[बस अर्ध शती पूरी होने में एक बरस बाकी है और माँ, तुम्हारे बिना मन का आँगन वैसा ही है--बियाबान-सा! 4 दिसम्बर 2014 की वही पुरानी कविता माँ की स्मृति में, उसके पूज्य चरण में अर्पित...]
माँ : एक अनुस्मृति...
अब बहुत याद नहीं आती उसकी--
वह, जो बहुत पहले
बीच राह में मुझे छोड़ गयी थी;
लेकिन मेरी स्मृतियों के
निर्मल कोश में
सदा-सदा के लिए अंकित है वह...!
अब बहुत याद नहीं आती उसकी,
किसी कार्य-प्रयोजन पर,
किसी अनुष्ठान-विशेष पर,
जैसे छोटे भाई का विवाह हो,
मेरी बिटिया की शादी हो
और देव-पितर के स्मरण के बाद
मातृका-पूजन करते हुए
उसके नाम का अन्न-ग्रास
निकाला गया हो और--
ज्येष्ठाधिकार के कारण
मुझे ही वह थाली उसे सौंपनी हो
तो बड़ी शिद्दत से याद आती है वह,
चुभती हुई यादें--
मर्म को बेधती हुई...!
हर साल मेरे साथ
दिसंबर माह में ऐसा ही होता है,
यादों के आसमान में
पीछे, बहुत पीछे कहीं
उड़ता चला जाता हूँ
और उसकी पतली किनारीवाली
सफ़ेद साड़ी का आँचल थाम लेता हूँ,
पूछता हूँ उससे--
'तुम कैसी हो अम्मा?
बहुत दिनों से याद भी नहीं आयीं,
क्यूँ...?'
वह कुछ नहीं कहती,
रहती है मौन
और जैसी उसकी आदत थी,
धूप में स्याह पड़ जानेवाले
पावर के शीशे का अपना चश्मा
वह ऊपर उठाती है और
आँचल के एक छोर से
पोछती है अपनी गीली हो आई आँखें...
यह दृश्य देखते हुए
मेरी आँखें धुंधली पड़ जाती हैं
और ओझल होने लगती है
उसकी सम्मोहक छवि...!
मेरे जैसे दुष्ट, अशालीन और उद्दंड बालक को
सही राह पर लाने के लिए
उसने जाने कितनी पीड़ा सही-भोगी थी,
कष्ट उठाये थे...
मेरी बड़ी-बड़ी शैतानियों पर
कैसे वह वज्र कठोर हो जाती थी
और मुझे दण्डित कर
स्वयं पीड़ित होती थी...!
ब्राह्म मुहूर्त्त में हमें जगाने के लिए
वह जीवन-भर
सुबह चार बजे जाग जाती,
शरीर, मन और मस्तिष्क के सुपोषण के लिए
सौ-सौ जतन करती
पूजा-पाठ, कीर्तन करती,
दफ्तर जाती, घर के दायित्व निभाती
विद्यालय-निरीक्षण के लिए यात्राएं करती...
उसका तपःपूत कर्ममय जीवन
याद करता हूँ तो हैरत होती है
और अपनी नादानियों के लिए
आज होती है ढेर सारी कोफ़्त...!
उसका अंतिम दर्शन तो
सचमुच अलौकिक दर्शन था--
सुबह-सबेरे वह गई थी गंगा के घाट
मैं उसे पानी के जहाज तक
छोड़ने गया था--
जेटी से होते हुए मैं उसके साथ
जहाज के सबसे ऊपरी तल पर
प्रथम श्रेणी में जा पहुंचा...
मेघाच्छादित आकाश था
नीचे गंगा की कल-कल निर्मल धारा थी
और तेज शीतल-स्वच्छ हवा
निर्द्वन्द्व बह रही थी,
मैंने जहाज के अग्र भाग में
एक छोर पर पड़ी आराम कुर्सी के पास
रखा उसका सामान,
झुककर उसके चरण छुए
और फिर वापसी के लिए चल पड़ा--
मैं पांच कदम ही बढ़ा था
कि उसने पुकारा मुझे,
मैंने पलटकर उसकी तरफ देखा
और हतप्रभ रह गया...!
श्वेत साड़ी में,
तेज हवा में लहराता उसका आँचल
उड़ते, खुले, घने कुंतल केश--
वह कोई देवदूती-सी दिखी मुझे...
