बुधवार, 12 फ़रवरी 2014

प्रहार की प्रतिध्वनियाँ...


नयी बहस में
बीच सड़क पर
ठहर गई है ज़िन्दगी
और एक अजनबी ज़बान में
बोलने लगी है,
तुम कैसे समझोगे उसकी बात?
जानता हूँ तुम्हारी मजबूरी,
फिर भी ज़िन्दगी की नयी ज़बान को
समझना है ज़रूरी...!

क्या ये अजनबी ज़बान
अनजानी ही रह जायेगी
या सुनहरा हर्फ़ बनकर
किसी बियाबान में
दफ्न हो जायेगी अनंतकाल के लिए?
और फिर गहन निद्रा के बाद,
एक दीर्घकालिक विराम के बाद
क्या फिर उठेगा कोई
भाषाओं और लिपियों का मर्मज्ञ
शिलालेख पढ़ने को?
अर्थ-अभिप्राय समझाने-समझने को?

पैंसठ वर्षों की स्वतन्त्रता में
पूरी आज़ादी से चलती रही है राजनीति
एक-के-पीछे एक सिर झुकाये हुए
भेंड़-चाल-सी..
उन्हें हाँकता रहा है कोई
स्वयंभू आचार्य
और सोया रहा है जन-समुद्र
अपने तल में छिपाए
अनल से भरा विचार-पिंड...!

इसलिए सुनो,
ध्यान से सुनो,
अपनी सम्पूर्ण अंतश्चेतना को जगाकर सुनो--
वह बोल रहा है अजनबी ज़बान
शब्दों के बीच शोर भरते हुए,
वह समय की शिला पर
खोद रहा है नयी लिपियाँ
अपनी पहचान से मुक्त,
गढ़ रहा है नया इतिहास
क्षणों को अतीत का हिसा बनाते हुए...!

क्योंकि अगर तुम सुनोगे-पढ़ोगे नहीं
तो कैसे कर सकोगे स्वागत
नयी सुबह का...?
और सुबह तो होगी...
तुम सबकुछ अनदेखा कर सकते हो
लेकिन,
सुबह के होने को
खारिज नहीं कर सकते...!

तुम प्रहारों को
प्रतिबंधित कर सकते हो
लेकिन जितनी चोटें हो चुकी हैं
उनकी गूँज को,
प्रतिध्वनियों को
नहीं रोक सकते...!
वे गूंजती रहेंगी--
अनवरत...!

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