वे मेरे छुटपन के दिन थे, लेकिन इतने भी बालपन के नहीं कि विस्मृति के गर्भ में समा जाएँ ! मुझे याद है, तब मैं तीसरी कक्षा में पढ़ता था और पटना के एक पुराने मोहल्ले कदमकुआँ में किराये के मकान में रहता था--मुख्तार साहब के मकान में ! मुख्तार साहब रोज़ कचहरी जाते थे--दो घोड़ोंवाली बग्घी से। अवकाश के समय में और छुट्टी के दिनों में बग्घी आहाते में खड़ी रहती थी और घोड़े अस्तबल में ! मैं बग्घी की झूठी सवारी खूब करता और अपनी कल्पना के घोड़ों को हाँक लगता, चाबुक फटकारता उनपर। तब, परिवार अपेक्षया बड़ा था--दादी थीं, छोटे चाचा (भालचंद्र ओझा) थे और बड़े चाचा (कृष्णचन्द्र ओझा) की ज्येष्ठ कन्या (गीता ओझा) थीं तथा हम चार भाई-बहन तो माता-पिता के साथ थे ही। दुमंजिला बड़ा-सा मकान था। निचले तल पर हमलोग थे और ऊपर मुख्तार साहब--सपरिवार ! मेरे घर के सामने ही एक विशालकाय कदम्ब का पेड़ था, जिसके चौतरफे चबूतरा बना हुआ था। मैं बग्घी पर या उसी चबूतरे पर मँडराता रहता और किसी भी आगंतुक के प्रथम दर्शन का सौभाग्य प्राप्त करता।
छोटे चाचा के मित्रों की टोली बड़ी थी, उनमें शिवसागर मिश्र, रामेश्वर सिंह काश्यप, केशव पाण्डेय, काशीनाथ पाण्डेय तथा ब्रह्मदेव नारायण सिंह प्रमुख थे ! ये सभी मित्र 'कोहराकशी' (धूमपान) के अभ्यासी थे, किन्तु वे सब पिताजी के दफ्तर चले जाने की बेसब्र प्रतीक्षा किया करते और उनके विदा होते ही बातों का सिलसिला शुरू हो जाता, सबों के ठहाके गूँजते और कदम्ब के पेड़ का चबूतरा गुलज़ार हो जाता तथा कदम्ब का विशाल वृक्ष पीता रहता सिगरेट के धुएँ का उठता गुबार--लगातार ! मैं छोटे चाचा की महफ़िलों का आज्ञाकारी सेवक था--चाय-पानी, सिगरेट-सलाई, पान-तम्बाकू लाने-पहुँचानेवाला और पिताजी के पदार्पण की अग्रिम सूचना देनेवाला भी।
ब्रह्मदेव नारायण सिंहजी छोटे चाचा जैसे ही सुदर्शन व्यक्ति थे। वह जब कभी अकेले मेरे घर आ पहुँचते, मेरी दादी को प्रणाम करना कभी न भूलते। छोटे चाचा से कहते--"चलो, ज़रा माई को प्रणाम कर लूँ।" दादी उन्हें पकड़ बिठातीं और उनसे कहतीं--"ब्रह्मदेव, ऊ वाला गनवाँ सुनावs ना ! ओकर सूर मनवाँ से छूटत नइखे !" (ब्रह्मदेव! वही गाना सुनाओ न! उसके सुर मन से उतरते नहीं हैं।) ब्रह्मदेव चाचा को उनसे पूछना नहीं पड़ता कि वह कौन-सा गीत सुनना चाहती हैं। वह दादी की पसंद जानते थे, गाने लगते--"गंगा नहाये हो रामा सुरुज मिलन के बेरिया...!" (शब्द तो ठीक-ठीक स्मरण में नहीं रहे, लेकिन ऐसा ही कुछ था वह गीत, जिसकी धमक-महक आज भी कहीं मन-प्राण में बसी