।।कष्ट-कथा।।
'क्या ज़रूरी था, दाढ़ तोड़ के जाना तेरा,
माना, तू नरमदिल न हुआ, ठेकुआ मेरा...!'
बिहारी भारत के किसी कोने में रहे, वह अपनी प्रवृत्ति से विवश रहता है। गर्मियों में उसे चाहिए आम-लीची-बेल, हर मौसम में सत्तू, सुबह के नाश्ते में जलेबी-कचौड़ी-घुघनी और शाम के वक़्त भूँजा ! गाय-बकरी की तरह दिन-भर जुगाली करने को चाहिए मगही पान और सुगन्धित तम्बाकू! छठ-व्रत के समय ठेकुए-खजूर के लिए उसका जी मचलता है और होली के मौसम में गुझिया-पेडुकिया के लिए उसकी आत्मा ऐंठने लगती है! और, किसी भी दशा में प्रतिदिन रीति-नीति-राजनीति तथा साहित्य पर बतकुच्चन के लिए उसे चाहिए मित्रों-संघतियों की एक टोली, अपने बहुत करीब !
अजीब जीव होता है बिहारी--मेहनतकश, श्रमजीवी और हठी भी! किसी भी काम के लिए तत्पर, यह कहता हुआ--"होइबे नहीं करेगा? अरे, होगा कइसे नहीं?" और बिहार-रत्न कविवर दिनकर लिख भी तो गए हैं--
'ख़म ठोंक ठेलता है जब नर,
पर्वत के जाते पाँव उखड!
मानव जब जोर लगता है,
पत्थर पानी बन जाता है!!'
दिनकरजी की इस ललकार की अनसुनी कर देनेवाला भला बिहारी कैसे हो सकता है?
उस पर तुर्रा ये कि बिहारी अगर ब्राह्मण हुआ तो उसका विलक्षण मिष्टान्न-प्रेम तो जग-जाहिर है ही! कहा गया है न,'विप्रम् मधुरं प्रियं!' इसी कथन का उल्लेख करते हुए एक बार किसी ने कहा था--'पण्डितजी तो ऐसे मिष्टान्न-प्रेमी होते हैं कि गुड़ का एक टुकड़ा कहीं डाल दीजिए, पंडितजी वहीं चिपके मिलेंगे!' मुझे लगता है, भलेआदमी ने बहुत गलत नहीं कहा था। ....
पिछले साल अक्टूबर में, छठ पूजा के बाद, आस लगी रही कि बिहार से कोई-न-कोई आएगा, छठ के ठेकुए लाएगा--पांच-दस मुझे भी प्रसाद के रूप में दे जाएगा। सो, प्रतीक्षारत रहा और पलटते पन्नों की तरह दिन बीतते रहे, बिहार से कोई भलामानुस आया ही नहीं और ठेकुए की लालसा में जी मचलता रहा, आत्मा ऐंठती ही रही।
आख़िरश, एक दिन बिहारी का ब्रह्मतेज जागा, हठधर्मी, श्रमजीवी और स्वाबलम्बी जो ठहरा ! श्रीमतीजी विद्यालय गयी थीं। पूरे घर में मेरा साम्राज्य था। मैंने गुड़ की भेली उठाई। भई, पुणे का गुड़ था--पत्थरदिल था ! तोड़े न टूटता था। मैंने उसे नरमदिल बनाने के लिए धीमी आँच पर पानी में डालकर चढ़ा दिया। बगल के कमरे में टी.वी.ऑन था। बिहार से संबंधित महत्त्व का एक समाचार कानों पड़ा तो मैं दूसरे कमरे में दाखिल हुआ और समाचार सुनाने लगा ! अचानक गुड का ख़याल आया। किचेन में दौड़कर पहुँचा। पत्थरदिल गुड़ तो मोम-सा पिघलकर लेई बन गया था और खौल रहा था। मैंने शीघ्रता से बर्नर बुझाया और आंटे में उसे मिलाकर हाथ जला-जलाकर गूँथने लगा। खोजकर पटनहिया साँचा निकाला और उस पर परिश्रमपूर्वक आंटे की छोटी-छोटी गोलियों को ठेकुए की आकृति में ढालने लगा। जैसे-जैसे गुँथा हुआ आँटा ठंढा होता जा रहा था, वैसे-वैसे वह पथराता जा रहा था। अब तो साँचे पर दबने में भी उसे आपत्ति थी! मेरे हठी और श्रमजीवी मन ने हठ न छोड़ा ! बिहारी के स्वाभिमानी मन में दो ही वाक्य गूँज रहे थे--'तू है बिहारी, तो कर परिश्रम ! हार गया, तो बिहारी कैसा?'
