[दक्षिण की यात्रा से लौटकर--3]
त्रिवेंद्रम से कन्याकुमारी सौ किलोमीटर दूर है। 65-67 किलोमीटर का सफ़र करके हम महाराजाधिराज मार्तण्डवर्मा के राजप्रासाद पहुँचे थे, लेकिन निर्माणाधीन होने के कारण मुख्य मार्ग अवरुद्ध था। हमें राजमार्ग छोड़कर सँकरे, उच्चावच और उबड़-खाबड़ रास्तों से गुज़रना पड़ा, जो भयप्रद भी था। इसमें ख़ासा वक्त बर्बाद हुआ। फिर, राजमहल में हम ऐसे मग्न हुए कि समय का कुछ होश नहीं रहा। अब 33-35 किलोमीटर की दूरी तय करनी थी और हमें भूख भी लग आयी थी। पद्मनाभपुरम् से निकलते ही उडपी का शाकाहारी भोजनालय देखकर हम हर्षित हुए और जमकर वहीं बैठ गए। पेट-पूजा से निवृत्त होकर हम पुनः दौड़ चले कन्याकुमारी की ओर। सूर्यास्त के पहले कन्याकुमारी पहुँचकर और होटल से तरोताज़ा होकर हमें 'सनसेट प्वाइंट' जा पहुँचना था। ग़नीमत थी, अब सड़क अपेक्षया अच्छी थी। हमें दामाद साहब के कार-चालन-कौशल का बड़ा भरोसा भी था, वह द्रुत गति से हमें गन्तव्य की ओर ले चले। लेकिन कार के पहियों को आखिरकार 33-35 किलोमीटर की दूरी को तो नपना ही था और दिन था कि ढलने को अधीर हो रहा था।
मनोरम वन-वीथियों की अनुपम शोभा को निहारते हुए हम क्षिप्रता से चले जा रहे थे। वनों, छोटी-छोटी पहाड़ियों और नद-नदियों के बीच से गुज़रते हुए हम सभी अपूर्व सुख का अनुभव कर रहे थे। सच है, लंबी यात्रा से हम बेहद थक गये थे, क्लांत थे, लेकिन हमारी ऊर्जा, हमारे उत्साह में कमी नहीं थी। हमारे साथ-साथ दायें हाथ घोर गर्जना करता समुद्र दौड़ रहा था और हमारी नस-नाड़ियों में भर रहा था अतीव उछाह। अनूठी सुख-सृष्टि का प्रदेश है केरल-तमिलनाडु! लेकिन 35 किलोमीटर की दूरी तय करते-करते सूर्यास्त का समय लबे-दम हो आया। होटल जाकर तैयार होने का अवकाश न रहा। हमने होटल से डेढ़ किलोमीटर पहले ही कोवलम् के बीच (सनसेट प्वाइंट) पर पहुँचना सुनिश्चित किया। समुद्र के तट पर जा खड़ा होना सचमुच रोमांचक अनुभव था। सनसेट प्वाइंट पर सैलानियों की अपार भीड़ थी, कारों-बसों का लंबा काफ़िला था। अपनी कार को थोड़ी दूरी पर छोड़कर और पद-यात्रा कर हम एक ऊँची शिला पर स्थापित हुए और सूर्यास्त की प्रतीक्षा करने लगे।...
और, थोड़ी ही देर में सूर्य पश्चिमी क्षितिज पर उतर आया, लेकिन जिधर वह अस्त होने चला, वहीं आकाश की किसी अज्ञात अभियांत्रिकी से निकलता गहरे काले धुएँ-सा बादल घनीभूत होता दिखा। ओह, दिवाकर तो बादलों की ओट जा छिपा। कभी किसी कोण से वह झाँकता तो आकाश का नज़ारा बदल जाता, समुद्र के जल की लहराती चूनर धानी हो जाती। आसमान में रंगों की बारिश हो रही थी ... साथ-साथ हमारे मन का रंग भी 'बैनीआहपिनाला' हो रहा था। सभी मुदित मन थे। समुद्री हवाएँ हमारी केश-राशि से खेल रही थीं और हम उनके साथ झूम रहे थे। यही खेल खेलता सूर्य अस्ताचलगामी हुआ, बादलों की ओट धरकर। लेकिन, उस सांध्यकाल में जो कुछ हमने देखा, वह कन्याकुमारी के समुद्र-तट से ही देखना संभव था। सचमुच, वह अद्भुत दृश्य था--अनदेखा, अनजाना दृश्य! हम रोमांचित-पुलकित वहाँ से आगे बढ़े होटल की ओर!