हुई है)। उनके स्वरों के बाण छूटते ही पूरा घर दादी के कमरे में सिमट आता। दादी तो तन्मय होकर सुनतीं ही, हम सभी मंत्रमुग्ध हो जाते। ब्रह्मदेव चाचा की दानेदार आवाज़ में गजब की खनक थी, पुरअसर कशिश थी, विचित्र सम्मोहन था, अद्भुत आकर्षण था। कई बार ब्रह्मदेव चाचा एक हारमोनियम लेकर भालचंद्र चाचा के साथ कदम्ब की छाया में घंटों बैठे रहते और किसी कविता, किसी पद, किसी गीत को स्वरों में बांधने में लगे रहते। छोटे चाचा काव्य-पक्ष की मीमांसा करते और ब्रह्मदेव चाचा स्वरों की पेचीदगियों का निवारण करते हुए उसकी धुन बनाते। इस तरह दोनों मित्रों के आपसी विमर्श में रचनाएँ स्वर-बद्ध होतीं। मेरी माँ, चचेरी बड़ी दीदी बार-बार उनके लिए चाय बनातीं और चाय की हर प्याली के बाद दोनों मित्र कोहराकशी करते हुए चिंतन-मग्न हो जाते। मेरे बचपन की शरारती आँखों ने देखे थे वे दिन !
सन १९५७ में जब आकाशवाणी, रांची की शुरुआत हुई, तो छोटे चाचा अपने दो मित्रों शिवसागर मिश्र और केशव पाण्डेय के साथ वहाँ उद्घोषक के रूप में नियुक्त हुए थे। मुझे याद है, आकाशवाणी, रांची के उद्घाटन के अवसर पर पिताजी ने एक अभिनन्दन-गीत लिखा था, जिसके शब्द कुछ इस तरह थे--
"एक और स्वर बोला अम्बर की वाणी का अभिनन्दन !
....... ....... जन-जन-कल्याणी का अभिनन्दन !!"
"एक और स्वर बोला अम्बर की वाणी का अभिनन्दन !
....... ....... जन-जन-कल्याणी का अभिनन्दन !!"
ब्रह्मदेव नारायण सिंहजी १९४८ से ही आकाशवाणी, पटना से बहैसियत 'कैजुअल आर्टिस्ट' जुड़े हुए थे, लेकिन १९६० में संगीत-संयोजक में रूप में वह भी रांची में पदस्थापित हुए। छोटे चाचा की मित्रों की टोली का एक बड़ा टुकड़ा अब रांची में जा बसा था। मित्रता प्रगाढ़ होती गयी और यावज्जीवन यथावत बनी रही। छोटे चाचा और ब्रह्मदेव चाचा में अद्भुत समानता थी--कद-काठी, नाक-नक्श और पहिरावे की भी। दोनों आजीवन खादी का सफ़ेद कुरता-पायजामा पहनते रहे। दोनों एक साथ चल पड़ें तो किसी को भी उनके सगे भाई होने का भ्रम हो सकता था। वैसे, वे सहोदर भ्राता न होकर भी, सगे भाई से कम न थे। आज ब्रह्मदेव चाचा के बारे में लिखते हुए छोटे चाचा के बिना उन्हें स्मरण कर पाना मेरे लिए कठिन हो रहा है। मेरी यह मुश्किल समझी जा सकती है।
४ अप्रैल, १९२७ को ग्राम जैर, जिला नालंदा में जन्मे ब्रह्मदेव नारायण सिंहजी ने अपने पिता के लिए नियुक्त संगीत-शिक्षक से अनायास ही संगीत की शिक्षा पायी थी, लेकिन उनमें संगीत की प्रभु-प्रदत्त असामान्य प्रतिभा थी और संगीत-ज्ञान की उत्कट पिपासा भी। आकाशवाणी, रांची से जुड़ने के बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा, उत्तरोत्तर आगे बढ़ते गए। पद की गरिमा से नहीं, अपनी सांगीतिक-प्रज्ञा से और गायन-प्रतिभा से संगीत-जगत में उन्होंने अपना वह स्थान बनाया, जिसकी कामना कोई भी संगीतज्ञ करेगा।