लीजिये हुज़ूर, घंटों श्रम का प्रतिफल हुआ कि अब शक्लो-सूरत से ठेकुए तैयार थे, बस, उन्हें रिफाइंड में डूब-उतरा कर और थोड़ी देर नर्त्तन कर कड़ाही से बाहर आना भर था! श्रीमतीजी के विद्यालय से लौट आने के पहले ही यह कृत्य भी पूरा हुआ! ठेकुए तो देखते ही बनते थे--तले हुए लाल-लाल, सोंधे-कुरकुरे ठेकुए! लेकिन अभी गर्म थे, मुँह में डाल लेने का रिस्क कौन लेता ? सुविज्ञ बिहारी तो हरगिज़ नहीं !!
ठेकुए के शीतल होने की प्रतीक्षा हो ही रही थी कि श्रीमतीजी आ पहुँचीं ! घर में पाँव रखते ही चहकीं--"क्या बना है घर में ? बड़ी सुगंध आ रही है। क्या बनाया है 'मेड' ने ?"
मैंने गौरव से भरकर कहा--ठेकुए बनाये हैं मैंने--खास्ते और कुरकुरे--टुह-टुह लाल!'
श्रीमतीजी को सहसा विश्वास नहीं हुआ, विस्फारित नेत्रों से मुझे घूरते हुए बोलीं--'आपने?'
मेरा जी तो अगराया हुआ था--छाती ठोंकते हुए मैंने कहा--'हाँ भई, मैंने !'
दो-तीन घण्टों बाद ठेकुएजी ठंडे पड़े, एक मैंने, एक श्रीमतीजी ने मुश्किल से खाए। मेरा मन रखने को श्रीमतीजी ने नरमदिली से कहा--'मोयन नहीं डाला क्या? ठेकुआ थोड़ा कड़ा हो गया है।'
मैं भला क्या कहता? 'मोयन' शब्द से पहली बार मुलाकात जो हुई थी!
दूसरे दिन जब ठेकुए बिलकुल ठण्डे पड़ गए। मैं बड़ी हसरत से उनके पास गया। थोड़ी देर तक निहारता रहा उन्हें ! दिखने में तो वे बहुत सुदर्शन थे, आकर्षित करते थे अपनी ओर, किन्तु पुणे के गुड की तरह पत्थरदिल हो गये थे रात-भर में! मन मारकर रह गया, दाँत से उसका एक टुकड़ा भी काट लेना असंभव था ! मेरा सारा उत्साह भी ठण्ढा पड़ने लगा।
सप्ताह-भर में श्रीमतीजी ने ऐलानियाँ घोषणा कर दी कि ये ठेकुए असाध्य-असंभव खाद्य-सामग्री हैं! उन्होंने स्टील का एक बड़ा कटोरदान ठेकुओं से भरकर कबर्ड के किसी एकांत में झोंक दिया और शेष ठेकुओं को एक पॉलिथीन में भरकर कामवाली बाई को दे दिया, इस हिदायत के साथ कि लोढ़े से तोड़-कूचकर अपने बच्चों को खाने को दे! बाई तो खुश हुई, लेकिन मिष्टान-प्रेमी बिहारी का मन मुरझा गया! वह सोचता ही रहा कि जिन ठेकुओं के लिए स्वयंपाकी बना, उनकी रक्षा वह कैसे करे?
लेकिन एक-डेढ़ महीना बीत गया, ठेकुए तो मन से उतर ही गए थे, यादों की गलियों में कहीं खो भी गए।
वह जनवरी का महीना था! उस दिन भी घर पर मेरा ही आधिपत्य था। जैसे चूहा किसी खाद्य-सामग्री के लिए घुरियाता है, ठीक वैसे ही सुबह के जलपान के बाद किसी मीठी सामग्री की तलाश में भटकता हुआ मैं कबर्ड में रखे कटोरदान तक जा पहुँचा! बहुत दिनों के बाद उन्हें देखकर मन में हर्ष की लहर दौड़ गई! मैंने एक ठेकुआ उठाया और बांयीं दाढ़ से तोड़ने की कोशिश की। वज्र ठेकुआ काहे को टूटता? मैंने बायीं दाढ़ से भरपूर जोर लगाया और तभी दायीं दाढ़ में कनपटी के पास नगाड़े बज उठे--'कड़-कड़-कड़'! दिन में तारे देखने का सुख तो मिला, लेकिन असहनीय पीड़ा भी हुई! दायें कल्ले पर हाथ रखकर अपनी चौकी पर धम्म-से जा बैठा।
दोपहर में जब श्रीमतीजी आयीं, तब तक तो दायें जबड़े पर सूजन आ गयी थी! उन्होंने मेरी हालत देखी तो दाँतों तले अपनी ऊँगली दबा ली, फिर गुस्से से बोलीं--'इन नामुराद ठेकुओं पर मुँह मारने की क्या जरूरत थी? मैं तो इन्हें फेंकने ही वाली थी!' मैं अपने मिष्टान्न-प्रेम पर शर्मिन्दा होने के सिवा और कर भी क्या सकता था!
