शनिवार, 2 अप्रैल 2016

माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेसी...?

कानों सुनी, आँखों देखी... (२)

मेरी बड़ी बुआजी (कमला चौबे) पिताजी से दो वर्ष बड़ी थीं। उनका विवाह शाहाबाद जिले के एक समृद्ध गाँव 'शाहपुरपट्टी' में हुआ था। पटना-बक्सर मुख्य मार्ग पर बसा यह गाँव अपेक्षाकृत अधिक उन्नत ग्राम था। बड़े फूफाजी (देवराज चौबे) ए.जी. ऑफिस, बिहार में आंकेक्षक के पद पर बहाल थे। गाँव में फूफाजी का बड़ा मान-सम्मान था, खेती-बारी थी, धन-धान्य--सब था। उनकी एक ही कन्या संतान थी, जो अल्पायु रही। उन्हें विचित्र ह्रदय रोग था। पांच-छह कदम की दूरी पर खड़ा व्यक्ति उनके दिल की धड़कनें स्पष्ट सुन सकता था। १४-१५ वर्ष की उम्र में उन्होंने जगत से विदा ले ली थी। इसी शोक की छाया में बुआ-फूफाजी का पूरा जीवन व्यतीत हुआ।
तीज-त्योहारों पर पिताजी इलाहाबाद से निकलते और एक ही यात्रा में अपनी दोनों बहनों के घर की परिक्रमा कर आते। पहले छोटी बुआ के घर चनउर, फिर शाहपुरपट्टी। जब बड़ी बुआ की बिटिया १०-११ वर्ष की थीं और हिन्दी पढ़ना-लिखना सीख गयी थीं, तो अपने मामाजी के हिंदी-प्रेम से प्रभावित होकर हिंदी-भजपुरी मिश्रित एक कविता की कुछ पंक्तियाँ वह भी लिख लायीं। घर के आँगन में खड़े एक बेल के पेड़ के नीचे बैठकर उन्होंने अपनी वह कविता लिखी थी। पिताजी के पास पहुंचकर उन्होंने उल्लसित भाव से कहा--'मामा ! हमहूँ एगो कबिता लिखले बानी!' (मामा ! मैंने भी एक कविता लिखी है!)
पिताजी ने कहा--'सुनावS !' (सुनाओ।)
बचपन के उत्साह में लिखी अपनी अधकचरी कविता उन्होंने सुना दी और मामाजी से शाब्बाशी पाकर हँसते हुए घर-भर में दौड़ पड़ीं कि मामाजी ने उनकी कविता की प्रशंसा की है । उसके चार-पांच वर्षों बाद वह दुनिया से चली गयीं। लेकिन पिताजी उनकी कविता की पंक्तियों को कभी भूले नहीं। पिताजी से वह कविता मैंने भी कई-कई बार सुनी थी और वह मेरे स्मृति-कोश में आज भी शब्दशः सुरक्षित है--
"बेल तरे मत जा,
बेल गिरेगा, मूड़ी फुटेगा,
दावा-बीरो के करेगा?
केहू नहीं करेगा, केहू नहीं...!
बेल तरे मत जा... !"
शाहपुरपट्टी में देश-प्रसिद्ध एक साहित्यिक और दिग्गज पत्रकार पंडित पारसनाथ त्रिपाठी का भी निवास था। उन्होंने काशी की पत्रिका 'इंदु' और पटना से निकलनेवाली पत्रिका 'बिहार-बंधु' का संपादन किया था तथा देशरत्न डा. राजेंद्र प्रसाद द्वारा निकली गई पत्रिका 'देश' को नयी ऊर्जा और दिशा दी थी। अपनी युवावस्था के दिनों में पिताजी जब शाहपुरपट्टी जाते तो सहित्यालाप के लोभ से त्रिपाठीजी के पास उनका घंटों का बैठका लगता। पिताजी की और उनकी ताम्बूल-मित्रता गाँव में प्रसिद्धि पा चुकी थी। त्रिपाठीजी उम्र में पिताजी से बहुत बड़े थे, लेकिन प्रचण्ड ताम्बूल-प्रेमी थे। १६ वर्ष की आयु से पिताजी भी पान-प्रणयी हो गए थे और अनेक पत्र-पत्रिकाओं ('चाँद', 'सरस्वती', 'प्रताप' आदि) में उनकी लिखी कविता-कहानियाँ धड़ल्ले से छपने लगी थीं! इलाहाबाद के साहित्यिक माहौल से पिताजी जब बड़ी बहन के गाँव आते तो उस गाँव में एक मात्र त्रिपाठीजी जैसे लब्धप्रतिष्ठ बुज़ुर्ग साहित्यकार के पास बैठना, उनसे बातें करना उन्हें प्रीतिकर लगता। त्रिपाठीजी भी पिताजी से इलाहाबाद की ख़बरें लेते और इन मुलाकातों में पान-तम्बाकू का सेवन तो होता ही, सरौते की धार पर सुपारी कटती ही रहती। वय की असमता उनके बीच व्यवधान न बन सकी थी और दोनों घनिष्ठ बंधन में बंध गए थे। लेकिन त्रिपाठीजी अल्पायु हुए। एक कार दुर्घटना में असमय उनका अवसान हो गया। आज की नयी पीढ़ी तो उनके नाम से भी परिचित नहीं है शायद ! कालान्तर में त्रिपाठीजी के सुपुत्र, नव-गीतों के प्रसिद्ध हस्ताक्षर, (स्व.) विंध्यवासिनी दत्त त्रिपाठी पिताजी के संपर्क में आये और पिताजी के जीवन के अंतिम दिनों तक उनसे जुड़े रहे। पिताजी के निधन पर उन्होंने एक लम्बा आलेख लिखा था--'दस्तावेज़ जो पूरा न हुआ'...!
बाद के दिनों में पिताजी लेखन, नौकरी और घर के अनेक दायित्वों से बँधते चले गए। बड़ी बुआजी के गाँव जाने का अवकाश न निकाल पाते। बड़े फूफाजी ही अपनी नौकरी के सिलसिले में एक शहर से दूसरे शहर आते-जाते रहे और इसी क्रम में, पटना में, मेरे घर भी पधारते। उनके साथ बड़ी बुआजी जब कभी गाँव से सीधे हमारे घर आतीं, तो उनके साथ आता--तीसी का लड्डू, मकई का बना सोंधा उलआ, शुद्ध घी और स्वादिष्ट ठेकुआ! हम बच्चों ने उनका नाम ही रख दिया था--ठेकुआवाली बुआ !
किशोरावस्था की दहलीज़ पार करते-करते मैं बड़ी बुआ के गाँव जाने लगा था। बुआजी के आँचल में वात्सल्य का ख़ज़ाना था। मैं जब वहाँ जाता, वह सारी ममता, सारा स्नेह, प्यार-दुलार उड़ेल देतीं। उनके घर के दही में मक्खन के गोले मिलते थे और मैं उन्हें मुग्ध भाव से चट कर जाता था ! वैसे स्वाद का दही तो फिर जीवन में मिला ही नहीं। गर्मियों के दिन में वहाँ मेरे बड़े मज़े थे। फूफाजी के आम के बगीचे थे और हमारी वहाँ मौज होती थी। ऐसी ही एक दोपहरी में दो बोरियां लेकर मैं फूफाजी के भतीजों के साथ आम के बगीचे में गया था और खोज-खोजकर पके-अधपके आम पेड़ों पर चढ़कर तोड़ रहा था तथा बोरियों में भरता जा रहा था। अचानक ठंडी हवा चलने लगी, फिर काले बादल छा गए। बादल ऐसे कजरारे कि दिन के समय ढल गयी शाम-सा अंधकार छा गया। और, देखते-देखते आंधी-तूफ़ान के साथ तेज बारिश होने लगी! पेड़ों से आम इस तरह पटापट गिरने लगे कि टोली के तमाम बच्चों में उन्हें लूटने की होड़ मच गयी। हमें एक तरफ बींध देनेवाली बारिश की बूँदों से बचना था, तो दूसरी तरफ भदाभद्द गिरनेवाले आमों से सिर और शरीर की रक्षा करनी थी। वह अद्भुत नज़ारा था। वैसी भीषण वर्षा फिर नहीं देखी और वैसा उल्लास फिर जीवन में नहीं मिला।