'सी-व्यू' होटल यथानाम तथागुण था, बिल्कुल समुद्र के किनारे। हम पाँचवें माले के अपने कमरे में पहुँचे और कमरे की खिड़कियों तथा बाल्कनी से बाहर का दृश्य देखकर प्रायः चौंक पड़े। अथाह जल-राशि हमारे सामने तरंगित थी। लहरें शीघ्रता से आतीं और तट छूकर लौट जातीं। भारत के मानचित्र को ध्यान में रखते हुए मुझे ऐसी प्रतीति हुई कि मैं देश की पाद-भूमि में एक भवन की पाँचवीं मंजिल पर निपट अकेला खड़ा हूँ और साश्चर्य देख रहा हूँ, क्षिप्र गति से आती हर लहर को, जो आती है और मेरे देश का पाँव पखारकर चली जाती है। मैं निर्निमेष देखता ही रह जाता हूँ लहरों की यह चरण-वंदना! और, यह क्रिया अनवरत होती है--अविराम! अनुभूति का ऐसा रोमांच मैंने पहले कभी महसूस नहीं किया था। सोचता ही रह जाता हूँ, यह वारिधि कैसा विलक्षण भक्त है, जो निरंतर भारत-भूमि के पाँव पखार रहा है, क्षण-भर का विश्राम भी इसे स्वीकार नहीं !...
(क्रमशः)
1-10-2017
[चित्र-परिचय : 1) सूर्यास्त-दर्शन को दौड़ चले हम 2) शिलासीन हुआ मैं 3) दर्शनार्थियों और वाहनों की भीड़ 4) सूर्यदेव को ओट देने आये बादल 5) अलौकिक अभियांत्रिकी से निकलता बादलों का काला धुआँ 6) मैं सपरिवार।
त्रिवेंद्रम से कन्याकुमारी सौ किलोमीटर दूर है। 65-67 किलोमीटर का सफ़र करके हम महाराजाधिराज मार्तण्डवर्मा के राजप्रासाद पहुँचे थे, लेकिन निर्माणाधीन होने के कारण मुख्य मार्ग अवरुद्ध था। हमें राजमार्ग छोड़कर सँकरे, उच्चावच और उबड़-खाबड़ रास्तों से गुज़रना पड़ा, जो भयप्रद भी था। इसमें ख़ासा वक्त बर्बाद हुआ। फिर, राजमहल में हम ऐसे मग्न हुए कि समय का कुछ होश नहीं रहा। अब 33-35 किलोमीटर की दूरी तय करनी थी और हमें भूख भी लग आयी थी। पद्मनाभपुरम् से निकलते ही उडपी का शाकाहारी भोजनालय देखकर हम हर्षित हुए और जमकर वहीं बैठ गए। पेट-पूजा से निवृत्त होकर हम पुनः दौड़ चले कन्याकुमारी की ओर। सूर्यास्त के पहले कन्याकुमारी पहुँचकर और होटल से तरोताज़ा होकर हमें 'सनसेट प्वाइंट' जा पहुँचना था। ग़नीमत थी, अब सड़क अपेक्षया अच्छी थी। हमें दामाद साहब के कार-चालन-कौशल का बड़ा भरोसा भी था, वह द्रुत गति से हमें गन्तव्य की ओर ले चले। लेकिन कार के पहियों को आखिरकार 33-35 किलोमीटर की दूरी को तो नपना ही था और दिन था कि ढलने को अधीर हो रहा था।
मनोरम वन-वीथियों की अनुपम शोभा को निहारते हुए हम क्षिप्रता से चले जा रहे थे। वनों, छोटी-छोटी पहाड़ियों और नद-नदियों के बीच से गुज़रते हुए हम सभी अपूर्व सुख का अनुभव कर रहे थे। सच है, लंबी यात्रा से हम बेहद थक गये थे, क्लांत थे, लेकिन हमारी ऊर्जा, हमारे उत्साह में कमी नहीं थी। हमारे साथ-साथ दायें हाथ घोर गर्जना करता समुद्र दौड़ रहा था और हमारी नस-नाड़ियों में भर रहा था अतीव उछाह। अनूठी सुख-सृष्टि का प्रदेश है केरल-तमिलनाडु! लेकिन 35 किलोमीटर की दूरी तय करते-करते सूर्यास्त का समय लबे-दम हो आया। होटल जाकर तैयार होने का अवकाश न रहा। हमने होटल से डेढ़ किलोमीटर पहले ही कोवलम् के बीच (सनसेट प्वाइंट) पर पहुँचना सुनिश्चित किया। समुद्र के तट पर जा खड़ा होना सचमुच रोमांचक अनुभव था। सनसेट प्वाइंट पर सैलानियों की अपार भीड़ थी, कारों-बसों का लंबा काफ़िला था। अपनी कार को थोड़ी दूरी पर छोड़कर और पद-यात्रा कर हम एक ऊँची शिला पर स्थापित हुए और सूर्यास्त की प्रतीक्षा करने लगे।...