दूसरे दिन दन्त-चिकित्सक के पास गया और महीने-भर की दवाएँ लेकर लौट आया! दवाओं के सेवन से तात्कालिक आराम तो हुआ, लेकिन मेरा मुँह तो कड़कड़डूमा की अदालत बन गया है !
मित्रो, वह एक अकेला ठेकुआ मुझे कम-से-कम एक हजार रुपये का तो पड़ ही गया और जबड़े का दर्द अपनी जगह कायम है ! आज भी कुछ खाता हूँ तो दायाँ जबड़ा 'कड़कड़-कड़कड़' बोलता है। लगता है, लोहे के चने चबा रहा हूँ! लेकिन बिहारी तो बिहारी ठहरा--ज़िद्दी, श्रमजीवी और संघर्षशील! उसका पान और ठेकुआ-प्रेम आज भी यथावत बना हुआ है !...लेकिन, सोचता हूँ, क्या ज़रूरी था मेरी दाढ़ तोड़ के जाना उसका? ....जाने अब कब मिलेगा पथराए ठेकुओं की जगह मीठा, मुलायम, खस्ता और कुरकुरा ठेकुआ...!
[--आनन्दवर्धन ओझा]
'क्या ज़रूरी था, दाढ़ तोड़ के जाना तेरा,
माना, तू नरमदिल न हुआ, ठेकुआ मेरा...!'
बिहारी भारत के किसी कोने में रहे, वह अपनी प्रवृत्ति से विवश रहता है। गर्मियों में उसे चाहिए आम-लीची-बेल, हर मौसम में सत्तू, सुबह के नाश्ते में जलेबी-कचौड़ी-घुघनी और शाम के वक़्त भूँजा ! गाय-बकरी की तरह दिन-भर जुगाली करने को चाहिए मगही पान और सुगन्धित तम्बाकू! छठ-व्रत के समय ठेकुए-खजूर के लिए उसका जी मचलता है और होली के मौसम में गुझिया-पेडुकिया के लिए उसकी आत्मा ऐंठने लगती है! और, किसी भी दशा में प्रतिदिन रीति-नीति-राजनीति तथा साहित्य पर बतकुच्चन के लिए उसे चाहिए मित्रों-संघतियों की एक टोली, अपने बहुत करीब !
अजीब जीव होता है बिहारी--मेहनतकश, श्रमजीवी और हठी भी! किसी भी काम के लिए तत्पर, यह कहता हुआ--"होइबे नहीं करेगा? अरे, होगा कइसे नहीं?" और बिहार-रत्न कविवर दिनकर लिख भी तो गए हैं--
'ख़म ठोंक ठेलता है जब नर,
पर्वत के जाते पाँव उखड!
मानव जब जोर लगता है,
पत्थर पानी बन जाता है!!'
दिनकरजी की इस ललकार की अनसुनी कर देनेवाला भला बिहारी कैसे हो सकता है?
उस पर तुर्रा ये कि बिहारी अगर ब्राह्मण हुआ तो उसका विलक्षण मिष्टान्न-प्रेम तो जग-जाहिर है ही! कहा गया है न,'विप्रम् मधुरं प्रियं!' इसी कथन का उल्लेख करते हुए एक बार किसी ने कहा था--'पण्डितजी तो ऐसे मिष्टान्न-प्रेमी होते हैं कि गुड़ का एक टुकड़ा कहीं डाल दीजिए, पंडितजी वहीं चिपके मिलेंगे!' मुझे लगता है, भलेआदमी ने बहुत गलत नहीं कहा था। ....
पिछले साल अक्टूबर में, छठ पूजा के बाद, आस लगी रही कि बिहार से कोई-न-कोई आएगा, छठ के ठेकुए लाएगा--पांच-दस मुझे भी प्रसाद के रूप में दे जाएगा। सो, प्रतीक्षारत रहा और पलटते पन्नों की तरह दिन बीतते रहे, बिहार से कोई भलामानुस आया ही नहीं और ठेकुए की लालसा में जी मचलता रहा, आत्मा ऐंठती ही रही।
आख़िरश, एक दिन बिहारी का ब्रह्मतेज जागा, हठधर्मी, श्रमजीवी और स्वाबलम्बी जो ठहरा ! श्रीमतीजी विद्यालय गयी थीं। पूरे घर में मेरा साम्राज्य था। मैंने गुड़ की भेली उठाई। भई, पुणे का गुड़ था--पत्थरदिल था ! तोड़े न टूटता था। मैंने उसे नरमदिल बनाने के लिए धीमी आँच पर पानी में डालकर चढ़ा दिया। बगल के कमरे में टी.वी.ऑन था। बिहार से संबंधित महत्त्व का एक समाचार कानों पड़ा तो मैं दूसरे कमरे में दाखिल हुआ और समाचार सुनाने लगा ! अचानक गुड का ख़याल आया। किचेन में दौड़कर पहुँचा। पत्थरदिल गुड़ तो मोम-सा पिघलकर लेई बन गया था और खौल रहा था। मैंने शीघ्रता से बर्नर बुझाया और आंटे में उसे मिलाकर हाथ जला-जलाकर गूँथने लगा। खोजकर पटनहिया साँचा निकाला और उस पर परिश्रमपूर्वक आंटे की छोटी-छोटी गोलियों को ठेकुए की आकृति में ढालने लगा। जैसे-जैसे गुँथा हुआ आँटा ठंढा होता जा रहा था, वैसे-वैसे वह पथराता जा रहा था। अब तो साँचे पर दबने में भी उसे आपत्ति थी! मेरे हठी और श्रमजीवी मन ने हठ न छोड़ा ! बिहारी के स्वाभिमानी मन में दो ही वाक्य गूँज रहे थे--'तू है बिहारी, तो कर परिश्रम ! हार गया, तो बिहारी कैसा?'
लीजिये हुज़ूर, घंटों श्रम का प्रतिफल हुआ कि अब शक्लो-सूरत से ठेकुए तैयार थे, बस, उन्हें रिफाइंड में डूब-उतरा कर और थोड़ी देर नर्त्तन कर कड़ाही से बाहर आना भर था! श्रीमतीजी के विद्यालय से लौट आने के पहले ही यह कृत्य भी पूरा हुआ! ठेकुए तो देखते ही बनते थे--तले हुए लाल-लाल, सोंधे-कुरकुरे ठेकुए! लेकिन अभी गर्म थे, मुँह में डाल लेने का रिस्क कौन लेता ? सुविज्ञ बिहारी तो हरगिज़ नहीं !!
ठेकुए के शीतल होने की प्रतीक्षा हो ही रही थी कि श्रीमतीजी आ पहुँचीं ! घर में पाँव रखते ही चहकीं--"क्या बना है घर में ? बड़ी सुगंध आ रही है। क्या बनाया है 'मेड' ने ?"
मैंने गौरव से भरकर कहा--ठेकुए बनाये हैं मैंने--खास्ते और कुरकुरे--टुह-टुह लाल!'
श्रीमतीजी को सहसा विश्वास नहीं हुआ, विस्फारित नेत्रों से मुझे घूरते हुए बोलीं--'आपने?'
मेरा जी तो अगराया हुआ था--छाती ठोंकते हुए मैंने कहा--'हाँ भई, मैंने !'
दो-तीन घण्टों बाद ठेकुएजी ठंडे पड़े, एक मैंने, एक श्रीमतीजी ने मुश्किल से खाए। मेरा मन रखने को श्रीमतीजी ने नरमदिली से कहा--'मोयन नहीं डाला क्या? ठेकुआ थोड़ा कड़ा हो गया है।'
मैं भला क्या कहता? 'मोयन' शब्द से पहली बार मुलाकात जो हुई थी!