जैसे माता जाह्नवी स्वयं
आ खड़ी हुई हों सम्मुख,
मैं मंत्रमुग्ध-सा उसके पास पहुंचा,
उसने अपने दोनों हाथ
मेरे कन्धों पर रखे और--
थोड़े उलाहने, थोड़े उपदेश दिए,
समझाया मुझे...!
मैं हतवाक था, कुछ कह न सका,
बस, उस दिव्य मूर्ति को
अपलक देखता रहा...
और अचानक--
जहाज का भोंपू बज उठा;
पुनः प्रणाम कर लौटना पड़ा मुझे...!
फिर कभी उसे देखना,
बातें करना नसीब न हुआ;
लेकिन उसकी दिव्य मूर्ति,
वह भव्य-भास्वर स्वरूप आज भी
मन-प्राण पर यथावत अंकित है
और उसका वह स्वर गूंजता है कानों में...!
खूब जानता हूँ,
उन्हीं स्वरों ने, उसी पुकार ने
मुझे कमोबेश ठीक-ठाक
आदमी बनाया है...!
सोचता हूँ,
क्यों नहीं बहुत याद आती है वह...?
क्या आधी शती के दीर्घ-काल ने
उसकी स्मृतियों को
इतना धुंधला कर दिया है
कि मन अब उसकी ओर जाता ही नहीं...??
उसकी पुण्य-तिथि पर
आज जब कलम उठाई थी,
सोचा था, स्मृति-तर्पण करूंगा ,
नमन करूंगा उसे,
लिखूंगा मैं भी
अपनी माँ पर एक कविता...!
मानता हूँ, मुझसे माँ पर कविता नहीं होती...!!
'विदा-जगत' कहने के ठीक पहले
एकादशी की पूर्व-संध्या में
वह बाज़ार से ले आई थी
भजन-मग्न पवन-सुत का एक चित्र,
दूसरा राम-जानकी का...!
भजन की मुद्रा में
आज भी मग्न हैं महावीर
और मंद-मंद मुस्कुराते हैं प्रभु राम...
बस, माता जानकी खुली आँखों से निर्निमेष
देखा करती हैं जगत-प्रवाह--
जिसे पार कर गई है मेरी माँ...!!
माँ : एक अनुस्मृति...
अब बहुत याद नहीं आती उसकी--
वह, जो बहुत पहले
बीच राह में मुझे छोड़ गयी थी;
लेकिन मेरी स्मृतियों के
निर्मल कोश में
सदा-सदा के लिए अंकित है वह...!
अब बहुत याद नहीं आती उसकी,
किसी कार्य-प्रयोजन पर,
किसी अनुष्ठान-विशेष पर,
जैसे छोटे भाई का विवाह हो,
मेरी बिटिया की शादी हो
और देव-पितर के स्मरण के बाद
मातृका-पूजन करते हुए
उसके नाम का अन्न-ग्रास
निकाला गया हो और--
ज्येष्ठाधिकार के कारण
मुझे ही वह थाली उसे सौंपनी हो
तो बड़ी शिद्दत से याद आती है वह,
चुभती हुई यादें--
मर्म को बेधती हुई...!
हर साल मेरे साथ
दिसंबर माह में ऐसा ही होता है,
यादों के आसमान में
पीछे, बहुत पीछे कहीं
उड़ता चला जाता हूँ
और उसकी पतली किनारीवाली
सफ़ेद साड़ी का आँचल थाम लेता हूँ,
पूछता हूँ उससे--
'तुम कैसी हो अम्मा?
बहुत दिनों से याद भी नहीं आयीं,
क्यूँ...?'
वह कुछ नहीं कहती,
रहती है मौन
और जैसी उसकी आदत थी,
धूप में स्याह पड़ जानेवाले
पावर के शीशे का अपना चश्मा
वह ऊपर उठाती है और
आँचल के एक छोर से
पोछती है अपनी गीली हो आई आँखें...
यह दृश्य देखते हुए
मेरी आँखें धुंधली पड़ जाती हैं
और ओझल होने लगती है
उसकी सम्मोहक छवि...!
मेरे जैसे दुष्ट, अशालीन और उद्दंड बालक को
सही राह पर लाने के लिए
उसने जाने कितनी पीड़ा सही-भोगी थी,
कष्ट उठाये थे...