दो वर्ष बाद ही सन १९६२ में ब्रह्मदेव चाचा पदोन्नति पाकर पटना स्थानांतरित हुए। छोटे चाचा से प्रतिदिन का संपर्क बाधित हुआ, लेकिन १९६६ में छोटे चाचाजी भी राँची छोड़कर दिल्ली जा बसे और आकाशवाणी की सेवा करते हुए आजीवन वहीं रहे।
भिन्न-भिन्न विधाओं और दिशाओं के प्रतिभा-पुरुषों की उस टोली में सबने अपने-अपने क्षेत्र में खूब नाम कमाया, कीर्ति-पताकाएं फहराईं--किसी ने लेखन के क्षेत्र में, किसी ने काव्य-फलक पर, किसी ने व्यंग्य-विनोद-अभिनय के मंच पर, तो किसी ने राजकीय सेवा के उच्चतम पदों पर पहुंचकर; लेकिन सुरों की जीवनव्यापी साधना करते हुए ब्रह्मदेव नारायण सिंहजी ने जरा-मरण के भय से अपने आपको ऊपर उठा लिया था। उनके स्वरों का सम्मोहन श्रोताओं को बाँध लेता था और एक सच्चे सुर-साधक की तरह उन्होंने अपने आपको बंधन-मुक्त कर लिया था।....
सन १९५० से १९८० के तीन दशकों का काल-फलक रेडियो-प्रसारणों के नाम रहा। तब दूरदर्शन का आविर्भाव नहीं हुआ था, समाचार से मनोरंजन तक सबकुछ रेडियो-प्रसारणों से मिलता था। हर घर में तीन से सात बैंड का एक रेडियो-सेट होता था और उन्हीं से समाचार, संगीत, ज्ञानप्रद वार्ताएँ और रेडियो-नाटक सुनने को मिलते थे। रेडियो के उस स्वर्ण-काल में आकाशवाणी, पटना से पिताजी के लिखे नाटक, रामेश्वर सिंह काश्यप का लिखा तथा अभिनीत हास्य-व्यंग्य प्रधान नाटक 'लोहा सिंह', विंध्यवासिनी देवी के गाये लोकगीत और ब्रह्मदेव नारायण सिंहजी का गायन बहुत लोकप्रिय हुआ। श्रोता आतुरता से इन कार्यक्रमों की प्रतीक्षा करते थे। मेरी दादी ने ठीक ही कहा था--ब्रह्मदेव चाचा के सुर मन से उतरते नहीं थे, मन-प्राण में कहीं बस जाते थे।
मेरे पिताजी आकाशवाणी, पटना के स्थापना-काल (१९४८) से ही हिन्दी सलाहकार के रूप में जुड़े हुए थे। जब १९६२ में ब्रह्मदेव चाचा स्थानांतरित होकर पटना चले आये, तो आकाशवाणी में पिताजी से उनका प्रतिदिन का मिलना-जुलना होने लगा। पिताजी से उनका सम्बन्ध तो पुराना था, लेकिन प्रतिदिन के संपर्क से हुआ यह कि चाचा के सभी मित्रों में एक वही थे जो उनके मुँहलगे अनुज थे। अपनी बात साहस करके वही पिताजी से कह सकते थे, अन्यथा सभी मित्र पिताजी से दूरी बनाये रखते थे और सहज संकोच के एक अदृश्य आवरण के पीछे रहना पसंद करते थे।