उधर, घर पर, बड़ी बुआजी का हाल बेहाल था। वह मेरी चिंता में व्याकुल-विह्वल हो उठी थीं। लेकिन, जब वर्षा के जल से तर-ब-तर मैं आम से भरी दो-दो बोरियाँ लेकर घर पर नमूदार हुआ, तो वह संयत और हर्षोन्मत्त हो उठीं, कहने लगीं--'हमार जन अइले सS... हमरो दुअरा आपन गाछ के आम आइल बा, देख सS रे। (मेरे अपने आये हैं... मेरे दरवाज़े पर अपने वृक्ष के आम आये हैं, देख लो सब !) दरअसल, इन वाक्यों में बुआजी की आतंरिक पीड़ा मुखर हो उठी थी। बुआ के पुत्र-कलत्र विहीन घर में ऐसे अवसर कम ही आते होंगे, जब कोई पुत्रवत प्रेम से उन्हीं की सम्पदा में से किञ्चित अंश उनके लिए लाया हो...! वर्षा की उन अजस्र-असहनीय बूँदों और आम्र-वर्षा के साथ बुआजी का उल्लासमय उद्गार मैं कभी भूला नहीं...।
बात उन दिनों की है, जब मैं बी.कॉम. के प्रथम वर्ष का छात्र था। वह सन १९७१ का साल था। शाहपुरपट्टी से पिताजी के नाम तार आया था, जिसे पढ़कर पिताजी तत्काल बुआजी के गाँव चले गए थे। मैं कॉलेज से लौटा तो ज्ञात हुआ कि बुआजी बहुत बीमार हैं। १ फ़रवरी १९७१ को अपने अभिन्न मित्र बच्चनजी को लिखे एक पत्र में पिताजी ने बुआजी के अस्वस्थ होने की सूचना देते हुए मार्मिक शब्दों में लिखा था--"... बड़े बहनोई का तार मिला। बड़ी बहन मरणासन्न थीं। मुझे बुलाया था। ... दूसरे दिन मैं बहन के गाँव पहुंचा। उन्हें गठिया के लिए 'ईगापयरिन' का इंजेक्शन दिया गया था। वह रिएक्ट कर गया। बिलकुल बाबूजी वाली हालत हो गई। सारा बदन फूट आया था। साँस में कष्ट, गले से जल निगलने में असमर्थता, फोड़ों में जलन, बेचैनी, रात-दिन की तड़प ! लेकिन अभी समय नहीं आया था। सँभल गयी हैं। १०-१५ दिनों की असह्य पीड़ा के बाद अब हालत सुधर रही है, यद्यपि अब भी काफी कष्ट है। वे निःसंतान हैं, ईश्वर की इच्छा...!" [संयोग से बच्चनजी को लिखे पिताजी के उस पत्र की एक फोटोकॉपी मेरी मंजूषा में सुरक्षित है। पिताजी ने कुछ विशिष्ट दस्तावेज़ लिखने की योजना के अंतर्गत इस पत्र को आधार-सामग्री के रूप में उनसे वापस भेज देने का आग्रह किया था। पिताजी की लिखी इन पंक्तियों के नीचे एक अधोरेखा खींचकर यह पत्र इस टिप्पणी के साथ बच्चनजी ने लौटा दिया था : "मेरे पत्र के साथ यह पत्र वापस कर देना। अपना 'यज्ञ' पूरा करने को मुझे तुम्हारा आशीष चाहिए।" --बच्चन.]
बहरहाल, पिताजी दो दिन बाद गाँव से लौटे तो बहुत दुखी-चिंतित थे। उन्होंने मुझसे कहा था--"वहाँ, गांव में, मीठे संतरे नहीं मिलते। यहां से एक छोटी टोकरी में संतरे और 'एंटीबैक्ट्रिन' (घाव के लिए आजमाई हुई एक औषधि) की छह शीशियाँ लेकर तुम कल ही शाहपुरपट्टी चले जाओ। संभव है, इस दवा से बहिनियाँ को आराम मिले। वे बहुत कष्ट में हैं।"