मेरी बड़ी-बड़ी शैतानियों पर
कैसे वह वज्र कठोर हो जाती थी
और मुझे दण्डित कर
स्वयं पीड़ित होती थी...!
ब्राह्म मुहूर्त्त में हमें जगाने के लिए
वह जीवन-भर
सुबह चार बजे जाग जाती,
शरीर, मन और मस्तिष्क के सुपोषण के लिए
सौ-सौ जतन करती
पूजा-पाठ, कीर्तन करती,
दफ्तर जाती, घर के दायित्व निभाती
विद्यालय-निरीक्षण के लिए यात्राएं करती...
उसका तपःपूत कर्ममय जीवन
याद करता हूँ तो हैरत होती है
और अपनी नादानियों के लिए
आज होती है ढेर सारी कोफ़्त...!
उसका अंतिम दर्शन तो
सचमुच अलौकिक दर्शन था--
सुबह-सबेरे वह गई थी गंगा के घाट
मैं उसे पानी के जहाज तक
छोड़ने गया था--
जेटी से होते हुए मैं उसके साथ
जहाज के सबसे ऊपरी तल पर
प्रथम श्रेणी में जा पहुंचा...
मेघाच्छादित आकाश था
नीचे गंगा की कल-कल निर्मल धारा थी
और तेज शीतल-स्वच्छ हवा
निर्द्वन्द्व बह रही थी,
मैंने जहाज के अग्र भाग में
एक छोर पर पड़ी आराम कुर्सी के पास
रखा उसका सामान,
झुककर उसके चरण छुए
और फिर वापसी के लिए चल पड़ा--
मैं पांच कदम ही बढ़ा था
कि उसने पुकारा मुझे,
मैंने पलटकर उसकी तरफ देखा
और हतप्रभ रह गया...!
श्वेत साड़ी में,
तेज हवा में लहराता उसका आँचल
उड़ते, खुले, घने कुंतल केश--
वह कोई देवदूती-सी दिखी मुझे...
जैसे माता जाह्नवी स्वयं
आ खड़ी हुई हों सम्मुख,
मैं मंत्रमुग्ध-सा उसके पास पहुंचा,
उसने अपने दोनों हाथ
मेरे कन्धों पर रखे और--
थोड़े उलाहने, थोड़े उपदेश दिए,
समझाया मुझे...!
मैं हतवाक था, कुछ कह न सका,
बस, उस दिव्य मूर्ति को
अपलक देखता रहा...
और अचानक--
जहाज का भोंपू बज उठा;
पुनः प्रणाम कर लौटना पड़ा मुझे...!
फिर कभी उसे देखना,
बातें करना नसीब न हुआ;
लेकिन उसकी दिव्य मूर्ति,
वह भव्य-भास्वर स्वरूप आज भी
मन-प्राण पर यथावत अंकित है
और उसका वह स्वर गूंजता है कानों में...!
खूब जानता हूँ,
उन्हीं स्वरों ने, उसी पुकार ने
मुझे कमोबेश ठीक-ठाक
आदमी बनाया है...!
सोचता हूँ,
क्यों नहीं बहुत याद आती है वह...?
क्या आधी शती के दीर्घ-काल ने
उसकी स्मृतियों को
इतना धुंधला कर दिया है
कि मन अब उसकी ओर जाता ही नहीं...??
उसकी पुण्य-तिथि पर
आज जब कलम उठाई थी,
सोचा था, स्मृति-तर्पण करूंगा ,
नमन करूंगा उसे,
लिखूंगा मैं भी
अपनी माँ पर एक कविता...!
मानता हूँ, मुझसे माँ पर कविता नहीं होती...!!
'विदा-जगत' कहने के ठीक पहले
एकादशी की पूर्व-संध्या में
वह बाज़ार से ले आई थी
भजन-मग्न पवन-सुत का एक चित्र,
दूसरा राम-जानकी का...!
भजन की मुद्रा में
आज भी मग्न हैं महावीर
और मंद-मंद मुस्कुराते हैं प्रभु राम...
बस, माता जानकी खुली आँखों से निर्निमेष
देखा करती हैं जगत-प्रवाह--
जिसे पार कर गई है मेरी माँ...!!
2 टिप्पणियां:
नमन।
जाने कितने हो मौकों पर यादों का झरोखा निकल पड़ता है
मर्मस्पर्शी
नमन!
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