दोनों पत्रिकाएं तीन जिल्दों में बिहार हितैषी पुस्तकालय में आज भी सुरक्षित हैं।
--आनन्दवर्द्धन ओझा.
27/09/2017
[चित्र : 1) विशाल जन-समुद्र को संबोधित करते जयप्रकाश नारायणजी 2) पटना जंक्शन पर बायें से रेणुजी, अज्ञेयजी, मुक्तजी 3) पूज्य पिताजी 4) नागार्जुनजी।]
''इन्दुजी, इन्दुजी!
क्या हुआ आपको, क्या हुआ आपको ?
बेटे को ताड़ दिया, बोड़ दिया बाप को ?
क्या हुआ आपको...?"
बिहार आन्दोलन की गर्म हवाओं में पूरा प्रदेश तपने लगा था। सर्वत्र हिंसक और अहिंसक अवरोध जारी था। हम नवयुवकों की टोली महाकवि नागार्जुन की अगुआई में नुक्कड़ कवि-गोष्ठियाँ करती चलती। कितने उत्साह और ऊर्जा से भरे दिन थे वे ! हम दिन भर एक नुक्कड़ से दूसरे नुक्कड़ का परिभ्रमण करते और जन-जागरण का अभियान चलाते। बीच-बीच में जब भी अवकाश मिलता, हम सभी पटना के कॉफ़ी हाउस या कॉफ़ी बोर्ड की शरण लेते। उन दिनों ये दोनों संस्थान आन्दोलन के युवा नेताओं, प्रबुद्ध नागरिकों, रचनाधर्मी युवा साथियों के प्रमुख अड्डे थे। वहीं आन्दोलन की दशा-दिशा पर गहन विचार-विमर्श होता और आगे की रणनीति तय होती थी। वहाँ एक कप कॉफ़ी का मतलब था--एक घंटे का विश्राम ! कॉफ़ी हाउस की प्रत्येक बैठक में रेणुजी अनिवार्य रूप से उपस्थित रहते थे। चर्चाओं का दौर चलता, कॉफ़ी पर कॉफ़ी पी जाती और हम युवा रचनाकार उत्साहपूर्वक आन्दोलन-समर्थित अपनी-अपनी रचनाएँ उन्हें सुनाते। रेणुजी और नागार्जुनजी पूरे मनोयोग से कविताएँ सुनते और आवश्यक संशोधन-परिमार्जन की सलाह देकर हमारा मार्गदर्शन-उत्साहवर्धन करते। जिस रचना को उन दोनों की स्वीकृति मिल जाती, वह नुक्कड़ कवि-गोष्ठियों में पढ़ी जाती।
पटनासिटी के चौक पर हमारे दो प्रमुख अड्डे थे--भज्जन पहलवान का होटल और सिटी स्वीट हाउस। नागा बाबा सिटी में होते तो हम सदल-बल वहीं जमे रहते। चाय, चर्चाओं, काव्य-विमर्श का दौर अनवरत चलता। हमारे लिए संघर्षों के बीच वे बहुत कुछ सीखने-समझने के दिन थे। हमारा दायरा बढ़ रहा था। हमें बुजुर्गों का आशीष, अग्रजों का मार्गदर्शन और समवयसियों का अतीव उत्साह मिला था। जैसे-जैसे हमारा संघर्ष बढ़ा, शासन का दमन-चक्र भी बढ़ता गया। मुझे याद आते हैं उस दौर के कई नाम, जो हमारी पूर्ववर्ती पीढ़ी के थे, अग्रज थे हमारे--कवि सत्यनारायण, प्रो. आनन्दनारायण शर्मा, गोपीवल्लभ सहाय, कवि राधेश्याम आदि, जिनकी पंक्तियों में तीखी धार थी और तेज आक्रामक अंदाज़ भी था। कवि सत्यनारायणजी की दो पंक्तियाँ देखिये--
'इस नगरी में यही हुआ है,
आग नहीं, सब धुआँ-धुआँ है।'
राधेश्यामजी ने उन्हीं दिनों की गर्म हवाओं में कहा था--
'लंग भरता हुआ आदमी तन के खड़ा हो जाता है।'
हमारी पीढ़ी के शायर प्रेम किरण उसी काल में चर्चित हुए थे और आज तो मकबूल शायरों में शुमार हैं। उनका यह मतला मुझे बहुत मुतासिर करता है--
'एक बच्चा न मिला गाँव में रोनेवाला,
अबके बैरंग ही लौटा है खिलौनेवाला।'
उस दौर में मेरी एक कविता की भी भरपूर सराहना हुई थी--
'तल्खियों से भरा एक जुलूस
चल पड़ा है...।'
बिहार आन्दोलन अपनी चरम परिणति पर पहुँचा ही था कि सन् 1974 में स्नातक अंतिम वर्ष की परीक्षा देकर मै पिताजी के पास दिल्ली चला गया, जो उन दिनों जयप्रकाशजी के आन्दोलन को समर्थित साप्ताहिक पत्र 'प्रजानीति' का संपादन कर रहे थे और जिन्हें जयप्रकाशजी ने ही यह दायित्व उठाने के लिए पटना से दिल्ली भेज दिया था। पटना (बिहार) तो छूटा, मेरी संपृक्ति न छूटी। वह आज भी यथावत् बनी हुई है।
पिताजी की छोड़ी हुई विरासत को परवर्ती पीढ़ियों ने बहुत आगे बढ़ाया है। 'बिजली' और 'आरती' को साहित्य की प्राचीन और नवीन धाराओं के संगम का उज्ज्वल आयोजन कहना उचित होगा। मुझे यह देखकर परम प्रसन्नता और गौरव की अनुभूति होती है कि पिताजी और अज्ञेयजी--दो अभिन्न मित्रों के अथक परिश्रम का स्मारक बनकर ये दोनों पत्रिकाएं तीन जिल्दों में बिहार हितैषी पुस्तकालय में आज भी सुरक्षित हैं।
--आनन्दवर्द्धन ओझा.
27/09/2017
[चित्र : 1) विशाल जन-समुद्र को संबोधित करते जयप्रकाश नारायणजी 2) पटना जंक्शन पर बायें से रेणुजी, अज्ञेयजी, मुक्तजी 3) पूज्य पिताजी 4) नागार्जुनजी।]
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