रविवार, 8 दिसंबर 2013

याद आते हैं गंगा चाचा …

[एक आत्मीय स्मरण-नमन]
 
राष्ट्रवादी नेता, गांधीवादी विचारक, प्रखर सांसद और हिन्दीसेवी स्व० गंगा शरण सिंह को मैं भूल नहीं पाता। वह मुझे याद आते हैं। औसत क़द, स्थूल शरीर, खादी का शफ्फ़ाक़ श्वेत परिधान--धोती-कुर्ता और सिर पर दुपल्ली गांधी टोपी। बिहार के एक ज़मींदार परिवार में जन्मे और बड़ी शानो-शौकत में पले-बढ़े। अपनी युवावस्था में अत्यंत सुदर्शन और गठीली देह-यष्टि के रहे होंगे: क्योंकि बाल्य-काल में जब मैंने उनके प्रथम दर्शन किये थे, तब वह अधेड़ावस्था की दहलीज़ थे, किन्तु हृष्ट-पुष्ट, सक्षम और फुर्तीले व्यक्ति थे। मेरे पूज्य पिताजी (स्व० पं प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त') से उम्र में चार-पाँच वर्ष बड़े थे, लेकिन युवावस्था के दिनों से ही पिताजी से उनकी 'तुम-ताम' कि प्रगाढ़ मित्रता थी। सर्वप्रथम वह स्वतन्त्रता सेनानी बने और स्वेच्छा से उन्होंने असहयोगी के कठिन जीवन का वरण किया था। आरंभिक दौर में गांधीजी के विचारों से प्रभावित हुए, लेकिन कालान्तर में नरेंद्रदेवजी और जयप्रकाश के निकटतर होते गए और बाद में उन्होंने अपने आपको पूरी तरह हिंदी-सेवा के लिए समर्पित कर दिया था। 

एक ज़माना ऐसा भी था, जब बिहार में गंगा, मुक्त और बेनीपुरी--इन त्रिदेवों की तूती। बोलती थी। सन १९३७ में रामवृक्ष बेनीपुरीजी और गंगा शरण सिंहजी सम्मिलित रूप से 'युवक' नाम की पत्रिका निकालते थे और पिताजी 'बिजली'। मित्रता अपनी जगह थी और पत्रिका का ख़म-पेंच अपनी जगह। तब पिताजी, बेनीपुरीजी और गंगा चाचा--ये सभी मित्र पटना में आसपास ही रहते थे और इन सबों के बीच अत्यंत घनिष्ठ और प्रगाढ़ सम्बन्ध थे। गया (बिहार) के प्रख्यात कवि मोहनलाल महतो 'वियोगी' ने १९३८ के एक पत्र में पिताजी को था--"… और तुम--क्या मैं भूल गया हूँ तुम्हें ? इस जन्म में तो शायद गंगा, मुक्त और बेनीपुरी--त्रिदेवों को भूल नहीं सकता, पर-जन्म की राम जाने!... " सच है, उस ज़माने में बिहार की साहित्यिक भूमि पर इन तीनों मित्रों ने अच्छी-खासी धूम धूम मचा रखी थी।  लेकिन गंगा चाचा से पिताजी की मित्रता उस समय की थी, जब पिताजी इलाहाबाद में थे। बिहार से बेनीपुरीजी के साथ गंगा चाचाजी भी इलाहाबाद जाते तो मेरे पितामह (साहित्याचार्य पं० चंद्रशेखर शास्त्री) के  दर्शन करना न भूलते। युवावस्था के उन्हीं दिनों की मित्रता आजीवन बनी रही।

बचपन में मैंने गंगा चाचा को कई बार देखा था, लेकिन वह बस देखे-भर का था; क्योंकि तब इतना ही बोध था कि वह पिताजी के मित्र हैं। गंगा चाचा जब घर आते, मैं उन्हें प्रणाम कर दायित्व-मुक्त हो जाता। वह पिताजी के पास बैठते और घंटों बातें करते। थोड़ा  बड़ा हुआ तो इतना जरूर जान सका कि वह पिताजी के अनन्य मित्र हैं और जब आये हैं तो दोनों मित्रों की बैठक लम्बी चलेगी। मेरी माता चाय की  ट्रे या नाश्ते की प्लेटें बैठक में ले जाने का आदेश देतीं या पिताजी पान-सुपारी ले आने का हुक्म देते, तो मैं आदेश का पालन करने को तत्पर रहता। मैं बचपन से ही अतिभाषी था। पिताजी के मित्र मुझसे जो कुछ पूछते, उसका उत्तर मेरी जिह्वा पर तैयार रहता, लेकिन यह जरूरी नहीं था कि वह युक्तिसंगत हो। मेरे बे-सिर-पैर के उत्तरों पर गंगा चाचा भी कई बार ठठाकर हँस पड़ते थे।
 
फिर वक़्त का एक लंबा टुकड़ा हाथों से फिसल गया। सन १९७१-७२ में जब मैं 'दिनकर की डायरी' पर काम कर रहा था, तब पटना के राजेन्द्र  नगर में उनके आवास पर प्रतिदिन जाया करता था। इसी मुहल्ले  में गंगा चाचा ने भी अपना मकान बनवा लिया था। उन दिनों मुझ पर एक फ़ितूर सवार था। मैं जिन बड़े साहित्यकारों से मिलता, उनसे अपनी एक पॉकेट डायरी में 'ज़िन्दगी क्या है'--इस विषय पर कुछ लिख देने का आग्रह करता था। एक दिन दिनकरजी के यहाँ से मैं जल्दी छूट गया। मैंने सोचा, क्यों न गंगा चाचा के दर्शन करता चलूँ। दिनकरजी के आवास से गंगा चाचा का घर दस मिनट की  पदयात्रा की  दूरी पर था। मैं उनके पास पहुँचा। वह बड़े स्नेह से मिले। उनके सिरहाने ही कई डिब्बे रखे होते थे, जिनमें  मठरी,मनेर के लड्डू, स्वादिष्ट मिठाइयाँ,तिलकुट आदि होता था। उन्हीं डिब्बों से निकालकर उन्होंने आग्रहपूर्वक मुझे मिठाइयाँ  खिलायीं और ढेरों बातें कीं। फिर मैंने अपनी पॉकेट डायरी निकली और उनके हाथों में देते हुए आग्रह कि  'ज़िन्दगी क्या है', इस पर दो-चार पंक्तियाँ  लिख देने की करें। उन्होंने एक क्षण भी कुछ न सोचा और कलम उठाकर एक शेर मेरी डायरी में लिख दिया--
यक़ीं  मोहकम अमल पैहम, मोहब्बत फ़ातहे आलम,
ज़हादे  ज़िंदगी में हैं यही मर्दों की शमशीरें !
उर्दू-फ़ारसी मिश्रित इस शेर का अर्थ भी उन्होंने मुझे समझाया था--'सब पर विश्वास करो और उस विश्वास को जीवन में उतारो, सारी  दुनिया को जीत लेनेवाला प्रेम अपने अंदर पैदा करो--जीवन-युद्ध में यही मर्दों की तलवारें हैं।'
[क्रमशः]

1 टिप्पणी:

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

साहित्य जगत के इतिहास-पुरुषों के जब ऐसे आत्मीय संस्मरण पढने को मिलते हैं, तो मैं खुद के भाग्य पर इतराने लगती हूं.. :) :)