मंगलवार, 12 दिसंबर 2017

शीर्षक-विहीन...

पिछली रात किसी ने दी आवाज़
मैं उस पुकार की खामोशी से
शिनाख़्त करता रहा ।
खिल उठते हैं फूल बेशुमार, रंग-बिरंगे
मोगरे-लिलि-गुलदाउदी के
जब-जब यह अजानी पुकार सुनी है
ऐसा ही होता आया है,
जीवन में तब-तब वसंत आया है।

यह मुगालता भी अजीब है
कि जो दीखता है
वह होता नहीं
और जो होता है
उसका वजूद नहीं।

सोचता हूँ,
किस रहस्य-लोक से आती है पुकार ?
कौन है जो पुकरता है मुझे
और आँखें खोलते ही हो जाता है विलुप्त
वह तुम नहीं हो सकते न?
तुम होते तो अंतर्धान क्यों होते?
मुझको ही तुम्हारे होने का
भ्रम हुआ होगा
वह होगा कोई गुल नया,
तुम्हें ही पता होगा?

अब इस फिक्र से हलकान हूँ कि
वह किसकी पुकार थी,
जो आवाज़ देकर हो गया ख़ामोश
क्यों उसकी पुकार इतनी बेकरार थी।

जानता हूँ,
परदों के पीछे भी
हो रहा यातनाओं का सफ़र
सामने जो मंज़र है
दिखावे की दुनिया है...
आवाज़ देकर तुम गुमसुम न रहो
तो कैसे चलेगा बापर्दा
यातनाओं का कारवां?

'जिन पर गुज़रता है हादसा,
वही जानते हैं,
हमदर्द तो अफ़सोस भी
डकार जाते हैं..।'
(--आनन्द. 6-12-2017)

2 टिप्‍पणियां:

Meena sharma ने कहा…

कौन है जो पुकरता है मुझे
और आँखें खोलते ही हो जाता है विलुप्त
वह तुम नहीं हो सकते न?
तुम होते तो अंतर्धान क्यों होते?
इसी रहस्य को खोजने में मनुष्य कस्तूरीमृग बना भटकता है अक्सर...सुंदर रचना। सादर नमन।

ब्लॉग बुलेटिन ने कहा…

आज सलिल वर्मा जी ले कर आयें हैं ब्लॉग बुलेटिन की १९०० वीं पोस्ट ... तो पढ़ना न भूलें ...

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, 1956 - A Love story - १९०० वीं ब्लॉग-बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !