शुक्रवार, 5 अगस्त 2016

'लोहासिंह' की अंतर्कथा : रामेश्वर सिंह काश्यप (२)

बहरहाल, बचपन के दिन तो आशियाना बदलते बीत गए। सन १९६०-६१ में काश्यपजी फिर हमारे पड़ोसी बने। पटना के श्रीकृष्ण नगर मुहल्ले के २३ संख्यक मकान में हम जा बसे और काश्यपजी सपरिवार ७ संख्यक मकान में आये! हमारे घरों की दूरी दो बाँस से अधिक नहीं थी। काश्यपजी के परिवार से पुरानी घनिष्ठता तो थी ही, उनके कनिष्ठ सुपुत्र विपिनबिहारी सिंह मेरे अभिन्न बाल-सखा वहीं बने! बचपन की उस मित्रता का रंग ही निराला था ! रात के शयन का वक़्त छोड़कर हम दोनों प्रायः साथ-साथ रहने को विकल रहते। स्कूल का साथ तो था ही, शेष समय भी विपिन या तो मेरे घर में होते या मैं उनके घर में। वह अपने गाँव से आया गुड़-चूड़ा मेरे लिए ले आते, मैं उसे अपनी हॉफ पैंट की दोनों जेबों में भर लेता और मज़े से खाता-चबाता रहता। मेरी शामत तब होती, जब माँ मेरे कपड़ों की धुलाई करतीं। पैंट की जेब से चूड़े के कण और गुड़ का मटमैला रंग निकलकर बहने लगता और मुझे उनकी डाँट खानी पड़ती। हम दोनों मित्र आम-अमरूद के बगीचे में साथ जाते, खेलते, खाते और मटरगश्तियां करते ! बाल्य-काल की मेरी नाट्य प्रस्तुतियों में विपिन मेरे सहभागी भी होते और प्रतिद्वन्द्वी भी।
काश्यपजी के घर में सर्वत्र मेरा निर्बाध प्रवेश था, लेकिन केवल उनका ही कमरा इसका अपवाद था। उनके कमरे में किसी भी बाहरी व्यक्ति के प्रवेश की सख़्त मनाही थी, फिर भी विपिन की आड़ में मैं उनके कमरे में भी यदा-कदा चला ही जाता था। उस कक्ष में कागज़-पत्तर का अम्बार था, पुस्तकों से भरी-ठुंसी आलमारियाँ थीं और एक अदद ऊँची पलँग, जिसका अर्धांश फाइलों और पुस्तकों से भरा रहता था। वहाँ विश्वविद्यालय की उत्तर-पुस्तिकाओं के गट्ठर होते और ऐश-ट्रे के बगल में रखा होता 'पाशिंग शो' सिगरेट का टिन-पैक या 'गोल्डन फ्लैक' की सुनहरी डिब्बी ! हम सबकी आँखें बचाकर उसी डिब्बी से दो सिगरेट निकाल लेते और धूमपान की कला में निष्णात न होते हुए भी निर्जन वन-वीथियों में जाकर उसका धुआँ उड़ाते और फिर नींबू के पत्ते चबाकर मुँह की दुर्गन्ध मिटाने चेष्टा करते। अजीब सपनीले बेफ़िक्री से भरे दिन थे वे भी।...
उन दिनों श्रीकृष्णनगर लेखकों-कावियों-नाटककारों-संगीतज्ञों और प्रबुद्ध-प्रखर व्यक्तित्वों से भरा पड़ा था। पिताजी से मिलने सभी आया करते, लेकिन काश्यपजी तभी आते, जब छोटे चाचाजी राँची से पटना आते, जो आकाशवाणी, राँची में उद्घोषक के पद पर नियुक्त हो चुके थे। काश्यप चाचा आते भी, तो पिताजी से नज़रें बचाते हुए, हम बच्चों को घर के बाहर ही पकड़ने की फ़िराक़ में रहते। अधिकतर मैं ही उन्हें बाहर खेलता, उधम मचाता मिल जाता। वह धीमी आवाज़ में मुझसे कहते--"पंडितजी कहाँ हैं? उन्हें बुला दो।" हमें मालूम था, 'पण्डित' कहने से उनका अभिप्राय क्या होता था। मैं उनके आदेश पर चाचाजी को घर के बाहर बुला लाता और फिर वे दोनों मित्र कहीं और विचरण के लिए निकल जाते।
मैंने हमेशा उन्हें पिताजी से कन्नी काटते देखा। संभवतः युवावस्था से छोटे चाचाजी के साथ पिताजी का लिहाज़ और सम्मान का अभ्यास इस संकोच का कारण रहा हो, अन्यथा भद्र समाज में काश्यप चाचा स्वयं बहुत सम्मानित-समादृत व्यक्ति थे, गरिमामय भव्य मूर्ति तो वह थे ही। लेकिन पिताजी के प्रति उनका यह संकोच अंत तक बना रहा।...
काश्यप चाचा अधिकतर पैंट-शर्ट पहनते, जाड़ों में कोट धारण करते और गले में एक मफलर डाल लेते। कभी उनके सिर पर एक फेल्ट कैप होती, कभी टोपी भी। आँखों पर पॉवर का चश्मा। कभी सिगरेट पीते, कभी पाइप ! वह पान-प्रणयी भी थे, लेकिन पान खाकर महाविद्यालय जाना पसंद नहीँ करते थे। भरी-पूरी देह थी, स्थूल होने से बची हुई। वह बाहर से गुरु-गम्भीर दिखते, लेकिन अत्यंत विनोदी और स्नेही थे। उनका मित्र-मण्डल बड़ा था, वह जब अपने निकट मित्रों (ब्रह्मदेव नारायण सिंह, केशव पांडेय, शिवसागर मिश्र और भालचंद्र ओझा आदि) के बीच होते तो व्यंग्य-विनोद की ऐसी-ऐसी फुलझड़ियाँ छूटतीं, इतने ठहाके फूटते कि मत कुछ मत पूछिए ! विपिन के साथ मिलकर की गयी मेरी बाल्यकाल की उद्दंडताओं के लिए उन्होंने कभी डाँटा-फटकार नहीं मुझे। मैं चकित होकर सोचता हूँ, ऐसे गंभीर व्यक्ति की कलम से हँसी के फव्वारे छुड़ा देनेवाले संवाद कैसे उपजते थे ? उस ज़माने में पटना में इतना जन-कोलाहल और इतनी भीड़-भाड़ नहीं थी, रिक्शा शान की निरीह सवारी समझी जाती थी, जब जहाँ मन हो, रिक्शा रुकवा लीजिये, सड़क-किनारे खड़े मित्र से जी-भरकर बातें कीजिये, पान की दूकान पर पान खाइये और फिर उस पर सवार होकर आगे चल पड़िये। मैंने काश्यप चाचा को ज़्यादातर रिक्शे की सवारी करते देखा, सिगरेट का धुआँ उड़ाते-चलते। प्रतिदिन महाविद्यालय जाने के लिए उनकी प्रिय सवारी रिक्शा ही थी !
प्रायः पाँच साल श्रीकृष्ण-नगर के आशियाने में सुख से बीते। वहीं मेरी माँ ने विपिन की माँ के साथ मिलकर छठ-व्रत का अनुष्ठान आरम्भ किया था। छठ के दिनों में हम दोनों का घर सम्मिलित परिवार-जैसा हो जाता। छठ जैसे पावन पर्व के दिन गहरी आस्था और उत्साह-उमंग में व्यतीत होते। दोनों व्रती माताएँ घर-परिवार की बेटियों के साथ मिलकर छठ के गीत गातीं, मिष्टान्न बानाये जाते, बाज़ार से खरीद-फ़रोख़्त होती और सर्वत्र पवित्रता का साम्राज्य होता। गुड़-मिश्रित गन्ने के रस में जो खीर मिट्टी के पात्र में 'खरना' (लोहण्डा) के दिन बनायी जाती, उसके अनूठे स्वाद को मेरी जिह्वा आज तक नहीं भूली। वैसी अमृतोपम रसना फिर जीवन में कभी नहीं मिली। वे जीवन के अविस्मरणीय दिन थे।
मैं अपने आपको सौभाग्यशाली मानता हूँ कि इन्हीं पाँच वर्षों में मुझे 'लोहासिंह' की दो-तीन मंच-प्रस्तुतियाँ देखने का अवसर मिला था। उन दिनों रेडियो का वार्षिक उत्सव मनाया जाता था, जिसे 'रेडियो-वीक' के नाम से जाना जाता था। पूरे सप्ताह एक-न-एक आयोजन होता, कभी किसी रंगशाला (भारतीय नृत्य-कला मन्दिर अथवा रवीन्द्र भवन) में या कभी आकाशवाणी के विशाल प्रांगण में मंच बनाकर और शामियाने-कनात लगाकर। 'लोहासिंह' का मंचन और कवि-गोष्ठी, सम्पूर्ण आयोजन का मुख्य आकर्षण होती थी। पिताजी की वज़ह से अपने परिवार के अन्य सदस्यों के साथ मुझे अग्रिम पंक्ति में बैठने का सुअवसर मिलता था। चीनी आक्रमण के बाद के वर्ष में 'लोहासिंह' की नाट्य प्रस्तुति की याद मैं कभी भूल न सका, उसमें देश-प्रेम की, दुश्मनों के दाँत खट्टे कर देने की जैसी ललकार और हुंकार भरी थी, वह मेरी चेतना में लंबे समय तक निरंतर गूँजती रही थी।
भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद काश्यपजी की एक भोजपुरी कविता किसी पत्रिका में छपी थी, उसे मैंने पढ़ा था। उस कविता की पहली कड़ी मेरी स्मृति में आज तक सुरक्षित है :
"मति भभकS भुट्टो बुतइब तूँ !
चाऊ-माऊँ के छौना तूँ,
बावन अँगुरी के बौना तूँ,
देखत बानी फुदकत बाड़S
माटी के रंगल खेलौना तूँ;
जब काम परी तरुआरन के
पानी पड़ते गलि जइब तूँ !
मति भभकS भुट्टो बुतइब तूँ !!"
सन १९६५-६६ में माताजी की नयी नौकरी के साथ परिवार श्रीकृष्णनगर से उखड गया और जीवन-दिशा बदल गयी। हम सभी उसके बाद नए नीड़ का निर्माण ही करते रहे--पटना सिटी, दिल्ली, ज्वालापुर और फिर वापस कंकड़बाग, पटना। इस बीच काश्यपजी और उनके परिवार से बहुत-बहुत दूरियाँ रहीं। इस दीर्घ कालावधि में माँ कहीं बीच राह में छोड़ गयीं, छोटे चाचा दिल्ली जा बसे। मेरे बाल-सखा विपिन मेरी बचपन की यादों में सिमटकर रह गए।...
मुझे अस्सी के दशक की याद है, पिताजी के अस्वस्थ होने की सूचना पाकर उनसे मिलने भालचंद्र चाचा पटना आये हुए थे। एक दिन दरवाज़े पर दस्तक हुई। मैंने द्वार खोला तो देखा, काश्यप चाचा सामने खड़े हैं ! उनका वही सम्भ्रम, वही हिचकिचाहट, वही झिझक और वही प्रश्न--"पण्डित हैं क्या, बुला दो उन्हें!" बचपन के दृश्य आँखों में तारे-से छिटके। लेकिन चाचाजी घर पर नहीं थे, वह किसी से मिलने बाहर गए हुए थे, यह सूचना जैसे ही मैंने उन्हें दी, वे लौट जाने को तत्पर हुए ही थे कि पीछे से पिताजी प्रकट हुए और उस दिन उन्होंने काश्यप चाचा की खूब खबर ली, बोले--"ददन (छोटे चाचा का घर नाम) नहीं हैं तो क्या हुआ, मैं तो हूँ! कभी मेरी भी खोज-खबर ले लिया कीजिये काश्यपजी !" और आश्चर्य, काश्यप चाचा सिर झुकाये बड़े भाई की फटकार चुपचाप सुनते रहे, फिर चाय पीकर लौटे ! वह अनन्य प्रीति की फटकार थी और काश्यप चाचा के विनयावनत होने की पराकाष्ठा।
बात दरअसल यह थी कि उन दिनों पिताजी, पितामह की अनूदित कृति वाल्मीकीय रामायण के पुनर्प्रकाशन की वृहत योजना पर काम कर रहे थे! इसके लिए उन्होंने अपने तमाम मित्रों, अनुजों और सम्बन्धियों से सहायता की याचना की थी। उन्होंने काश्यप चाचा को भी दो-तीन पत्र लिखे थे, लेकिन पत्र अनुत्तरित रहे। सेवा-मुक्त होकर काश्यप चाचा सासाराम चले गए थे। वह कभी वहाँ होते, कभी पटना में और इन्हीं व्यस्तताओं में पिताजी के पत्र का उत्तर न दे सके थे। पिताजी को यह बात नागवार गुज़री थी और वह काश्यप चाचा से नाखुश थे।
फिर कुछ वर्ष बीत गए। वह १९९२ का अक्टूबर महीना था, एक दिन पिताजी मेरी मोटर साइकिल पर बैठकर एक सभा में शिरक़त करने गए थे, वहीं नाटककार डॉ. जितेंद्र सहाय से उन्हें यह सूचना मिली कि पिछली रात काश्यप चाचा का निधन (24-10-1992) हो गया है। वह मधुमेही थे, प्रतिदिन नियम से इन्सुलिन का इंजेक्शन लिया करते थे, इसी कारण अन्य व्याधियों ने भी उन्हें घेर लिया था। यह सूचना पाकर पिताजी का मर्म आहत हुआ, मुझे भी गहरा धक्का लगा। सभा की समाप्ति पर लौटते हुए पटना रेलवे स्टेशन के महावीर-मन्दिर के पास फूलों की एक दूकान पर रुकने का आदेश पिताजी ने दिया। वहाँ से उन्होंने थोड़े-से फूल लिए और मुझसे कहा--'मुझे श्रीकृष्ण नगर ले चलो, काश्यपजी को अन्तिम प्रणाम तो कर आऊँ ! दीर्घ आयुष्य की यह पीड़ा भोगने के लिए मैं ही तो अभिशप्त बचा हूँ।"
हम ७, श्रीकृष्णनगर पहुँचे। दिन के २-२.३० बज रहे थे और काश्यपजी के आवास पर गहरा सन्नाटा पसरा था। प्रवेश-द्वार से अंदर तक फूलों की पंखुड़ियाँ बिखरी थीं। पड़ोसी से पूछने पर ज्ञात हुआ कि सुबह १०-११ बजे ही घरवाले पार्थिव शरीर को लेकर सासाराम चले गए हैं। पैतृक ग्राम में ही उनका अंतिम-संस्कार होगा। यह खबर और भी मर्माहत करनेवाली थी। पिताजी की मुख-मुद्रा देखकर मैं चिंतित हो रहा था। पिताजी ने प्लास्टिक की थैली से फूल अपनी अँजुरी में लिए और मुख्य द्वार पर उन फूलों को रखकर उठ खड़े हुए--करबद्ध, बंद नेत्र थोड़ी देर वहीं स्तम्भित खड़े रहे, मैंने भी पिताजी का अनुसरण किया। दो क्षण बाद पिताजी लौट चलने को पलटे और लड़खड़ाये, मैंने उन्हें सहारा दिया। मोटरसाइकिल के पास पहुँचकर पिताजी ने कहा--'थोड़ी देर कहीं रुकना होगा... ।'
मैं समझ गया, यह आघात पिताजी के लिए असहनीय हो उठा है। मैंने मोटरसाइकिल वहीं छोड़ दी और पिताजी को धीरे-धीरे सड़क के पार ले गया, जहाँ श्रीराधाकृष्ण प्रसादजी का आवास था---१७, श्रीकृष्णनगर ! राधाकृष्णजी पिताजी के अनुज मित्र तो थे ही, पुराने सहकर्मी भी थे। पिताजी वहीं बैठे, राधाकृष्णजी से बातें कीं, प्रकृतिस्थ हुए। उसके बाद हम घर लौट आये। उस दिन एक यशस्वी जीवन-दीप बुझ गया था और परिवार-जनों, परिजनों, निकटस्थों, आत्मीयों के बीच छोड़ गया था एक बड़ी रिक्तता और गहरा अवसाद...!...
इस साल सावन में जब मेघ मल्हार गा रहे हैं, मेरे मन में उमड़-घुमड़ रही हैं काश्यपजी लिखी एक भोजपुरी कविता की कुछ पंक्तियाँ, जो उन्होंने वीर कुँवर सिंह के जीवन पर लिखी थीं--'गदर सत्तावन के, महीना रहे सावन के' :
"गदर सत्तावन के,
महीना रहे सावन के,
सुराज के लड़ाई में भारत के पहिला सिंह गरजन,
बनल रहे आसमान धरती के दरपन.
नीचे धरती पर रहे गोली सनसनात.
घोड़ा भागत रहे हिनहिनात,
छूटत चिनगारि रहे टाप के रगड़ से,
खा के महावत के गजबाँक, हाथी चिंघारत रहे.
तोप के दहाना से दनादन आग बरसे,
मइया से असीस ले के,
तिरिया के पीठ ना देखावे के वचन दे के,
जबकि भोजपुरिया जवान,
रख तरहत्थी पर जान, निकल पड़ले घर-घर से
गदर सत्तावन के,
महीना रहे सावन के !"
काश्यप चाचा के गुज़र जाने के सवा साल बाद भालचंद्र चाचा (२४-२-१९९४) और उसके प्रायः दो वर्ष बाद पिताजी (२-१२-१९९५) भी इस दुनिया से चले गए। पिताजी ठीक कह गए थे कि अनुजों के जगत से विदा होने की पीड़ा भोगने के लिए वे ही अभिशप्त थे।....
(समाप्त)

[चित्र : आकाशवाणी, पटना के ५० वर्ष पूरे होने पर 'दि हिंदुस्तान टाइम्स', पटना ने २५ जनवरी १९९८ को सम्पूर्ण रविवारीय पृष्ठ तत्कालीन उत्कृष्ट कलाकारों की चर्चा को समर्पित किया था। इस पृष्ठ पर काश्यपजी का चित्र और उनकी चर्चा है। मेरे व्यक्तिगत अनुरोध पर भाई विनोद नारायण सिंहजी ने उसकी क्लिप मुझे भेजने की कृपा की है। तदर्थ आभार उनका--आनंद.]

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