सन १९६९-७० से मैं भी अपनी कविताओं के ध्वन्यांकन के लिए रेडियो जाने लगा था। वैसे भी, किसी-न-किसी काम से मुझे पिताजी के पास प्रायः वहाँ जाना पड़ता था। 'मुक्त'जी का पुत्र होने के कारण वहाँ सभी मुझसे स्नेह करते थे--पिताजी का कक्ष सम्मिलित रूप से शेयर करनेवाले उर्दू सलाहकार सुहैल अजीमाबादी, फणीश्वरनाथ रेणु, सत्या सहगल, विंध्यवासिनी देवी, पुष्पा आर्याणी, मधुकर गंगाधर और ब्रह्मदेव नारायण सिंह आदि! इन सबों की प्रीति पाकर मैं फूला न समाता था। अक्सर ऐसा होता कि जब मैं 'युववाणी' कार्यक्रम में अपनी कविताओं की रिकॉर्डिंग के लिए स्टूडियो में जाता तो देखता, किसी अन्य कक्ष में ब्रह्मदेव चाचा वादकों की मण्डली के साथ गायन में मशगूल हैं। ध्वन्यांकन कक्ष में तो प्रवेश वर्जित था, लिहाज़ा मैं द्वार पर लगे शीशे के पास ठहर जाता, कक्ष स्वर-अवरोधी था, सुन तो कुछ पाता नहीं, बस, उनके गायन की तन्मय मुद्रा निहारता रहता। जब वह बाहर आते, मैं चरण-स्पर्श करता। वह खिल उठते, कुशल-क्षेम पूछते, खासकर भालचंद्र चाचा की कुशलता के समाचार लेते, आशीष देते मुझे। और मैं उनकी सहज प्रीति पाकर प्रसन्नचित्त हो जाता।
बाद के वर्षों में ब्रह्मदेव चाचा ने गायन के अनेक कीर्तिमान स्थापित किये थे। मेरा संगीत-ज्ञान तो नगण्य है, फिर भी एक मुग्ध और सजग श्रोता होने की हैसियत से कह सकता हूँ कि उनके स्वरों का सम्मोहन, आवाज़ का अनूठापन और अदायगी का अंदाज़ अपने प्रभा-मंडल में श्रोताओं को बाँध लेता था। उन्होंने भक्ति-पदों का गायन इतनी भाव-प्रवणता से किया कि श्रोतागण उसके स्वर-लोक में आबद्ध हो जाते थे। उन्होंने देश के दिग्गज रचनाकारों के गीतों को संगीतबद्ध कर उनका गायन किया, जिनमें दिनकर, बच्चन, वीरेन्द्र मिश्र, शम्भुनाथ सिंह आदि प्रमुख थे। वह संगीत के सच्चे शिल्पकार थे। ऐसे सच्चे सुर लगाते जो हृदय पर सीधा असर करते थे। मुझे लगता है, उनके गायन में एक अजीब-सा बाँकपन भी था, जो दूसरे गायकों से उन्हें अलग खड़ा करता था। वह अपने समय के सर्वाधिक लोकप्रिय सुगम-संगीत गायक थे। मोमिन का एक शेर है--
'उस गैरत-ए-नाहीद की हर तान है दीपक,
शोला-सा लपक जाय है, आवाज़ तो देखो !'
उनकी हर तान की बात ही कुछ अलहदा थी। उन्होंने ग़ज़ल गायन का अपना अलग ही अंदाज़ विकसित किया था, जिससे मलिका-ए-ग़ज़ल बेगम अख्तर भी बहुत प्रभावित हुई थीं और उन्होंने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी।
'उस गैरत-ए-नाहीद की हर तान है दीपक,
शोला-सा लपक जाय है, आवाज़ तो देखो !'