जैसा पिताजी ने कहा था, औषधि और संतरे लेकर मैं बुआजी के गाँव पहुँचा और उनकी दीन-दुर्वह दशा देखकर सिहर उठा। मुझे देखकर खिल पड़नेवाली बड़ी बुआजी पलँग पर अवश लेटी हुई थीं। उनके होठों पर हल्की-सी मुस्कान भी न आई, बस, गहन पीड़ा की ऐंठन उपजकर रह गयी । मुझे रात वहीं रुकना था और दूसरे दिन पटना लौट आना था; क्योंकि कॉलेज खुला हुआ था। बुआ की हालत देखकर लौटने का मन न होता था, लेकिन मजबूरी थी। फूफाजी बड़े कर्मठ और दृढ़प्रतिज्ञ व्यक्ति थे, उन्होंने मुझे कातर होता देख समझाया--"तूँ कतना दिन रुकबS ? इनका ठीक भइला में तS ढेर दिन लागी। आपन पढ़इया के नोकसान मत करS, समय लेइये के तोहार बुआजी नीमन होइहें।" (तुम कितने दिन रुकोगे? इन्हें ठीक होने में तो बहुत दिन लगेंगे। अपनी पढाई का नुकसान मत करो, समय लेकर ही तुम्हारी बुआजी अच्छी होंगी।) मैंने उनकी बात मान ली थी और तय पाया था कि कल सुबह के जलपान के बाद पटना लौट जाऊँगा। शाम में मैंने बुआजी के हाथ-पाँव और मस्तक पर पटना से लाया हुआ औषध का लेप किया था।
दूसरे दिन सुबह स्नान-ध्यान के लिए फूफाजी के साथ उनके खेतों पर गया, जहाँ बोरिंग का पर्याप्त जल उपलब्ध था। वहाँ से लौटने में थोड़ा अधिक वक़्त हो गया--सुबह के १० बजे का वक़्त! घर पहुंचते ही मैं फूफाजी के साथ बुआ के कमरे में प्रविष्ट हुआ। मुझे वहाँ आये हुए २०-२२ घंटे हो चुके थे, लेकिन बुआजी के मुँह से निकला एक भी शब्द मैंने नहीं सुना था। लेकिन, सुबह जैसे ही हमने उनके कमरे में पाँव रखा और बुआजी की दृष्टि फूफाजी पर पड़ी, उनके मुख से बहुत आर्त्त और मंद स्वर फूटा--"ए जी, मुँहवाँ में कुछु लौनीं जी?" (अर्थात, ए जी, आपने कुछ खाया कि नहीं। )
उनका यह वाक्य सुनकर मेरी तो आत्मा सिहर उठी, कलेजा काँपकर रह गया। पति-परायणा जो स्त्री नितांत अशक्तता की दशा में हो, जिसका पूरा शरीर घाव के कारण अंगारों की तरह दहक रहा हो, जो अपने हाथ-पाँव भी हिला-डुला पाने में असमर्थ हो, जिसे एक शब्द भी बोलने के लिए अपनी सम्पूर्ण प्राण-चेतना को समेटना पड़ता हो; उसके मन में यही चिंता घूर्णित होती रहे कि पतिदेव ने कुछ खाया या नहीं--यह अनुभव अद्वितीय था, हृदयद्रावक था--पीड़ा की पराकाष्ठा पर काँपता हुआ क्षीण वाक्य...।
दूसरे दिन मैं पटना लौट आया और तीसरे दिन बुआ के गाँव से एक और तार आया--'Kamla expired last night--Devraj.' यह समाचार पाकर पूरा घर शोकमग्न हुआ, अवसन्न रह गया। मेरे कानों में तो बस, गूंजता ही रह गया उनका एकमात्र वाक्य--"ए जी, मुँहवाँ में कुछु लौनीं जी?" इस वाक्य की धमक मुझे आज भी सुनाई पड़ती है कभी-कभी...!
(--आनंदवर्धन ओझा)
[चित्र : बड़े फूफाजी पं. देवराज चौबे, एवं स्नेहमयी बड़ी बुआजी श्रीमती कमला चौबे और पड़ोस की एक बच्ची]

2 टिप्‍पणियां:

ब्लॉग बुलेटिन ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " सरकार, प्रगति और ई-गवर्नेंस " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

Asha Joglekar ने कहा…

ह्रदयस्पर्शी।