और, थोड़ी ही देर में सूर्य पश्चिमी क्षितिज पर उतर आया, लेकिन जिधर वह अस्त होने चला, वहीं आकाश की किसी अज्ञात अभियांत्रिकी से निकलता गहरे काले धुएँ-सा बादल घनीभूत होता दिखा। ओह, दिवाकर तो बादलों की ओट जा छिपा। कभी किसी कोण से वह झाँकता तो आकाश का नज़ारा बदल जाता, समुद्र के जल की लहराती चूनर धानी हो जाती। आसमान में रंगों की बारिश हो रही थी ... साथ-साथ हमारे मन का रंग भी 'बैनीआहपिनाला' हो रहा था। सभी मुदित मन थे। समुद्री हवाएँ हमारी केश-राशि से खेल रही थीं और हम उनके साथ झूम रहे थे। यही खेल खेलता सूर्य अस्ताचलगामी हुआ, बादलों की ओट धरकर। लेकिन, उस सांध्यकाल में जो कुछ हमने देखा, वह कन्याकुमारी के समुद्र-तट से ही देखना संभव था। सचमुच, वह अद्भुत दृश्य था--अनदेखा, अनजाना दृश्य! हम रोमांचित-पुलकित वहाँ से आगे बढ़े होटल की ओर!
'सी-व्यू' होटल यथानाम तथागुण था, बिल्कुल समुद्र के किनारे। हम पाँचवें माले के अपने कमरे में पहुँचे और कमरे की खिड़कियों तथा बाल्कनी से बाहर का दृश्य देखकर प्रायः चौंक पड़े। अथाह जल-राशि हमारे सामने तरंगित थी। लहरें शीघ्रता से आतीं और तट छूकर लौट जातीं। भारत के मानचित्र को ध्यान में रखते हुए मुझे ऐसी प्रतीति हुई कि मैं देश की पाद-भूमि में एक भवन की पाँचवीं मंजिल पर निपट अकेला खड़ा हूँ और साश्चर्य देख रहा हूँ, क्षिप्र गति से आती हर लहर को, जो आती है और मेरे देश का पाँव पखारकर चली जाती है। मैं निर्निमेष देखता ही रह जाता हूँ लहरों की यह चरण-वंदना! और, यह क्रिया अनवरत होती है--अविराम! अनुभूति का ऐसा रोमांच मैंने पहले कभी महसूस नहीं किया था। सोचता ही रह जाता हूँ, यह वारिधि कैसा विलक्षण भक्त है, जो निरंतर भारत-भूमि के पाँव पखार रहा है, क्षण-भर का विश्राम भी इसे स्वीकार नहीं !...
(क्रमशः)
1-10-2017
[चित्र-परिचय : 1) सूर्यास्त-दर्शन को दौड़ चले हम 2) शिलासीन हुआ मैं 3) दर्शनार्थियों और वाहनों की भीड़ 4) सूर्यदेव को ओट देने आये बादल 5) अलौकिक अभियांत्रिकी से निकलता बादलों का काला धुआँ 6) मैं सपरिवार।
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