उनकी हर तान की बात ही कुछ अलहदा थी। उन्होंने ग़ज़ल गायन का अपना अलग ही अंदाज़ विकसित किया था, जिससे मलिका-ए-ग़ज़ल बेगम अख्तर भी बहुत प्रभावित हुई थीं और उन्होंने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी।
उनमें अभिमान लेशमात्र नहीं था, किन्तु स्वाभिमान प्रचुर मात्रा में था। खरे आदमी थे, खरी बात बोलते थे--पीठ पीछे नहीं, मुंह पर बोलते थे। भालचंद्र चाचा से ही सुना था, मुम्बई की मायानगरी ने भी उन्हें कई बार पुकारा-बुलाया था, कई प्रलोभन दिए थे उन्हें, लेकिन अपनी जड़-ज़मीन से जुड़े ब्रह्मदेव चाचा ने ऐसे आमंत्रणों-प्रलोभनों को कभी महत्त्व नहीं दिया। जब मित्रों ने उन्हें बहुत समझाने की कोशिश की तो एक दिन खीझकर बोले--"मैं यहीं खुश हूँ, उस जन-समुद्र में कौन जाए अपना कंधा छिलवाने? जिसको गरज़ पड़ी हो, आये और मुझे पकड़ ले जाए।"... लेकिन इस सुविधाभोगी दुनिया में किसको फुर्सत थी, उन्हें पकड़ ले जाने की और ब्रह्मदेव चाचा थे कि अपने ही स्वरों की दुनिया में मग्न थे, पूरी बेफ़िक्री के साथ...।
जीवन-भर संगीत की साधना करते हुए ब्रह्मदेव चाचा ने निर्गुण-गायन की ऐसी झड़ी लगायी कि उस संगीत-वर्षा में कई-कई पीढ़ियाँ भीगती रहीं, अनुप्राणित होती रहीं। उन्होंने विद्यापति, मलूकदास, रैदास, नानक आदि के भजनों को ऐसी निपुणता से स्वर-बद्ध किया और इतनी तन्मयता से गाया कि उसका प्रभाव आज भी यथावत बना हुआ है। उन्होंने तुलसीकृत रामचरित मानस का गायन किया था, जिसका प्रसारण आकाशवाणी के सभी केंद्रों से प्रातःकालीन कार्यक्रम के प्रारम्भ में 'मानस-पाठ' के रूप में होता था। मैंने कई बार उन स्वरों के साथ ही सुबह-सबेरे अपनी आँखें खोली थीं। संभव है, उसका प्रसारण आज भी आकाशवाणी के सभी केंद्रों से होता हो, लेकिन उसे सुननेवाले श्रोता अब नहीं रहे। उन्होंने बिहार की तीन आँचलिक भाषाओं--मैथिली, भोजपुरी और मगही-- में अप्रतिम लोकगीतों का गायन भी किया। कबीर के निर्गुण पद गाते-गाते और गुनते-गुनते उनका अपना अंदाज़ और रहन-सहन भी कबीराना हो गया था--बेफिक्र, अलमस्त और सूफ़ियाना !.... कबीर उनकी अंतरात्मा पर कुछ इस क़दर छा गए थे और ऐसी शिद्दत से स्वरों में उतर आये थे कि लोग-बाग उन्हें 'संगीत का कबीर' ही कहने लगे थे! कबीर के निर्गुण उनके श्रीमुख से सुनकर ऐसा लगता था कि कबीर स्वयं अलमस्त भाव से अपना ही पद गाते हुए चल पड़े हैं--'साहब हैं रंगरेज कि चुनरी मोरी रंग डारी'...!
(अगली क़िस्त में समापन)
[चित्र : स्वर-साधक ब्रह्मदेवनारायण सिंह की युवावस्था की एक छवि]
(अगली क़िस्त में समापन)
[चित्र : स्वर-साधक ब्रह्मदेवनारायण सिंह की युवावस्था की एक छवि]
2 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (28-08-2016) को "माता का आराधन" (चर्चा अंक-2448) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आज ब्रम्हदेव नारायण सिंह को खोजते हुए आपका पोस्ट पढ़ा। बहुत ही मार्मिक है। हाल में उनके कुछ गानों को सुनकर मैं भी उनसे काफी प्रभावित हूं।
एक टिप्पणी भेजें