[तीसरी क़िस्त]
पिताजी के प्रति नलिनजी का अनुज-भाव ऐसा प्रबल था कि वे पिताजी को देखते ही उठ खड़े होते थे। एक बार वे किसी सभा की अध्यक्षता कर रहे थे, तभी पिताजी ने सभा-भवन में प्रवेश किया। पिताजी को देखते ही नलिनजी उठ खड़े हुए। पिताजी के बैठ जाने के बाद ही वे आसनासीन हुए। पिताजी को उनका यह अभ्युत्थान उचित नहीं जान पड़ा। उन्होंने सभा की समाप्ति पर एकांत में नलिनजी से कहा था--"आप सभा में नलिन ही नहीं थे, अध्यक्ष भी थे। यह तो आदर देने की पराकाष्ठा हुई। सभा-भावन में अध्यक्ष सर्वोच्च आसन पर होता है। उसका किसी के लिए भी उठ खड़ा होना उचित नहीं है।" नलिनजी ने पिताजी की बात शांति से सुनी, फिर अपनी गम्भीर शालीनता से बोले--"सम्भवतः आप उचित ही कह रहे हैं, लेकिन आपके आदेश का पालन करना मेरे लिए अब कठिन है; क्योंकि ऐसे आचरण की मुझे आदत पड़ चुकी है।" पिताजी हंसकर चुप रह गए थे!
नलिनजी ऐसे ही थे, जिन्हें आदर देते, भरपूर देते; जिनपर स्नेह लुटाते, दिल खोलकर लुटाते; जिनकी मदद को आतुर हो जाते, उनके लिए किसी भी हद तक जाने को तत्पर रहते। वे बड़ों के प्रति विनयी और अत्यंत शिष्ट थे, लेकिन किसी अनुचित बात का प्रतिकार करने से कभी नहीं चूकते थे। कठोर व्यंग्य भी उनकी ज़बान से ऐसी प्रच्छन्न तहों में लिपटा उद्धृत होता कि जिसपर आक्रमण होता, उसे भी समझने में वक़्त लग जाता कि यह प्रहार उसी पर हुआ है।
नलिनजी ने बहुत पढ़ा था, मर्मस्पर्शी कहानियाँ लिखी थीं। उनकी कहानी 'विष के दाँत' को कालजयी कथा का गौरव मिला था। उन्होंने निबंध लिखे, कविताएँ लिखीं, अनेक ग्रंथावलियों का सम्पादन किया और सम्पादकीय आलेख लिखे। आलोचना-समालोचना तो उनकी सहज लेखनचर्या-सी थी। इन सब में उनकी कलम का जादू सिर चढ़कर बोलता है, सबमें उनकी निजस्विता की गहरी छाप है। उन्होंने कविता में एक नए वाद की स्थापना की थी--'नकेनवाद' की। हिंदी काव्य-साहित्य के विवेचन-विश्लेषण में जिसकी चर्चा आज भी अनिवार्यतः होती है। उनकी क्षणिकाओं, उनके सॉनेट की विद्वद्जन मीमांसा और अर्थविन्यास ही करते रह जाते थे।
तत्कालीन मूर्धन्य लेखकों, कवियों-कथाकारों में नलिनजी की प्रशंसा पाने की होड़ मची रहती थी। मुझे याद है, बाल्यकाल में मेरे छोटे चाचा स्व. भालचंद्र ओझाजी की एक कहानी 'कतार के पैर' की उन्होंने आकाशवाणी, पटना पर एक वार्ता में भूरि-भूरि प्रशंसा की थी, जिसे सुनकर छोटे चाचा प्रफुल्लित हो उठे थे। तब मैं बहुत छोटा था, किन्तु पिताजी की छाया बना उन्हीं के कक्ष के आसपास मँडराता रहता था। अतः पिताजी और नलिनजी की ऐसी कई प्रियवार्ताएँ मैंने सुनी थीं, जिनमें इन्हीं साहित्यिक विषयों पर बातें होती थीं। छोटे चाचाजी की कहानी की अतिशय प्रशंसा सुनकर एक दिन पिताजी ने नलिनजी से कहा था--"भालचंद्र की कहानी की आपने आत्यंतिक प्रशंसा की है। ज़रा सँभल के, कहीं ऐसा न हो कि इस प्रशंसा से उनका दिमाग फिर जाए।" पिताजी की बात सुनकर नलिनजी हमेशा की तरह मुस्कुराये और बोले--"मैं प्रशंसा, भर्त्सना या कटु आलोचना नहीं करता। रचना जैसी होती है, मेरी कलम उसे वैसा ही महत्व-सम्मान देती है। भालचंद्र में कहानी-लेखन की अद्भुत प्रतिभा है और यह कहानी तो नई बुनावट में कही गई सचमुच अनूठी कथा है। मैं मखमल को टाट कैसे कह दूँ ?" नलिनजी की प्रशंसा श्रेष्ठ लेखन के प्रमाण-पत्र की तरह थी। आमतौर पर लोग आलोचनाएं पचा नहीं पाते हैं, लेकिन नलिनजी द्वारा की गई कटुतम आलोचनाएं भी कुनैन की गोली पर मीठी चाशनी चढ़ी-सी होती थीं और उन्हें नतशिर होकर सर्वत्र स्वीकार किया जाता था।
[क्रमशः]
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