दूसरे दिन जब ठेकुए बिलकुल ठण्डे पड़ गए। मैं बड़ी हसरत से उनके पास गया। थोड़ी देर तक निहारता रहा उन्हें ! दिखने में तो वे बहुत सुदर्शन थे, आकर्षित करते थे अपनी ओर, किन्तु पुणे के गुड की तरह पत्थरदिल हो गये थे रात-भर में! मन मारकर रह गया, दाँत से उसका एक टुकड़ा भी काट लेना असंभव था ! मेरा सारा उत्साह भी ठण्ढा पड़ने लगा।
सप्ताह-भर में श्रीमतीजी ने ऐलानियाँ घोषणा कर दी कि ये ठेकुए असाध्य-असंभव खाद्य-सामग्री हैं! उन्होंने स्टील का एक बड़ा कटोरदान ठेकुओं से भरकर कबर्ड के किसी एकांत में झोंक दिया और शेष ठेकुओं को एक पॉलिथीन में भरकर कामवाली बाई को दे दिया, इस हिदायत के साथ कि लोढ़े से तोड़-कूचकर अपने बच्चों को खाने को दे! बाई तो खुश हुई, लेकिन मिष्टान-प्रेमी बिहारी का मन मुरझा गया! वह सोचता ही रहा कि जिन ठेकुओं के लिए स्वयंपाकी बना, उनकी रक्षा वह कैसे करे?
लेकिन एक-डेढ़ महीना बीत गया, ठेकुए तो मन से उतर ही गए थे, यादों की गलियों में कहीं खो भी गए।
वह जनवरी का महीना था! उस दिन भी घर पर मेरा ही आधिपत्य था। जैसे चूहा किसी खाद्य-सामग्री के लिए घुरियाता है, ठीक वैसे ही सुबह के जलपान के बाद किसी मीठी सामग्री की तलाश में भटकता हुआ मैं कबर्ड में रखे कटोरदान तक जा पहुँचा! बहुत दिनों के बाद उन्हें देखकर मन में हर्ष की लहर दौड़ गई! मैंने एक ठेकुआ उठाया और बांयीं दाढ़ से तोड़ने की कोशिश की। वज्र ठेकुआ काहे को टूटता? मैंने बायीं दाढ़ से भरपूर जोर लगाया और तभी दायीं दाढ़ में कनपटी के पास नगाड़े बज उठे--'कड़-कड़-कड़'! दिन में तारे देखने का सुख तो मिला, लेकिन असहनीय पीड़ा भी हुई! दायें कल्ले पर हाथ रखकर अपनी चौकी पर धम्म-से जा बैठा।
दोपहर में जब श्रीमतीजी आयीं, तब तक तो दायें जबड़े पर सूजन आ गयी थी! उन्होंने मेरी हालत देखी तो दाँतों तले अपनी ऊँगली दबा ली, फिर गुस्से से बोलीं--'इन नामुराद ठेकुओं पर मुँह मारने की क्या जरूरत थी? मैं तो इन्हें फेंकने ही वाली थी!' मैं अपने मिष्टान्न-प्रेम पर शर्मिन्दा होने के सिवा और कर भी क्या सकता था!
दूसरे दिन दन्त-चिकित्सक के पास गया और महीने-भर की दवाएँ लेकर लौट आया! दवाओं के सेवन से तात्कालिक आराम तो हुआ, लेकिन मेरा मुँह तो कड़कड़डूमा की अदालत बन गया है !
मित्रो, वह एक अकेला ठेकुआ मुझे कम-से-कम एक हजार रुपये का तो पड़ ही गया और जबड़े का दर्द अपनी जगह कायम है ! आज भी कुछ खाता हूँ तो दायाँ जबड़ा 'कड़कड़-कड़कड़' बोलता है। लगता है, लोहे के चने चबा रहा हूँ! लेकिन बिहारी तो बिहारी ठहरा--ज़िद्दी, श्रमजीवी और संघर्षशील! उसका पान और ठेकुआ-प्रेम आज भी यथावत बना हुआ है !...लेकिन, सोचता हूँ, क्या ज़रूरी था मेरी दाढ़ तोड़ के जाना उसका? ....जाने अब कब मिलेगा पथराए ठेकुओं की जगह मीठा, मुलायम, खस्ता और कुरकुरा ठेकुआ...!
[--आनन्दवर्धन ओझा]
3 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 24-03-2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2291 में दिया जाएगा
धन्यवाद
ठेकुए जैसे भी बने हों लेकिन पढ़ते पढ़ते बड़ा मजा आया ...
सच में ये ठेकुए तो बहुत महंगे पड़ गए ...इसलिए कहते हैं जिसका काम उसी को साझे और करे तो ............
कुछ भी हो मजा आया...जो भी पढ़ेगा सच में उसे हंसी न आये ऐसा हो ही नहीं सकता ...... जय हो ...
होली में गुझिया भी बना लेते तो खूब मजा आता ...
होली की हार्दिक शुभकामनाएं!
मंच पर मेरे आलेख का लिंक देने के लिए आभार आपका!और, होली की शुभकामनाएँ स्वीकार करें...!
एक टिप्पणी भेजें